चौदह मासूमीन अलैहिमुस्सलाम

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चौदह मासूमीन अलैहिमुस्सलाम कैटिगिरी: विभिन्न

चौदह मासूमीन अलैहिमुस्सलाम

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चौदह मासूमीन अलैहिमुस्सलाम
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चौदह मासूमीन अलैहिमुस्सलाम

चौदह मासूमीन अलैहिमुस्सलाम

हिंदी

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हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम का जीवन परिचय

नाम व लक़ब (उपाधी)

हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम का नाम अली व आपकी मुख्य उपाधि रिज़ा है।

माता पिता

हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम के पिता हज़रत इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम व आपकी माता हज़रत नजमा थीं। आपकी माता को समाना ,तुकतम ,व ताहिराह भी कहा जाता था।

जन्म तिथि व जन्म स्थान

हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम का जन्म सन् 148 हिजरी क़मरी मे ज़ीक़ादाह मास की ग्यारहवी तिथि को पवित्र शहर मदीने मे हुआ था।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के ज़माने के राजनीतिक हालात का वर्णन

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की इमामत वाला जीवन बीस साल का था जिसको हम तीन भागों में बांट सकते हैं।

1.पहले दस साल हारून के ज़माने में

2.दूसरे पाँच साल अमीन की ख़िलाफ़त के ज़माने में

3.आपकी इमामत के अन्तिम पाँच साल मामून की ख़िलाफ़त के साथ थे।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का कुछ जीवन हारून रशीद की ख़िलाफ़त के साथ था ,इसी ज़माने में अपकी पिता इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की शहादत हुई ,इस ज़माने में हारून शहीद को बहुत अधिक भड़काया गया ताकि इमाम रज़ा को वह क़त्ल कर दे और अन्त में उसने आपको क़त्ल करने का मन बना लिया ,लेकिन वह अपने जीवन में यह कार्य नहीं कर सका ,हारून शरीद के निधन के बाद उसका बेटा अमीन ख़लीफ़ा हुआ ,लेकिन चूँकि हारून की अभी अभी मौत हुई थी और अमीन स्वंय सदैव शराब और शबाब में लगा रहता था इसलिए हुकुमत अस्थिर हो गई थी और इसीलिए वह और सरकारी अमला इमाम पर अधिक ध्यान नहीं दे सका ,इसी कारण हम यह कह सकते हैं कि इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के जीवन का यह दौर काफ़ी हद तक शांतिपूर्ण था।

लेकिन अन्तः मामून ने अपने भाई अमीन की हत्या कर दी और स्वंय ख़लीफ़ा बन बैठा और उसने विद्रोहियों का दमन करके इस्लामी देशों के कोने कोने में अपना अदेश चला दिया ,उसने इराक़ की हुकूमत को अपने एक गवर्नर के हवाले की और स्वंय मर्व में आकर रहने लगा ,और राजनीति में दक्ष फ़ज़्ल बिन सहल को अपना वज़ीर और सलाहकार बनाया।

लेकिन अलवी शिया उसकी हुकूमत के लिए एक बहुत बड़ा ख़तरा थे क्योंकि वह अहलेबैत के परिवार वालों को ख़िलाफ़त का वास्तविक हक़दार मसझते थे और ,सालों यातना ,हत्या पीड़ा सहने के बाद अब हुकूमत की कमज़ोरी के कारण इस स्थिति में थे कि वह हुकूमत के विरुद्ध उठ खड़े हों और अब्बासी हुकूमत का तख़्ता पलट दें और यह इसमें काफ़ी हद तक कामियाब भी रहे थे ,और इसकी सबसे बड़ी दलील यह है कि जिस भी स्थान से अलवी विद्रोह करते थे वहां की जनता उनका साथ देती थी और वह भी हुकूमत के विरुद्ध उठ खड़ी होती थी। और यह दिखा रहा था कि उस समय की जनता हुकूमत के अत्याचारों से कितनी त्रस्त थी।

और चूँकि मामून ने इस ख़तरे को भांप लिया था इसलिए उसने अलवियों के इस ख़तरे से निपटने के लिए और हुकूमत को कमज़ोर करने वालों कारणों से निपटने के लिये कदम उठाने का संकल्प लिया उसने सोच लिया था कि अपनी हुकूमत को शक्तिशाली करेगा और इसीलिये उसने अवी वज़ीर फ़ज़्ल से सलाह ली और फ़ैसला किया कि अब धोखे बाज़ी से काम लेगा ,उसने तै किया कि ख़िलाफ़ को इमाम रज़ा को देने का आहवान करेगा और ख़ुद ख़िलाफ़त से अलग हो जाएगा।

उसको पता था कि ख़िलाफ़ इमाम रज़ा के दिये जाने का आहवान का दो में से कोई एक नतीजा अवश्य निकलेगा ,या इमाम ख़िलाफ़त स्वीकार कर लेंगे ,या स्वीकार नहीं करेंगे ,और दोनों सूरतों में उसकी और अब्बासियों की ख़िलाफ़त की जीत होगी।

