कलेमाते क़ेसार

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कलेमाते क़ेसार लेखक:
कैटिगिरी: इमाम अली (अ)

कलेमाते क़ेसार

लेखक: सैय्यद रज़ी र.ह
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कलेमाते क़ेसार
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कलेमाते क़ेसार

कलेमाते क़ेसार

लेखक:
हिंदी

इमाम अली के अक़वाल (कथन) 1-20

1.फ़ित्ना व फ़साद में उस तरह रहो जिस तरह ऊंट का वह बच्चा जिसने अभी अपनी उम्र के दो साल ख़त्म किये हैं के न तो उसकी पीठ पर सवारी की जा सकती है और न उसके थनों से दूध दोहा जा सकता है।

2.जिसने लालच को अपनी आदत बनाया ,उसने अपने को हलका किया और जिसने अपनी परेशान हाली का इज़हार किया वह ज़िल्लत पर आमादा हो गया ,और जिसने अपनी ज़बान को क़ाबू में न रखा उसने ख़ुद अपनी बेवक़अती का सामान कर लिया।

3.बुख़ल नंग व आर है ,और बुज़दिली नुक़्स व ऐब है ,और ग़ुरबत मर्दे अक़्लमंद व दाना की ज़बान को दलाएल की क़ूवत दिखाने से आजिज़ बना देती है और मुफ़लिस अपने शहर में रह कर भी ग़रीबुल वतन होता है और इज्ज़ व दरमान्दगी मुसीबत है और सब्र शुजाअत है और दुनिया से बेताल्लुक़ी बड़ी दौलत है और परहेज़गारी एक बड़ी सिपर है।

4.तस्लीम व रज़ा बेहतरीन मसाहेब और इल्म शरीफ़ तरीन मीरास है और अमली दमली औसाफ़े नौ बनू खि़लअत हैं और फ़िक्र साफ़ व शफ़्फ़ाफ़ आईना है।

5.अक़्लमन्द का सीना उसके भेदों का मख़ज़न होता है ,और कुशादा रूई मोहब्बत व दोस्ती का फन्दा है और तहम्मुल व बुर्दबारी ऐबों का मदफ़न है (या इस फ़िक़रे के बजाए हज़रत ने यह फ़रमाया) सुलह व सफ़ाई ऐबों को ढांपने का ज़रिया है।

6.जो शख़्स अपने को बहुत पसन्द करता है वह दूसरों को नापसन्द हो जाता है और सदक़ा कामयाब दवा है और दुनिया में बन्दों के जो आमाल हैं वह आख़ेरत में उनकी आंखों के सामने होंगे।

(((क़ुरान में इरशादे इलाही यूं है उस दिन लोग गिरोह गिरोह (क़ब्रों से) उठ खड़े होंगे ताके वह अपने आमाल को देखें तो जिसने ज़र्रा बराबर भी नेकी की होगी उसे देख लेगा और जिसने ज़र्रा बराबर भी बुराई की होगी वह उसे देख लेगा)))

  

7.यह इन्सान ताअज्जुब के क़ाबिल है के वह चर्बी से देखता है ,और गोश्त के लोथड़े से बोलता है और हड्डी से सुनता है और एक सूराख़ से सांस लेता है।

8.जब दुनिया किसी की तरफ़ मुतवज्जेह हो जाती है तो यह दूसरे के महासिन (नेकीयां) भी उसके हवाले कर देती है और जब उससे मुंह फिराती है तो उसके महासिन भी ले लेती है।

(((-यह इल्मुल इज्तेमाअ का नुक्ता है जहां इस हक़ीक़त की तरफ़ तवज्जो दिलाई गई है के ज़माना ऐबदार को बेऐब भी बना देता है और बेऐब को ऐबदार भी बना देता है और दोनों का फ़र्क़ दुनिया की तवज्जो है जिसका हुसूल बहरहाल ज़रूरी है।)))

9.लोगों के साथ ऐसा मेल-जोल रखो के अगर मर जाओ तो लोग गिरया करें और ज़िन्दा रहो तो तुम्हारे मुश्ताक़ रहें।

(((यह भी बेहतरीन इज्तेमाई नुक्ता है जिसकी तरफ़ हर इन्सान को मुतवज्जो रहना चाहिये)))

10.जब दुश्मन पर क़ुदरत हासिल हो जाए तो मुआफ़ कर देने ही को इस क़ुदरत का शुक्रिया क़रार दो।

(((यह अख़लाक़ी तरबीयत है के इन्सान में ताक़त का ग़ुरूर नहीं होना चाहिये)))

11.आजिज़ तरीन इन्सान वह है जो दोस्त बनाने से भी आजिज़ हो और उससे ज़्यादा आजिज़ वह है जो रहे पुराने दोस्तों को भी बरबाद कर दे।

12.जब नेमतों का रूख तुम्हारी तरफ़ हो तो नाशुक्री के ज़रिये उन्हें अपने तक पहुंचने से भगा न दो।

(((परवरदिगारे आलम ने यह एख़तेलाफ़ी निज़ाम बना दिया है के नेमतों की तकमील शुक्रिया ही के ज़रिये हो सकती है लेहाज़ा जिसे भी इसकी तकमील दरकार है उसे शुक्रिया का पाबन्द होना चाहिये)))

13.जिसे क़रीबी छोड़ दें उसे बेगाने मिल जाएंगे।

14.हर फ़ित्ने में पड़ जाने वाला क़ाबिले इताब नहीं होता।

(((जब साद बिन अबी वक़ास ,मोहम्मद इब्ने मुसल्लेम और अब्दुल्लाह इब्ने उमर ने असहाबे जमल के मुक़ाबले में आपका साथ देने से इन्कार किया तो इस मौक़े पर यह जुमला फ़रमाया ,मतलब यह है के यह लोग मुझसे ऐसे मुनहरिफ़ हो चुके हैं के उन पर न मेरी बात का कुछ असर होता है और न उन पर मेरी इताब व सरज़न्श (नाराज़गी) कारगर साबित होती है)))

15.सब मुआमले तक़दीर के आगे सरनिगूँ हैं यहाँ तक के कभी तदबीर के नतीजे में मौत हो जाती है।

16.पैग़म्बर सल्लल्लाहो अजलैहे वआलेही वसल्लम की हदीस के मुताल्लिक़ के “बुढ़ापे को (खि़ज़ाब के ज़रिये) बदल दो ,और यहूद से मुशाबेहत इख़्तेयार न करो ’ आप (अ0) से सवाल किया गया तो आपने फ़रमाया के पैग़म्बर पैग़म्बर सल्लल्लाहो अजलैहे वआलेही वसल्लम ने यह उस मौक़े के लिये फ़रमाया था जबके दीन (वाले) कम थे और अब जबके इसका दामन फै़ल चुका है ,और सीना टेक कर जम चुका है तो हर शख़्स को इख़्तेयार है।

(((मक़सद यह है के चूंके इब्तिदाए इस्लाम में मुसलमानों की तादाद कम थी इसलिये ज़रूरत थी के मुसलमानों की जमाअती हैसियत को बरक़रार रखने के लिये उन्हें यहूदियों से मुमताज़ रखना जाए ,इसलिये आँहज़रत ने खि़ज़ाब का हुक्म दिया के जो यहूदियों के हाँ मरसूम नहीं है ,इसके अलावा यह मक़सद भी था के वह दुश्मन के मुक़ाबले में ज़ईफ़ व सिन रसीदा दिखाई न दें)))

17-उन लोगों के बारे में के जो आपके हमराह होकर लड़ने से किनाराकश रहे ,फ़रमाया उन लोगों ने हक़ को छोड़ दिया और बातिल की भी नुसरत नहीं की।

(((यह इरशाद उन लोगों के मुताल्लुक़ है के जो अपने को ग़ैर जानिबदार ज़ाहिर करते थे जैसे अब्दुल्लाह बिन उमर ,साद इब्ने अबी वक़ास ,अबू मूसा अशअरी ,अहनफ़ इब्ने क़ैस ,और अन्स इब्ने मालिक वग़ैरह ,बेशक इन लोगों ने खुल कर बातिल की हिमायत नहीं की ,मगर हक़ की नुसरत से हाथ उठा लेना भी एक तरह से बातिल को तक़वीयत पहुंचाना है इसलिये इनका शुमार मुख़ालेफ़ीने हक़ के गिरोह ही में होगा।)))

18-जो शख़्स उम्मीद की राह में बगटूट दौड़ता है वह मौत से ठोकर खाता है।

19-ब-मुरव्वत लोगों की लग्ज़िशों से दरगुज़र करो (क्योंके) इनमें से जो भी लग्ज़िश खाकर गिरता है तो अल्लाह उसके हाथ में हाथ देकर उसे ऊपर उठा लेता है।

20-ख़ौफ़ का नतीजा नाकामी और शर्म का नतीजा महरूमी है और फ़ुरसत की घड़ियां (तेज़रौ) अब्र की तरह गुज़र जाती हैं ,लेहाज़ा भलाई के मिले हुए मौक़ों को ग़नीमत जानो।

(((जो बिला वजह ख़ौफ़ज़दा हो जाएगा वह मक़सद को हासिल नहीं कर सकता है और जो बिला वजह शर्माता रहेगा वह हमेशा महरूम रहेगा। इन्सान हर मौक़े पर शर्माता ही रहता तो नस्ले इन्सानी वजूद में न आती।)))

इमाम अली के अक़वाल (कथन) 21-40

21-हमारा एक हक़ है जो मिल गया तो ख़ैर वरना हम ऊँट पर पीछे ही बैठना गवारा कर लेंगे चाहे सफ़र कितना ही तवील क्यों न हो।

सय्यद रज़ी - यह बेहतरीन लतीफ़ और फ़सीह कलाम है के अगर हक़ न मिला तो हम ज़िल्लत का सामना करना पड़ेगा के रदीफ़ में बैठने वाले आम तौर से ग़ुलाम और क़ैदी वग़ैरा हुआ करते हैं।

(((यानी हम हक़ से दस्तबरदार होने वाले नहीं हैं जहां तक ग़ासिबाना दबाव का सामना करना पड़ेगा करते रहेंगे)))

22-जिसे उसके आमाल के पीछे हटा दें उसे नसब आगे नहीं बढ़ा सकता है।

23-बड़े-बड़े गुनाहों का कुफ़्फ़ारा यह है के इन्सान सितम रसीदा की फ़रयादरसी करे और रंजीदा इन्सान के ग़म को दूर करे।

(((सितम रसीदा वह भी है जिसके खाने पीने का सहारा न हो और वह भी है जिसके इलाज का पैसा या स्कूल की फ़ीस का इन्तेज़ाम न हो)))

24-फ़रज़न्दे आदम (अ0)! जब गुनाहों के बावजूद परवरदिगार की नेमतें मुसलसल तुझे मिलती रहें तो होशियार हो जाना।

(((अक्सर इन्सान नेमतों की बारिश देख कर मग़रूर हो जाता है के शायद परवरदिगार कुछ ज़्यादा ही मेहरबान है और यह नहीं सोचता है के इस तरह हुज्जत तमाम हो रही है और ढील दी जा रही है वरना गुनाहों के बावजूद इस बारिशे रहमत का क्या इमकान है ?  )))

25-इन्सान जिस बात को दिल में छिपाना चाहता है वह उसकी ज़बान के बेसाख़्ता कलेमात और चेहरे के आसार से नुमायां हो जाती है।

(((ज़िन्दगी की बेशुमार बातें हैं जिनका छिपाना उस वक़्त तक मुमकिन नहीं है जब तक ज़बान की हरकत जारी है और चेहरे की ग़ुम्माज़ी (हाव-भाव) सलामत है ,इन दो चीज़ों पर कोई इन्सान क़ाबू नहीं कर सकता है और उनसे हक़ाएक़ का बहरहाल इन्केशाफ़ हो जाता है)))

26-जहां तक मुमकिन हो मर्ज़ के साथ चलते रहो (और फ़ौरन इलाज की फ़िक्र में लग जाओ)

27-बेहतरीन ज़ोहद - ज़ोहद का मख़फ़ी रखना और इज़हार न करना है (के रियाकारी ज़ोहद नहीं है निफ़ाक़ है)

28-जब तुम्हारी ज़िन्दगी जा रही है और मौत आ रही है तो मुलाक़ात बहुत जल्दी हो सकती है।

29-होशियार रहो होशियार! के परवरदिगार ने गुनाहों की इस क़द्र पर्दापोशी की है के इन्सान को यह धोका हो गया है के शायद माफ़ कर दिया है।

30-आपसे ईमान के बारे में सवाल किया गया तो फ़रमाया के ईमान के चार सुतून हैं ,सब्र ,यक़ीन ,अद्ल ,और जेहाद

((वाज़ेह रहे के इस ईमान से मुराद ईमाने हक़ीक़ी है जिस पर सवाब का दारोमदार है और जिसका वाक़ेई ताल्लुक़ दिल की तस्दीक़ और आज़ा व जवारेह के अमल व किरदार से होता है वरना वह ईमान जिसका तज़किरा “या अय्योहल्लज़ीना आमलू ” में किया गया है इससे मुराद सिर्फ़ ज़बानी इक़रार और अदआए ईमान है वरना ऐसा न होता तो तमाम एहकाम का ताल्लुक़ सिर्फ़ मोमेनीन मुख़लेसीन से होता और मुनाफ़ेक़ीन इन क़वानीन से यकसर आज़ाद हो जाते)))

फ़िर सब्र के चार शोबे हैं - शौक़ ,ख़ौफ़ ,ज़ोहद और इन्तज़ारे मौत ,फ़िर जिसने जन्नत का इश्तेयाक़ पैदा कर लिया उसने ख़्वाहिशात को भुला दिया और जिसे जहन्नम का ख़ौफ़ हासिल हो गया उसने मोहर्रमात से इजतेनाब किया ,दुनिया में ज़ोहद इख़्तेयार करने वाला मुसीबतों को हलका तसव्वुर करता है और मौत का इन्तेज़ार करने वाला नेकियों की तरफ़ सबक़त करता है।

(((सब्र का दारोमदार चार चीज़ो पर है ,इन्सान रहमते इलाही का इश्तेयाक़ रखता हो ,और अज़ाबे इलाही से डरता हो ताके इस राह में ज़हमतें बरदाश्त करे ,इसके बाद दुनिया की तरफ़ से लापरवाह हो और मौत की तरफ़ सरापा तवज्जो हो ताके दुनिया के फ़िराक़ को बरदाश्त कर ले और मौत की सख़्ती के पेशे नज़र ही सख़्ती को आसान समझ ले)))

यक़ीन के भी चार शोबे हैं - होशियारी की बसीरत ,हिकमत की हक़ीक़त रसी ,इबरत की नसीहत और साबिक़ बुज़ुर्गों की सुन्नत ,होशियारी में बसीरत रखने वाले पर हिकमत रोशन हो जाती है और हिकमत की रोशनी इबरत को वाज़ेह कर देती है और इबरत की मारेफ़त गोया साबिक़ अक़वाम से मिला देती है।

(((यक़ीन की भी चार बुनियादें हैं ,अपनी हर बात पर मुकम्मल एतमाद रखता हो ,हक़ाएक़ को पहचानने की सलाहियत रखता हो ,दीगर अक़वाम के हालात से इबरत हासिल करे और सॉलेहीन के किरदार पर अमल करे ,ऐसा नहीं है तो इन्सान जेहले मरकब में मुब्तिला है और इसका यक़ीन फ़क़त वहम व गुमान है यक़ीन नहीं है।)))

अद्ल के भी चार शोबे हैं - तह तक पहुंच जाने वाली समझ , इल्म की गहराई , फ़ैसले की वज़ाहत और अक़्ल की पाएदारी।

जिसने फ़हम की नेमत पा ली वह इल्म की गहराई तक पहुंच गया और जिसने इल्म की गहराई को पा लिया वह फ़ैसले के घाट से सेराब होकर बाहर आया और जिसने अक़्ल इस्तेमाल कर ली उसने अपने अम्र में कोई कोताही नहीं की और लोगों के दरम्यान क़ाबिले तारीफ़ ज़िन्दगी गुज़ार दी।

जेहाद के भी चार शोबे हैं ,अम्रे बिल मारूफ़ ,नहीं अनिल मुनकर ,हर मक़ाम पर सिबाते क़दम और फ़ासिक़ों से नफ़रत व अदावत। लेहाज़ा जिसने अम्रे बिल मारूफ़ किया उसने मोमेनीन की कमर को मज़बूत कर दिया और जिसने मुनकरात से रोका उसने काफ़िरों की नाक रगड़ दी ,जिसने मैदाने क़ताल में सिबाते क़दम का मुज़ाहेरा किया वह अपने रास्ते पर आगे बढ़ गया और जिसने फ़ासिक़ों से नफ़रत व अदावत का बरताव किया परवरदिगार इसकी ख़ातिर इसके दुश्मनों से ग़ज़बनाक होगा और उसे रोज़े क़यामत ख़ुश कर देगा।

(((जेहाद का इन्हेसार भी चार मैदानों पर है ,अम्रे बिल मारूफ़ का मैदान ,नहीं अनिल मुनकर का मैदान ,क़त्ताल का मैदान और फ़ासिक़ों से नफ़रत व अदावत का मैदान ,इन चारों मैदानों में हौसलाए जेहाद नहीं है तो तन्हा अम्र व नहीं से कोई काम चलने वाला नहीं है और न ऐसा इन्सान वाक़ेई मुजाहिद कहे जाने के क़ाबिल है)))

और कुफ्ऱ के भी चार सुतून हैं ,बिला वजह गहराइयों में जाना ,आपस में झगड़ा करना ,कजी और इन्हेराफ़ और इख़्तेलाफ़ और अनाद। जो बिला सबब गहराई में डूब जाएगा वह पलट कर हक़ की तरफ़ नहीं आ सकता है और जो जेहालत की बिना पर झगड़ा करता रहता है वह हक़ की तरफ़ से अन्धा हो जाता है ,जो कजी का शिकार हो जाता है उसे नेकी बुराई ,और बुराई नेकी नज़र आने लगती है और वह गुमराही के नशे में चूर हो जाता है और जो झगड़े और अनाद में मुब्तिला हो जाता है उसके रास्ते दुश्वार ,मसाएल नाक़ाबिले हल और बच निकलने के तरीक़े तंग हो जाते हैं।

(((कुफ्ऱ इनकारे ख़ुदाई की शक्ल में हो या इन्कारे रिसालत की शक्ल में इसकी असास शिर्क पर हो या इन्कार हक़ाएक़ व वाज़ेहाते मज़हब पर ,हर क़िस्म के लिये चार में से कोई न कोई सबब ज़रूर होता है ,या इन्सान उन मसाएल की फ़िक्र में डूब जाता है जो उसके इमकान से बाहर हैं। या सिर्फ़ झगड़े की बुनियाद पर किसी अक़ीदे को इख़्तेयार कर लेता है या इसकी फ़िक्र में कजी पैदा हो जाती है और या वह अनाद और ज़िद का शिकार हो जाता है ,और खुली हुई बात यह है के इनमें से हर बीमारी वह है जो इन्सान को राहे रास्त पर आने से रोक देती है और इन्सान सारी ज़िन्दगी कुफ्ऱ ही में मुब्तिला रह जाता है ,बीमारी की हर क़िस्म के असरात अलग-अलग हैं लेकिन मजमूई तौर पर सबका असर यह है के इन्सान हक़रसी से महरूम हो जाता है और ईमान व यक़ीन की दौलत से बहरामन्द नहीं हो पाता है।)))

इसके बाद शक के चार शोबे हैः कट हुज्जती ,ख़ौफ़ ,हैरानी और बातिल के हाथों सुपुर्दगी ,ज़ाहिर है के जो कट हुज्जती को शोआर बना लेगा उसकी रात की सुबह कभी न होगी और जो हमेशा सामने की चीज़ों से डरता रहेगा वह उलटे पांव पीछे ही हटता रहेगा ,जो शक व शुबह में हैरान व सरगर्दां रहेगा उसे शयातीन अपने पैरों तले रौंद डालेंगे और जो अपने को दुनिया व आख़़ेरत की हलाकत के सुपुर्द कर देगा वह वाक़ेअन हलाक हो जाएगा।

(((शक ईमान व कुफ्ऱ के दरम्यान का रास्ता है जहां न इन्सान हक़ का यक़ीन पैदा कर पाता है और न कुफ्ऱ ही का अक़ीदा इख़्तेयार कर सकता है और दरम्यान में ठोकरें खाता रहता है और इस ठोकर के भी चार असबाब या मज़ाहिर होते हैं ,या इन्सान बिला सोचे समझे बहस शुरू कर देता है ,या ग़लती करने के ख़ौफ़ से परछाइयों से भी डरने लगता है ,या तरद्दुद और हैरानी का शिकार हो जाता है या हर पुकारने वाले की आवाज़ पर लब्बैक कहने लगता हैः

