ईश्वर और न्याय
ईश्वर का न्याय भी उन विषयों में से है जिन के बारे में बुद्धिजीवियों और विशेषज्ञों में मतभेद पाया जाता है और इस संदर्भ में उन्होंने भिन्न- भिन्न विचार प्रस्तुत किये हैं।
ईश्वर के न्याय के संदर्भ में विभिन्न प्रकार के विचार वास्तव में इस विषय के महत्व के कारण हैं और यदि ध्यान दिया जाए तो पूरा धर्म- कर्म ईश्वर की इसी विशेषता पर टिका हुआ है।
ईश्वर के न्याय के संदर्भ में पहला प्रश्न तो यह उठता है कि ईश्वर न्यायी है या नहीं। तो इस प्रश्न का बहुत सीधा सा उत्तर है कि यह संभव हीं नहीं है कि वह न्यायी न हो क्योंकि यदि वह न्यायी नहीं होगा तो अच्छे कर्म करने वाले को नरक में और बुरे कर्म करने वाले को स्वर्ग में डाल सकता है और लोगों के कर्मों के प्रतिफल में उलट-फेर और अनियमिता कर सकता है और यदि कर्म करने वाला ऐसा समझने लगे तो फिर वह कोई कर्म कर ही नहीं सकता क्योंकि उसे प्रतिफल पर विश्वास नहीं होगा। इस लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य को ईश्वर के न्यायी होने पर पूर्ण रूप से विश्वास हो।
यही कारण है कि हम ने जिन बुद्धिजीवियों के बारे में कहा कि ईश्वर के न्याय के बारे में उन में मतभेद है तो यहां पर हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि समस्त इस्लामी मतों में ईश्वर को न्यायी माना जाता है अर्थात यह कोई नहीं कहता कि ईश्वर अत्याचारी है क्योंकि कुरआन मजीद की असंख्य आयतों में ईश्वर को न्यायप्रेमी और अत्याचार से दूर कहा गया है।
तो प्रश्न यह उठता है कि यदि सब लोग ईश्वर को न्यायप्रेमी मानते हैं और कोई भी उसे अत्याचारी नहीं समझता तो फिर उनमें मतभेद कैसा है और किस विषय ने उन्हें अलग- अलग मत अपनाने पर विवश किया। वास्तव में ईश्वर के न्याय पर चर्चा करने वाले इस बात में मतभेद रखते हैं कि क्या मानव बुद्धि में इतनी शक्ति है कि वह धार्मिक आदेशों के बिना ही भलाई व बुराई समझ सकती है
?या फिर बुद्धि को कामों और चीज़ों की भलाई- बुराई समझने के लिए धार्मिक व ईश्वरीय आदेशों की आवश्यकता होती है
?दूसरे शब्दों में क्या बुद्धि में इतनी शक्ति है कि वह यह निष्कर्ष निकाले कि यदि किसी मनुष्य ने अच्छा काम किया है और ईश्वर के समस्त आदेशों का पालन किया है तो ईश्वर के लिए आवश्यक है कि वह उसे स्वर्ग में भेजे
?
क्या बुद्धि अकेले ही यह निष्कर्ष निकाल सकती है कि जिन लोगों ने जीवन भर बुराईयां की हों ईश्वर के लिए आवश्यक है कि उन्हें नरक में भेजे
?या फिर बुद्धि को इस प्रकार के निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए धार्मिक नियमों और ईश्वरीय आदेशों की भी आवश्यकता होती है
?या यह कि इस प्रकार के धर्म से संबंधी नियमों पर आधारित निष्कर्ष केवल ईश्वरीय संदेशों और धार्मिक शिक्षाओं के आधार पर ही निकाले जा सकते हैं और बुद्धि से इसका कोई संबंध नहीं होता
?
बात को अधिक स्पष्ट करते हुए कहेंगे कि कुछ बुद्धिजीवियों का कहना है कि व्यवहारिक रूप से जो कुछ ईश्वर करता है वह भलाई है और धार्मिक मामलों में जो कुछ ईश्वर आदेश देता वह अच्छा है ऐेसा नहीं है कि चूंकि अमुक काम अच्छा है इसलिए ईश्वर उसका आदेश देता है बल्कि सही बात यह है कि चूंकि अमुक काम का ईश्वर ने आदेश दिया है इस लिए वह अच्छा है।
अर्थात कुछ बुद्धिजीवियों का कहना है कि उदाहरण स्वरूप झूठ बोलना मूल रूप से न अच्छा है न बुरा अर्थात बुद्धि के लिए अच्छाई व बुराई से खाली विषय है अब चूंकि ईश्वर ने झूठ को बुरा कहा है कि इस लिए झूठ बुरा है जबकि इसके मुक़ाबले में कुछ बुद्धिजीवियों के एक वर्ग का यह कहना है कि बुद्धि स्वंय भी भला- बुरा समझने की शक्ति रखती है और वह अपनी इसी शक्ति और क्षमता की सहायता से कुछ बुराईयों को बुरा और ईश्वर को उनसे दूर और कुछ अच्छाइयों को अच्छा और ईश्वर के लिए आवश्यक मानते हैं अर्थात उनका यह कहना है कि धार्मिक नियमों के बिना भी कुछ कामों की भलाई और बुराई समझने की शक्ति बुद्धि में होती है अर्थात उदाहरण स्वरूप उनका का कहना है कि झूठ के बारे में यदि किसी को धार्मिक नियमों का ज्ञान न भी हो तब भी वह अपनी बुद्धि के आधार पर उसे बुरा काम समझेगा।
इस प्रकार के बुद्धिजीवियों का कहना है कि बुरा काम बुरा होता है इस लिए ईश्वर उससे दूर रहने का आदेश देता है। यह सही नहीं है कि चूंकि ईश्वर ने किसी काम से दूर रहने को कहा है इस लिए वह बुरा है। अर्थात झूठ बुरा है इस लिए ईश्वर ने उस से दूर रहने को कहा है। यह सही नहीं है कि चूंकि ईश्वर ने झूठ से दूर रहने को कहा है इस लिए झूठ बोलना बुरा काम है। इस संदर्भ में चर्चा अत्यधिक व्यापक है और दोनों प्रकार के विचार पेश करने वालों के अपने- अपने तर्क हैं।
न्याय और उसका अर्थ
न्याय को अरबी भाषा में अद्ल कहा जाता है उस का अर्थ होता है समान बनाना और आम- बोलचाल में इस का अर्थ होता है दूसरों के अधिकारों का ध्यान रखना और इसके विपरीत अत्याचार होता है। इस प्रकार न्याय की परिभाषा यह हैः हर वस्तु या व्यक्ति को उसका अधिकार देना किंतु इस परिभाषा को सही रूप से समझने के लिए सबसे पहले किसी ऐसे प्राणी की कल्पना करनी होगी जिसके कुछ अधिकार हों ताकि उसके अधिकारों की रक्षा को न्याय और उसके अधिकारों के हनन को अन्याय व अत्याचार कहा जाए किंतु यह तो प्राणियों की बात है किंतु कभी- कभी न्याय के अर्थ को अधिक विस्तृत कर दिया जाता है इस प्रकार से न्याय का व्यापक अर्थ इस प्रकार होगाः प्रत्येक वस्तु को उसके सही स्थान पर रखना।
इस परिभाषा के अनुसार न्याय बुद्धिमत्ता व दूरदर्शिता के समान होगा किंतु इसके साथ यह भी प्रश्न है कि हर अधिकारी का अधिकार और हर वस्तु का स्थान किस प्रकार से स्पष्ट होगा तो यह एक विस्तृत चर्चा है जिसका यहां स्थान नहीं
,यहां पर हम इस चर्चा का संक्षेप में वर्णन करते हैं। आपको याद होगा कि पिछली चर्चा में हमारी बहस यह थी कि अच्छा काम स्वंय अच्छा होता है या इसलिए अच्छा होता है कि महान ईश्वर ने उसका आदेश दिया है और बुरा काम क्या स्वयं बुरा होता है या इसलिए बुरा होता कि ईश्वर ने उससे दूर रहने को कहा है आज यहां पर हम ईश्वर के न्याय के संबंध में अपनी चर्चा में इसी विषय को आगे बढ़ा रहे हैं। इस पूरी चर्चा में जिस विषय की ओर ध्यान देना आवश्यक है वह यह है कि हर बुद्धिमान व्यक्ति यह समझता है कि यदि कोई अकारण किसी अनाथ के हाथ से उदाहरण स्वरूप रोटी छीन ले या किसी निर्दोश व्यक्ति की हत्या कर दे तो उसने अत्याचार किया है और बुरा काम किया है और उसकी यह समझ और यह निष्कर्ष ईश्वर के आदेश पर निर्भर नहीं होता। अर्थात बुद्धि रखने वाला व्यक्ति इस काम को बुरा इसलिए नहीं समझता कि ईश्वर ने इस काम को बुरा कहा है क्योंकि हम देखते हैं कि ईश्वर के अस्तित्व का इन्कार करने वाले और धर्म व परलोक पर विश्वास न करने वाले भी इन कामों को बुरा समझते हैं। तो यदि हम यह मान लें कि बुरे काम की बुराई और अच्छे काम की अच्छाई ईश्वर के आदेश पर निर्भर होती है तो जो लोग धर्म और ईश्वर में विश्वास ही नहीं रखते फिर भी अत्याचार को बुरा और न्याय को अच्छा समझते हैं उनके बारे में क्या कहेंगे
?
