नास्तिकता व भौतिकता-2
भ्रष्टाचार और ईश्वर के इन्कार के कारकों की समीक्षा से यह स्पष्ट हो जाता है कि इन में प्रत्येक कारक को समाप्त और निवारण के लिए विशेष प्रकार की शैली व मार्ग की आवश्यकता है उदाहरण स्वरूप मानसिक व नैतिक कारकों को सही प्रशिक्षण और उससे होने वाली हानियों की ओर ध्यान देकर समाप्त किया जा सकता है। इसी प्रकार सामाजिक कारकों के प्रभावों से बचने के लिए इस प्रकार के कारकों पर अंकुश लगाने के साथ ही साथ धर्म के गलत होने और उस धर्म के मानने वालों के व्यवहार के गलत हाने के मध्य अंतर को स्पष्ट करना चाहिए किंतु प्रत्येक दशा में मानसिक व सामाजिक कारकों के प्रभावों पर ध्यान का
,कम से कम यह लाभ होता है कि मनुष्य अंजाने में उस के जाल में फंसने से सुरक्षित रहता है।
इसी प्रकार वैचारिक कारकों के कुप्रभावों से बचने के लिए उचित मार्ग अपनाना चाहिए और अंधविश्वास और विश्वास में अंतर को स्पष्ट करते हुए धर्म की आवश्यकता व महत्व को सिद्ध करने के लिए ठोस व तार्किक प्रमाणों को प्रयोग करना चाहिए और इस के साथ यह भी स्पष्ट करना चाहिए के दलील व प्रमाण की कमज़ोरी निश्चित रूप से जिस विषय के लिए दलील व प्रमाण लाया गया हो उसके गलत होने का प्रमाण नहीं है। अर्थात यदि किसी तथ्य को सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया तर्क या प्रमाण कमज़ोर हो तो उससे यह नहीं सिद्ध होता है कि वह विषय भी निश्चित रूप से ग़लत है क्योंकि यह भी हो सकता है कि वह विषय सही हो उसके लिए ठोस प्रमाण भी मौजूद हों किंतु जो व्यक्ति आप के सामने प्रमाण पेश कर रहा है उसमें इतनी क्षमता न हो।
स्पष्ट है कि हम यहां पर पथभ्रष्टता और उसकी रोकथाम के मार्गों पर व्यापक रूप से यहां चर्चा नहीं कर सकते
,इसी लिए अब हम अपनी चर्चा को आगे बढ़ाते हैं।
ईश्वर और धर्म के बारे में बहुत से लोग विभिन्न प्रकार के संदेह प्रकट करते हैं किंतु उनमें से सब से मुख्य आपत्ति यह है कि किस प्रकार किसी एसे अस्तित्व की उपस्थिति पर विश्वास किया जा सकता है जिसे इन्द्रियों द्वारा महसूस नहीं किया जा सके
?
प्रायः इस प्रकार की शंका कम गहराई से सोचने वाले लोग प्रकट करते हैं किंतु यह भी देखा गया है कि कुछ वैज्ञानिक और पढ़े लिखे लोग भी यह प्रश्न कर बैठते हैं अलबत्ता यह लोग उन लोगों में से होते हैं जो इन्द्रियों से महसूस किये जाने के सिद्धान्त में विश्वास रखते हैं और हर उस अस्तित्व का इन्कार करते हैं जिसे वह इन्द्रियों द्वारा महसूस न कर सकें।
इस प्रकार की शंका का निवारण इस प्रकार से किया जा सकता है कि इन्द्रियों द्वारा केवल आयाम व व्यास रखने वाली वस्तुओं और अस्तित्वों को ही महसूस किया जा सकता है। हमारी जो इन्द्रियां हैं वह विशेष परिस्थितियों में उन्हीं वस्तुओं को महसूस करती हैं जो उनकी क्षमता के अनुरुप हों। जिस प्रकार से यह नहीं सोचा जा सकता कि आंख
,आवाज़ों को सुने या कान रंगों को देखें उसी प्रकार यह भी नहीं सोचा जा सकता कि ब्रह्माण्ड की सारी रचनाओं को हमारी इन्द्रियां महसूस कर सकती हैं।
क्योंकि पहली बात तो यह है कि यही भौतिक वस्तुओं में भी बहुत सी एसी चीज़ें हैं जिन्हें हम इन्द्रियों द्वारा सीधे रूप से महसूस नहीं कर सकते जैसे हमारी इन्द्रियां पराकासनी किरणों को या चुंबकीय लहरों को महसूस नहीं कर सकतीं किंतु फिर भी हमें उनके अस्तित्व पर पूरा विश्वास है। या इसी प्रकार से भय व प्रेम की मनोदशा या हमारे इरादे और संकल्प यह सब कुछ मौजूद है किंतु हम इन्हें अपनी इंद्रियों से महसूस नहीं कर सकते क्योंकि मनोदशाओं और मानसिक अवस्था को इन्द्री द्वारा महसूस किया जाना संभव नहीं है। इसी प्रकार आत्मा को भी इन्द्रियों द्वारा महसूस नहीं किया जा सकता और यह यह महसूस करना या आभास करना स्वयं ही ऐसी दशा है जिसे इन्द्रियों द्वारा महसूस नहीं किया जा सकता।
इस प्रकार से यह प्रमाणित हो गया कि विदित रूप से हमारी इन्द्रियों द्वारा यदि किसी वस्तु को आभास करना संभव न हो तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं होगा कि वह वस्तु मौजूद ही नहीं है या यह कि उसका होना कठिन है।
कुछ समाजशास्त्री कहते हैं कि ईश्वर पर विश्वास और धर्म पर आस्था वास्तव में ख़तरों से भय विशेषकर भूकंप आदि जैसी प्राकृतिक आपदाओं से उत्पन्न होने वाले डर का परिणाम है और वास्तव में मनुष्य ने अपने मन की शांति के लिए ईश्वर नाम के एक काल्पनिक अस्तित्व को गढ़ लिया है और उस की उपासना भी करने लगा है और इसी लिए जैसे जैसे प्राकृतिक आपदाओं के कारणों और उनसे उत्पन्न ख़तरों से निपटने के मार्ग स्पष्ट होते जाएंगे वैसे वैसे ईश्वर पर आस्था में भी कमी होती जाएगी।
मार्क्सवादियों ने इस शंका को बहुत अधिक बढ़ा चढ़ा कर पेश किया और इसे अपनी पुस्तकों में समाज शास्त्र की एक उपलब्धि के रूप में प्रस्तुत किया और इसी वचार धारा से उन्होंने अज्ञानी लोगों को जमकर बहकाया भी।
इस शंका के उत्तर में हम यह कहेंगे कि पहली बात तो यह है कि इस शंका का आधार कुछ समाज शास्त्रियों द्वारा प्रस्तुत धारणा है और इसके सही होने की कोई तार्किक दलील मौजूद नहीं है। दूसरी बात यह है कि इसी काल में बहुत से बुद्धिजीवी जिन्हें दूसरों से कई गुना अधिक विभिन्न प्राकृतिक ख़तरों के कारणों का ज्ञान था
,ईश्वर के अस्तित्व पर पूरा विश्वास रखते थे। उदाहरण स्वरूप आइन्स्टाइन
,क्रेसी
,एलेक्सिस कार्ल आदि जैसे महान वैज्ञानिक व विचारक जिन्हों ने ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए कई किताबें और आलेख लिखे हैं इस लिए यह कहना ग़लत है कि ईश्वर पर विश्वास
,भय का परिणाम होता है। एक अन्य बात यह भी है कि यदि कुछ प्राकृतिक घटनाओं के कारणों से अज्ञानता
,मनुष्य को ईश्वर की ओर आकृष्ट करे तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं निकालना चाहिए के ईश्वर
,मनुष्य के भय की पैदावार है। जैसा कि बहुत से वैज्ञानिकों व शोधों व अविष्कारों के पीछे
,सुख ख्याति जैसी भावनाएं होती हैं किंतु इस से अविष्कारों पर कोई प्रभाव नहीं होता।
इस चर्चा के मुख्य बिन्दुः
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भ्रष्टाचार और ईश्वर के इन्कार के कारकों की समीक्षा से यह स्पष्ट हो जाता है कि इन में प्रत्येक कारक को समाप्त और निवारण के लिए विशेष प्रकार की शैली व मार्ग की आवश्यकता है।
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ईश्वर को इन्द्रियों द्वारा यदि महसूस न किया जाए तो इसका अर्थ यह नहीं है कि उसका अस्तित्व ही नहीं है क्योंकि भौतिक वस्तुओं में भी बहुत सी ऐसी चीज़ें हैं जिन्हें हम इन्द्रियों द्वारा सीधे रूप से महसूस नहीं कर सकते।
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ईश्वर भय व प्राकृतिक आपदाओं से अज्ञानता की उत्पत्ति नहीं है क्योंकि विश्व के बड़े बड़े वैज्ञानिकों ने भी जिन्हें आपदाओं से कारणों का पूर्ण ज्ञान था और उनसे अंजाना भय भी नहीं रखते थे
,ईश्वर के अस्तित्व पर आलेख लिखे और उसे माना है।
कारक और ईश्वर
पश्चिमी बुद्धिजीवी ईश्वर के अस्तित्व की इस दलील पर कि हर वस्तु के लिए एक कारक और बनाने वाला होना चाहिए यह आपत्ति भी करते हैं कि यदि यह सिदान्त सर्वव्यापी है अर्थात हर अस्तित्व के लिए एक कारक का होना हर दशा में आवश्यक है तो फिर यह सिद्धान्त ईश्वर पर भी यथार्थ होगा अर्थात चूंकि वह भी एक अस्तित्व है इस लिए उसके लिए भी एक कारक ही आवश्यकता होनी चाहिए जबकि ईश्वर को मानने वालों का कहना है कि ईश्वर मूल कारक है और उसके लिए किसी भी कारक की आवश्यकता नहीं इस प्रकार से यदि ईश्वर को मानने वालों की यह बात स्वीकार कर ली जाए तो इस का अर्थ यह होगा कि ईश्वर ऐसा अस्तित्व है जिसे कारक की आवश्यकता नहीं है अर्थात वह कारक आवश्यक होने के सिद्धान्त से अलग है तो इस स्थिति में ईश्वरवादियों द्वारा इस सिद्धान्त को प्रयोग करते हुए मूल कारक अर्थात ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करना भी ग़लत हो जाता है । अर्थात यह नहीं कहा जा सकता था कि मूल कारक ईश्वर है बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि मूल पदार्थ और ऊर्जा भी बिना किसी कारक के अस्तित्व में आई और फिर उसमें जो परिवर्तन आए उससे सृष्टि की रचना हो गयी ।
इस शंका के उत्तर में यह कहा जाता है कि वास्तव में यदि कोई इस सिद्धान्त को कि हर अस्तित्व के लिए कारक की आवश्यकता होती है सही रूप से समझे तो इस प्रकार की शंका उत्पन्न नहीं होती वास्तव में यह शंका कारक सिद्धान्त की ग़लत व्याख्या के कारण उत्पन्न होती है अर्थात शंका करने वाले यह समझते हैं कि यह जो कहा जाता है कि हर अस्तित्व के लिए कारक की आश्यकता होती है उसमें ईश्वर का अस्तित्व भी शामिल है जबकि ईश्वर के अस्तित्व का प्रकार भिन्न होता है इस लिए यदि इस मूल सिद्धान्त को सही रूप से समझना है तो इस वाक्य को इस प्रकार से कहना होगा कि हर निर्भर अस्तित्व या संभव अस्तित्व को कारक की आवश्यकता होती है और इस इस सिद्धान्त से कोई भी इस प्रकार का अस्तित्व बाहर नहीं है किंतु यह कहना कि कोई पदार्थ या ऊर्जा बिना कारक के अस्तित्व में आ सकती है सही नहीं है क्योंकि पदार्थ और ऊर्जा का अस्तित्व संभव या निर्भर अस्तित्व है इस लिए वह इस सिद्धान्त से बाहर नहीं हो सकता किंतु ईश्वर का अस्तित्व चूंकि निर्भर व संभव अस्तित्व के दायरे में नहीं है इस लिए वह संभव व निर्भर अस्तित्व के लिए निर्धारित सिद्धान्तों से भी बाहर है।