क्योंकि अगर इमाम ने स्वीकार कर लिया तो मामून की शर्त के अनुसार वह इमाम का वलीअह्द या उत्तराधिकारी होता ,और यह उसकी ख़िलाफ़त की वैधता की निशानी होता और इमाम के बाद उसकी ख़िलाफ़त को सभी को स्वीकार करना होता। और यह स्पष्ट है कि जब वह इमाम का उत्तराधिकारी हो जाता तो वह इमाम को रास्ते से हटा देता और शरई एवं क़ानूनी तौर पर हुकूमत फिर उसको मिल जाती ,और इस सूरत में अलवी और शिया लोग उसकी हुकूमत को शरई एवं क़ानूनी समझते और उसको इमाम के ख़लीफ़ा के तौर पर स्वीकार कर लेते ,और दूसरी तरफ़ चूँकि लोग यह देखते कि यह हुकूमत इमाम की तरफ़ से वैध है इसलिये जो भी इसके विरुद्ध उठता उसकी वैधता समाप्त हो जाती।

उसने सोंच लिया था (और उसको पता था कि इमाम को उसकी चालों के बारे में पता होगा) कि अगर इमाम ने ख़िलाफ़त के स्वीकार नहीं किया तो वह इमाम को अपना उत्तराधिकारी बनने पर विवश कर देगा ,और इस सूरत में भी यह कार्य शियों की नज़रों में उसकी हुकूमत के लिए औचित्य बन जाएगा ,और फ़िर अब्बासियों द्वारा ख़िलाफ़त को छीनने के बहाने से होने वाले एतेराज़ और विद्रोह समाप्त हो जाएगे ,और फिर किसी विद्रोही का लोग साथ नहीं देंगे।

और दूसरी तरफ़ उत्तराधिकारी बनाने के बाद वह इमाम को अपनी नज़रों के सामने रख सकता था और इमाम या उनके शियों की तरफ़ से होने वाले किसी भी विद्रोह का दमन कर सकता था ,और उसने यह भी सोंच रखा थी कि जब इमाम ख़िलाफ़त को लेने से इन्कार कर देंगे तो शिया और उसने दूसरे अनुयायी उनके इस कार्य की निंदा करेंगे और इस प्रकार दोस्तों और शियों के बीच उनका सम्मान कम हो जाएगा।

मामून ने सारे कार्य किये ताकि अपनी हुकूमत को वैध दर्शा सके और लोगों के विद्रोहों का दमन कर सके ,और लोगों के बीच इमाम और इमामत के स्थान को नीचा कर सके लेकिन कहते हैं न कि अगर इन्सान सूरज की तरफ़ थूकने का प्रयत्न करता है तो वह स्वंय उसके मुंह पर ही गिरता है और यही मामून के साथ हुआ ,इमाम ने विवशता में उत्तराधिकारी बनना स्वीकार तो कर लिया लेकिन यह कह दिया कि मैं हुकूमत के किसी कार्य में दख़ल नहीं दूँगा ,और इस प्रकार लोगों को बता दिया कि मैं उत्तराधिकारी मजबूरी में बना हूँ वरना अगर मैं सच्चा उत्तराधिकारी होता तो हुकूमत के कार्यों में हस्तक्षेप भी अवश्य करता। और इस प्रकार मामून की सारी चालें धरी की धरी रह गईं

हज़रत इमाम रिज़ा की ईरान यात्रा

अब्बासी खलीफ़ा हारून रशीद के समय मे उसका बेटा मामून रशीद खुरासान(ईरान) नामक प्रान्त का गवर्नर था। अपने पिता की मृत्यु के बाद उसने अपने भाई अमीन से खिलाफ़त पद हेतु युद्ध किया जिसमे अमीन की मृत्यु हो गयी। अतः मामून ने खिलाफ़त पद प्राप्त किया व अपनी राजधीनी को बग़दाद से मरू (ईरान का एक पुराना शहर) मे स्थान्तरित किया। खिलाफ़त पद पर आसीन होने के बाद मामून के सम्मुख दो समस्याऐं थी। एक तो यह कि उसके दरबार मे कोई उच्च कोटी का आध्यात्मिक विद्वान न था। दूसरी समस्या यह थी कि मुख्य रूप से हज़रत अली के अनुयायी शासन की बाग डोर इमाम के हाथों मे सौंपने का प्रयास कर रहे थे ,जिनको रोकना उसके लिए आवश्यक था। अतः उसने इन दोनो समस्याओं के समाधान हेतू बल पूर्वक हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम को मदीने से मरू (ईरान ) बुला लिया। तथा घोषणा की कि मेरे बाद हज़रत इमाम रिज़ा मेरे उत्तरा धिकारी के रूप मे शासक होंगे। इससे मामून का अभिप्राय यह था कि हज़रत इमाम रिज़ा के रूप मे संसार के सर्व श्रेष्ठ विद्वान के अस्तित्व से उसका दरबार शुशोभित होगा। तथा दूसरे यह कि इमाम के उत्तराधिकारी होने की घोषणा से शियों का खिलाफ़त आन्दोलन लगभग समाप्त हो जायेगा या धीमा पड़ जायेगा।

इमाम रज़ा अ.स. ने मामून की वली अहदी क्यु क़ुबूल की ?

