हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा का जीवन परिचय व चारित्रिक विशेषताऐं
नाम व अलक़ाब (उपाधियां)
आप का नाम फ़ातिमा व आपकी उपाधियां ज़हरा
,सिद्दीक़ा
,ताहिरा
,ज़ाकिरा
,राज़िया
,मरज़िया
,मुहद्देसा व बतूल हैं।
माता पिता
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा के पिता पैगम्बर हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा व आपकी माता हज़रत ख़दीजातुल कुबरा पुत्री श्री ख़ोलद हैं। हज़रत ख़दीजा वह स्त्री हैं
,जिन्होने सर्व- प्रथम इस्लाम को स्वीकार किया। आप अरब की एक धनी महिला थीं तथा आप का व्यापार पूरे अरब मे फैला हुआ था। आपने विवाह उपरान्त अपनी समस्त सम्पत्ति इस्लाम प्रचार हेतू पैगम्बर को दे दी थी। तथा स्वंय साधारण जीवन व्यतीत करती थीं।
जन्म तिथि व जन्म स्थान
अधिकाँश इतिहासकारों ने उल्लेख किया है कि हज़रत फातिमा ज़हरा का जन्म मक्का नामक शहर मे जमादियुस्सानी (अरबी वर्ष का छटा मास) मास की 20 वी तारीख को बेसत के पांचवे वर्ष हुआ। कुछ इतिहास कारों ने आपके जन्म को बेसत के दूसरे व तीसरे वर्ष मे भी लिखा है।एक सुन्नी इतिहासकार ने आपके जन्म को बेसत के पहले वर्ष मे लिखा है।
पालन पोषन
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का पालन पोषन स्वंय पैगम्बर की देख रेख मे घर मे ही हुआ। आप का पालन पोषन उस गरिमा मय घर मे हुआ जहाँ पर अल्लाह का संदेश आता था। जहाँ पर कुऑन उतरा जहाँ पर सर्वप्रथम एक समुदाय ने एकईश्वरवाद मे अपना विश्वास प्रकट किया तथा मरते समय तक अपनी आस्था मे दृढ रहे। जहाँ से अल्लाहो अकबर (अर्थात अल्लाह महान है) की अवाज़ उठ कर पूरे संसार मे फैल गई। केवल हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा वह बालिका थीं जिन्होंने एकईश्वरवाद के उद्दघोष के उत्साह को इतने समीप से देखा था। पैगम्बर ने हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा को इस प्रकार प्रशिक्षित किया कि उनके अन्दर मानवता के समस्त गुण विकसित हो गये। तथा आगे चलकर वह एक आदर्श नारी बनीं।
विवाह
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का विवाह 9 वर्ष की आयु मे हज़रत अली अलैहिस्सलाम के साथ हुआ। वह विवाह उपरान्त 9 वर्षों तक जीवित रहीं। उन्होने चार बच्चों को जन्म दिया जिनमे दो लड़के तथा दो लड़कियां थीं। जिन के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं। पुत्रगण (1) हज़रत इमाम हसन (अ0) (2) हज़रत इमाम हुसैन (अ0)। पुत्रीयां (3) हज़रत ज़ैनब (4) हज़रत उम्मे कुलसूम। आपकी पाँचवी सन्तान गर्भावस्था मे ही स्वर्गवासी हो गयी थी। वह एक पुत्र थे तथा उनका नाम मुहसिन रखा गया था।
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का ज्ञान
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा के ज्ञान का स्रोत वही ज्ञान व मर्म है
,जो आप के पिता को अल्लाह से प्राप्त हुआ था। हज़रत पैगम्बर अपनी पुत्री फ़तिमा के लिए उस समस्त ज्ञान का व्याख्यान करते थे। हज़रत अली उन व्याख्यानों को लिखते व हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा उन सब लेखों को एकत्रित करती रहती थीं। इन एकत्रित लेखों ने बाद मे एक पुस्तक का रूप धारण कर लिया। आगे चलकर यह पुस्तक मुसहफ़े फ़ातिमा के नाम से प्रसिद्ध हुई।
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का शिक्षण कार्य