एक शंका यह भी की जाती है कि संसार और मनुष्य के रचयता के अस्तित्व पर विश्वास
,कुछ वैज्ञानिक तथ्यों से मेल नहीं खाता । उदाहरण स्वरूप रसायन शास्त्र में यह सिद्ध हो चुका है कि पदार्थ और ऊर्जा की मात्रा सदैव स्थिर रहती है तो इस आधार पर कोई भी वस्तु
,न होने से
,अस्तित्व में नहीं आती और न ही कोई वस्तु कभी भी सदैव के लिए नष्ट होती है जबकि ईश्वर को मानने वालों का कहना है कि ईश्वर ने सृष्टि की रचना ऐसी स्थिति में की जब कि कुछ भी नहीं था और एक दिन सब कुछ तबाह हो जाएगा और कुछ भी नहीं रहेगा ।
इसी प्रकार जीव विज्ञान में यह सिद्ध हो चुका है कि समस्त जीवित प्राणी
,प्राणहीन वस्तुओं से अस्तित्व में आए हैं और धीरे धीरे परिपूर्ण होकर जीवित हो गये यहां तक कि मनुष्य के रूप में उनका विकास हुआ है किंतु ईश्वर को मानने वालों का विश्वास है कि ईश्वर ने सभी प्राणियों को अलग-अलग बनाया है।
इस प्रकार की शंकाओं के उत्तर में यह कहना चाहिए कि पहली बात तो यह है कि पदार्थ और ऊर्जा का नियम एक वैज्ञानिक नियम के रूप में केवल उन्ही वस्तुओं के बारे में मान्य है जिनका विश्लेषण किया जा सकता हो और उसके आधार पर इस दार्शनिक विषय का कि क्या पदार्थ और ऊर्जा सदैव से हैं और सदैव रहेंगे या नहीं
,कोई उत्तर नहीं खोजा जा सकता ।
दूसरी बात यह है कि ऊर्जा और पदार्थ की मात्रा का स्थिर रहना और सदैव रहना
,इस अर्थ में नहीं है कि उन्हें किसी रचयता की आवश्यकता ही नहीं है बल्कि ब्रहमांड की आयु जितनी अधिक होगी उतनी ही अधिक उसे किसी रचयता की आवश्यकता होगी क्योंकि रचना के लिए रचयता की आवश्यकता का मापदंड
,उस के अस्तित्व में आवश्कयता का होना है न कि उस रचना का घटना होना और सीमित होना।
दूसरे शब्दों में पदार्थ और ऊर्जा
,संसार के भौतिक कारक को बनाती है स्वंय कारक नहीं है और पदार्थ और ऊर्जा को स्वंय ही कर्ता व कारक की आवश्यकता होती है।
तीसरी बात यह है कि ऊर्जा व पदार्थ की मात्रा के स्थिर होने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि नयी वस्तुंए पैदा नहीं हो सकतीं और उन में वृद्धि या कमी नहीं हो सकती और इसी प्रकार आत्मा
,जीवन
,बोध और इरादा आदि पदार्थ और ऊर्जा नहीं हैं कि उन में कमी या वृद्धि को पदार्थ व ऊर्जा से संबधिंत नियम का उल्लंघन समझा जाए।
और चौथी बात यह कि वस्तुओं के बाद उनमें प्राण पड़ने का नियम यद्यपि अभी बहुत विश्वस्त नहीं हैं और बहुत से बड़े वैज्ञानिकों ने इस नियम का इन्कार किया है किंतु फिर भी यह ईश्वर पर विश्वास से विरोधाभास नहीं रखता और अधिक से अधिक यह नियम जीवित प्राणियों में एक प्रकार के योग्यतापूर्ण कारक के अस्तित्व को सिद्ध करता है किंतु इस से यह कदापि सिद्ध नहीं होता कि इस नियम का विश्व के रचयता से कोई संबंध है क्योंकि इस नियम में विश्वास रखने वाले बहुत से लोग और वैज्ञानिक इस सृष्टि और मनुष्य के लिए एक जन्मदाता के अस्तित्व में विश्वास रखने थे और रखते हैं।
संभव वस्तु और कारक
हर निर्भर अस्तित्व या संभव अस्तित्व को कारक की आवश्यकता होती है और इस इस सिद्धान्त से कोई भी अस्तित्व बाहर नहीं है किंतु चूंकि ईश्वर का अस्तित्व इस प्रकार का अर्थात संभव व निर्भर नहीं होता इस लिए उस पर यह नियम लागू नहीं होता।
भौतिक विचार धारा के कुछ मूल सिद्धान्त इस प्रकार हैं
पहला सिद्धान्त यह है कि सृष्टि/ पदार्थ और भौतिकता के समान है और उस वस्तु के अस्तित्व को स्वीकार किया जा सकता है जो पदार्थ और घनफल रखती है अर्थात लंबाई
,चौड़ाई और व्यास रखती हो। या फिर पदार्थ की विशेषताओं में से हो और पदार्थ की भांति मात्रा रखती हो और विभाजन योग्य भी हो। अर्थात भौतिक विचारधारा का यह कहना है कि यदि कोई वस्तु है तो उसका व्यास होना चाहिए उसका पदार्थ होना आवश्यक है उसका मात्रा व घनफल होना आवश्यक है और यदि कोई किसी ऐसे अस्तित्व के होने की बात करता है जिसमें यह सब विशेषताएं नहीं पायी जातीं हैं तो उसकी बात को स्वीकार नहीं किया जा सकता। इस आधार पर ईश्वर के अस्तित्व को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि ईश्वर को मानने वाले कहते हैं कि ईश्वर पदार्थ नहीं है
,उसकी मात्रा नहीं है और उसे नापा- तौला नहीं जा सकता अर्थात भौतिकता से परे किसी अस्तित्व का होना संभव नहीं है।
यह सिद्धान्त भौतिकतावादी विचार- धारा का मूल सिद्धान्त समझा जाता है किंतु वास्तव में एक निराधार दावे के अतिरिक्त कुछ नहीं है क्योंकि भौतिकता से परे वास्तविकताओं को नकारने का कोई ठोस प्रमाण मौजूद नहीं है अर्थात इसका कोई प्रमाण नहीं है कि जो वस्तु भौतिक होगी उसी का अस्तित्व होगा और जिस वस्तु में भौतिकता नहीं होगी उसका अस्तित्व भी संभव नहीं। विशेषकर मेटिरियालिज़्म के आधार पर जो प्रयोग और बोध पर आधारित होता है। क्योंकि कोई भी प्रयोग
,भौतिकता से परे की वास्तविकताओं के बारे में कुछ भी स्पष्ट करने की क्षमता नहीं रखता। अर्थात मेटिरियालिज़्म शत प्रतिशत प्रयोग व बोध पर आधारित होता है और प्रयोग व बोध केवल भौतिक वस्तुओं के लिए ही होता है इस लिए प्रयोग भौतिकता से परे वास्तविकताओं के सच या ग़लत होने को सिद्ध करने की क्षमता नहीं रखता। अधिक से अधिक इस संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि प्रयोग द्वारा
,भौतिकता से परे वास्तविकताओं को सिद्ध नहीं किया जा सकता किंतु इस से यह नहीं सिद्ध होता कि भौतिकता से परे किसी वस्तु का अस्तित्व ही नहीं है। इस प्रकार से कम से कम यह तो मानना पड़ेगा कि इस प्रकार के अस्तित्व की संभावना है अर्थात भौतिक विचार धारा रखने वालों को मानना पड़ेगा कि चूंकि प्रयोग द्वारा भौतिकता से परे अस्तित्वों को परखा नहीं जा सकता इस लिए संभव है कि इस प्रकार का अस्तित्व हो किंतु हम उसका प्रयोग नहीं कर सकते और यह हम पहले ही बता चुके हैं कि हमें बहुत सी ऐसी वस्तुओं के अस्तित्व पर पूर्ण विश्वास है जिन्हें देखा या महसूस नहीं किया जा सकता बल्कि जिन्हें प्रयोगों द्वारा भी सिद्ध नहीं किया जा सकता। इस प्रकार की बहुत से अस्तित्वों का उल्लेख दर्शन शास्त्र की पुस्तकों में विस्तार से मौजूद है। उदाहरण स्वरूप स्वंय आत्मा या फिर ज्ञान के अस्तित्व को हम मानते हैं किंतु इसे छूकर या सूंघ कर महसूस नहीं कर सकते अर्थात प्रयोगशाला में ज्ञान का पता नहीं लगाया जा सकता और न ही आत्मा को सिद्ध किया जा सकता है। आत्मा जो भौतिकता से परे है उस की उपस्थिति का सब बड़ा प्रमाण सच्चे सपनें हैं और बहुत से महापुरुषों और तपस्वियों तथा ईश्वरीय दूतों द्वारा पेश किये गये चमत्कार हैं जो साधारण मनुष्य के लिए संभव नहीं हैं यह ईश्वरीय दूतों के चमत्कार ऐतिहासिक रूप से सिद्ध हैं और इन्हें कहानियां नहीं समझा जा सकता है। इस प्रकार से अभौतिक अस्तित्व की उपस्थिति सिद्ध होती है और इस प्रकार से ईश्वर के बारे में भौतिक विचार धारा का तर्क निराधार हो जाता है।
भौतिक विचार धारा का दूसरा सिद्धान्त यह है कि पदार्थ सदैव से था और सदैव रहेगा और उसे पैदा नहीं किया जा सकता और उसे किसी कारक की आवश्यकता नहीं है और वास्तव में वही स्वयंभू अस्तित्व है।
इस सिद्धान्त में पदार्थ के सदैव से होने और अनन्तकाल तक रहने पर बल दिया गया है और उसके बाद यह निष्कर्ष निकाला गया है कि पदार्थ की रचना नहीं की जा सकती अर्थात किसी ने उसकी रचना नहीं की है वह स्वंय ही अस्तित्व में आया है किंतु पहली बात तो यह है कि प्रयोग व विज्ञान की दृष्टि से पदार्थ का ऐसा होना सिद्ध ही नहीं है क्योंकि प्रयोग की पहुंच सीमित होती है और प्रयोग द्वारा किसी भी वस्तु के लिए यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि वह अनन्त तक रहने वाली है अर्थात किसी भी प्रकार का प्रयोग
,स्थान व काल की दृष्टि से से ब्रह्मांड के अनन्त होने को सिद्ध नहीं कर सकता।
दूसरी बात यह है कि यदि मान भी लिया जाए कि पदार्थ अन्नत काल तक रहने वाला है तो भी इसका अर्थ यह नहीं होगा कि उसे किसी पैदा करने वाले की आवश्यकता नहीं है जैसाकि एक अनन्तकालीन व्यवस्था के गतिशील होने को यदि स्वीकार किया जाए तो उस व्यवस्था को अनन्तकाल की दशा तक पहुंचाने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। इस प्रकार से यह नहीं माना जा सकता है कि पदार्थ के अनन्तकालिक होने की दशा
,उसे उस दशा में पहुंचाने वाली ऊर्जा की आवश्यकता से ही मुक्त कर देती है और यदि यह भी मान लिया जाए कि पदार्थ की किसी ने रचना नहीं की है तो भी इस का अर्थ कदापि यह नहीं होता कि पदार्थ इस कारण स्वंयभू अस्तित्व वाला हो जाएगा क्योंकि पिछली चर्चाओं में हम यह सिद्ध कर चुके हैं कि पदार्थ किसी भी दशा में स्वंयंभू अस्तित्व नहीं हो सकता।
सबका पालनहार एक है
अब तक हमने जिस ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध किया है और उसके जो गुण बताए हैं वह कितने ईश्वर हैं
?अर्थात ईश्वर एक है या कई
?