“ चलता हूँ थोड़ी दूर हर एक राहरौ के साथ ,पहचानता नहीं हूं की राहबर को मैं ’ )))

31.ख़ैर का अन्जाम देने वाला असल ख़ैर से बेहतर होता है और शर का अन्जाम देने वाला असल शर से भी बदतर होता है।

32.सख़ावत करो लेकिन फ़ुज़ूल ख़र्ची न करो और कमखर्ची इख़्तेयार करो लेकिन कंजूसी मत बनो।

33.बेहतरीन मालदारी और बेनियाज़ी यह है के इन्सान उम्मीदों को तर्क कर दे।

34.जो लोगों के बारे में बिला सोचे-समझे वह बातें कह देता है जिन्हें वह पसन्द नहीं करते हैं ,लोग उसके बारे में भी वह कह देते हैं जिसे जानते तक नहीं हैं।

35.जिसने उम्मीदों को आज़ाद किया उसने अमल को बरबाद किया।

(((इसमें कोई शक नहीं है के यह दुनिया उम्मीदों पर क़ायम है और इन्सान की ज़िन्दगी से उम्मीद का शोबा ख़त्म हो जाए तो अमल की सारी तहरीक सर्द पड़ जाएगी और कोई इन्सान कोई काम न करेगा लेकिन इसके बाद भी एतदाल एक बुनियादी मसला है और उम्मीदों की दराज़ी बहरहाल अमल को बरबाद कर देती है के इन्सान आखे़रत से ग़ाफ़िल हो जाता है और आख़ेरत से ग़ाफ़िल हो जाने वाला अमल नहीं कर सकता है।)))

36- (शाम की तरफ़ जाते हुए आपका गुज़र अम्बार के ज़मींदारों के पास से हुआ तो वह लोग सवारियों से उतर आए और आपके आगे दौड़ने लगे तो आपने फ़रमाया) यह तुमने क्या तरीक़ा इख़्तेयार किया है ?लोगों ने अर्ज़ की के यह हमारा एक अदब है जिससे हम  शख्सियतों का एहतेराम करते हैं ,फ़रमाया के ख़ुदा गवाह है इससे हुक्काम को कोई फ़ायदा नहीं होता है और तुम अपने नफ़्स को दुनिया में ज़हमत में डाल देते हो और आख़ेरत में बदबख़्ती का शिकार हो जाओगे और किस क़द्र ख़सारे के बाएस है वह मशक़्क़त जिसके पीछे अज़ाब हो और किस क़द्र फ़ायदेमन्द है वह राहत जिसके साथ जहन्नम से अमान हो।

(((इस इरशादे गिरामी से साफ़ वाज़ेह होता है के इस्लाम हर तहज़ीब को गवारा नहीं करता है और इसके बारे में यह देखना चाहता है के इसका फायदा क्या है और आखि़रत में इसका नुक़सान किस क़द्र है ,हमारी मुल्की तहज़ीब में फ़र्शी सलाम करना ,ग़ैरे ख़ुदा के सामने रूकूअ की हालत तक झुकना भी है जो इस्लाम में क़तअन जाएज़ नहीं है , किसी ज़रूरत से झुकना और है और ताज़ीम के ख़याल से झुकना और है , सलाम ताज़ीम के लिये होता है ,लेहाज़ा इसमें रूकूअ की हुदूद तक जाना सही नहीं है)))

37-आपने अपने फ़रज़न्द इमाम हसन (अ0) से फ़रमायाः बेटा मुझसे चार और फ़िर चार बातें महफ़ूज़ कर लो तो उसके बाद किसी अमल से कोई नुक़सान न होगा।

(((चार और चार का मक़सद शायद यह है के पहले चार का ताल्लुक़ इन्सान के ज़ाती औसाफ़ व ख़ुसूसियात से है और दूसरे चार का ताल्लुक़ इज्तेमाई मुआमलात से है और कमाले सआदतमन्दी यही है के इन्सान ज़ाती ज़ेवरे किरदार से भी आरास्ता रहे और इज्तेमाई बरताव को भी सही रखे)))

बेहतरीन दौलत व सरवत अक़्ल है और बदतरीन फ़क़ीरी हिमाक़त ,सबसे ज़्यादा वहशतनाक अम्र ख़ुद पसन्दी है और सबसे शरीफ़ हस्बे ख़ुश एख़लाक़ी ,बेटा! ख़बरदार किसी अहमक़ की दोस्ती इख़्तेयार न करना के तुम्हें फ़ायदा भी पहुंचाना चाहेगा तो नुक़सान पहुंचा देगा और इसी तरह किसी बख़ील से दोस्ती न करना के तुम से ऐसे वक़्त में दूर भागेगा जब तुम्हें इसकी शदीद ज़रूरत होगी और देखो किसी फ़ाजिर का साथ भी इख़्तेयार न करना के वह तुमको हक़ीर चीज़ के एवज़ भी बेच डालेगा और किसी झूटे की सोहबत भी इख़्तेयार न करना के वह मिस्ले सराब है जो दूर वाले को क़रीब कर देता है और क़रीब वाले को दूर कर देता है।

(((दूसरे मुक़ाम पर इमाम अलैहिस्सलाम ने इसी बात को आक़िल व अहमक़ के बजाए मोमिन और मुनाफ़िक़ के नाम से बयान फ़रमाया है और हक़ीक़ते अम्र यह है के इस्लाम की निगाह में मोमिन ही को आक़िल और मुनाफ़िक़ ही को अहमक़ कहा जाता है ,वरना जो इब्तिदा से बेख़बर और इन्तिहा से ग़ाफ़िल हो जाए न रहमान की इबादत करे और न जन्नतत के हुसूल का इन्तेज़ाम करे इसे किस एतबार से अक़्लमन्द कहा जा सकता है और उसे अहमक़ के अलावा दूसरा कौन सा नाम दिया जा सकता है यह और बात है के दौरे हाज़िर में ऐसे ही अफ़राद को दानिशमन्द और दानिशवर कहा जाता है और उन्हीं के एहतेराम के तौर पर दीन व दानिश की इस्तेलाह निकाली गई है के गोया दीनदार , दीनदार होता है और दानिश्वर नहीं। और दानिशवर दानिशवर होता है चाहे दीनदार न हो और बेदीनी ही में ज़िन्दगी गुज़ार दे)))

38-मुस्तहबाते इलाही में कोई क़ुरबते इलाही नहीं है अगर उनसे वाजिबात को नुक़सान पहुंच जाए।

(((मक़सद यह है के परवरदिगार ने जिस अज्र व सवाब का वादा किया है और जिसका इन्सान इस्तेहक़ाक़ पैदा कर लेता है वह किसी न किसी अमल ही पर पैदा होता है और मर्ज़ कोई अमल नहीं है ,लेकिन इसके अलावा फ़ज़्ल व करम का दरवाज़ा खुला हुआ है और वह किसी भी वक़्त और किसी भी शख़्स के शामिले हाल किया जा सकता है ,इसमें किसी का कोई इजारा नहीं है।)))

39-अक़्लमन्द की ज़बान उसके दिल के पीछे रहती है और अहमक़ का दिल उसकी ज़बान के पीछे रहता है।

सय्यद रज़ी- यह बड़ी अजीब व ग़रीब और लतीफ़ हिकमत है जिसका मतलब यह है के अक़्लमन्द इन्सान ग़ौर व फ़िक्र करने के बाद बोलता है और अहमक़ इन्सान बिला सोचे समझे कह डालता है गोया के आक़िल की ज़बान दिल की ताबेअ है और अहमक़ का दिल उसकी ज़बान का पाबन्द है।

40-अहमक़ का दिल उसके मुंह के अन्दर रहता है और अक़्लमन्द की ज़बान उसके दिल के अन्दर।

इमाम अली के अक़वाल (कथन) 41-60

41-अपने एक सहाबी से एक बीमारी के मौक़े पर फ़रमाया “अल्लाह ने तुम्हारी बीमारी को तुम्हारे गुनाहों के दूर करने का ज़रिया बना दिया है के ख़ुद बीमारी में कोई अज्र नहीं है लेकिन यह बुराइयों को मिटा देती है और इस तरह झाड़ देती है जैसे दरख़्त से पत्ते झड़ते हैं ,अज्र व सवाब ज़बान से कुछ कहने और हाथ पांव से कुछ करने में हासिल होता है और परवरदिगार अपने जिन बन्दों को चाहता है उनकी नीयत की सिदाक़त और बातिन की पाकीज़गी की बिना पर दाखि़ले जन्नत कर देता है।

सय्यद रज़ी- हज़रत ने बिलकुल सच फ़रमाया है के बीमारी में कोई अज्र नहीं है के यह कोई इस्तेहक़ाक़ी अज्र वाला काम नहीं है ,एवज़ तो उस अमल पर भी हासिल होता है जो बीमारियों वग़ैरह की तरह ख़ुदा बन्दे के लिये अन्जाम देता है लेकिन अज्र व सवाब सिर्फ़ उसी अमल पर होता है जो बन्दा ख़ुद अन्जाम देता है और मौलाए कायनात ने इस मक़ाम पर एवज़ और अज्र व सवाब के इसी फ़र्क़ को वाज़ेह फ़रमाया है जिसका इदराक आपके इल्मे रौशन और फ़िक्र साएब के ज़रिये हुआ है।

(((-मक़सद यह है के परवरदिगार ने जिस अज्र व सवाब का वादा किया है और जिसका इन्सान इस्तेहक़ाक़ पैदा कर लेता है वह किसी न किसी अमल ही पर पैदा होता है और मर्ज़ कोई अमल नहीं है ,लेकिन इसके अलावा फ़ज़्ल व करम का दरवाज़ा खुला हुआ है और वह किसी भी वक़्त और किसी भी शख़्स के शामिले हाल किया जा सकता है ,इसमें किसी का कोई इजारा नहीं है।)))

42-आपने ख़बाब बिन अलारत के बारे में फ़रमाया के ख़ुदा ख़बाब इब्ने अलारत पर रहमत नाज़िल करे। वह अपनी रग़बत से इस्लाम लाए ,अपनी ख़ुशी से हिजरत की और बक़द्रे ज़रूरत सामान पर इक्तेफ़ा की। अल्लाह की मर्ज़ी से राज़ी रहे और मुहाहिदाना ज़िन्दगी गुज़ार दी।

(((-हक़ीक़ते अम्र यह है के इन्सानी ज़िन्दगी का कमाल यह नहीं है के अल्लाह से राज़ी हो जाए ,यह काम निस्बतन आसान है के वह (अल्लाह) जल्दी राज़ी होने वाला है। कभी मामूली अमल से भी राज़ी हो जाता है और कभी बदतरीन अमल के बाद भी तौबा से राज़ी हो जाता है। सबसे मुश्किल काम बन्दे का ख़ुदा से राज़ी हो जाना है के वह किसी हाल में ख़ुश नहीं होता है और इक़तेदारे फ़िरऔन व दौलते क़ारून पाने के बाद भी या मग़रूर हो जाता है या ज़्यादा का मुतालेबा करने लगता है। अमीरूल मोमेनीन (अ0) ने ख़ेबाब के इसी किरदार की तरफ़ इशारा किया है के वह इन्तेहाई मसाएब के बावजूद ख़ुदा से राज़ी रहे और एक हर्फ़े शिकायत ज़बान पर नहीं लाए और ऐसा ही इन्सान वह होता है जिसके हक़ में तौबा की बशारत दी जा सकती है और वह अमीरूल मोमेनीन (अ0) की तरफ़ से मुबारकबाद का मुस्तहक़ होता है।)))

43-ख़ुशाबहाल उस शख़्स का जिसने आख़ेरत को याद रखा ,हिसाब के लिये अमल किया। बक़द्रे ज़रूरत पर क़ानेअ रहा और अल्लाह से राज़ी रहा।

44-अगर मैं इस तलवार से मोमिन की नाक भी काट दूं के मुझसे दुश्मनी करने लगे तो हरगिज़ न करेगा और अगर दुनिया की तमाम नेमतों मुनाफ़िक़ पर उण्डेल दूँ के मुझसे मोहब्बत करने लगे तो हरगिज़ न करेगा। इसलिये के इस इक़ीक़त का फ़ैसला नबीए सादिक़ की ज़बान से हो चुका है के “या अली (अ0)! कोई मोमिन तुमसे दुश्मनी नहीं कर सकता है और कोई मुनाफ़िक़ तुमसे मोहब्बत नहीं कर सकता है। ”

45-वह गुनाह जिसका तुम्हें रन्ज हो ,अल्लाह के नज़दीक उस नेकी से बेहतर है जिससे तुममें ग़ुरूर पैदा हो जाए।

(((अगरचे गुनाह में कोई ख़ूबी और बेहतरी नहीं है ,लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है के गुनाह के बाद इन्सान का नफ़्स मलामत करने लगता है और वह तौबा पर आमादा हो जाता है और ज़ाहिर है के ऐसा गुनाह जिसके बाद एहसासे तौबा पैदा हो जाए उस कारे ख़ैर से यक़ीनन बेहतर है जिसके बाद ग़ुरूर पैदा हो जाए और इन्सान अख़्वाने शयातीन की फ़ेहरिस्त में शामिल हो जाए)))

46-इन्सान की क़द्र व क़ीमत उसकी हिम्मत के एतबार से होती है और उसकी सिदाक़त उसकी मर्दान्गी के एतबार से होती है ,शुजाअत का पैमाना हमीयत व ख़ुद्दारी है और उफ़्फ़त का पैमाना ग़ैरत व हया।

(((क्या कहना उस शख़्स की हिम्मत का जो दावते ज़ुलशीरा में सारी क़ौम के मुक़ाबले में तनो तन्हा नुसरते पैग़म्बर (स0) पर आमादा हो गया और फ़िर हिजरत की रात तलवारों के साये में सो गया और मुख़्तलिफ़ मारेकों में तलवारों की ज़द पर रहा और आखि़रकार तलवार के साये ही में सजदए आखि़र भी अदा कर दिया ,इससे ज़्यादा क़द्रो क़ीमत का हक़दार दुनिया का कौन सा इन्सान हो सकता है)))

47-कामयाबी दूर अन्देशी से हासिल होती है और दूर अन्देशी फ़िक्र व तदब्बुर से। फ़िक्र व तदब्बुर का ताल्लुक़ इसरार की राज़दारी से है।

48-शरीफ़ इन्सान के हमले से बचो ,जब वह भूका हो और कमीने के हमले से बचो जब उसका पेट भरा हो।

49-लोगों के दिल सहराई जानवरों जैसे है। जो उन्हें सधा लेगा उसकी तरफ़ झुक जाएंगे।

(((मक़सद यह है के इन्सान दिलों को अपनी तरफ़ माएल करना चाहता है तो उसका बेहतरीन रास्ता यह है के बेहतरीन अख़लाक़ व किरदार का मुज़ाहेरा करे ताके यह दिले वहशी राम हो जाए वरना बदएख़लाक़ी और बदसुलूकी से वहशी जानवर के मज़ीद भड़क जाने का ख़तरा होता है इसके राम हो जाने का कोई तसव्वुर नहीं होता है।)))

50-तुम्हारा ऐब उसी वक़्त तक छिपा रहेगा जब तक तुम्हारा मुक़द्दर साज़गार है।

51-सबसे ज़्यादा माफ़ करने का हक़दार वह है जो सबसे ज़्यादा सज़ा देने की ताक़त रखता हो।

52-सख़ावत वही है जो इब्तेदाअन की जाए वरना मांगने के बाद तो शर्म व हया और इज़्ज़त की पासदारी की बिना पर भी देना पड़ता है।

(((मक़सद यह है के इन्सान सख़ावत करना चाहे और उसका अज्र व सवाब हासिल करना चाहे तो उसे साएल के सवाल का इन्तेज़ार नहीं करना चाहिये के सवाल के बाद तो यह शुबह भी पैदा हो जाता है के अपनी आबरू बचाने के लिये दे दिया है और इस तरह इख़लासे नीयत का अमल मजरूह हो जाता है और सवाब इख़लासे नीयत पर मिलता है ,अपनी ज़ात के तहफ़्फ़ुज़ पर नहीं।)))

53-अक़्ल जैसी कोई दौलत नहीं है और जेहालत जैसी कोई फ़क़ीरी नहीं है अदब जैसी कोई मीरास नहीं है और मशविरा जैसा कोई मददगार नहीं है।

(((आज मुसलमान तमाम अक़वामे आलम का मोहताज इसीलिये हो गया है के उसने इल्म व फ़न के मैदान से क़दम हटा लिया है और सिर्फ़ ऐश व इशरत की ज़िन्दगी गुज़ारना चाहता है ,वरना इस्लामी अक़्ल से काम लेकर बाबे मदीनतुल इल्म से वाबस्तगी इख़्तेयार की होती तो बाइज़्ज़त ज़िन्दगी गुज़ारता और बड़ी-बड़ी ताक़तें भी उसके नाम से दहल जातीं जैसा के दौरे हाज़िर में बाक़ायदा महसूस किया जा रहा है।)))

54-सब्र की दो क़िस्में है ,एक नागवार हालात पर सब्र और एक महबूब और पसन्दीदा चीज़ों के मुक़ाबले में सब्र।

55-मुसाफ़िर में दौलतमन्दी हो तो वह भी वतन का दर्जा रखती है और वतन में ग़ुर्बत हो तो वह भी परदेस की हैसियत रखता है।

56-क़नाअत वह सरमाया है जो कभी ख़त्म होने वाला नहीं है।

सय्यद रज़ी - यह फ़िक़रा रसूले अकरम (स0) से भी नक़्ल किया गया है (और यह कोई हैरत अंगेज़ बात नहीं है ,अली (अ0) बहरहाल नफ़्से रसूल (स0) हैं।)

(((कहा जाता है के एक शख़्स ने सुक़रात को सहराई घास पर गुज़ारा करते देखा तो कहने लगा के अगर तुमने बादशाह की खि़दमत में हाज़िरी दी होती तो इस घास पर गुज़ारा न करना पड़ता तो सुक़रात ने फ़ौरन जवाब दिया के अगर तुमने घास पर गुज़ारा कर लिया होता तो बादशाह की खि़दमत के मोहताज न होते ,घास पर गुज़ारा कर लेना इज़्ज़त है और बादशाह की खि़दमत में हाज़िर रहना ज़िल्लत है।)))

57-माल ख़्वाहिशात का सरचश्मा है। 

(((इसमें कोई शक नहीं है के ज़बान इन्सानी ज़िन्दगी में जिस क़द्र कारआमद है उसी क़द्र ख़तरनाक भी है ,यह तो परवरदिगार का करम है के उसने इस दरिन्दे को पिन्जरे के अन्दर बन्द कर दिया है और उस पर 32 हज़ार पहरेदार बिठा दिये हैं लेकिन यह दरिन्दा जब चाहता है ख़्वाहिशात से साज़बाज़ करके पिन्जरे का दरवाज़ा खोल लेता है और पहरेदारों को धोका देकर अपना काम शुरू कर देता है और कभी कभी सारी क़ौम को खा जाता है।)))

58-जो तुम्हें बुराइयों से डराए गोया उसने नेकी की बशारत दे दी।

59-ज़बान एक दरिन्दा है ,ज़रा आजाद कर दिया जाए को काट खाएगा।

60-औरत एक बिच्छू के मानिन्द है जिसका डसना भी मज़ेदार होता है।

इमाम अली के अक़वाल (कथन) 61-80

(((इस फ़िक़रे में एक तरफ़ औरत के मिज़ाज की तरफ़ इशारा किया गया है जहां इसका डंक भी मज़ेदार मालूम होता है)))

61-जब तुम्हें कोई तोहफ़ा दिया जाए तो उससे बेहतर वापस करो और जब कोई नेमत दी जाए तो उससे बढ़ाकर उसका बदला दो लेकिन इसके बाद भी फ़ज़ीलत उसी की रहेगी जो पहले कारे ख़ैर अन्जाम दे।

62-सिफ़ारिश करने वाला तलबगार के बाल-व-पर के मानिन्द होता है।

63-अहले दुनिया उन सवारों के मानिन्द हैं जो ख़ुद सो रहे हैं और उनका सफ़र जारी है।

64-अहबाब का न होना भी एक ग़ुर्बत है।

65-हाजत का पूरा न होना ना-अहल से मांगने से बेहतर है।

(((-इन्सान को चाहिये के दुनिया से महरूमी पर सब्र कर ले और जहां तक मुमकिन हो किसी के सामने हाथ न फैलाए के हाथ फैलाना किसी ज़िल्लत से कम नहीं है।)))

66-मुख़्तसर माल देने में भी शर्म न करो के महरूम कर देना इससे ज़्यादा कमतर दर्जे का काम है।

67-पाक दामनी फ़क़ीरी की ज़ीनत है और शुक्रिया मालदारी की ज़ीनत है।

(((मक़सद यह है के इन्सान को ग़ुरबत में अज़ीफ़ और ग़ैरतदार होना चाहिये और दौलतमन्दी में मालिक का शुक्रगुज़ार होना चाहिये के इसके अलावा शराफ़त व करामत की कोई निशानी नहीं है।)))

68-अगर तुम्हारे हस्बे ख़्वाहिश काम न हो सके तो जिस हाल में रहो ख़ुश रहो। (के अफ़सोस का कोई फ़ायदा नहीं है)

(((बाज़ ओरफ़ा ने इस हक़ीक़त को उस अन्दाज़ से बयान किया है के “मैं उस दुनिया को लेकर क्या करूं जिसका हाल यह है के मैं रह गया तो वह न रह जाएगी और वह रह गई तो मैं न रह जाऊंगा)))

69-जाहिल हमेशा अफ़रात व तफ़रीत का शिकार रहता है या हद से आगे बढ़ जाता है या पीछे ही रह जाता है (के उसे हर का अन्दाज़ा ही नहीं है)

70-जब अक़्ल मुकम्मल होती है तो बातें कम हो जाती हैं (क्यूं की आक़िल को हर बात तोल कर कहना पड़ती है)

71-ज़माना बदन को पुराना कर देता है और ख़्वाहिशात को नया ,मौत को क़रीब बना देता है और तमन्नाओं को दूर ,यहां जो कामयाब हो जाता है वह भी ख़स्ताहाल रहता है और जो इसे खो बैठता है वह भी थकन का शिकार रहता है।

(((माले दुनिया का हाल यही है के आ जाता है तो इन्सान कारोबार में मुब्तिला हो जाता है और नहीं रहता है तो उसके हुसूल की राह में परेशान रहता है)))

72-जो शख़्स अपने को क़ाएदे मिल्लत बनाकर पेश करे उसका फ़र्ज़ है के लोगों को नसीहत करने से पहले अपने नफ़्स को तालीम दे और ज़बान से तबलीग़ करने से पहले अपने अमल से तबलीग़ करे और यह याद रखो के अपने नफ़्स को तालीम व तरबियत देने वाला दूसरों को तालीम व तरबियत देने वाले से ज़्यादा क़ाबिले एहतेराम होता है।

73-इन्सान की एक-एक सांस मौत की तरफ़ एक-एक क़दम है।

74-हर शुमार होने वाली चीज़ ख़त्म होने वाली है (सांसें) और हर आने वाला बहरहाल आकर रहेगा (मौत) ।

75-जब मसाएल में शुबह पैदा हो जाए तो इब्तिदा को देखकर अन्जामे कार का अन्दाज़ा कर लेना चाहिये।

76-ज़र्रार बिन हमज़ा अलज़बाई माविया के दरबार में हाज़िर हुए तो उसने अमीरूल मोमेनीन (अ0) के बारे में दरयाफ़्त किया ?

