चौदह मासूमीन अलैहिमुस्सलाम

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चौदह मासूमीन अलैहिमुस्सलाम कैटिगिरी: विभिन्न

चौदह मासूमीन अलैहिमुस्सलाम

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चौदह मासूमीन अलैहिमुस्सलाम
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चौदह मासूमीन अलैहिमुस्सलाम

चौदह मासूमीन अलैहिमुस्सलाम

हिंदी

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हज़रत अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस्सलाम जीवन परिचय व चारित्रिक विशेषताऐं

नाम व अलक़ाब (उपाधियाँ)

आपका नाम अली व आपके अलक़ाब अमीरुल मोमेनीन ,हैदर ,कर्रार ,कुल्ले ईमान ,सिद्दीक़ ,फ़ारूक़ ,अत्यादि हैं।

माता पिता

आपके पिता हज़रतअबुतालिब पुत्र हज़रत अब्दुल मुत्तलिब व आपकी माता आदरनीय फ़तिमा पुत्री हज़रत असद थीं।

जन्म तिथि व जन्म स्थान

आप का जन्म रजब मास की 13वी तारीख को हिजरत से 23वर्ष पूर्व मक्का शहर के विश्व विख्यात व अतिपवित्र स्थान काबे मे हुआ था। आप अपने माता पिता के चौथे पुत्र थे।

पालन पोषण

आप (6) वर्ष की आयु तक अपने माता पिता के साथ रहे। बाद मे आदरनीय पैगम्बर हज़रतअली को अपने घर ले गये।इस प्रकार सात वर्षों तक हज़रतअली पैगम्बर की देखरेख मे प्रशिक्षित हुए। हज़रतअली ने अपने एक प्रवचन मे कहा कि मैं पैगम्बर के पीछे पीछे इस तरह चलता था जैसे ऊँटनी का बच्चा अपनी माँ के पीछे चलता है। पैगम्बर प्रत्येक दिन मुझे एक सद्व्यवहार सिखाते व उसका अनुसरन करने को कहते थे।

हज़रत अली सर्वप्रथम मुसलमान के रूप मे

जब आदरनीय मुहम्मद (स0)ने अपने पैगम्बर होने की घोषणा की तो हज़रतअली वह प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने आपके पैगम्बर होने को स्वीकार किया तथा आप पर ईमान लाए।

महान् सहाबी इब्ने अब्बास ने कहा कि अली वह प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने पैगम्बर के साथ नमाज़ पढ़ी। वह कहते हैं कि सोमवार को आदरनीय मुहम्मद ने अपने पैगम्बर होने की घोषणा की तथा मंगलवार से हज़रतअली ने उन पीछे नमाज़ पढ़ना आरम्भ कर दिया था।

हज़रत अली पैगम्बर के उत्तराधिकारी के रूप मे

हज़रत पैगम्बर ने अपने स्वर्गवास से तीन मास पूर्व हज से लौटते समय ग़दीरे ख़ुम नामक स्थान पर अल्लाह के आदेश से सन् 10 हिजरी मे ज़िलहिज्जा मास की 18वी तिथि को हज़रत अली को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। परन्तु आदरनीय पैगम्बर के स्वर्ग वास के बाद कुछ लोगों ने षड़यन्त्र रचकर इस पदको स्वंय ग्रहण कर लिया। प्रथम ,द्वितीय व तृतीय खलीफ़ाओं के देहान्त के बाद जनता जागरूक हुई। तथा उन्होने 25 वर्ष के अन्तराल के बाद पैगम्बर के वास्तविक उत्तराधिकारी के हाथों पर बैअत की। इस प्रकार हज़रतअली ने ख़िलाफ़त पद को सुशोभित किया।

हज़रत अली द्वारा किये गये सुधार

अपने पाँच वर्षीय शासन काल मे विभिन्न युद्धों ,विद्रोहों ,षड़यन्त्रों ,कठिनाईयों व समाज मे फैली विमुख्ताओं का सामना करते हुए हज़रतअली ने तीन क्षेत्रो मे सुधार किये जो निम्ण लिखित हैं।

