शिया और इस्लाम

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शिया और इस्लाम कैटिगिरी: शियो का इतिहास

शिया और इस्लाम

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

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शिया और इस्लाम

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यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

इस्लाम धर्म व शिया सम्प्रदाय का संक्षिप्त परिचय

प्रस्तावना

यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि मानव समाज व संस्कृति पर सदैव आसमानी धर्मो का प्रभाव रहा है। पिछली शताब्दी के बारे में कहा जाता है कि इस में मानव “वही ” को छोड़ कर “बुद्धि ” की ओर उन्मुख हुआ है। परन्तु वास्तविक्ता यह है कि मनुष्य के बौद्धिक जीवन का मूल भी धर्म मे ही पाया जाता है।

इस समय यहूदी , इसाई व इस्लाम धर्म ही संसार के मुख्य तथा जीवित धर्म हैं। इस समय संसार में सबसे अधिक इसाई धर्म के अनुयायी पाये जाते हैं। तथाअनुयाईयों की सख्या के आधार पर इस्लाम धर्म द्वितीय स्थान पर है।

इस्लाम अन्तिम आसमानी धर्म है और इस धर्म को हज़रत मुहम्मह (स.) के द्वारा मानव जाती के सम्मुख प्रस्तुत किया गया है। इस्लाम धर्म अपने प्रारम्भिक चरण से अब तक तीव्र गति से विकास की ओर उन्मुख है। बीसवी शताब्दी को तो इस्लाम के तीव्र विकास की शताब्दी समझा गया था। परन्तु इक्कीसवी शताब्दी को तो “इस्लामी शताब्दी ” की ही संज्ञा दे दी गयी है।

आदरनीय आदम अलैहिस्सलाम के जन्म के समय से ही अल्लाह की ओर से मानव जाति के लिए “वही ” व “मार्ग दर्शन ” का कार्य शुरू हो गया था। आदरनीय आदम (अ.) अल्लाह के प्रथम पैगम्बर थे। उनके पश्चात एक के बाद एक नबी आते रहे और समय की माँग के अनुसार अल्लाह की ओर से मिलने वाले संदेश को मानवता तक पहुँचाते रहे।

वैसे तो सभी आसमानी धर्मों मे व्यापक स्तर पर एकता पायी जाती है। परन्तु हर नये धर्म में इतनी अच्छाइयाँ पायी जाती हैं कि वह अपने से पहले वाले धर्म को निरस्त कर देता है। और इस्लाम तो वह धर्म है जिसके सम्बन्ध में पिछले समस्त धर्मों ने अपने – अपने अनुयाईयों को अवगत कराया है कि इस्लाम अन्तिम आसमानी धर्म है। अर्थात इस्लाम के बाद मानव पर अल्लाह की ओर से आने वाली वही के द्वार बन्द हो गये हैं। प्रकृतिक रूप से इस्लाम धर्म मे इतनी व्यापकता पाई जाती है कि वह अनंत काल तक मानव की समस्त आवश्यक्ताओं की पूर्ति कर सकता है। चाहे मानव जाति में कितने ही परिवर्तन क्यों न आजायें। इस लेख में जो कुछ भी कहा गया है वह इस्लाम धर्म के मूल भूत तत्वों और पैगम्बर के अहलेबैते द्वारा वर्णित शिया सम्प्रदाय से सम्बन्धित है। यह लेख जहाँ मुसलमानों के लिए गर्व होगा वहीं अन्य धर्मों के अनुयाईयों के लिए भी विचारनीय होगा।

इस्लाम धर्म

इस्लाम का शाब्दिक अर्थ “समर्पण ” है। और क़ुरआन की भाषा में इसका अर्थ “अल्लाह के आदेशों के सम्मुख समर्पित ” होना है। यह इस्लाम शब्द का आम अर्थ है।

क़ुरआने करीम इस्लाम के अलावा किसी अन्य धर्म को इस अर्थ मे मान्यता नही देता। जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए आलि इमरान की आयत न. 19 में वर्णन हुआ कि “इन्ना अद्दीना इन्दा अल्लाहि अलइस्लाम ” अनुवाद – अल्लाह के समक्ष केवल इस्लाम धर्म ही मान्य है।