इस प्रकार से हम यह कह सकते हैं कि बुरा काम केवल इसीलिए बुरा नहीं होता कि ईश्वर ने उसे बुरा कहा है बल्कि कुछ मनुष्य की बुद्धि में भी यह शक्ति होती है कि वह भलाई व बुराई को बिना ईश्वर व धर्म के आदेश को जाने
,समझे और उससे दूर रहे या उसके निकट जाए। अलबत्ता यह एक अलग चर्चा है कि वह कौन सी शक्ति है और किस प्रकार की योग्यता है जिसके बल पर मनुष्य भलाई को भला और बुराई को बुरा समझने में सक्षम होता है।
ईश्वर के न्याय के बारे में चर्चा के लिए बस इतना जान लेना पर्याप्त है कि हर वस्तु में स्वंय ही भलाई या बुराई का पहलु होता है और ईश्वर बुराई से बचने और भलाई करने का आदेश देता है। अब तक की चर्चा से यह स्पष्ट होता है कि न्याय के लिए दो अर्थ दृष्टिगत रखे जा सकते हैं एक दूसरों के अधिकारों का सम्मान और दूसरे सूझबूझ के साथ कोई काम करना जिसमें दूसरों के अधिकारों का सम्मान भी शामिल है। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि न्याय का अर्थ समानता व बराबरी कदापि नहीं है बल्कि न्याय हर एक को उसका स्थान व अधिकार देना है। उदाहरण स्वरूप शिक्षक यदि अपने सारे छात्रों को चाहे वह पढ़ने वाले हों या पढ़ाई से मन चुराने वाले हों
,चाहे परिश्रमी हों या आलसी हों समान रूप से प्रोत्साहित अथवा दंडित करे तो हमने न्याय के जो अर्थ बताए हैं उसके अनुसार वह शिक्षक न्यायी नहीं होगा। या उदाहरण स्वरूप यदि किसी संपत्ति के बारे में दो पक्षों में विवाद हो जाए और न्यायधीश दोनों पक्षों को समान रूप से वह संपत्ति बांट दे तो यह न्याय नहीं होगा ।
शिक्षक का न्याय यह है कि वह प्रत्येक छात्र को उसकी योग्यता और परिश्रम के अनुरूप दंड या प्रोत्साहन दे। न्यायधीश का न्याय यह है कि वह संपत्ति उसे दे जिसकी वास्तव में वह हो। इस प्रकार से यह स्पष्ट हो गया कि समानता हर स्थान पर न्याय नहीं हो सकती बल्कि कहीं -कहीं अत्याचार व अन्याय हो जाती है। इसी प्रकार से ईश्वर के न्यायी होने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि वह अपनी सभी रचनाओं को समान रूप से बनाए या उन्हें समान रूप से सुविधांए दे। उदाहरण स्वरूप मनुष्य को पंख व सींग आदि भी दे और पशुओं को बुद्धि व कथन की शक्ति प्रदान करे।
ईश्वर के न्याय व तत्वदर्शिता का अर्थ यह है कि वह संसार को ऐसा बनाए जिससे उसमें रहने वालों को अधिक से अधिक लाभ प्राप्त हो सके और संसार की विभिन्न वस्तुएं और प्राणी इस प्रकार से बनाए गये हों कि एक दूसरे के अंश व एक दूसरे की आवश्यकताओं के पूरक के रूप में अपने अंतिम लक्ष्य के अनुरूप भी हों। इसी प्रकार ईश्वर के न्याय व तत्वज्ञान का अर्थ यह नहीं है कि हर मनुष्य को समान बनाए बल्कि न्याय यह है कि हर मनुष्य को उसकी योग्यता और क्षमता के अनुरूप कर्तव्य दिया जाए और फिर उस कर्तव्य के पालन में उसकी स्वेच्छिक गतिविधियों और कामों को दृष्टि में रखते हुए उसे दंड या प्रतिफल दिया जाए। तो यदि हम यह देखते हैं कि मनुष्य असमान दशा में है तो इसका अर्थात यह नहीं है कि ईश्वर ने मनुष्य के साथ न्याय नहीं किया बल्कि यदि सारे मनुष्य समान दशा में होते तो यह अन्याय होता क्योंकि हम ने बताया कि न्याय का अर्थ हर अधिकारी को उसका अधिकार देना और हर वस्तु को उसके स्थान पर रखना है।
यह कोई बहुत गूढ़ विषय नहीं है। हम अपने जीवन में हर क़दम पर इस अर्थ को साक्षात देखते हैं। किसी भी कंपनी या संस्था में सभी कर्मचारियों को समान अधिकार और समान सुविधाएं प्राप्त नहीं होती। बल्कि हर एक को उसकी शिक्षा
,अनुभव
,रिकार्ड
,काम और पद के अनुसार वेतन और सुविधाएं प्राप्त होती हैं। इस प्रकार के स्थानों पर यदि समान अधिकार व सुविधाएं प्रदान की जाए तो यह न्याय नहीं बल्कि अन्याय होगा। हमारी अगली चर्चा महान व सर्वसमर्थ ईश्वर के न्याय के प्रमाणों के बारे में होगी।
महान ईश्वर और तत्वज्ञान
जैसा कि हमने अपनी पिछली चर्चाओं में कहा कि एक व्याख्या के अनुसार ईश्वरीय न्याय ईश्वरीय तत्वदर्शिता का एक भाग है और दूसरी व्याख्या के अनुसार न्याय ही तत्वदर्शिता है।
ईश्वर की तत्वदर्शिता या तत्वज्ञान का अर्थ है कि ईश्वर हर काम वैसा ही करता है जैसाकि उसे होना चाहिए अर्थात उसका हर काम लक्ष्यपूर्ण व उद्देश्यपूर्ण होता है भले ही विदित रूप से हमारी बुद्धि उसे समझ न सके। अब यदि न्याय का अर्थ ईश्वर के तत्वज्ञान को ही समझा जाए तो फिर ईश्वर के न्याय को प्रमाणित करने का वही मार्ग होगा जो उसके तत्वज्ञान को प्रमाणित करने के लिए है।
इस कार्यक्रम की आरंभिक चर्चाओं में हम यह स्पष्ट कर चुके हैं कि ईश्वर का हर काम सूझबूझ और दूरदर्शिता के साथ होता है किंतु यहां पर यदि हम न्याय का अर्थ तत्वज्ञान व तत्वदर्शिता कहते हैं तो इस संदर्भ में ईश्वर के तत्वज्ञान पर हम अधिक विस्तार से चर्चा करेंगे।
यह तो हम जान चुके हैं कि ईश्वर के पास परम शक्ति और अधिकार है और जो काम भी वह चाहे कर सकता है और जो काम न चाहे उस उस काम को करने पर कोई विवश नहीं कर सकता
,न उसे कोई प्रभावित कर सकता है और न ही किसी भी साधन द्वारा उस पर दबाव डाल सकता है। इस प्रकार से यह स्पष्ट हुआ कि ईश्वर जो चाहे कर सकता है और हर काम करने पर वह पूर्ण सक्षम है किंतु इस विश्वास का यह अर्थ नहीं है कि वह हर वह काम करता भी है जिसकी उसमें क्षमता है बल्कि वह केवल वही काम करता है जिसे वह करना चाहता है।
पिछली चर्चाओं में हम यह भी जान चुके हैं कि ईश्वर का इरादा अर्थपूर्ण व लक्ष्यपूर्ण होता है और उसका कोई भी काम उद्देश्य रहित नहीं होता। ईश्वर वही काम करता है जो उसके तत्वज्ञान व तत्व दर्शिता व गुणों के अनुकूल होता है और यदि उसके विशेष गुण किसी काम को अनावश्यक बनाते हों तो वह किसी भी दशा में वह काम नहीं करता और चूंकि ईश्वर सम्मपूर्ण परिपूर्णता है इसलिए उसका इरादा भी सदैव ही उसकी रचनाओं के हित में होता है और यदि किसी वस्तु अथवा प्राणी के अस्तित्व के लिए किसी दुष्टता व अभाव का अस्तित्व आवश्यक होगा तो वह बुराई और दुष्टता
,ईश्वर के इरादे का मूल लक्ष्य नहीं बल्कि हित पहुंचाने की प्रक्रिया के अंश के रूप में होगा। अर्थात ईश्वर की इच्छा व इरादा कभी किसी दुष्टता व बुराई से संबंधित नहीं हो सकता है यदि कभी कोई दुष्टता या बुराई उसने पैदा की है तो किसी भलाई को पूरा करने के लिए ऐसा किया है तो इस दशा में वह दुष्टता वास्तव में हित पहुंचाने की प्रक्रिया का भाग और भलाई होगी। क्योंकि लक्ष्य व उद्देश्य