हज़रत फ़तिमा स्त्रीयों को कुऑन व धार्मिक निर्देशों की शिक्षा देती व उनको उनके कर्तव्यों के प्रति सजग करती रहती थीं। आप की मुख्यः शिष्या का नाम फ़िज़्ज़ा था जो गृह कार्यों मे आप की साहयता भी करती थी। वह कुऑन के ज्ञान मे इतनी निःपुण हो गयी थी कि उसको जो बात भी करनी होती वह कुऑन की आयतों के द्वारा करती थी। हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा दूसरों को शिक्षा देने से कभी नही थकती थीं तथा सदैव अपनी शिष्याओं का धैर्य बंधाती रहती थी।
एक दिन की घटना है कि एक स्त्री ने आपकी सेवा मे उपस्थित हो कर कहा कि मेरी माता बहुत बूढी है और उसकी नमाज़ सही नही है। उसने मुझे आपके पास भेजा है कि मैं आप से इस बारे मे प्रश्न करू ताकि उसकी नमाज़ सही हो जाये। आपने उसके प्रश्नो का उत्तर दिया और वह लौट गई। वह फिर आई तथा फिर अपने प्रश्नों का उत्तर लेकर लौट गई। इसी प्रकार उस को दस बार आना पड़ा और आपने दस की दस बार उसके प्रश्नों का उत्तर दिया। वह स्त्री बार बार आने जाने से बहुत लज्जित हुई तथा कहा कि मैं अब आप को अधिक कष्ट नही दूँगी।
आप ने कहा कि तुम बार बार आओ व अपने प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करो । मैं अधिक प्रश्न पूछने से क्रोधित नही होती हूँ। क्योंकि मैंने अपने पिता से सुना है कि" कियामत के दिन हमारा अनुसरण करने वाले ज्ञानी लोगों को उनके ज्ञान के अनुरूप मूल्यवान वस्त्र दिये जायेंगे। तथा उनका बदला (प्रतिकार) मनुष्यों को अल्लाह की ओर बुलाने के लिए किये गये प्रयासों के अनुसार होगा।"
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा की इबादत
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा रात्री के एक पूरे चरण मे इबादत मे लीन रहती थीं। वह खड़े होकर इतनी नमाज़ें पढ़ती थीं कि उनके पैरों पर सूजन आजाती थी। सन् 110 हिजरी मे मृत्यु पाने वाला हसन बसरी नामक एक इतिहासकार उल्लेख करता है कि" पूरे मुस्लिम समाज मे हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा से बढ़कर कोई ज़ाहिद
, (इन्द्रि निग्रेह) संयमी व तपस्वी नही है।" पैगम्बर की पुत्री संसार की समस्त स्त्रीयों के लिए एक आदर्श है। जब वह गृह कार्यों को समाप्त कर लेती थीं तो इबादत मे लीन हो जाती थीं।
हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम अपने पूर्वज इमाम हसन जो कि हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा के बड़े पुत्र हैं उनके इस कथन का उल्लेख करते हैं कि "हमारी माता हज़रत फ़ातिमा ज़हरा बृहस्पतिवार व शुक्रवार के मध्य की रात्री को प्रथम चरण से लेकर अन्तिम चरण तक इबादत करती थीं। तथा जब दुआ के लिए हाथों को उठाती तो समस्त आस्तिक नर नारियों के लिए अल्लाह से दया की प्रार्थना करतीं परन्तु अपने लिए कोई दुआ नही करती थीं। एक बार मैंने कहा कि माता जी आप दूसरों के लिए अल्लाह से दुआ करती हैं अपने लिए दुआ क्यों नही करती
?उन्होंने उत्तर दिया कि प्रियः पुत्र सदैव अपने पड़ोसियों को अपने ऊपर वरीयता देनी चाहिये।"
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा एक जाप किया करती थीं जिसमे (34) बार अल्लाहु अकबर (33) बार अलहम्दो लिल्लाह तथा (33) बार सुबहानल्लाह कहती थीं। आपका यह जाप इस्लामिक समुदाय मे हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा की तस्बीह के नाम से प्रसिद्ध है। तथा शिया व सुन्नी दोनो समुदायों के व्यक्ति इस तस्बीह को नमाज़ के बाद पढ़ते हैं।
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का धर्म युद्धों मे योगदान