इस बारे में कि अनेकेश्वरवादी विचार धारा या कई ईश्वरों में विश्वास किस प्रकार से मनुष्य में पैदा हुआ
,विभिन्न दृष्टिकोण पाए जाते हैं। यह सारे दृष्टिकोण समाज शास्त्रियों ने पेश किये हैं किंतु इसके लिए कोई ठोस प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया।
शायद यह कहा जा सकता है कि अनेकेश्वरवाद की ओर झुकाव और कई ईश्ववरों में विश्वास का प्रथम कारण
,आकाश व धरती में पायी जाने वाली वस्तुओं और प्राकृतिक प्रक्रियाओं में पायी जाने वाली विविधता रही है और यह विविधता इस बात का कारण बनी कि कुछ लोग यह समझनें लगें कि हर प्रक्रिया का एक विशेष ईश्वर है और उसी के नियंत्रण में वह प्रक्रिया चलती और आगे बढ़ती है। जैसा कि संसार के बहुत से लोगों का यह मानना है कि भलाइयों का ईश्वर अलग है और बुराईयों का ईश्वर अलग है। इस प्रकार के लोगों ने इस सृष्टि के लिए दो स्रोतों को मान लिया।
इसी प्रकार सूर्य और चंद्रमा के पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभाव और धरती में विभिन्न वस्तुओं व रचनाओं के विकास व अस्तित्व के लिए उनकी भूमिका के दृष्टिगत यह धारणा बनी कि यह सूर्य और चंद्रमा
,मनुष्य के एक प्रकार से पालनहार हैं।
इसी प्रकार देखे और महसूस किये जाने योग्य ईश्वर में मनुष्य की रूचि भी इस बात का कारण बनी कि लोग विभिन्न प्रकार की देखी और महसूस की जाने वाली वस्तुओं को ईश्वर के समान मानें और उनकी पूजा करें और फिर यह चलन इतना व्यापक हुआ कि अज्ञानी लोग
,इन्हीं चिन्हों और वस्तुओं को ईश्वर समझ बैठे और इस प्रकार से उनकी कई पीढ़ियां गुज़र गयीं और धीरे- धीरे हर जाति व राष्ट्र ने अपनी धारणाओं व आस्थाओं के आधार पर अपने लिए विशेष प्रकार के देवता और विशेष प्रकार के संस्कार बना लिए ताकि इस प्रकार से एक ओर ईश्वर के प्रति अपनी आस्था प्रकट करने की भावना शांत कर सकें और दूसरी ओर ईश्वर की सच्ची उपासना के कड़े नियमों से बचकर उसकी इस प्रकार से उपासना करने का अवसर भी प्राप्त कर लें जिससे उनकी आतंरिक इच्छाओं की पूर्ति भी हो सके और उसे पवित्रता व धार्मिक संस्कारों का नाम भी दिया जा सके। यही कारण है आज भी बहुत से धर्मों में नाच- गाना तथा शराब पीकर अश्लील कार्य धार्मिक संस्कारों का भाग समझा जाता है।
अनेकेश्वरवाद का एक अन्य कारण यह भी है कि समाज पर अपना अधिकार और वर्चस्व जमाने का प्रयास करने वाले भी आम लोगों में इस प्रकार की विचार- धारा व धारणा के जन्म लेने का कारण बने हैं इसी लिए समाज पर अधिकार की इच्छा रखने वाले बहुत से लोगों ने आम लोगों के मध्य अनेकेश्वरवाद की धारणा पैदा की और स्वंय को पूज्य और देवता समान बना कर पेश किया ताकि धर्म का सहारा लेकर लोगों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर सकें। राजा- महाराजाओं की पूजा इसी भावना के अंतर्गत आंरभ हुई जो बाद की पीढ़ियों के लिए देवता बन गये जैसा कि हम प्राचीन चीन
,भारत
,ईरान और मिस्र में इसका उदाहरण देख सकते हैं।
इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि एक ईश्वर के स्थान पर एक साथ कई ईश्वरों की उपासना या अनेकेश्वरवाद के जन्म लेने के बहुत से कारण हैं अर्थात कभी अज्ञानता के कारण लोगों ने कई ईश्वरों में विश्वास किया तो कभी समाज के प्रभावी लोगों के षडयन्त्र के कारण तो कभी प्रकृति की विविधताओं से प्रभावित होकर इस सृष्टि के लिए कई पालनहार मान लिया।
यदि इतिहास पर गहरी नज़र डाली जाए तो कई ईश्वर में विश्वास ने सदा ही समाज के विकास में बाधा उत्पन्न की है और यही कारण है कि हम देखते हैं कि ईश्वरीय दूतों के संघर्षों का बड़ा भाग
,अनेकेश्वर वादियों के विरुद्ध लड़ाई से विशेष रहा है। क्योंकि ईश्वर के अतिरिक्त जो भी ईश्वर थे वे मानव निर्मित थे और चूंकि उन्हें बनाने वालों ने अपने व्यक्तिगत हितों को दृष्टिगत रखा था इस लिए यह प्रक्रिया किसी भी स्थिति में समाज के हित में नहीं हो सकती थी।
इस प्रकार से अनेकेश्वरवादी मत में ईश्वर के अतिरिक्त एक या कई अन्य लोगों के पालनहार होने में भी विश्वास रखा जाता है यहां तक कि बहुत से अनकेश्वरवादी विश्व के लिए एक ही रचयिता होने में विश्वास रखते थे और वास्तव में वे विश्व की रचना के मामले में एकीश्वरवादी विचारधारा में आस्था रखते थे किंतु उसके बाद के चरणों में अर्थात दूसरी श्रेणी में देवताओं को मानते थे अर्थात यह कहते थे कि इस सृष्टि का रचनाकार एक ही है किंतु उसने अपने कामों में सहायता के लिए कुछ अन्य लोगों को पैदा किया है जो संसार के विभिन्न कामों में ईश्वर की सहायता करते हैं इन्हें विभिन्न लोगों अलग- अलग नामों से याद करते हैं। ।
पिछली चर्चाओं में हम विस्तार से यह बता चुके हैं कि वास्तिवक रचनाकर और पालनहार केवल एक ही हो सकता है और यह विशेषता केवल एक ही अस्तित्व की हो सकती है अर्थात रचयिता और पालनहार होना केवल एक ही अस्तित्व की विशेषता हो सकती है और यह दोनों गुण अर्थात रचयिता और पालनहार ऐसे गुण हैं जो एक दूसरे से अलग नहीं हो सकते अर्थात यह संभव नहीं है कि विश्व का रचयिता कोई और हो और लोगों का पालनहार कोई अन्य और जो लोग इस प्रकार का विश्वास रखते हैं उन्होंने इसमें पाए जाने वाले विरोधाभास की ओर ध्यान नहीं दिया। ईश्वर के एक होने के बहुत से प्रमाण हैं जिनमें से कुछ का हम वर्णन करेंगें किंतु अगली चर्चा में।
ईश्वर के एक होने के तर्क
ईश्वर एक है इसके बहुत से तर्क प्रस्तुत किये गये हैं और ईश्वर एक है या कई यह विषय अत्यधिक प्राचीन है और इस पर बहुत चर्चा हो चुकी है और जैसा कि हम ने पिछले कार्यक्रम में बताया था ईश्वरीय दूतों के संघर्ष का बहुत बड़ा भाग अनेकेश्वरवाद में विश्वास रखने वालों के विरुद्ध था।
इस कार्यक्रम में हम ईश्वर के एक होने के कुछ सरल प्रमाण पेश कर रहे हैं । जैसे यदि यह मान लिया जाए कि इस सृष्टि की रचना २ या कई ईश्वरों ने मिल कर की है तो इस धारणा के लिए कुछ दशाएं होगी या तो विश्व की हर वस्तु को उन सब ने मिल कर बनाया होगा या फिर कुछ वस्तुओं को एक ने और कुछ अन्य को दूसरे ने बनाया होगा। या फिर समस्त रचनाओं को किसी एक ईश्वर ने ही बनाया होगा किंतु कुछ अन्य देवता संसार को चलाते होंगे किंतु यदि हम यह मान लें कि हर रचना को कई ईश्वरों ने मिल कर बनाया है तो यह संभव नहीं है क्योंकि इस का अर्थ यह होगा कि विश्व की एक वस्तु को २ या कई देवताओं ने मिल कर बनाया है और हर एक ने एक वस्तु को बनाया है जिससे से हर वस्तु के कई अस्तित्व हो जाएंगें जबकि एक वस्तु का एक ही अस्तित्व होता है अन्यथा वह एक वस्तु नहीं होगी किंतु यदि यह माना जाए कि कई देवताओं में से प्रत्येक ने किसी वस्तु विशेष या कई वस्तुओं की रचना की है तो इस धारणा का अर्थ यह होगा कि हर रचना केवल अपने रचनाकार के बल पर अस्तित्व में आई होगी और उसे अपने अस्तित्व के लिए केवल अपने रचनाकार की ही आवश्यकता होगी अर्थात केवल उसी ईश्वर की आवश्यकता होगी जिसने उसे बनाया है किंतु इस प्रकार की आवश्यकता सारी वस्तुओं को बनाने वाले अंतिम रचनाकार की होगी जो वास्तव में ईश्वर है।
