अक़ायदे नूर

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अक़ायदे नूर लेखक:
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अक़ायदे नूर

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: मौलाना सैय्यद एजाज़ हुसैन मूसावी
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अक़ायदे नूर

अक़ायदे नूर

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

सतरहवाँ सबक़

इमामत और इमाम की ज़रुरत

इमामत भी तौहीद व नबुव्वत की तरह उसूले दीन में से है। इमामत यानी पैग़म्बरे इस्लाम (स) की जानशीनी और दीनी व दुनियावी कामों में लोगों की रहबरी करना।

पैग़म्बर और नबी की ज़रुरत के बारे में हम ने जो दलीलें पढ़ी है। उन में से अकसर दलीलों की बुनियाद पर इमामत की ज़रुरत भी वाज़ेह व ज़ाहिर हो जाती है। इसलिये कि उन के बहुत से काम एक जैसे हैं लेकिन उस के अलावा भी बहुत से असबाब इमाम की ज़रुरत को हमारे लिये वाज़ेह करते हैं। जैसे:

1.इमाम की सर परस्ती में कमाल तक पहुचना

इंसान ख़ुदा वंदे आलम की तरफ़ जाने वाले आसान व मुश्किल रास्तों को तय करता है ता कि हर तरह का कमाल हासिल करे और इस में भी कोई शक व शुबहा नही है कि यह मुक़द्दस सफ़र किसी मासूम की राहनुमाई के बग़ैर मुम्किन नही है। यह बात अपनी जगह सही है कि ख़ुदा वंदे आलम ने इंसान को अ़क्ल जैसी नेमत से नवाज़ा है ,ज़मीर जैसा नसीहत करने वाला दिया है ,आसमानी किताबें नाज़िल की है ,लेकिन फ़िर भी मुम्किन है कि इंसान इन तमाम चीज़ों के बा वजूद भटक जाये और गुनाह में पड़ जाये। ऐसी सूरत में एक मासूम रहबर का वुजूद समाज और उस में बसने वालों को भटकने और गुमराह होने से बचाने में काफ़ी हद तक मुअस्सिर है। इस का मतलब यह हुआ कि इमाम का वुजूद इंसान को उस के मक़सद और हदफ़ तक पहुचाता है।

2.आसमानी शरीयतों की हिफ़ाज़त

हम जानते हैं कि ख़ुदा के तमाम दीन जब नबियों के दिलों पर नाज़िल होते थे तो साफ़ और हयात बख़्श होते थे लेकिन नापाक समाज और बुरे लोग आहिस्ता आहिस्ता उस दीन को ख़ुराफ़ात के ज़रिये ख़राब बना देते थे। जिस के नतीजे में उस की पाकिज़गी ख़त्म हो जाती थी और फ़िर ,उस में कोई जज़्ज़ाबियत बाक़ी रहती है न कोई तासीर ,इसी वजह से मासूम इमाम का होना ज़रुरी है ता कि दीन की हक़ीक़त को बाक़ी रखे और समाज को बुराई ,गुमराही ,ख़ुराफ़ात और ग़लत फ़िक्रों से बचाए रखे।

3.उम्मत की समाजी और सियासी रहनुमाई

इंसान की समाजी ज़िन्दगी एक ऐसे रहबर के बग़ैर नही है जिस के क़ौल व फ़ैल पर अमल किया जाये। इसी लिये तारीख़ में तमाम लोग और मुख़्तलिफ़ गिरोह किसी न किसी रहबर की क़यादत में रहे। चाहे वह अच्छा रहबर हो या बुरा। लेकिन यह बात मुसल्लम है कि इंसान एक ऐसे समाज का मोहताज है जिस में सही और इंसाफ़ पसंद निज़ाम क़ायम हो और ज़ाहिर है कि कोई गुनाहगार या ख़ताकार इंसान ऐसे समाज को वुजूद में नही ला सकता बल्कि कोई मासूम इमाम ही ऐसे समाज को वुजूद बख़्श सकता है।