अकसर लोगों के दरमियान सवाल उठता है कि अगर अब्बासी खि़लाफ़त एक ग़ासिब हुकूमत थी तो आखि़र हमारे आठवें इमाम ने इस हुकूमत में मामून रशीद ख़लिफ़ा की वली अहदी या या उत्तरधिकारिता क्यूं कु़बूल की ?

इस सवाल के जवाब में हम यहां चन्द बातें पेश करतें हैं कि जिनके पढ़ने के बाद हमारे सामने यह बातें इस तरह साफ़ हो जायेगी जैसे हाथ की पांच उंगलियों की गिनती ।

जनाब मेहदी पेशवाई अपनी किताब सीमाये पीशवायान में इमाम रज़ा के मामून के उत्तराधिकारी बनने के कारण इस तरह लिखते हैः

1.इमाम रज़ा ने मामून के उत्तराधिकारी बनने को उस समय कु़बूल किया कि जब देखा कि अगर आप मामून की बात न मानेंगे तो ख़ुद अपनी जान से भी हाथ धो बैठेगें और साथ ही साथ शियों की जान भी ख़तरे में पड़ जायेगी अब इमाम ने अपने उपर लाज़िम समझा कि ख़तरे को ख़ुद और अपने शियों से दूर करे।

2.इमाम रज़ा का उत्तराधिकारी बनाया जाना भी एक तरह से अब्बासियों का यह मानना भी था कि अलवी (शिया) भी हुकूमत में एक बड़ा हिस्सा रखते हैं।

3.उत्तराधिकारीता क़ुबूल करने की दलीलों में से एक यह भी है लोग ख़ानदाने पैग़म्बर को सियासत के मैदान में हाज़िर समझे और यह गुमान न करे कि ख़ानदानें पैग़म्बर सिर्फ़ उलेमा व फ़ोक़हा है और यह लोग सियासत के मैदान में बिल्कुल नहीं है।

शायद इमाम रज़ा ने इब्ने अरफ़ा के सवाल के जवाब में इसी मतलब की तरफ़ इशारा किया है कि जब इब्ने अरफ़ा ने इमाम से पूछा कि ऐ रसूले ख़ुदा के बेटे आप किस कारण से मामून के उत्तराधिकारी बनें ?

तो इमाम ने जवाब दियाः उसी कारण से कि जिसने मेरे जद अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) को शूरा में दाखि़ल किया था।

4.इमाम ने अपने उत्तराधिकारीता के दिनों में मामून का असली चेहरा तमाम लोगों के सामने बेनक़ाब कर दिया था और उसकी नियत व मक़सद को उन कामों से कि जिन्हें वो अन्जाम दे रहा था ,सब के सामने ला कर लोगों के दिलों से हर शक व शुब्हे को निकाल दिया था। (सीमाये पीशवायान)

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम और ईद की नमाज़

मामून ने इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम से ईद की नमाज़ पढ़ाने के लिए कहा। इसके पीछे मामून का लक्ष्य यह था कि लोग इमाम रज़ा के महत्व को पहचानें और उनके दिल शांत हो जायें परंतु आरंभ में इमाम ने ईद की नमाज़ पढ़ाने हेतु मामून की बात स्वीकार नहीं की पंरतु जब मामून ने बहुत अधिक आग्रह किया तो इमाम ने उसकी बात एक शर्त के साथ स्वीकार कर ली। इमाम की शर्त यह थी कि वह पैग़म्बरे इस्लाम और हज़रत अली अलैहिस्सलाम की शैली में ईद की नमाज़ पढ़ायेंगे। मामून ने भी इमाम के उत्तर में कहा कि आप स्वतंत्र हैं आप जिस तरह से चाहें नमाज़ पढ़ा सकते हैं।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने पैग़म्बरे इस्लाम की भांति नंगे पैर घर से बाहर निकले और उनके हाथ में छड़ी थी। जब मामून के सैनिकों एवं प्रमुखों ने देखा कि इमाम नंगे पैर पूरी विनम्रता के साथ घर से बाहर निकले हैं तो वे भी घोड़े से उतर गये और जूतों को उतार कर वे भी नंगे पैर हो गये और इमाम के पीछे पीछे चलने लगे। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम हर १० क़दम पर रुक कर तीन बार अल्लाहो अकबर कहते थे। इमाम के साथ दूसरे लोग भी तीन बार अल्लाहो अकबर की तकबीर कहते थे। मामून इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के इस रोब व वैभव को देखकर डर गया और उसने इमाम को ईद की नमाज़ पढ़ाने से रोक दिया। इस प्रकार वह स्वयं अपमानित हो गया।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का ज्ञान