दूसरे शब्दों में संसार के लिए कई ईश्वर मानने का अर्थ यह होगा कि संसार में कई प्रकार की व्यवस्थाएं हैं जो एक दूसरे के अलग- अलग भी हैं जब कि संसार की एक ही व्यवस्था है और सारी प्रक्रियाएं एक दूसरे से जुड़ी हैं और एक दूसरे पर अपना प्रभाव भी डालती हैं और उन सब को एक दूसरे की आवश्यकता होती है इसी प्रकार पहली प्रक्रिया अपने बाद की प्रक्रिया से संबंध रखती है और पहले की प्रत्येक प्रक्रिया अपने बाद की प्रक्रिया के अस्तित्व का कारण होती है इस प्रकार से ऐसी रचना जिसकी विभिन्न प्रक्रियाएं एक दूसरे से जुड़ी हों और सारी प्रक्रियाएं और व्यवस्थाएं एक व्यापक व्यवस्था के अंतर्गत हों तो उन का कई नहीं एक ही रचनाकार हो सकता है अर्थात इस प्रकार से व्यस्थित परिणामों व प्रक्रियाओं का एक ही कारक हो सकता है और वह कई कारकों का परिणाम नहीं हो सकता किंतु यदि यह माना जाए कि वस्तुतः ईश्वर एक ही है किंतु उसकी सहायता के लिए और संसार को चलाने के लिए कई अन्य देवता मौजूद हैं तो यह भी सही नहीं है क्योंकि हर वस्तु अपने पूरे अस्तित्व के साथ अपने कारक से संबंधित है और उसका अस्तित्व उसी के सहारे पर निर्भर होता है और किसी अन्य अस्तित्व में उसे प्रभावित करने की शक्ति नहीं होती अलबत्ता यहां पर प्रभावित करने से वह प्रभाव आशय नहीं है जो वस्तुएं एक दूसरे पर डालती हैं ।
इसके अतिरिक्त यह भी कहा जाता है कि यदि ईश्वर के सहायकों की बात मान ली जाए तो फिर इसकी दो दशाएं होंगी। एक यह कि ईश्वर को इन सहायकों की आवश्यकता होती है या उसे उनकी आवश्यकता नहीं होती। अब यदि हम यह मान लें कि ईश्वर को सहायकों की आवश्यकता होती है तो फिर वह ईश्वर नहीं हो सकता क्योंकि सहायता की आवश्यकता उसे होती है जो अकेले की कोई काम करने की क्षमता नहीं रखता और हम पहले की यह चर्चा कर चुके हैं कि ईश्वर आवश्यकता मुक्त और हर काम करने की क्षमता रखता है किंतु यदि यह माना जाए कि ईश्वर को सहायकों की आवश्यकता नहीं हैं किंतु फिर भी उसके सहायक हैं तो फिर यह अकारण काम होगा अर्थात ईश्वर ने सहायकों की आवश्यकता न होने के बावजूद कुछ लोगों को अपनी सहायता के लिए रखा है तो इस से यह सिद्ध होगा कि ईश्वर ने एसा काम किया है जिसकी आवश्यकता ही नहीं थी और यह ईश्वर के लिए सही नहीं है क्योंकि वह केवल वही काम करता है जिसकी आवश्यकता होती है अनाश्वयक काम मनुष्य तो कर सकता है किंतु ईश्वर नहीं कर सकता।
यदि हम यह मानें कि ईश्वर के कुछ लोग सहायक हैं तो फिर यह प्रश्न उठता है कि उनकी किसने रचना की
?यदि ईश्वर ने ही उनकी रचना की है तो फिर उन सहायकों का अस्तित्व
,ईश्वर पर निर्भर होगा तो फिर एसे लोग साधन हो सकते हैं
,ईश्वर के सहायक नहीं। वैसे हम बता चुके हैं कि सहायता की आवश्यकता अक्षमता व कमज़ोरी का चिन्ह है किसी कंपनी या संस्था में सहायक इस लिए होते हैं क्योंकि सारे कामों की देखभाल महानिदेशक अकेले नहीं कर सकता अर्थात उसमें यह क्षमता नहीं होती कि वह सारे छोटे- बड़े काम अकेले की करे इसलिए सहायकों की नियुक्ति की जाती है किंतु ईश्वर के लिए हम यह कल्पना नहीं कर सकते कि कोई काम उसके लिए संभव नहीं हैं या अकेले वह इतने सारे काम नहीं कर सकता इस लिए उसने अपने लिए कुछ सहायक रखे हैं। क्योंकि ईश्वर की तुलना मनुष्य से नहीं की जा सकती और न ही मनुष्य के काम काज की शैली की ईश्वरीय व्यवस्था से तुलना की जा सकती है।
इस लिए हमारा मानना है कि ईश्वर एक है ऐसा एक जो कभी दो नहीं हो सकता। अकेला है न उसका कोई भागीदार है और न ही सहायक। न उसका कोई पिता है और न ही वह किसी का पिता है। न उसकी किसी से नातेदारी है और न ही उसका कोई परिवार अथवा पत्नी है यह सब मनुष्य की विशेषताएं हैं और ईश्वर के बारे में इस प्रकार की बातों की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
कर्मो का ज़िम्मेदार मनुष्य
ईश्वर मुख्य कारक है और वही सब कुछ करता है और उसकी अनुमति के बिना एक पत्ता की नहीं खड़कता यह ऐसे वाक्य हैं जो विदित रूप से बिल्कुल सही लगते हैं किंतु इन वाक्यों और उनके अर्थों को समझने के लिए बहुत अधिक चिंतन व गहराई की आवश्यकता है। अर्थात क्रियाओं पर ईश्वर का प्रभाव कैसा है और किस सीमा तक ईश्वर उस प्रभाव में हस्तक्षेप करता है और किस सीमा तक भौतिक कारक उसमें प्रभावी होते हैं ये बहुत ही गूढ़ विषय हैं और इस प्रभाव के संतुलन को समझने के लिए जहां एक ओर बौद्धिक विकास व विलक्षण बुद्धि चाहिए वहीं इस संतुलन और प्रभाव की सीमा का सही रूप से वर्णन भी आवश्यक है। ईश्वर भौतिक प्रक्रिया पर किस सीमा तक प्रभाव डालता है इस विषय को सही रूप से न समझने के कारण बहुत से लोग पथभ्रष्ट हो गये और उन्होंने संसार की हर क्रिया और प्रक्रिया को पूर्ण रूप से केवल ईश्वर से संबंधित समझ लिया और यह कहा कि ईश्वर के आदेश के बिना कोई पत्ता भी नहीं हिलता अर्थात उन लोगों ने भौतिक कारकों के प्रभाव का सिरे से इन्कार कर दिया अर्थात यह दर्शाने का प्रयास किया कि उदाहरण स्वरूप ईश्वर चाहता है कि आग रहे तो गर्मी रहे और यदि कोई खाना खा ले तो उसकी भूख समाप्त हो जायेगी तो चूंकि ईश्वर ऐसा चाहता है कि इस लिए गर्मी उत्पन्न होती है और भूख ख़त्म हो जाती है और गर्मी उत्पन्न करने तथा भूख मिटाने में आग और खाने की कोई भूमिका व प्रभाव नहीं है।
इस प्रकार की सोच व विचार धारा के कुप्रभाव उस समय प्रकट होते हैं जब हम मनुष्य के कामों के दायित्व के बारे में बात करें। अर्थात यदि हम यह बात पूर्ण रूप से मान लें कि संसार में हर काम ईश्वर से संबंधित है और वही हर काम करता है तो फिर मनुष्य और उसके कर्म के मध्य कोई संबंध नहीं रहता अर्थात मनुष्य जो कुछ करता है उसकी उस पर ज़िम्मेदारी नहीं होती।
दूसरे शब्दों में इस ग़लत विचारधारा का एक परिणाम यह होगा कि फिर मनुष्य के किसी काम में उसकी इच्छा का कोई प्रभाव नहीं होगा जिस के परिणाम स्वरूप मनुष्य अपने कामों का ज़िम्मेदार भी नहीं होगा और इस प्रकार से मनुष्य की सब से महत्वपूर्ण विशेषता अर्थात चयन का अधिकार का इन्कार हो जाएगा और हर वस्तु और हर क़ानूनी व्यवस्था खोखली हो जायेगी तथा धर्म व धार्मिक शिक्षाओं का भी कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। क्योंकि यदि मनुष्य को अपने कामों में किसी प्रकार का अधिकार नहीं होगा और सारे काम ईश्वरीय आदेश व इच्छा से होंगे तो फिर दायित्व व धार्मिक प्रतिबद्धता तथा पाप व पुण्य का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा और इस से पूरी धार्मिक व्यवस्था पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाएगा। अर्थात उदाहरण स्वरूप चोरी करना या किसी की हत्या करना धार्मिक रूप से महापाप है और इस पर कड़ा दंड है किंतु यदि हम यह मान लें कि ईश्वर के आदेश के बिना कोई पत्ता नहीं हिलता और मनुष्य के सारे काम ईश्वर के आदेश से होते हैं तो फिर चोर और हत्यारा यह कह सकता है कि यदि मैंने चोरी की या हत्या की तो इसकी ज़िम्दारी मुझ पर नहीं है ईश्वर पर है उसने मुझे से चोरी करवाई और हत्या करवाई तो फिर यदि ज़िम्मेदारी नहीं होगी तो उसे दंड भी नहीं दिया जा सकता इसी प्रकार पुण्य करने वाले को यदि प्रतिफल दिया जाएगा और स्वर्ग में भेजा जाएगा तो भी यह आपत्ति हो सकती है कि यदि उसने अच्छा काम किया तो फिर उसमें उसका क्या कमाल है क्योंकि ईश्वर ने चाहा कि वह अच्छा काम करे इस लिए उसने अच्छा काम किया तो इसका फल उसे क्यों मिले
?