(((बाज़ हज़रात ने इनका नाम ज़रार बिन ज़मरह लिखा है और यह इनका कमाले किरदार है के माविया जैसे दुश्मने अली (अ0) के दरबार में हक़ाएक़ का एलान कर दिया और इस मशहूर हदीस के मानी को मुजस्सम बना दिया के बेहतरीन जेहाद बादशाहे ज़ालिम के सामने कलमए हक़ का इज़हार व ऐलान है)))

ज़र्रार ने कहा के मैंने ख़ुद अपनी आंखों से देखा है के रात की तारीकी में मेहराब में खड़े हुए रेशे मुबारक को हाथों में लिये हुए ऐसे तड़पते थे जिस तरह सांप का काटा हुआ तड़पता है और कोई ग़म रसीदा गिरया करता है ,और फ़रमाया करते थे-

‘ ऐ दुनिया ,ऐ दुनिया! मुझसे दूर हो जा ,तू मेरे सामने बन संवर कर आई है या मेरी वाक़ेअन मुश्ताक़ बन कर आई है ?ख़ुदा वह वक़्त न लाए के तू मुझे धोका दे सके ,जा मेरे अलावा किसी और को धोका दे ,मुझे तेरी ज़रूरत नहीं है ,मैं तुझे तीन मरतबा तलाक़ दे चुका हूँ जिसके बाद रूजूअ का कोई इमकान नहीं है ,तेरी ज़िन्दगी बहुत थोड़ी है और तेरी हैसियत बहुत मामूली है और तेरी उम्मीद बहुत हक़ीर शै है ” आह ज़ादे सफ़र किस क़द्र कम है ,रास्ता किस क़द्र तूलानी है ,मन्ज़िल किस क़द्र दूर है और वारिद होने की जगह किस क़द्र ख़तरनाक है।

(((खुली हुई बात है के जब कोई शख़्स किसी औरत को तलाक़ दे देता है तो वह औरत भी नाराज़ होती है और उसके घरवाले भी नाराज़ रहते हैं। अमीरूल मोमेनीन (अ0) से दुनिया का इन्हेराफ़ और अहले दुनिया की दुश्मनी का राज़ यही है के आपने उसे तीन मरतबा तलाक़ दे दी थी तो इसका कोई इमकान नहीं था के अहले दुनिया आपसे किसी क़ीमत पर राज़ी हो जाते और यही वजह है के पहले अबनाए दुनिया ने तीन खि़लाफ़तों के मौक़े पर अपनी बेज़ारी का इज़हार किया और उसके बाद तीन जंगों के मौक़े पर अपनी नाराज़गी का इज़हार किया लेकिन आप किसी क़ीमत पर दुनिया से सुलह करने पर आमादा न हुए और हर मरहले पर दीने इलाही और उसके तालीमात को कलेजे से लगाए रहे।)))

77-एक मर्दे शामी ने सवाल किया के क्या हमारा शाम की तरफ़ जाना क़ज़ा व क़द्रे इलाही की बिना पर था (अगर ऐसा था तो गोया कोई अज्र व सवाब न होगा) तो आपने फ़रमाया के “शायद तेरा ख़याल यह है के इससे मुराद क़ज़ाए लाज़िम और क़द्रे हतमी है के जिसके बाद अज़ाब व सवाब बेकार हो जाता है और वादा व वईद का निज़ाम मोअत्तल हो जाता है ,ऐसा हरगिज़ नहीं है ,परवरदिगार ने अपने बन्दों को हुक्म दिया है तो उनके इख़्तेयार के साथ और नहीं की है तो उन्हें डराते हुए। उसने आसान सी तकलीफ़ दी है और किसी ज़हमत में मुब्तिला नहीं किया है। थोड़े अमल पर बहुत सा अज्र दिया है और उसकी नाफ़रमानी इसलिये नहीं होती है के वह मग़लूब हो गया है और न इताअत इसलिये होती है के उसने मजबूर कर दिया है। उसने न अम्बिया को खेल करने के लिये भेजा है और न किताब को अबस नाज़िल किया है और न ज़मीन व आसमान पर उनकी दरम्यानी मख़लूक़ात को बेकार पैदा किया है। यह सिर्फ़ काफ़िरों का ख़याल है और काफ़िरों के लिये जहन्नम में वील है। ’

 (आखि़र में वज़ाहत फ़रमाई के क़ज़ा अम्र के मानी में है और हम उसके हुक्म से गए थे न के जब्र व इकराह से)

78-हर्फ़े हिकमत जहां भी मिल जाए ले लो के ऐसी बात अगर मुनाफ़िक़ के सीने में दबी होती है तो वह उस वक़्त तक बेचैन रहता है जब तक वह निकल न जाए और मोमिन के सीने में जाकर दूसरी हिकमतों से मिलकर बहल जाती है।

79-हिकमत मोमिन की गुमशुदा दौलत है लेहाज़ा जहाँ मिले ले लेना चाहिये ,चाहे वह मुनाफिक़ो से ही क्यों न हासिल हो।

80-हर इन्सान की क़द्र व क़ीमत वही नेकियां हैं जो उसमें पाई जाती हैं।

सय्यद रज़ी-यह वह कलमए क़ुम्मिया है जिसकी कोई क़ीमत नहीं लगाई जा सकती है और उसके हमपल्ला कोई दूसरी हिकमत भी नहीं है और कोई कलम इसके हम पाया भी नहीं हो सकता है।

(((यह अमीरूल मोमेनीन (अ0) का फ़लसफ़ाए हयात है के इन्सान की क़द्र व क़ीमत का ताअय्युन न उसके हसब व नसब से होता है और न क़ौम व क़बीले से ,न डिग्रियाँ उसके मरतबे को बढ़ा सकती हैं और न ख़ज़ाने उसको शरीफ़ बना सकते हैं ,न कुर्सी उसके मेयार को बलन्द कर सकती हैं और न इक़्तेदार उसके कमालात का ताअय्युन कर सकता है ,इन्सानी कमाल का मेयार सिर्फ़ वह कमाल है जो उसके अन्दर पाया जाता है। अगर उसके नफ़्स में पाकीज़गी और किरदार में हुस्न है तो यक़ीनन अज़ीम मरतबे का हामिल है वरना उसकी कोई क़द्र व क़ीमत नहीं है।)))

इमाम अली के अक़वाल (कथन) 81-100

81-मैं तुम्हें ऐसी पांच बातों की नसीहत कर रहा हूँ के जिनके हुसूल के लिये ऊंटों को एड़ लगाकर दौड़ाया जाए तो भी वह उसकी अहल हैं।

ख़बरदार! तुममें से कोई शख़्स अल्लाह के अलावा किसी से उम्मीद न रखे और अपने गुनाहों के अलावा किसी से न डरे और जब किसी चीज़ के बारे में सवाल किया जाए और न जानता हो तो लाइल्मी के एतराफ़ में न शरमाए और जब नहीं जानता है तो सीखने में न शरमाए और सब्र इख़्तेयार करे के सब्र ईमान के लिये वैसा ही है जैसा बदन के लिये सर और ज़ाहिर है के उस बदन में कोई ख़ैर नहीं होता है जिसमें सर न हो।

(((सब्र इन्सानी ज़िन्दगी का वह जौहर है जिसकी वाक़ेई अज़मत का इदराक भी मुश्किल है। तारीख़े बशरीयत में उसके मज़ाहिर का हर क़दम पर मुशाहेदा किया जा सकता है। हज़रत आदम (अ0) जन्नत में थे ,परवरदिगार ने हर तरह का आराम दे रखा था ,सिर्फ एक दरख़्त से रोक दिया था लेकिन उन्होंने मुकम्मल क़ूवते सब्र का मुज़ाहिरा न किया जिसका नतीजा यह हुआ के जन्नत से बाहर आ गए और लम्हों में “ग़ुलामी ” से “शाही ” का फासला तय कर लिया।

सब्र और जन्न्नत के इसी रिश्ते की तरफ़ क़ुरआने मजीद ने सूरए दहर में इशारा किया है “जज़ाहुम बेमा सबरू जन्नतंव व हरीरन ” अल्लाह ने उनके सब्र के बदले में उन्हें जन्नत और हरीरे जन्नत से नवाज़ दिया। )))

82-आपने उस शख़्स से फ़रमाया जो आपका अक़ीदतमन्द तो न था लेकिन आपकी बेहद तारीफ़ कर रहा था “मैं तुम्हारे बयान से कमतर हूँ लेकिन तुम्हारे ख़याल से बालातर हूँ ” (यानी जो तुमने मेरे बारे में कहा है वह मुबालेग़ा है लेकिन जो मेरे बारे में अक़ीदा रखते हो वह मेरी हैसियत से बहुत कम है)

(((यही वजह है के रसूले अकरम (स0) के बाद मौलाए कायनात के अलावा जिसने भी “सलूनी ” का दावा किया उसे ज़िल्लत से दो-चार होना पड़ा और सारी इज़्ज़त ख़ाक में मिल गई।)))

83-तलवार के बचे हुए लोग ज़्यादा बाक़ी रहते हैं और उनकी औलाद भी ज़्यादा होती है।

84-जिसने नावाक़फ़ीयत का इक़रार छोड़ दिया वह कहीं न कहीं ज़रूर मारा जाएगा।

85-बूढ़े की राय ,जवान की हिम्मत से ज़्यादा महबूब होती है ,या बूढ़े की राय जवान के ख़तरे में डटे रहने से ज्यादा पसन्दीदा होती है।

(((इसमें कोई शक नहीं है के ज़िन्दगी के हर मरहलए अमल पर जवान की हिम्मत ही काम आती है काश्तकारी ,सनअतकारी से लेकर मुल्की दिफ़ाअ तक सारा काम जवान ही अन्जाम देते हैं और चमनाते ज़िन्दगी की सारी बहार जवानों की हिम्म्मत ही से वाबस्ता है लेकिन इसके बावजूद निशाते अमल के लिये सही ख़ुतूत का तअय्युन बहरहाल ज़रूरी है और यह काम बुज़ुर्ग लोगों के तजुर्बात ही से अन्जाम पा सकता है ,लेहाज़ा बुनियाद हैसियत बुज़ुर्गों के तजुर्बात की है और सानवी हैसियत नौजवानों की हिम्मते मर्दाना की है ,अगरचे ज़िन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाने के लिये यह दोनों पहिये ज़रूरी हैं।)))

86-मुझे उस शख़्स के हाल पर ताज्जुब होता है जो अस्तग़फ़ार की ताक़त रखता है और फ़िर भी रहमते ख़ुदा से मायूस हो जाता है।

87-इमाम मोहम्मद बाक़ीर (अ0) ने आपका यह इरशादे गिरामी नक़्ल किया है के “रूए ज़मीन पपर अज़ाबे इलाही से बचाने के दो ज़राए थे ,एक को परवरदिगार ने उठा लिया है (पैग़म्बरे इस्लाम स0) लेहाज़ा दूसरे से तमस्सुक इख़्तेयार करो। यानी अस्तग़फ़ार- के मालिके कायनात ने फ़रमाया है के “ख़ुदा उस वक़्त तक उन पर अज़ाब नहीं कर सकता है जब तक आप मौजूद हैं ,और उस वक़्त तक अज़ाब करने वाला नहीं है जब तक यह अस्तग़फ़ार कर रहे हैं ”

सय्यद रज़ी- यह आयते करीमा से बेहतरीन इसतेख़राज और लतीफ़तरीन इस्तनबात है।

88-जिसने अपने और अल्लाह के दरम्यान के मामलात की इस्लाह कर ली ,अल्लाह उसके और लोगों के दरम्यान के मामलात की इस्लाह कर देगा और जो आख़ेरत के काम की इस्लाह कर लेगा अल्लाह उसकी दुनिया के काम की इस्लाह कर देगा। और जो अपने नफ़्स को नसीहत करेगा अल्लाह उसकी हिफ़ाज़त का इन्तेज़ाम कर देगा।

(((उमूरे आख़ेरत की इस्लाह का दायरा सिर्फ़ इबादात व रियाज़ात में महदूद नहीं है बल्कि इसमें ववह तमाम उमूरे दुनिया शामिल हैं जो आखि़रत के लिये अन्जाम दिये जाते हैं के दुनिया आख़ेरत की खेती है और आख़ेरत की इस्लाह दुनिया की इस्लाह के बग़ैर मुमकिन नहीं है। फ़र्क़ सिर्फ़ यह होता है के आख़ेरत वाले दुनिया को बराए आखि़रत इख़्तेयार करते हैं और दुनियादार इसी को अपना हदफ़ और मक़सद क़रार दे लेते हैं और इस तरह आखि़रत से यकसर ग़ाफ़िल हो जाते हैं।)))

89-मुकम्मल आलिमे दीन वही है जो लोगों को रहमते ख़ुदा से मायूस न बनाए और उसकी मेहरबानियों से ना उम्मीद न करे और उसके अज़ाब की तरफ़ मुतमईन न बना दे।

90-यह दिल उसी तरह उकता जाते हैं जिस तरह बदन उकता जाते हैं लेहाज़ा उनके लिये नई-नई लतीफ़ हिकमतें तलाश करो।

91-सबसे हक़ीर इल्म वह है जो सिर्फ़ ज़बान पर रह जाए और सबसे ज़्यादा क़ीमती इल्म वह है जिसका इज़हार आज़ा व जवारेह से हो जाए।

(((अफ़सोस के दौरे हाज़िर में इल्म का चर्चा सिर्फ़ ज़बानों पर रह गया है और क़ूवते गोयाई ही को कमाले इल्म को तसव्वुर कर लिया गया है और इसका नतीजा यह है के अमल व किरदार की कमी होती जा रही है और लोग अपनी ज़ाती जेहालत से ज़्यादा दानिशवरों की दानिशवरी और अहले इल्म के इल्म की बदौलत तबाह व बरबाद हो रहे हैं।)))

92-ख़बरदार ,तुममें से कोई शख़्स यह न कहे के ख़ुदाया मैं फ़ित्ने से तेरी पनाह मांगता हूँ। के कोई शख़्स भी फ़ित्ने से अलग नहीं हो सकता है। अगर पनाह मांगना है तो फ़ित्नों की गुमराहियों से पनाह मांगो इसलिये के परवरदिगार ने अमवाल और औलाद को भी फ़ित्ना क़रार दिया है और इसके मानी यह हैं के अमवाल और औलाद के ज़रिये इम्तेहान लेना चाहता है ताके इस तरह रोज़ी से नाराज़ होने वाला क़िस्मत पर राज़ी रहने वाले से अलग हो जाए जबके वह उनके बारे में ख़ुद उनसे बहेतर जानता है लेकिन चाहता है के इन आमाल का इज़हार हो जाए जिनसे इन्सान सवाब या अज़ाब का हक़दार होता है के बाज़ लोग लड़का चाहते हैं लड़की नहीं चाहते हैं और बाज़ माल के बढ़ाने को दोस्त रखते हैं और शिकस्ताहाली को बुरा समझते हैं।

सय्यद रज़ी - यह वह नादिर बात है जो आयत “इन्नमा अमवालोकुम ” की तफ़सीर में आपसे नक़्ल की गई है।

(((यह उस आयते करीमा की तरफ़ इशारा है के परवरदिगार सिर्फ़ मुत्तक़ीन के आमाल को क़ुबूल करता है ,और उसका मक़सद यह है के अगर इन्सान तक़वा के बग़ैर आमाल अन्जाम दे तो आमाल देखने में बहुत नज़र आएंगे लेकिन वाक़ेअन कसीर कहे जाने के क़ाबिल नहीं हैं। और इसके बरखि़लाफ़ अगर तक़वा के साथ अमल अन्जाम दे तो देखने में शायद वह अमल क़लील दिखाई दे लेकिन वाक़ेअन क़लील न होगा के दरजए क़ुबूलियत पर फ़ाएज़ हो जाने वाला अमल किसी क़ीमत पर क़लील नहीं कहा जा सकता है।)))

93-आपसे ख़ैर के बारे में सवाल किया गया तो फ़रमाया के ख़ैर ,माल और औलाद की कसरत नहीं है ,ख़ैर इल्म की कसरत और हिल्म की अज़मत है और यह है के लोगों पर इबादते परवरदिगार से नाज़ करो ,लेहाज़ा अगर नेक काम करो तो अल्लाह का शुक्र बजा लाओ और बुरा काम करो तो अस्तग़फ़ार करो ,और याद रखो के दुनिया में ख़ैर सिर्फ़ दो तरह के लोगों के लिये है ,वह इन्सान जो गुनाह करे तो तौबा से उसकी तलाफ़ी कर ले और वह इन्सान जो नेकियों में आगे बढ़ता जाए।

94-तक़वा के साथ कोई अमल क़लील नहीं कहा जा सकता है ,के जो अमल भी क़ुबूल हो जाए उसे क़लील किस तरह कहा जा सकता है।

(((यह उस आयते करीमा की तरफ़ इशारा है के परवरदिगार सिर्फ़ मुत्तक़ीन के आमाल को क़ुबूल करता है ,और इसका मक़सद यह है के अगर इन्सान तक़वा के बग़ैर आमाल अन्जाम दे तो यह आमाल देखने में बहुत नज़र आएंगे लेकिन वाक़ेअन कसीर कहे जाने के क़ाबिल नहीं हैं ,और इसके बरखि़लाफ़ अगर तक़वा के साथ अमल अन्जाम दे तो देखने में शायद वह अमल क़लील दिखाई दे लेकिन वाक़ेअन क़लील न होगा के दरजए क़ुबूलियत पर फ़ाएज़ हो जाने वाला अमल किसी क़ीमत पर क़लील नहीं कहा जा सकता है।)))

95-लोगों में अम्बिया से सबसे ज़्यादा क़रीब वह लोग होते हैं जो सबसे ज़्यादा उनके तालीमात से बाख़बर हों ,यह कहकर आपने आयत शरीफ़ की तिलावत फ़रमाई “इब्राहीम (अ0) से क़रीबतर वह लोग हैं जो उनकी पैरवी करें ,और यह पैग़म्बर (स0) है और साहेबाने ईमान हैं। ” इसके बाद फ़रमाया के पैग़म्बर (स0) का दोस्त वही है जो उनकी इताअत करे ,चाहे नसब के एतबार से किसी क़द्र दूर क्यों न हो और आपका दुश्मन वही है जो आपकी नाफ़रमानी करे चाहे क़राबत के ऐतबार से कितना ही क़रीब क्यों न हो। ”