,साधनों की परिभाषा व महत्व को बदल देते हैं। उदाहरण स्वरूप किसी मनुष्य का सीना चीर कर उसका ह्दय बाहर निकालना बहुत बड़ी बुराई और एक जघन्य अपराध है और विश्व के सभी क़ानूनों में इसे एक बड़ा अपराध माना जाता है किंतु जब यही काम एक डाक्टर आपरेशन थियटर में मनुष्य को हृदय रोग से छुटकारा दिलाने के लिए करता है तो न केवल यह कि यह काम अपराध नहीं होता बल्कि मानवसमाज की बड़ी सेवा भी समझा जाता है। ऐसा क्यों है
?ऐसा इस लिए है क्योंकि सीना चीरना और हदय निकालना भले एक बुरा काम हो किंतु जब डाक्टर द्वारा यह काम होता है तो यह बुराई नहीं रोगी को रोग से मुक्त करने की भलाई का एक भाग और एक चरण होता है।
ईश्वर का इरादा भी यही है अर्थात ईश्वर किसी का बुरा नहीं चाहता और न ही किसी के साथ बुरा करता है और यदि किसी के साथ बुरा होता है तो या तो वह उसके अपने कर्मों का फल होगा या फिर उसके हित में की जाने वाली किसी भलाई की प्रक्रिया का भाग होगा।
इस प्रकार से यदि संसार को देखा जाए तो ईश्वर के गुण ऐसे हैं जिनके दृष्टिगत यह आवश्यक था कि संसार को ऐसा बनाया जाए कि सामूहिक रूप से उसकी व्यवस्था व रचना से सब को अधिक से अधिक लाभ पहुंचे यद्यपि आंशिक रूप से कुछ रचनाओं को विदित रूप से हानि भी पहुंचती दिखायी दे।
ईश्वर और उसके दूत
वास्तव में ईश्वरीय दूत ही मनुष्य द्वारा ईश्वर की पहचान में मुख्य सहायक होते हैं इस लिए ईश्वरीय दूतों की पहचान वास्तव में ईश्वर की पहचान का एक भाग है। इस से पहले इस श्रंखला के आरंभ में हम विस्तार से इस बात पर चर्चा कर चुके हैं कि बुद्धि रखने वाले मनुष्य के सामने अपने लोक- परलोक सृष्टि और इसी प्रकार के ढ़ेर सारे विषयों के बारे में बहुत से प्रश्न आते हैं किंतु उनमें से कुछ प्रश्नों का उत्तर पाना हर बुद्धिमान मनुष्य के लिए आवश्यक होता है और यदि कोई स्वस्थ बुद्धि रखता होगा तो उसके मन में कुछ प्रश्न अवश्य उठेंगे और जब तक उसे उन प्रश्नों का उत्तर नहीं मिलेगा तब तक उसके मन को शांति भी नहीं प्राप्त होगी।
इस प्रकार के प्रश्नों में से कुछ प्रश्न यह हो सकते हैं
संसार और मनुष्य के अस्तित्व का मूल स्रोत किया है
?और उनका संचालन व निर्देशन किस के हाथ में है
?यदि वास्तविक सफलता व कल्याण तक पहुंचने के लिए जीवन के सही मार्ग की पहचान आवश्यक है तो सही मार्ग की पहचान कैसे होगी
?क्या इसके लिए कोई विश्वस्त साधन है
?उस मार्ग तक पंहुचाने वाला कोई भरोसेमंद सहारा है
?यदि है तो किस के पास है
?इन प्रश्नों का उत्तर धर्म के तीन मूल सिद्धान्तों में निहित है और वह तीन मूल सिद्धान्त एकेश्वरवाद
,प्रलय और ईश्वरीय दूतों के आगमन पर विश्वास है। इस श्रंखला के आरंभ में यदि आप को याद हो तो हमने ईश्वर की पहचान पर चर्चा की और चर्चा के दौरान हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि हर वस्तु का मूल स्रोत इस संसार का रचयिता और पालनहार है और सब कुछ उसके नियंत्रण व तत्वज्ञान के अंतर्गत चल रहा है और इस सृष्टि की कोई भी वस्तु किसी भी स्थान में किसी भी स्थिति में किसी भी तरह से ईश्वर से आवश्यकतामुक्त नहीं हो सकती।
हमने अब तक की चर्चा में यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि इस संसार का कोई रचयिता है इसके साथ ही उस रचयिता की कुछ विशेषताओं का भी वर्णन किया और इसके लिए केवल बौद्धिक तर्कों का ही सहारा लिया गया किंतु जब बौद्धिक तर्कों से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध हो गया है अर्थात यदि हमने मान लिया है कि इस संसार का स्वामी एक अनन्त शक्ति स्रोत व आवश्यकता मुक्त अस्तित्व है और उसका अस्तित्व ऐसा है जिसके आयामों को पूरी तरह से समझना असंभव है किंतु उसके चिन्हों और लक्षणों से उसकी विशेषताओं के कुछ भागों को समझा जा सकता है तो अब इस चरण की वार्ता में हम कुछ बातें उसके हवाले से कर सकते हैं अर्थात बौद्धिक तर्कों के साथ ही साथ ईश्वर के कुछ आदेशों का भी हवाला दे सकते हैं।
अब हम जो चर्चा आरंभ करने जा रहे हैं उसका उद्देश्य इस बात को सिद्ध करना है कि सृष्टि की वास्तविकता और जीवन के सही मार्ग की पहचान के लिए बोध व बुद्धि के अतिरिक्त भी कुछ अन्य साधन मौजूद हैं जो इतने विश्वस्नीय हैं कि उनसे गलती करने की संभावना नहीं है। यहां पर यह भी बताते चलें कि आज के कार्यक्रम में हम जो भी चर्चा करेंगे वह वास्तव में भूमिका होगी इस लिए ध्यान से पढ़ें क्योंकि हो सकता है कि हमारी बात टुकड़े- टुकड़े में लगे किंतु अगली चर्चाओं में इन विषयों का ज्ञान आवश्यक है जिनका हम अपनी आज की चर्चा में वर्णन कर रहे हैं।
वह साधन जो जिसमें गलती की कोई संभावना नहीं है ईश्वरीय संदेश है। ईश्वरीय संदेश अर्थात एक प्रकार से ईश्वरीय शिक्षा है जो ईश्वर के कुछ चुने हुए दासों से विशेष होती है और साधारण लोगों को उसकी वास्तविकता का ज्ञान नहीं होता क्योंकि इस प्रकार की ईश्वरीय शिक्षाओं का कोई चिन्ह उनके भीतर नहीं होता अलबत्ता साधारण लोग भी इस बात पर सक्षम होते हैं कि जब कोई यह दावा करे कि उसके पास ईश्वरीय संदेश आते हैं तो आवश्यक चिन्हों और लक्षणों से इस बात की पुष्टि कर सकते हैं कि ईश्वरीय संदेश का पात्र होने का दावा करने वाला सच बोल रहा है या नहीं।
स्वाभाविक रूप से यदि साधारण लोगों के लिए यह सिद्ध हो जाए कि किसी के पास ईश्वरीय संदेश आते हैं और वह संदेश दूसरों तक भी पहुंचे तो फिर उस संदेश को स्वीकार करना आवश्यक होगा और उसका विरोध करना किसी के लिए सही नहीं होगा। इस प्रकार इस चर्चा के मूल विषय इस से प्रकार होंगेः ईश्वरीय दूतों के धरती पर आने की आवश्यकता क्यों है
?ईश्वर से संदेश प्राप्त करने के बाद और लोगों तक उसे पहुंचाने से पूर्व ईश्वरीय संदेशों में फेर बदल नहीं हो सकती
,अर्थात ईश्वरीय दूत ग़लती या भूल से सुरक्षित होता है और इसी प्रकार इस बात पर भी चर्चा करेंगे कि यह कैसे सिद्ध होगा कि कौन ईश्वरीय दूत है और कौन झूठ बोल रहा है।
जब हम इस बात पर चर्चा कर लेंगे कि ईश्वर के संदेशों को आम लोगों तक पहुंचाने के लिए ईश्वरीय दूतों की आवश्यकता है तो फिर इस बात पर चर्चा करेंगें कि ईश्वरीय दूत इतिहास में कौन लोग रहे हैं और अंतिम दूत है
?और अंतिम दूत के बाद लोगों के मार्गदर्शन का दायित्व किस पर है
?इन सब बातों को लेकर हमारी चर्चा आरंभ हो चुकी है किंतु आज की चर्चा अगली चर्चाओं की भूमिका थी।
ईश्वरीय दूत और अनुसरण
कुछ लोग यह शंका करते हैं कि यदि ईश्वर ने अपने दूतों को लोगों के मार्गदर्शन के लिए भेजा और उसके दूतों ने यह काम पूरी ज़िम्मेदारी से किया तो फिर विश्व में इतने अधिक लोग पाप क्यों करते हैं
