माहे रमज़ान
अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क
हर गतिविधि का शुभारंभ , मानव जीवन में एक नए अध्याय का आरंभ हो सकता है। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपनी निर्धारित जीवनयर्चा को ही पर्याप्त जानते हैं किंतु इसके विपरीत कुछ लोग एसे भी हैं जो प्रतिदिन कुछ नयापन चाहते हैं। इस संबन्ध में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस नएपन का समापन कैसा है ? तात्पर्य यह है कि मनुष्य हर नए कार्य के आरंभ के साथ ही उसकी समाप्ति के बारे में भी विचार करे और जब भी किसी नए कार्य को आरंभ करे तो उसका पूरा प्रयास इस कार्य को सही ढ़ंग से समाप्त करने की ओर ही होना चाहिए।
दयावान व ज्ञानी ईश्वर ने मानव की परिपूर्णता के लिए धरती तथा आकाशों में जो कुछ भी है उसे मानव के लिए विशेष कर दिया है ताकि मनुष्य , जीवन को सही ढ़ग से आरंभ कर सके। वह जीवन में आने वाले उतार-चढ़ाव से बड़ी ही होशियारी से निबट सके ताकि अच्छे परिणाम को प्राप्त कर सके। पवित्रता तथा मानवीयता से परिपूर्ण वातावरण में प्रवेश , परिवर्तन के लिए उचित अवसर है। इन उचित अवसरों में से एक अवसर पवित्र माहे रमज़ान का महीना है।
पवित्र माहे रमज़ान का महीना , हिजरी क़मरी महीनों में सर्वोत्तम महीना है। माहे रमज़ान शब्द रम्ज़ से लिया गया है जिसका अर्थ होता है छोटे पत्थरों पर पड़ने वाली सूर्य की अत्याधिक गर्मी। माहे रमज़ान ईश्वरीय नामों में से एक नाम है। इसी महीने में पवित्र क़ुरआन नाज़िल हुआ था। यह ईश्वर का महीना है। इसी महीने की जिनती भी प्रशंसा की जाए वह कम है।
माहे रमज़ान का पवित्र महीना , ईश्वर का महीना , क़ुरआन के उतरने का महीना तथा सबसे सम्मानजनक महीना है। इस महीने में आकाश तथा स्वर्ग के द्वार खुल जाते हैं तथा नरक के द्वार बंद हो जाते हैं। इस महीने की एक रात की उपासना , जिसे "शबे क़द्र" के नाम से जाना जात है , एक हज़ार महीनों की उपासना से बढ़ कर है। इस महीने मे रोज़ा रखने वाले का कर्तव्य , ईश्वर की अधिक से अधिक प्रार्थना करना है।
इस वर्ष भी माहे रमज़ान धीरे-धीरे हमारे हृदय रूपी घरों की ओर आ रहा है ताकि हमको अपनी विस्तृत एवं असीमित कृपा का पात्र बनाए। माहे रमज़ान , जीवन के दिनों और रातों के अपने मानवीय क्षणों के साथ हमारा साथी बनता है और फिर कुछ ही समय के पश्चात पुनः हमसे अलग हो जाने के लिए जल्दी करने लगता है। क्या कभी आपने इस बात का आभास किया है कि माहे रमज़ान के महीने में हम ईश्वर से अधिक निकट होने का आभास करने लगते हैं। यह विषय , इस शुभसूचना का सूचक है कि यदि उचित ढ़ंग से योजना बनाई जाए तो हमारा अंत अच्छा होगा। माहे रमज़ान के महीने में हम यदि आत्ममंथन करें तथा ईश्वरीय अनुकंपाओं की छाया में आत्मनिर्माण करें तो निःसन्देह , हमारा जीवन परिवर्तित हो जाएगा। ईश्वर की खोज में रहने वालों के लिए माहे रमज़ान का पवित्र महीना एक स्वर्णिम अवसर है। माहे रमज़ान आ चुका है अतः हमको ईश्वर की उपासना के बसंत में नए परिवर्तन का अनुभव करना चाहिए।
