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इस्लामी संस्कृति व इतिहास

इस्लामी संस्कृति व इतिहास

हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

अतीत से ही रसायन विज्ञान पर बहुत अधिक ध्यान दिया जाता रहा है। बीते हुए युगों के लोग रसायन ज्ञान को कीमिया के नाम से जानते थे

और इसे ज्ञान ,कला तथा जादू से मिलकर बनने वाला ज्ञान समझते थे किंतु धीरे धीरे इस क्षेत्र में परिवर्तन आया और रसायन शास्त्र उन्नति करते करते वर्तमान रूप तक पहुंचा।

इस ज्ञान में धातुओं और खनिज पदार्थों का उपयोग होता था किंतु यह धारणा पायी जाती थी कि

पदार्थों का केवल भौतिक अस्तित्व ही उनका सब कुछ नहीं बल्कि यह विश्व में कुछ प्रतीकों के रूप में प्रकृति के संबंध में अपनी भूमिका निभाते हैं और यही कारण है

कि इस ज्ञान के विशेषज्ञ पदार्थों के परिचय के लिए ग्रहों का उपयोग करते हैं। जैसे सोने को सूर्य के माध्यम से और चांदी को चंद्रमा के माध्यम से परिचित करवाते हैं।

कुछ रसायन विशेषज्ञ एसे भी थे जो इस ज्ञान के मनोवैज्ञानिक और आत्मिक आयामों पर ध्यान केन्द्रित रखते थे और उनका प्रयास रहता था कि तांबे को सोना बना दें।

उनका मूल लक्ष्य आत्मा का उत्थान और मनुष्य को उच्च मानवीय स्थानों तक पहुंचाना होता था।

प्राचीन काल में रसायन विज्ञान एसा ज्ञान था कि जो प्रकृति का भी अध्ययन करता था और साथ ही

अध्यात्म एवं दर्शनशास्त्र पर भी दृष्टि रखता था। इस ज्ञान में धातु ,भौतिकी ,चिकित्सा ,खगोल शास्त्र अंतरज्ञान तथा अलौकिक दुनिया पर आस्था पर आधारित था।

विशेषज्ञों की दृष्टि में सृष्टि के रचयिता से श्रद्धा रखनी चाहिए जो धातुओं और खनिज पदार्थों को अस्तित्व प्रदान करता है। यह ज्ञान खनिज पदार्थ और धातुओं का गहरा अध्ययन करता था।

कीमिया ज्ञान के विशेषज्ञ पारसमणि नामक पदार्थ की खोज में लगे रहते थे जिसके माध्यम से महत्वहीन धातुओं जैसे लोहा और तांबा को सोना और चांदी बनाया जा सकता था।

वे इस पदार्थ को एक प्रकार की अलौकिक शक्ति भी मानते थे। यह ज्ञान पहली बार पश्चिमी देशों और मिस्र के इसकंदरिया नगर में विधिवत और संकलित विज्ञान के रूप में पेश किया गया।

रसायन विज्ञान के विषय में मुसलमान वैज्ञानिकों का योगदान ध्यान योग्य स्तर तक है।

अनेक तथ्यों और प्रमाणों के आधार पर कहा जा सकता है कि रसायन शास्त्र से जो विषय इस समय मन में आता है उसका यह रूप बारह शताब्दियों पूर्व इस्लाम के उदय के पश्चात मुसलमान वैज्ञानिकों के परिश्रम का प्रतिफल है।

मुसलमान वैज्ञानिकों ने रसायन ज्ञान की विभिन्न शाखाओं पर सघन शोध कार्य किया।

कुछ मुसलमान रसायन शस्त्रियों ने अपना सारा ध्यान रसायन विज्ञान के आंतरिक परिवर्तनों पर ध्यान केन्द्रित किया। कुछ विशेषज्ञों ने विभिन्न पदार्थों की रासायनिक प्रतिक्रिया पर काम किया।