इस्लाम की दृष्टि में इस बात का महत्व है कि इस पवित्र आस्था में विश्वास रखते हुए नेक कार्य किये जाये। अर्थात केवल अपने आपको इस आस्था से सम्बन्धित कर देना ही पर्याप्त नही है।

सूरए बक़रा की आयत न. 62 में वर्णन हो रहा है कि “ इन्ना अललज़ीना आमनू व अल लज़ीना हादू व अन्नसारा व अस्साबिईना मन आमना बिल्लाहि व अलयौमिल आखिरि व अमिला सालिहन फ़लहुम अजरुहुम इन्दा रब्बिहिम वला खौफ़ुन अलैहिम वला हुम यहज़नूना ” अनुवाद — केवल दिखावे के लिए ईमान लाने वाले लोगो , यहूदी , ईसाइ व साबिईन [हज़रत यहिया को मान ने वाले] में से जो लोग भी अल्लाह और क़ियामत पर वास्तविक ईमान लायेंगे और नेक काम करेंगे उनको उनके रब (अल्लाह) की तरफ़ से सवाब (पुण्य) मिलेगा और उनको कोई दुखः दर्द व भय नही होगा।

परन्तु इन सब बातों के होते हुए भी वर्तमान समय में दीने मुहम्मद (स.) ही इस्लाम का मूल रूप है। अन्य आसमानी धर्म केवल दीने मुहम्मदी से पूर्व ही अपने समय में इस्लाम के रूप में थे , जो अल्लाह की इबादत ओर उसके सामने समर्पण की शिक्षा देते थे।

जैसे कि क़ुऱाने करीम के सूरए बक़रह की आयत न. 133 में वर्णन होता है कि “अम कुन्तुम शुहदाआ इज़ हज़र याक़ूबा अलमौतु इज़ क़ाला लिबनीहि मा तअबुदूना मिन बअदी क़ालू नअबुदु इलाहका व इलाहा आबाइका इब्राहीमा व इस्माईला व इस्हाक़ा इलाहन वाहिदन व नहनु लहु मुस्लीमूना ”

अनुवाद — - क्या तुम उस समय उपस्थित थे जब याक़ूब की मृत्यु का समय आया ? और उन्होंने अपनी संतान से पूछा कि मेरे बाद किसकी इबादत करोगे ? तो उन्होने उत्तर दिया कि आपके और आपके पूर्वजो इब्राहीम , इस्माईल व इस्हाक़ के अल्लाह की जो एक है और हम उसी के सम्मुख समर्पण करने वाले हैं।)

इसी प्रकार इस्लामें मुहम्मदी (स.) पूर्व के समस्त आसमानी धर्मों की सत्यता को भी प्रमाणित करता है। जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए बक़रा की आयत न. 136 में वर्णन होता है कि

“ क़ूलू आमन्ना बिल्लाहि व मा उन्ज़िला इलैना व मा उन्ज़िला इला इब्राहीमा व इस्माईला व इस्हाक़ा व यअक़ूबा वल अस्बाति वमा ऊतिया मूसा व ईसा वमा ऊतिया अन्नबीय्यूना मिन रब्बिहिम , ला नुफ़र्रिक़ु बैना अहादिम मिनहुम व नहनु लहू मुस्लिमूना। ”

अनुवाद — ऐ मुस्लमानों तुम उन से कहो कि हम अल्लाह पर और जो उसने हमारी ओर भेजा और जो इब्राहीम , इस्माईल , इस्हाक़ , याक़ूब और याक़ूब की संतान की ओर भेजा गया ईमान ले आये हैं। और इसी प्रकार वह चीज़ जो मूसा व ईसा और अन्य नबीयों की ओर भेजी गयी इन सब पर भी ईमान ले आये हैं। हम नबीयों में भेद भाव नही करते और हम अल्लाह के सच्चे मुसलमान (अर्थात अल्लाह के सम्मुख समर्पण करने वाले) हैं।