96-आपने सुना के ख़ारेजी शख़्स नमाज़े शब पढ़ रहा है और तिलावते क़ुरान कर रहा है तो फ़रमाया के यक़ीन के साथ सो जाना शक के साथ नमाज़ पढ़ने से बेहतर है।

(((यह इस्लाहे अक़ीदा की तरफ़ इशारा है के जिस शख़्स को हक़ाएक़ का यक़ीन नहीं है और वह शक की ज़िन्दगी गुज़ार रहा है उसके आमाल की क़द्र व क़ीमत ही क्या है ,आमाल की क़द्र व क़ीमत का ताअय्युन इन्सान के इल्म व यक़ीन और उसकी मारेफ़त से होता है ,लेकिन इसका यह मतलब हरगिज़ नहीं है के जितने अहले यक़ीन हैं सबको सो जाना चाहिये और नमाज़े शब का पाबन्द नहीं होना चाहिये के यक़ीन की नीन्द शक के अमल से बेहतर है।

ऐसा मुमकिन होता तो सबसे पहले मासूमीन (अ0) इन आमाल को नज़र अन्दाज़ कर देते जिनके यक़ीन की शान यह थी के अगर परदे उठा दिये जाते जब भी यक़ीन में इज़ाफ़े की गुन्जाइश नहीं थी।)))

97-जब किसी ख़बर को सुनो तो अक़्ल के मेयार पर परख लो और सिर्फ़ नक़्ल पर भरोसा न करो के इल्म के नक़्ल करने वाले बहुत होते हैं और समझने वाले बहुत कम होते हैं।

(((आलमे इस्लाम की एक कमज़ोरी यह भी है के मुसलमान रिवायात के मज़ामीन से एक दम ग़ाफ़िल है और सिर्फ़ रावियों के एतमाद पर रिवायात पर अमल कर रहा है जबके बेशुमार रिवायात के मज़ामीन खि़लाफ़े अक़्ल व मन्तिक़ और मुख़ालिफ़े उसूल व अक़ाएद हैं और मुसलमान को इस गुमराही का एहसास भी नहीं है।)))

98-आपने एक शख़्स को कलमा इन्ना लिल्लाह ज़बान पर जारी करते हुए सुना तो फ़रमाया के इन्नालिल्लाह इक़रार है के हम किसी की मिल्कियत हैं और इन्नल्लाहा राजेऊन एतराफ़ है के एक दिन फ़ना हो जाने वाले हैं।

99-एक क़ौम ने आपके सामने आपकी तारीफ़ कर दी तो आपने दुआ के लिये हाथ उठा दिये ,ख़ुदाया तू मुझे मुझसे बेहतर जानता है और मैं अपने को इनसे बेहतर पहचानता हूँ लेहाज़ा मुझे इनके ख़याल से बेहतर क़रार दे देना और यह जिन कोताहियों को नहीं जानते हैं उन्हें माफ़ कर देना।

(((ऐ काश हर इन्सान इस किरदार को अपना लेता और तारीफ़ों से धोका खाने के बजाए अपने काम की इस्लाह की फ़िक्र करता और मालिक की बारगाह में इसी तरह अर्ज़ करता जिस तरह मौलाए कायनात ने सिखाया है मगर अफ़सोस के ऐसा कुछ नहीं है और जेहालत इस मन्ज़िल पर आ गई है के साहेबाने इल्म आम लोगो की तारीफ़ से धोका खा जाते हैं और अपने को बाकमाल तसव्वुर करने लगते हैं जिसका मुशाहेदा ख़ोतबा की ज़िन्दगी में भी हो सकता है और शोअरा की महफ़िलों में भी जहां इज़हारे इल्म करने वाले बाकमाल होते हैं और तारीफ़ करने वालों की अकसरीयत उनके मुक़ाबले में बेकमाल ,मगर इसके बाद भी इन्सान तारीफ़ से ख़ुश होता है और मग़रूर हो जाता है।)))

100-हाजत रवाई तीन चीज़ों के बग़ैर मुकम्मल नहीं होती है 1. अमल को छोटा समझे ताके वह बड़ा क़रार पा जाए 2. उसे पोशीदा तौर पर अन्जाम दे ताके वह ख़ुद अपना इज़हार करे 3. उसे जल्दी पूरा कर दे ताके ख़ुशगवार मालूम हो।

(((ज़ाहिर है के हाजत पूरी होने का अमल जल्द हो जाता है तो इन्सान को बेपनाह मसर्रत होती है वरना इसके बाद काम तो हो जाता है लेकिन मसर्रत का फ़िक़दान रहता है और वह रूहानी इम्बेसात हासिल नहीं होता है जो मुद्दआ पेश करने के फ़ौरन बाद पूरा हो जाने में हासिल होता है)))

इमाम अली के अक़वाल (कथन) 101-120

101-लोगों पर एक ज़माना आने वाला है जब सिर्फ़ लोगों की बुराई बयान करने वाला मुक़र्रबे बारगाह हुआ करेगा और सिर्फ़ फ़ाजिर (पतीत) को ख़ुश मिज़ाज समझा जाएगा और सिर्फ़ मुन्सिफ़ को कमज़ोर क़रार दिया जाएगा ,लोग सदक़े को ख़सारा ,सिलए रहम को एहसान और इबादत को लोगों पर बरतरी का ज़रिया क़रारे देंगे ,ऐसे वक़्त में हुकूमत औरतों के मशविरे ,बच्चों के इक़्तेदार और ख़्वाजा सराओं (किन्नरों) की तदबीर के सहारे रह जाएगी।

(((अफ़सोस के अहले दुनिया ने इस इबादत को भी अपनी बरतरी का ज़रिया बना लिया है जिसकी तशरीह इन्सान के ख़ुज़ूअ व ख़ुशूअ और जज़्बए बन्दगी के इज़हार के लिये हुई थी और जिसका मक़सद यह था के इन्सान की ज़िन्दगी से ग़ुरूर और शैतनत निकल जाए और तवाज़ोअ व इन्केसार उस पर मुसल्लत हो जाए।)))

(((बज़ाहिर किसी दौर में भी ख़्वाजा सराओं को मुशीरे ममलेकत की हैसियत हासिल नहीं रही है और न उनके किसी मख़सूस तदब्बुर की निशानदेही की गई है ,इसलिये बहुत मुमकिन है के इस लफ़्ज़ से मुराद वह तमाम अफ़राद हों जिनमें इन लोगों की ख़सलतें पाई जाती हैं और जो हुक्काम की हर हाँ में हाँ मिला देते हैं और उनकी हर रग़बत व ख़्वाहिश के सामने सरे तस्लीम ख़म कर देते हैं और उन्हें ज़िन्दगी के अन्दर व बाहर हर शोबे में बराबर का दख़ल रहता है।)))

102-लोगों ने आपकी चादर को बोसीदा देखकर गुज़ारिश कर दी तो आपने फ़रमाया के इससे दिल में ख़ुशू और नफ़्स में एहसासे कमतरी पैदा होता है और मोमेनीन इसकी इक़्तेदा भी कर सकते हैं ,याद रखो दुनिया और आख़ेरत आपस में दो नासाज़गार दुश्मन हैं और दो मुख़्तलिफ़ रास्ते ,लेहाज़ा जो दुनिया से मोहब्बत और ताल्लुक़ ख़ातिर रखता है वह आख़ेरत का दुश्मन हो जाता है और जो रास्ता एक से क़रीबतर होता है वह दूसरे से दूरतर हो जाता है ,फिर यह दोनों आपस में एक-दूसरे की सौत जैसी हैं।

103-नौफ़ बकाली कहते हैं के मैंने एक शब अमीरूल मोमेनीन (अ0) को देखा के आपने बिस्तर से उठकर सितारों पर निगाह की और फ़रमाया के नौफ़! सो रहे हो या बेदार हो ?मैंने अर्ज़ की के हुज़ूर जाग रहा हूँ ,फ़रमाया के नौफ़! ख़ुशाबहाल इनके जो दुनिया से किनाराकश हों तो आख़ेरत की तरफ़ रग़बत रखते हों ,यही वह लोग हैं जिन्होंने ज़मीन को बिस्तर बनाया है और ख़ाक को फ़र्श ,पानी को शरबत क़रार दिया है और क़ुरान व दुआ को अपने ज़ाहिर व बातिन का मुहाफ़िज़ ,इसके बाद दुनिया से यूँ अलग हो गए जिस तरह हज़रत मसीह (अ0)।

(((इस मक़ाम पर लफ़्जे़ क़र्ज़ इशारा है के निहायत मुख़्तसर हिस्सा हासिल किया है जिस तरह दांत से रोटी काट ली जाती है और सारी रोटी को मुंह में नहीं भर लिया जाता है के इस कैफ़ियत को ख़ज़म कहते हैं ,क़र्ज़ नहीं कहते हैं)))

नौफ़! देखो दाऊद (अ0) रात के वक़्त ऐसे ही मौक़े पर क़याम किया करते थे और फ़रमाते थे के यह वह वक़्त है जिसमें जो बन्दा भी दुआ करता है परवरदिगार उसकी दुआ को क़ुबूल कर लेता है ,मगर यह के सरकारी टैक्स वसूल करने वाला ,लोगों की बुराई करने वाला ,ज़ालिम हुकूमत की पुलिस वाला या सारंगी और ढोल ताशे वाला हो।

सय्यद रज़ी –इरतेबतः सारंगी को कहते हैं और कोबत के मानी ढोल के हैं और बाज़ हज़रात के नज़दीक इरतबा ढोल है और कोबा सारंगी।

(((अफ़सोस की बात है के बाज़ इलाक़ो में बाज़ मोमिन अक़वाम की पहचान ही ढोल ताशा और सारंगी बन गई है जबके मौलाए कायनात (अ) ने इस कारोबार को इस क़द्र मज़मूम क़रार दिया है के इस अमल के अन्जाम देने वालों की दुआ भी क़ुबूल नहीं होती है। इस हिकमत में दीगर अफ़राद का तज़किरा ज़ालिमों के ज़ैल में किया गया है और खुली हुई बात है के ज़ालिम हुकूमत के लिये किसी तरह का काम करने वाला पेशे परवरदिगार मुस्तजाबुद् दावात नहीं हो सकता है ,जब वह अपने ज़रूरियाते हयात को ज़ालिमों की मदद से वाबस्ता कर देता है तो परवरदिगार अपना करम उठा लेता है।)))

104-परवरदिगार ने तुम्हारे ज़िम्मे कुछ फ़राएज़ क़रार दिये हैं लेहाज़ा ख़बरदार उन्हें ज़ाया न करना और उसने कुछ हुदूद भी मुक़र्रर कर दिये हैं लेहाज़ा उनसे तजावुज़ न करना। उसने जिन चीज़ों से मना किया है उनकी खि़लाफ़वर्ज़ी न करना और जिन चीज़ों से सुकूत इख़्तेयार फ़रमाया है ज़बरदस्ती उन्हें जानने की कोशिश न करना के वह भूला नहीं है।

105-जब भी लोग दुनिया संवारने के लिये दीन की किसी बात को नज़रअन्दाज़ कर देते हैं तो परवरदिगार उससे ज़्यादा नुक़सानदेह रास्ते खोल देता है।

106-बहुत से आलिम हैं जिन्हें दीन से नावाक़फ़ीयत ने मार डाला है और फ़िर उनके इल्म ने भी कोई फ़ायदा नहीं पहुंचाया है।

(((यह दानिश्वराने मिल्लत हैं जिनके पास डिग्रियों का ग़ुरूर तो है लेकिन दीन की बसीरत नहीं है ,ज़ाहिर है के ऐसे अफ़राद का इल्म तबाह कर सकता है आबाद नहीं कर सकता है)))

107-इस इन्सान के वजूद में सबसे ज़्यादा ताज्जुबख़ेज़ वह गोश्त का टुकड़ा है जो एक रग से आवेज़ां कर दिया गया है और जिसका नाम क़ल्ब है के इसमें हिकमत के सरचश्मे भी हैं और इसकी ज़िदें भी हैं के जब उसे उम्मीद की झलक नज़र आती है तो लालच ज़लील बना देती है और जब लालच में हैजान पैदा होता है तो हिरस बरबाद कर देती है

(((इन्सानी क़ल्ब को दो तरह की सलाहियतों से नवाज़ा गया है ,इसमें एक पहलू अक़्ल व मन्तिक़ का है और दूसरा जज़्बात व अवातिफ़ का ,इस इरशादे गिरामी में दो पहलू की तरफ़ इशारा किया गया है और इसके मुतज़ाद ख़ुसूसियात की तफ़सील बयान की गई है।)))

और जब मायूसी का क़ब्ज़ा हो जाता है तो हसरत मार डालती है और जब ग़ज़ब तारी होता है तो ग़म व ग़ुस्सा शिद्दत इख़्तेयार कर लेता है और जब ख़ुशहाल हो जाता है तो हिफ़्ज़ मा तक़द्दुम (आने वाले खतरे से बचना) को भूल जाता है और जब ख़ौफ़ तारी होता है तो एहतियात दूसरी चीज़ों से ग़ाफ़िल कर देती है और जब हालात में वुसअत पैदा होती है तो ग़फ़लत क़ब्ज़ा कर लेती है ,और जब माल हासिल कर लेता है तो बेनियाज़ी सरकश बना देती है और जब कोई मुसीबत नाज़िल हो जाती है तो फ़रयाद रूसवा कर देती है और जब फ़ाक़ा काट खाता है तो बलाए गिरफ़्तार कर लेती है और जब भूक थका देती है तो कमज़ोरी बिठा देती है और जब ज़रूरत से ज़्यादा पेट भर जाता है तो शिकमपुरी की अज़ीयत में मुब्तिला हो जाता है ,मुख़्तसर यह है के हर कोताही नुक़सानदेह होती है और हर ज़्यादती तबाहकुन।

108-हम अहलेबैत (अ0) वह नुक़्तए एतदाल हैं जिनसे पीछे रह जाने वाला आगे बढ़कर उनसे मिल जाता है और आगे बढ़ जाने वाला पलट कर मुलहक़ हो जाता है।

(((शेख़ मोहम्मद अब्दहू ने इस फ़िक़रे की यह तशरीह की है के अहलेबैत अलै0 इस मसनद से मुशाबेहत रखते हैं जिसके सहारे इन्सान की पुश्त मज़बूत होती है और उसे सुकूने ज़िन्दगी हासिल होता है ,वसता के लफ़्ज़ से इस बात की तरफ़ इशारा किया गया है के तमाम मसनदें इसी से इत्तेसाल रखती हैं और सबका सहारा वही है ,अहलेबैत (अ0) उस सिराते मुस्तक़ीम पर हैं जिनसे आगे बढ़ जाने वालों को भी उनसे मिलना पड़ता है और पीछे रह जाने वालों को भी। )))

109-हुक्मे इलाही का निफ़ाज़ वही कर सकता है जो हक़ के मामले में मुरव्वत न करता हो और आजिज़ी व कमज़ोरी का इज़हार न करता हो और लालच के पीछे न दौड़ता हो।

110-जब सिफ़्फ़ीन से वापसी पर सहल बिन हनीफ़ अन्सारी का कूफ़े में इन्तेक़ाल हो गया जो हज़रत के महबूब सहाबी थे तो आपने फ़रमाया के “मुझसे कोई पहाड़ भी मोहब्बत करेगा तो टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा। मक़सद यह है के मेरी मोहब्बत की आज़माइश सख़्त है और इसमें मसाएब की हमले हो जाते है जो शरफ़ सिर्फ़ मुत्तक़ी और नेक किरदार लोगों को हासिल होता है जैसा के आपने दूसरे मौक़े पर इरशाद फ़रमाया है।

111-जो हम अहलेबैत (अ0) से मोहब्बत करे उसे जामाए फ़क़्र (गुरबत का लिबास) पहनने के लिये तैयार हो जाना चाहिये।

सय्यद रज़ी- “बाज़ हज़रात ने इस इरशाद की एक दूसरी तफ़सीर की है जिसके बयान का यह मौक़ा नहीं है ”

(((मक़सद यह है के अहलेबैत (अ0) का कुल सरमायाए हयात दीन व मज़हब और हक़ व हक़्क़ानियत है और उसके बरदाश्त करने वाले हमेशा कम होते हैं लेहाज़ा इस राह पर चलने वालों को हमेशा मसाएब का सामना करना पड़ता है और इसके लिये हमेशा तैयार रहना चाहिये।)))

112-अक़्ल से ज़्यादा फ़ायदेमन्द कोई दौलत नहीं है और ख़ुदपसन्दी से ज़्यादा वहशतनाक कोई तन्हाई नहीं है ,तदबीर जैसी कोई अक़्ल नहीं है और तक़वा जैसी कोई बुज़ुर्गी नहीं है हुस्ने अख़लाक़ जैसा कोई साथी नहीं है और अदब जैसी कोई मीरास नहीं है ,तौफ़ीक़ जैसा कोई पेशरौ नहीं है और अमले सालेह जैसी कोई तिजारत नहीं है ,सवाब जैसा कोई फ़ायदा नहीं है और शहादत में एहतियात जैसी कोई परहेज़गारी नहीं है ,हराम की तरफ़ से बेरग़बती जैसा कोई ज़ोहद नहीं है और तफ़क्कुर जैसा कोई इल्म नहीं है और अदाए फ़राएज़ जैसी कोई इबादत नहीं है और हया व सब्र जैसा कोई ईमान नहीं है ,तवाज़ोह जैसा कोई हसब नहीं है और इल्म जैसा कोई शरफ़ नहीं है ,हिल्म जैसी कोई इज्ज़त नहीं है और मशविरे से ज़्यादा मज़बूत कोई पुश्त पनाह नहीं है।

113-जब ज़माना और अहले ज़माना पर नेकियों का ग़लबा हो और कोई शख़्स किसी शख़्स से कोई बुराई देखे बग़ैर बदज़नी पैदा करे तो उसने उस शख़्स पर ज़ुल्म किया है और जब ज़माना और अहले ज़माना पर फ़साद का ग़लबा हो और कोई शख़्स किसी से हुस्ने ज़न क़ायम करे तो गोया उसने अपने ही को धोका दिया है।

114-एक शख़्स ने आपसे मिज़ाजपुरसी कर ली तो फ़रमाया के इसका हाल क्या होगा जिसकी बक़ा ही फ़ना की तरफ़ ले जा रही है और सेहत ही बीमारी का पेशख़ेमा है और वह अपनी पनाहगाह से एक दिन गिरफ़्त में ले लिया जाएगा।

115-कितने ही लोग ऐसे हैं जिन्हें नेकियां देकर गिरफ़्त में लिया जाता है और वह पर्दापोशी ही से धोके में रहते हैं और अपने बारे में अच्छी बात सुनकर धोका खा जाते हैं और देखो अल्लाह ने मोहलत से बेहतर कोई आज़माइश का ज़रिया नहीं क़रार दिया है।

116-मेरे बारे में दो तरह के लोग हलाक हो गए हैं- वह दोस्त जो दोस्ती में ग़ुलू से काम लेते हैं और वह दुश्मन जो दुश्मनी में मुबालेग़ा करते हैं।

117-फ़ुरसत को छोड़ देना रन्ज व ग़म की वजह बनता है। (((इन्सानी ज़िन्दगी में ऐसे मक़ामात बहुत कम आते हैं जब किसी काम का मुनासिब मौक़ा हाथ आ जाता है लेहाज़ा इन्सान का फ़र्ज़ है के इस मौक़े से फ़ायदा उठा ले और उसे ज़ाया न होने दे के फ़ुर्सत का निकल जाना इन्तेहाई रन्ज व अन्दोह का बाएस हो जाता है)))

118-दुनिया की मिसाल सांप जैसी है जो छूने में इन्तेहाई नर्म होता है और इसके अन्दर ज़हरे क़ातिल होता है। फ़रेब मे आने वाला जाहिल इसकी तरफ़ माएल हो जाता है और साहेबे अक़्ल व होश इससे होशियार रहता है। (((अक़्ल का काम यह है के वह चीज़ो के बातिन पर निगाह रखे और सिर्फ़ ज़ाहिर के फ़रेब में न आए वरना सांप का ज़ाहिर भी इन्तेहाई नर्म व नाज़ुक होता है जबके उसके अन्दर का ज़हर इन्तेहाई क़ातिल और तबाहकुन होता है)))

119-आपसे क़ुरैश के बारे में दरयाफ़्त किया गया तो आपने फ़रमाया के बनी मख़ज़ूम क़ुरैश का महकता हुआ फ़ूल हैं ,उनसे गुफ़्तगू भी अच्छी लगती है और उनकी औरतों से रिश्तेदारी भी महबूब है और बनी अब्द शम्स बहुत दूर तक सोचने वाले और अपने पीछे की बातों की रोक थाम करने वाले हैं। लेकिन हम बनी हाशिम अपने हाथ की दौलत के लुटाने और मौत के मैदान में जान देने वाले हैं ,वह लोग अदद में ज़्यादा मक्रो फ़रेब में आगे और बदसूरत हैं और हम लोग फ़सीह व बलीग़ ,मुख़लिस और रौशन चेहरा हैं।