?और क्यों इतने व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार दिखाई देता है
?क्या यह संभव नहीं था कि ईश्वर कोई ऐसी व्यवस्था करता जिससे लोग पाप ही न करते और पूरे विश्व में केवल भलाई और भले लोग ही रहते
?या कम से कम ईश्वरीय दूतों का अनुसरण करने वाले ही एकजुट रहते किंतु हम देखते हैं कि ऐसा नहीं है और विभिन्न कालों में ईश्वरीय दूतों के अनुयाई भी एक दूसरे से लड़ते दिखाई देते हैं।
इस शंका का उत्तर देने से पूर्व हम उस चर्चा की याद दिलाना चाहेंगे जिसमें हम ने मनुष्य में चयन अधिकार की बात की थी और आपको याद होगा कि हमने कहा था कि ईश्वर ने संसार से सभी मनुष्यों को चयन शक्ति दी है। अर्थात हर मनुष्य को यह अधिकार दिया है कि वह सही या ग़लत मार्ग में से किसी एक मार्ग का चयन करे और यह अधिकार ईश्वरीय न्याय के अनुकूल है क्योंकि यदि ईश्वर लोगों को विवश करता तो फिर भले को भलाई का इनाम और बुरे को बुराई का दंड देना अर्थहीन हो जाता क्योंकि बुरा व्यक्ति कह सकता है कि यदि मैंने बुराई की है तो इसमें मेरा क्या दोष
?ईश्वर ने मुझे बुराई करने पर विवश किया था। इसी प्रकार वह भले व्यक्ति को मिलने वाले इनाम पर भी आपत्ति कर सकता था कि यदि किसी ने कोई अच्छा काम किया है तो उसमें उसका क्या कारनामा है
?ईश्वर ने चाहा कि वह अच्छाई करे इस लिए उसने अच्छाई की।
इसी प्रकार की आपत्तियों और आतार्किक परिस्थितियों के दृष्टिगत ईश्वर ने मनुष्य को यह अधिकार दिया है अर्थात उसे चयन का अधिकार दिया है अलबत्ता चयन में सरलता के लिए उसने मनुष्य के लिए बहुत से साधन भी उपलब्ध किये हैं।
ईश्वर ने जो साधन उपलब्ध किये उनमें सर्वप्रथम मनुष्य की अपनी बुद्धि है अर्थात मनुष्य को बुद्धि जैसा उपहार दिया है जिसकी सहायता से वह भले- बुरे की पहचान कर सकता है किंतु चूंकि बुद्धि पर कभी- कभी वातावरण और घर परिवार का वातावरण प्रभाव डालता है इस लिए ईश्वर ने अपने दूतों को भेजा ताकि यदि कुछ वास्तविकताओं को बुद्धि भूल गयी है तो ईश्वरीय दूत उसे याद दिलाएं किंतु ईश्वर ने जो यह व्यवस्था की है उसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि सारे मनुष्य इन सुविधाओं और साधनों से सही रूप में लाभ उठायेंगे।
ईश्वर ने मनुष्य को परिपूर्णता की ओर ले जाने की जो व्यवस्था की थी और जिसके अतंर्गत उसने दूत भेजे और उन्होंने कल्याण व परिपूर्णता के साधनों से मनुष्य को अवगत कराया तो यदि सारे मनुष्य उन साधनों और ईश्वर की इस कृपा से लाभान्वित होते तो निश्चित रूप से स्वर्ग धरती पर उतर आता अर्थात यह पूरा संसार पवित्रता का उदाहरण होता और भ्रष्टाचार व पाप तथा बुराई का कहीं कोई चिन्ह नहीं होता किंतु हम देखते हैं कि बहुत से लोग न तो अपनी बुद्धि की सुनते हैं और न ही ईश्वरीय दूतों के संदेशों पर ध्यान देते हैं और इसीलिए बुराईयों में डूब जाते हैं अब यदि ईश्वर कोई ऐसी व्यवस्था करता जिससे पूरे संसार में कोई बुराई न कर पाता तो फिर मनुष्य से चयन का अधिकार छिन जाता जिसके बाद फिर स्वर्ग व नर्क की पूरी व्यवस्था अर्थहीन हो जाती। अर्थात यदि ईश्वर अपनी शक्ति से इस संसार से बुराई मिटा देता तो फिर चयन शक्ति के स्वामी मनुष्य को इस संसार में भेजने और उसकी परीक्षा लेकर उसे दंड या पुरस्कार देने की पूरी ईश्वरीय व्यवस्था ही चरमरा जाती।
इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि मनुष्य में अवज्ञा व पाप में रूचि का मुख्य कारण वास्तव में उसके भीतर चयन शक्ति की उपस्थिति है। यद्यपि ईश्वर का मूल उद्देश्य यह नहीं था बल्कि उसका मूल उद्देश्य मनुष्य की परिपूर्णता है किंतु चूंकि मूल उद्देश्य की पूर्ति के लिए मनुष्य के पास अधिकार व चयन शक्ति का होना आवश्यक है इसलिए इस अधिकार व चयन शक्ति के ग़लत प्रयोग द्वारा मनुष्यों का विनाश व पतन संभव है
ईश्वर चाहता है कि सारे लोग सत्यवादी व भले हों किंतु सच्चाई का रास्ता उन्होंने स्वंय चुना हो और किसी दूसरी शक्ति ने उन्हें इस पर विवश न किया हो। क्योंकि यदि दूसरी शक्ति उन्हें इस पर विवश करेगी तो फिर उनकी भूमिका का कोई महत्व नहीं रहेगा।
ईश्वरीय दूतों के संदर्भ में एक शंका यह भी की जाती है कि इस बात के दृष्टिगत कि ईश्वर यह चाहता है कि मनुष्य अधिक से अधिक उच्च श्रेणी व परिपूर्णता तक पहुंचे तो क्या यह उचित नहीं था कि ईश्वर अपने दूतों द्वारा मनुष्य को इस प्रकृति में छुपे हज़ारों रहस्यों से अवगत करा देता जिससे मानव समाज की प्रगति की गति तेज़ होती। अर्थात जब ईश्वरीय दूतों को प्रकृति के समस्त रहस्यों का ज्ञान था तो उन्होंने मानव जीवन को सरल बनाने वाले इन साधनों के आविष्कार में मनुष्य की सहायता क्यों नहीं की। आज मनुष्य जिस प्रकार के आधुनिक साधनों से लाभ उठा रहा है वह साधन ईश्वरीय दूतों के काल में क्यों नहीं थे
?क्योंकि ईश्वरीय दूतों ने इन साधनों के आविष्कार में मनुष्य की सहायता नहीं की और क्यों इस प्रकार के रहस्यों से पर्दा नहीं उठाया क्योंकि यदि वह ऐसा करते तो मनुष्य के जीवन को सुविधाजनक बनाने वाले आधुनिक साधनों से इतने वर्षों तक मानव समाज वंचित न रहता।
यह अत्यधिक महत्वपूर्ण शंका है इस शंका और इसके उत्तर पर अगले कार्यक्रम में विस्तार से चर्चा करेंगे।
ईश्वरीय दूत और आधुनिक प्रगति
पिछले कार्यक्रम में हमने एक शंका का उल्लेख किया था कि कोई यह कह सकता है कि यदि ईश्वरीय दूत मानव समाज के कल्याण के लिए आए थे तो फिर उन्होंने क्यों नहीं मानव समाज के सामने ज्ञान पर पड़े सारे पर्दे हटा दिये ताकि मनुष्य प्रगति व विकास के उस स्थान पर एकदम से पहुंच जाता जहां तक उसे पहुंचने में शताब्दियां लगी हैं। शकां यह है कि यदि ईश्वर ने अपने दूतों को मानव समाज के कल्याण के लिए भेजा था तो फिर उसने क्यों नहीं अपने दूतों द्वारा मनुष्य को उदाहरण स्वरूप टीबी या इंफ्लुंज़ा या प्लेग जैसे रोगों का उपचार बताया जो शताब्दियों तक लाखों लोगों की मृत्यु का कारण बने और यह भी आपत्ति यह की जाती है कि ईश्वर को तो हर वस्तु का ज्ञान है तो फिर उसने क्यों नहीं अपने दूतों द्वारा मनुष्य को उदाहरण स्वरूप बिजली या आज के आधुनिक संचार माध्यमों से लाभ उठाने का अवसर प्रदान किया
?अर्थात उसके दूतों ने क्यों नहीं इन सब वस्तुओं का आविष्कार किया
?यदि वे ऐसा करते तो एक ओर तो समाज का भला होता और मनुष्य को वह सुविधाएं जिन्हें प्राप्त करने में सैंकड़ों वर्ष लग गये
