ग़दीरे ख़ुम

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ग़दीरे ख़ुम कैटिगिरी: इतिहासिक कथाऐ

ग़दीरे ख़ुम

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

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ग़दीरे ख़ुम

ग़दीरे ख़ुम

हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

जश्न और याद मनाना , हदीस की रौशनी में

मुतअद्दिद रिवायात की रौशनी में इस तरह के जश्न और महफ़िल के जवाज़ को साबित किया जा सकता है:

1. मुस्लिम ने इब्ने क़तादा से नक़्ल किया है कि जब रसूले अकरम (स) से यह सवाल किया गया कि पीर के दिन रोज़ा रखना मुसतहब क्यों हैं ? तो आपने फ़रमाया: उसकी वजह यह है कि मैं उस रोज़ पैदा हुआ हूँ और उसी रोज़ मुझ पर क़ुरआने मजीद नाज़िल हुआ है।

2. मुस्लिम इब्ने अब्बास से रिवायत करते है कि जब रसूले अकरम (स) मदीने में वारिद हुए तो देखा कि यहूदी रोज़े आशूरा को रोज़ा रखते हैं , उनसे इस काम की वजह मालूम की गई तो उन्होने कहा: यह वह रोज़ा है जिसमें ख़ुदा वंदे आलम ने बनी इस्राईल को फ़िरऔन पर कामयाबी दी है लिहाज़ा हम उस दिन का ऐहतेराम करते हैं , उस मौक़े रक पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया: हम इस अमल के ज़्यादा मुसतहिक़ है। लिहाज़ा आपने हुक्म दिया कि रोज़े आशूर का रोज़ा रखा करें।

अल्लामा सुयूती की नक़्ल के मुताबिक़ इब्ने हजर असक़लानी इस हदीस के ज़रिये पैग़म्बरे अकरम (स) के रोज़े विलादत पर जश्न मनाने पर इस्तिदलाल करते हैं।

(सही मुस्लिम जिल्द 2 पेज 819)

(सही मुस्लिम हदीस 130, सही बुख़ारी जिल्द 7 पेज 215)

(अलहावी लिल फ़तावा जिल्द 1 पेज 196)

3. हाफ़िज़ बिन नासिरुद्दीन दमिश्क़ी रिवायत करते हैं: सही तरीक़े से बयान हुआ है कि पीर के रोज़ अबू लहब ने अज़ाब मे कमी हो जाती थी क्योकि उसने पैग़म्बरे अकरम (स) को रोज़े विलादत पर ख़ुश हो कर अपनी कनीज़ सौबिया को आज़ाद कर दिया था।

क़ारेई मोहतरम , गुज़श्ता रिवायत के ज़रिये ब तरीक़े औला यह नतीजा हासिल होता है कि आँ हज़रत (स) के रोज़े विलादत पर जश्न मनाना और आँ हज़रत (स) की याद मनाना जायज़ है।

4. बैहक़ी , अनस बिन मालिक से यूँ रिवायत करते हैं: पैग़म्बरे अकरम (स) ने अपनी नुबूवत के बाद अपने तरफ़ से एक गोसफ़ंद का अक़ीक़ा किया , जबकि रिवायात में भी वारिद हुआ है कि अबू तालिब ने आपकी विलादत के साँतवें दिन आपके अक़ीक़े में एक गोसफ़ंद ज़िब्ह किया था।

सुयूती कहते हैं: दूसरी मर्तबा अक़ीक़ा नही किया जा सकता लिहाज़ा पैग़म्बरे अकरम (स) के इस अमल को इस बात पर हम्ल करें कि आँ हजरत (स) ने इस चीज़ का शुक्रिया अदा करते हुए अक़ीक़ा किया कि मैं ख़ुदा वंदे आलम ने उनको ख़ल्क़ फ़रमाया और दोनो आलम के लिये रहमत बना कर भेजा , जैसा कि आँ हज़रत (स) ने ख़ुद अपने ऊपर दुरुद भेजे थे , इसी वजह से मुसतहब है कि हम भी ख़ुदा की बारगाह में शुक्रे इलाही को बजा लाने के लिये आपके रोज़े विलादत पर इजतेमाअ करें , खाना खिलाये और मिठाई तक़सीम करें जिनकी वजह से ख़ुदा की क़ुरबत हासिल होती है।

