सृष्टिकर्ता अनिवार्य है।
प्राचीन काल से ही मनुष्य के मन में यह प्रश्न उठता रहा है कि सृष्टि का आरंभ कब हुआ
,
कैसे हुआ
,क्या यह संभव है कि मनुष्य कभी यह समझ सके कि चाँद
,सितारे
,आकाशगंगाएं
,पुच्छलतारे
,पृथ्वी
,पर्वत
,उसकी ऊँची ऊँची चोटियाँ
,जंगल
,कीड़े-मकोड़े
,पशु
,पक्षी
,मनुष्य
,जीव-जन्तु यह सब कहाँ से आए और कैसे बने
?
हमने और आपने हो सकता है न सोचा हो किन्तु हज़ारों वर्षों से इस पृथ्वी पर रहने वाले मनुष्यों ने सोचा और यहीं से धर्म का जन्म हुआ।
हम ब्रहमाण्ड की रचना की जटिल बहस का उल्लेख नहीं करेंगे
क्योंकि बिग-बैंग
,जो इस सृष्टि की रचना का कारण बताया जाता है
,उस पर भी वैज्ञानिकों ने बहुत से प्रश्न उठाए हैं।
यहाँ बस केवल एक प्रश्न है जो हर काल में प्रायः हर मनुष्य के मन में उठता रहा है कि क्या कोई वस्तु बिना किसी बनाने वाले के बन सकती है
?
एक अरब ग्रामीण से पूछा गया कि तुमने अपने ईश्वर को कैसे पहचाना
?तो उसने उत्तर दिया कि ऊँट की मेंगनियाँ
,ऊँट का प्रमाण हैं
,पद-चिन्ह किसी पथिक का प्रमाण हैं
,
तो क्या इतना बड़ा ब्रह्माण्ड
,यह आकाश
,और कई परतों में पृथ्वी
,किसी रचयिता का प्रमाण नहीं हो सकती!
यह अत्यधिक सादे शब्दों में ईश्वर के अस्तित्व के बारे में दिया जाने वाला वह प्रमाण है जिस पर बड़े-बड़े दार्शनिकों ने बहस की है और अपने विचार व्यक्त किए हैं
,
किन्तु अधिकांश लोगों ने ब्रह्माण्ड में मौजूद व्यवस्था को
,ईश्वर के अस्तित्व का सबसे बड़ा प्रमाण माना है।
अल्लामा हिल्ली एक बहुत प्रसिद्ध शीया बुद्धिजीवी थे। उनके काल में एक नास्तिक बहुत प्रसिद्ध हुआ। वह बड़े बड़े आस्तिकों को बहस में हरा देता था
,उसने अल्लामा हिल्ली को भी चुनौती दी।
बहस के लिए एक दिन निर्धारित हुआ और नगरवासी निर्धारित समय और निर्धारित स्थान पर इकट्ठा हो गए।
वह नास्तिक भी समय पर पहुंच गया
,किन्तु अल्लामा हिल्ली का कहीं पता नहीं था। काफ़ी समय बीत गया लोग बड़ी व्याकुलता से अल्लामा हिल्ली की प्रतीक्षा कर रहे थे
कि अचानक अल्लामा हिल्ली आते दिखाई दिए। उस नास्तिक ने अल्लामा हिल्ली से विलंब का कारण पूछा तो उन्होंने विलंब के लिए क्षमा मांगने के पश्चात
कहा कि वास्तव में मैं सही समय पर आ जाता
,किन्तु हुआ यह कि मार्ग में जो नदी है
उसका पुल टूटा हुआ था और मैं तैर कर नदी पार नहीं कर सकता था
,इसलिए मैं परेशान होकर बैठा हुआ था
कि अचानक मैंने देखा कि नदी के किनारे लगा पेड़ कट कर गिर गया और फिर उसमें से तख़्ते कटने लगे और फिर अचानक कहीं से कीलें आईं और उन्होंने तख़्तों को आपस में जोड़ दिया
और फिर मैंने देखा तो एक नाव बनकर तैयार थी। मैं जल्दी से उसमें बैठ गया और नदी पार करके यहाँ आ गया।
अल्लामा हिल्ली की यह बात सुनकर नास्तिक हंसने लगा और उसने वहाँ उपस्थित लोगों से कहाः "मैं किसी पागल से वाद-विवाद नहीं कर सकता
,भला यह कैसे हो सकता है
?