अधिकारिक सुधार

उन्होने अधिकारिक क्षेत्र मे सुधार करके जनता को समान अधिकार प्रदान किये। शासन की ओर से दी जाने वाली धनराशी के वितरण मे व्याप्त भेद भाव को समाप्त करके समानता को स्थापित किया। उन्होंने कहा कि निर्बल व्यक्ति मेरे समीप हज़रत हैं मैं उनको उनके अधिकार दिलाऊँगा व अत्याचारी व्यक्ति मेरे सम्मुख नीच है मैं उनसे दूसरों के अधिकारों को छीनूँगा।

आर्थिक सुधार

हज़रत अली ने आर्थिक क्षेत्र मे यह सुधार किया कि जो सार्वजनिक सम्पत्तियां तीसरे ख़लीफ़ा ने समाज के कुछ विशेष व्यक्तियों को दे दी थीं उनसे उनको वापिस लिया। तथा जनता को अपनी नीतियों से अवगत कराते हुए कहा कि मैं तुम मे से एक हूँ जो वस्तुऐं मेरे पास हैं वह आपके पास भी हैं। जो कर्तव्य आप लोगों के हैं वह मेरे भी हैं। (अर्थात मैं आप लोगों से भिन्न नही हूँ न आपसे कम कार्य करता हूँ न आप से अधिक सम्पत्ति रखता हूँ)

प्रशासनिक सुधार

हज़रतअली (अ0) ने प्रशासनिक क्षेत्र मे सुधार हेतू दो उपाये किये।

(1)तीसरे ख़लीफ़ा द्वारा नियुक्त किये गये गवर्नरो को निलम्बित किया।

(2)भ्रष्ट अधिकारियों को पदमुक्त करके उनके स्थान पर ईमानदार व्यक्तियों को नियुक्त किया।

इमाम अली व राजकोष

इमाम अली राजकोष का विशेष ध्यान रखते थे ,वह किसी को भी उसके हक़ से अधिक नही देते थे। वह राजकोष को सार्वजनिक सम्पत्ति मानते थे। तथा राजकोष के धन को अपने नीजी कार्यो मे व्यय करने को जनता के घरों मे चोरी करने के समान मानते थे। एक बार आप रात्री के समय राजकोष के कार्यों मे वयस्त थे। उसी समय आपका एक मित्र भेंट के लिए आया जब वह बैठ गया और बातें करने लगा तो आपने जलते हुए चिराग़ (दिआ) को बुझा दिया। और अंधेरे मे बैठकर बाते करने लगे। आपके मित्र ने चिराग़ बुझाने का कारण पूछा तो आपने उत्तर दिया कि यह चिराग़ राजकोष का है।और आपसे बातचीत मेरा व्यक्तिगत कार्य है अतः इसको मैं अपने व्यक्तिगत कार्य के लिए प्रयोग नही कर सकता। क्योंकि ऐसा करना समस्त जनता के साथ विश्वासघात है।

हज़रत अमीरूल मोमेनीन अलैहिस्सलाम के कथन

१. जिस चीज़ की काश्त करोगे वही महसूल (हासिल) हासिल होगा और जो अमल करोगे उसकी जज़ा (इनाम) पाओगे।

२. अमानत (धरोहर) की हिफ़ाज़त (रक्षा) में तसाहुली (काहिली) न करो। अमानत में ख़यानत फ़क़्र और तहीदस्ती (ग़रीबी) का बायस (कारण) है।

३. जिसने क़ुरान को अपना रहनुमा (मार्गदर्शक) बनाया उसकी हिदायत जन्नत की तरफ़ होगी।