4.इतमामे हुज्जत

बहुत से इंसान ऐसे होते हैं जो हक़ व हक़ीक़त को जानते हुए भी उस की मुख़ालिफ़त करते हैं। ऐसी सूरत में अगर इमाम का वुजूद न होता तो यह लोग क़यामत के दिन अल्लाह की बारगाह में यह बहाना पेश करते कि अगर कुछ आसमानी रहबर हमारी हिदायत के लिये होते तो हम इन गुनाहों को न करते। इसी वजह से ख़ुदा वंदे आलम ने तमाम इंसानों की हिदायत के लिये मासूम इमामों को भेजा ता कि लोगों पर हुज्जत तमाम करें और उन के लिये उज़्र पेश करने को कोई रास्ता बाक़ी न रह जाये।

खुलासा

-इमामत उसूले दीन में से है।

-जो असबाब और दलायले नबुव्वत की ज़रुरत को साबित करते हैं। उन में अकसर दलीलें इमामत की ज़रुरत को भी साबित करती है। इस के अलावा बहुत से असबाब हैं जो इमामत की ज़रुरत को वाज़ेह व ज़ाहिर करते हैं। जैसे:

क.इमाम की सर परस्ती में कमाल तक पहुचना।

ख.आसमानी शरीयतों की हिफ़ाज़त।

ग.उम्मत की समाजी और सियासी क़यादत।

घ.इतमामे हुज्जत।

सवालात

1.क्या इमामत उसूले दीन में से है ?

2.इमाम का वुजूद क्यों ज़रुरी हैं ?मुख़्तसर वज़ाहत के साथ दो दलीलें लिखें।

3.किस तरह ख़ुदा वंदे आलम इमाम को भेज कर लोगों पर हुज्जत तमाम करता है ?

अठ्ठारवाँ सबक़

इमाम की सिफ़ात

पैग़म्बरे इस्लाम (स) के जानशीन के उनवान से मुसलमानों के इमाम को चंद बुलंद तरीन सिफ़ात का हामिल होना चाहिये इसलिये कि ख़ुद मक़ामे इमामत भी एक ऐसा मुहिम मक़ाम है ,उम्मत की दीनी व दुनियावी रहबरी की ज़िम्मेदारी संभालता है । उनमें से चंद सिफ़तें यह हैं:

1.मासूम होना

इमाम के लिये ज़रूरी है कि वह पैग़म्बर (स) की तरह मासूम हो यानी हर तरह की ख़ता व ग़लती और भूल चूक से महफ़ूज़ हो ,वरना वह लोगों के लिये किसी सूरत में नमूने अमल ( IDEAL)और क़ाबिले एतिमाद शख़्स नही हो सकता ,इसी तरह वह समाज को भी सआदत की मंज़िलों तक नही पहुँच सकता। इसलिये कि जो ख़ुद गुनाहगार होगा वह मुआशरे की बुराईयों को दूर नही कर सकता है।

2.इल्मे ग़ैब का हामिल होना

इमाम पैग़म्बर (स) की तरह ही लोगों के लिये इल्मी पनाहगाह होता है। उसके लिये ज़रूरी है कि वह दीन के तमाम उसूल व फ़ुरूअ ,क़ुरआन के ज़ाहिर व बातिन ,सुन्नते पैग़म्बर (स) और इस्लाम से मुतअल्लिक़ तमाम उलूम और तमाम जुज़ईयात से कामिल तौर पर वाक़िफ़ हो। इसी तरह यह भी ज़रूरी है कि कायनात के ज़र्रे ज़र्रे का इल्म भी उसके पास हो ,इमाम को आलिमे ग़ैब भी होना चाहिये और तमाम उलूमे इलाही से कामिल तौर पर वाक़िफ़ होना चाहिये।

3.शुजाअत होना

इमाम के लिये यह भी ज़रूरी है कि वह मआशरे का सबसे शुजा शख़्स हो। इसलिये कि शुजाअत के बग़ैर हक़ीक़ी रहबरी वजूद में नही आ सकती। इमाम को तमाम तल्ख़ हादिसात ,अंदरूरी व बैरूनी दुश्मनों ,ख़यानत कार और ज़ालिम अफ़राद और मआशरे की तमाम बुराईयों से मुक़ाबला करने के लिये शुजाअत होना चाहिये।