120-इन दो तरह के आमाल में किस क़द्र फ़ासला पाया जाता है ,वह अमल जिसकी लज़्ज़त ख़त्म हो जाए और उसका वबाल बाक़ी रह जाए और वह अमल जिसकी ज़हमत ख़त्म हो जाए और अज्र बाक़ी रह जाए। (((दुनिया व आखि़रत के आमाल का बुनियादी फ़र्क़ यही है के दुनिया के आमाल की लज़्ज़त ख़त्म हो जाती है और आखि़रत में इसका हिसाब बाक़ी रह जाता है और आख़ेरत के आमाल की ज़हमत ख़त्म हो जाती है और इसका अज्र व सवाब बाक़ी रह जाता है)))

इमाम अली के अक़वाल (कथन) 121-140

121-आपने एक जनाज़े में शिरकत फ़रमाई और एक शख़्स को हंसते हुए देख लिया तो फ़रमाया “ऐसा मालूम होता है के मौत किसी और के लिये लिखी गई है और यह हक़ किसी दूसरे पर लाज़िम क़रार दिया गया है और गोया के जिन मरने वालों को हम देख रहे हैं वह ऐसे मुसाफ़िर हैं जो अनक़रीब वापस आने वाले हैं के इधर हम उन्हें ठिकाने लगाते हैं और उधर उनका तरका खाने लगते हैं जैसे हम हमेशा रहने वाले हैं ,इसके बाद हमने हर नसीहत करने वाले मर्द और औरत को भुला दिया है और हर आफ़त व मुसीबत का निशाना बन गए हैं। ” (((इन्सान की सबसे बड़ी कमज़ोरी यह है के वह किसी मरहले पर इबरत हासिल करने के लिये तैयार नहीं होता है और हर मन्ज़िल पर इस क़द्र ग़ाफ़िल हो जाता है जैसे न इसके पास देखने वाली आंख है और न समझने वाली अक़्ल ,वरना इसके मानी क्या हैं के आगे-आगे जनाज़ा जा रहा है और पीछे लोग हंसी मज़ाक़ कर रहे हैं या सामने मय्यत को क़ब्र में उतारा जा रहा है और हाज़िरीने कराम दुनिया के सियासी मसाएल हल कर रहे हैं ,यह सूरते हाल इस बात की अलामत है के इन्सान बिल्कुल ग़ाफ़िल हो चुका है और उसे किसी तरह का होश नहीं रह गया है।)))

122-ख़ुशाबहाल उसका जिसने अपने अन्दर तवाज़ोह की अदा पैदा की ,अपने कस्ब को पाकीज़ा बना लिया ,अपने बातिन को नेक कर लिया ,अपने अख़लाक़ को हसीन बना लिया ,अपने माल के ज़्यादा हिस्से को राहे ख़ुदा में ख़र्च कर दिया और अपनी ज़बानदराज़ी पर क़ाबू पा लिया। अपने शर को लोगों से दूर रखा और सुन्नत को अपनी ज़िन्दगी में जगह दी और बिदअत से कोई निस्बत नहीं रखी।

सय्यद रज़ी- बाज़ लोगों ने इस कलाम को रसूले अकरम (स0) के हवाले से भी बयान किया है जिस तरह के इससे पहले वाला कलामे हिकमत है।

123-औरत का ग़ैरत करना कुफ्ऱ है और मर्द का ग़ुयूर होना ऐने ईमान है। (((इस्लाम ने अपने मख़सूस मसालेह के तहत मर्द को चार शादीयों की इजाज़त दी है और इसी को आलमी मसाएल का हल क़रार दिया है लेहाज़ा किसी औरत को यह हक़ नहीं है के वह मर्द की दूसरी शादी पर एतराज़ करे या दूसरी औरत से हसद और बेज़ारी का इज़हार करे के यह बेज़ारी दरहक़ीक़त उस दूसरी औरत से नहीं है इस्लाम के क़ानूने अज़वाज से है और क़ानूने इलाही से बेज़ारी और नफ़रत का एहसास करना कुफ्ऱ है इस्लाम नहीं है। इसके बरखि़लाफ़ औरत को दूसरी शादी की इजाज़त नहीं दी गई है लेहाज़ा शौहर का हक़ है के अपने होते हुए दूसरे शौहर के तसव्वुर से बेज़ारी का इज़हार करे और यही उसके कमाले हया व ग़ैरत और कमाले इस्लाम व ईमान के बराबर है।)))

124-मैं इस्लाम की वह तारीफ़ कर रहा हूँ जो मुझसे पहले कोई नहीं कर सका है ,इस्लाम सुपुर्दगी है और सुपुर्दगी यक़ीन ,यक़ीन तस्दीक़ है और तस्दीक़ इक़रार ,इक़रार अदाए फ़र्ज़ है और अदाए फ़र्ज़ अमल।

125-मुझे कंजूस के हाल पर ताज्जुब होता है के उसी फ़क़्र में मुब्तिला हो जाता है जिससे भाग रहा है और फिर उस दौलतमन्दी से महरूम हो जाता है जिसको हासिल करना चाहता है ,दुनिया में फ़क़ीरों जैसी ज़िन्दगी गुज़ारता है और आख़ेरत में मालदारों जैसा हिसाब देना पड़ता है ,इसी तरह मुझे मग़रूर आदमी पर ताज्जुब होता है के जो कल नुत्फ़ा (वीर्य) था और कल मुरदार हो जाएगा और फ़िर अकड़ रहा है ,मुझे उस शख़्स के बारे में भी हैरत होती है जो वजूदे ख़ुदा में शक करता है हालांके मख़लूक़ाते ख़ुदा को देख रहा है और उसका हाल भी हैरतअंगेज़ है जो मौत को भूला हुआ है हालां के मरने वालों को बराबर देख रहा है ,मुझे उसके हाल पर भी ताज्जुब होता है जो आख़ेरत के इमकान का इन्कार कर देता है हालांके पहले वजूद का मुशाहेदा कर रहा है ,और उसके हाल पर भी हैरत है जो फ़ना हो जाने वाले घर को आबाद कर रहा है और बाक़ी रह जाने वाले घर को छोड़े हुए है।

126-जिसने अमल में कमी की वह रंज व अन्दोह में हर हाल मे मुब्तिला होगा और अल्लाह को अपने उस बन्दे की कोई परवाह नहीं है जिसके जान व माल में अल्लाह का कोई हिस्सा न हो। (((कंजूसी और बुज़दिली इस बात की अलामत है के इन्सान अपने जान व माल में से कोई हिस्सा अपने परवरदिगार को नहीं देना चाहता है और खुली हुई बात है के जब बन्दा मोहताज होकर मालिक से बेनियाज़ होना चाहता है तो मालिक को उसकी क्या ग़र्ज़ है ,वह भी क़तअ ताल्लुक़ कर लेता है।)))

127-सर्दी के मौसम से इब्तिदा में एहतियात करो और आखि़र में इसका ख़ैर मक़दम करो के इसका असर बदन पर दरख़्तों के पत्तों जैसा होता है के यह मौसम इब्तिदा में पत्तों को झुलसा देता है और आखि़र में शादाब बना देता है।

128-अगर ख़़ालिक़ की अज़मत का एहसास पैदा हो जाएगा तो मख़लूक़ात ख़ुद ब ख़ुद निगाहों से गिर जाएगी।

129-सिफ़्फ़ीन से वापसी पर कूफ़े से बाहर क़ब्रिस्तान पर नज़र पड़ गई तो फ़रमाया ,ऐ वहशतनाक घरों के रहने वालों! ऐ वीरान मकानात के बाशिन्दों! और तारीक क़ब्रों में बसने वालों ,ऐ ख़ाक नशीनों ,ऐ ग़ुरबत ,वहदत और वहशत वालों! तुम हमसे आगे चले गए हो और हम तुम्हारे नक़्शे क़दम पर चलकर तुमसे मुलहक़ होने वाले हैं ,देखो तुम्हारे मकानात आबाद हो चुके हैं ,तुम्हारी बीवियों का दूसरा अक़्द हो चुका है और तुम्हारे अमवाल तक़सीम हो चुके हैं। यह तो हमारे यहाँ की ख़बर है ,अब तुम बताओ के तुम्हारे यहाँ की ख़बर क्या है ?इसके बाद असहाब की तरफ़ रूख़ करके फ़रमाया के “अगर इन्हें बोलने की इजाज़त मिल जाती तो तुम्हें सिर्फ़ यह पैग़ाम देते के बेहतरीन ज़ादे राह तक़वाए इलाही है। ” (((इन्सानी ज़िन्दगी के दो जुज़ हैं एक का नाम है जिस्म और एक का नाम है रूह और इन्हीं दोनों के इत्तेहाद व इत्तेसाल का नाम है ज़िन्दगी और इन्हीं दोनों की जुदाई का नाम है मौत। अब चूंकि जिस्म की बक़ा रूह के वसीले से है लेहाज़ा रूह के जुदा हो जाने के बाद वह मुर्दा भी हो जाता है और सड़ गल भी जाता है और इसके अज्ज़ा मुन्तशिर होकर ख़ाक में मिल जाते हैं ,लेकिन रूह ग़ैर माद्दी होने की बुनियाद पर अपने आलिम से मुलहक़ हो जाती है और ज़िन्दा रहती है यह और बात है के इसके तसर्रूफ़ात इज़्ने इलाही के पाबन्द होते हैं और उसकी इजाज़त के बग़ैर कोई तसर्रूफ़ नहीं कर सकती है ,और यही वजह है के मुर्दा ज़िन्दों की आवाज़ सुन लेता है लेकिन जवाब देने की सलाहियत नहीं रखता है। अमीरूल मोमेनीन (अ0) ने इसी राज़े ज़िन्दगी की नक़ाब कुशाई फ़रमाई है के यह मरने वाले जवाब देने के लाएक़ नहीं हैं लेकिन परवरदिगार ने मुझे वह इल्म इनायत फ़रमाया है जिसके ज़रिये मैं यह एहसास कर सकता हूँ के इन मरनेवालों के ला शऊर में क्या है और यह जवाब देने के क़ाबिल होते तो क्या जवाब देते और तुम भी इनकी सूरते हाल को महसूस कर लो तो इस अम्र का अन्दाज़ा कर सकते हो के इनके पास इसके अलावा कोई जवाब और कोई पैग़ाम नहीं है के बेहतरीन ज़ादे राह तक़वा है।)))

130-एक शख़्स को दुनिया की मज़म्मत करते हुए सुना तो फ़रमाया - ऐ दुनिया की मज़म्मत करने वाले और इसके फ़रेब में मुब्तिला होकर इसके महमिलात से धोका खा जाने वाले! तू इसी से धोका भी खाता है और इसी की मज़म्मत भी करता है ,यह बता के तुझे इस पर इल्ज़ाम लगाने का हक़ है या इसे तुझ पर इल्ज़ाम लगाने का हक़ है ,आखि़र इसने कब तुझसे तेरी अक़्ल को छीन लिया था और कब तुझको धोका दिया था ?क्या तेरे आबा-व-अजदाद की कहन्गी की बिना पर गिरने से धोका दिया है या तुम्हारी माओं की ज़ेरे ख़ाक ख़्वाबगाह से धोका दिया है ?कितने बीमार हैं जिनकी तुमने तीमारदारी की है और अपने हाथों से उनका इलाज किया है और चाहा है के वह शिफ़ायाब हो जाएं और हकीमो से रुजू भी किया है। उस सुबह के हंगाम जब न कोई दवा काम आ रही थी और न रोना धोना फ़ायदा पहुंचा रहा था ,न तुम्हारी हमदर्दी किसी को फ़ायदा पहुंचा सकी और न तुम्हारा मक़सद हासिल हो सका और न तुम मौत को दफ़ा कर सके। इस सूरते हाल में दुनिया ने तुमको अपनी हक़ीक़त दिखला दी थी और तुम्हें तुम्हारी हलाकत से आगाह कर दिया था (लेकिन तुम्हें होश न आया)। याद रखो के दुनिया बावर करने वाले के लिये सच्चाई का घर है और समझदार के लिये अम्न व आफ़ियत की मन्ज़िल है और नसीहत हासिल करने वाले के लिये नसीहत का मक़ाम है ,यह दोस्ताने ख़ुदा के सुजूद की मन्ज़िल और मलाएका-ए आसमान का मसला है। यहीं वहीए इलाही का नुज़ूल होता है और यहीं औलियाए ख़ुदा आखि़रत का सौदा करते हैं जिसके ज़रिये रहमत को हासिल कर लेते हैं और जन्नत को फ़ायदे में ले लेते हैं ,किसे हक़ है के इसकी मज़म्मत करे जबके उसने अपनी जुदाई का एलान कर दिया है और अपने फ़िराक़ की आवाज़ लगा दी है और अपने रहने वालों की सुनानी सुना दी है। अपनी बला से इनके इब्तिला का नक़्शा पेश किया है और अपने सुरूर से आखि़रत के सुरूर की दावत दी है ,इसकी शाम आफ़ियत में होती है तो सुबह मुसीबत में होती है ताके इन्सान में रग़बत भी पैदा हो और ख़ौफ़ भी। उसे आगाह भी कर दे और होशियार भी बना दे ,कुछ लोग निदामत की सुबह इसकी मज़म्मत करते हैं और कुछ लोग क़यामत के रोज़ इसकी तारीफ़ करेंगे ,जिन्हें दुनिया ने नसीहत की तो उन्होंने उसे क़ुबूल कर लिया ,इसने हक़ाएक़ बयान किये तो उसकी तस्दीक़ कर दी और मोएज़ा किया तो इसके मोएज़ा से असर लिया।

131-परवरदिगार की तरफ़ से एक मलक मुअय्यन है जो हर रोज़ आवाज़ देता है के ऐ लोगो! पैदा करो तो मरने के लिये ,जमा करो तो फ़ना होने के लिये और तामीर करो तो ख़राब होने के लिये (यानी आखि़री अन्जाम को निगाह में रखो) (((भला उस सरज़मीन को कौन बुरा कह सकता है जिस पर मलाएका का नुज़ूल होता है ,औलियाए ख़ुदा सजदा करते हैं ,ख़ासाने ख़ुदा ज़िन्दगी गुज़ारते हैं और नेक बन्दे अपनी आक़ेबत बनाने का सामान करते हैं ,यह सरज़मीन बेहतरीन सरज़मीन है और यह इलाक़ा मुफ़ीदतरीन इलाक़ा है मगर सिर्फ़ उन लोगों के लिये जो इसका वही मसरफ़ क़रार दें जो ख़ासाने ख़ुदा क़रार देते हैं और इससे इसी तरह आक़ेबत संवारने का काम लें जिस तरह औलियाए ख़ुदा काम लेते हैं ,वरना इसके बग़ैर यह दुनिया बला है बला ,और इसका अन्जाम तबाही और बरबादी के अलावा कुछ नहीं है।)))

132-दुनिया एक गुज़रगाह है मन्ज़िल नहीं है ,इसमें लोग दो तरह के हैं ,एक वह शख़्स है जिसने अपने नफ़्स को बेच डाला और हलाक कर दिया और एक वह है जिसने ख़रीद लिया और आज़ाद कर दिया।

133-दोस्त उस वक़्त तक दोस्त नहीं हो सकता जब तक अपने दोस्त के तीन मवाक़े पर काम न आए मुसीबत के मौक़े पर ,उसकी ग़ैबत में ,और मरने के बाद।

134-जिसे चार चीज़ें दे दी गईं वह चार से महरूम नहीं रह सकता है ,जिसे दुआ की तौफ़ीक़ मिल गई वह क़ुबूलियत से महरूम न होगा और जिसे तौबा की तौफ़ीक़ हासिल हो गई वह क़ुबूलियत से महरूम न होगा ,अस्तग़फ़ार हासिल करने वाला मग़फ़ेरत से महरूम न होगा और शुक्र करने वाला इज़ाफ़े से महरूम न होगा। सय्यद रज़ी इस इरशादे गिरामी की तस्दीक़ आयाते क़ुरआनी से होती है के परवरदिगार ने दुआ के बारे में फ़रमाया है “मुझसे दुआ करो मैं क़ुबूल करूंगा ,और अस्तग़फ़ार के बारे में फ़रमाया है “जो बुराई करने के बाद या अपने नफ़्स पर ज़ुल्म करने के बाद ख़ुदा से तौबा करेगा वह उसे ग़फ़ूरूर्रहीम पाएगा ” शुक्र के बारे में इरशाद होता है “अगर तुम शुक्रिया अदा करोगे तो हम नेमतों में इज़ाफ़ा कर देंगे ” और तौबा के बारे में इरशाद होता है “तौबा उन लोगों के लिये है जो जेहालत की बिना पर गुनाह करते हैं और फ़िर फ़ौरन तौबा कर लेते हैं ,यही वह लोग हैं जिनकी तौबा अल्लाह क़ुबूल कर लेता है और वह हर एक की नीयत से बाख़बर भी है और साहेबे हिकमत भी है। ” (((इस बेहतरीन बरताव में इताअत ,उफ़्फत ,तदबीरे मन्ज़िल ,क़नाअत ,अदम मुतालेबात ,ग़ैरत व हया और तलबे रिज़ा जैसी तमाम चीज़ें शामिल हैं जिनके बग़ैर अज़द्वाजी ज़िन्दगी ख़ुशगवार नहीं हो सकती है और दिन भर ज़हमत बरदाश्त करके नफ़्क़ा फ़राहम करने वाला शौहर आसूदा व मुतमईन नहीं हो सकता है)))

135-नमाज़ हर मुत्तक़ी के लिये वसीलए तक़र्रूब है और हज हर कमज़ोर के लिये जेहाद है ,हर शै की एक ज़कात होती है और बदन की ज़कात रोज़ा है ,औरत का जेहाद शौहर के साथ बेहतरीन बरताव है।

136-रोज़ी के नूज़ूल का इन्तेज़ाम सदक़े के ज़रिये से करो।

137-जिसे मुआवज़े का यक़ीन होता है वह अता में दरियादिली से काम लेता है।

138-ख़ुदाई इमदाद का नुज़ूल बक़द्रे ख़र्च होता है (ज़ख़ीराअन्दोज़ी और फ़िज़ूल ख़र्ची के लिये नहीं)

139-जो मयानारवी से काम लेगा वह मोहताज न होगा।

140-मुताल्लेक़ीन की कमी भी एक तरह की आसूदगी है।

(((इसमें कोई शक नहीं है के तन्ज़ीमे हयात एक अक़्ली फ़रीज़ा है और हर मसले को सिर्फ़ तवक्कल बख़ुदा के हवाले नहीं किया जा सकता है ,इस्लाम ने अज़्दवाजी कसरते नस्ल पर ज़ोर दिया है ,लेकिन दामन देख कर पैर फैलाने का शऊर भी दिया है लेहाज़ा इन्सान की ज़िम्मेदारी है के इन दोनों के दरम्यान से रास्ता निकाले और इस अम्र के लिये आमादा रहे के कसरते मुताल्लिक़ीन से परेशानी ज़रूर पैदा होगी और फिर परेशानी की शिकायत और फ़रयाद न करे।)))

इमाम अली के अक़वाल (कथन) 141-160

141-मेल मोहब्बत पैदा करना अक़्ल का आधा हिस्सा है।

142-हम व ग़म ख़ुद भी आधा बुढ़ापा है।

143-सब्र बक़द्रे मुसीबत नाज़िल होता है और जिसने मुसीबत के मौक़े पर रान पर हाथ मारा ,गोया के अपने अमल और अज्र को बरबाद कर दिया। (हम्ज़ सब्र है हंगामा नहीं है ,लेकिन यह सब अपनी ज़ाती मुसीबत के लिये है)

144-कितने रोज़ेदार हैं जिन्हें रोज़े से भूक और प्यास के अलावा कुछ नहीं हासिल होता है और कितने आबिद शब ज़िन्दावार हैं जिन्हें अपने क़याम से शब बेदारी और मशक़्क़त के अलावा कुछ हासिल नहीं होता है ,होशमन्द इन्सान का सोना और खाना भी क़ाबिले तारीफ़ होता है।

(((मक़सद यह है के इन्सान इबादत को बतौरे रस्म व आदत अन्जाम न दे बल्कि जज़्बाए इताअत व बन्दगी के तहत अन्जाम दे ताके वाक़ेअन बन्दाए परवरदिगार कहे जाने के क़ाबिल हो जाए वरना शऊरे बन्दगी से अलग हो जाने के बाद बन्दगी बे अर्ज़िश होकर रह जाती है।)))