वे लोग जो वास्तविक आनंद की खोज में हैं उनके लिए माहे रमज़ान एक बहुमूल्य अवसर है। इस महीने में वे अपनी इच्छाओं को त्याग करते हुए पवित्र मानवीय आनंद की मिठास को प्राप्त कर सकते हैं। माहे रमज़ान के महीने में लोगों के लिए ईश्वरीय दस्तरख़ान बिछाया जाता है ताकि हर व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार ईश्वरीय अनुकंपाओं से लाभ उठाए। इस दावत का मेज़बान दयालु ईश्वर है। इसके माध्यम से उसने व्यापक स्तर पर लोगों को दावत दी है"।
माहे रमज़ान का महीना दैनिक जीवन की नीरसता को समाप्त कर देता है ताकि मनुष्य स्वयं को समझते हुए सचेत हो जाए कि कहीं ऐसा न हो कि उसकी आवश्यकताएं और निर्भरता उसे बुराइयों के मुक़ाबले में अक्षम बना दें। माहे रमज़ान का महीना उन लोगों के लिए मार्गदर्शक तथा मशाल की भांति है जो वास्तविकता के मार्ग से हट गए हैं। हालांकि ईश्वर की क्षमा के द्वार सदा ही लोगों के लिए खुले हुए हैं। वास्तविकता यह है कि ईश्वर को भूल जाने वाले लोगों ने ही स्वयं को ईश्वर की कृपा से दूर कर रखा है।
माहे रमज़ान की एक विशेषता उसका पवित्र व शुभ होना है। यही कारण है कि बहुत से स्थानों पर माहे रमज़ान को मुबारक अर्थात पवित्र और शुभ जैसे शब्दों से संबोधित किया गया है। यह विशेषता उन बहुत से लाभों के कारण है जो इस महीने में लोगों को प्राप्त होते हैं। पवित्र माहे रमज़ान के आरंभ होने के साथ ही रोज़ा रखने वाला व्यक्ति , ईश्वरीय दया और उसकी विभूतियों से परिपूर्ण वातावरण का आभास करता है तथा इस दौरान उसका समय बरकत या विभूतियों से भरा हुआ होता है। यह समय उसके लिए मुबारक होता है।
जैसाकि आप जानते हैं कि मानव जीवन के दो आयाम हैं , भौतिक तथा आध्यात्मिक। मनुष्य के अस्तित्व मे पाया जाने वाला आध्यात्मिक आयाम , ईश्वर की ओर से उसे दिया गया विशेष उपहार है। ऐसी वास्तविकता जो सृष्टि का आधार है तथा मनुष्य के अस्तित्व के निर्माण का मूल तत्व है। यह वही आत्मा है जिससे अन्य जीव वंचित हैं।
इस संदर्भ में ईश्वर , सूरए हजर की 27वीं आयत में कहता है कि मैंने मानव में अपनी आत्मा फूंकी। इस बहुमूल्य तत्व के न होने की स्थिति में मानव , अन्य पशुओं की श्रेणी में आ जाता। निश्चित रूप से मानव के असित्तव के इस तत्व को फलने-फूलने तथा विकसित होने की आवश्यकता है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए भौतिक्ता से अलग होकर अन्य तत्वों की खोज में जाना होगा।
माहे रमज़ान महीने के मानवीय कार्यक्रम , मानव के झुकाव को संतुलित करने के उद्देश्य से है ताकि वह अपने अस्तित्व के प्रमुख तत्व का उचित ढंग से पालन-पोषण कर सके। हालांकि रोज़े से व्यक्ति तथा मानव समाज को बहुत अधिक भौतिक लाभ हैं किंतु पवित्र माहे रमज़ान का मुख्य उद्देश्य , मनुष्य के आध्यात्मिक आयाम को सचेत करना है। इस महीने में रोज़ा रखना , प्रार्थना करना , क़ुरआन का पाठ , दान-दक्षिणा , लोगों की सहायता तथा अन्य भले कार्य आत्मा को ताज़गी प्रदान करते हैं। यह महीना लोगों के आध्यात्म के विकास तथा परिपूर्णता की भूमिका प्रशस्त करता है। इस स्थिति में हम इस पवित्र महीने से अधिक से अधिक लाभ उठाएंगे। इस संदर्भ में पैग़म्बरे इस्लाम का कथन हैः-