4.ज़ोहद व तक़वा का हामिल होना

जो दुनिया और उसकी रंगिनियों से दिल लगाते हैं वह जल्दी धोखा खा जाते हैं और उनके गुमराह होने का इम्कान भी ज़्यादा होता है लेकिन इमाम को चाहिये कि वह दुनिया का ‘’असीर ’’ न हो बल्कि उसका ‘’अमीर ’’ हो। उसके लिये ज़रूरी है कि वह हवा ए नफ़्स और माल व मनाल व जाह व मक़ाम की क़ैद से आज़ाद रहे और ज़िन्दगी के हर लम्हे में ज़ोहद व तक़वा इख़्तियार किये रहे ताकि वह किसी से भी फ़रेब न खा सके।

5.बेहतरीन अख़लाक़ से मुत्तसिफ़ होना

क़ुरआने मजीद में पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बारे में इरशाद होता है ‘’अगर तुम सख़्त और संगदिल होते तो लोग तुम्हारे पास से इधर उधर भागते। ’’ [1] इस आयत से मालूम होता है कि किसी भी क़ाइद व रहबर को बेहतरीन अख़लाक़ का हामिल होना चाहिये ताकि लोग ख़ुद ब ख़ुद उसकी जानिब आयें। हर तरह की बदअख़लाक़ी और संगदिली पैग़म्बर या इमाम के लिये बहुत बड़ा ऐब है ,उसे हर तरह के बुराईयों से मुनज़्ज़ह व मुबर्रा व पाक और तमाम बेहतरीन अख़्लाक़ का हामिल होना चाहिये।

6.ख़ुदा की तरफ़ से होना

इमाम ख़ुदा की तरफ़ पैग़म्बरे इस्लाम (स) या गुज़िश्ता इमाम (अ) के ज़रिये मोअय्यन किया जाता है इसलिये कि ख़ुदा वंदे आलम और पैग़म्बरे इस्लाम (स) के अलावा कोई दूसरा किसी के मासूम होने का इल्म नही रखता है और लोग भी किसी के मुस्तक़बिल से आगाह नही हैं कि फ़लाँ शख़्स आइंदा कैसा रहेगा और क्या करेगा ?लिहाज़ा इमाम को ख़ुदा की तरफ़ से मंसूब होना चाहिये। लोग किसी को इमाम नही बना सकते इसलिये कि मुम्किन है कि लोग किसी शख़्स को बहुत पाक और मासूम जानें लेकिन हक़ीक़त में वह एक गुनाहगार शख़्स हो लिहाज़ा यह मानना पड़ेगा कि सिर्फ़ और सिर्फ़ ख़ुदा वंदे आलम की ज़ात ही है जिसको ‘’इमाम ’’ मोअय्यन करने का हक़ है इसलिये कि वह हर शख़्स के ज़ाहिर व बातिन से आगाह है और कामिल तौर पर जानता है कि कौन मासूम है और कौन ग़ैरे मासूम ?कौन शख़्स जानशीने पैग़म्बर बनकर करामत की रहबरी की लियाक़त रखता है और कौन नही रखता ?

इमाम की इन सिफ़ात और शराइत के अलावा और भी बहुत सी दूसरी सिफ़ात उलमा ए इस्लाम ने बयान की हैं जो बड़ी किताबों में मौजूद हैं।

ख़ुलासा

-पैग़म्बरे इस्लाम के जानशीन के उनवान से मुसल्मानों के इमाम को चंद बुलंद तरीन सिफ़ात का हामिल होना चाहिये ,जिनमें से कुछ का ज़िक्र यहाँ पर किया जा रहा हैं:

1.मासूम होना।

2.बेपनाह इल्म का हामिल होना।

3.शुजा होना।

4.साहिबे ज़ोहद व तक़वा होना।

5.बेहतरीन अख़लाक़ का हामिल होना।

6.ख़ुदा की तरफ़ से होना।

सवालात

1.क्या पैग़म्बरे इस्लाम के जानशीन को बुलंद तरीन सिफ़ात का हामिल होना चाहिये ?क्यों ?