145-अपने ईमान की निगेहदाश्त सदक़े से करो और अपने अमवाल की हिफ़ाज़त ज़कात से करो ,बलाओं के तलातुम को दुआओं से टाल दो। (((सदक़ा इस बात की अलामत है के इन्सान को वादाए इलाही पर एतबार है और वह यह यक़ीन रखता है के जो कुछ उसकी राह में दे दिया है वह ज़ाया होने वाला नहीं है बल्कि दस गुना ,सौ गुना ,हज़ार गुना होकर वापस आने वाला है और यही कमाले ईमान की अलामत है)))

146-आपका इरशादे गिरामी जनाबे कुमैल बिन ज़ियाद नख़ई से कुमैल कहते हैं के अमीरूल मोमेनीन (अ0) मेरा हाथ पकड़कर क़ब्रिस्तान की तरफ़ ले गए और जब आबादी से बाहर निकल गए तो एक लम्बी आह खींचकर फ़रमायाः ऐ कुमैल बिन ज़ियाद! देखो यह दिल एक तरह के ज़र्फ़ हैं लेहाज़ा सबसे बेहतरीन वह दिल है जो सबसे ज़्यादा हिकमतों को महफ़ूज़ कर सके। अब तुम मुझसे उन बातों को महफ़ूज़ कर लो ,लोग तीन तरह के होते हैं ख़ुदा रसीदा आलिम ,राहे निजात पर चलने वाला तालिबे इल्म और अवामुन्नास का वह गिरोह जो हर आवाज़ के पीछे चल पड़ता है और हर हवा के साथ लहराने लगता है ,इसने न नूर की रोशनी हासिल की है और न किसी मुस्तहकम सुतून का सहारा लिया है। (((इल्म व माल के मरातब के बारे में यह नुक्ता भी क़ाबिले तवज्जो है के माल की पैदावार भी इल्म का नतीजा होती है वरना रेगिस्तानी इलाक़ों में हज़ारों साल से पेट्रोल के ख़ज़ाने मौजूद थे और इन्सान इनसे बिलकुल बेख़बर था ,इसके बाद जैसे ही इल्म ने मैदाने इन्केशाफ़ात में क़दम रखा ,बरसों के फ़क़ीर अमीर हो गए और सदियों के फ़ाक़ाकश साहेबे माल व दौलत शुमार होने लगे))) ऐ कुमैल! देखो इल्म माल से बहरहाल बेहतर होता है के इल्म ख़ुद तुम्हारी हिफ़ाज़त करता है और माल की हिफ़ाज़त तुम्हें करना पड़ती है। माल ख़र्च करने से कम हो जाता है और इल्म ख़र्च करने से बढ़ जाता है ,फ़िर माल के नताएज व असरात भी इसके फ़ना होने के साथ ही फ़ना हो जाते हैं। ऐ कुमैल बिन ज़ियाद! इल्म की मारेफ़त एक दीन है जिसकी इक़्तेदा की जाती है और उसी के ज़रिये इन्सान ज़िन्दगी में इताअत हासिल करता है और मरने के बाद ज़िक्रे जीमल फ़राहम करता है ,इल्म हाकिम होता है और माल महकूम होता है। कुमैल! देखो माल का ज़ख़ीरा करने वाले जीतेजी हलाक हो गए और साहेबाने इल्म ज़माने की बक़ा के साथ रहने वाले हैं ,इनके अजसाम नज़रों से ओझल हो गए हैं लेकिन इनकी सूरतें दिलों पर नक़्श हैं ,देखो इस सीने में इल्म का एक ख़ज़ाना है ,काश मुझे इसके ठिकाने वाले मिल जाते। हाँ मिले भी तो बाज़ ऐसे ज़हीन जो क़ाबिले एतबार नहीं हैं और दीन को दुनिया का आलाएकार बनाकर इस्तेमाल करने वाले हैं और अल्लाह की नेमतों के ज़रिये उसके बन्दों और उसकी मोहब्बतों के ज़रिये उसके औलिया पर बरतरी जतलाने वाले हैं या हामेलाने हक़ के इताअत गुज़ार तो हैं लेकिन इनके पहलुओं में बसीरत नहीं है और अदना शुबह में भी शक का शिकार हो जाते हैं। याद रखो के न यह काम आने वाले हैं या सिर्फ़ माल जमा करने और ज़ख़ीरा अन्दोज़ी करने के दिलदादा हैं ,यह दोनों भी दीन के क़तअन मुहाफ़िज़ नहीं हैं और इनसे क़रीबतरीन शबाहत रखने वाले चरने वाले जानवर होते हैं और इस तरह इल्म हामेलाने इल्म के साथ मर जाता है। लेकिन इसके बाद भी ज़मीन ऐसे शख़्स से ख़ाली नहीं होती है जो हुज्जते ख़ुदा के साथ क़याम करता है चाहे वह ज़ाहिर और मशहूर हो या ख़ाएफ़ और पोशीदा ,ताके परवरदिगार की दलीलें और उसकी निशानियां मिटने न पाएं। लेकिन यह हैं ही कितने और कहाँ हैं ?वल्लाह इनके अदद बहुत कम हैं लेकिन इनकी क़द्र व मन्ज़िलत बहुत अज़ीम है। अल्लाह उन्हीं के ज़रिये अपने दलाएल व बय्येनात की हिफ़ाज़त करता है ताके यह अपने ही जैसे अफ़राद के हवाले कर दें अैर अपने इमसाल के दिलों में बो दें। उन्हें इल्म ने बसीरत की हक़ीक़त तक पहुंचा दिया है और यह यक़ीन की रूह के साथ घुल मिल गए हैं ,उन्होंने इन चीज़ों को आसान बना लिया है जिन्हें राहत पसन्दों ने मुश्किल बना रखा था और उन चीज़ों से उन्स हासिल किया है जिनसे जाहिल वहशत ज़दा थे और इस दुनिया में इन अजसाम के साथ रहे हैं जिनकी रूहें मलाएआला से वाबस्ता हैं ,यही रूए ज़मीन पर अल्लाह के ख़लीफ़ा और उसके दीन के दाई हैं। हाए मुझे उनके दीदार का किस क़द्र इश्तियाक़ है! कुमैल! (मेरी बात तमाम हो चुकी) अब तुम जा सकते हो। (((यह सही है के हर सिफ़त उसके हामिल के फ़ौत हो जाने से ख़त्म हो जाती है और इल्म भी हामिलाने इल्म की मौत से मर जाता है लेकिन इसका यह मतलब हरगिज़ नहीं है के इस दुनिया में कोई दौर ऐसा भी आता है जब तमाम अहले इल्म मर जाएं और इल्म का फ़िक़दान हो जाए ,इसलिये के ऐसा हो गया तो एतमामे हुज्जत का कोई रास्ता न रह जाएगा और एतमामे हुज्जत बहरहाल एक अहम और ज़रूरी मसला है लेहाज़ा हर दौर में एक हुज्जते ख़ुदा का रहना ज़रूरी है चाहे ज़ाहिर बज़ाहिर मन्ज़रे आम पर हो या ग़ैबत में हो के एतमामे हुज्जत के लिये इसका वजूद ही काफ़ी है ,इसके ज़हूर की शर्त नहीं है।)))

147-इन्सान अपनी ज़बान के नीचे छुपा रहता है।

148-जिस शख़्स ने अपनी क़द्र व मन्ज़िलत को नहीं पहचाना वह हलाक हो गया।

149-एक शख़्स ने आपसे नसीहत का तक़ाज़ा किया तो फ़रमाया “उन लोगों में न हो जाना जो अमल के बग़ैर आख़ेरत की उम्मीद रखते हैं और तूलानी उम्मीदों की बिना पर तौबा को टाल देते हैं , दुनिया में बातें ज़ाहिदों जैसी करते हैं और काम राग़िबों जैसा अन्जाम देते हैं ,कुछ मिल जाता है तो सेर नहीं होते हैं और नहीं मिलता है तो क़नाअत नहीं करते हैं ,जो दे दिया गया है उसके शुक्रिया से आजिज़ हैं लेकिन मुस्तक़बिल में ज़्यादा के तलबगार ज़रूर हैं ,लोगों को मना करते हैं लेकिन ख़ुद नहीं रूकते हैं ,और उन चीज़ों का हुक्म देते हैं जो ख़ुद नहीं करते हैं। नेक किरदारों से मोहब्बत करते हैं लेकिन इनका जैसा अमल नहीं करते हैं और गुनहगारों से बेज़ार रहते हैं लेकिन ख़ुद भी उन्हीं में से होते हैं ,गुनाहों की कसरत की बिना पर मौत को नापसन्द करते हैं और फिर ऐसे ही आमाल पर क़ाएम भी रहते हैं जिनसे मौत नागवार हो जाती है ,बीमार होते हैं तो गुनाहों पर शरमिंदा हो जाते हैं और सेहतमन्द होते हैं तो फिर लहू व लोआब (बुराईयो) में मुब्तिला हो जाते हैं। बीमारियों से निजात मिल जाती है तो अकड़ने लगते हैं और आज़माइश में पड़ जाते हैं तो मायूस हो जाते हैं ,कोई बला नाज़िल हो जाती है तो बशक्ले मुज़तर दुआ करते हैं और सहूलत व आसानी फ़राहम हो जाती है तो फ़रेब खाऐ हुए होकर मुंह फेर लेते हैं। इनका नस उन्हें ख़्याली बातों पर आमादा कर लेता है लेकिन वह यक़ीनी बातों में इस पर क़ाबू नहीं पा सकते हैं दूसरों के बारे में अपने से छोटे गुनाह से भी ख़ौफ़ज़दा रहते हैं और अपने लिये आमाल से ज़्यादा जज़ा के उम्मीदवार रहते हैं ,मालदार हो जाते हैं तो मग़रूर व मुब्तिलाए फ़ित्ना हो जाते हैं और ग़ुरबतज़दा होते हैं तो मायूस और सुस्त हो जाते हैं। अमल में कोताही करते हैं और सवाल में मुबालेग़ा करते हैं ख़्वाहिशे नफ़्स सामने आ जाती है तो गुनाह फ़ौरन कर लेते हैं और तौबा को टाल देते हैं ,कोई मुसीबत लाहक़ हो जाती है तो इस्लामी जमाअत से अलग हो जाते हैं। इबरतनाक वाक़ेआत बयान करते हैं लेकिन ख़ुद इबरत हासिल नहीं करते हैं , नसीहत करने में मुबालेग़ा से काम लेते हैं लेकिन ख़ुद नसीहत नहीं हासिल करते हैं। क़ौल में हमेशा ऊंचे रहते हैं और अमल में हमेशा कमज़ोर रहते हैं ,फ़ना होने वाली चीज़ों में मुक़ाबला करते हैं और बाक़ी रह जाने वाली चीज़ों में सहलअंगारी से काम लेते हैं। वाक़ेई फ़ायदे को नुक़सान समझते हैं और हक़ीक़ी नुक़सान को फ़ायदा तसव्वुर करते हैं।

(((मौलाए कायनात (अ0) के इस इरशादे गिरामी का बग़ौर मुतालेआ करने के बाद अगर दौरे हाज़िर के मोमेनीने कराम ,वाएज़ीने मोहतरम ,ख़ोतबाए शोला नवा ,शोअराए तूफ़ान अफ़ज़ा ,सरबराहाने मिल्लत ,क़ायदीने क़ौम के हालात का जाएज़ा लिया जाए तो ऐसा मालूम होता है के आप हमारे दौर के हालात का नक़्शा खींच रहे हैं और हमारे सामने किरदार का एक आईना रख रहे हैं जिसमें हर शख़्स अपनी शक्ल देख सकता है और अपने हाले ज़ार से इबरत हासिल कर सकता है।))) मौत से डरते हैं लेकिन वक़्त निकल जाने से पहले अमल की तरफ़ सबक़त नहीं करते हैं ,दूसरों की इस गुनाह को भी अज़ीम तसव्वुर करते हैं जिससे बड़ी गुनाह को अपने लिये मामूली तसव्वुर करते हैं और अपनी मामूली इताअत को भी कसीर शुमार करते हैं जबके दूसरे की कसीर इताअत को भी हक़ीर ही समझते हैं ,लोगों पर तानाज़न रहते हैं और अपने मामले में नर्म व नाज़ुक रहते हैं ,मालदारों के साथ लहू व लोआब को फ़क़ीरों के साथ बैठ कर ज़िक्रे ख़ुदा से ज़्यादा दोस्त रखते हों ,अपने हक़ में दूसरों के खि़लाफ़ फ़ैसला कर देते हैं और दूसरों के हक़ में अपने खि़लाफ़ फ़ैसला नहीं कर सकते हैं। दूसरों को हिदायत देते हैं और अपने नफ़्स को गुमराह करते हैं ,ख़ुद इनकी इताअत की जाती है और ख़ुद मासीयत करते रहते हैं अपने हक़ को पूरा-पूरा ले लेते हैं और दूसरों के हक़ को अदा नहीं करते हैं। परवरदिगार को छोड़कर मख़लूक़ात से ख़ौफ़ खाते हैं और मख़लूक़ात के बारे में परवरदिगार से ख़ौफ़ज़दा नहीं होते हैं। सय्यद रज़ी- अगर इस किताब में इस कलाम के अलावा कोई दूसरी नसीहत न भी होती तो ही कलाम कामयाब मोअज़त ,बलीग़ हिकमत और साहेबाने बसीरत की बसीरत और साहेबाने फिक्रो नज़र की इबरत के लिये काफ़ी था।

 (((दौरे हाज़िर का अज़ीमतरीन मेयारे ज़िन्दगी यही है और हर शख़्स ऐसी ही ज़िन्दगी के लिये बेचैन नज़र आता है ,काफ़ी हाउस ,नाइट क्लब और दीगर लगवियात के मक़ामात पर सरमायादारों की मसाहेबत के लिये हर मतूसत तबक़े का आदमी मरा जा रहा है और किसी को यह शौक़ नहीं पैदा होता है के चन्द लम्हे ख़ानाए ख़ुदा में बैठ कर फ़क़ीरों के साथ मालिक की बारगाह में मुनाजात करे और यह एहसास करे के उसकी बारगाह में सब फ़क़ीर हैं और यह दौलत व इमारत सिर्फ़ चन्द रोज़ा तमाशा है वरना इन्सान ख़ाली हाथ आया है और ख़ाली हाथ ही जाने वाला है ,दौलत आक़बत बनाने का ज़रिया थी अगर उसे भी आक़बत की बरबादी की राह पर लगा दिया तो आख़ेरत में हसरत व अफ़सोस के अलावा कुछ हाथ आने वाला नहीं है।)))

150-हर शख़्स का एक अन्जाम बहरहाल होने वाला है चाहे शीरीं हो या तल्ख़।

151-हर आने वाला पलटने वाला है और जो पलट जाता है वह ऐसा हो जाता है जैसे था ही नहीं।

152-सब्र करने वाला कामयाबी से महरूम नहीं हो सकता है चाहे कितना ही ज़माना क्यों न लग जाए।

153-किसी क़ौम के अमल से राज़ी हो जाने वाला भी उसी के साथ शुमार किया जाएगा और जो किसी बातिल में दाखि़ल हो जाएगा उस पर दोहरा गुनाह होगा ,अमल का भी गुनाह और राज़ी होने का भी गुनाह।

154-अहद व पैमान की ज़िम्मेदारी उनके हवाले करो जो कीलो की तरह मुस्तहकम और मज़बूत हों।

155-उसकी इताअत ज़रूर करो जिससे नावाक़फ़ीयत क़ाबिले माफ़ी नहीं है , (यानी ख़ुदाई मन्सबदार)।

156-अगर तुम बसीरत रखते हो तो तुम्हें हक़ाएक़ दिखलाए जा चुके हैं और अगर हिदायत हासिल करना चाहते हो तो तुम्हें हिदायत दी जा चुकी है और अगर सुनना चाहते हो तो तुम्हें पैग़ाम सुनाया जा चुका है।

157-अपने भाई को तम्बीह करो तो एहसान करने के बाद और उसके शर का जवाब दो तो लुत्फ़ व करम के ज़रिये।

(((खुली हुई बात है के इन्सान अगर सिर्फ़ तम्बीह करता है और काम नहीं करता है तो उसकी तम्बीह का कोई असर नहीं होता है के दूसरा शख़्स पहले ही बदज़न हो जाता है तो कोई बात सुनने के लिये तैयार नहीं होता है और नसीहत बेकार चली जाती है ,इसके बरखि़लाफ़ अगर पहले एहसान करके दिल में जगह बना ले और उसके बाद गुनाह करे तो यक़ीनन नसीहत का असर होगा और बात ज़ाया व बरबाद न होगी।)))

158-जिसने अपने नफ़्स को तोहमत के मवाक़े पर रख दिया उसे किसी बदज़नी करने वाले को मलामत करने का हक़ नहीं है।

(((अजीब व ग़रीब बात है के इन्सान उन लोगों से फ़ौरन बेज़ार हो जाता है जो उससे बदगुमानी रखते हैं लेकिन इन हालात से बेज़ारी का इज़हार नहीं करता है उसकी बिना पर बदगुमानी पैदा होती है जबके इन्साफ़ का तक़ाज़ा यह है के पहले बदज़नी के मक़ामात से इज्तेनाब करे और उसके बाद उन लोगों से नाराज़गी का इज़हार करे जो बिला सबब बदज़नी का शिकार हो जाते हैं।)))

159-जो इक़्तेदार हासिल कर लेता है वह जानिबदारी करने लगता है।

160-जो अपनी बात को बड़ा समझेगा वह हलाक हो जाएगा और जो लोगों से मशविरा करेगा वह उनकी अक़्लों में शरीक हो जाएगा।

इमाम अली के अक़वाल (कथन) 161-180

161-जो अपने राज़ को पोशीदा रखेगा उसका इख़्तेयार उसके हाथ में रहेगा।

162-फ़क़ीरी सबसे बड़ी मौत है।

163-जो किसी ऐसे शख़्स का हक़ अदा कर दे जो इसका हक़ अदा न करता हो तो गोया उसने उसकी परस्तिश कर ली है।

(((मक़सद यह है के इन्सान के अमल की कोई बुनियाद होनी चाहिये और मीज़ान और मेयार के बग़ैर किसी अमल को अन्जाम नहीं देना चाहिये अब अगर कोई शख़्स किसी के हुक़ूक़ की परवाह नहीं करता है और वह इसके हुक़ूक़ को अदा किये जा रहा है तो इसका मतलब यह है के अपने को इसका बन्दाए बेदाम तसव्वुर करता है और इसकी परस्तिश किये चला जा रहा है।)))

164-ख़ालिक़ की गुनाह के ज़रिये मख़लूक़ की इताअत नहीं की जा सकती है।

165-अपना हक़ लेने में ताख़ीर कर देना ऐब नहीं है ,दूसरे के हक़ पर क़ब्ज़ा कर लेना ऐब है।

(((इन्सान की ज़िम्मेदारी है के ज़िन्दगी में हुक़ूक़ हासिल करने से ज़्यादा हुक़ूक़ की अदायगी पर तवज्जो दे के अपने हुक़ूक़ को नज़रअन्दाज़ कर देना न दुनिया में बाएसे मलामत है और न आख़ेरत में वजहे अज़ाब है लेकिन दूसरों के हुक़ूक़ पर क़ब्ज़ा कर लेना यक़ीनन बाएसे मज़म्मत भी है और वज्हे अज़ाब व अक़ाब भी है।)))

166-ख़ुद पसन्दी ज़्यादा अमल से रोक देती है।

(((खुली हुई बात है के जब तक मरीज़ को मर्ज़ का एहसास रहता है वह इलाज की फ़िक्र भी करता है लेकिन जिस दिन वरम को सेहत तसव्वुर कर लेता है उस दिन से इलाज छोड़ देता है ,यही हाल ख़ुद पसन्दी का है के ख़ुदपसन्दी किरदार का वरम है जिसके बाद इन्सान अपनी कमज़ोरियों से ग़ाफ़िल हो जाता है और उसके शुबह में अमल ख़त्म कर देता है या रफ़्तारे अमल को सुस्त बना देता है और यही चीज़ इसके किरदार की कमज़ोरी के लिये काफ़ी है।)))

167-आखि़रत क़रीब है और दुनिया की सोहबत बहुत मुख़्तसर है।

168-आंखों वालों के लिये सुबह रौशन हो चुकी है।

169-गुनाह का न करना बाद में मदद मांगने से आसानतर है।

(((मसल मशहुर है के परहेज़ करना इलाज करने से बेहतर है के परहेज़ इन्सान को बीमारियों से बचा सकता है और इस तरह उसकी फ़ितरी ताक़त महफ़ूज़ रहती है लेकिन परहेज़ न करने की बिना पर अगर मर्ज़ ने हमला कर दिया तो ताक़त ख़ुद ब ख़ुद कमज़ोर हो जाती है और फिर इलाज के बाद भी वह फ़ितरी हालत वापस नहीं आती है लेहाज़ा इन्सान का फ़र्ज़ है के गुनाहों के ज़रिये नफ़्स के आलूदा होने और तौबा के ज़रिये इसकी ततहीर करने से पहले उसकी सेहत का ख़याल रखे और उसे आलूदा न होने दे ताके इलाज की ज़हमत से महफ़ूज़ रहे।)))