इस्लाम में सृष्टि की रचना का उद्देश्य
,मनुष्य की रचना के लिए भूमिका तैयार करना बताया गया है ताकि वह अपनी इच्छा से किये जाने वाले कामों द्वारा ईश्वर की उपासना करते और इस प्रकार पारितोषिक और ईश्वर से निकटता का बड़ा इनाम पाए किंतु यदि मनुष्य के पास कोई अधिकार नहीं होगा और वह हर काम विवशता में और कठपुतली की भांति करेगा तथा ईश्वरीय आदेश से करता होगा तो फिर उसे किसी भी प्रकार का इनाम या पुण्य प्राप्त करने का अधिकार नहीं होगा जिससे सृष्टि का उद्देश्य ही ग़लत हो जाएगा और पूरा संसार कठपुतली के खेल की भांति होकर रह जाएगा जहां मनुष्य कठपुतली की भांति चलता- फिरता और काम करता है और उसके कुछ कामों पर उसकी सराहना की जाती है और कुछ कामों पर दंड दिया जाता है।
अब प्रश्न यह है कि यह विचारधारा मनुष्य में पैदा कैसे हुई और इसका मुख्य कारण क्या है
?तो इसके उत्तर में हम कहेंगे कि इस प्रकार की विचारधारा का मुख्य कारण
,अत्याचारी शासनों के राजनीतिक उद्देश्य हैं क्योंकि यह शासन इस प्रकार की विचारधारा द्वारा
,अपने गलत कार्यों का औचित्य दर्शाते थे और अज्ञानी लोगों को अपने वर्चस्व व राज को स्वीकार करने तथा उन्हें प्रतिरोध व संघर्ष से रोकने पर विवश करते थे। इसी लिए इस विचारधारा को राष्ट्रों को भ्रमित करने का मुख्य साधन माना जा सकता है।
दूसरी ओर
,कुछ ऐसे लोग भी थे जिन्हें इस विचारधारा की कमज़ोरियों का पता चल गया था किंतु न तो उन में पूर्ण एकेश्वरवाद पर विश्वास था और न ही इस विचारधारा को नकारने की क्षमता व ज्ञान था और न ही उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों की शिक्षाओं से लाभ उठाया इसी लिए उन्होंने इस विचारधारा को गलत मानते हुए इसे पूर्ण रूप से अस्वीकार कर दिया और इसकी विपरीत दशा को मान लिया अर्थात वह यह मानने लगे कि मनुष्य के कार्य पूर्ण रूप से उस से प्रभावित होते हैं और ईश्वर का उससे कोई संबंध नहीं होता और न ही वह हस्तक्षेप करता है अर्थात उन्होंने ईश्वर को मनुष्य के कामों से पूर्ण रूप से असंबंधित मान लिया और हर काम ईश्वर के आदेश से होता है
,की विचार धारा के विपरीत यह कहा कि कोई भी काम ईश्वर के आदेश से नहीं होता बल्कि सारी क्रियाएं और प्रक्रियाएं पूर्ण रूप से मनुष्य से संबंधित और वही उन का पूर्ण रूप से कारक होता है। पहली विचार धारा की भांति यह भी गलत विचार धारा है क्योंकि इसका अर्थ यह होगा कि ईश्वर मनुष्य के कामों में किसी भी प्रकार से हस्तक्षेप नहीं करता बल्कि नहीं कर सकता और उसने इस सृष्टि की रचना करके उसे अपने हाल पर छोड़ दिया है और जो कुछ हो रहा है वह स्वंय ही एक व्यवस्था के अंतर्गत है और ईश्वर चाह कर भी उसमें कुछ नहीं कर सकता। यह विचारधारा भी सही नहीं है क्योंकि इस से ईश्वर की क्षमता व महानता पर प्रश्न चिन्ह लगता है।
पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों ने जो ज्ञान के वास्तविक स्रोत हैं उन्होंने तीसरा मार्ग सुझाया है और इन दोनों विचारधारों के बीच का मार्ग अपनाया है जिसमें इन दोनों विचार धाराओं की ख़राबियां नहीं हैं किंतु उस पर हम अपने अगले कार्यक्रम में चर्चा करेंगे।
मनुष्य और परिपूर्णता
इससे पहले वाली चर्चा में हमने कहा था कि कर्मों के संबंध में पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों ने तीसरा मार्ग सुझाया है अर्थात न ही ईश्वर मनुष्य के समस्त कामों में पूर्ण रूप से हस्तक्षेप करता है और न ही पूर्ण रूप से उसने समस्त कामों को मनुष्य के ऊपर छोड़ दिया है और चूंकि यह बहुत ही गूढ़ चर्चा है इस लिए यदि इस विषय को कोई अच्छी तरह से समझना चाहता है तो उसे बहुत ध्यान रखना होगा।
तीसरा मार्ग यह है कि मनुष्य अपने कामों में न तो पूरी तरह से स्वतंत्र है और न ही पूर्ण रूप से विवश बल्कि कुछ कामों में किसी सीमा तक स्वतंत्र है और कुछ काम पूरी तरह से उसकी क्षमता से बाहर हैं। एक व्यक्ति ने इमाम जाफ़रे सादिक अलैहिस्सलाम से पूछा कि यह जो आप कहते हैं कि मनुष्य अपने कुछ कामों में स्वतंत्र है और कुछ में नहीं तो इसका कोई उदाहरण दे सकते हैं
?इमाम ने उससे कहा कि अपना दायां पैर उठा कर खड़े हो जाओ उसने ऐसा ही किया फिर आप ने कहा बायां पैर उठा कर खड़े हो जाओ वह बाया पैर उठा कर खड़ा हो गया फिर उससे कहा अब अपने दोनों पैर उठा कर खड़े हो जाओ तो उसने कहा यह कैसे हो सकता
?इमाम ने कहा स्वतंत्रता व विवशता के मध्य के मार्ग का अर्थ यही है। यह एक उदाहरण था अब हम इस विषय पर विशेष रूप से चर्चा आरंभ कर रहे हैं।
मनुष्य स्वंय सोच कर काम करता है या कठपुतली की भांति है इसके लिए सब से पहले यह स्पष्ट होना चाहिए कि मनुष्य में इरादा और निर्णय लेने की शक्ति है या नहीं। निर्णय लेने की शक्ति
,उन विषयों में से है जिन पर मनुष्य को पूरा विश्वास है क्योंकि इस विषय को हर व्यक्ति अपने आभास द्वारा अपने भीतर महसूस करता है जैसा कि हर व्यक्ति अपनी मनोदशाओं को जानता है यहां तक कि यदि उसे किसी विषय के बारे में शंका होती है तो वह अपने भीतर मौजूद ज्ञान द्वारा उस शंका से अवगत होता है और उसे अपने भीतर शंका के बारे में किसी प्रकार की शंका नहीं होती।
इसी प्रकार हर कोई अपने भीतर थोड़ा सा ध्यान देने के बाद यह समझ जाता है कि वह बात कर सकता है या नहीं
,अपना हाथ हिला सकता है या नहीं
,खाना खा सकता है या नहीं।
किसी काम को करने का फैसला कभी शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए होता है उदाहरण स्वरूप एक भूखा व्यक्ति खाने का फैसला करता है या प्यासा व्यक्ति पानी पीने का इरादा करता है किंतु कभी-कभी मनुष्य का इरादा और निर्णय बौद्धिक इच्छाओं व उच्च मानवीय आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए होता है जैसाकि एक रोगी स्वास्थ्य लाभ के लिए कड़वी दवांए पीता है और स्वादिष्ट खानों से परहेज़ करता है या अध्ययन करने वाला और शिक्षा प्राप्त करने वाला व्यक्ति ज्ञान प्राप्ति और वास्तविकताओं की खोज के लिए
,भौतिक सुखों की ओर से आंख बंद कर लेता है और अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कठिनाइयां सहन करता या साहसी सैनिक अपने देश की रक्षा जैसे उच्च लक्ष्य के लिए अपने प्राण भी न्यौछावर कर देता है। तो इससे यह स्पष्ट होता है कि यदि उद्देश्य उच्च हो तो उसके मार्ग में कठिनाईयों का कोई महत्व नहीं होता। वास्तव में मनुष्य का महत्व उस समय प्रकट होता है जब उस की विभिन्न इच्छाओं के मध्य टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाए और वह नैतिक गुणों और सही अर्थों में मानवता की चोटी पर पहुंचने के लिए अपनी शारीरिक इच्छाओं व आवश्यकताओं की उपेक्षा करता है और यह तो स्पष्ट है कि हर काम
,जितने मज़बूत इरादे और चेतनापूर्ण चयन के साथ किया जाता है वह आत्मा के विकास या पतन में उतना ही प्रभावी होता है तथा दंड या पुरस्कार का उसे उतना ही अधिक अधिकार होता है।
अलबत्ता शारीरिक इच्छाओं के सामने प्रतिरोध की क्षमता सब लोगों में हर वस्तु के प्रति समान नहीं होती किंतु हर व्यक्ति थोड़ा बहुत ईश्वर की इस देन अर्थात स्वतंत्र इरादे का स्वामी होता ही है और जितना अभ्यास करता है उसकी यह क्षमता उतनी ही बढ़ती जाती है। इस आधार पर मनुष्य में इरादे की उपस्थिति के बारे में कोई शंका नहीं है और इस प्रकार की स्पष्ट और महसूस की जाने वाली भावना के बारे में कोई शंका होनी भी नहीं चाहिए और यही कारण है कि मनुष्य में इरादे और स्वतंत्रता के विषय पर सभी ईश्वरीय धर्मों में बल दिया गया है और इसे सभी ईश्वरीय धर्मों और नैतिक मतों में एक वास्तविकता के रूप में स्वीकार किया गया है क्योंकि इस विशेषता के बिना कर्तव्य
,दायित्व
,आलोचना
,दंड
,अथवा पुरस्कार आदि की कोई गुंजाईश ही नहीं रहेगी।
इस प्रकार से यह सिद्ध होता है कि इरादा और निर्णय की शक्ति हर मनुष्य में पायी जाती है और यह शक्ति इतनी स्पष्ट है कि कोई भी व्यक्ति थोड़ा सा ध्यान देकर इसे महसूस कर सकता है किंतु इसके बावजूद कुछ लोग मनुष्य में इरादे और निर्णय लेने की क्षमता व शक्ति का इन्कार करते हुए कहते हैं कि मनुष्य अपने कामों में विवश है और उसके सारे काम ईश्वर करता है वह तो केवल कठपुतली है इस प्रकार की स्पष्ट विशेषता के इन्कार और मनुष्य में अधिकार व इरादे के न होने में विश्वास का कारण
,कुछ शंकाएं है जिन का निवारण किया जा सकता है।
महान ईश्वर सर्वज्ञाता है
जो लोग यह मानते हैं कि मनुष्य का हर काम ईश्वर के आदेश से होता है और मनुष्य में अपना कोई इरादा नहीं होता और वह अपने इरादे से कोई काम नहीं कर सकता उनका कहना है कि मनुष्य का इरादा आंतिरक रूचियों व रुझानों से बनता है और यह आंतरिक रूचियां और रुझान का पैदा होना स्वंय मनुष्य के बस में नहीं है और न ही जब उसमें बाहरी कारकों के कारण उबाल आता है तो उस पर मनुष्य का बस होता है इसलिए इसमें अधिकार व चयन की गुंजाइश नहीं बचती। उनका यह कहना है कि जब इरादा पैदा करने वाले कारक मनुष्य के बस में नहीं हैं तो फिर इरादे को उस के अधिकार के अंतर्गत आने वाला विषय कैसे कहा जा सकता है।