इतिहास ने हज़रत पैगम्बर के दस वर्षीय शासन के अन्तर्गत आपके 28 धर्म युद्धों तथा 35 से लेकर 90 तक की संख्या मे सरिय्यों का उल्लेख किया है। (पैगम्बर के जीवन मे सरिय्या उन युद्धों को कहा जाता था जिन मे पैगम्बर स्वंय सम्मिलित नही होते थे।) जब इस्लामी सेना किसी युद्ध पर जाती तो हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा इस्लामी सेनानियों के परिवार की साहयता के लिए जाती व उनका धैर्य बंधाती थीं। वह कभी कभी स्त्रीयों को इस कार्य के लिए उत्साहित करती कि युद्ध भूमी मे जाकर घायलों की मरहम पट्टि करें। परन्तु केवल उन सैनिकों की जो उनके महरम हों। महरम अर्थात वह व्यक्ति जिनसे विवाह करना हराम हो।
ओहद नामक युद्ध मे हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा अन्य स्त्रीयों के साथ युद्ध भूमि मे गईं इस युद्ध मे आपके पिता व पति दोनो बहुत घायल होगये थे। हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा ने अपने पिता के चेहरे से खून धोया। तथा जब यह देखा कि खून बंद नही हो रहा है तो हरीर(रेशम) के एक टुकड़े को जला कर उस की राख को घाव पर डाला ताकि खून बंद हो जाये। उस दिन हज़रत अली ने अपनी तलवार धोने के लिए हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा को दी। इस युद्ध मे हज़रत पैगम्बर के चचा श्री हमज़ा शहीद हो गये थे। युद्ध के बाद श्री हमज़ा की बहन हज़रत सफ़िहा हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा के साथ अपने भाई की क्षत विक्षत लाश पर आईं तथा रोने लगीं। हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा भी रोईं तथा पैगम्बर भी रोयें।और अपने चचा के पार्थिव शरीर से कहा कि अभी तक आप की मृत्यु के समान कोई मुसीबत मुझ पर नही पड़ी। इसके बाद हज़रत फ़तिमा व सफ़िहा से कहा कि अभी अभी मुझे अल्लाह का संदेश मिला है कि सातों आकाशों मे हमज़ा शेरे खुदा व शेरे रसूले खुदा है। इस युद्ध के बाद हज़रत फातिमा जब तक जीवित रहीं हर दूसरे या तीसरे दिन ओहद मे शहीद होने वाले सैनिकों की समाधि पर अवश्य जाया करती थीं।
ख़न्दक नामक युद्ध मे हज़रत फ़तिमा अपने पिता के लिए रोटियां बनाकर ले गयीं जब पैगम्बर ने प्रश्न किया कि यह क्या है
?तो आपने उत्तर दिया कि आपके न होने के कारण दिल बहुत चिंतित था अतः यह रोटियां लेकर आपकी सेवा मे आगई। पैगम्बर ने कहा कि तीन दिन के बाद मैं यह पहला भोजन अपने मुख मे रख रहा हूँ।
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा एक आदर्श पुत्री
,पत्नि
,व माता के रूप मे
आदर्श पुत्री
नौ वर्ष की आयु तक हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा अपने पिता के घर पर रहीं।जब तक उनकी माता हज़रत ख़दीजा जीवित रहीं वह गृह कार्यों मे पूर्ण रूप से उनकी साहयता करती थीं। तथा अपने माता पिता की अज्ञा का पूर्ण रूप से पालन करती थीं। अपनी माता के स्वर्गवास के बाद उन्होने अपने पिता की इस प्रकार सेवा की कि पैगम्बर आपको उम्मे अबीहा कहने लगे। अर्थात माता के समान व्यवहार करने वाली। पैगम्बर आपका बहुत सत्कार करते थे। जब आप पैगम्बर के पास आती थीं तो पैगमबर आपके आदर मे खड़े हो जाते थे
,तथा आदर पूर्वक अपने पास बैठाते थे। जब तक वह अपने पिता के साथ रही उन्होने पैगमबर की हर आवश्यकता का ध्यान रखा। वर्तमान समय मे समस्त लड़कियों को चाहिए कि वह हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का अनुसरण करते हुए अपने माता पिता की सेवा करें।
आदर्श पत्नि