मामून जो कि इमाम की तरफ़ लोगो की बढ़ती हुई मोहब्बत और लोगों के बीच आपके सम्मान को देख रहा था और आपके इस सम्मान को कम करने और लोगों के प्रेम में ख़लल डालने के लिए उसने बहुत से कार्य किये और उन्हीं कार्यों में से एक इमाम रज़ा और विभिन्न विषयों के ज्ञानियों के बीच मुनाज़ेरा और इल्मी बहसों की बैठकों का जायोजन है ,ताकि यह लोग इमाम से बहस करें और अगर वह किसी भी प्रकार से इमाम को अपनी बातों से हरा दें तो यह मामून की बहुत बड़ी जीत होगी और इस प्रकार लोगों के बीच आपकी बढ़ती हुई लोकप्रियता को कम किया जा सकता था ,इस लेख में हम आपके सामने इन्हीं बैठकों में से एक के बारे में बयान करेंगे और इमाम रज़ा (अ) के उच्च कोटि के ज्ञान को आपके सामने प्रस्तुत करेंगे।

मामून ने एक मुनाज़रे के लिए अपने वज़ीर फ़ज़्ल बिन सहल को आदेश दिया कि संसार के कोने कोने से कलाम और हिकमत के विद्वानों को एकत्र किया जाए ताकि वह इमाम से बहस करें।

फ़ज़्ल ने यहूदियों के सबसे बड़े विद्वान उसक़ुफ़ आज़मे नसारी ,सबईयों ज़रतुश्तियों के विद्वान और दूसरे मुतकल्लिमों को निमंत्रण भेजा ,मामून ने इस सबको अपने दरबार में बुलाया और उनसे कहाः “मैं चाहता हूँ कि आप लोग मेरे चचा ज़ाद (मामून पैग़म्बरे इस्लाम के चचा अब्बास की नस्ल से था जिस कारण वह इमाम रज़ा (अ) को अपना चचाज़ाद कहता था) से जो मदीने आया है बहस करो। “

दूसरे दिन बैठक आयोजित की गई और एक व्यक्ति को इमाम रज़ा (अ) को बुलाने के लिये भेजा ,आपने उसके निमंत्रण को स्वीकार कर लिया और उस व्यक्ति से कहाः “क्या जानना चाहते को कि मामून अपने इस कार्य पर कब लज्जित होगा “ ?उसने कहाः हाँ। इमाम ने फ़रमायाः “जब मैं तौरैत के मानने वालों को तौरैत से इंजील के मानने वालों को इंजील से ज़बूर के मानने वालों को ज़बूर से साबईयों को उनकी भाषा में ज़रतुश्तियों को फ़ारसी भाषा में और रूमियों को उनकी भाषा में उत्तर दूँगा ,और जब वह देखेगा कि मैं हर एक की बात को ग़लत साबित करूंगा और सब मेरी बात मान लेंगे उस समय मामून को समझ में आएगा कि वह जो कार्य करना चाहता है वह उसके बस की बात नहीं है और वह लज्जित होगा ” ।

फिर आप मामून की बैठक में पहुँचे ,मामून ने आपका सबसे परिचय कराया और फिर कहने लगाः “मैं चाहता हूँ कि आप लोग इनसे इल्मी बहस करें ” ,आपने भी उस तमाम लोगों को उनकी ही किताबों से उत्तर दिया ,फिर आपने फ़रमायाः “अगर तुम में से कोई इस्लाम का विरोधी है तो वह बिना झिझक प्रश्न कर सकता है ” । इमरान साबी जो कि एक मुतकल्लिम था उसने इमाम से बहुत से प्रश्न किये और आपने उसे हर प्रश्न का उत्तर दिया और उसको लाजवाब कर दिया ,उसने जब इमाम से अपने प्रश्नों का उत्तर सुना तो वह कलमा पढ़ने लगा और इस्लाम स्वीकार कर लिया ,और इस प्रकार इमाम की जीत के साथ बैठक समाप्त हुई।

रजा इब्ने ज़हाक जो मामून की तरफ़ से इमाम को मदीने से मर्व की तरफ़ जाने के लिये नियुक्त था कहता हैः “इमाम किसी भी शहर में प्रवेश नहीं करते थे मगर यह कि लोग हर तरफ़ से आपकी तरफ़ दौड़ते थे और अपने दीनी मसअलों को इमाम से पूछते थे ,आप भी लोगों को उत्तर देते थे ,और पैग़म्बर की बहुत सी हदीसों को बयान फ़रमाते थे ” । वह कहता है कि जब मैं इस यात्रा से वापस आया और मामून के पास पहुंचा तो उसने इस यात्रा में इमाम के व्यवहार के बारे में प्रश्न किया मैंने जो कुछ देखा था उसको बता दिया। तो मामून कहता हैः “हां हे ज़हाक के बेटे ,आप (इमाम रज़ा) ज़मीन पर बसने वाले लोगों में सबसे बेहतरीन ,सबसे ज्ञानी और इबादत करने वाले हैं ” ।

हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) के कथन

१. जब लोग नये नये गुनाहों का इरतेकाब (करना) शुरू कर देंगे तो ख़ुदावन्दे आलम (ईशवर) भी उन्हें नई नई बलाओं (आपत्तियों) में मुबतला करेगा (डालेगा) ।

२. माँ बाप को मोहब्बत भरी निगाहों से देखना इबादत (तपस्या) है।

३. ख़ुशबख़्त वह शख़्स है जो दूसरों की सरगुज़श्त (गुज़रा हुआ) से इब्रत (वह मानसिक खेद जो किसी आदमी को बुरी अवस्था में देखकर होता है) हासिल करे।

४. तुम्हारे अच्छे काम वह हैं जो आख़ेरत (परलोक) को सँवारें।

५. बेहतरीन कारे ख़ैर (अच्छा कार्य) वह है जो दाएमी (हमेशा) हो अगरचे कम हो।

६. जो किसी हाजत मन्द (माँगने वालों) की हाजत रवा (पूरा) करे ख़ुदावन्दे आलम उसके दुनिया व आख़ेरत (परलोक) दोनों आसान करेगा।

७. नेक ओमूर (अच्छे काम) में जल्दी करो ताकि कामयाब रहो (याद रखो) नेक कामों से उम्र (आयु) में बरकत होती है।

८. जो बुज़ुर्गों का एहतेराम (आदर) और ख़ुर्दों (छोटो) पर रहम न करे वह मुझ से नहीं।

९. बख़ील (कंजूस) लोगों की हमनशीनी (संगत) मत इख़्तेयार (ग्रहण) करो क्योंकि जब तुम उनके मोहताज होगे (तो) वह तुम से दूर भागेगा।

१०. जो तकब्बुर (घमण्ड) करेगा वह बेतुका फ़ख़्र करेगा उसे ज़िल्लत के सिवा कुछ और हासिल न होगा।

११. अपने राज़ को सिर्फ़ क़ाबिले ऐतमाद (भरोसेमन्द) लोगों से बताओ।

१२. इल्म से बेहतर कोई ख़ज़ाना नहीं और बुर्दबारी से बेहतर कोई इज़्ज़त नहीं।

१३. अपने दोस्तों और दुश्मनों सबके मामेलात में इन्साफ़ (न्याय) का ख़्याल ज़रूर रखना।

१४. नेक काम अन्जाम दो ताकि क़यामत के दिन नेक जज़ा (इनाम) मिले ।

१५. दुनिया की गुज़रगाह से अपने दाएमी घर (आख़ेरत)के लिए तोशा (सामग्री) लेते चलो ।

१६. किसी भी काम के लिए अव्वले वक़्त नमाज़ तर्क ना करो।

१७. जो अक़्लमन्दों से मश्विरा (परामर्श) करता है गुमराह (ईश्वरीय मार्ग से भटकना) नहीं होता।

१८. ख़ुदावन्दे आलम (ईश्वर) नें गुनाहों (पापों) और बुराईयों पर क़ुफ़्ल (तालें) लगा दिये हैं और उनकी कुँजी शराब और झूट उससे भी बदतर है ।

१९. ख़ानदान वालों से राब्ता (सम्बन्ध) हमेशा (सदैव) ताज़ा रख़ो अगरचे सिर्फ़ सलाम ही से हो ।

२०. माँ बाप को नाराज़ करने से उम्र (आयु) कोताह (कम) हो जाती है ।

२१. कभी अपने दीनी भाई से जेदाल (लड़ाई) या (हद से ज़्यादा) मेज़ाह (मज़ाक़) न करो और उनसे झूठे वादे मत करो ।

२२. नियाज़ मन्दी और हाजत (ऐसी बला है कि) होशियार से होशियार आदमी को भी दलील व बुर्हान (सुबूत) से रोक देती है ।

२३. अमानत (धरोहर) को अपने मालिक की तरफ़ वापिस करो चाहे वो नेक हो या बद ।

२४. हमेंशा अपनी ज़बान और अपनें हाथों से अम्र बिल मारूफ़ (अच्छाई का आदेश) व नहीं अनिल मुन्कर (बुराई से रोकना) करते रहो और अपने छोटे से छोटे गुनाह (पाप) कम ना समझो ।

२५. आज जबकि तुम्हारा क़द व क़ामत सलामत ,ख़ून गर्म और दिल बेदार हे तो आने वाली सख़्तियों के लिए ख़ूब फ़िक्र (सोच विचार) कर लो ।