,बहुत पहले ईश्वरीय दूतों द्वारा प्राप्त हो जातीं और दूसरी ओर इस से समाज पर ईश्वरीय दूतों के प्रभाव में वृद्धि होती और समाज पर उनकी पकड़ मज़बूत होती तथा इससे उन्हें अपना अभियान पूरा करने में भी सरलता होती और वे अपने ईश्वरीय लक्ष्य तक पहुंच जाते।
इस शंका का उत्तर यह है कि ईश्वरीय दूतों और ईश्वरीय संदेश की आवश्यकता उन विषयों के लिए होती है जिन तक मनुष्य अपने साधारण ज्ञान द्वारा नहीं पहुंच सकता किंतु यदि उसे उन विषयों का ज्ञान नहीं होगा तो वह परिपूर्णता तक भी नहीं पहुंच पाएगा। अर्थात ईश्वरीय दूत उन विषयों का वर्णन करते हैं जिन का ज्ञान परिपूर्णता और परलोक में सफलता के लिए अनिवार्य है किंतु वह विषय ऐसे हैं जिन्हें मनुष्य अपने साधारण ज्ञान से समझ नहीं सकता इसलिए ईश्वर ने इस प्रकार की सूचनाओं व जानकारियों से मनुष्य को अवगत कराने के लिए ईश्वरीय दूत और अपने संदेश का प्रंबंध किया है।
इस बात को हम यदि अधिक स्पष्ट करते हुए कहेगें कि ईश्वरीय दूतों का मुख्य कर्तव्य यह है कि वह लोगों की सही जीवन शैली और परिपूर्णता की ओर बढ़ने में सहायता करें ताकि वह हर स्थिति में अपने कर्तव्यों को पहचानें और अपनी योग्यताओं को अपने इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए प्रयोग करें। ईश्वरीय दूतों का यह अभियान और कर्तव्य मानव समाज के हर वर्ग से संबंधित और सब के लिए समान होता है अर्थात समाज के हर वर्ग के लिए मानवीय मूल्यों की प्राप्ति और ईश्वर के प्रति अपने कर्तव्यों की जानकारी आवश्यक है। इसके साथ ही यह भी जानना आवश्यक है कि सृष्टि के अन्य प्राणियों और वस्तुओं के प्रति उनका व्यवहार कैसा हो और अन्य लोगों के बारे में उनके क्या दायित्व हैं ताकि वे इन बातों पर ध्यान रखें और परिपूर्णिता और परलोक की सफलता तक पहुंच जाएं।
यह नियम समाज के किसी एक वर्ग
,जाति या समुदाय या इतिहास के किसी युग से विशेष नहीं है बल्कि हर युग के और हर वर्ग
,जाति व समुदाय के मनुष्य के लिए समान है किंतु योग्यताओं
,साधनों तथा प्राकृतिक व उद्योगिक साधनों में भिन्नता विशेष परिस्थितियों के अंतर्गत होती है और उनकी मनुष्य के परिपूर्णता और परलोक की सफलता में कोई भूमिका नहीं होती जैसाकि आज के आधुनिक युग के अधिकांश आविष्कार संसारिक सुख भोग में सरलता का कारण है किंतु आध्यात्मिक विकास में उनकी कोई भूमिका नहीं है बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि इस प्रकार के साधनों से मनुष्य में आध्यात्मिक भावना कमज़ोर पड़ी है। इस प्रकार से निष्कर्ष यह निकला कि ईश्वर की तत्वदर्शिता व तत्वज्ञान के अनुसार मनुष्य भौतिक साधनों व वस्तुओं को प्रयोग करते हुए अपना संसारिक जीवन व्यतीत करे और बुद्धि
,ईश्वरीय संदेश और ईश्वरीय दूतों की सहायता से अपना आध्यात्मिक जीवन सुव्यस्थित करे और अपनी परलोक की सफलता की दिशा का निर्धारण करे। यह जो विभिन्न समाजों की प्रगतियों व साधनों में अंतर होता है और इसी प्रकार विभिन्न युगों में सुविधाओं और साधनों में अंतर नज़र आता है तो वह वास्तव में सृष्टि की उस महा व्यवस्था के कारण है जो ईश्वर ने निर्धारित कर दी है अर्थात कारक और परिणाम के सिद्धान्त के अंतर्गत है। अर्थात ईश्वर ने इस सृष्टि में हर वस्तु निहित की है किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि वह हर प्रगति और विकास तक मनुष्य का हाथ पकड़ कर उसे पहुंचाएं। ईश्वर ने हर प्रकार के ज्ञान और हर वस्तु के लिए कुछ चरणों का निर्धारण किया है और मनुष्य जब भी उन चरणों से गुज़रेगा तो उसके परिणाम तक पहुचं जाएगा अब वह मनुष्य चाहे जिस धर्म जाति या समुदाय का हो या चाहे जिस युग का हो इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। यही कारण है कि हम वैज्ञानिक प्रगति और सुख सुविधाओं और साधनों की भरमार को ईश्वर के प्रेम व निकटता का प्रमाण नहीं कह सकते। अर्थात यदि किसी धर्म के अनुयाईयों ने अत्यधिक वैज्ञानिक प्रगति की हो और उन्हें सुख सुविधाएं भी प्राप्त हों तो हम यह नहीं कह सकते कि यह उनके धर्म के सच्चे होने का प्रमाण हैं क्योंकि ज्ञान व प्रगति एक गंतव्य है जिसका एक निर्धारित मार्ग है और ईश्वर ने व्यवस्था यह की है कि जो भी उस निर्धारित मार्ग पर चलेगा वह उसके निर्धारित गंतव्य तक पहुंचेगा। इसके अतिरिक्त यह भी स्पष्ट है कि ससांरिक साधन किसी भी रूप से आध्यात्मिक विकास में सहायक नहीं होते और ऐसा बहुत देखा गया है कि संसारिक साधनों से वंचित बहुत से लोग
,आध्यात्म की ऊंची चोटियों तक पहुंचे होते हैं और संसारिक साधनों और समृद्धता में डूबे हुए लोग आध्यात्मिक रूप से खाली होते हैं किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि ईश्वरीय दूतों ने अपने मुख्य कर्तव्य के अलावा मनुष्य के संसारिक विकास पर ध्यान ही नहीं दिया। ईश्वरीय दूतों ने बेहतर संसारिक जीवन के लिए जहां भी ईश्वर ने उचित समझा प्रकृति के रहस्यों से पर्दा हटाकर मानव सभ्यता के विकास में उनकी सहायता की जिसके बहुत से उदाहरण ईश्वरीय दूतों की जीवनियों में मिलते हैं किंतु यह इस प्रकार के सारे काम ईश्वरीय दूतों के कर्तव्य से अतिरिक्त काम थे जो सेवाओं के अंतर्गत थे।
ईश्वर और उसका ज्ञान
हमने ईश्वरीय दूतों की उपस्थिति की आवश्यकता और उस पर कुछ शंकाओं पर चर्चा की किंतु जब हम यह कहते हैं कि मानव ज्ञान सीमित है और मनुष्य केवल अपने ज्ञान के बल पर ही ईश्वरीय अर्थों की पूर्ण रूप से जानकारी प्राप्त नहीं कर सकता और उसके लिए ईश्वरीय संदेश आवश्यक है तो एक अन्य विषय सामने आता है कि साधारण मनुष्य में वह क्षमता नहीं होती है जिसके द्वारा वह ईश्वरीय संदेश को सीधे रूप से प्राप्त कर सके अर्थात ईश्वरीय संदेश मानव ज्ञान को ईश्वरीय शिक्षाओं तक पहुंचाने के लिए आवश्यक है इस पर हम चर्चा कर चुके हैं किंतु यह भी स्पष्ट सी बात है कि हर मनुष्य में यह योग्यता नहीं होती कि वह ईश्वरीय संदेश स्वंय प्राप्त कर सके क्योंकि ईश्वरीय संदेश प्राप्त करने के लिए कुछ विशेषताओं की आवश्यकता होती है जिससे अधिकांश लोग वंचित होते हैं।
तो फिर ऐसी स्थिति में यदि सारे लोग ईश्वरीय संदेश प्राप्त नहीं कर सकते किंतु ईश्वरीय संदेश की आवश्यकता सबको है तो फिर एक ही दशा रह जाती है और वह यह कि कुछ विशेष लोग ईश्वरीय संदेश प्राप्त करें और फिर दूसरे लोगों तक उसे पहुंचाए और ताकि सब लोग उससे लाभ उठाएं और यह विशेष ही वास्तव में ईश्वरीय दूत होते हैं किंतु इस स्थिति में प्रश्न यह उठता है कि इस बात की क्या ज़मानत है कि ईश्वरीय दूतों या उन विशेष लोगों ने ईश्वरीय संदेश सही रूप से प्राप्त किया है और फिर सही रूप से उसे लोगों तक पहुंचाया है
?