हज़रत फ़तिमा संसार मे एक आदर्श पत्नि के रूप मे प्रसिद्ध हैं। उनके पति हज़रत अली ने विवाह उपरान्त का अधिकाँश जीवन रण भूमी या इस्लाम प्रचार मे व्यतीत किया। उनकी अनुपस्थिति मे गृह कार्यों व बच्चों के प्रशिक्षण का उत्तरदायित्व वह स्वंय अपने कांधों पर संभालती व इन कार्यों को उचित रूप से करती थीं। ताकि उनके पति आराम पूर्वक धर्मयुद्ध व इस्लाम प्रचार के उत्तर दायित्व को निभा सकें। उन्होने कभी भी अपने पति से किसी वस्तु की फ़रमाइश नही की। वह घर के सब कार्यों को स्वंय करती थीं। वह अपने हाथों से चक्की चलाकर जौं पीसती तथा रोटियां बनाती थीं। वह पूर्ण रूप से समस्त कार्यों मे अपने पति का सहयोग करती थीं। पैगम्बर के स्वर्गवास के बाद जो विपत्तियां उनके पति पर पड़ीं उन्होने उन विपत्तियों मे हज़रत अली अलैहिस्सलाम के सहयोग मे मुख्य भूमिका निभाई। तथा अपने पति की साहयतार्थ अपने प्राणो की आहूति दे दी। जब हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का स्वर्गवास हो गया तो हज़रत अली ने कहा कि आज मैने अपने सबसे बड़े समर्थक को खो दिया।
आदर्श माता
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा ने एक आदर्श माता की भूमिका निभाई उनहोनें अपनी चारों संतानों को इस प्रकार प्रशिक्षत किया कि आगे चलकर वह महान् व्यक्तियों के रूप मे विश्वविख्यात हुए। उनहोनें अपनी समस्त संतानों को सत्यता
,पवित्रता
,सदाचारिता
,वीरता
,अत्याचार विरोध
,इस्लाम प्रचार
,समाज सुधार
,तथा इस्लाम रक्षा की शिक्षा दी। वह अपने बच्चों के वस्त्र स्वंय धोती थीं व उनको स्वंय भोजन बनाकर खिलाती थीं। वह कभी भी अपने बच्चों के बिना भोजन नही करती थीं। तथा सदैव प्रेम पूर्वक व्यवहार करती थीं। उन्होंने अपनी मृत्यु के दिन रोगी होने की अवस्था मे भी अपने बच्चों के वस्त्रों को धोया
,तथा उनके लिए भोजन बनाकर रखा। संसार की समस्त माताओं को चाहिए कि वह हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का अनुसरण करे तथा अपनी संतान को उच्च प्रशिक्षण द्वारा सुशोभित करें।
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा के गले की माला
एक दिन हज़रत पैगम्बर(स.) अपने मित्रों के साथ मस्जिद मे बैठे हुए थे । उसी समय एक व्यक्ति वहाँ पर आया जिसके कपड़े फ़टे हुए थे तथा उस के चेहरे से दरिद्रता प्रकट थी। वृद्धावस्था के कारण उसके शरीर की शक्ति क्षीण हो चुकी थी। पैगम्बर उस के समीप गये तथा उससे उसके बारे मे प्रश्न किया उसने कहा कि मैं एक दुखिःत भिखारी हूँ। मैं भूखा हूँ मुझे भोजन कराओ
,मैं वस्त्रहीन हूँ मुझे पहनने के लिए वस्त्र दो
,मैं कंगाल हूँ मेरी आर्थिक साहयता करो। पैगम्बर ने कहा कि इस समय मेरे पास कुछ नही है परन्तु चूंकि किसी को अच्छे कार्य के लिए रास्ता बताना भी अच्छा कार्य करने के समान है। इस लिए पैगम्बर ने उसको हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा के घर का पता बता दिया। क्योकि उनका घर मस्जिद से मिला हुआ था अतः वह शीघ्रता से उनके द्वार पर आया व साहयता की गुहार की। हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा ने कहा कि इस समय मेरे पास कुछ नही है जो मैं तुझे दे सकूँ। परन्तु मेरे पास एक माला है तू इसे बेंच कर अपनी आवश्य़क्ताओं की पूर्ति कर सकता है। यह कहकर अपने गले से माला उतार कर उस को देदी। य़ह माला हज़रत पैगम्बर के चचा श्री हमज़ा ने हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा को उपहार स्वरूप दी थी। वह इस माला को लेकर पैगम्बर के पास आया तथा कहा कि फ़ातिमा ने यह माला दी है। तथा कहा है कि मैं इसको बेंच कर अपनी अवश्यक्ताओं की पूर्ति करूँ।.