5. तिरमिज़ी ने पैग़म्बरे अकरम (स) से नक़्ल किया है कि आँ हज़रत (स) ने जुमे के दिन के रोज़े की फ़ज़ीलत के बारे में फ़रमाया: उस रोज़ जनाबे आदम (अ) ख़ल्क़ हुए हैं।

(मैरिदुस सादी फ़ी मौलिदिन नबी)

(अलहावी जिल्द 1 पेज 196)

(अलहावी जिल्द 1 पेज 196)

(सही तिरमिज़ी हदीस 491)

क़ारेईने मोहतरम , इन अहादीस से यह नतीजा हासिल होता है कि बाज़ दिन फ़ज़ीलत रखते हैं जिनमें ख़ास और मुबारक वाक़ेयात पेश आये हैं। लिहाज़ा उस रोज़ की तो बड़ी अहमियत होनी चाहिये जिसमें पैग़म्बरे अकरम (स) पैदा हुए या जिस रोज़ आपने (ग़दीरे ख़ुम) में अपना जानशीन मुअय्यन किया।

जश्न मनाने के फ़वायद

जश्न व महफ़िल मुनअक़िद करने और औलिया ए इलाही की याद मनाने में बहुत सी बरकतें और फ़वायद हैं जिनमें से चंद चीज़ों की तरफ़ इशारा किया जाता है:

1. इस तरह के जश्न व महफ़िल में मोमिनीन अपने दीन व मज़हब की बुनियाद रखने वालों से दोबारा अहद व पैमान बाँधते हैं कि उनकी राह को आगे बढ़ायेगें और उनके अंदर यह अहसास पैदा होता है कि हमें अपने अज़ीम इमाम और मुक़तदा की राह पर कदम बढ़ाना चाहिये।

2. उनसे मुहब्बत के इज़हार और बातिनी राब्ते के ज़रिये उन हज़रात के मअनवी फ़ैज़ और बरकतों से बहरा मंद होना।

3. शिया उन महफ़िलों के ज़रिये दर हक़ीक़त अपने दुश्मनों को पैग़ाम देते है कि हमारे मौला व रहबर अली (अ) हैं। वह ज़ुल्मे सतीज़ और ज़ुल्म का मुक़ाबला करने वाले थे , वह अहकामे इलाही को नाफ़िज़ करने में किसी की रिआयत नही करते थे वग़ैरह वग़ैरह लिहाज़ा हम भी उसी रास्ते पर चलते हैं और उन्ही की पैरवी करते हैं।

4. हर साल उस रोज़ पैग़म्बरे अकरम (स) और औलिया ए इलाही को याद करके उनकी निस्बत मुहब्बत में इज़ाफ़ा होता है।

5. इन महफ़िलों में उन हज़रात के बाज़ फ़ज़ायल व कमालात की तौज़ीह व तशरीह की जाती है और मोमिनीन उनकी पैरवी करते हुए ख़ुदा वंदे आलम से नज़दीक होते हैं।

6. ख़ुशी व मुसर्रत के इज़हार से पैग़म्बरे अकरम (स) और औलिया ए इलाही के ईमान का इज़हार करके उसको मुसतहकम करते हैं।

7. जश्न व महफ़िल के आख़िर में मिठाई या खाना खिलाने से सवाबे इतआम से बहरा मंद होते हैं और बाज़ ग़रीबों को इस तरह के जश्न से माद्दी फ़ायदा होता है।

8. इस तरह की महफ़िलों में ख़ुदा की याद ज़िन्दा होती है और क़ुरआनी आयात की तिलावत होती है।

9. ऐसे मवाक़े पर मोमिनीन पैग़म्बरे अकरम (स) पर बहुत ज़्यादा दुरुद व सलाम भेजते हैं।

10. ऐसे मवाक़े पर लोगों को ख़ुदा और उसके अहकाम की तरफ़ दावत देने का बेहतरीन मौक़ा होता है।