कहीं नाव
,ऐसे बनती है
?"यह सुनकर अल्लामा हिल्ली ने कहाः "हे लोगो! तुम फ़ैसला करो। मैं पागल हूँ या यह
,जो यह स्वीकार करने पर तैयार नहीं है
कि एक नाव बिना किसी बनाने वाले के बन सकती है
,
किन्तु इसका कहना है कि यह पूरा संसार अपने ढेरों आश्चर्यों और इतनी सूक्ष्म व्यवस्था के साथ स्वयं ही अस्तित्व में आ गया है"। नास्तिक ने अपनी हार मान ली और उठकर चला गया।
मानव इतिहास के आरंभ से ही ईश्वर को मानने वाले सदैव अधिक रहे हैं अर्थात अधिकांश लोग यह मानते हैं कि इस संसार का कोई रचयिता है
,अब वह कौन है
?कैसा है
?
और उसने क्या कहा है
?इस बारे में लोगों में मतभेद है किन्तु यही सच है कि यदि सही अर्थ में कोई धर्म है तो फिर उसका उद्देश्य भी मनुष्य को ईश्वर तक पहुँचाना होता है।
वैसे यह बिन्दु भी स्पष्ट रहे कि ईश्वर और धर्म को मानने में ही भलाई हैं
,
क्योंकि आप दो ऐसे व्यक्तियों के बारे में सोचें कि जिनमें से एक धर्म और ईश्वर को मानता है और दूसरा नहीं मानता।
उदाहरण स्वरूप दो व्यक्ति किसी ऐसे नगर की ओर जा रहे हैं जहाँ के बारे में दोनों को कुछ नहीं मालूम है।
मार्ग में उन्हें एक अन्य व्यक्ति मिलता है जो उनसे कहता है कि जिस नगर में तुम दोनों जा रहे हो वहाँ खाने पीने को कुछ नहीं मिलेगा
,
इसलिए उचित होगा कि वहाँ के लिए थोड़ा भोजन और पानी रख लो तो ऐसी स्थिति में बुद्धि क्या कहती है
?
बुद्धि यही कहती है कि वहाँ के लिए कुछ खाना पानी रख लिया जाए
,क्योंकि यदि वह सही कह रहा होगा तो मरने का ख़तरा टल जाएगा और यदि झूठ बोल रहा होगा तो कोई हानि नहीं होगी।
अब इस कल्पना के दृष्टिगत एक व्यक्ति ने खाना पानी रखा लिया किन्तु दूसरे ने कहा कि इस व्यक्ति ने मज़ाक़ किया है
,
या यह कि झूठ बोल रहा था
,या यह कि देखने में भरोसे का आदमी नहीं लग रहा था
,यह सोच कर उसने कुछ साथ नहीं लिया। नगर आया तो उसने देखा कि खाना पानी सब कुछ था
,
जो व्यक्ति खाना पानी साथ लाया था उसने उसे फेंक दिया
,बस सब कुछ ठीक हो गया
,किन्तु दूसरी स्थिति में सोचें कि ये दोनो यात्री उस नगर में जब पहुंचे तो
देखा कि वहाँ कुछ भी नहीं था तो अब जिसने अपने साथ खाना पानी रख लिया था
,उसकी तो जान बच गई किन्तु जिसने उसकी बात पर विश्वास नहीं किया था वह भूख और प्यास से मर गया।
इसिलए बुद्धि हमें यह सिखाती है कि यदि ख़तरा या लाभ बहुत बड़ा हो तो उसकी सूचना देने वाला चाहे जैसा हो
,बुद्धि कहती है कि उसके लिए कुछ प्रबंध अवश्य करना चाहिए।
यदि दस ग्लास पानी हमारे सामने रखा है और कोई कहता है कि किसी एक में विष है तो बुद्धि कहती है कि किसी भी ग्लास का पानी न पिया जाए।
इस संसार में बहुत से लोग आए जो विदित रूप से अच्छे मनुष्य थे
,लोगों की सहायता करते थे
,अच्छे कार्य करते थे
,लोकप्रिय थे
,किन्तु वे कहा करते थे कि हम ईश्वरीय दूत हैं
,
इस संसार का एक रचयिता है
,मरने के बाद एक अन्य लोक है जहाँ कर्मों का हिसाब किताब होगा और अच्छे कार्य करने वालों को स्वर्ग और बुरे कार्य करने वालों को नरक में भेजा जाएगा।