फिर यह भी प्रश्न है कि यदि ईश्वरीय दूतों तक ईश्वर का संदेश किसी माध्यम द्वारा पहुंचा है तो वह माध्यम सही है और उसने पूरी सच्चाई के साथ ईश्वरीय संदेश ईश्वरीय दूतों तक पहुंचाया है इसकी क्या ज़मानत है
?
यह एक तथ्य है कि ईश्वरीय संदेश मानव जीवन में पूरक की भूमिका निभाता है क्योंकि उसकी उपयोगिता ही यही है किंतु उसकी यह भूमिका उसी समय हो सकती है जब उसकी सच्चाई में किसी भी प्रकार का संदेश न हो अर्थात ईश्वरीय संदेश को मुख्य स्रोत से एक साधारण मनुष्य तक पहुंचने के लिए जो व्यवस्था हो वह ऐसी हो कि उसके बारे में किसी को किसी भी प्रकार का संदेह न हो। अर्थात यह व्यवस्था ऐसी हो कि कोई यह न सोचे कि हो सकता है ईश्वरीय संदेश कुछ और रहा हो और ईश्वरीय दूत ने जान बूझकर या ग़लती से उसमें कोई फेरबदल कर दी है। यदि ईश्वरीय संदेश के बारे में इस प्रकार की शंका उत्पन्न हो जाएगी तो उसकी उपयोगिता समाप्त हो जाएगी क्योंकि लोगों का उस पर से विश्वास उठ जाएगा और लोग हर आदेश के बारे में शंका में पड़ गये जाएगें कि यह आदेश ईश्वर का है या फिर उसमें कोई फेर- बदल कर दी गयी है
?तो प्रश्न यह उठता है कि यह विश्वास कैसे प्राप्त किया जाए
?स्पष्ट सी बात है कि यह विश्वास प्राप्त करना भी कठिन है क्योंकि यह संदेश उन लोगों तक पहुंचाया जाएगा जिनमें उस संदेश को सीधे रूप से प्राप्त करने की योग्यता नहीं होगी और जब उनमें इस प्रकार की योग्यता नहीं होगी तो स्पष्ट है कि उन्हें ईश्वरीय संदेश के सही प्रारूप का भी पूर्ण रूप से ज्ञान नहीं होगा और जब उन्हें ईश्वरीय संदेश के सही प्रारूप का ज्ञान नहीं होगा तो यह निर्णय भी अंसभव होगा कि संदेश सही प्रारूप में उन तक पहुंचा है या फिर उसमें कोई फेर- बदल की गयी है
?
यह भी हम बता चुके हैं कि साधारण मनुष्य को परलोक के कल्याण के लिए ईश्वरीय ज्ञान की आवश्यता इसलिए होती है क्योंकि उसकी बुद्धि की सीमा होती है इसीलिए वह ईश्वरीय संदेशों को अपनी बुद्धि पर भी परख नहीं सकता तो फिर आम मनुष्य को यह विश्वास कैसे हो कि ईश्वरीय दूत
,ईश्वरीय संदेश के नाम पर जो कुछ उनसे कह रहे हैं वह वास्तव में ईश्वरीय संदेश है और उसमें किसी प्रकार की कोई फेर- बदल नहीं की गयी है
?इस शंका का उत्तर इस प्रकार से दिया जा सकता है कि हम यह सिद्ध कर चुके हैं हमारी बुद्धि कुछ बौद्धिक तर्कों के आधार पर इस बात को आवश्यक समझती है कि मनुष्य के मार्गदर्शन के लिए ईश्वरीय संदेश का होना आवश्यक है। इसी प्रकार हमारी बुद्धि यह बात बड़ी सरलता से समझ सकती है कि ईश्वरीय कृपा व ज्ञान के अंतर्गत यह आवश्यक है कि उसका संदेश सही रूप और प्रारूप में लोगों तक पहुंचे क्योंकि यदि सही रूप में नहीं पहुंचेगा या संदिग्ध होगा तो उससे लोगों का विश्वास उठ जाएगा और विश्वास उठने से उसकी उपयोगिता समाप्त हो जाएगी और हम इस पर चर्चा कर चुके हैं कि ईश्वर के तत्व ज्ञान के दृष्टिगत इस बात की कोई संभावना नहीं है कि वह ऐसा कोई काम करे जो निरर्थक हो।
दूसरे शब्दों में जब यह ज्ञान हो गया कि ईश्वरीय संदेश एक या कई माध्यमों से जनता तक पहुंचते हैं ताकि मनुष्य पूर्णरूप से अपने अधिकार से लाभ उठा सके जो वास्तव में ईश्वर का उद्देश्य है तो फिर ईश्वर और उसके गुणों के संदर्भ में हमारी जो विचार धारा है और उसके तत्वज्ञान के आधार पर हमें यह भी मानना होगा कि यह ईश्वर अपने संदेश को सुरक्षित रूप से आम लोगों तक पहुंचाने की व्यवस्था करेगा क्योंकि यदि उसने इसकी कोई व्यवस्था नहीं की कि उसका संदेश उसके बंदो तक सुरक्षित रूप में और बिना किसी हेर- फेर के पहुंचें तो यह उसके तत्वज्ञान से दूर और दूरदर्शिता से ख़ाली काम होगा क्योंकि यदि हम यह मान लें कि ईश्वरीय संदेशों में फेर- बदल हो सकती है तो इसका अर्थ यह होगा कि ईश्वर अपने संदेश को गलत लोगों द्वारा फेर-बदल से बचाने में सक्षम नहीं है और हम चर्चा कर चुके हैं कि ईश्वर हर काम में सक्षम है और विवशता उसके निकट फटक भी नहीं सकती अर्थात ईश्वर कभी भी किसी भी दशा में विवश नहीं हो सकता बल्कि यह सोचा भी नहीं जा सकता कि वह विवश हो सकता है क्योंकि विवशता सीमा के कारण होती है और ईश्वर की कोई सीमा नहीं है। इन सब विषयों पर हम चर्चा कर चुके हैं।
इसके अतिरिक्त हम इस बात को भी तर्कों द्वारा स्वीकार कर चुके हैं कि ईश्वर को हर वस्तु और हर विषय का ज्ञान है बल्कि वह स्वंय ज्ञान है तो फिर इस विचार के साथ यह नहीं सोचा जा सकता कि वह अपने इस ज्ञान के होते हुए भी अपने संदेश को लोगों तक पहुंचाने के लिए ऐसे माध्यम का चयन करेगा जिससे ग़लती हो सकती हो या जो भूल कर संदेश में उलट- फेर कर सकता हो या उसे उसके असली प्रारूप में लोगों तक पहुंचाने में सक्षम न हो।
इस प्रकार से ईश्वर ऐसे साधन का चयन करेगा जो हर प्रकार से संतोषजनक हो क्योंकि अविश्वस्त साधन का चयन करने का अर्थ यह होगा कि उसे साधन के बारे में पूर्ण ज्ञान नहीं था और यह संभव नहीं है क्योंकि ईश्वर को हर वस्तु का ज्ञान है। तो इस प्रकार से बौद्धिक तर्कों से यह सिद्ध हो गया कि हमने ईश्वर के लिए जिन विशेषताओं को प्रमाणित किया है उनके आधार पर यह आवश्यक है कि उसके द्वारा चुने गये संदेशवाहक विश्वस्त हों और यह बात हमें बौद्धिक तर्कों के आधार पर स्वीकार करनी पड़ेगी और यह वह विषय है जिस पर स्वंय ईश्वरीय संदेशों में भी अत्यधिक बल दिया गया है।
संसार में इतने पापी क्यों
?