पैगम्बर इस माला को देख कर रोने लगे । अम्मारे यासिर नामक आपके एक मित्र आपके पास बैठे हुए थे। उन्होंने कहा कि मुझे अनुमति दीजिये कि मैं इस माला को खरीद लूँ पैगम्बर ने कहा कि जो इस माला को खरीदेगा अल्लाह उस पर अज़ाब नही करेगा। अम्मार ने उस दरिद्र से पूछा कि तुम इस माला को कितने मे बेंचना चाहते हो
?उसने उत्तर दिया कि मैं इसको इतने मूल्य पर बेंच दूंगा जितने मे मुझे पहनने के लिए वस्त्र खाने के लिए रोटी गोश्त मिल जाये तथा एक दीनार मेरे पास बच जाये जिससे मैं अपने घर जा सकूँ। अम्मार यासिर ने कहा कि मैं इसको भोजन वस्त्र सवारी व बीस दीनार के बदले खरीदता हूँ। वह दरिद्र शीघ्रता पूर्वक तैयार हो गया। इस प्रकार अम्मारे यासिर ने इस माला को खरीद कर सुगन्धित किया। तथा अपने दास को देकर कहा कि यह माला पैगम्बर को भेंट कर व मैंने तुझे भी पैगम्बर की भेंट किया। पैगम्बर ने भी वह माला तथा दास हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा की भेंट कर दिया । हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा ने माला को ले लिया तथा दास से कहा कि मैंने तुझे अल्लाह के लिए स्वतन्त्र किया। दास यह सुनकर हंसने लगा। हज़रत फ़तिमा ने हगंसने का कारण पूछा तो उसने कहा कि मुझे इस माला ने हंसाया क्यों कि इस ने एक भूखे को भोजन कराया
,एक वस्त्रहीन को वस्त्र पहनाये एक पैदल चलने वाले को सवारी प्रदान की एक दरिद्र को मालदार बनाया एक दास को स्वतन्त्र कराया और अन्त मे स्वंय अपने मालिक के पास आ गई।
हज़रत फ़ातिमा ज़हरा के कथन
१. जिसने अपनी ज़िन्दगी उन कामों में गुज़ारी जो ख़ुदावन्दे आलम से दूरी का बायस हों तो उसने अपना नुक़सान किया।
२. कपड़े धोना ग़म व ग़ुस्से को ज़ाएल (मिटा देना) कर देता है।
३. क़नाअत (सन्तोष) और इताअते ख़ुदा बेनियाज़ी और इज़्ज़त का बायस (कारण) और गुनाह (पाप) और लालच बदबख़्ती की अलामत (निशानी) है।
४. ईमान और हया का चोली दामन का साथ है अगर इनमें से कोई एक चला जाए तो दूसरे का वुजूद (अस्त्वि) बरक़रार (स्थिर) न रह सकेगा।
५. जो औरत अपने शौहर (पति) को सख़्त और मुश्किल कामों के लिये मजबूर न करे वह जन्नती है और ख़ुदा उससे राज़ी है।
६. जो औरत बिला वजह अपने शौहर (पति) से तलाक़ चाहे बेहिश्त (स्वर्ग) की ख़ुश्बू भी उस पर हराम है।
७. कितने बदबख़्त हैं वह लोग जिसमें अज़्म व पुख़्तगी (द्रढ़ता) न हो और वह अहम (ख़ास) कामों को मेज़ाह (मज़ाक़) में टाल जायें।
८. ज़ौजा (पत्नि) जब अपने शौहर (पति) का हक़ अदा न करे गोया उसने ख़ुदा के हक़ को अदा नहीं किया।
९. वह मर्द जो हवा व हवस (इच्छाओं) के बन्दे (ग़ुलाम) हों वह समाज के लिये बायसे ज़िल्लत हैं।
१०. वह औरत जो अपने शौहर को अज़ीयत (तकलीफ़) दे ख़ुदावन्दे आलम उसके नेक कामों को भी क़ुबूल (स्वीकार) नहीं करे गा।
११. जो औरत पाबन्दे नमाज़ हो और बग़ैर शौहर की इजाज़त के घर से क़दम न निकाले और उसकी फ़रमाबरदार (आज्ञाकारी) रहे ख़ुदावन्दे आलम उसके गुनाहों (पापों) को माफ़ (क्षमा) कर देगा।