इसी आधार वह लोग जिनको इस्लाम के वास्तविक मूल तत्वों के बारे में नही बताया गया या जिनको बताया गया परन्तु वह समझ नही सके , जिसके फल स्वरूप वह हक़ (इस्लाम) से दूर ही रहे इस्लामी दृष्टिकोण से क्षम्य हैं।

इस्लाम वह धर्म है जिसका वादा सभी आसमानी धर्मों ने किया

जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए हज की 78वी आयत में अल्लाह ने कहा है कि “ व जाहिदू फ़िल्लाहि हक़्क़ा जिहादिहि , हुवा इजतबाकुम वमा जआला अलैकुम फ़िद्दीनि मिन हरजिन , मिल्लता अबीकुम इब्राहीमा हुवा सम्माकुमुल मुस्लिमीना मिन क़ब्लु व फ़ी हाज़ा लियकूनुर्रसूलु शहीदन अलैकुम व तकूनू शुहदाअ अलन्नासि , फ़अक़िमुस्सलाता व आतुज़्ज़काता व आतसिमु बिल्लाहि , हुवा मौलाकुम फ़ा नेमल मौला व नेमन्नसीर। ”

अनुवाद — और अल्लाह के बारे में इस तरह जिहाद करो जो जिहाद करने का हक़ है उसने तुम्हे चुना है और (तुम्हारे लिए) दीन में कोई सख्ती नही रखी है यही तुम्हारे दादा इब्राहीम का दीन है अल्लाह ने तुमको इस किताब में और इससे पहली (आसमानी) किताबों में मुसलमान के नाम से पुकारा है। ताकि रसूल तुम्हारे ऊपर गवाह रहे और और तुम लोगों के आमाल (अच्छे व बुरे काम) पर गवाह रहो अतः अब तुम नमाज़ स्थापरित करो और ज़कात दो और अल्लाह से सम्बन्धित हो जाओ वही तुम्हारा मौला(स्वामी) है और वही सबसे अच्छा मौला(स्वामी) और सहायक है।

दीने मुहम्मद इस्लाम के विशेष अर्थ में प्रयोग होता है।

इस्लाम अन्तिम धर्म के रूप

अर्थात इस्लाम अन्तिम आसमानी धर्म है जो हज़रत मुहम्मद स. के द्वारा समपूर्ण मानव जाती के लिए भेजा गया है। तथा इस्लाम का संविधान अनंतकाल तक अल्लाह पर ईमान , उसकी इबादत और उन समस्त चीज़ों को जो अल्लाह एक इंसान के जीवन में चाहता है दर्शाता रहेगा।

मानव जाति हज़रत मुहम्मद स. के पैगम्बर पद पर नियुक्ति के समय तक इतनी सक्षम व योग्य हो गया थी कि अल्लाह के पूर्ण दीन (इस्लाम) को ग्रहण कर सके और उसको अल्लाह के प्रतिनिधियों से समझ कर अनंतकाल तक अपना मार्ग दर्शक बनाये।

इस्लाम की शिक्षाऐं किसी विशेष स्थान या वर्ग विशेष के लिए नही हैं बल्कि इस्लाम क़ियामत (प्रलय) तक सम्पूर्ण मानव जाती के लिए मार्ग दर्शक है। क्योंकि इस्लाम ने मानव जीवन के समस्त संदर्भों पर ध्यान दिया है। अतः इस्लाम इतनी व्यापकता पाई जाती है कि मानव को समाजिक या व्यक्तिगत स्तर पर , भौतिक व आत्मिक विकास के लिए जिन चीज़ों की आवश्यक्ता होती हैं वह सब चीज़े इस में उपलब्ध है।

इस्लाम की शिक्षाऐं

इस्लाम की शिक्षाओं को इन तीन भागो में विभाजित किया जा सकता हैक- एतिक़ादाती (आस्था से सम्बंधित)

ख- अखलाक़ियाती (सदाचार से सम्बंधित)

ग- फ़िक़्ही (धर्म निर्देशों से सम्बंधित)

इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि नबी ने कहा है कि ज्ञान केवल तीन हैं आयाते मुहकिमह (आस्थिक) , फ़रिज़ाए आदिलह (सदाचारिक) और सुन्नतुन क़ाइमह(फ़िक़्ह = धार्मिक निर्देश)

[उसूले काफ़ी 1/32]

“ एतिक़ादात ” (धार्मिक आस्थाऐं) धर्म के मूल भूत तत्वों और अन्य शिक्षाओं का आधार हैं। इस्लाम धर्म की आस्थाऐं भी अन्य आसमानी धर्मों की तरह तौहीद नबूवत व मआद हैं।

क- तौहीद अर्थात अद्वैतवाद या एक इश्वरवादिता में विश्वास

ख- नबूवत अर्थात अल्लाह द्वारा भेजे गये नबीयों(प्रतिनिधियों) पर विश्वास

ग- मआद अर्थात इस संसार के जीवन की समाप्ति के बाद परलोकिय जीवन पर विश्वास।

क- तौहीद (अद्वैतवाद या एक इश्वरवाद)

यह धर्म की आधारिक शिक्षा है यह अल्लाह के एक होने पर ईमान के बाद अल्लाह की पूर्ण रूप से इबादत के साथ पूरी होती है। इस्लाम ने मानव की उतपत्ति का मुख्य उद्देश केवल इबादत को ही माना है।

जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए ज़ारियात की आयत न. 56 में वर्णन हुआ कि “मा ख़लक़्तुल जिन्ना वल इंसा इल्ला लियअबुदूना। ”

अनुवाद –मैंने जिन्नों और इंसानों को केवल इबादत के लिए पैदा किया है। अर्थात मानव की उतपत्ति का उद्देश्य केवल इबादत है।

इस्लाम केवल उतपत्ति में ही अद्वैतवाद[ 1] का ही समर्थक नही है बल्कि रबूबियत तकवीनी[ 2] और रबूबियत तशरीई[ 3] मे भी अद्वैतवाद का समर्थक है।

अल्लाह की रबूबियते तशरीई के काऱण नबूवत की आवश्यक्ता पड़ती है क्योंकि संचालन का कार्य आदेशों व निर्देशों के बिना नही हो सकता और इन आदेशों व निर्देशो को इंसानों तक पहुँचाने के लिए प्रतिनिधि की आवश्यक्ता है। इस्लाम में इन्ही प्रतिनिधियों को नबी (पैगम्बर) कहा जाता है।

ख- नबूवत

अर्थात उन नबियों के अस्तित्व पर विश्वास रखना जो “वही ” व इलहाम के द्वारा इंसानों के लिए अल्लाह से संदेश पाते हैं। यहाँ पर “वही ” से तात्पर्य वह संदेश है जो विशेष शब्दों के रूप में नबियों की ज़बान व दिल पर जारी (विद्यमान) होता है।

परन्तु नबियों पर “वही ” व “इलहाम ” शब्दों के बिना भी हुआ है। इस्लामी विधान में इस प्रकार के संदेशों (बिना शब्दों के प्राप्त होने वाले संदेशों ) को हदीसे क़ुदसी कहा जाता है।

हदीसे क़ुदसी अल्लाह का एक ऐसा संदेश है जो अल्लाह के शब्दों में प्राप्त न हो कर मानव को नबी के शब्दों में प्राप्त हुआ है। यह संदेश क़ुरान के विपरीत है क्योंकि क़ुरआन के शब्द व आश्य दोनों ही अल्लाह की ओर से है।

प्रत्येक धर्म में “वही ” एक आधारिक तत्व है। और वह धर्म जिसके नबी पर की गयी “वही ” बाद की उलट फेर से सुरक्षित रही वह धर्म “इस्लाम ” है। तथा अल्लाह ने इस सम्बन्ध में प्रत्य़क्ष रूप से वादा किया है कि वह क़ुरआन के संदेश को सुरक्षित रखेगा। जैसे कि क़ुराने करीम के सूरए हिज्र की आयत न. 9 में वर्णन हुआ है कि