इस शंका के उत्तर में यह कहना चाहिए कि रुझान या रूचि पैदा होना इरादे और फैसले की भूमिका प्रशस्त करता है किसी काम के इरादे को बनाता नहीं जिसे रूचि व रूझान का ऐसा परिणाम समझा जाए जो मनुष्य से प्रतिरोध या विरोध की क्षमता ही छीन ले। अर्थात शंका करने वालों ने जो यह कहा है कि इरादे का आधार रूचि व रूझान होता है
,सही नहीं है रूचि व रूझान और बाहरी कारक इरादे की भूमिका प्रशस्त करते हैं। इरादे को अनिवार्य नहीं बनाते अर्थात यह सही नहीं है कि कहा जाए जब भी रूझान व रूचि होती है इरादा भी बन जाता है। इरादा किसी भी प्रकार से रूचि व रूझान का अनिवार्य परिणाम नहीं है बल्कि उसके लिए परिस्थितियां अनुकूल करता है इसीलिए देखा गया है कि कभी- कभी रूचियां होती हैं
,परिस्थितियां होती हैं रूझान भी होता किंतु मनुष्य फैसला नहीं लेता अर्थात इरादा नहीं करता क्योंकि वास्तविकता है यह है कि इरादे के लिए केवल रूचि व रुझान ही पर्याप्त नहीं होता बल्कि इस के बाद मनुष्य चिंतन-मनन करता है सोच-विचार करता है उसके बाद यदि सही समझता है तो फिर इरादा और फैसला करता है। इस प्रकार से यह कहना सही नहीं है कि मनुष्य परिस्थितियों और रूचियों के आगे इरादा करने पर विवश होता है बल्कि वह स्वतंत्र होता है इसी लिए कभी- कभी परिस्थितियों और रूचियों के विपरीत भी इरादा करता है और निर्णय लेता है।
मनुष्य में इरादे व संकल्प की शक्ति में विश्वास रखने वालों पर जो शंकाए की जाती हैं उनमें से एक यह भी है कि वे कहते हैं कि ज्ञान- विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में प्रमाणित विषयों के आधार पर अब यह सिद्ध हो चुका है कि जेनेटिक कारक तथा विशेष प्रकार के आहारों और दवाओं के कारण हार्मोन्ज़ के स्राव तथा समाजिक व मनुष्य के आसपास के वातावरण जैसे बहुत से कारक मनुष्य में किसी काम के इरादे को बनाने में प्रभावी होते हैं और मनुष्य के व्यवहारों में अंतर भी इन्हीं कारकों के कारण होता है और धार्मिक शिक्षाओं में भी इस विषय की पुष्टि की गयी है इस लिए यह कहना सही नहीं है कि मनुष्य अपने इरादे में पूर्ण रूप से स्वतंत्र होता है।
इस शंका को अधिक स्पष्ट करते हुए हम कहेंगे कि शंका करने वालों का यह कहना है कि मनुष्य जिस समाज में रहता है उसकी विशेष परिस्थितियां और उसका अपना परिवार और जेनेटिक विशेषताएं उसके इरादों को प्रभावित करती हैं उदाहरण स्वरूप पश्चिम में रहने वाला व्यक्ति बहुत से ऐसे काम करने का इरादा करता है जिसके बारे में पूरब में रहने वाला व्यक्ति सोच भी नहीं सकता। इसी प्रकार घर परिवार भी मनुष्य के इरादे में प्रभावित होते हैं इस लिए यह नहीं कहा जा सकता कि मनुष्य इरादे में पूर्ण रूप से स्वतंत्र है। अर्थात मनुष्य के कार्य को पूर्ण रूप से स्वतंत्रता के साथ किये गये इरादे का परिणाम नहीं माना जा सकता।
इस शंका का निवारण यह है कि स्वतंत्र इरादे व इच्छा को स्वीकार करने का अर्थ यह नहीं है कि उस में यह तत्व प्रभावी नहीं होते बल्कि इस का अर्थ यह है कि इन सारे तत्वों व कारकों की उपस्थिति के साथ
,मनुष्य प्रतिरोध कर सकता है और विभिन्न प्रकार की भावनाओं व रूचियों के घेरे में किसी एक का चयन कर सकता है और यही चयन कर सकने की शक्ति इस बात को सिद्ध करती है कि मनुष्य का अपना इरादा होता है।
अलबत्ता कभी- कभी इन कारकों में से कुछ कारण ऐसे भी होते हैं जो मनुष्य को अपने विरुद्ध निर्णय लेने से रोकते हैं उदारहण स्वरूप लोभ और भविष्य की चिंता मनुष्य को दान से रोकती है या क्रोध व बदला की अत्यधिक तीव्र भावना मनुष्य को संयम से रोकती से रोकती है और इसी लिए इन कारकों का विरोध करने के निर्णय लेने पर पारितोषिक और प्रतिफल भी अधिक मिलता है। इसी प्रकार क्रोध और भावनाओं के आवेग में किये जाने वाले अपराध का दंड
,पूर्ण रूप से शांत भाव व सोच विचार के साथ किये जाने वाले अपराध के दंड की तुलना में हल्का होता है। इस प्रकार से हम यह तो कह सकते हैं कि परिस्थितियां और कारक
,इरादों में प्रभावी होते हैं किंतु यह नहीं कहा जा सकता कि परिस्थितियां और कारक पूर्ण रूप से इरादे के पैदा होने का करण और उसका अपरिहार्य परिणाम होते हैं।
इरादे पर मनुष्य के अधिकार पर की जाने वाली एक शंका यह भी है कि कुछ लोग कहते हैं कि ईश्वर विश्व की हर वस्तु से यहां यहां तक कि मुनष्य के समस्त कार्यों से इस से पूर्व के वह कोई काम करे
,अवगत होता है और ईश्वर के ज्ञान में गलती नहीं हो सकती तो फिर सारी घटनाए ईश्वर के सदैव से रहने वाले ज्ञान के अनुसार घटित होती हैं और इस के विपरीत कुछ नहीं हो सकता इस आधार पर मनुष्य के अधिकार व चयन का कोई प्रश्न ही नहीं है। अर्थात जब ईश्वर को समस्त घटनाओं और मनुष्य के समस्त इरादों का ज्ञान है तो फिर इस का यह अर्थ हुआ कि मनुष्य उस से हट कर कुछ नहीं कर सकता इस लिए यह कहना सही नहीं है कि मनुष्य अपने इरादे में स्वतंत्र होता है।
इस शंका का उत्तर इस प्रकार से दिया जाता है कि यह सही है कि ईश्वर हर घटना का जिस प्रकार से वह घटित होती है ज्ञान रखता है और मुनष्य का हर काम भी उसके अधिकार के दायरे में रहते हुए ईश्वर के ज्ञान में होता है किंतु इसका कदापि यह अर्थ नहीं है कि ईश्वर मनुष्य को उस पर बाध्य करता है बल्कि मनुष्य के हर इरादे और हर काम का ईश्वर को ज्ञान होता है और उसे यह भी पता होता है कि मनुष्य यह काम किस परिस्थिति में करेगा। अर्थात ईश्वर को केवल यही ज्ञान नहीं होता कि अमुख काम होने वाला है बल्कि उसे यह भी ज्ञान है कि कौन मनुष्य किन परिस्थितियों में कौन सा इरादा करेगा और क्या काम करेगा किंतु इसका अर्थ कदापि यह नहीं है कि मनुष्य अपने इरादे में स्वतंत्र नहीं है अर्थात ईश्वर का ज्ञान
,मनुष्य की स्वतंत्रता नहीं छीनता। इस प्रकार से यह स्पष्ट है कि मनुष्य में इरादे नाम की भावना होती है जो हर प्रकार से उसके अधिकार में होती है और बहुत से अन्य कारक उस पर प्रभाव डाल सकते हैं किंतु उसे अपरिहार्य नहीं बना सकते।
कुछ लोग मनुष्य को भाग्य व क़िस्मत के आगे विवश मानते हैं और उनका कहना है कि जो लिखा होता है वही होता है इस लिए मनुष्य के काम या उसके इरादे का कोई महत्व नहीं है।
धर्म और भाग्य
मनुष्य का भाग्य या क़िस्मत उन विषयों में से है जिनका सही चित्र बहुत कम लोगों के मन में होगा। भाग्य के बारे में बहुत से प्रश्न उठते हैं। सब से पहले तो यह कि भाग्य है क्या
?भाग्य के बारे में यदि आम लोगों से पूछा जाए कि वह क्या है तो वह यही कहेंगे कि भाग्य ईश्वर द्वारा निर्धारित होता है और जिसके भाग्य में जो लिखा होता है वही होता है और मनुष्य कुछ नहीं कर सकता यह वास्तव में उसी विचारधारा का क्रम है जिसमें कहा जाता है कि मनुष्य में स्वतंत्र इरादा नहीं होता।
वास्तव में यदि हम इसी अर्थ में भाग्य को मान लें तो फिर कर्म व प्रतिफल की पूरी व्यवस्था बाधित हो जाएगी। अर्थात यदि हर व्यक्ति के साथ वही होता है जो उसके भाग्य में है तो फिर उसका अपना अधिकार समाप्त हो जाएगा और वह कठपुतली की भांति हो जाएगा। उदाहरण स्वरूप यदि किसी व्यक्ति के घर में चोरी हो जाती है तो वह कहता है कि क्या करें भाग्य में यही लिखा था तो यदि चोर पकड़ा जाए और उसे चोरी पर दंड दिया जाने लगे तो वह यह कह सकता है कि इसमें मेरा क्या दोष है
?इसके भाग में लिखा था कि इसके घर में चोरी हो और मेरे भाग्य में लिखा था कि मैं इसके घर में चोरी करूं तो मैंने तो वही किया जिसे ईश्वर ने हम दोनों के भाग्य में लिखा था तो इस पर मुझे दंड क्यों दिया जाए
?या इसी प्रकार हम देखते हैं कि इस संसार में कोई धनी होता है और कोई निर्धन
,किसी के पास इतना धन होता है कि वह अपने कपड़ों और जूते- चप्पल पर लाखों रूपये ख़र्च करता है और किसी के पास खाने के लिए दो समय की रोटी नहीं होती और वह कुछ हज़ार रूपये के लिए आत्म हत्या करने पर विवश हो जाता है।
तो क्या यहां यह कहा जा सकता है कि धनवान व्यक्ति के भाग्य में धन लिखा था इस लिए वह धनवान है और निर्धन के भाग्य में भूख से मरना लिखा था इस लिए वह निर्धन है
?यदि हम यह मान लें तो फिर ईश्वरीय न्याय पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है
?अर्थात सारे मनुष्य
,ईश्वर की रचना हैं और ईश्वर सारे मनुष्यों से समान रूप से प्रेम करता है तो फिर उसने किस आधार पर किसी के भाग में धन व सुख व आंनद लिखा और कुछ लोगों के भाग्य में निर्धनता
,दुख व पीड़ा
?क्योंकि भाग्य जब लिखा जाता है तो मनुष्य हर प्रकार की बुराई और अच्छाई से दूर होता है अर्थात जो लोग भाग्य को इस अर्थ में स्वीकार करते हैं उनके अनुसार भाग्य
,मनुष्य के जन्म के साथ ही लिख दिया जाता है तो फिर उस समय मनुष्य न अच्छाई किये होता है और न ही बुराई तो फिर ईश्वर क्यों किसी के भाग्य में सुख व किसी के भाग्य में दुख लिखता है
?क्या यह न्याय है कि कुछ लोगों को बिना कुछ किये ही जीवन भर के लिए सुख दिया जाए और कुछ दूसरे लोगों को बिना कोई बुराई किये जीवन भर का दुख दे दिया जाए
?