जैसे कि अबुल क़ासिम मोहम्मद इराक़ी ,ज़करिया राज़ी और जाबिर बिन हय्यन तूसी ने रसायन विज्ञान की अलग अलग शाखाओं के बारे में शोध कार्य किए।

मुसलमान रसायन विशेषज्ञों में जाबिर बिन हय्यान को बहुत अधिक ख्याति प्राप्त हुई।

रसायन विज्ञान की सबसे महतव्पूर्ण रचनाओं का संबंध जाबिर बिन हय्यान से ही है जिसे इस्लामी जगत ही नहीं अपितु पश्चिमी देशों में भी रसायन शास्त्र के क्षेत्र में मूल्यवान ज्ञान स्रोत समझा जाता है।

जाबिर बिन हय्यान ईरानी ने और ख़ुरासन के तूस नामक क्षेत्र में उनका जन्म हुआ था। वे पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के शिष्य थे।

उनके जीवन में काया पलट कर देने वाला महत्वपूर्ण कारक इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम की शिक्षाएं और उसने मिलने वाला ज्ञान था।

इतिहासकार इब्ने ख़ल्लकान इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम की जीवनी में लिखते हैं कि उनके शिष्य अबू मूसा जाबिर बिन हय्यान ने एक पुस्तक लिखी है जिसमें हज़रत इमाम जाफ़र सादिख अलैहिस्सलाम के पांच सौ लेख हैं।

जाबिर बिन हय्यान के निकट खनिज पदार्थों का महत्व बहुत अधिक था। धातुओं के रूप को बदलने यहां तक कि सोने को किसी नए धातु में परिवर्तित कर देने की क्रियाओं पर वे विशेष रूप

से ध्यान देते थे। वे प्रकृति के भीतर एक सुव्यवस्था स्थापित करने के लिए प्रयासरत थे किंतु उन्होंने प्रकृति और पराभौतिकी के बीच संपर्क के माध्यम से यह व्यवस्था स्थापित की।

जाबिर बिन हय्यान की सफल वैज्ञानिक उपलब्धियों से मुसलमानों में रसायन शास्त्र प्रयोगशाला के मूल विषयों में शामिल हो गया। जाबिर बिन हय्यान रसायन शास्त्र में दक्ष

थे तथा खनिज पत्थरों के रूप बदलते रहते थे। उन्होंने तांबा और सीसा जैसी धातुओं की पहचान करने और उन्हें मूल्यवान धातुओं में परिवर्तित करने के बारे में उन्होंने को पुस्तके लिखी हैं।

उन्होंने पहली बार सलफ़रिक एसिड तैयार किया। जाबिर बिन हय्यान पानी ,दूध और तेल जैसे तरल पदार्थों पर आसवन प्रक्रिया का प्रयोग करते थे।

जाबिर बिन हय्यान की दृष्टि में सोने को विभिन्न चरणों में खौला कर पारसमणि प्राप्त करना संभव था जाबिर ,निम्न स्तरीय धातुओं को उच्च स्तरीय धातुओं में बदलने के लिए पारसमणि की प्राप्ति के लिए अनथक प्रयास किये।

जाबिर बिन हैयान तूसी की रसायनशास्त्र में अत्याधिक महत्वपूर्ण व मूल्यवान रचनाएं हैं। कहा जाता है कि उन्होंने लगभग तीन हज़ार पुस्तक और पुस्तिकाएं लिखी हैं।

जर्मनी के प्रसिद्ध विद्वान और शोधकर्ता ,पॉल क्राउस ने जिन्होंने जाबिन बिन हैयान की रचनाओं के बारे में शोध किया है ,कहते हैं कि जाबिर कों हमें एसी हस्ती समझना चाहिए जिन्होंने

प्राचीन ज्ञान को अरबी में स्थानांतरित किया है। वे अत्याधिक ज्ञानी और स्वाधीन व्यक्तित्व के स्वामी हैं कि जिन्हें यूनानी साहित्य का पूर्ण ज्ञान है।