इस्लाम में ईदे ग़दीर की अहमियत

जिस चीज़ ने वाक़ेया ए ग़दीर के जावेदाना क़रार दिया और उसकी हक़ीक़त को साबित किया है वह उस रोज़ का ईद क़रार पाना है। रोज़े ग़दीर ईद शुमार होती है और उसके शब व रोज़ में इबादत , ख़ुशू व ख़ुज़ू , जश्न और ग़रीबों के साथ नेकी नीज़ ख़ानदान में आमद व रफ़्त होती है और मोमिनीन इस जश्न में अच्छे कपड़े पहनते और ज़ीनत करते हैं।

जब मोमिनीन ऐसे कामों की तरफ़ राग़िब हों तो उनके असबाब की तरफ़ की तरफ़ मुतवज्जेह होकर उसके रावियों की तहक़ीक़ करते हैं और उस वाक़ेया को नक़्ल करते हैं , अशआऱ पढ़ते हैं , जिसकी वजह से हर साल जवान नस्ल की मालूमात में इज़ाफ़ा होता है और हमेशा उस वाक़ेया की सनद और उससे मुताअल्लिक़ अहादीस पढ़ी जाती है , जिसकी बेना पर वह हमेशगी बन जाती हैं। रोज़े ग़दीर से मुतअल्लिक़ दो तरह की बहस की जा सकती है:

1. शियों से मख़्सूस न होना

यह ईद सिर्फ़ शियों से मख़्सूस नही है। अगर चे उसकी निस्बत शिया ख़ास अहमियत रखते हैं , मुसलमानों के दीगर फ़िरके भी ईदे ग़दीर में शियों के साथ शरीक हैं , ग़ैर शिया उलामा ने भी उस रोज़ की फ़ज़ीलत और पैग़म्बरे अकरम (स) की तरफ़ से हज़रत अली (अ) के मक़ामे विलायत पर फ़ायज़ होने की वजह से ईद क़रार देने के सिलसिले में गुफ़्तुगू की है क्योकि यह दिन हज़रत अली (अ) के चाहने वालों के लिये ख़ुशी व मुसर्रत का दिन है चाहे आपको आँ हज़रत (स) का बिला फ़स्ल ख़लीफ़ा मानते हों या चौथा ख़लीफ़ा।

बैरनी आसारुल बाक़िया में रोज़े ग़दीर को उन दिनों में शुमार करते हैं जिसको मुसलमानों ने ईद क़रार दिया है।

इब्ने तलहा शाफ़ेई कहते हैं: हज़रत अमीरुल मोमिनीन (अ) ने अपने अशआर में रोज़े ग़दीरे ख़ुम का ज़िक्र किया है और उस रोज़ को ईद शुमार किया है क्योकि उस रोज़ में रसूले इस्लाम (स) ने आपको अपना जानशीन मंसूब किया और तमाम मख़लूक़ात पर फ़ज़ीलत दी है।

(अल आसारुल बाक़िया फ़िल क़ुरुनिल ख़ालिया पेज 334)

(मतालिबुस सुऊल पेज 53)

नीज़ मौसूफ़ कहते हैं: लफ़्ज़े मौला का जो मअना भी रसूले अकरम (स) के लिये साबित करना मुमकिन हो वही हज़रत अली (अ) के लिये भी मुअय्यन है और यह एक बुलंद मर्तबा , अज़ीम मंज़िलत , बुलंद दर्जा और रफ़ीअ मक़ाम है जो पैग़म्बरे अकरम (स) ने हज़रत अली (अ) से मख़्सूस किया , लिहाज़ा औलिया ए इलाही के नज़दीक यह दिन ईद और मुसर्रत का रोज़ क़रार पाया है।

तारिख़ी कुतुब से यह नतीजा हासिल होता है कि उम्मते इस्लामिया मशरिक़ व मग़रिब में उस दिन के ईद होने पर मुत्तफ़िक़ है , मिस्री , मग़रबी और इराक़ी (ईरानी , हिन्दी) उस रोज़ की अज़मत के क़ायल है और उनके नज़दीक रोज़े ग़दीर नमाज़ , दुआ , खुतबा और मदह सराई का मुअय्यन दिन है और उस रोज़ के ईद होने पर उन लोगों का इत्तेफ़ाक़ है।