तो फिर इस संदर्भ में हमारी बुद्धि क्या कहती है
?यदि हम केवल बुद्धि की बात मानें तो होना यह चाहिए कि हम यह सोचें कि
यदि इन लोगों ने सही कहा होगा तो हम स्वर्ग में जाएंगे और नरक में जाने से बच जाएंगे किन्तु यदि उन लोगों ने ग़लत कहा होगा तो मरने के बाद मिट्टी में मिल जाएंगे और परलोक नाम का कोई लोक नहीं होगा और हमें कोई हानि भी नहीं होगी।
हमने अपने जीवन में जो अच्छे कर्म किए उसके कारण लोग हमें याद रखेंगे।
इन सब बातों से यह निष्कर्ष निकलता है कि इस सृष्टि का कोई रचयिता है
,क्योंकि कोई भी वस्तु बिना बनाने वाले के नहीं बनती। बनाने वाले को अधिकांश लोग मानते हैं
,
उसे पहचानने के लिए विभिन्न लोगों को भिन्न-भिन्न मार्ग अपनाना पड़ता है। धर्मों में विविधता का कारण यही है।
बुद्धि कहती है कि ईश्वर और परलोक की बात करने वालों पर विश्वास किया जाए
,क्योंकि अविश्वास की स्थिति में यदि उनकी बातें सही हुईं तो बहुत बड़ी हानि होगी।
धर्म क्या है
?
धर्म क्या है
?धर्म वास्तव में कुछ लोगों के विश्वासों और ईश्वर की ओर से मानव समाज के लिए संकलित शिक्षाओं को कहा जाता है और इसे एक दृष्टि से कई प्रकारों में बांटा जा सकता है।
उदाहरण स्वरूप प्राचीन व विकसित धर्म। यदि इतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो धर्म व मत लाखों करोड़ों प्रकार के हैं
किंतु हम धर्म के प्रकारों पर चर्चा नहीं करना चाहते बल्कि हम स्वयं धर्म पर संक्षिप्त सी चर्चा करेंगे।
धर्म या दीन का अर्थ आज्ञापालन
,पारितोषिक आदि बताया गया है किंतु दीन अथवा धर्म की परिभाषा हैः
संसार के रचयिता और उसके आदेशों पर विश्वास व आस्था रखना। अर्थात धर्म एक प्रक्रिया का नाम है
जिसके अंतर्गत धर्म का मानने वाला इस सृष्टि के रचयिता के अस्तित्व को मानते हुए उसके आदेशों का पालन करता है।
इस आधार पर जो लोग किसी रचयिता के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते और इस सृष्टि के अस्तित्व को संयोगवश घटने वाली किसी घटना का परिणाम मानते हैं।
उनके विचार में कोई प्रलय और परलोक नहीं है बल्कि संसार एक दिन समाप्त हो जाएगा और उसी के साथ सारा अस्तित्व विलुप्त हो जाएगा। इस प्रकार के लोगों को नास्तिक कहा जाता है।
जो लोग इस सृष्टि के रचयिता को मानते हैं उन्हें धर्मिक और आस्तिक कहा जाता है अब चाहे उनकी अन्य आस्थाओं में कुछ अनुचित बातें भी क्यों न शामिल हों।
इस प्रकार संसार में पाए जाने वाले धर्मों को दो क़िस्मों में बांटा जा सकता है। सत्य व असत्य धर्म। सच्चा धर्म वह है
जिसके सिद्धांत तार्किक और वास्तविकताओं से मेल खाते हों और जिन कार्यों का आदेश दिया गया है उसके लिए उचित व तार्किक प्रमाण मौजूद हों।
अर्थात धर्म की जो परिभाषा यहां बताई गई उसके आधर पर हर वो प्रक्रिया जिसमें मनुष्य ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए कुछ संस्कार करता है उसे धर्म कहा जाता है
किंतु यह निश्चित नहीं है कि वो संस्कार सही हो क्योंकि धर्म के पालन का उद्देश्य इस सृष्टि के रचयिता को प्रसन्न करना होता है