“ इन्ना नहनु नज़्ज़लना अज़्ज़िक्रा व इन्ना लहु लहाफ़िज़ून ”

अनुवाद – हमने ही इस क़ुरान को नाज़िल किया है (आसमान से भेजा है) और हम ही इसकी रक्षा करने वाले हैं।

इतिहास भी इस बात का साक्षी है कि क़ुरआन में कोई फेर बदल नही हुई है। और इसी प्रकार हदीसें भी इस विषय पर प्रकाश डालती हैं।

वर्णन योग्य बात यह है कि इस्लाम भी अन्य आसमानी धर्मों की तरह(उन धर्मों को छोड़ कर जिनमें फेर बदल कर दी गयी है) नबीयों को मासूम मानता है। और “वही ” को इंसानों तक पहुँचाने के सम्बंध मे किसी भी प्रकार की त्रुटी का खण्डन करता है।

जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए नज्म की आयत न. 3 और 4 में वर्णन होता है कि

“ व मा यनतिक़ु अनिल हवा इन हुवा इल्ला वहीयुन यूहा। ”

अनुवाद – वह (नबी) अपनी मर्ज़ी से कोई बात नही कहता वह जो भी कहता है वह “वही ” होती है।

क़ुरआन एक आसमानी किताब है और इसमें वह सब चीज़े मौजूद हैं जिनका इस्लाम वर्णन करता है। इस किताब में उन चीज़ों का भी वर्णन है जो इस समय मौजूद हैं और उन चीज़ों का भी वर्णन है जो भविषय में पैदा होंगी। परन्तु मानव के कल्याण के लिए आवश्यक है उन समस्त चीज़ो के बारे में ज्ञान प्राप्त करे जो वर्तमान में मौजूद हैं या जो भविषय में पैदा होंगी।

क़ुरआन जिन चीज़ों का वर्णन करता है उनके सम्बंध में कभी एक शिक्षक के रूप मे शिक्षा देता है और जो मानव नही जानते उनको सिखाता है। जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए निसा की आयत न. 113 में वर्णन हुआ है कि-

“ व अनज़लल्लाहु अलैकल किताबा वल हिकमता व अल्लमका मा लम तकुन तअलम , व काना फ़ज़लुल्लाहि अलैका अज़ीमन। ”

अनुवाद — अल्लाह ने आप पर किताब व हिकमत (बुद्धिमत्ता) को उतारा और आप जिन चीज़ों के बारे में नही जानते थे उन सब का ज्ञान प्रदान किया। और आप पर अल्लाह की बहुत बड़ी अनुकम्पा है।

और कभी एक सचेत करने वाले के रूप में मानव की प्रकृति में छिपी हुई चीज़ों को मानव के सम्मुख प्रस्तुत करता है , और उसको निश्चेतना से बाहर निकालता है। जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए अंबिया की आयत न. 10 मे वर्णन होता है कि –

“ लक़द अनज़लना इलैकुम किताबन फ़ीहि ज़िक्रु कुम , अफ़ला तअक़िलून। ”

अनुवाद – हमने तुम्हारी ओर एक किताब भेजी जिसमें तुम्हारे लिए चेतना है , क्या तुम इतनी भी अक़्ल नही रखते।

मनुष्यों की आत्मा की शुद्धि व प्रशिक्षण भी नबियों की एक ज़िम्मेदारी है। और यह भी “वही ” से ही सम्बंधित है। जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए अलबक़रा की आयत न. 151 में वर्णन हुआ है कि “कमा अरसलना फ़ीकुम रसूलन मिनकुम यतलू अलैकुम आयातिना व युज़क्किकुम व युअल्लिमुकुमुल किताबा वल हिकमता व युअल्लिमुकुम मा लम तकुनू तअलमून। ”

अनुवाद – जिस तरह हमने तुम्हारे पास तुम्ही में से एक पैगम्बर भेजा जो तुम्हारे सामने हमारी आयतों को पढ़ता है , तुम्हारी आत्माओं को पवित्र करता है और तुमको किताब व हिकमत (बुद्धि मत्ता) की शिक्षा देता है और वह सब कुछ बताता है जो तुम नही जानते।