इस प्रकार से यह स्पष्ट है कि भाग्य इस अर्थ में कि सब कुछ पहले से निर्धारित और मनुष्य की क़िस्मत में लिखा होता है सही नहीं है किंतु इसके साथ यह प्रश्न भी उठता है कि तो फिर क्या भाग्य का कोई अस्तित्व ही नहीं है
?यदि यह मान लिया जाए तो भी यह सही नहीं लगता
?अर्थात जैसाकि कुछ लोग कहते हैं कि भाग्य नाम की कोई चीज़ नहीं है और सब कुछ मनुष्य के हाथ में होता है हर इंसान अपनी तक़दीर का मालिक होता है तो यह बात भी पूरी तरह से सही नहीं है क्योंकि कई बार हम देखते हैं कि कोई व्यक्ति कोई ऐसा काम करता है जिसे उससे पहले कई लोगों ने किया होता है और उससे उन्हें लाभ होता है किंतु वह जब वही काम उसी प्रकार से करता है तो उसे नुक़सान हो जाता है ऐसे समय पर लोग कहते हैं कि भाग्य में नहीं था। या फिर उदाहरण स्वरूप सैंक़डों लोग रेल की पटरी पार करते हैं किंतु एक व्यक्ति जब पार करता है तो उसी समय रेल आ जाती है और वह मर जाता है लोग कहते हैं उसका दुर्भाग्य था।
प्रश्न यह है कि यदि मनुष्य अपनी क़िस्मत का मालिक होता है तो कभी- कभी हर बात पर पूरी तरह से ध्यान देने के बावजूद उसे वह सब कुछ नहीं मिल पाता जो उससे पहले वही काम करने वालों को मिल चुका होता है
?तो इसका अर्थ है कि भाग्य नाम की कोई वस्तु है जो नियमों और मनुष्य के कामों से ऊपर है और जिसके कारण कभी- कभी मनुष्य को ऐसी स्थिति का सामना होता है जो विदित रूप से उसके कामों के परिणाम में नहीं होना चाहिए था।
हमारा भी यही कहना है कि यह सही नहीं है कि भाग को सिरे से नकार दिया जाए और यह कहा जाए कि सब कुछ मनुष्य के हाथ में होता है और वह जैसा चाहे उसका भविष्य वैसा ही होता है और वास्तव में यह विचार
,धर्म को नकारने वालों और भौतिकवादी लोगों का है जो इस संसार को ही सब कुछ मानने हैं और भौतिकता से परे किसी भी वस्तु या विषय पर विश्वास नहीं रखते किंतु हम इस विचार धारा की पुष्टि किसी भी स्थिति में नहीं कर सकते बल्कि हम भी मानते हैं कि भाग्य नाम का विषय है किंतु हम उस भाग्य को नहीं मानते जो आलसी लोगों के लिए कुछ न करने का बहाना और बुरे लोगों के लिए सब कुछ करने का बहाना हो। भाग्य क्या है
?और यदि है तो उसका सही रूप क्या है
?और हमें किस प्रकार के भाग्य को मानना चाहिए
?यह वह प्रश्न है जिसका उत्तर अगली चर्चा में दिया जायेगा।
मनुष्य और उसके कर्म
सब से पहले तो हमें यह समझना होगा कि भाग्य क्या है
?वास्तव में भाग्य किसी घटना के लिए ईश्वर द्वारा निर्धारित चरणों और उसके परिणाम को कहा जाता है। ईश्वर द्वारा निर्धारित भाग्य के कई प्रकार हैं किंतु यहां पर हम अत्यधिक जटिल चर्चा से बचते हुए केवल व्यवहारिक भाग्य के बारे में बात करेंगे जिसका प्रभाव स्पष्ट रूप से मनुष्य पर पड़ता और जिसका वह आभास करता है किंतु प्रश्न यह है कि व्यवहारिक भाग्य है क्या
?
ईश्वर द्वारा भाग्य के निर्धारण का अर्थ यह है कि हम विभिन्न प्रक्रियाओं और घटनाओं को उसके सभी चरणों के साथ अर्थात आरंभ से अंत तक ईश्वर के तत्व ज्ञान व सूझबूझ के अंतर्गत समझें। अर्थात यह विश्वास रखें कि जो कुछ हो रहा है वह ईश्वर का इरादा है और ईश्वर ने चाहा है कि ऐसा हो इसलिए यह हो रहा है।
बात को अधिक स्पष्ट करने के लिए हम कह सकते हैं कि जैसाकि हर वस्तु की उपस्थिति
,ईश्वर की अनुमति और इच्छा पर निर्भर होती है और उसकी अनुमति के बिना किसी भी वस्तु का अस्तित्व संभव ही नहीं है उसी प्रकार हर वस्तु की उत्पत्ति को भी ईश्वर द्वारा निर्धारित भाग्य और सीमा व मात्रा से संबंधित समझना चाहिए क्योंकि ईश्वर की इच्छा के बिना कोई भी वस्तु अपने विशेष रूप व आकार तथा मात्रा तक नहीं पहुंच सकती और न ही अपने अंत तक पहुंच सकती है किंतु प्रश्न यह है कि यदि ऐसा है तो फिर कामों पर मनुष्य के अधिकार का क्या अर्थ है
?
भाग्य निर्धारित होने की चर्चा इतनी ही जटिल है कि बहुत से विशेषज्ञ और बुद्धिजीवी इस चर्चा के कारण अपनी राह से भटक गये। वास्तव में इस विषय को समझना बहुत कठिन है कि हर प्रक्रिया ईश्वर से संबंधित है और उसके सभी चरणों का ईश्वर ने निर्धारित किया है जिसे भाग्य कहा जाता है किंतु इसके साथ ही मनुष्य अपने कामों में स्वतंत्र भी है और उसका अपने कामों पर अधिकार भी है।
बहुत से लोग जो यह मानते थे कि भाग्य ईश्वर द्वारा निर्धारित होता है और हर काम व प्रक्रिया उससे संबंधित होती है
,मनुष्य को अपने कामों में कठपुतली और विवश समझने लगे किंतु कुछ अन्य बुद्धिजीवी जिन्हें मनुष्य को विवश समझने से पाप व पुण्य तथा प्रतिफल की व्यवस्था की ख़राबी का ध्यान था
,मनुष्य को पूर्ण रूप से स्वतंत्र और ईश्वरीय इरादे को मनुष्य के कामों से पूर्ण रूप से अलग समझने लगे किंतु हमारा यह कहना है कि मनुष्य के काम और अंजाम का निर्धारण एक सीमा तक ईश्वर द्वारा निर्धारित भाग्य से और किसी सीमा तक मनुष्य के अपने कामों द्वारा होता है किंतु इसके लिए हमें एक परिणाम के बहुकारक के नियम को समझना होगा। अर्थात यह मानना होगा कि कोई परिणाम या काम संभव है कई कारकों द्वारा इस प्रकार से हुआ हो कि हर कारक की अपनी भूमिका हो।
एक प्रक्रिया के कई कारक की कल्पना की कई दशाएं हो सकती हैं। जैसे कई कारक ऐसे हों जिनका प्रभाव एक साथ प्रक्रिया पर पड़ता है। जैसे बीज को पौधा बनाने के लिए उसे एक साथ ही बीज
,पानी और तापमान की आवश्यकता हीती है और यह सारे कारक एक साथ उस पर अपना प्रभाव डालते हैं।
बहुकारक वाली प्रक्रिया की एक दशा यह है कि कई कारक एक के बाद एक अपना प्रभाव डालें जैसे एक के बाद एक इंजन चलाने से अंत में हवाई जहाज़ उड़ने लगता है।
बहुकारकों वाली प्रक्रिया के कई कारकों की एक दशा यह होती है कि कारक का प्रभाव अपने पहले वाले पर निर्भर हो जैसे क्रमबद्ध सड़क दुर्घटना या फिर मनुष्य का इरादा
,फिर हाथ में क़लम उठा कर उसे चलाना तथा लिखना। तो यहां पर सारे कारक एक दूसरे पर निर्भर हैं और जब सारे कारक अपना काम करेंगे तो ही लिखावट होगी।
कई कारकों की एक दशा यह भी है कि कारकों का अस्तित्व ही अपने पहले वाले कारक पर निर्भर हो। यह दशा
,पहली वाली दशा से भिन्न है क्योंकि पहली वाली दशा में कारक का प्रभाव अपने पहले वाले कारक के प्रभाव पर निर्भर होता है स्वयं कारक का अस्तित्व नहीं। जैसे क़लम की लिखावट मनुष्य के हाथ हिलाने पर निर्भर है किंतु स्वंय क़लम नहीं।
इस प्रकार से यह स्पष्ट हो गया कि एक परिणाम के कई कारक संभव हैं। बल्कि यह कहें कि कुछ प्रक्रियाएं ऐसी हैं जिनके लिए कई कारकों का होना आवश्यक है। इस प्रकार से यह भी स्पष्ट हो गया कि मनुष्य जो काम करता है उसके दो कारक होते हैं एक तो मनुष्य का इरादा और दूसरे ईश्वर का इरादा किंतु मनुष्य के काम उन बहुकारक परिणामों में से हैं जिनके कारक तीसरी दशा से संबंध रखते हैं अर्थात मनुष्य के काम वह परिणाम हैं जिनके कई कारकों में से हर कारक अपने- अपने वाले कारक पर निर्भर होता है और पहले वाले कारक के बिना दूसरे कारक का अस्तित्व ही संभव नहीं है।
अर्थात मनुष्य यदि कोई काम करता है तो उसका इरादा उसका कारक होता है और स्वंय मनुष्य अपने इरादे का कारक होता है और ईश्वर जिसने उसकी रचना की वह मनुष्य और उसके इरादे का कारक होता है। इस प्रकार से मनुष्य का हर काम कई कारकों का परिणाम होता है।
यदि कोई यह समझ ले कि एक परिणाम के कई कारक होते हैं फिर उसे भाग्य और उस पर मनुष्य और ईश्वर के प्रभाव की बात भी अच्छी तरह से समझ में आ जाएगी किंतु भाग्य के बारे में पूरी बात समझने के लिए आप हमारी अगली चर्चा अवश्य पढ़िये।
मनुष्य का भाग्य एवं कर्म
मनुष्य जो कुछ करता है या जो कुछ उसके साथ होता है उसके दो कारक होते हैं एक स्वंय मनुष्य का इरादा और दूसरे ईश्वर का इरादा किंतु प्रश्न यह है कि यदि भाग्य है तो फिर कैसा है
,अर्थात यदि मनुष्य और ईश्वर दोनों का इरादा प्रभावी है तो किस प्रकार से और भाग्य की रचना कैसे होती है
?