और यह नहीं हो सकता कि वो ईश्वर परस्पर विरोधी कामों से प्रसन्न हो।
उदाहरणस्वरूप यह संभव नहीं है कि ईश्वर दूसरों को लूटने वाले से भी प्रसन्न हो और दूसरों की सहायता करने वाले से भी। झूठ से भी प्रसन्न हो और सत्य से भी।
वो यह तो झूठ से प्रसन्न होगा या फिर सत्य से। इस लिए हम यह नहीं कह सकते कि इस संसार में जितने भी धर्म हैं सब ईश्वर तक पहुंचाते हैं
और मनुष्य चाहे जिस धर्म का माने अंततः ईश्वर तक पहुंच ही जाएगा क्योंकि किसी भी गंतव्य तक पहुंचने के लिए कुछ निर्धारित मार्ग होते हैं
इस लिए यदि कोई मनुष्य ईश्वर तक पहुंचना चाहता है तो उसके लिए आवश्यक है कि वो सही मार्ग की खोज करे।
इस बात का पता लगाने का प्रयास करे कि कौन से संस्कार और कौन से कर्म ईश्वर को प्रसन्न करते हैं और कौन से कामों से वो अप्रसन्न होता है।
अब प्रश्न यह है कि हमें इस बात का पता कैसे चले कि ईश्वर कौन से कामों से प्रसन्न होता है और कौन से कामों से अप्रसन्न होता है
?धर्म हमें यही बताता है।
मनुष्यों में विभिन्न प्रकार की विचारधाराएं पायी जाती हैं किंतु भौतिक व आध्यात्मिक दृष्टि से उन्हें दो भागों में बांटा जा सकता है।
अर्थात कुछ विचारधाराएं ऐसी होती हैं जिनमें इस भौतिक संसार से परे भी किसी लोक व संसार के अस्तित्व को माना गया है जबकि कुछ विचारधाराएं ऐसी होती हैं
जिनमें केवल इसी संसार को सब कुछ समझा गया है। इस प्रकार से विश्व की समस्त विचारधाराएं दो प्रकार की होती हैं। ईश्वरीय विचारधारा और सांसारिक या भौतिक विचारधारा।
भौतिक विचारधारा रखने वालों को भौतिकतावादी
,नास्तिक आदि जैसे नामों से याद किया जाता है जबकि आधुनिक युग में उन्हें मैटीरियालिस्ट भी कहा जाने लगा है।
भौतिकवाद में भी विभिन्न प्रकार के मत पाए जाते हैं किंतु हमारे युग में सबसे अधिक प्रसिद्ध मत है डायलेक्टिक मटीरियलिज़्म जो मार्क्सिस्ट विचारधारा का आधार है।
विभिन्न धर्मों के अस्तित्व में आने के बारे में बुद्धिजीवियों और धर्मों के इतिहास के जानकारों तथा समाज शास्त्रियों के मध्य मतभेद पाए जाते हैं
किंतु इस्लामी दृष्टिकोण से जो बातें समझ में आती हैं वह यह हैं कि धर्म के अस्तित्व में आने का इतिहास
,मनुष्य के अस्तित्व के साथ ही आरंभ हुआ है।
पृथ्वी पर आने वाले सर्वप्रथम मनुष्य हज़रत आदम ईश्वरीय दूत और एकेश्वरवाद के प्रचारक थे तथा अनेकेश्वरवाद सच्चे धर्म का बिगड़ा हुआ रूप है।
अर्थात कुछ लोगों ने स्वार्थ और राजा-महाराजाओं को प्रसन्न करने के लिए ईश्वरीय धर्मों में कुछ बातें मिला दीं या कुछ बातों को कम कर दिया।
एकेश्वरवादी धर्म जो वास्तव में सच्चे धर्म हैं तीन आस्थाओं में समान दिखाई देते हैं।
१ एक ईश्वर में विश्वास
२ परलोक में मनुष्य के अनंत जीवन पर विश्वास
३ इस संसार में किए गए कर्मों के प्रतिफल तथा मानवजाति के मार्गदर्शन के लिए ईश्वरीय दूतों के आगमन पर विश्वास
यह तीन सिद्धांत वास्तव में हर मनुष्य के इस प्रकार के प्रश्नों के आरंभिक उत्तर हैं
,सृष्टि का आरंभ कब हुआ
?जीवन का अंत क्या होगा
?