170-अक्सर औक़ात एक खाना कई खानों से रोक देता है।

171-लोग उन चीज़ों के दुश्मन होते हैं जिनसे बेख़बर होते हैं।

172-जो विभिन्न सुझावो का सामना करता है वह ग़लती के स्थान को जान लेता है।

(((इसका एक मतलब यह भी है के मशविरा करने वाला ग़लतियों से बचा रहता है के उसे किसी तरह के उफ़कार हासिल हो जाते हैं और हर शख़्स के ज़रिये दूसरे की फ़िक्र की कमज़ोरी का भी अन्दाज़ा हो जाता है और इस तरह सही राय इख़्तेयार करने में कोई ज़हमत नहीं रह जाती है।)))

173-जो अल्लाह के लिये ग़ज़ब के सिनान को तेज़ कर लेता है वह बातिल के सूरमाओं के क़त्ल पर भी क़ादिर हो जाता है।

174-जब किसी अम्र से दहशत महसूस करो तो उसमें फान्द पड़ो के ज़्यादा ख़ौफ़ व एहतियात ख़तरे से ज़्यादा ख़तरनाक होती है।

175-रियासत का वसीला दिल का बड़ा होना है।

176-बद अमल की सरज़न्श के लिये नेक अमल वाले को अज्र व इनआम दो।

(((हमारे मुआशरे की कमज़ोरियों में से एक अहम कमज़ोरी यह है के यहाँ बदकिरदारों पर तन्क़ीद तो की जाती है लेकिन नेक किरदार की ताईद व तौसीफ़ नहीं की जाती है ,आप एक दिन ग़लत काम करें तो सारे शहर में हंगामा हो जाएगा लेकिन एक साल तक बेहतरीन काम करें तो कोई बयान करने वाला भी न पैदा होगा ,हालांके उसूली बात यह है के नेकी के फैलाने का तरीक़ा सिर्फ़ बुराई पर तन्क़ीद करना नहीं है बल्कि उससे बेहतर तरीक़ा ख़ुद नेकी की हौसला अफ़ज़ाई करना है जिसके बाद हर शख़्स में नेकी करने का शऊर बेदार हो जाएगा और बुराइयों का क़ला क़मा हो जाएगा)))

177-दूसरे के दिल से शर को काट देना है तो पहले अपने दिल से उखाड़कर फेंक दो।

178-हटधर्मी सही राय को भी दूर कर देती है।

179-लालच हमेशा हमेशा की ग़ुलामी है।

(((यह इन्सानी ज़िन्दगी की अज़ीमतरीन हक़ीक़त है के हिर्स व लालच रखने वाला इन्सान नफ़्स का ग़ुलाम और ख़्वाहिशात का बन्दा हो जाता है और जो शख़्स ख़्वाहिशात की बन्दगी में मुब्तिला हो गया वह किसी क़ीमत पर इस ग़ुलामी से आज़ाद नहीं हो सकता है , इन्सानी ज़िन्दगी की दानिशमन्दी का तक़ाज़ा यह है के इन्सान अपने को ख़्वाहिशाते दुनिया और हिर्स व लालच से दूर रखे ताके किसी ग़ुलामी में मुब्तिला न होने पाए के यहाँ “शौक़ हर रंग रक़ीब सरो सामान ” हुआ करता है और यहाँ की ग़ुलामी से निजात मुमकिन नहीं है।)))

180-कोताही का नतीजा शर्मिन्दगी है और होशियारी का समरह सलामती।

इमाम अली के अक़वाल (कथन) 181-200

181-हिकमत से ख़ामोशी में कोई ख़ैर नहीं है जिस तरह के जेहालत से बोलने में कोई भलाई नहीं है। (((इन्सान को हर्फे हिकमत का एलान करना चाहिये ताके दूसरे लोग उससे इस्तेफ़ादा करें और हर्फ़े जेहालत से परहेज़ करना चाहिये के जेहालत की बात करने से ख़ामोशी ही बेहतर होती है ,इन्सान की इज़्ज़त भी सलामत रहती है और दूसरों की गुमराही का भी कोई अन्देशा नहीं होता है)))

182-जब दो मुख़्तलिफ़ दावतें दी जाएं तो दो में से एक यक़ीनन गुमराही होगी।

183-मुझे जब से हक़ दिखला दिया गया है मैं कभी शक का शिकार नहीं हुआ हूँ।

184-मैंने न ग़लत बयानी की है और न मुझे झूठ ख़बर दी गई है ,न मैं गुमराह हुआ हूँ और न मुझे गुमराह किया जा सका है।

185-ज़ुल्म की इब्तिदा करने वाले को कल निदामत से अपना हाथ काटना पड़ेगा।

(((अगर यह दुनिया में हर ज़ुल्म करने वाले का अन्जाम है तो उसके बारे में क्या कहा जाएगा जिसने आलमे इस्लाम में ज़ुल्म की इब्तिदा की है और जिसके मज़ालिम का सिलसिला आज तक जारी है और औलादे रसूले अकरम (स0) किसी आन भी मज़ालिम से महफ़ूज़ नहीं है)))

186-जाने का वक़्त (मौत) क़रीब आ गया है।

187-जिसने हक़ से मुंह मोड़ लिया वह हलाक हो गया।

188-जिसे सब्र निजात नहीं दिला सकता है उसे बेक़रारी मार डालती है।

(((दुनिया में काम आने वाला सिर्फ़ सब्र है के इससे इन्सान का हौसला भी बढ़ता है और उसे अज्र व सवाब भी मिलता है ,बेक़रारी में उनमें से कोई सिफ़त नहीं है और न उससे कोई मसला हल होने वाला है ,लेहाज़ा अगर किसी शख़्स ने सब्र को छोड़कर बेक़रारी का रास्ता इख़्तेयार कर लिया तो गोया अपनी तबाही का आप इन्तेज़ाम कर लिया और परवरदिगार की मईत से भी महरूम हो गया के वह सब्र करने वालों के साथ रहता है ,जज़अ व फ़ज़अ करेन वालों के साथ नहीं रहता है।)))

189-ताज्जुब है! खि़लाफ़त सिर्फ़ सहाबियत की बिना पर मिल सकती है लेकिन अगर सहाबियत और क़राबत दोनों जमा हो जाएं तो नहीं मिल सकती है।

सय्यद रज़ी - इस मानी में हज़रत का यह शेर भी हैः “अगर तुमने शूरा से इक़्तेदार हासिल किया तो यह शूरा कैसा है जिसमें मुशीर ही सब ग़ायब थे। और अगर तुमने क़राबत से अपनी ख़ुसूसियत का इज़हार किया है तो तुम्हारा ग़ैर तुमसे ज़्यादा रसूले अकरम (स0) के लिये औला और अक़रब है। ”

190-इन्सान इस दुनिया में वह निशाना है जिस पर मौत अपने तीर चलाती रहती है और वह मसाएब की ग़ारतगरी की जूला निगाह बना रहता है ,यहाँ के हर घूंट पर उच्छू है और हर लुक़्मे पर गले में एक फन्दा है इन्सान एक नेमत को हासिल नहीं करता है मगर यह के दूसरी हाथ से निकल जाती है और ज़िन्दगी के एक दिन का इस्तेक़बाल नहीं करता है मगर यह के दूसरा दिन हाथ से निकल जाता है। हम मौत के मददगार हैं और हमारे नफ़्स हलाकत का निशाना हैं ,हम कहां से बक़ा की उम्मीद करें जबके शब व रोज़ किसी इमारत को ऊंचा नहीं करते हैं मगर यह के हमले करके उसे मुनहदिम कर देते हैं और जिसे भी यकजा करते हैं उसे बिखेर देते हैं।

(((किसी तरह का कोई इज़ाफ़ा नहीं है बल्कि एक दिन ने जाकर दूसरे दिन के लिये जगह ख़ाली है और इसकी आमद की ज़मीन हमवार की है तो इस तरह इन्सान का हिसाब बराबर ही रह गया ,एक दिन जेब में दाखि़ल हुआ और एक दिन जेब से निकल गया और इसी तरह एक दिन ज़िन्दगी का ख़ात्मा हो जाएगा)))

191-फ़रज़न्दे आदम! अगर तूने अपनी ग़िज़ा से ज़्यादा कमाया है तो गोया इस माल में दूसरों का ख़ज़ान्ची है।

(((यह बात तयशुदा है के मालिक का निज़ामे तक़सीम ग़लत नहीं है और उसने हर शख़्स की ताक़त एक जैसी नहीं रखी है तो इसका मतलब यह है के उसने दुनिया के गोदामो में हिस्सा सबका रखा है लेकिन सबमें उन्हें हासिल करने की यकसां ताक़त नहीं है बल्कि एक को दूसरे के लिये वसीला और ज़रिया बना दिया है तो अगर तुम्हारे पास तुम्हारी ज़रूरत से ज़्यादा माल आ जाए तो इसका मतलब यह है के मालिक ने तुम्हें दूसरों के हुक़ूक़ का ख़ाज़िन बना दिया है और अब तुम्हारी ज़िम्मेदारी यह है के इसमें किसी तरह की ख़यानत न करो और हर एक को उसका हिस्सा पहुंचा दो।)))

192-दिलों के लिये रग़बत व ख़्वाहिश ,आगे बढ़ना और पीछे हटना सभी कुछ है लेहाज़ा जब मीलान और तवज्जो का वक़्त हो तो उससे काम ले लो के दिल को मजबूर करके काम लिया जाता है तो वह अन्धा हो जाता है।

193-मुझे ग़ुस्सा आ जाए तो मैं उससे तस्कीन किस तरह हासिल करूँ ?इन्तेक़ाम से आजिज़ हो जाऊँगा तो कहा जाएगा के सब्र करो और इन्तेक़ाम की ताक़त पैदा कर लूँगा तो कहा जाएगा के काश माफ़ कर देते (ऐसी हालत में ग़ुस्से का कोई फ़ायदा नहीं है।)

((आप इस इरशादेगिरामी के ज़रिये लोगों को सब्र व तहम्मुल की नसीहत करना चाहते हैं के इन्तेक़ाम आम तौर से क़ाबिले तारीफ़ नहीं होता है ,इन्सान मक़ाम इन्तेक़ाम में कमज़ोर पड़ जाता है तो लोग मलामत करते हैं के जब ताक़त नहीं थी तो इन्तेक़ामक लेने की ज़रूरत ही क्या थी और ताक़तवर साबित होता है तो कहते हैं के कमज़ोर आदमी से क्या इन्तेक़ाम लेना है ,मुक़ाबला किसी बराबर वाले से करना चाहिये था ,ऐसी सूरत में तक़ाज़ाए अक़्ल व मन्तक़ यही है के इन्सान सब्र व तहम्मुल से काम ले और जब तक इन्तेक़ाम फ़र्ज़े शरई न बन जाए उस वक़्त तक इसका इरादा भी न करे और फिर जब मालिके कायनात इन्तेक़ाम लेने वाला मौजूद है तो इन्सान को इस क़द्र ज़हमत बरदाश्त करने की क्या ज़रूरत है)))

194-एक कूड़ाघर से गुज़रते हुए फ़रमाया - “यही वह चीज़ है जिसके बारे में कंजूसी करने वालों ने कंजूसी किया था ” या दूसरी रिवायत की बिना पर “जिसके बारे में कल एक दूसरे से रश्क कर रहे थे , (यह है अन्जामे दुनिया और अन्जामे लज़्ज़ाते दुनिया)

195-जो माल नसीहत का सामान फ़राहम कर दे वह बरबाद नहीं हुआ है।

196-यह दिल इसी तरह उकता जाते हैं जिस तरह बदन ,लेहाज़ा इनके लिये लतीफ़ तरीन हिकमतें फ़राहम करो।

197-जब आपने ख़वारिज का यह नारा सुना के “ख़ुदा के अलावा किसी के लिये हुक्म नहीं है ’ तो फ़रमाया के “यह कलमए हक़ है ” लेकिन इससे बातिल मानी मुराद लिये गए हैं।

198-बाज़ारी लोगों की भीड़ भाड़ के बारे में फ़रमाया के - यही वह लोग हैं जो इकट्ठा हो जाते हैं तो ग़ालिब आ जाते हैं और फ़ैल जाते हैं तो पहचाने भी नहीं जाते हैं। और बाज़ लोगों का कहना है के हज़रत ने इस तरह फ़रमाया था के - जब जमा हो जाते हैं तो नुक़सानदेह होते हैं और जब फ़ैल हो जाते हैं तभी फ़ायदेमन्द होते हैं। तो लोगों ने अर्ज़ की के जमा हो जाने में नुक़सान तो समझ में आ गया लेकिन फ़ैलने में फ़ायदे के क्या मानी हैं ?तो फ़रमाया के सारे कारोबार वाले अपने कारोबार की तरफ़ पलट जाते हैं और लोग उनसे फ़ायदा उठा लेते हैं जिस तरह मेमार अपनी इमारत की तरफ़ चला जाता है ,कपड़ा बुनने वाला कारख़ाने की तरफ़ चला जाता है और रोटी पकाने वाला तनूर की तरफ़ पलट जाता है।

(((इसमें कोई शक नहीं है के अवामी ताक़त बहुत बड़ी ताक़त होती है और दुनिया का कोई निज़ाम इस ताक़त के बग़ैर कामयाब नहीं हो सकता है और इसीलिये मौलाए कायनात ने भी मुख़्तलिफ़ मुक़ामात पर इनकी अहमियत की तरफ़ इशारा किया है और इन पर ख़ास तवज्जो देने की हिदायत की है ,लेकिन अवामुन्नास की एक बड़ी कमज़ोरी यह है के इनकी अकसरीयत अक़्ल व मन्तक़ से महरूम और जज़्बात व अवातिफ़ से मामूर होती है और इनके अकसर काम सिर्फ़ जज़्बात व एहसासात की बिना पर अन्जाम पाते हैं और इस तरह जो निज़ाम भी इनके जज़्बात व ख़्वाहिशात की ज़मानत दे देता है वह फ़ौरन कामयाब हो जाता है और अक़्ल व मन्तक़ का निज़ाम पीछे रह जाता है लेहाज़ा हज़रत ने चाहा के इस कमज़ोरी की तरफ़ भी मुतवज्जो कर दिया जाए ताके अरबाबे हल व ओक़द हमेशा उनके जज़्बाती और हंगामी वजूद पर एतमाद न करें बल्कि इसकी कमज़ोरियों पर भी निगाह रखें।)))

199-आपके पास एक मुजरिम को लाया गया जिसके साथ तमाशाइयों का हुजूम था तो फ़रमाया के “उन चेहरों पर फिटकार हो जो सिर्फ़ बुराई और रूसवाई के मौक़े पर नज़र आते हैं।

(((आम तौर से इन्सानों का मिज़ाज यही होता है के जहां किसी बुराई का मन्ज़र आता है फ़ौरन उसके गिर्द जमा हो जाते हैं ,मस्जिद के नमाज़ियों का देखने वाला कोई नहीं होता है लेकिन क़ैदी का तमाशा देखने वाले हज़ारों निकल आते हैं और इस तरह इस जमा होने का कोई मक़सद भी नहीं होता ,आापका मक़सद यह है के यह जमा होने वाला मजमा इबरत हासिल करने के लिये होता तो कोई बात नहीं थी मगर अफ़सोस के यह सिर्फ तमाशा देखने के लिये होता है और इन्सान के वक़्त का इससे कहीं ज़्यादा अहम मसरफ़ मौजूद है लेहाज़ा उसे इससी मसरफ़ में सर्फ़ करना चाहिये।)))

200-हर इन्सान के साथ दो मुहाफ़िज़ फ़रिश्ते रहते हैं लेकिन जब मौत का वक़्त आ जाता है तो दोनों साथ छोड़ कर चले जाते हैं गोया के मौत ही बेहतरीन सिपर हैं।

इमाम अली के अक़वाल (कथन) 201-220

201-जब तल्हा व ज़ुबैर ने यह तक़ाज़ा किया के हम बैअत कर सकते हैं लेकिन हमें शरीके कार बनाना पड़ेगा ?तो फ़रमाया के हरगिज़ नहीं ,तुम सिर्फ़ क़ूवत पहुंचाने और हाथ बटाने में शरीक हो सकते हो और आजिज़ी और सख़्ती के मौक़े पर मददगार बन सकते हो।

202-लोगों! उस ख़ुदा से डरो जो तुम्हारी हर बात को सुनता है और हर राज़े दिल का जानने वाला है और इसस मौत की तरफ़ सबक़त करो जिससे भागना भी चाहो तो वह तुम्हें पा लेगी और ठहर जाओगे तो तुम्हारी गिरफ्त में ले लेगी और तुम उसे भूल भी जाओगे तो वह तुम्हें याद रखेगी।

203-ख़बरदार किसी शुक्रिया अदा न करने वाले की नालायक़ी तुम्हें कारे ख़ैर से बद्दिल न बना दे ,हो सकता है के तुम्हारा शुक्रिया वह अदा कर दे जिसने इस नेमत से कोई फ़ायदा भी नहीं उठाया है और जिस क़द्र कुफ्ऱाने नेमत करने वाले ने तुम्हारा हक़ ज़ाया किया है उस शुक्रिया अदा करने वाले के शुक्रिया के बराबर हो जाए और वैसे भी अल्लाह नेक काम करने वालों को दोस्त रखता है।

(((अव्वलन तो कारे ख़ैर में शुक्रिया का इन्तेज़ार ही इन्सान के एख़लास को मजरूह बना देता है और उसके अमल का वह मरतबा नहीं रह जाता है जो खुदा की राह मे काम करने वाले लोगो का होता है जिसकी तरफ़ क़ुराने मजीद ने सूराए मुबारका दहर में इशारा किया है इसके बाद अगर इन्सान फ़ितरत से मजबूर है और फ़ितरी तौर पर शुक्रिया का ख़्वाहिशमन्द है तो मौलाए कायनात ने इसका भी इशारा दे दिया के हो सकता है के यह कमी दूसरे अफ़राद की तरफ़ से पूरी हो जाए और वह तुम्हारे कारे ख़ैर की क़द्रदानी करके शुक्रिया की कमी का तदारूक कर दें।)))

204-हर ज़र्फ़ (जगह) अपने सामान के लिये तंग हो सकता है ,लेकिन इल्म का ज़र्फ़ इल्म के एतबार से बड़ा होता जाता है।

(((इल्म का ज़र्फ़ अक़्ल है और अक़्ल ग़ैर माद्दी होने के एतबार से यूँ भी बेपनाह वुसअत की मालिक है ,इसके बाद मालिक ने इसमें यह सलाहियत भी रखी है के जिस क़द्र इल्म में इज़ाफ़ा होता जाएगा उसकी वुसअत किसी मरहले पर तमाम होने वाली नहीं है।)))

205-सब्र करने वाले का उसकी क़ूवते बर्दाश्त पर पहला अज्र यह मिलता है के लोग जाहिल के मुक़ाबले में इसके मददगार हो जाते हैं।

206-अगर तुम हक़ीक़त मे बुर्दबार नहीं भी हो तो बुर्दबारी का इज़हार करो के बहुत कम ऐसा होता है के कोई किसी क़ौम की शबाहत इख़्तेयार करे और उनमें से न हो जाए।

207-जो अपने नफ़्स का हिसाब करता रहता है वहीं फ़ायदे में रहता है और जो ग़ाफ़िल हो जाता है वहीं ख़सारे में रहता है। ख़ौफ़े ख़ुदा रखने वाला अज़ाब से महफ़ूज़ रहता है और इबरत हासिल करने वाला साहबे बसीरत होता है ,बसीरत वाला फ़हीम होता है और फ़हीम ही गवर्नर हो जाता है।

208-यह दुनिया मुंहज़ोरी दिखाने के बाद एक दिन हमारी तरफ़ बहरहाल झुकेगी जिस तरह काटने वाली ऊंटनी को अपने बच्चे पर रहम आ जाता है इसके बाद आपने इस आयते करीमा की तिलावत फ़रमाई - “हम चाहते हैं के इन बन्दों पर एहसान करें जिन्हें रूए ज़मीन में कमज़ोर बना दिया है और उन्हें पेशवा क़रार दें और ज़मीन का वारिस बना दें।

(((यह एक हक़ीक़त है के किसी भी ज़ालिम में अगर अदना इन्सानियत पाई जाती है तो उसे एक दिन मज़लूम की मज़लूमियत का बहरहाल एहसास पैदा हो जाता है और उसके हाल पर मेहरबानी का इरादा करने लगता है चाहे हालात और मसालेह उसे इस मेहरबानी को मन्ज़िले अमल तक लाने से रोक दें ,दुनिया कोई ऐसी जल्लाद व ज़ालिम नहीं है जिसे दूसरे को हटाकर अपनी जगह बनाने का ख़याल हो लेहाज़ा एक न एक दिन मज़लूम पर रहम करना है और ज़ालिमों को मन्ज़रे तारीख़ से हटाकर मज़लूमों को कुर्सीए रियासत पर बैठाना है यही खुदा का इरादा है और यही वादाए क़ुरानी है जिसके खि़लाफ़ का कोई इमकान नहीं पाया जाता है)))