पवित्र माहे रमज़ान के आरंभ पर हम आप सबकी सेवा में बधाई देते हुए आपकी सेवा में पैग़म्बरे इस्लाम के उस ख़ुत्बे का एक भाग प्रस्तुत कर रहे हैं जो उन्होंने माहे रमज़ान के आगमन से पूर्व दिया था।
हे लोगों , ईश्वर का महीना बरकत , विभूतियों तथा क्षमा के साथ तुम्हारी ओर आ रहा है। ऐसा महीना जो ईश्वर के निकट सर्वोत्तम महीना है , इसके दिन बेहतरीन दिनों में से हैं , इसकी रातें बेहतरीन राते हैं और इसका समय बेहतरीन समय है। इस महीने में सांस लेना पुण्य है जो ईश्वर की प्रार्थना करने के समान है , तुम्हारी नींद भी इबादत है। इस महीने में जब भी तुम ईश्वर की ओर उन्मुख होगे और उससे प्रार्थना करोगे ईश्वर तुम्हारी प्रार्थना को अवश्य स्वीकार करेगा। अतः स्वचछ तथा सच्चे मन से ईश्वर से कामना करो कि वह तुमको रोज़ा रखने तथा ४पवित्र कुरआन का पाठ करने का अवसर प्रदान करे क्योंकि दुर्भाग्यपूर्ण वह है जो इस पवित्र तथा विभूतियों से भरे महीने में ईश्वर की अनुकंपाओं और उसकी क्षमा से वंचित रह जाए।
प्रार्थना , उपासना की आत्मा है। विशेषकर रोज़े के समय प्रार्थना का महत्व और भी बढ़ जाता है क्योंकि इस समय मनुष्य का पूरा अस्तित्व ईश्वर से संबन्धित होता है। प्रार्थना जितनी आस्था और मन से की जाएगी उसका प्रभाव भी उतना ही व्यापक होगा। यह मन को स्वच्छ करती है। इस्लामी शिक्षाओं के संबन्ध में जर्मनी की प्रख्यात लेखिका एन मैरी शेमल , प्रार्थना के संदर्भ मे इमाम संज्जाद अलैहिस्सलाम की दुआएं प्रस्तुत करती हैं।
"मैं दुआओं को उनकी मुख्य भाषा अर्थात अरबी में ही पढ़ती हूं और किसी भी भाषा के अनुवाद में इन्हें नहीं पढ़ती। जिस समय मेरी माता अस्पताल में भर्ती थीं उस समय मैंने सहीफ़ए सज्जादिया नामक पुस्तक का जर्मनी भाषा में अनुवाद किया था। जिस समय मेरी माता सो जाती थीं उस समय मैं अस्पताल के एक कोने में बैठकर इस अनुवाद को साफ़ हैंडराइटिंग में लिखा करती थी। मेरी माता के बिस्तर के निकट ही एक अन्य बीमार महिला भी थी जो कटटर विचारों वाली कैथोलिक मतावलांबी थी। जब उसे यह ज्ञात हुआ कि मैं किसी इस्लामी दुआओं अर्थात प्रार्थनाओं का अनुवाद जर्मनी भाषा में कर रही हूं तो वह बहुत दुखी हुई। उसने बहुत ही अप्रसन्नता तथा चिंताजनक शैली में कहा कि क्या हमारी धार्मिक पुस्तकों की दुआओं में कोई कमी है जो तुमने मुसलमानों की दुआओं का अनुवाद करना आरंभ किया है। उस समय तो मैंने उससे कुछ नहीं कहा। किंतु जब मेरी किताब प्रकाशित हुई तो मैंने किताब की एक प्रति उसे भी भेजी। कुछ समय पश्चात उस महिला ने टेलिफोन के माध्यम से मुझसे सम्पर्क किया और कहा कि इस अच्छे उपहार के लिए आपकी बहुत आभारी हूं। इसका कारण यह है कि मैं प्रतिदिन उसका एक विषय पढ़ती हूं। यह पुस्तक मनमोहक तथा बहुत ही गूढ़ है।