४. जो क़ुरान के हराम को हलाल जाने उसका ईमान क़ुरान पर नहीं।

५. मुसलमान मुसलमान का भाई है न उसपर ज़ुल्म करें न उसको सतायें।

६. क्या कहना उस शख़्स का जो अपनी ख़ामियों (कमियों) की तलाश में रहे और दूसरों की कमज़ोरी पर नज़र न करे और जो माल मयस्सर (पास) हो ,उसको गुनाह (पाप) में सर्फ़ (ख़र्च) न करे।

७. जहाँ भी रहो ख़ुदा से डरो हमेशा हक़ बात कहो अगरचे तल्ख़ (कड़वी) हो।

८. हर काम को पहले अन्दाज़ा करके और उसकी तदबीर करके शुरू करो ताकि नफ़रत से महफ़ूज़ (बचे) रहो।

९. अपने वाजेबात (जिसका न करना पाप हो) को पूरा करो ताकि परहेज़गार (बुराइयों से बचने वाले) रहो और मुक़द्देरात इलाही पर राज़ी रहो ताकि सबसे बेनियाज़ रहो।

१०. जो कोई अपने बरादरे मोमिन की हाजत पूरी करेगा ख़ुदावन्दे आलम उसकी बहुत सी हाजतें पूरी करेगा।

११. कितनी बुरी बात है के आदमी मतलब के वक़्त (समय) ख़ाकसार बना रहे और मतलब निकल जाने पर जफ़ाकार (ज़ुल्म करने वाला)।

१२. जितना हक़ तुम दूसरों पर रखते हो उतना ही हक़ वह तुम पर भी रखते हैं।

१३. जब दुश्मन पर फ़त्ह (विजय) पाओ तो कामयाबी (सफ़लता) का शुक्राना यह है के उसे माफ़ (क्षमा) कर दो।

१४. पोशीदा सदक़ा (गुप्तदान) इन्सान के गुनाहों (पापों) की तलाफ़ी (बदल) करता है।

१५. बदतरीन दोस्त (ख़राब दोस्त) वह है जो तुम्हें मासियत (गुनाहों) की तरफ़ मायल (सुझाव) करे।

१६. अपने को उन आमाल के लिये तैयान करो जिसकी ज़रूरत क़यामत (महाप्रलय) के दिन होगी।

१७. अक़्लमन्द (बुध्दिमान) वह शख़्स (मनुष्य) है जो दूसरों की मालूमात (ज्ञान) से अपनी मालूमात (ज्ञान) में इज़ाफ़ा (बढ़ोतरी) करे।

१८. हद से ज़्यादा मेज़ाह (मज़ाक़) आबरू (इज़्ज़त) को ख़त्म कर देता है और झूठ शख़्सियत की इज़्ज़त को ज़लील कर देता है।

१९. अजीब बात है कि हासिद (ईष्य्रालु) अपनी तन्दरूस्ती की फ़िक्र नहीं करते।

२०. हमेशा ख़ुदा की याद रखो के वह दिल की नूरानी का बायस (कारण) और इबादत (तपस्या) है।

२१. अपने ईमान को एहसान और बख़्शिश के ज़रिये महफ़ूज़ (बचाये) रखो।

२२. किसी की बुराई को फ़ाश करने वाला (प्रकट करने वाला) बुराई करने वाले की मिस्ल (समान) है और ग़ीबत का सुनने वाला ग़ीबत (पीठ पीछे बुराई करना) करने वाले के मानिन्द (समान) है।

२३. वह लोग जो बुरे और बदकार हैं वह दूसरों के उयूब (ऐब का बहु) को फ़ाश (प्रकट) किया करते हैं ताकि अपनी ख़ामियों (कमियों) के लिये बहाना मिल जाए।

२४. तीन चीज़ों में कोई शर्मिन्दगी नहीं। मेहमान की ख़िदमत करना ,उस्ताद और बाप के लिये अपनी जगह से उठना और अपने हक़ को तलब करना।

२५. तीन चीज़ें ही ज़िन्दगी को मुसीबत में डाल देती हैं कीना (मन में शत्रुता) ,रश्क (किसी को हानि पहुँचाये बिना उस जैसा बनने की भावना) ,बदमेजाज़ी।