इस प्रश्न के उत्तर में हम कहेंगे कि मनुष्य जो इरादा करता है और जो काम करता है उससे ऊपर के स्तर पर ईश्वर का इरादा होता है अर्थात मनुष्य का कोई भी काम ईश्वर के इरादे व ज्ञान से बाहर नहीं होता किंतु काम करने वाला स्वंय मनुष्य होता है। भाग्य में मनुष्य और ईश्वर दोनों का प्रभाव होता है इस बात को अधिक स्पष्ट करने के लिए हम एक उदाहरण देते हैं जो किसी सीमा तक इस विषय को स्पष्ट कर सकता है। उदाहरण स्वरूप कोई व्यक्ति जब हवाई यात्रा का इरादा करता है तो सब से पहले किसी एयर लाइन का चयन करता है उसके बाद वहां जाकर टिकट ख़रीदता है समय और फ्लाइट का चयन करता है और निर्धारित समय पर एयरपोर्ट पहुंच जाता है और फिर समय आने पर विमान में सवार हो जाता है और विमान उड़ान भर लेता है। इस पूरी प्रक्रिया में कोई भी नहीं कहेगा कि इसमें उस यात्री का इरादा नहीं था और वह विवश था वह पूर्ण रूप से स्वतंत्र होता है किंतु उसके इरादे के ऊपर भी कुछ लोगों का इरादा होता है जो उसकी यात्रा के समय व अवधि को प्रभावित करता है जैसे एयर लाइन या एयर पोर्ट के अधिकारी चाहे तो उड़ान का समय बदल सकते हैं यहां पर यात्री विवश हो जाएगा या फिर उड़ान भरने के बाद यदि यात्री वापस जाना चाहे तो विमान वापस नहीं होगा और वह विवश होगा किंतु यदि विमान चालक
,एयर लाइन या कंट्रोल टावर या सुरक्षा अधिकारी चाहें तो विमान वापस भी हो सकता है। इस प्रकार से हम देखते हैं कि एक व्यक्ति की यात्रा में किसी सीमा तक और कुछ मामलों में यात्री स्वतंत्र होता है किंतु कुछ विषयों में वह विवश होता है।
अब आते हैं भाग्य की ओर भाग्य का मामला भी कुछ इसी प्रकार है। ईश्वर ने इस संसार के लिए कुछ भौतिक और आध्यात्मिक नियम बनाएं हैं और कुछ ऐसे विषय हैं जो एक दूसरे से संबंधित और एक दूसरे पर निर्भर हैं। अब उदाहरण स्वरूप इस भौतिक संसार का यह नियम है कि यदि कोई व्यक्ति सैंक़डों मीटर ऊंची इमारत से गिरेगा तो उसके शरीर को जो नुक़सान पहुंचेगा उससे उसकी मृत्यु हो जाएगी यह ईश्वर द्वारा बनाए गये शरीर की विशेषता है अब यदि कोई सैंकड़ों मीटर ऊंची इमारत से छलांग लगा देता है तो ईश्वर के भौतिक नियमों के अंतर्गत और ईश्वर द्वारा बनाए गये शरीर की विशेषताओं के कारण उसे मर जाना होगा। यह नियम है और छलांग लगाने के बाद न तो वह व्यक्ति वापस लौट सकता है और न ही नियम के अनुसार वह जीवित रह सकता है। अर्थात छलांग लगाने के बाद वह नीचे गिरने और मरने पर विवश है किंतु यह विवशता मनुष्य के लिए है और छलांग लगाने के बाद मनुष्य के इरादे की सीमा समाप्त हो जाती है किंतु ईश्वर का इरादा रहता है और यदि ईश्वर चाहे तो मनुष्य के विवश होने के बावजूद अपने इरादे से उसे नीचे गिरने से रोक सकता है और उसे जीवित रख सकता है। ठीक उसी प्रकार जैसे विमान यात्री विवश होता है किंतु दूसरे कुछ लोग विमान को वापस लौटाने में विवश नहीं होते।
ईश्वर ने इस संसार के लिए कुछ नियम बनाए हैं उनमें से कुछ भौतिक हैं और कुछ आध्यात्मिक। कुछ काम ऐसे होते हैं जो मनुष्य के जीवन के आगामी चरणों को निर्धारित करते हैं उदाहरण स्वरूप पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैही व आलेही व सल्लम तथा अन्य ईश्वरीय मार्गदर्शकों के कथनों के अनुसार जो अपने माता- पिता के साथ दुर्व्यवहार करता है उसकी संतान भी उसके साथ वैसा ही करती है और उसकी रोज़ी और आजीविका कम हो जाती है। उदाहरण स्वरूप किसी व्यक्ति ने यदि अपने माता- पिता के साथ दुर्व्यवहार किया हो और उसके माता- पिता मर गये हों और उनकी मृत्यु के दसियों वर्ष पश्चात अनथक परिश्रम के के बाद भी उस व्यक्ति के व्यापार या आय में उस प्रकार वृद्धि न हो जो वही व्यापार या काम करने वाले अन्य लोगों की आय में होती है तो विदित रूप से लोग यही कहेंगे कि यह उसका दुर्भाग्य है और उसके भाग्य में अधिक लाभ नहीं लिखा था किंतु यदि हम उसका अतीत देखें तो हमें नज़र आएगा कि यह भाग्य उसने स्वंय लिखा है अर्थात जब उसने अपने माता- पिता के साथ बुरा व्यवहार किया तो फिर उसके भाग्य में कम रोज़ी और अपनी संतान की ओर से दुःख उठाना ईश्वर ने लिख दिया अब वह चाहे जितना परिश्रम करे या अपनी संतान के साथ चाहे जितनी भलाई करे उसे अपने किये का दंड अवश्य मिलेगा। इस प्रकार से हम यह समझ सकते हैं मनुष्य के भाग्य में किस प्रकार से ईश्वर और मनुष्य दोनों का इरादा होता है। अर्थात ईश्वर ने इस संसार के लिए जो व्यवस्था बनायी है उसमें मनुष्य के हर काम का एक प्रभाव और परिणाम है जो इस सांसारिक व्यवस्था का भाग है। यदि मनुष्य अपने इरादे से वह काम कर लेता है तो फिर आगे चल कर अपने जीवन में अपने अतीत के उस काम का प्रभाव उसे अवश्य मिलेगा। अच्छे काम का अच्छा और बुरे काम का बुरा प्रभाव। इस प्रकार से हम समझ सकते हैं कि किसी सीमा तक उन लोगों की बात भी सही है जो यह कहते हैं मनुष्य अपना भाग्य अपने हाथ से लिखता है।
अलबत्ता यहां पर एक बात यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि धार्मिक और इस्लामी दृष्टि से हर दुख और समस्या
,अतीत में की गयी किसी बुराई या हर सुख और समृद्धि अतीत में की गयी अच्छाई का ही परिणाम नहीं होती। अर्थात यह सही नहीं है कि हम यदि आज किसी को समस्याओं में घिरा हुआ पाएं तो तत्काल यह निर्णय कर लें कि अवश्य उसने अतीत में कोई बुराई की होगी इस लिए ईश्वर ने उसके भाग्य में समस्याएं और दुःख लिख दिए हैं। या किसी को समृद्ध देखें तो कहें कि अवश्य उसने कोई बहुत भला काम किया होगा इस लिए ईश्वर ने उसके भाग्य में सुख लिख दिया है।
कभी- कभी यह भी होता है कि ईश्वर अपने उपर लोगों के विश्वास और उनकी धर्मपरायणता की परीक्षा के लिए दुःख देता है और देखता है कि यह लोग दुःख में क्या करते और फिर दुख और समस्याओं में उसके व्यवहार के आधार पर उन्हें संसार या परलोक में दंड या प्रतिफल मिलता है। इसी प्रकार ईश्वर कभी- कभी लोगों को सुख व समद्धि देकर आज़माता है कि इस दशा में उनका व्यवहार क्या होता है और फिर उसी आधार पर उन्हें लोक व परलोक में प्रतिफल मिलता है।
इसके साथ यह बात भी उल्लेखनीय है कि ईश्वर के निकट यह संसार कुछ दिनों तक रहने वाला है और मनुष्य का जीवन अत्यन्त सीमित होता है इस लिए ईश्वर जिन लोगों से प्रेम करता है उनकी भलाईयों का प्रतिफल परलोक के लिए सुरक्षित रखता है क्योंकि परलोक का प्रतिफल सदा रहेगा जबकि संसार में मिलने वाला इनाम कुछ दिनों तक होगा ।
इसी प्रकार ईश्वर जिन भले लोगों से प्रेम करता है उनकी छोटी- मोटी बुराईयों का दंड यहीं इसी संसार में दे देता है ताकि वे परलोक के दंड से सुरक्षित रहें क्योंकि संसार का दंड कुछ दिनों तक रहेगा जब कि परलोक का दंड सदैव रहेगा।
ईश्वर जिन लोगों को उनकी बुराईयों के कारण पसन्द नहीं करता वह लोग यदि कोई अच्छाई करते हैं तो चूंकि ईश्वर ने वचन दिया है कि वह हर अच्छाई और बुराई का बदला देगा इस लिए बुरे लोगों की अच्छाइयों का इनाम इसी ससांर में सुख- समृद्धि के रूप में दे देता है।