२६. अच्छे अख़्लाक़ वाला इन्सान वह है जिससे किसी का दिल न दुखा हो ।

२७. हर शख़्स का दोस्त उसका इल्म (ज्ञान) है दुश्मन उसकी जेहालत (अज्ञानता) ।

२८. मुझे वह दस्तरख़्वान पसन्द नहीं जिस पर सब्ज़ी न हो ।

२९. जो ज़ुबान से अस्तग़फ़ार (प्रायश्चित) करे और दिल से अपने गुनाहों से पशेमान (शर्मिन्दगी) न हो वह गोया अपने साथ मज़ाक़ कर रहा है ।

३०. ज़रुरी है कि तुम हमेशा मोहज़्जब (सभ्य) लोगों से इरतेबात (सम्बन्ध) रखो ।

३१. ज़माना तुम्हारी ज़िन्दगी की डायरी है इसलिए इसमें नेक आमाल (अच्छे कार्य) दर्ज करो (लिखो)।

३२. आलिम (ज्ञानी) मरने के बाद (म्रत्यु पश्चात) भी ज़िन्दा (जिवित) रहता है जाहिल (अज्ञानी) ज़िन्दगी ही में मुर्दा है।

३३. बुरे कामों से बचना नेक कामों की अन्जाम देही (के करने) से बेहतर है।

३४. जब तक भूक न हो दस्तरख़ान पर मत बैठो और शिकम (पेट) सेर होने (भरने) से पहले दस्तरख़ान छोड़ दो।

३५. बीमारों को जब उनका दिल माएल (मन न चाहे) न हो ज़बर्दस्ती ग़िज़ा (खाना) मत दो।

३६. मसर्रत (ख़ुशी) व शादमानी तीन चीज़ों से हासिल होती है ,1.मुवाफ़िक़ शरीके हयात (अपने मिजाज़ की पत्नि) ,2.नेक औलाद ,3.अच्छे दोस्त।

३७. आरज़ू (इच्छा) ख़त्म होने वाली चीज़ नहीं और मौत को भी भुलाये रखती है।

३८. सूद बदतरीन महसूल (जो प्राप्त हुआ हो) है और माले यतीम (जिसके पिता न हों) खाना बदतरीन ग़िज़ा है।

३९. ख़ुदावन्दे आलम सख़ी (बाँटने वाला) है और सख़ी (ईशवरीय इच्छा हेतु बाँटना) को पसन्द करता है।

४०. वाजेबात (जो कार्य ईशवर हेतु अवश्य करना होता है) के बाद ख़ुदावन्दे आलम के नज़दीक़ बेहतरीन काम लोगों को मसर्रत (ख़ुश करना) पहुँचाना है।

शहादत (स्वर्गवास)

हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम की शहादत सन् 203 हिजरी क़मरी मे सफर मास की अन्तिम तिथि को हुई। जिस दिन इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम शहीद होने वाले थे उस दिन उन्होंने सुबह की नमाज़ नए वस्त्र पहन कर पढ़ी और उसी स्थान पर बैठे रहे मानो उन्हे किसी अप्रिय घटना के होने का आभास हो गया था। उस दिन उनका चेहरा हर दिन से अधिक दमक रहा था। उनकी आंखे ईश्वर के प्रति अथाह श्रृद्धा का पता दे रही थीं कि अचानक मामून का संदेशवाहक घर के द्वार पर पहुंचा और उसने कहा कि मामून ख़लीफ़ा ने अबुल हसन को बुलाया है।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम उसके साथ चल पड़े। मामून इमाम के स्वागत के लिए निकला और इमाम को अपने विशेष स्थान की ओर ले गया और दोनों लोग आमने सामने बैठ गए किन्तु मामून की आंखें कुछ और ही कह रहीं थीं। उसकी दुस्साहस भरी दृष्टि इस बात का पता दे रही थी कि वह इस समय क्या करना चाह रहा है। मामून जानता था कि उसके समस्त हत्कण्डे ,इमाम के प्रति लोगों की श्रृद्धा को न कम कर सके और न ही उसकी सरकार के लिए लाभदायक सिद्ध हुए। वह इस बात से भलिभांति अवगत था कि इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ,अत्याचार और आत्महित को स्वीकार नहीं करेंगे और जब तक सूर्य की भांति इमाम का अस्तित्व अपनी ज्योति बिखेरता रहेगा उस समय तक ख़लीफ़ा के रूप में लोगों के निकट उसका कोई महत्व नहीं होगा। अपने आपसे कहने लगा ,सबसे अच्छा समाधान यह है कि अबल हसन को अपने मार्ग से हटा दें। मामून बिना कुछ कहे आगे बढ़ा और एक बड़े से बर्तन से उसने अंगूर का एक गुच्छा उठाया और उसमें से अंगूर का कुछ दाना खाया और फिर आगे बढ़कर उसने इमाम के माथे को चूमा और अंगूर का एक गुच्छा इमाम की ओर बढ़ाते हुए बोला हे पैग़म्बरे इस्लाम के पुत्र इनसे अच्छे अंगूर मैंने आज तक नहीं देखे। इमाम ने अपनी बोलती हुई आंखों स उत्तर दिया कि स्वर्ग का अंगूर इससे भी अच्छा है। मामून ने फिर कहा अंगूर खाइये।