१२. तुम्हें क्या हो गया है
?तुम किधर जा रहे हो जबकि क़रानी अहकामात (आज्ञायें) बहुत साफ़ और वाज़ेह (खुली हुई) हैं।
१३. बर्तनों की सफाई और पाकीज़गी ग़िना (मालदारी) और नेमत में इज़ाफ़े का बायस (कारण) है ।
१४. ख़ुदावन्दे आलम ने ईमान को शिर्क (ख़ुदा का शरीक बनाने की प्रक्रिया) से पाकिज़गी का बायस (कारण) और नमाज़ को दिलों से किब्र व निख़्वत (गर्व व घमण्ड) के अज़ाले (दूर होने) का बायस बनाया है।
१५. तज़किया-ए नफ़्स (आत्मा की शुध्दता) के लिये ज़कात वाजिब की और इख़्लास की पुख़्तगी (मज़बूती) के लिए रोज़ा।
१६. हमारी इताअत (आदेशानुपालन) क़ौम की तनज़ीम की बायस (कारण) है और हमारी इमामत क़ौम के इत्तेहाद (एकता) की ज़ामिन है।
१७. इस्लाम की इज़्ज़त जेहाद (इस्लामी संघर्ष) है।
१८. अवाम की मसलैहत अम्रे मारूफ़ (अच्छाई की दावत) में है।
१९. इताअते वालदैन (पिर्त भक्ति) अज़ाबे इलाही (ईशवरीय प्रकोप) से महफ़ूज़ रखती है।
२०. सिल्हे रहम (अच्छा बर्ताव) उम्र (आयु) में इज़ाफ़े का सबब (कारण) है।
२१. क़सास (बदला) ख़ूंरेज़ी (ख़ूनी संघर्ष) को रोक देता है।
२२. नज़्र (वचन) को पूरा करना मग़्फ़रत (बख़्शिश) का सबब है।
२३. शराब इन्सान का आलूदा (ख़राब) कर देती है।
२४. तोहमत (आरोप) लगाने वाला लानत का सज़ावार है।
२५. चोरी बदअम्नी (अशान्ति) फैलाती है।
२६. जो सब्र (सहनशीलता) करता है उसे पूरा पूरा सवाब मिलता है।
२७. ऐ बन्देगाने ख़ुदा तुम अपने नफ़्स (आत्मा) पर अल्लाह के अमीन हो और दूसरी उम्मतों तक उसके पैग़ाम रसां (पहुँचाने वाले) हो।
२८. हज दीन की तक़वियत (ताक़त) का बायस (कारण) है।
२९. अदल व इन्साफ़ (न्याय) दिलों की तन्ज़ीम का ज़रिया (कारण) है।
३०. क़ुराने करीम को तुमने पसे पुश्त (पीछे) डाल दिया है क्या तुम उससे इन्हेराफ़ (मुँह फेरना) के ख़्वाहाँ (इच्छुक) हो।
३१. क़यामत के दिन निदामत (शर्मिन्दगी
,पछतावा) काम आने वाली नहीं।
३२. कल्मे की अस्ल (जड़) इख़लास है उसका मफ़हूम (मतलब) फ़िक्र को रौशनी देता है।
३३. जब मख़लूक़ात परदा-ए ग़ैब में और हिजाबे अदम में थीं उस वक़्त भी मेरे पदरे बुज़ुर्गवार हवादिसे ज़माना और मुक़द्देरात की मुकम्मल मार्फ़त रखते थे।
३४. क्या तुम ज़ालिम से डरते हो जबकि ख़ौफ़ (डर) सिर्फ़ ख़ुदा का होना चाहिये।
३५. बन्दों को दावत दी गई है के शुक्र के ज़रिये नेमतों में इज़ाफ़ा करायें।
३६. ख़ुदा वह है जिसकी आँखों से रोयत (देखना)
,ज़बान से तारीफ़ और ख़्याल से कैफ़ियत का समझ लेना मोहाल (दुशवार) है।
३७. क़ुरान का इत्तेबा (पैरवी) निजात (मुक्ति) का ज़रिया है।
३८. पैग़म्बरे इस्लाम के इस दुनिया से उठते ही तुममें निफ़ाक़ (शत्रुता) ज़ाहिर हो गया और दीन की चादर कोहना (पुरानी) हो गयी।
३९. हज मोमेनीन की सफ़ों को आरास्ता करने का ज़रिया है।
४०. अगर बुख़ार से बचना चाहते हो तो रोज़ाना (प्रतिदिन) दुआए नूर पढ़ो।