और किस मार्ग पर चलकर सही रूप से जीवन व्यतीत करना सीखा जा सकता है। इस प्रकार ईश्वरीय संदेश द्वारा मनुष्य को जीवनयापन का जो कार्यक्रम प्राप्त होता है।
इसी को धर्म कहते हैं जिसका आधार ईश्वरीय विचारधारा होती है।
मुख्य सिद्धांत व आस्था के लिए बहुत सी चीज़ों की आवश्यकता होती है
जो एक साथ मिलकर किसी मत अथवा विचारधारा को अस्तित्व प्रदान करती हैं और इन्हीं बातों में मतभेद के कारण ही विभिन्न प्रकार के धर्मों और मतों का जन्म होता है।
उदाहरणस्वरूप कुछ ईश्वरीय दूतों के बारे में मतभेद और ईश्वरीय किताब के निर्धारण में अलग-अलग मत ही यहूदी
,ईसाई और इस्लाम धर्म के मध्य मतभेद का मूल कारण है
।
जिसके आधार पर शिक्षाओं की दृष्टि से इन तीनों धर्मों में बहुत अंतर हो गया है। उदाहरण स्वरूप ईसाई त्रीश्वर को मानते हैं जो उनकी एकेश्वरवादी विचारधारा से मेल नहीं खाता।
यद्यपि ईसाई धर्म में विभिन्न प्रकार से इस विश्वास का औचित्य दर्शाने का प्रयास किया गया है।
इसी प्रकार इस्लाम में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के उत्तराधिकारी के निर्धारण की शैली के बारे में मतभेद।
अर्थात यह कि पैग़म्बरे इस्लाम के उत्तराधिकारी का निर्धारण ईश्वर करता है या जनता। शीया व सुन्नी मुसलमानों के मध्य मतभेद का मुख्य व मूल कारण है।
तो फिर निष्कर्ष यह निकलता है कि समस्त ईश्वरीय धर्मों में एकेश्वरवाद
,ईश्वरीय दूत और प्रलय मूल सिद्धांत व मान्यता के रूप में स्वीकार किया जाता है
किंतु इन सिद्धांतों की व्याख्या के परिणाम में जो अन्य विश्वास व आस्थाएं सामने आई हैं उन्हें मुख्य शिक्षा व सिद्धांत का भाग मात्र कहा जा सकता है।
ईश्वर को मानने वाले विभिन्न धर्मों में विविधता और मतभेद का कारण यही है।
इस चर्चा के मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं
,
ईश्वर तक पहुंचने के लिए सही मार्ग का चयन आवश्यक है क्योंकि ईश्वर दो परस्पर विरोधी कामों से प्रसन्न नहीं हो सकता।
इस लिए इस बात का पता लगाना आवश्यक है कि ईश्वर कौन से कामों से प्रश्न होता है और कौन से कामों से अप्रसन्न और यह बात हमें वही बता सकता है जो उसकी ओर से आया हो।
ईश्वर तक पहुंचने का सही मार्ग वही होता है जो तर्क और बुद्धि पर खरा उतरे।
ईश्वर तक ले जाने वाले धर्मों में प्रायः मूल सिद्धांत एक समान होते हैं किंतु कुछ नियमों की व्याख्या के बारे में विभिन्न मत ईश्वरीय धर्मों की विभिन्नता कारण हैं।
जिज्ञासा
मनुष्य में स्वाभाविक रूप से वास्तविकता की खोज और सत्य तक पहुंचने की इच्छा होती है जो बालावस्था से ही उसमें प्रकट होने लगती है।
यही भावना जिसे जिज्ञासा भी कहा जाता है मनुष्य को उन विषयों के बारे में भी विचार व अध्ययन करने के लिए प्रोत्साहित कर सकती है
जो धर्म के रूप और नाम से उसके सामने पेश किए जाते हैं।
उदाहरण स्वरूप इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर खोजने के लिए मनुष्य विचार व अध्ययन करने पर प्रोत्साहित हो सकता है जैसेः क्या किसी ऐसी शक्ति का अस्तित्व है
जिसका आभास नहीं किया जा सकता और जो भौतिक विशेषताओं से परे है
?
क्या लोक-परलोक के मध्य कोई संबंध है
?
यदि कोई संबंध है तो क्या कोई शक्ति ऐसी भी है जिसे इंद्रियों से न समझा जा सकता हो किंतु उसीने इस ब्रह्मांड की रचना की है
?
क्या मनुष्य का अस्तित्व इसी भौतिक शरीर तक और उसका जीवन इसी सांसारिक जीवन तक सीमित है या फिर कोई अन्य जीवन भी है
?
यदि कोई अन्य जीवन है तो क्या उस जीवन और सांसारिक जीवन के मध्य कोई संबंध है
?
यदि कोई संबंध है तो फिर किस प्रकार के सांसारिक काम परलोक और दूसरे जीवन में लाभदायक सिद्ध हो सकते हैं
?