इमाम ने मना कर दिया ,लेकिन मामून ने अत्यधिक आग्रह करते हुए विषाक्त अंगूर इमाम को दिए। इमाम रज़ा के चेहरे पर कड़वी मुस्कुराहट की एक झलक उभरी। अचानक उनके चेहरे का रंग बदलने लगा और उनकी स्थिति बिगड़ने लगी। इमाम ,गुच्छे को ज़मीन पर फेंक कर उसी पीड़ा के साथ चल पड़े। इमाम रज़ा के एक अच्छे साथी अबा सल्त ने जब इमाम को देखा तो उनके साथ हो लिए। वह इस महान हस्ती के प्रकाशमयी अस्तित्व से लाभ उठा रहे थे। वह इस बात पर प्रसन्न थे कि इस समय वह पैग़म्बरे इस्लाम के परिवार की सबसे महत्वपूर्ण हस्ती के साथ चल रहे हैं। उनकी दृष्टि में इमाम ,आतुर हृदय को प्रकाश तथा उन्हें जीवन प्रदान करने वाला है। उन्हें इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का वह कथन याद आ गया जिसमें इमाम ने कहा थाः इमाम धरती पर ईश्वर के अमानतदार उत्तराधिकारी हैं तथा उसके बंदों पर इमाम उसकी हुज्जत व प्रमाण होते हैं। ईश्वर के मार्ग पर चलने का निमंत्रण देने वाले और उसकी ओर से निर्धारित सीमा के रक्षक हैं। वह पापों से दूर और उनका व्यक्तिव दोष रहित है। वह ज्ञान से संपन्न तथा सहिष्णुता के लिए जाने जाते हैं। इमाम के अस्तित्व से धर्म में स्थिरता और मुसलमानों का गौरव व सम्मान है। अबा सल्त इसी विचार में लीन थे कि अचानक उनकी दृष्टि इमाम पर पड़ी ,समझ गए कि मामून ने अपना अंतिम हत्कण्डा अपनाया। आह भरी और फूट फूट कर रोने लगे लेकिन अब कुछ हो नहीं सकता था अधिक समय नही बीता कि इमाम शहीद हो गए। वह काला दिवस सफ़र महीने का अंतिम दिन वर्ष 203 हिजरी क़मरी था।

उच्च नैतिक मूल्य ,व्यापक ज्ञान ,ईश्वर पर अथाह व अटूट विश्वास तथा लोगों के साथ सहानुभूति वे विशेषताएं थीं जो इमाम को दूसरों से विशिष्ट करती थीं। वह आध्यात्मिक तथा उपासना सम्बन्धी मामलों पर विशेष ध्यान देते थे। मुसलमानों के मामलों की निरंतर देख रेख करते तथा लोगों की समस्याओं के निदान के लिए बहुत प्रयास करते थे। रोगियों से कुशल क्षेम पूछने तुरंत पहुंचते और बड़ी विनम्रता से आतिथ्य सत्कार करते थे। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ज्ञान के अथाह सागर थे। इस्लामी जगत के दूर दूर से विद्वान व बुद्धिजीवी इमाम के पास पहुंच कर अपने ज्ञान की प्यास बुझाते थे। इमाम रज़ा ने अपनी इमामत के काल में बहुत से बुद्धिजीवियों के प्रशिक्षित किया और आज भी क़ुरआन की व्याख्या ,हदीस ,शिष्टाचार तथा इस्लामी चिकित्सा पद्धति पर इमाम की महत्वपूर्ण रचनाएं मौजूद हैं। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम लोगों के सामने इस्लाम की मूल्यवान शिक्षा की व्याख्या करते किन्तु उनके व्यक्तिव का दूसरा आयाम उनका राजनैतिक संघर्ष था।