दुआ के संदर्भ में वरिष्ठ नेता कहते हैं कि ईश्वर का मार्ग निकटस्थ मार्ग है। यदि कोई इच्छा कर ले तो फिर वह बुरे मार्ग से बच सकता है और एक अन्य मार्ग पर जो सीधा है उसपर चल सकता है। यह कार्य हर क्षण संभव है। इस्लामी शिक्षाओं में कहा गया है कि जो भी उसके अर्थात ईश्वर के मार्ग में क़दम बढ़ाता है तो ईश्वर का मार्ग निकट है। यदि एक क़दम बढ़ाओ तो उन लोगों से दूर हो जाओगे जो पतन की ओर जा रहे हैं और गिर जाने वाले हैं। तुम एक एसे मार्ग पर पहुंचोगे जिसपर चलने वाले अनंत मोक्ष या कल्याण तथा प्रकाश की ओर तेज़ी से बढ़ रहे हैं। जब हम अपनी आंतरिक इच्छाओं के दबाव में कोई कार्य करते हैं तो यह कार्य मनुष्य को ईश्वर से दूर करता है क्योंकि हमने पतन के मार्ग पर क़दम बढ़ाया है। किंतु इसके विपरीत जब हम अपनी इच्छाओं के विपरीत कार्य करने का निर्णय करते हैं तो हम उत्थान के मार्ग पर बढ़ रहे होते हैं। यह मार्ग परिवर्तन , माहे रमज़ान के पवित्र महीने में सरलता से संभव है। माहे रमज़ान वास्तव में मोक्ष तथा कल्याण प्राप्ति के लिए शार्टकट या छोटा रास्ता है।
बहुत से लोगों के अनुसार माहे रमज़ान का महीना भी वसंत की भांति है। ईश्वर , जिसने वसंत ऋतु को इसलिए बनाया कि वह प्रकृति को पुनर्जीवित करे तथा सूखी हुई टहनियों से नए फूल खिलाए , उसीने माहे रमज़ान का महीना बनाया है ताकि रोज़े रखकर लापरवाह लोगों में स्वतंत्र एवं पवित्र विचारों को जीवित किया जा सके। रोज़ा एक एसी मूल तथा मुख्य उपासना है जिसके अत्याधिक लाभों के कारण ईश्वर ने इसे धर्मों में वाजिब अर्थात अनिवार्य किया है। रोज़े के माध्यम से मानव की बहुत सी एसी आवश्यकताएं जो स्थिर तथा अपरिवर्तनीय हैं , पूरी होती हैं तथा इससे आत्मोथान होता है। यही कारण है कि रोज़े के विषय को हर धर्म में देखा जा सकता है। इस्लामी शिक्षाओं में मिलता है कि ईश्वर ने मूसा पर "वहय" अर्थात ईश्वरीय संदेश भेजा कि तुम्हारे लिए कौन सी वस्तु मेरी प्रार्थना में बाधा बनती है ? मूसा जो रोज़े से थे उन्होंने कहा कि हे , ईश्वर अपनी इस स्थिति में मैं तेरी उपासना के योग्य नहीं हूं क्योंकि रोज़ेदार के मुंह से बदबू आती है। ईश्वर ने उनके उत्तर में कहा कि हे मूसा , रोज़ेदार के मुंह से आने वाली बदबू मेरे निकट कस्तूरी की ख़ुशबू से भी अधिक प्रिय है।
एक व्यक्ति ने हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वआलेही वसल्लम के साथी इब्ने अब्बास से इस्लाम में रोज़े के कारण के संबन्ध में प्रश्न किया। उन्होंने उत्तर दिया कि यदि तुम दाऊद पैग़म्बर के रोज़े के संबन्ध में जानना चाहते हो तो वे एक दिन रोज़ा रखते थे और अगले दिन अफ़तार किया करते थे। यदि तुम उनके पुत्र सुलैमान के रोज़े के बारे में जानना चाहते हो तो वे हर महीने के तीन आरम्भिक दिनों , तीन बीच के दिनों तथा तीन अंत के दिनों में रोज़ा रखा करते थे। यदि हज़रत ईसा के रोज़े के बारे में जानना चाहते हो तो उन्होंने जीवन भर रोज़े रखे , वे जानवरों के बालों के बुने कपड़े पहना करते थे। यदि उनकी माता हज़रत मरियम के रोज़ों के बारे में जानना चाहते हो तो वे दो दिन लगातार रोज़े रखती थीं और तीसरे दिन रोज़ा अफ़तार करती थीं। यदि तुम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वआलेही वसल्लम के रोज़ों के बारे में जानना चाहते हो तो वे हर महीने में तीन दिन रोज़े अवश्य रखा करते थे और कहते थे कि यह तीन रोज़े पूरे जीवन के रोज़ों के समान हैं।