शायद इंसानों के दिलों में संतोष पैदा करना भी आत्मा के प्रशिक्षण के अन्तर्गत ही आता है जैसे कि क़ुरआने करीम ने इस ओर संकेत भी किया है। क़ुरआने करीम के सूरए अलहूद की आयत न. 120 में वर्णन होता है कि —

“ व कुल्लन नक़ुस्सु अलैका मिन अम्बाइर्रुसुलि मा तुसब्बितु बिहि फ़ुआदका। ”

अनुवाद – और हम आप के (सामने) पराचीन रसूलों की घटनाओं का वर्णन कर रहे हैं ताकि तुम्हारे दिल में संतोष पैदा हो जाये।

शिक्षा व सचेत करने के अन्तर्गत ज्ञान के तीनों क्षेत्रों अक़ाईद (आस्था) अख़लाक़ (सदाचार) फ़िक़्ह (धर्म निर्देश) आ जाते हैं। और मानव इन तीनो क्षेत्रों में ही अल्लाह की अनुकम्पा का इच्छुक है।

अल्लाह स्वयं भी इंसान का आदर करता है और इसके आदर का आग्रह भी करता है। जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए अलइसरा की आयत न. 70 में वर्णन होता है कि “ लक़द कर्रमना बनी आदमा व हमलनाहुम फ़िल बर्रि वल बहरि व रज़क़नाहुम मिनत्तय्यिबाति व फ़ज़्ज़लनाहुम अला कसीरिम मिम मन ख़लक़ना तफ़ज़ीलन। ”

अनुवाद – और हम ने मानव जाती को को आदर प्रदान किया और उनको पानी व पृथ्वी पर चलने के लिए सवारियाँ तथा पवित्र भोजन प्रदान किया और बहुतसे प्राणी वर्गों पर उनको वरीयता दी।

यह सब उन गुणों के कारण है जो मानव की रचना में छिपे हुए हैं। और इन गुणों में सर्व श्रेष्ठ गुण यह है कि मानव में संसार की वास्तविकता को समझने और परखने की शक्ति पायी जाती है।

जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए अलक़ की आयत न. 1-5 में वर्णन हुआ है कि “इक़रा बिस्मि रब्बिका अल्लज़ी ख़लक़ * ख़लाक़ल इंसाना मिन अलक़ *इक़रा व रब्बुकल अकरम * अल्लज़ी अल्लमा बिल क़लम * अल्लमल इंसाना मा लम याअलम। ”

अनुवाद – उस अल्लाह का नाम ले कर पढ़ो जिसने पैदा किया। उसने इंसान को जमे हुए ख़ून से पैदा किया। पढ़ो और तुम्हारा पालने वाला (अल्लाह) बहुत करीम (दयालु) है। जिसने क़लम (लेखनी) के द्वारा शिक्षा दी। और इंसान को वह सब कुछ बता दिया जो वह नही जानता था।

परन्तु यह सब होते हुए भी इंसान अल्लाह की सहायता का इच्छुक है। ताकि मूर्खता व घमंड की खाई में न गिर सके। अल्लाह ने इंसान की प्रधानता से सम्बंधित क़ुरआन की उपरोक्त वर्णित आयात का वर्णन करने फौरन बाद कहा कि —

“ कल्ला इन्नल इंसाना लयतग़ा * अन राहु इसतग़ना * ”

अनुवाद – निःसन्देह इंसान सरकशी करता है। वह अपने बारे में यह विचार रखता है कि उसे किसी चीज़ की आवश्यक्ता नही है।

बाद में वर्णित यह दोनों आयते इंसान की कमज़ोरी की ओर संकेत करती है। और क़ुरआने करीम की अन्य आयतें इंसान के सम्बंध में इस प्रकार वर्णन करती हैं।

“ इन्नहु काना ज़लूमन जहूलान ”

( सूरए अहज़ाब आयत . 72)

अनुवाद – वह बहुत ज़ालिम व जाहिल था।

“ इन्नल इंसाना लज़लूमुन कफ़्फ़ारुन ”