209-अल्लाह से डरो उस शख़्स की तरह जिसने दुनिया छोड़कर दामन समेट लिया हो और दामन समेट कर कोशिश में लग गया हो ,अच्छाइयों के लिये वक़्फ़ए मोहलत में तेज़ी के साथ चल पड़ा हो और ख़तरों के पेशे नज़र तेज़ क़दम बढ़ा दिया हो और अपनी क़रारगाह ,अपने आमाल और काम के नतीजे पर नज़र रखी हो।

(((यह उस अम्र की तरफ़ इशारा है के तक़वा किसी ज़बानी जमाख़र्च का नाम है और न लिबास व ग़िज़ा की सादगी से इबारत है ,तक़वा एक इन्तेहाई मन्ज़िले दुश्वार है जहां इन्सान को अलग अलग दरजो से गुज़रना पड़ता है ,पहले दुनिया को छोड़ना पड़ता है ,इसके बाद दामने अमल को समेट कर शुरू करना होता है और अच्छाइयों की तरफ़ तेज़ क़दम बढ़ाना पड़ते हैं , अपने काम के नतीजे पर निगाह रखना होती है और ख़तरात से बचने का इन्तेज़ाम करना पड़ता है ,यह सारे मराहेल तय हो जाएं तो इन्सान मुत्तक़ी और परहेज़गार कहे जाने के क़ाबिल होता है।)))

210-सख़ावत इज़्ज़त व आबरू की निगेहबान है और बुर्दबारी अहमक़ के मुंह का बंद है ,माफ़ी कामयाबी की ज़कात है और भूल जाना ग़द्दारी करने वाले का बदला है और मशविरा करना ऐने हिदायत है ,जिसने अपनी राय ही पर एतमाद कर लिया उसने अपने को ख़तरे में डाल दिया। सब्र हवादिस का मुक़ाबला करता है और बेक़रारी ज़माने की मददगार साबित होती है। बेहतरीन दौलतमन्दी तमन्नाओं का छोड़ना है। कितनी ही ग़ुलाम अक़्लें हैं जो अमीरो की ख़्वाहिशात के नीचे दबी हुई हैं ,तजुर्बात को महफ़ूज़ रखना तौफ़ीक़ की एक क़िस्म है और मोहब्बत एक खुदसाख्ता क़राबत है और ख़बरदार किसी रन्जीदा हो जाने वाले पर एतमाद न करना।

(((इस कलमए हिकमत में मौलाए कायनात (अ0) ने तेरह मुख़्तलिफ़ नसीहतों का ज़िक्र फ़रमाया है और इनमें हर नसीहत इन्सानी ज़िन्दगी का बेहतरीन जौहर है ,काश इन्सान इसके एक-एक फ़िक़रे पर ग़ौर करे और ज़िन्दगी की तजुर्बागाह में इस्तेमाल करे तो उसे अन्दाज़ा होगा के एक मुकम्मल ज़िन्दगी गुज़ारने का ज़ाबेता क्या होता है और इन्सार किस तरह दुनिया व आख़ेरत के ख़ैर को हासिल कर लेता है।)))

211-इन्सान का ख़ुदपसन्दी में मुब्तिला हो जाना ख़ुद अपनी अक़्ल से हसद करना है।

212-आँखों के ख़स व ख़ाशाक और रन्जो अलम पर चश्मपोशी करो हमेशा ख़ुश रहोगे।

(((हक़ीक़ते अम्र यह है के दुनिया के हर ज़ुल्म का एक इलाज और दुनिया की हर मुसीबत का एक तोड़ है जिसका नाम है सब्र व तहम्मुल ,इन्सान सिर्फ़ यह एक जौहर पैदा कर ले तो बड़ी से बड़ी मुसीबत का मुक़ाबला कर सकता है और किसी मरहले पर परेशान नहीं हो सकता है ,रंजीदा व ग़मज़दा ही रहते हैं जिनके पास यह जौहर नहीं होता है और ख़ुशहाल व मुतमईन वही रहते हैं जिनके पास यह जौहर होता है और वह उसे इस्तेमाल करना भी जानते हैं)))

213-जिस दरख़्त की लकड़ी नर्म हो उसकी शाख़ें घनी होती हैं

(लेहाज़ा इन्सान को नर्म दिल होना चाहिये)।

(((कितना हसीन तजुर्बए हयात है जिससे एक देहाती इन्सान भी इस्तेफ़ादा कर सकता है के अगर परवरदिगार ने दरख़्तों में यह कमाल रखा है के जिन दरख़्तों की शाख़ों को घना बनाया है उनकी लकड़ी को नर्म बना दिया है तो इन्सान को भी इस हक़ीक़त से इबरत हासिल करनी चाहिये के अगर अपने एतराफ़ मुख़लेसीन का मजमा देखना चाहता है और अपने को बेसाया दरख़्त नहीं बनाना चाहता है तो अपनी तबीयत को नर्म बना दे ताके इसके सहारे लोग इसके गिर्द जमा हो जाएं और इसकी शख़्सियत एक घनेरे दरख़्त की हो जाए।)))

214-मुख़ालेफ़त सही राय को भी बरबाद कर देती है।

215-जो मन्सब पा लेता है वह दस्त दराज़ी करने लगता है।

(((किस क़द्र अफ़सोस की बात है के इन्सान परवरदिगार की नेमतों का शुक्रिया अदा करने के बजाए कुफ्ऱाने नेमत पर उतर आता है और उसके दिये हुए इक़्तेदार को दस्तदराज़ी में इस्तेमाल करने लगता है हालांके शराफ़त व इन्सानियत का तक़ाज़ा यही था के जिस तरह उसने साहबे क़ुदरत व क़ूवत होने के बाद इसके हाल पर रहम किया है इसी तरह इक़्तेदार पाने के बाद यह दूसरों के हाल पर रहम करे।)))

216-लोगों के जौहर (गुण) हालात के बदलने में पहचाने जाते हैं।

217-दोस्त का हसद करना मोहब्बत की कमज़ोरी है।

218-अक़्लों की तबाही की बेश्तर मन्ज़िलें हिर्स व लालच की बिजलियों के नीचे हैं।

(((हिर्स व लालच की चमक-दमक बाज़ औक़ात अक़्ल की निगाहों को भी खै़रा कर देती है और इन्सान नेक व बद के इम्तियाज़ से महरूम हो जाता है ,लेहाज़ा दानिशमन्दी का तक़ाज़ा यही है के अपने को हिर्स व लालच से दूर रखे और ज़िन्दगी का हर क़दम अक़्ल के ज़ेरे साया उठाए ताके किसी मरहले पर तबाह व बरबाद न होने पाए।)))

219-यह कोई इन्साफ़ नहीं है के सिर्फ़ ज़न व गुमान के एतमाद पर फ़ैसला कर दिया जाए।

((ज़न व गुमानः शक ,एतमादः भरोसा))

220-रोज़े क़यामत के लिये सबसे खराब सफ़र का सामान ख़ुदा के बन्दो पर ज़ुल्म है।

इमाम अली के अक़वाल (कथन) 221-240

221-करीम आदमी का बेहतरीन अमल जानकर भी अन्जान बन जाना है।

222-जिसे हया ने अपना लिबास ओढ़ा दिया उसके ऐब को कोई नहीं देख सकता है।

223-ज़्यादा ख़ामोशी हैबत का सबब बनती है और इन्साफ़ से दोस्तों में इज़ाफ़ा होता है ,फ़ज़्ल व करम से क़द्र व मन्ज़िलत बलन्द होती है और तवाज़ोअ से नेमत मुकम्मल होती है दूसरों का बोझ उठाने से सरदारी हासिल होती है और इन्साफ़ पसन्द किरदार से दुश्मन पर ग़लबा हासिल किया जाता है ,अहमक़ के मुक़ाबले में बुर्दबारी दिखाने से दोस्त ल मददगारो में इज़ाफ़ा होता है।

(((इस नसीहत में भी ज़िन्दगी के सात मसाएल की तरफ़ इशारा किया गया है और यह बताया गया है के इन्सान एक कामयाब ज़िन्दगी किस तरह गुज़ार सकता है और उसे इस दुनिया में बाइज़्ज़त ज़िन्दगी के लिये किन उसूल व क़वानीन को इख़्तेयार करना चाहिये।)))

224-हैरत की बात है के हसद करने वाले जिस्मों की सलामती पर हसद क्यों नहीं करते हैं

(दौलतमन्द की दौलत से हसद होता है और मज़दूर की सेहत से हसद नहीं होता है हालांके यह उससे बड़ी नेमत है)।

225-लालची हमेशा ज़िल्लत की क़ैद में गिरफ़्तार रहता है।

(((लालच में दो तरह की ज़िल्लत का सामना करना पड़ता है ,एक तरफ़ इन्सान नफ़सियाती ज़िल्लत का शिकार रहता है के अपने को हक़ीर व फ़क़ीर तसव्वुर करता है और अपनी किसी भी दौलत का एहसास नहीं करता है और दूसरी तरफ़ दूसरे अफ़राद के सामने हिक़ारत व ज़िल्लत का इज़हार करता रहता है के शायद इसी तरह किसी को उसके हाल पर रहम आ जाए और वह उसके मुद्दआ के हुसूल की राह हमवार कर दे।)))

226-आपसे ईमान के बारे में दरयाफ़्त किया गया तो फ़रमाया के ईमान दिल का अक़ीदा ,ज़बान का इक़रार और जिस्म के आज़ा व जवारेह के अमल का नाम है।

(((अली (अ0) वालों को इस जुमले को बग़ौर देखना चाहिये के कुल्ले ईमान ने ईमान को अपनी ज़िन्दगी के सांचे में ढाल दिया है के जिस तरह आपकी ज़िन्दगी में इक़रार ,तस्दीक़ और अमल के तीनों रूख़ पाए जाते थे वैसे ही आप हर साहेबे ईमान को इसी किरदार का हामिल देखना चाहते हैं और इसके बग़ैर किसी को साहेबे ईमान तस्लीम करने के लिये तैयार नहीं हैं और खुली हुई बात है के बेअमल अगर साहबे ईमान नहीं हो सकता है तो कुल्ले ईमान का शीया और उनका मुख़लिस कैसे हो सकता है।)))

227-जो दुनिया के बारे में रन्जीदा होकर सुबह करे वह दरहक़ीक़त क़ज़ाए इलाही से नाराज़ है और जो सुबह उठते ही किसी नाज़िल होने वाली मुसीबत का शिकवा शुरू कर दे उसने दरहक़ीक़त परवरदिगार की शिकायत की है ,जो किसी दौलतमन्द के सामने दौलत की बिना पर झुक जाए उसका दो तिहाई दीन बरबाद हो गया ,और जो शख़्स क़ुरान पढ़ने के बावजूद मरकर जहन्नम वासिल हो जाए गोया उसने खुदा की निशानीयो का मज़ाक़ उड़ाया है ,जिसका दिल मोहब्बते दुनिया मे खो जाए उसके दिल में यह तीन चीज़ें पेवस्त हो जाती हैं- वह ग़म जो उससे जुदा नहीं होता है ,वह लालच जो उसका पीछा नहीं छोड़ती है और वह उम्मीद जिसे कभी हासिल नहीं कर सकता है।

(((इस मक़ाम पर अज़ीम नुकाते ज़िन्दगी की तरफ़ इशारा किया गया है लेहाज़ा इन्सान को उनकी तरफ़ मुतवज्जेह रहना चाहिये और सब्र व शुक्र के साथ ज़िन्दगी गुज़ारनी चाहिये ,न शिकवा व फ़रयाद शुरू कर दे और न दौलत की ग़ुलामी पर आमादा हो जाए ,क़ुरान पढ़े तो उस पर अमल भी करे और दुनिया में रहे तो उससे होशियार भी रहे)))

228-क़ेनाअत से बड़ी कोई सल्तनत और हुस्ने अख़लाक़ से बेहतर कोई नेमत नहीं है ,आपसे दरयाफ़्त किया गया के “हम हयाते तय्यबा इनायत करेंगे। ” इस आयत में हयाते तय्यबा से मुराद क्या है ?फ़रमाया क़ेनाअत।

((क़ेनाअतः जितना मिल जाऐ उतने पर राज़ी हो जाना))

229-जिसकी तरफ़ रोज़ी का रूख़ हो उसके साथ शरीक हो जाओ के यह दौलतमन्दी पैदा करने का बेहतरीन ज़रिया और ख़ुश नसीबी का बेहतरीन क़रीना है।

230आयते करीमा “इन्नल्लाहा या मोरो बिल अद्ल ” में अद्ल इन्साफ़ है और एहसान फ़ज़्ल व करम। (((हज़रत उस्मान बिन मज़ऊन का बयान है के मेरे इस्लाम में मज़बूती उस दिन पैदा हुई जब यह आयते करीमा नाज़िल हुई और मैंने जनाबे अबूतालिब से इस आयत का ज़िक्र किया और उन्होंने फ़रमाया के मेरा फ़रज़न्द मोहम्मद (स0) हमेशा बलन्दतरीन अख़लाक़ की बातें करता है लेहाज़ा इसकी पैरवी और इससे हिदायत हासिल करना तमाम क़ुरैश का फ़रीज़ा है।)))

231-जो आजिज़ हाथ से देता है उसे साहेबे इक़तेराद हाथ से मिलता है।

सय्यद रज़ी- जो शख़्स किसी कारे ख़ैर में मुख़्तसर माल भी ख़र्च करता है परवरदिगार उसकी जज़ा को अज़ीम व कसीर बना देता है ,यहाँ दोनों “यद ” से मुराद दोनों नेमतें हैं ,बन्दे की नेमत को यदे क़सीरा कहा गया है और ख़ुदाई नेमत को यदे तवीला ,इसलिये के अल्लाह की नेमतें बन्दों के मुक़ाबले में हज़ारों गुना ज़्यादा होती हैं और वही तमाम नेमतों की असल और सबका मरजअ व मन्शा होती हैं।

232-अपने फ़रज़न्द इमाम हसन (अ0) से फ़रमाया- तुम किसी को जंग की दावत न देना लेकिन जब कोई ललकार दे तो फ़ौरन जवाब दे देना के जंग की दावत देने वाला बाग़ी होता है और बाग़ी बहरहाल हलाक होने वाला है।

(((इस्लाम का तवाज़ुन अमल यही है के जंग में पहल न की जाए और जहां तक मुमकिन हो उसको नज़रअन्दाज़ किया जाए लेकिन इसके बाद अगर दुश्मन जंग की दावत दे दे तो उसे नज़र अन्दाज़ भी न किया जाए के इस तरह उसे इस्लाम की कमज़ोरी का एहसास पैदा हो जाएगा और उसके हौसले बलन्द हो जाएंगे ,ज़रूरत इस बात की है के उसे यह महसूस करा दिया जाए के इस्लाम कमज़ोर नहीं है लेकिन पहल करना इसके एख़लाक़ी उसूल व आईन के खि़लाफ़ है)))

233-औरतों की बेहतरीन ख़सलतें जो मर्दों की बदतरीन ख़सलतें शुमार होती हैं ,उनमें ग़ुरूर ,बुज़दिली और कंजूसी है के औरत अगर मग़रूर होगी तो कोई उस पर क़ाबू न पा सकेगा और अगर बख़ील होगी तो अपने और अपने शौहर के माल की हिफ़ाज़त करेगी और अगर बुज़दिल होगी तो हर पेश आने वाले ख़तरे से ख़ौफ़ज़दा रहेगी।

(((यह तफ़सील इस अम्र की तरफ़ इशारा है के यह तीनों सिफ़ात उन्हीं बलन्दतरीन मक़ासिद की राह में महबूब हैं वरना ज़ाती तौर पर न ग़ुरूर महबूब हो सकता है और न कंजूसी व बुज़दिली। हर सिफ़त अपने मसरफ़ के एतबार से ख़ूबी या ख़राबी पैदा करती है। और औरत के यह सिफ़ात इन्हीं मक़ासिद के एतबार से पसन्दीदा हैं मुतलक़ तौर पर यह सिफ़ात किसी के लिये भी पसन्दीदा नहीं हो सकते हैं)))

234-आपसे गुज़ारिश की गई के मर्दे आक़िल की तौसीफ़ फ़रमाएं तो फ़रमाया के आक़िल वह है जो हर चीज़ को उसकी जगह पर रखता है ,अर्ज़ किया गया फिर जाहिल की तारीफ़ क्या है- फ़रमाया यह तो मैं बयान कर चुका।

सय्यद रज़ी - मक़सद यह है के जाहिल वह है जो हर चीज़ को बेमहल रखता है और इसका बयान न करना ही एक तरह का बयान है के वह आक़िल की ज़िद है।

235-ख़ुदा की क़सम यह तुम्हारी दुनिया मेंरी नज़र में कोढ़ी के हाथ में सुअर की हड्डी से भी बदतर है। (((एक तो सुअर जैसे नजिसुल ऐन जानवर की हड्डी और वह भी कोढ़ी इन्सान के हाथ में। इससे ज़्यादा नफ़रत अंगेज़ चीज़ दुनिया में क्या हो सकती है। अमीरूल मोमेनीन (अ0) ने इस ताबीर से इस्लाम और अक़्ल दोनों के तालीमात की तरफ़ मुतवज्जो किया है के इस्लाम नजिसुल ऐन से इज्तेनाब की दावत देता है और अक़्ल मोतादी इमराज़ के मरीज़ों से बचने की दावत देती है। ऐसे हालात में अगर कोई शख़्स दुनिया पर टूट पड़े तो न मुसलमान कहे जाने के क़ाबिल है और न साहेबे अक़्ल।)))

236-एक क़ौम सवाब की लालच में इबादत करती है तो यह ताजिरों की इबादत है और एक क़ौम अज़ाब के ख़ौफ़ से इबादत करती है तो यह ग़ुलामों की इबादत है ,अस्ल वह क़ौम है जो शुक्रे ख़ुदा के उनवान से इबादत करती है और यही आज़ाद लोगों की इबादत है।

237-औरत सरापा शर है और इसकी सबसे बड़ी बुराई यह है के इसके बग़ैर काम भी नहीं चल सकता है। (((बाज़ हज़रात का ख़याल है के हज़रत का यह इशारा किसी “ख़ास औरत ” की तरफ़ है वरना यह बात क़रीने क़यास नहीं है के औरत की सिन्फ़ को शर क़रार दिया जाए और उसे इस हिक़ारत की नज़र से देखा जाए “ला बदमिनहा ” इस रिश्ते की तरफ़ इशारा हो सकता है जिसे तोड़ा नहीं जा सकता है और उनके बग़ैर ज़िन्दगी को अधूरा और नामुकम्मल क़रार दिया गया है। और अगर बात उमूमी है तो औरत का शर होना उसकी ज़ात या उसके किरदार के नुक़्स की बुनियाद पर नहीं है बल्कि उसकी बुनियाद सिर्फ़ उसकी ज़रूरत और उसके सरापा का इन्सानी जिन्दगी पर तसल्लत है के मर्द किसी वक़्त भी उससे बेनियाज़ नहीं हो सकता है और इस तरह अकसर औक़ात उसके सामने सरे तस्लीम ख़म करने के लिये तैयार हो जाता है। ज़रूरत इस बात की है के मर्द उसके अन्दर पाए जाने वाले जज़्बात और एहसासात की संगीनी की तरफ़ मुतवज्जो रहे और यह ख़याल रखे के इसके जज़्बात व ख़्वाहिशात के आगे सिपरअन्दाख़्ता हो जाना पूरे समाज और मुआशरे की तबाही का बाएस हो सकता है। इसके शर होने में एक हिस्सा उसके जज़्बात व ख़्वाहिशात का है और एक हिस्सा उसके वजूद की ज़रूरत का है जिससे कोई इन्सान बेनियाज़ नहीं हो सकता है और किसी वक़्त भी इसके सामने सिपरअन्दाख़्ता हो सकता है।)))

238-जो शख़्स काहेली और सुस्ती से काम लेता है वह अपने हुक़ूक़ को भी बरबाद कर देता है और जो चुग़लख़ोर की बात मान लेता है वह दोस्तों को भी खो बैठता है।

239-घर में एक पत्भर भी ग़स्बी लगा हो तो वह उसकी बरबादी की ज़मानत है।

सय्यद रज़ी - इस कलाम को रसूले अकरम (स0) से भी नक़्ल किया गया है और यह कोई हैरत अंगेज़ बात नहीं है के दोनों का सरचश्माए इल्म एक ही है।

240-मज़लूम का दिन (क़यामत) ज़ालिम के लिये उस दिन से सख़्ततर होता है जो ज़ालिम का मज़लूम के लिये होता है।