2.इमाम की सिफ़ात में से दो सिफ़तों को मुख़्तसर वज़ाहत के साथ लिखें ?

3.क्यों इमाम को बेहतरीन अख़लाक़ का हामिल होना चाहिये ?

4.क्या ख़ुदा के अलावा भी कोई शख़्स इमाम को मोअय्यन कर सकता है ?क्यों ?

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[1].सूर ए आले इमरान आयत 59

उन्नीसवाँ सबक़

हमारे अइम्मा (अ)

हम शियों का अक़ीदा है कि ख़ुदा वंदे आलम ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) की रिसालत को जारी रखने के लिये बारह मासूम इमामों को आप (स) के जानशीन के उनवान से इंतिख़ाब किया है और हुज़ूरे अकरम (स) के बाद इनमें से हर इमाम ने अपने ज़माने में मुसलमानों का क़यादत व रहबरी की ज़िम्मेदारी संभाली ,इमामत का यह सिलसिला जारी रहा यहाँ तक कि इमामे ज़माना (अ) की इमामत शुऱू हुई। जो अल्लाह के करम से आज तक जारी है और रोज़े क़यामत तक जारी रहेगी।

हमारे अइम्मा बारह हैं

इस बात पर बहुत सी शिया व सुन्नी रिवायतें दलालत करती हैं कि रसूले इस्लाम (स) के ख़लीफ़ाओं की तादाद बारह हैं। अहले सुन्नत की मोतबर किताबों सही बुख़ारी ,सही मुस्लिम ,सुनने तिरमिज़ी ,सुनने इबने दाऊद ,मुसनदे अहमद वग़ैरा में इस तरह की रिवायात वारिद हुई हैं ,मिसाल के तौर पर जाबिर बिन समरा कहते हैं कि मैंने पैग़म्बरे इस्लाम (स) से सुना है कि मेरे बाद बारह अमीर (ख़लीफ़ा) आयेगें। फिर आपने कुछ कहा जो मैं सुन न सका लेकिन मेरे वालिद ने बताया कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने कहा सबके सब क़ुरैश से होंगें।[1] इसी तरह एक मर्तबा जब आप (स) के जानशीनों के बारे में सवाल हुआ तो आपने (स) फ़रमाया:

اثنا عشر کعدة نقباء بنی اسرائیل ‘’मेरे जानशीन बनी इस्राइल के नोक़बा की तरह बारह हैं। ’’ [2]

इमामों की नाम बनाम वज़ाहत

शिया रिवायतों के अलावा सुन्नी रिवायतों में भी पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने हमारे इमामों की नाम बनाम वज़ाहत फ़रमाई है। मशहूर सुन्नी आलिमे दीन शैख़ सुलैमान क़ंदूज़ी अपनी किताब ‘’यनाबीउल मवद्दा ’’ में नक़्ल करते हैं कि एक बार नासल नाम का एक यहूदी हुज़ूरे अकरम (स) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और अपने दूसरे सवालों के ज़िम्न में उसने पैग़म्बरे इस्लाम (स) से आपके (स) जानशीनों के बारे में भी पूछा तो आपने (स) फ़रमाया: ‘’अली बिन अबी तालिब (अ) मेरे वसी हैं और उनके बाद मेरे दो फ़रज़ंद ,हसन (अ) व हुसैन (अ) और फिर हुसैन (अ) की नस्ल में आने वाले नौ इमाम मेरे वसी हैं ’’ उस यहूदी ने उनके नाम पूछे तो आपने (स) फ़रमाया: ‘’हुसैन (अ) के बाद उनके फ़रज़ंद अली (अ) (इमाम सज्जाद) ,अली (अ) के बाद उनके फ़रज़ंद मोहम्मद (अ) (इमाम बाक़िर) ,मोहम्मद (अ) के बाद उनके फ़रज़ंद जाफ़र (अ) ,जाफ़र (अ) के बाद उनके फ़रज़ंद मूसा (अ) ,मूसा (अ) के बाद उनके फ़रज़ंद अली (अ) (इमाम रिज़ा) अली (अ) के बाद उनके फ़रज़ंद मोहम्मद (अ) (इमाम मोहम्मद तक़ी) ,अली (अ) के बाद उनके फ़रज़ंद हसन (अ) (इमाम हसन असकरी) ,और हसन (अ) के बाद उनके फ़रज़ंद हुज्जतुल मेहदी (अज) (इमाम ज़माना) हैं और यही बारह इमाम हैं। ‘’[3]