इब्ने ख़ल्लक़ान कहत हैं: पैग़म्बरे अकरम (स) हुज्जतुल विदा में मक्के से वापसी में जब ग़दीरे ख़ुम पहुचे , अपने और अली के दरमियान अक़्दे उख़ूवत पढ़ा और उनको अपने लिये मूसा के नज़दीक हारुन की तरह क़रार दिया और फ़रमाया: ख़ुदाया , जो उनकी विलायत को क़बूल करे उसको दोस्त रख और जो उनकी विलायत के तहत न आये और उनसे दुश्मनी करे उसको दुश्मन रख और उनके नासिरों का मदद गार हो जा और उनको ज़लील करने वालों को रुसवा कर दे और शिया उस रोज़ को ख़ास अहमियत देते हैं।

मसऊदी ने इब्ने ख़ल्लक़ान की गुफ़्तुगू की ताईद की है , चुँनाचे मौसूफ़ कहते हैं: औलादे अली (अ) और उनके शिया उस रोज़ की याद मनाते हैं।

सआलबी , शबे ग़दीर को उम्मते इस्लामिया के नज़दीक मशहूर शबों में शुमार करते हुए कहते हैं: यह वह शब है जिसकी कल में पैग़म्बरे अकरम (स) ने ग़दीरे ख़ुम में ऊटों के कजावों के मिम्बर पर एक ख़ुतबा दिया और फ़रमाया:

और शियों ने उस शब को मोहतरम शुमार किया है और वह इस रात में इबादत और शब बेदारी करते हैं।

(मतालिबुस सुऊल पेज 56)

(वफ़यातुल आयान इब्ने ख़लक़ान जिल्द 1 पेज 60 व जिल्द 2 पेज 223)

(वफ़यातुल आयान इब्ने ख़लक़ान जिल्द 1 पेज 60 व जिल्द 2 पेज 223 )

(अत तंबीह वल इशराफ़ मसऊदी पेज 221)

(सेमारुल क़ुलूब सआलबी पेज 511)

2. ईदे ग़दीर की इब्तेदा

तारीख़ की वरक़ गरदानी से यह मालूम होता है कि इस अज़ीम ईद की इब्तेदा पैग़म्बरे अकरम (स) के ज़माने से हुई है। इसकी शुरुआत उस वक़्त हुईजब पैग़म्बरे अकरम (स) ने ग़दीर के सहरा में ख़ुदा वंदे आलम की जानिब से हज़रत अली (अ) को इमामत व विलायत के लिये मंसूब किया। जिसकी बेना पर उस रोज़ हर मोमिन शाद व मसरुर हो गया और हज़रत अली (अ) के पास आकर मुबारक बाद पेश की। मुबारक बाद पेश करने वालों में उमर व अबू बक्र भी हैं जिनकी तरफ़ पहले इशारा किया जा चुका है और इस वाक़ेया को अहम क़रार देते हुए और उस मुबारक बाद की वजह से हस्सान बिन साबित और क़ैस बिन साद बिन ओबाद ए अंसारी वग़ैरह ने इस वाक़ेया को अपने अशआर में बयान किया है।

ग़दीर के पैग़ामात

उस ज़माने में बाज़ अफ़राद ग़दीर के पैग़मात को इस्लामी मुआशरे में नाफ़िज़ करना चाहते थे। लिहा़ज़ा मुनासिब है कि इस मौज़ू की अच्छी तरह से तहक़ीक़ की जाये कि ग़दीरे ख़ुम के पैग़ामात क्या क्या हैं ? क्या उसके पैग़ामात रसूले अकरम (स) की हयाते मुबारक के बाद के ज़माने से मख़्सूस हैं या रोज़े तक उन पर अमल किया जा सकता है ? अब हम यहाँ पर ग़दीरे पैग़ाम और नुकात की तरफ़ इशारा करते हैं जिनकी याद दहानी जश्न और महफ़िल के मौक़े पर कराना ज़रुरी है:

1. हर पैग़म्बर के बाद एक ऐसी मासूम शख़्सियत को होना ज़रुरी है जो उसके रास्ते को आगे बढ़ाये और उसके अग़राज़ व मक़ासिद को लोगों तक पहुचाये और कम से कम दीन व शरीयत के अरकान और मजमूए की पासदारी करे जैसा कि रसूले अकरम (स) ने अपने बाद के लिये जानशीन मुअय्यन किया और हमारे ज़माने में ऐसी शख़्सियत हज़रत इमाम मेहदी अलैहिस्सलाम हैं।

2. अंबिया (अ) का जानशीन ख़ुदा वंदे आलम की तरफ़ मंसूब होना चाहिये जिनका तआरुफ़ पैग़म्बर के ज़रिये होता है जैसा कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने अपने बाद के लिये अपना जानशीन मुअय्यन किया , क्योकि मक़ामे इमामत एक इलाही मंसब है और हर इमाम ख़ुदा वंदे की तरफ़ से ख़ास ता आम तरीक़े से मंसूब होता है।

3. ग़दीर के पैग़ामात में से एक मसअला रहबरी और उसके सिफ़ात व ख़ुसूसियात का मसअला है , हर कस न नाकस इस्लामी मुआशरे में पैग़म्बरे अकरम (स) का जानशीन नही हो सकता , रहबर हज़रत अली (अ) की तरह हो जो पैग़म्बरे अकरम (स) का रास्ते पर हो और आपके अहकाम व फ़रमान को नाफ़िज़ करे , लेकिन अगर कोई ऐसा न हो तो उसकी बैअत नही करना चाहिये , लिहाज़ा ग़दीर का मसअला इस्लाम के सियासी मसायल के साथ मुत्तहिद है।

चुँनाचे हम यमन में मुलाहिज़ा करते हैं कि चौथी सदी के वसत से जश्ने ग़दीर का मसअला पेश आया और हर साल अज़ीमुश शान तरीक़े पर यह जश्न मुनअक़िद होता रहा और मोमिनीन हर साल उस वाक़ेया की याद ताज़ा करते रहे और नबवी मुआशरे में रहबरी के शरायत से आशना होते रहे , अगरचे चंद साल से हुकूमते वक़्त उस जश्न के अहम फ़वायद और पैग़ामात की बेना पर उसमें आड़े आने लगी , यहाँ तक कि हर साल इस जश्न को मुनअक़िद करने की वजह से चंद लोग क़त्ल हो जाते हैं , लेकिन फिर भी मोमिनीन इस्लामी मुआशरे में इस जश्न की बरकतों और फ़वायद की वजह से इसको मुनअक़िद करने पर मुसम्मम हैं।

4. ग़दीर का एक हमेशगी पैग़ाम यह है कि पैग़म्बरे अकरम (स) के बाद इस्लामी मुआशरे का रहबर और नमूना हज़रत अली (अ) या उन जैसे आईम्मा ए मासूमीन में से हो। यह हज़रात हम पर विलायत व हाकिमियत रखते हैं , लिहाज़ा हमें चाहिये कि उन हज़रात की विलायत को क़बूल करते हुए उनकी बरकात से फ़ैज़याब हों।

5. ग़दीर और जश्ने ग़दीर , शिईयत की निशानी है और दर हक़ीक़त ग़दीर का वाक़ेया इस पैग़ाम का ऐलान करता है कि हक़ (हज़रत अली (अ) और आपकी औलाद की महवरियत में है) के साथ अहद व पैमान करें ता कि कामयाबी हासिल हो जाये।

6. वाक़ेय ए ग़दीर से एक पैग़ाम यह भी मिलता है कि इंसान को हक़ व हकी़क़त के पहचानने के लिये हमेशा कोशिश करना चाहिये और हक़ बयान करने में कोताही से काम नही लेना चाहिये , क्योकि पैग़म्बरे अकरम (स) अगरचे जानते थे कि उनकी वफ़ात के बाद उनकी वसीयत पर अमल नही किया जायेगा , लेकिन लोगों पर हुज्जत तमाम कर दी और किसी भी मौक़े पर मख़ूससन हज्जतुल विदा में हक़ बयान करने में कोताही नही की।