२६. इल्म (ज्ञान) का पूरा फ़ायदा (लाभ) उस वक़्त (समय) हासिल (प्राप्त) होता है जब उसे काम में लायें (प्रयोग में लायें)

२७. जो शख़्स तुम्हारी ख़ामियों (कमियों) पर तुम को मुतावज्जेह करे तुम्हारा दोस्त और जो ख़ामियों को छिपाये वह तुम्हारा दुश्मन (शत्रु)।

२८. हर शख़्स के माल के दो शरीक हैं एक वारिस दूसरे हवादिस (हादिसे का बहु)।

२९. तुम जिसके मरकज़े उम्मीद हो उसका दिल (मन) मत तोड़ो।

३०. जो यतीम (जिनके पिता न हों) बच्चों पर मेहरबानी करता है उसके बच्चों पर मेहरबानी की जाती है।

३१. सब्र (सहनशीलता) व ज़ब्त (बर्दाश्त) ज़माने की सख़्तियों को आसान कर देता है।

३२. किसी के गिरफ़्तारे बला हो जाने से ख़ुश न हो क्योंकि ख़ुदा जाने फ़लक कज रफ़्तार तुम्हारे साथ क्या करे।

३३. दीनदार वह है जो दूसरों के सितम् तो सह ले मगर कोई उससे सितम न उठाये।

३४. उस शख़्स पर ज़ुल्म करने से ख़बरदार जिसका ख़ुदा के अलावा कोई हमनवा (साथी) नहीं।

३५. दुश्मन पर हमला करने से पहले सोच लो।

३६. बुरों की तारीफ़ करना बहुत बड़ा गुनाह (पाप) है।

३७. जानने के लिये सवाल करो फ़ित्ना बर्पा करने के लिये नहीं।

३८. तुम्हारा बेहतरीन दोस्त वह है जो तुम्को ताअते इलाही (ईश्वरीय भक्ति) पर मजबूर करे।

३९. अपनी बीमारी का इलाज बेकसों की दस्तगीरी (गिरते को थामना) और मदद (सहायता) से करो।

४०. बला के तूफ़ान को इबादत (तपस्या) व दुआ के ज़रिये (द्वारा) दूर करो।

हज़रत इमाम अली की शहादत (स्वर्गवास)

हज़रत इमाम अली सन् 40 हिजरी के रमज़ान मास की 19वी तिथि को जब सुबह की नमाज़ पढ़ने के लिए गये तो सजदा करते समय अब्दुर्रहमान पुत्र मुलजिम ने आपके ऊपर तलवार से हमला किया जिससे आप का सर बहुत अधिक घायल हो गया तथा दो दिन पश्चात रमज़ान मास की 21वी रात्री मे नमाज़े सुबह से पूर्व आपने इस संसार को त्याग दिया।

समाधि

आपकी शहादत के समय स्थिति बहुत भयंकर थी। चारो ओर शत्रुता व्याप्त थी तथा यह भय था कि शत्रु कब्र खोदकर लाश को निकाल सकते हैँ। अतः इस लिए आपको बहुत ही गुप्त रूप से दफ़्न कर दिया गया।एक लम्बे समय तक आपके परिवार व घनिष्ठ मित्रों के अतिरिक्त कोई भी आपकी समाधि से परिचित नही था। परन्तु एक लम्बे अन्तराल के बाद अब्बासी ख़लीफ़ा हारून रशीद के समय मे यह भेद खुल गया कि इमाम अली की समाधि नजफ़ नामक स्थान पर है। बाद मे आपके अनुयाईयों ने आपकी समाधि का विशाल व वैभवपूर्ण निर्माण कराया। वर्तमान समय मे प्रति वर्ष लाखों दर्शनार्थी आपकी समाधि पर जाकर सलाम करते हैं।

।। अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मदिंव वा आलिमुहम्मद।।