ज़माने के इमाम को पहचानना

सुन्नी किताबों में पैग़म्बरे इस्लाम (स) से ये हदीस नक़्ल हुई है कि

من مات بغیر امام مات میتة جاهلیة [4 ]

‘’ यानी जो शख़्स किसी इमाम के बग़ैर मर जाये वह जाहिलीयत की मौत मरता है। ’’

इसी तरह की अहादीस शिया किताबों में भी मौजूद हैं ,जैसा कि एक हदीस में वारिद हुआ है:

من مات ولم یعرف امامه مات میتة جاهلیة [5 ]

‘’ जो शख़्स अपने ज़माने के इमाम को पहचाने बग़ैर मर जाये वह जाहिलीयत की मौत मरता है ’’

इन अहादीस से यह बात वाज़ेह हो जाती है कि हर ज़माने में एक इमाम मौजूद होता है जिसको पहचानना वाजिब है और उसकी मारिफ़त हासिल न करना इंसान के जाहिलीयत और कुफ़्र के दौर में लौटने का सबब बनता है।

ख़ुलासा

-हम शियों का अक़ीदा है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) के जानशीन औऱ हमारे इमामों की तादाद बारह है। हर ज़माने में इमाम का होना ज़रूरी है और आज तक इमामे ज़माना (अज) की इमामत जारी है और रोज़े क़यामत तक जारी रहेगी।

-शिया किताबों के अलावा सही बुख़ारी ,सही मुस्लिम ,सुनने अबी दाऊद ,और मुसनदे अहमद जैसी किताबों में भी पैग़म्बरे इस्लाम (स) की यह हदीस नक़्ल है कि मेरे ख़ुलफ़ा बारह हैं और सबके सब कुरैश से हैं।

-शिया और सुन्नी किताबों में पैग़म्बरे इस्लाम (स) की ये हदीस नक़्ल हुई है कि जो शख़्स अपने ज़माने के इमाम को न पहचाने ,वह जाहिलीयत की मौत मरता है। इस हदीस से मालूम होता है कि हर ज़माने में एक इमाम मौजूद होता है जिसकी मारिफ़त हासिल करना वाजिब है।

सवालात

1.इमामों की तादाद के बारे में हमारा अक़ीदा क्या है ?

2.इमामो का तादाद के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने क्या फ़रमाया है ?

3.क्या पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने हमारे इमामों की नाम ब नाम वज़ाहत फ़रमाई है ?

4.पैग़म्बरे इस्लाम (स) की हदीस के मुताबिक़ अपने ज़माने के इमाम को न पहचानने का क्या नुक़सान है ?

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[1].सही बुख़ारी जिल्द 9 पेज 100

[2].मुसनदे अहमद बिन हम्बल जिल्द 1 पेज 398

[3].यनीबीउल मवद्दा पेज 441

[4].अल मोजमुल मुक़द्दस ले अलफ़ाज़िल अहादीसिन नबविया जिल्द 6 पेज 302

[5].बहारूल अनवार जिल्द 6 पेज 16 (क़दीम तबाअत)

बीसवाँ सबक़

मआद (क़यामत)

मौत के बाद क़यामत के दिन दुनिया में किये गये कामों का ईनाम या सज़ा पाने के लिये तमाम इंसानों के दोबारा ज़िन्दा किये जाने को ‘’मआद ’’ कहते हैं।

मआद ,उसूले दीन का पाचवाँ हिस्सा है जो बहुत अहम है और क़ुरआने मजीद की 1200 आयतें मआद के बारे में नाज़िल हुई हैं ,दूसरे उसूले दीन की तरह जो शख़्स मआद का इंकार करे वह मुसलमान नही रहता. तमाम नबियों ने तौहीद की तरह लोगों को इस अक़ीदे की तरफ़ भी दावत दी है।