इस समय मौजूद तौरेत तथा इंजील में भी यह बात पाई जाती है कि पिछले ईश्वरीय धर्मों में रोज़ा एक पुष्टि वाला विषय है। समस्याओं के समय यहूदी रोज़े की शरण में जाया करते थे। इसाई लोग भी कई दिनों तक लगातार रोज़े रखा करते थे। यह विषय दर्शाता है कि शरीर तथा आत्मा पर प्रभाव डालने के हिसाब से रोज़े का उल्लेख सभी ईश्वरीय धर्मों में पाया जाता है और बहुत सी पीढ़ियों ने इनकी विभूतियों से लाभ उठाया है। माहे रमज़ान के इस पवित्र महीने में हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह हमें इससे लाभान्वित होने का अवसर प्रदान करे।
मानव इतिहास के आरंभ से आज तक , जबकि वर्तमान समय में वैज्ञानिक तथा तकनीकी प्रगति हर क्षेत्र में दिखाई दे रही है , मनूष्य में सदा ही धर्म की ओर झुकाव देखा गया है तथा वह आध्यात्म की ओर उन्मुख रहा है। अलौकिक शक्ति से लगाव तथा उससे सम्पर्क ने सदा ही और हर स्थिति में मानव के मस्तिष्क को स्वयं में व्यस्त कर रखा है। ईश्वरीय दूतों ने सार्थक तथा प्रभावी आयामों से धर्म को स्पष्ट किया ताकि लोग अपनी प्रगति तथा विकास के लिए ईश्वरीय शिक्षाओं से लाभान्वित हो सकें। ईश्वरीय दूतों के मार्गदर्शन से लोगों के एक गुट ने सीधा मार्ग प्राप्त किया और इस बिंदु को भलि भांति समझ लिया कि ईश्वरीय धर्म ने जीवन के किसी भी क्षेत्र को अनदेखा नहीं किया है। सृष्टि को सही ढ़ंग से समझने तथा कल्याणपूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिए वह लोगों की सहायता करेगा। उन लोगों ने यह बात समझ ली है कि सृष्टि का रचयिता सर्वज्ञानी है और लोग उसी पर भरोसा कर सकते हैं क्योंकि वह उनकी स्थितियों से अवगत है तथा किसी में भी उससे मुक़ाबले की शक्ति नहीं है।
कहा जा सकता है कि धार्मिक प्रवृत्ति तथा आध्यात्मिक विचारधारा की जड़ें मनुष्य की प्रवृति में निहित हैं। ईश्वरीय दूतों ने मानवीय प्रशिक्षणकर्ताओं के रूप में अपनी शिक्षाओं में मनुष्य में पाए जाने वाले इस आंतरिक झुकाव की ओर विशेष ध्यान दिया है। उन्होंने लोगों का ऐसे मार्ग की ओर मार्गदर्शन किया है जो उसके कल्याण की ओर जाता है। अलबत्ता पूरे इतिहास में धर्म तथा आध्यात्म की ओर झुकाव हर स्थान पर एक जैसा नहीं रहा है। पुनर्जागरण के पश्चात पश्चिमवासियों ने धर्म तथा आध्यात्म से दूरी बनाना आरंभ कर दी। बहुत ही कम समय में इस दूरी के दुष्परिणाम दो विश्वयुद्धों की विभीषिका के रूप में सामने आए। यह भूल या ग़लती मानव के लिए बहुत हानिकारक सिद्ध हुई। इस आधार पर धर्म से दूरी के जो दुष्परिणाम मानव जाति के सामने , आए उनके और साथ ही इस मानव प्रवृत्ति में पाई जाने वाली जिज्ञासा के कारण वर्तमान समय में हम , धर्म की ओर लोगों के उन्मुख होने के साक्षी हैं। वर्तमान आधुनिक जीवन शैली किसी भी स्थिति में आध्यात्म तथा धर्म के संबन्ध में मानव की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति में अक्षम रही है। यही कारण है कि पूरे संसार में प्रतिदिन धर्म की ओर झुकाव रखने वालों की संख्या में वृद्धि हो रही है।