हमें जाबिर बिन हैयान को ढेर सारी वैज्ञानिक परिभाषाओं का जनक समझना चाहिए और यह विश्वास रखना चाहिए कि जाबिर बिन हैयान ने इन शब्दों और परिभाषाओं को तीसरी हिजरी

शताब्दी के अनुवादकों के लिए तैयार किया था और उनका काम सरल बनाया था। जाबिरी संग्रह की विभिन्न किताबों में सृष्टि की पहचान ,खगोलशास्त्र तथा कीमियागिरी से लेकर

संगीत व अंकज्ञान व शब्दज्ञान तक के विषयों पर चर्चा की गयी है। यह चर्चाएं प्राचीन ज्ञान विज्ञान को समझने के लिए अत्याधिक महत्व रखती हैं।

पिछले में हमने मैकेनिक के विषय में मुसलमान बुद्धिजीवियों के आविष्कारों और उपलब्धियों की ओर संकेत किया था और हमने आपको बताया था कि

मुसलमान बुद्धिजीवियों विशेषकर जज़री ने संसार और इस्लामी जगत की सेवा में बहुत सी महत्त्वपूर्ण रचनाएं प्रस्तुत की हैं।

इन मुसलमान बुद्धिजीवियों ने पानी से चलने वाली घड़ी और गहरे कुओं से पानी निकालने वाले यंत्र और इसी प्रकार बहुत से उपकरणों का आविष्कार किया।

इस कार्यक्रम में हम मुसलमान बुद्धिजीवियों के आविष्कारों के बारे में चर्चा करेंगे। कृपया हमारे साथ रहिए।

तीसरी हिजरी शताब्दी में इस्लामी जगत में मिकेनिक्स या यंत्र विज्ञान या यंत्र विद्या को ख्याति प्राप्त हुई और यह ख्याति सातवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में अपनी चरम सीमा पर पहुंच गयी।

मुसलमान इंजीनियरों ने मिकेनिकल या यांत्रिक उपकरणों का निर्माण करके बहुत बड़ी बड़ी सफलताएं अर्जित की हैं।

वह अपने पास मौजूद पदार्थों के अपनी आवश्यकता के अनुसार टुकड़े काटते थे और उसके बाद उन्हें अपनी इच्छानुसार रूप देते और एक दूसरे से जोड़ते थे।

प्राचीन समय के ये इन्जीनियर उपकरणों के निर्माण के लिए ,धातुओं ,साधारण धातुओं ,सोना ,चांदी ,लकड़ी ,शिशा ,चमड़ा और इसी प्रकार सन ,रूई और रेशम की रस्सियों और दूसरे अन्य पदार्थों का प्रयोग करते थे।

मुसलमान वैज्ञानिक जिन चीज़ों का प्रयोग करते थे उनमें से सबसे प्रचलित लकड़ी और तांबे की चादर थी।

वह पाइप और तैरने वाले तथा गतिशील उपकरणों के निर्माण के लिए तांबे की शीट का प्रयोग करते थे।

मुसलमान बुद्धिजीवी कभी ताबें और कभी लोहे से तारों का निर्माण करते थे।

वह ज़ंजीर का निर्माण करने के लिए तार का प्रयोग करते थे और इसी प्रकार वह तांबे या लकड़ी से बड़ी चरख़ी ,और घिर्री आदि बनाते थे।

मुसलमानों विशेषकर इस्लामी सभ्यता के केन्द्रीय क्षेत्र की समस्याओं में से एक की समस्याओं में से एक सूखे और पानी की कमी थी।

कुछ देशों में सौम्य ढलान की योजना बनाकर लंबी दूरी तय करके गहराई से धरती की सतह पर पानी पहुंचाया जाता था किन्तु कुछ अन्य क्षेत्रों में निवासियों को पानी को ऊपर लाने में बड़ी कठिनाईयों का सामना था।