मआद की दलीलें

उलामा ने मआद की ज़रुरत पर बहुत सी दलीलें पेश की हैं जिन में से बाज़ यह हैं:

1.ख़ुदा का आदिल होना

ख़ुदा वंदे आलम ने इंसानों को अपनी इबादत के लिये पैदा किया है लेकिन इंसान दो तरह के होते हैं:

1. वह जो ख़ुदा के नेक और सालेह बंदे हैं।

2. वह जो ख़ुदा की मासियत और गुनाहों में डूबे हुए हैं।

चूँकि ख़ुदा आदिल है लिहाज़ा ज़रुरी है कि वह मोमिन को ईनाम और गुनाह करने वाले को सज़ा दे। लेकिन यह काम इस दुनिया में नही हो सकता इस लिये कि जिस शख़्स ने सैकड़ों क़त्ल किये हों उसे इस दुनिया अगर सज़ा दी जाये तो उसे ज़्यादा से ज़्यादा मौत की सज़ा दी जायेगी। जो सिर्फ़ एक बार होगी जब कि उसने सैकड़ों क़त्ल किये हैं लिहाज़ा कोई ऐसी जगह होनी चाहिये जहाँ ख़ुदा उसे उस के अमल के मुताबिक़ सज़ा दे और वह जगह आख़िरत (मआद) है।

2.इंसान का बे मक़सद न होना

हम जानते हैं कि ख़ुदा ने इंसान को बे मक़सद पैदा नही किया है बल्कि एक ख़ास मक़सद के तहत उसे वुजूद अता किया है और वह ख़ास मक़सद यह दुनियावी ज़िन्दगी नही है। इस लिये कि यह महदूद और ख़त्म हो जाने वाली ज़िन्दगी है जिस के बाद सब को उस दुनिया की तरफ़ जाना है जो हमेशा बाक़ी रहने वाली है लिहाज़ा अगर उसी दुनियावी ज़िन्दगी को पैदाईश का मक़सद मान लिया जाये तो यह एक बेकार और बे बुनियाद बात होगी। लिहाज़ा अगर ज़रा ग़ौर व फ़िक्र किया जाये तो मालूम हो जायेगा कि इंसान इस महदूद दुनियावी ज़िन्दगी के लिये नही बल्कि एक बाक़ी रहने वाली ज़िन्दगी के लिये पैदा किया गया है जो बाद के बाद की ज़िन्दगी यानी मआद है और यह दुनिया उसी असली ज़िन्दगी के लिये एक गुज़रगाह है। इस सिलसिले में क़ुरआने मजीद में इरशाद होता है:

افحسبتم انما خلقناکم عبثا و انکم الینا لا ترجعون .

क्या तुम यह ख़याल करते हो कि हम ने तुम्हे बे मक़सद पैदा किया है और तुम हमारी तरफ़ पलट कर न आओगे ? (सूर ए मोमिनून आयत 115)

मआद के दिन सब के आमाल उन के सामने लाये जायेगें। जिन लोगों ने नेक आमाल अंजाम दिये है उन का नाम ए आमाल दाहिने हाथ में होगा लेकिन जिन लोगों ने बुरे आमाल किये होगें उन की नाम ए आमाल बायें हाथ में होगा और बुरे आमाल वाला अफ़सोस करेगा कि ऐ काश मैं बुरे काम अंजाम न देता।

ख़ुलासा

-क़यामत के दिन ईनाम और सज़ा पाने के लिये मौत के बाद तमाम इंसानों के दोबारा ज़िन्दा होने को मआद कहते हैं ,इस्लाम में मआद को काफ़ी अहमियत हासिल है। मआद की दो अहम दलीलें:

1.ख़ुदा का आदिल होना: इस दुनिया में नेक काम करने वालों को ईनाम और गुनाह करने वालों को सज़ा नही दी जा सकती। लिहाज़ा एक ऐसी जगह का होना ज़रुरी है जहाँ ख़ुदा अपनी अदालत के ज़रिये ईनाम और सज़ा दे सके और वह जगह वही आलमे आख़िरत या मआद है।

2.इंसान का बे मक़सद न होना: ख़ुदा ने इंसान को बे मक़सद पैदा नही किया है बल्कि ख़ास मक़सद के तहत उसे वुजूद बख़्शा है और वह ख़ास मक़सद यह महदूद दुनियावी ज़िन्दगी नही हो सकती। इस लिये कि यह एक बेकार बात होगी ,वह ख़ास मक़सद हमेशा बाक़ी रहने वाली ज़िन्दगी है और इस दुनिया के बाद हासिल होगी जिसे मआद कहते हैं।

सवालात

1.मआद की तारीफ़ बयान करें ?