मानव की आत्मा की स्फूर्ति के लिए आध्यात्म एक मूलभूत आवश्यकता है। पवित्र क़ुरआन की दृष्टि से मानव में आगे की ओर बढ़ने की क्षमता पाई जाती है। यही कारण है कि धर्म में मानव के लिए एसे विशेष कार्यक्रम दृष्टिगत रखे गए हैं जो आगे बढ़ने में उसकी सहायता करते हैं। इस्लाम के पास एसा व्यापक कार्यक्रम है जिसमें मानव के लोक-परलोक दोनों से संबन्धित आयामों का ध्यान दिया गया है। इन कार्यक्रमों में से कुछ को व्यवहारिक बनाना अनिवार्य है जबकि कुछ एसे भी है जिनपर स्वेच्छा से कार्य किया जा सकता है। रोज़ा उन उपासनाओं मे से है जो अपनी कुछ शर्तों के साथ हर व्यक्ति के लिए अनिवार्य है। किंतु इसे स्वेच्छा से भी रखा जा सकता है। धार्मिक शिक्षाओं में रोज़ा रखने यहां तक कि स्वेच्छा से रोज़ा रखने की बहुत सिफ़ारिश की गई है। एक दिन पैग़म्बरे इस्लाम ने अबी अमामा नामक व्यक्ति को संबोधित करते हुए कहा कि रोज़ा रखो क्योंकि उसके बराबर कोई चीज़ नहीं है तथा कोई भी पुण्य उसके समान नहीं है।
ईश्वर रोज़े का निमंत्रण देकर मनुष्य का उच्च स्थान की ओर मार्गदर्शन कर रहा है जिससे वह इच्छाओं के बंधन से स्वतंत्र हो जाएगा। रोज़े की संस्कृति में मनुष्य बहुत सी ऐसी विभूतियों और अनुकंपाओं को कुछ समय के लिए अनदेखा करके , जिनसे रोज़े से पूर्व लाभ उठाया करता था , प्रयास करता है कि वह उन आदतों से छुटकारा पा ले जो कल्याण तथा मोक्ष के मार्ग में बाधा बनती हैं।
रोज़े का एक रोचक उपहार मन की शांति है। मन की यह शांति ऐसा बहुमूल्य अमृत है जिसे प्राप्त करने के लिए आज का मनुष्य अधिक से अधिक धन ख़र्च करने के लिए तैयार है। रोज़े में मनुष्य का मन हर प्रकार की इच्छाओं से दूर हो जाता है और वह सृष्टि के सर्वज्ञानी रचयिता की शरण में जाकर शांति का आभास करता है। इस आधार पर रोज़ा रखने वाला ईश्वरीय अनुकंपाओं तथा ईश्वर से निकट होने के आभास के दृष्टिगत आध्यात्मिक शांति से परिपूर्ण होता है। यही कारण है कि एक संक्षिप्त और आकर्षण कथन में इमाम मुहम्म बाक़िर अलैहिस्लाम फ़रमाते हैं कि , रोज़ा हृदयों की शांति का कारण है।
सामान्यतः मनुष्य आध्यात्म की ओर उन्मुख है। इसी बीच कभी धार्मिक दायित्वों के निर्वाह में विदि बाधाएं लापरवाही का कारण बनती हैं किंतु जब व्यक्ति सार्वजनिक रूप से लोगों के साथ रोज़ा रखने का सुअवसर प्राप्त करता है तो फिर स्थति थोड़ी बदली हुई होती है। एसी स्थिति में माहे रमज़ान में उसका प्रवेश एक ऐसे नगर में प्रवेश की भांति है जहां के लोग एक साथ प्रेमपूर्ण वातावरण में एक उद्देश्य की प्राप्ति में प्रयासरत हैं। यह एकता तथा समरस्ता व्यक्ति