(सूरए अल इब्राहीम आयत न. 34)

अनुवाद – इंसान ज़ालिम व शुक्र न करने वाला है।

“ काना अल इंसानु अजूलन ”

(सूरए अल असरा आयत न. 11)

अनुवाद – इंसान बहुत जल्दबाज़ था।

“ व ख़ुलिक़ल इंसानु ज़ईफ़न ”

(सूरए अन्निसा आयत न. 28)

अनुवाद – इंसान को कमज़ोर पैदा किया गया है।

“ इन्नल इंसाना ख़ुलिक़ा हलूअन ”

(सूरए अल मआरिज आयत न. 19)

अनुवाद – निःसन्देह इंसान को लालची पैदा किया गया है।

इंसान की कमज़ोरियाँ

पूर्ण रूप से संसार की वास्तविक्ता को जानने में इंसान के सम्मुख जहाँ एक ओर अक़ले नज़री[ 4] व अक़्ले अमली[ 5] की कमज़ोरियाँ व्याप्त हैं वही दूसरी ओर रूह(आत्मा) की कमज़ोरियाँ उसे घेरे है। जिन के कारण –

1- वह सूक्ष्मता के साथ यह नही जानता कि उसकी भलाई किन चीज़ों में है।

2- वह अपने अन्दर पाये जाने वाले एहसास पर पूर्ण रूप से विश्वास नही कर सकता।

उपरोक्त वर्णन से यह सिद्ध हो जाता है कि इंसान को “वही ” की आवश्यक्ता है। और “वही ” दो प्रकार से इंसान की सहायता करती है।

1- धर्म शिक्षा के द्वारा।

2- इंसाने कामिल[ 6] प्रस्तुत करके।

जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए अहज़ाब की आयत न. 21 में वर्णन हुआ है कि “ लक़द काना लकुम फ़ी रसूलिल्लाहि उसवतुन हसनतुन ” अनुवाद — निः सन्देह रसूल का जीवन तुम्हारे लिए एक आदर्श था।

ग- मआद अर्थात इन बातों पर विश्वास होना कि —

1- इंसान का जीवन केवल इस संसार तक सीमित नही है। बल्कि क़ियामत(प्रलय) के दिन समस्त इंसान फिर से जीवित किये जायेंगे। और कभी न समाप्त होने वाले अपने नये जीवन को प्रारम्भ करेंगे।

पैगम्बर स. ने कहा है कि “ मा ख़ुलिक़तुम लिल फ़नाए बल ख़ुलिक़तुम लिल बक़ाए व इन्नमा तनक़ुलूना मिन दारिन इला दारिन। ”

(बिहार उल अनवार 6/249)

अनुवाद — तुमको विनाश के लिए नही बल्कि सदैव बाक़ी रखने के लिए पैदा किया गया है। बस मृत्यु के द्वारा एक घर से दूसरे घर में परिवर्तित हो जाते हो।

बल्कि इस्लामी शिक्षाओं में संसार व परलोक के अलावा एक बरज़ख[ 7] नामक जीवन का भी वर्णन हुआ है जो कि संसार व परलोक के मध्य का जीवन काल है।

जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए अलमुमिनून की आयत न. 100 मे वर्णन हुआ है कि –

“ व मिन वराइहिम बरज़ख़ुन इला यौमिन युबअसूना। ”

अनुवाद — और इसके बाद बरज़ख़ है जो क़ियामत के दिन तक रहेगा।

इस आधार पर इंसान का जीवन जन्म से शुरू हो कर निरन्तर चलता रहता है।

2- संसार परलोक की खेती है।

क्योंकि पैगम्बरे इस्लाम स. ने कहा है कि “अद्दुनिया मज़रअतुन आख़िरति। ”

अनुवाद — संसार परलोक की खेती है।

(अवालियुल लआली 1/267)