2.अदालते ख़ुदा के ज़रिये मआद को साबित करें ?

3.इंसान की पैदाईश का मक़सद यह दुनियावी ज़िन्दगी क्यों नही हो सकती ?

इक्कीसवाँ सबक़

मआद जिस्मानी है या रूहानी

जब मआद की बात आती है तो हमारे ज़हन में एक सवाल पैदा होता है कि क्या मौत के बाद की ज़िन्दगी सिर्फ़ रुहानी ज़िन्दगी है ?क्या जिस्म ख़त्म हो जायेगा ?क्या आख़िरत की ज़िन्दगी सिर्फ़ रूह से मुतअल्लिक़ है ?

इन तमाम सवालों का जवाब सिर्फ़ एक जुमला है और वह यह कि मआद या आख़िरत की ज़िन्दगी न सिर्फ़ यह कि रूहानी है बल्कि जिस्मानी भी है। इस नज़रिये पर बहुत सी दलीलें मौजूद हैं जिन में से बाज़ यह है:

1.एक दिन उबई बिन ख़लफ़ पैग़म्बरे इस्लाम (स) की ख़िदमत में एक पुरानी हडडी ले कर आया और मआद यानी मौत के बाद ज़िन्दा होने का इंकार करने की ग़रज़ से उसने हड्डियों को मसल दिया और उस के बुरादे को हवा में बिखेर दिया फिर सवाल किया कि कैसे मुम्किन है कि यह फ़ज़ा में बिखरी हुई हड्डी दोबारा अपनी पुरानी सूरत में आ जाये ?तो यह आयत नाज़िल हुई: (........................) कह दो कि उसे वही ज़ात दोबारा ज़िन्दा करेगी जिसने उस पहली बार वुजूद बख़्शा। (सूर ए यासीन आयत 79)

2.क़ुरआने मजीद में इरशाद होता है:

قل یحییها الذی انشاها اول مرة

(क़यामत के दिन तुम क़ब्रों से निकलोगे।)(सूर ए क़मर आयत 7)

हम जानते हैं कि क़ब्र बदन की जगह है ,रूह का मक़ाम नही है लिहाज़ा साबित हो जाता है कि क़ब्र से लोगों के जिस्म निकलेगें।

3.क़ुरआने मजीद में एक आयत है जिस में बयान हुआ है कि एक अरबी शख्स लोगों से पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बारे में कहता था: क्या यह इंसान तुम से इस बात का वादा कर रहा है कि तुम मर कर ख़ाक और हड्डी हो जाओगे और उस के बाद फिर ज़िन्दगी हासिल कर लोगे ?।

इस आयत से भी मालूम होता है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) लोगों से यह फ़रमाते थे कि यही जिस्म ख़ाक होने के बाद दोबारा ज़िन्दा किया जायेगा।

इस तरह की बहुत सी आयतें क़ुरआने मजीद में मौजूद हैं जिस का मुतालआ करने के बाद वाज़ेह हो जाता है कि मआद सिर्फ़ रूहानी नही है बल्कि जिस्मानी भी है।

ख़ुलासा

-मआद सिर्फ़ रूहानी नही बल्कि जिस्मानी भी है।

-मआद के जिस्मानी होने पर उबई बिन ख़लफ़ का वाक़ेया और क़ुरआन की आयते मोहकम और मज़बूत दलीलें हैं।

सवालात

1.मआद जिस्मानी है या रूहानी ?

2.उबई बिन ख़लफ़ के वाक़ेया के ज़रिये साबित करें कि मआद जिस्मानी भी है ?