जीवनयापन के सही नियम और शैली की पहचान के लिए कौन सा मार्ग अपनाया जाए कि जिससे मनुष्य लोक-परलोक दोनों में सफलता तक पहुंचे
?
वह कार्यक्रम क्या है जो किसी मनुष्य को दोनों लोकों में सफल बना सकता है
?
इस प्रकार मनुष्य के भीतर वास्तविकता को जानने की जो स्वाभाविक जिज्ञासा होती है।
वह उसे हर प्रकार की वास्तविकता जान लेने और उसके बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करती है। धर्म के बारे में जानकारी भी इससे अपवाद नहीं है।
मनुष्य में स्वाभाविक रूप से सत्य व वास्तविकता की खोज की जो भावना होती है
,उसके अतिरिक्त भी बहुत से कारक होते हैं
जो मनुष्य को अध्ययन व वास्तविकता की खोज के लिए प्रेरित करते हैं।
वास्तविकता की खोज के अपने सिद्धांत होते हैं। सबसे पहले तो जिस विषय के बारे में जानकारी प्राप्त करनी होती है उससे संबंधित कई ऐसे विषय होते हैं जिनकी जानकारी आवश्यक होती है।
क्योंकि बहुत सी चीज़ें ऐसी होती हैं जो किसी विशेष जानकारी पर ही निर्भर होती हैं।
उदाहरणस्वरूप विभिन्न प्रकार की भौतिक व सांसारिक सुविधाओं के लिए वैज्ञानिक शोध आवश्यक होते हैं।
आज विभिन्न प्रकार की सुविधाएं जो इस युग में हमें उपलब्ध हैं वो इसी प्रकार के वैज्ञानिक प्रयास का परिणाम हैं।
दूसरे शब्दों में मनुष्य जिस वस्तु को आवश्यक समझता है उस तक पहुंचने के लिए प्रयास करता है और इस मार्ग में आवश्यक साधन भी जुटाता है
तो फिर यदि यह विश्वास कर लिया जाए कि धर्म भी मनुष्य के हितों की रक्षा कर सकता है और उसे बहुत से ख़तरों से बचा सकता है तो मनुष्य में अपने हितों की रक्षा और ख़तरों से बचने की जो भावना होती है
वह उसे धर्म के बारे में अध्ययन व शोध पर प्रेरित करेगी। इस प्रकार यह भावना धर्म के बारे में अध्ययन का एक कारक मानी जाती है।
अर्थात यदि कोई सही अर्थ में यह समझने लगे कि धर्म भी एक ऐसी चीज़ है जो उसे लाभ पहुंचा सकता है
और यदि उसे छोड़ दिया जाए तो उसे हानि हो सकती है तो फिर स्वाभाविक रूप से उसे धर्म के बारे में जानकारी जुटानी चाहिए।
क्योंकि हितों की रक्षा और हानियों से बचना मनुष्य के स्वभाव व प्रवृत्ति का भाग है। किंतु जानकारियों के इतने बड़े समूह में लोगों के पास मौजूद कम समय के कारण ऐसा हो सकता है कि बहुत से लोग अध्ययन के लिए ऐसे विषयों का चयन करें जिनका परिणाम सरलता और शीघ्रता से सामने आ जाए और धर्म के बारे में यह सोचकर की इस संदर्भ में अध्ययन कठिन भोगा और उसके परिणाम महत्वहीन होंगे लोग धर्म के बारे में अध्ययन न करें।
इस दृष्टि से यह स्पष्ट करना आवश्यक होगा कि धर्म का बहुत अधिक महत्व है और यह कि धर्म के बारे में अध्ययन से अधक महत्व किसी और अध्ययन का नहीं है।
यहां पर हम यह भी स्पष्ट करना चाहेंगे कि मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि ईश्वर में विश्वास एक स्वाभाविक इच्छा है जो किसी अन्य इच्छा से संबंधित नहीं है।
इस रुझान को धर्म-बोध कहा जाता है और इसे जिज्ञासा
,भलाई और सुंदरता जैसे बोधों के साथ मानव आत्मा का चौथा पहलू समझा जाता है।
बुद्धिजीवी ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर कहते हैं कि ईश्वर की उपासना सदैव ही किसी न किसी रूप में मानव समाज में मौजूद रही है और यही तथ्य धर्म के स्वाभाविक व सदैव से होने का ठोस प्रमाण है। (जारी है)