के मनोबल को सुदृढ़ करने के साथ ही दायित्वों के निर्वाह के लिए प्रेरित करती है। भूख और प्यास जैसे कुछ विषयों के दृष्टिगत जो रोज़े के साथ-साथ हैं , रोज़ा रखने में सफलता , रोज़ेदार को अन्य धार्मिक कार्यों को करने के लिए तत्पर कर सकती है। यही कारण है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने रोज़े को उपासना के नगर में प्रवेष के समान बताते हुए कहा है कि हर चीज़ के लिए द्वार है तथा उपासना का द्वार रोज़ा है।
मानव इतिहास में अपने आरंभ से आज तक , जिसमें वर्तमान समय में वैज्ञानिक तथा तकनीकी प्रगति हर क्षेत्र में दिखाई दे रही है , सदा ही धर्म की ओर झुकाव देखा गया है तथा वह आध्यात्म की ओर उन्मुख रहा है। अलौकिक शक्ति से लगाव तथा उससे सम्पर्क ने सदा ही और हर स्थिति में मानव के मस्तिष्क को स्वयं में व्यस्त कर रखा है। ईश्वरीय दूतों ने सार्थक तथा प्रभावी आयामों से धर्म को स्पष्ट किया ताकि लोग अपनी प्रगति तथा विकास के लिए ईश्वरीय शिक्षाओं से लाभान्वित हो सकें।
ईश्वरीय दूतों के मार्गदर्शन से लोगों के एक गुट ने सीधा मार्ग प्राप्त किया। सीधा मार्ग प्राप्त करने वालों ने इस बिंदु को भलि भांति समझ लिया कि ईश्वरीय धर्म ने जीवन के किसी भी क्षेत्र को अनदेखा नहीं किया है। सृष्टि को सही ढ़ंग से समझने तथा कल्याणपूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिए वह लोगों की सहायता करेगा। उन लोगों ने यह बात समझ ली है कि सृष्टि का रचयिता सर्वज्ञानी है और लोग उसी पर भरोसा कर सकते हैं जो उनकी स्थितियों से अवगत हो तथा किसी में भी उससे मुक़ाबले की शक्ति नहीं है।
कहा जा सकता है कि धार्मिक प्रवृत्ति तथा आध्यात्मिक विचारधारा की जड़ें मनुष्य की प्रवृति में निहित है। ईश्वरीय दूतों ने मानवीय प्रशिक्षणकर्ताओं के रूप में अपनी शिक्षाओं में मनुष्य में पाए जाने वाले इस आंतरिक झुकाव को ओर विशेष ध्यान दिया है। उन्होंने लोगों का एसे मार्ग की ओर मार्गदर्शन किया है जो उसके कल्याण की ओर जाता है। अलबत्ता पूरे इतिहास में धर्म तथा आध्यात्म की ओर झुकाव हर स्थान पर एक जैसा नहीं रहा है। पुनर्जागर के पश्चात पश्चिमवासियों ने धर्म तथा आध्यात्म से दूरी बनानी आरंभ कर दी। बहुत ही कम समय में इस दूरी के दुष्परिणाम दो विश्वयुद्धों की विभीषिका के रूप में सामने आए। यह भूल या ग़लती मानव के लिए बहुत हानिकारक सिद्ध हुई। इसी आधार पर धर्म से दूरी के जो दुष्परिणाम मानव जाति के सामने आए और साथ ही इस मानव प्रवृत्ति में पाई जाने वाली जिज्ञासा के कारण वर्तमान समय में हम , लोगों के धर्म की ओर उन्मुख होने के साक्षी हैं। आधुनिक वर्तमान जीवन शैली किसी भी स्थिति में आध्यात्म तथा धर्म के संबन्ध में मानव की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति में अक्षम रही है। यही कारण है कि पूरे संसार में प्रतिदिन धर्म की ओर झुकाव रखने वालों की संख्या में वृद्धि हो रही है।