प्रथम हिजरी शताब्दी के दूसरे अर्ध में इस्लामी शासन ने राजशाही व्यवस्था तथा कुलीन वर्ग का रूप धारण कर लिया और अत्याचारी शासक सत्तासीन हो गए। इमामों ने जो पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों में से हैं ,उसी समय से शासकों के भ्रष्टाचार के विरद्ध अपना संघर्ष आरंभ कर दिया था। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने भी अपने काल में अत्याचार से संघर्ष किया। इसके साथ ही उनके काल की परिस्थितियां कुछ सीमा तक भिन्न थीं। इमाम को एक बड़े एतिहासिक अनुभव तथा एक गुप्त राजनैतिक द्वद्वं का सामना था जिसमें सफलता या विफलता दोनों ही मुसलमानों के भविष्य के लिए निर्णायक थी। इस खींचतान में अब्बासी शासक मामून षड्यंत्र रच मैदान में आ गया। वह एक दिन इमाम रज़ा के निकट आया और उसने इमाम से कहाः हे पैग़म्बरे इस्लाम के पुत्र मैं आपके ज्ञान ,नैतिक गुण और सच्चरित्रता से भलिभांति अवगत हूं और मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि आप इस्लामी नेतृत्व के लिए मुझसे अधिक योग्य हैं। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः ईश्वर की अराधना मेरे लिए गौरव की बात है ,ईश्वर के प्रति भय द्वारा ईश्वरीय अनुकंपाओं तथा मोक्ष की आशा करता हूं तथा संसार में विनम्रता द्वारा ईश्वर के निकट उच्च स्थान की प्राप्ति चाहता हूं।

मामून ने कहाः मैंने सत्ता को छोड़ने और इसे आपके हवाले करने का निर्णय किया है।

इमाम रज़ा ने उसके उत्तर में कहाः अगर इस पर तेरा अधिकार है तो वह वस्त्र जिसे ईश्वर ने तुझे पहनाया है उसे उतार कर ,तू दूसरे के हवाले करे यह तेरे लिए उचित नहीं है। लेकिन अगर यह ख़िलाफ़त अर्थात इस्लामी सरकार की बागडोर संभालना तेरा अधिकार नहीं है तो तुझे उस चीज़ के बारे में निर्णय करने का अधिकार नहीं है जिससे तेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। तू बेहतर जानता है कि कौन अधिक योग्य है। इमाम का यह दो टूक जवाब मामून के लिए कठोर था किन्तु उसने अपने क्रोध को छिपाने का प्रयास करते हुए कहाः तो फिर हे पैग़म्बरे इस्लाम के पुत्र आपको उत्तराधिकारी अवश्य बनना पड़ेगा।

इमाम रज़ा ने उत्तर दियाः मैं इसे स्वेच्छा से स्वीकार नहीं करूंगा।

मामून ने कहाः हे पैग़म्बरे इस्लाम के पुत्र आप उत्तराधिकारी बनने से इसलिए बचना चाह रहे हैं ताकि लोग आपके बारे में यह कहें कि आप को संसारिक मोह नहीं है।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने उत्तर दियाः मैं जानता हूं कि तुम्हारे यह कहने के पीछे यह उद्देश्य है कि लोग यह कहने लगें कि अलि बिन मूसर्रिज़ा संसारिक मोह माया से बचे नहीं और ख़िलाफ़त की लालच में उन्होंने अत्तराधिकारी बनना स्वीकार कर लिया।

अंततः मामून ने इमाम रज़ा को उत्तराधिकारी बनने के लिए विवश कर दिया किन्तु इमाम ने यह शर्त रखी कि वह सरकारी मामलों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेंगे। इस प्रकार इमाम रज़ा ने अपनी सूझ बूझ से लोगों को यह समझा दिया कि मामून की राजनैतिक कार्यवाहियों से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है और सरकारी मामलों में उनकी कोई भूमिका नहीं है। इसके साथ ही इमाम की नई स्थिति से उनके सम्मान में और वृद्धि हो गई। इमाम रज़ा ने खुले राजनैतिक वातावरण में इतनी समझदारी से कार्य किया कि उनके उत्तराधिकार का काल शीया इतिहास के स्वर्णिम युगों का एक भाग बन गया तथा मुसलमानों की संघर्ष प्रक्रिया के लिए नया अवसर उपलब्ध हो गया। बहुत से लोग जिन्होंने केवल इमाम रज़ा का केवल नाम सुन रखा था उन्हें समाज के योग्य मार्गदर्शक के रूप में पहचानने तथा उनका सम्मान करने लगे कि जो ज्ञान ,नैतिक गुणों ,लोगों से सहानुभूति रखने तथा पैग़म्बर से निकट होने की दृष्टि से सबसे योग्य व श्रेष्ठ हैं।

अंततः मामून को यह ज्ञात हो गया कि जिस तीर से उसने इमाम की प्रतिष्ठा को आघात पहुंचाने का लक्ष्य साधा था वह उसी की ओर पलट आया है इसलिए उसने भी वही शैली अपनाई जो उसके पूर्वज अपना चुके थे। उसने भी अपने काल के इमाम को विष देकर शहीद कर दिया।

समाधि

हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम की समाधि पवित्र शहर मशहद मे है। जहाँ पर हर समय लाखो श्रद्धालु आपकी समाधि के दर्शन व सलाम हेतू एकत्रित रहते हैं। यह शहर वर्तमान समय मे ईरान मे स्थित है।

।।अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मद व आले मुहम्मद।।