7. रोज़े क़यामत तक बाक़ी रहने वाला ग़दीर का एक पैग़ाम अहले बैत (अ) की दीनी मरजईयत है , इसी वजह से पैग़म्बरे अकरम (स) ने उन्ही दिनों में हदीस सक़लैन को बयान किया और मुसलमानों को अपने मासूम अहले बैत से शरीयत व दीनी अहकाम हासिल करने की रहनुमाई फ़रमाई।

8. ग़दीर का एक पैग़ाम यह है कि बाज़ मवाक़े पर मसलहत की ख़ातिर और अहम मसलहत की वजह से मुहिम मसलहत को मनज़र अंदाज़ किया जा सकता है और उसको अहम मसलहत पर क़ुर्बान किया जा सकता है। हज़रत अली (अ) हालाकि ख़ुदा वंदे आलम की तरफ़ से और रसूले अकरम (स) के ज़रिये इस्लामी मुआशरे की रहबरी और मक़ामे ख़िलाफ़त पर मंसूब हो चुके थे , लेकिन जब आपने देखा कि अगर मैं अपना हक़ लेने के लिये उठता हूँ तो क़त्ल व ग़ारत और जंग का बाज़ार गर्म हो जायेगा और यह इस्लाम और मुसलमानों की मसलहत में नही है तो आपने सिर्फ़ वअज़ व नसीहत , इतमामे हुज्जत और अपनी मज़लूमीयत के इज़हार को काफ़ा समझा ताकि इस्लाम महफ़ूज रहे , क्योकि हज़रत अली (अ) अगर उशके अलावा करते जो आपने किया तो फिर इस्लाम और मुसलमानों के लिये एक दर्दनाक हादेसा पेश आता जिसकी तलाफ़ी मुमकिन नही थी , लिहाज़ा यह रोज़ क़यामत तक उम्मते इस्लामिया के लिये एक अज़ीम सबक़ है कि कभी कभी अहम मसलहत के लिये मुहिम मसलहत को छोड़ा जा सकता है।

9. इकमाले दीन , इतमामे नेमत और हक़ व हक़ीक़त के बयान औप लोगों पर इतमामे हुज्जत करने से ख़ुदा वंदे आलम की रिज़ायत हासिल होती है जैसा कि आय ए शरीफ़ ए इकमाल में इशारा हो चुका है।

10. तबलीग़ और हक़ के बयान के लिये आम ऐलान किया जाये और छुप कर काम न किया जाये जैसा कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने हुज्जतुल विदा में विलायत का ऐलान किया और लोगों के मुतफ़र्रिक़ होने से पहले मला ए आम में विलायत को पहुचा दिया।

11. ख़िलाफ़त , जानशीनी और उम्मते इस्लामिया की सही रहबरी का मसअला तमाम मासयल में सरे फैररिस्त है और कभी भी इसको तर्क नही करना चाहिये जैसा कि रसूले अकरम (स) हालाकि मदीने में ख़तरनाक बीमारी फैल गई थी और बहुत से लोगों को ज़मीन गीर कर दिया था लेकिन आपने विलायत के पहुचाने की ख़ातिर इस मुश्किल पर तवज्जो नही की और आपने सफ़र का आग़ाज़ किया और इस सफ़र में अपने बाद के लिये जानशीनी और विलायत के मसअले को लोगों के सामने बयान किया।

12. इस्लामी मुआशरे में सही रहबरी का मसअला रुहे इस्लामी और शरीयत की जान की तरह है कि अगर इस मसअले को बयान न किया जाये तो तो फिर इस्लामी मुआशरे के सुतून दरहम बरहम हो जायेगें , लिहाज़ा ख़ुदा वंदे आलम ने अपने रसूल (स) से ख़िताब करते हुए फ़रमाया:

وَإِن لَّمْ تَفْعَلْ فَمَا بَلَّغْتَ رِسَالَتَهُ

और अगर आप ने यह न किया तो गोया उसके पैग़ाम को नही पहुचाया।

(सूर ए मायदा आयत 67)