ईश्वरीय दूत किसी भी प्रकार से किसी एक क्षेत्र से विशेष नहीं थे और न ही किसी एक क्षेत्र में भेजे गये
यह एक तथ्य है कि लोगों के व्यवहारिक रूप से मार्गदर्शन के लिए दो चीज़ों का होना आवश्यक है। पहली चीज़ यह कि लोग स्वंय इस ईश्वरीय कृपा से लाभ उठाना चाहें और दूसरी चीज़ यह कि अन्य लोग ईश्वरीय कृपा से लाभ उठाने के मार्ग में बाधा उत्पन्न ना करें।
मनुष्य की परिपूर्णता के स्वेच्छिक होने की विशेषता के कारण यह आवश्यक है कि यह पूरी प्रक्रिया कुछ इस प्रकार से आगे बढ़े कि सत्य व असत्य के दोनों पक्षों को सही व गलत मार्ग के चयन का अधिकार प्राप्त रहे और अब आगे की चर्चा
पिछली चर्चा में हम ने ईश्वरीय दूतों की व्यवस्था के बारे में शंका का वर्णन और उसके निवारण पर चर्चा की थी आज इस संदर्भ में की जाने वाली कुछ अन्य शंकाओं पर चर्चा कर रहे हैं।
कुछ लोग यह शंका करते हैं कि यदि ईश्वर ने अपने दूतों को लोगों के मार्गदर्शन के लिए भेजा और उसके दूतों ने यह काम पूरी ज़िम्मेदारी से किया तो फिर विश्व में इतने अधिक लोग पाप क्यों करते हैं
?और क्यों इतने व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार दिखाई देता है
?क्या यह संभव नहीं था कि ईश्वर कोई एसी व्यवस्था करता जिससे लोग पाप ही ना करते और पूरे विश्व में केवल भलाई और भले लोग ही रहते
?या कम से कम ईश्वरीय दूतों का अनुसरण करने वाले ही एकजुट रहते किंतु हम देखते हैं कि एसा नहीं है और विभिन्न कालों में ईश्वरीय दूतों के अनुयाई भी एक दूसरे से लड़ते दिखाई देते हैं।
इस शंका का उत्तर देने से पूर्व हम उस चर्चा की याद दिलाना चाहेंगे जिसमें हम ने मनुष्य में चयन अधिकार की बात की थी । आपको याद होगा कि हमने कहा था कि ईश्वर ने संसार से सभी मनुष्यों को चयन शक्ति दी है। अर्थात हर मनुष्य को यह अधिकार दिया है कि वह सही या गलत मार्ग में से किसी एक मार्ग का चयन करे और यह अधिकार ईश्वरीय न्याय के अनुकूल है क्योंकि यदि ईश्वर लोगों को विवश करता तो फिर भले को भलाई का इनाम और बुरे को बुराई का दंड देना अर्थहीन हो जाता क्योंकि बुरा व्यक्ति कह सकता है कि यदि मैंने बुराई की है तो इसमें मेरा क्या दोष
?ईश्वर ने मुझे बुराई करने पर विवश किया था । इसी प्रकार वह भले व्यक्ति को मिलने वाले इनाम पर भी आपत्ति कर सकता था कि यदि किसी ने कोई अच्छा काम किया है तो उसमें उसका क्या कारनामा है
?ईश्वर ने चाहा कि वह अच्छाई करे इस लिए उसने अच्छाई की।
इसी प्रकार की आप्तियों और आतार्किक परिस्थितियों के दृष्टिगत ईश्वर ने मनुष्य को यह अधिकार दिया है अर्थात उसे चयन का अधिकार दिया है अलबता चयन में सरलता के लिए उसने मनुष्य के लिए बहुत से साधन भी उपलब्ध किये हैं ।
ईश्वर ने जो साधन उपलब्ध किये उनमें सर्वप्रथम मनुष्य की अपनी बुद्धि है अर्थात मनुष्य को बुद्धि जैसा उपहार दिया है जिसकी सहायता से वह भले बुरे की पहचान कर सकता है किंतु चूंकि बुद्धि पर कभी कभी वातावरण और घर परिवार का वातावरण प्रभाव डालता है इस लिए ईश्वर ने अपने दूतों को भेजा ताकि यदि कुछ वास्तविकताओं को बुद्धि भूल गयी है तो ईश्वरीय दूत उसे याद दिलाएं किंतु ईश्वर ने जो यह व्यवस्था की है उसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि सारे मनुष्य इन सुविधाओं और साधनों से सही रूप में लाभ उठाएं।
ईश्वर ने मनुष्य को परिपूर्णता की ओर ले जाने की जो व्यवस्था की थी और जिसके अतंर्गत उसने दूत भेजे और उन्होंने कल्याण व परिपूर्णता के साधनों से मनुष्य को अवगत कराया तो यदि सारे मनुष्य उन साधनों और ईश्वर की इस कृपा से लाभान्वित होते तो निश्चित रूप से स्वर्ग धरती पर उतर आता अर्थात यह पूरा संसार पवित्रता का उदाहरण होता और भ्रष्टाचार व पाप तथा बुराई का कहीं कोई चिन्ह नहीं होता।
किंतु हम देखते हैं कि बहुत से लोग न तो अपनी बुद्धि की सुनते हैं और न ही ईश्वरीय दूतों के संदेशों पर ध्यान देते हैं और इसी लिए बुराईयों में डूब जाते हैं अब यदि ईश्वर कोई एसी व्यवस्था करता जिससे पूरे संसार में कोई बुराई ना कर पाता तो फिर मनुष्य से चयन का अधिकार छिन जाता जिसके बाद फिर स्वर्ग व नर्क की पूरी व्यवस्था अर्थहीन हो जाती।
अर्थात यदि ईश्वर अपनी शक्ति से इस संसार से बुराई मिटा देता तो फिर चयन शक्ति के स्वामी मनुष्य को इस संसार में भेजने और उसकी परीक्षा लेकर उसे दंड या पुरुस्कार देने की पूरी ईश्वरीय व्यवस्था ही चरमरा जाती।
इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि मनुष्य में अवज्ञा व पाप में रूचि का मुख्य कारण वास्तव में उसके भीतर चयन शक्ति की उपस्थिति है। यद्यपि ईश्वर का मूल उद्देश्य यह नहीं था बल्कि उसका मूल उद्देश्य मनुष्य की परिपूर्णता है किंतु चूंकि मूल उद्देश्य की पूर्ति के लिए मनुष्य के पास अधिकार व चयन शक्ति का होना आव्शयक है इस लिए इस अधिकार व चयन शक्ति के गलत प्रयोग द्वारा मनुष्यों का विनाश व पतन संभव है क्योंकि ईश्वर यह नहीं चाहता के सारे के सारे मनुष्य सत्य व भलाई के मार्ग पर चलें भले ही एसा करने की उनकी इच्छा ना हो और भले की उन्हें सत्य के मार्ग पर चलने के लिए विवश किया गया हो।
ईश्वर चाहता है कि सारे लोग सत्यवादी व भले हों किंतु सच्चाई का रास्ता उन्होंने स्वंय चुना हो और किसी दूसरी शक्ति ने उन्हें इसपर विवश ना किया हो। क्योंकि यदि दूसरी शक्ति उन्हें इस पर विवश करेगी तो फिर उनकी भूमिका का कोई महत्व नहीं रहेगा।
ईश्वरीय दूतों के संदर्भ में एक शंका यह भी की जाती है कि इस बात के दृष्टिगत कि ईश्वर यह चाहता है कि मनुष्य अधिक अधिक उच्च श्रेणी व परिपूर्णता तक पहुंचे तो क्या यह उचित नहीं था कि ईश्वर अपने दूतों द्वारा मनुष्य को इस प्रकृति में छुपे हज़ारों रहस्यों से अवगत करा देता जिससे मानव समाज की प्रगति की गति तेज़ होती।
अर्थात जब ईश्वरीय दूतों को प्रकृति के समस्त रहस्यों का ज्ञान था तो उन्होंने मानव जीवन को सरल बनाने वाले इन साधनों के अविष्कार में मनुष्य की सहायता क्यों नहीं की । आज मनुष्य जिस प्रकार के आधुनिक साधनों से लाभ उठा रहा है वह साधन ईश्वरीय दूतों के काल में क्यों नहीं थे
?क्यों ईश्वरीय दूतों ने इन साधनों के अविष्कार में मनुष्य की सहायता नहीं की और क्यों इस प्रकार के रहस्यों से पर्दा नहीं उठाया क्योंकि यदि वह एसा करते तो मनुष्य के जीवन को सुविधाजनक बनाने वाले आधुनिक साधनों से इतने वर्षों तक मानव समाज वंचित न रहता।
यह अत्याधिक महत्वपूर्ण शंका है इस शंका और इसके उत्तर पर अगले कार्यक्रम में विस्तार से चर्चा करेंगे फिलहाल आज की चर्चा के मुख्य बिन्दुः
हर मनुष्य को यह अधिकार दिया है कि वह सही या गलत मार्ग में से किसी एक मार्ग का चयन करे और उसने चयन में सरलता के लिए मनुष्य के लिए बहुत से साधन भी उपलब्ध किये हैं । और यह अधिकार ईश्वरीय न्याय के अनुकूल है क्योंकि यदि ईश्वर लोगों को विवश करता तो फिर भले को भलाई का इनाम और बुरे को बुराई का दंड देना अर्थहीन हो जाता