“ मआद ” जिसका सभी धर्म वर्णन करते हैं , वह इस बात को उजागर करती है कि इंसान का परलोकीय जीवन इस संसार के कार्यों पर आधारित है। यह संसार एक ऐसा स्थान है जहाँ पर इंसान अपने जीवन के मार्ग को स्वयं अपनी मर्ज़ी से चुनता है। इंसान इस संसार में अल्लाह द्वारा प्रदान किये गये अक़्ल व “वही ” के पैमाने पर परख कर पवित्रता या अपवित्रता के आधार पर दिल से जिस मार्ग को चुनता है , वह मार्ग इस बात को निश्चित करता है कि उसका परलोकीय जीवन किस प्रकार का होगा।

अमीरूल मोमिनीन अ. ने कहा कि “इन्ना अलल्लाहा जअलद्दुनिया दारा अलआमालि व जअला अल आखिरता दारा अलजज़ाइ वल क़रारि। ”

अनुवाद — अल्लाह ने संसार को अमल (कार्य करने) के लिए बनाया और परलोक को उन कार्यों का फल तथा अमरता प्रदान करने के लिए बनाया।

(बिहारूल अनवार 32/46)

बल्कि परलोकीय जीवन इंसान के संसारिक कार्यों का ही रूप है। या (यह कहा जा सकता है कि परलोकीय जीवन में इंसान के कार्य वास्तविकता का रूप धारण कर लेंगे।)

क़ुरआने करीम के सूरए ज़लज़ला की आयत न. 7-8 में कहा गया है कि —

“ फ़मन यअमल मिस्क़ाला ज़र्रतिन खैरन यरहु व मन यअमल मिस्क़ाला ज़र्रतिन शर्रन यरहु। ”

अनुवाद – जिस ने एक कण के बराबर भी कोई अच्छाई की वह उस अच्छाई को देखेगा और जिसने एक कण के बराबर कोई बुराई की है वह उस बुराई को देखेगा।

परन्तु अल्लाह की अनुकम्पा व दया इंसान के अच्छे कार्यों को उसका दस गुना करके दिखा सकती है।

जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए अल अनाम की आयत न. 160 में वर्णन होता है कि —

“ मन जाआ बिल हसनति फ़लहु अशरु अमसालिहा। ”

अनुवाद – जो अच्छा कार्य करेगा उसको उस कार्य का दस गुना फल मिलेगा।

संसार की एकता व उद्देश्यपूर्णता बुद्धिमत्ता पर आधारित

आसमानी धर्मों के “तौहीदी दृष्टिकोण ” के अनुसार यह संसार एक इरादे से उतपन्न हुआ है और उसी के द्वारा संचालित हो रहा है। उस (अल्लाह) के इरादे से जो ज्ञानी , बुद्धिमान , सत्य व भलाई चाहने वाला है। इसी आधार पर इस संसार के समस्त अंशों में एकता विद्यमान है। इसी एकता के अनुकरण के कारण इस संसार का कोई भी अंश अल्लाह से सम्बंध स्थापित किये बिना इस संसार के अन्य अंशों को नही जान सकता। और क्योंकि इस संसार में एक अख़लाक़ी निज़ाम[ 8](व्यवस्था) व्याप्त है। अतः इंसान के अच्छे व बुरे कार्य उसके संसारिक व परलोकीय जीवन पर प्रभाव डालते हैं।

संसार पर बुद्धिमत्ता पूर्ण एकता का अधिपत्य

इस्लाम मे इस बात की ओर विशेष रूप से ध्यान को आकर्षित करा गया है। और इसी कारण इंसान के आध्यात्मिक जीवन के सुधार के लिए जो नीतियाँ बनाई गयीं है। उन में इस बात को ध्यान में रखा गया है कि यह नितियाँ आध्यात्मिक जीवन के साथ-साथ समाजिक व व्यक्तिगत स्तर पर मानव के भौतिक जीवन के विकास में भी सहायक हो। अतः वह प्रत्येक आदेश जो इंसान के भौतिक जीवन के किसी अंश के सम्बन्ध में जारी होता है वह आस्था के मूल तत्वों , सदाचार व आध्यात्मिकता से परिपूर्ण होता है। और यह अल्लाह की एक सुन्नत[ 9]है।