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा व पैगम्बर के जीवन के अन्तिम क्षण
क्योंकि हज़रत पैगम्बर(स.) का रोग उनके जीवन के अन्तिम चरण मे अत्याधिक बढ़ गया था।अतः हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा हर समय अपने पिता की सेवा मे रहती थीं। उनकी शय्या की बराबर मे बैठी उनके तेजस्वी चेहरे को निहारती रहती व ज्वर के कारण आये पसीने को साफ़ करती रहती थीं। जब हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा अपने पिता को इस अवस्था मे देखती तो रोने लगती थीं। पैगम्बर से यह सहन नही हुआ। उन्होंने हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा को संकेत दिया कि मुझ से अधिक समीप हो जाओ। जब हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा निकट हुईं तो पैगम्बर उनके कान मे कुछ कहा जिसे सुन कर हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा मुस्कुराने लगीं। इस अवसर पर हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का मुस्कुराना आश्चर्य जनक था। अतः आप से प्रश्न किया गया कि आपके पिता ने आप से क्या कहा
?आपने उत्तर दिया कि मैं इस रहस्य को अपने पिता के जीवन मे किसी से नही बताऊँगी। पैगम्बर के स्वर्गवास के बाद आपने इस रहस्य को प्रकट किया।और कहा कि मेरे पिता ने मुझ से कहा था कि ऐ फ़ातिमा आप मेरे परिवार मे से सबसे पहले मुझ से भेंट करोगी। और मैं इसी कारण हर्षित हुई थी।
शहादत(स्वर्गवास)
आप अपने पिता के बाद केवल 90 दिन जीवित रहीं। हज़रत पैगम्बर के स्वर्गवास के बाद जो अत्याचार आप पर हुए आप उनको सहन न कर सकीं तथा स्वर्गवासी हो गईं। इतिहासकारों ने उल्लेख किया है कि जब आप के घर को आग लगायी गई
,उस समय आप द्वार के पीछे खड़ी हुई थीं। जब किवाड़ों को धक्का देकर शत्रुओं ने घर मे प्रवेश किया तो उस समय आप दर व दीवार के मध्य भिच गयीं। जिस कारण आपके सीने की पसलियां टूट गयीं
,व आपका वह बेटा भी स्वर्गवासी हो गया जो अभी जन्म भी नही ले पाया था। जिनका नाम गर्भावस्था मे ही मोहसिन रख दिया गया था।
समाधि
चूँकि जिस समय आपकी शहादत हुई उस समय आपका परिवार बहुत ही भयंकर स्थिति से गुज़र रहा था। चारों ओर शत्रुता व्याप्त थी तथा आपने स्वंय भी वसीयत की थी कि मुझे रात्री के समय दफ़्न करना तथा कुछ विशेष व्यक्तियों को मेरे जनाज़े मे सम्मिलित न करना। अतः हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने वसीयतानुसार आपको चुप चाप रात्री के समय दफ़्न कर दिया।अतः आपके जनाज़े (अर्थी) मे केवल आपके परिवार के सदस्य व हज़रत अली के विश्वसनीय मित्र ही सम्मिलित हो पाये थे। और दफ़्न के बाद कई स्थानो पर आपकी की कब्र के निशान बनाये गये थे। इस लिए विश्वसनीय नही कहा जासकता कि आपकी समाधि कहाँ पर है। परन्तु कुछ सुत्रों से ज्ञात होता है कि आपको जन्नातुल बक़ी नामक क़ब्रिस्तान मे दफ़्नाया गया था।
।। अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मदिंव वा आले मुहम्मद।।