ईश्वर ने जो साधन उपलब्ध किये उनमें सर्वप्रथम मनुष्य की अपनी बुद्धि है अर्थात मनुष्य को बुद्धि जैसा उपहार दिया है जिसकी सहायता से वह भले बुरे की पहचान कर सकता है किंतु चूंकि बुद्धि पर कभी कभी वातावरण और घर परिवार का वातावरण प्रभाव डालता है इस लिए ईश्वर ने अपने दूतों को भेजा
किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि सारे मनुष्य ईश्वर की इस कृपा से लाभ भी उठाएं। अगली चर्चा तक के लिए अनुमति दें।
ईश्वरीय दूत और पाप
वास्तव में पाप
,अपराध अथवा ग़लती का अज्ञानता व सूझबूझ से गहरा संबंध है। उदाहरण स्वरूप एक व्यक्ति अपनी आर्थिक समस्याओं के निवारण के लिए परिश्रम करने के स्थान पर चोरी की योजना बनाता है। अपने हिसाब से उसकी योजना पूरी होती है और वह हर पहलु पर ध्यान देते हुए कार्यवाही करता है और अपनी पहचान छुपाने की भी व्यवस्था करता है किंतु फिर भी वह पकड़ा जाता है क्योंकि उसे इस बात का ज्ञान नहीं था कि उदाहरण स्वरूप उस घर की निगरानी की जा रही है और उदाहरण स्वरूप सामने वाले घर में कई सुरक्षा कर्मी रात- दिन उस घर पर नज़र रखे हैं जिसमें वह चोरी करना चाहता है।
यदि उसे इस बात का ज्ञान होता तो वह कदापि उस घर में चोरी न करता।
इसके अतिरिक्त यदि उसमें सूझबूझ होती और बुद्धि पूरी होती तो वह चोरी के परिणामों पर ध्यान देता और दूरदर्शिता से सोचते हुए यह काम न करता। इसीलिए जिन लोगों को अपराध की बुराइयों और परिणामों का भलीभांति ज्ञान होता है।
वे कभी भी अपराध नहीं करते किंतु जिन लोगों का ज्ञान कम होता है और मूर्खों की भांति अपनी बनाई योजना से आश्वस्त होकर सोचते हैं कि वे पकड़े नहीं जाएगें वही अपराध करते हैं और पकड़े जाते हैं।
इस प्रकार से यह स्पष्ट हुआ कि अपराध की बुराई और परिणाम का यदि किसी को सही रूप से पूरी तरह से ज्ञान हो तो वह अपराध नहीं कर सकता।
बिल्कुल यही दशा ईश्वरीय दूतों की होती है। चूंकि ईश्वरीय संदेश प्राप्त करने की योग्यता के कारण उनका ज्ञान पूर्ण और वे विलक्षण बुद्धि के स्वामी तथा दूरदर्शिता व सूझबूझ की चरम सीमा पर होते हैं
इसलिए वे पाप नहीं करते हैं जो वास्तव में धार्मिक अपराध हैं क्योंकि उन्हें पाप की बुराई और उसके परिणाम का पूर्णरूप से ज्ञान होता है।
यह ज्ञान वास्तव में उनकी उन्हीं विशेष क्षमताओं व योग्यताओं के कारण होता है जिसके आधार पर उन्हें ईश्वरीय संदेश प्राप्त करने का पात्र समझा जाता है।
स प्रकार से हम देखते हैं कि ईश्वरीय दूत ज्ञान की उस सीमा पर होते हैं जहां उनकी सूझबूझ और वास्तविकता का ज्ञान उन्हें पाप नहीं करने देता और उनकी दूरदर्शिता व सम्पूर्ण बुद्धि इस बात का कारण बनती है
कि वे हर प्रकार की ग़लती से भी सुरक्षित रहते हैं क्योंकि ग़लती भी अज्ञानता का परिणाम है। उदाहरण स्वरूप कोई व्यक्ति वर्षों तक अपने घर में रहने
और प्रतिदिन आने- जाने के बाद अपने उस घर के मार्ग के बारे में कभी गलती नहीं कर सकता क्योंकि अपने घर के मार्ग के बारे में उसका ज्ञान सम्पूर्ण होता है
किंतु ईश्वरीय दूतों का ज्ञान हर मामले में सम्पूर्ण होता है इसलिए वे किसी भी मामले में ग़लती नहीं करते।
पैग़म्बरों अर्थात ईश्वरीय दूतों के पापों से पवित्र होने की चर्चा को आगे बढ़ाते हुए हम अपनी बात को अधिक स्पष्ट करने के लिए पाप
,पुण्य
,भलाई व बुराई जैसे कामों की इरादे से लेकर काम करने की पूरी प्रक्रिया पर एक दृष्टि डालते हैं ताकि यह स्पष्ट हो सके कि ईश्वरीय दूत स्वेच्छा से पापों से दूर रहते हैं और जो शक्ति उन्हें पापों से दूर रखती है वह उनकी अपनी होती है और इससे शक्ति के प्रभावशाली होने के कारण
,मनुष्य को प्राप्त चयन अधिकार समाप्त नहीं होता।
वास्तव में हर काम चाहे वह सही हो या ग़लत इरादे और इच्छा से आरंभ होता है और काम करने पर जाकर समाप्त होता है किंतु इस पूरी प्रक्रिया में कई चरण आते हैं
जो वास्तव में प्रत्येक मनुष्य की मानसिक दशाओं के अनुसार कम या अधिक होते हैं। उदारहण स्वरूप जब एक मनुष्य कोई काम करने का इरादा करता है तो उसकी अच्छाइयों और बुराईयों और परिणाम के बारे में सोचता है यदि उसका ज्ञान कम किंतु दूरदर्शिता अधिक होती है तो वह उस बारे में जानकारी रखने वालों से भी पूछताछ करता है अन्य लोगों से सलाह- मशविरा करता है
फिर अपने हिसाब से उचित समय की प्रतीक्षा करता है और समय आने पर वह काम कर लेता है किंतु यदि उसमें आत्मविश्वास की कमी होगी तो यह प्रक्रिया उसके लिए लंबी होगी और वह बार- बार अपने फैसले को बदलेगा किंतु यदि उसमें आत्मविश्वास होगा तो वह प्रक्रिया अपेक्षाकृत छोटी होगी और इसी प्रकार यदि किसी के पास उस काम के बारे में पर्याप्त जानकारी के साथ होगी तो उसके लिए काम करने की प्रक्रिया और अधिक छोटी होगी और उसके लिए ढेर सारे इरादों और मनोकामनाओं में से संभव व सरलता से पूरी की जाने वाली कामना तक पहुंचना सरल होगा। इस प्रकार से यह स्पष्ट होता है कि ज्ञान व जानकारी
,जहां गलतियों से बचाव को सुनिश्चित करती है वहीं सही मार्ग के चयन की संभावना को अधिक करती है। इसलिए जानकारी व अनुभव जितना अधिक होगा गलतियों से दूरी उतनी ही निश्चित होगी तो यदि हम किसी ऐसे व्यक्ति की कल्पना करें जिसकी जानकारी व अनुभव पूर्ण हो और उसमें किसी प्रकार की कोई कमी न हो तो फिर उससे गलती की संभावना नहीं होती किंतु उसमें संभावना न होने का अर्थ यह नहीं है कि वह गलतियों से दूर रहने पर विवश होता है और उसमें चयन शक्ति का विशेष अधिकार ही नहीं होता। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे यदि कोई बुद्धि रखने वाला व्यक्ति किसी शर्बत में विष गिरते अपनी आंखों से देख ले तो वह कदापि उस शर्बत को नहीं पीएगा।
अर्थात हम यह कह सकते हैं कि बुद्धि रखने वाला मनुष्य उस शर्बत को पी नहीं सकता किंतु पी नहीं सकता कहने का अर्थ यह नहीं है कि उसमें वह शर्बत पीने की क्षमता ही नहीं है और वह शर्बत न पीने पर विवश है और शर्बत पीने या न पीने के मध्य निर्णय का अधिकार ही उसके पास नहीं है यह अधिकार उसके पास है किंतु बुद्धि व विष के होने का ज्ञान उसे शर्बत पीने से रोक देता है
यही स्थिति ईश्वरीय दूतों की भी होती है एक मनुष्य होने के नाते और ईश्वर द्वारा मनुष्यों को प्रदान की गयी चयन शक्ति व अधिकार के दृष्टिगत यदि वे चाहें तो पाप कर सकते हैं किंतु उन्हें जो वास्तविकताओं का पूर्ण ज्ञान होता है और पापों की बुराइयों से चूंकि वे अवगत होते हैं इसलिए पूर्ण ज्ञान उनके भीतर पाप की इच्छा को जन्म ही नहीं लेने देता किंतु इसका अर्थ यह नहीं होता कि वे पाप करने में अक्षम और मनुष्य को प्रदान किये गये चयन अधिकार से वंचित होते हैं। वास्तव में पापों की बुराई ईश्वरीय दूतों के लिए उसी प्रकार स्पष्ट होती है जैसा बुद्धि रखने वाले के लिए विष की बुराईयों और जिस प्रकार बुद्धि रखने वाला व्यक्ति शर्बत में अपनी आखों से विष गिरते देखने के बाद अपनी इच्छा से उसे नहीं पीता उसी प्रकार ईश्वरीय दूत भी पापों से अपनी इच्छा से दूर रहते हैं और उनकी इस इच्छा का कारण उनका ज्ञान होता है।