मानव की आत्मा की स्फूर्ति के लिए आध्यात्म एक मूलभूत आवश्यकता है। पवित्र क़ुरआन की दृष्टि से मानव में आगे की ओर बढ़ने की क्षमता पाई जाती है। यही कारण है कि धर्म में मानव के लिए एसे विशेष कार्यक्रम दृष्टिगत रखे गए हैं जो आगे बढ़ने में उसकी सहायता करते हैं। इस्लाम के पास एसा व्यापक कार्यक्रम है जिसमें मानव के लोक-परलोक दोनों से संबन्धित आयामों का ध्यान दिया गया है। इन कार्यक्रमों में से कुछ को व्यवहारिक बनाना अनिवार्य है जबकि कुछ एसे भी है जिनपर स्वेच्छा से कार्य किया जा सकता है। रोज़ा उन उपासनाओं मे से है जो अपनी कुछ शर्तों के साथ हर व्यक्ति के लिए अनिवार्य है। किंतु इसे स्वेच्छा से भी रखा जा सकता है। धार्मिक शिक्षाओं में रोज़ा रखने यहां तक कि स्वेच्छा से रोज़ा रखने की बहुत सिफ़ारिश की गई है। एक दिन पैग़म्बरे इस्लाम ने अबी अमामा नामक व्यक्ति को संबोधित करते हुए कहा कि रोज़ा रखो क्योंकि उसके बराबर कोई चीज़ नहीं है तथा कोई भी पुण्य उसके समान नहीं है।
ईश्वर रोज़े का निमंत्रण देकर मनुष्य का उच्च स्थान की ओर मार्गदर्शन कर रहा है कि जिससे वह इच्छाओं के बंधन से स्वतंत्र हो जाएगा। रोज़े की संस्कृति में मनुष्य बहुत सी एसी विभूतियों और अनुकंपाओं को कुछ समय के लिए अनदेखा करके , जिनसे रोज़े से पूर्व लाभ उठाया करता था , प्रयास करता है कि वह उन आदतों से छुटकारा पा ले जो कल्याण तथा मोक्ष के मार्ग में बाधा बनती हैं।
रोज़े का एक रोचक उपहार मन की शांति है। मन की यह शांति एक एसा बहुमूल्य अमृत है जिसे प्राप्त करने के लिए आज का इंसान अधिक से अधिक धन ख़र्च करने के लिए तैयार है। रोज़े में मनुष्य का मन हर प्रकार की इच्छाओं से दूर हो जाता है और सृष्टि के सर्वज्ञानी रचयता की पनाह में जाकर शांति का आभास करता है। इस आधार पर रोज़ा रखने वाला ईश्वरीय अनुकंपाओं तथा ईश्वर से निकट होने के आभास के दृष्टिगत आध्यात्मिक शांति से परिपूर्ण होता है। यही कारण है कि एक संक्षिप्त और आकर्षण कथन में इमाम मुहम्म बाक़र अलैहिस्लाम फ़रमाते हैं कि , रोज़ा हृदयों की शांति का कारण है।
सामान्यतः मनुष्य आध्यात्म की ओर उन्मुख है। इसी बीच कभी धार्मिक दायित्वों के निर्वाह में विदि बाधाएं लापरवाही का कारण बनती हैं किंतु जब व्यक्ति सार्वजनिक रूप से लोगों के साथ रोज़ा रखने का सुअवसर प्राप्त करता है तो फिर स्थति थोड़ी बदली हुई होती है। एसी स्थिति में माहे रमज़ान में उसका प्रवेश एक एसे शहर में प्रवेश की भांति है जहां के लोग एक साथ प्रेमपूर्ण वातावरण में एक उद्देश्य की प्राप्ति में प्रयासरत हैं। यह एकता तथा समरस्ता व्यक्ति के मनोबल को सुदृढ़ करने के साथ ही दायित्वों के निर्वाह के लिए प्रेरित करती है। भूख और प्यास जैसे कुछ विषयों के दृष्टिगत जो रोज़े के साथ-साथ हैं रोज़ा रखने में सफलता , रोज़ेदार को अन्य धार्मिक कार्यों को करने के लिए तत्पर कर सकती है। यही कारण है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने रोज़े को उपासना के नगर में प्रवेष के समान बताते हुए कहा है कि हर चीज़ के लिए द्वार है तथा उपासना का द्वार रोज़ा है।