मैकेनिकस के क्षेत्र में जज़री और बनू मूसा जैसे मुसलमान इंजीनियरों की उपलब्धियों में से एक गहराई से पानी को ऊपर लाने के विभिन्न यंत्रों का निर्माण और उसकी डिज़ाइनिंग करना था जिसे नाऊरा अर्थात रहट कहा जाता था।

गहराई से ऊपर की ओर पानी खींचने वाले यंत्र नाऊरा के नमूने कुछ इस्लामी देशों में इस समय भी पाये जाते हैं।

बनू मूसा का परिवार पहला मुसलमान मिकैनिक परिवार है जिनके माध्यम से इस्लामी जगत में मिकेनिक्स को ख्याति प्राप्त हुई।

बनू मूसा की पुस्तक "अलहेयल" मिकेनिक्स के संबंध में वह पहली पुस्तक है जो इस्लामी जगत में बाक़ी रह गयी है।

इस पुस्तक में मिकेनिक्स के सौ यंत्रों का विवरण दिया गया है कि जिनमें से अधिकांश द्रव यांत्रिकी की विशेषता से लाभ उठाकर आटोमैटिक तौर पर चलते हैं।

बनू मूसा ने जिन चीज़ों का निर्माण किया उनमें से एक फ़व्वारा है जिससे ,पानी निकलते समय अनेक रूप धारण कर लेता है।

इसी प्रकार उन्होंने एक ऐसे दीप का निर्माण किया जिसकी लौ स्वयं ही कम और ज़्यादा होती है।

समुद्रों और नदियों की सतह को खोदने के लिए एक प्रकार के यांत्रिकी फावड़े का निर्माण और कुएं से प्रदूषित हवा को बाहर निकालने

के लिए एक प्रकार के एकज़ास्ट फ़ैन का निर्माण भी बनू मूसा भाइयों के आविष्कारों में से है।

उन्होंने विभिन्न प्रकार के लीवर क्रेंक शोफ़्ट ,विभिन्न प्रकार की शंकुआकार टोटियों और घिर्रियों का निर्माण भी किया है।

[अबुल फ़त्ह अब्दुर्रहमान ख़ाज़नी ]

अबुल फ़त्ह अब्दुर्रहमान ख़ाज़नी

बनू मूसा ने पहली बार और यूरोप वालों से पांच सौ वर्ष पूर्व केंक शाफ़्ट का अपने कार्य में प्रयोग किया। बनू मूसा के आविष्कारों में से एक जल घड़ी का निर्माण है जो पानी के दबाव से चलती है।

यह घड़ी बाद में उन घडियों का मापदंड बन गयी जो यूरोपीय देशों के बड़े बड़े मैदानों और चर्चों में प्रयोग की जाती थीं। एक निर्धारित समय में उक्त घड़ी से संगीत के सुर निकलते थे।

अबुल फ़त्ह अब्दुर्रहमान ख़ाज़नी उन प्रसिद्ध यंत्र वैज्ञानिकों ,तथा भौतिक और खगोल शास्त्रियों में से थे जिनका पालन पोषण इस्लामी सभ्यता के क्षेत्र में हुआ।

ख़ाज़नी ने इब्ने हैसम और बैरूनी का अनुसरण करते हुए यंत्र विज्ञान के क्षेत्र में बहुत सी उपलब्धियां अर्जित की। ख़ाज़नी तुला विज्ञान के बहुत ही दक्ष और निपुण उस्ताद थे।

मीज़ानुल हिकमह नामक उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ,यंत्र विज्ञान की प्रमुख पुस्तकों मे से एक है।

इस पुस्तक में ख़ाज़नी ने राज़ी ,बैरूनी और ख़य्याम जैसे बुद्धिजीवियों के दृष्टिकोण को अपने दृष्टिकोण पर प्राथमिकता दी है।

टाइमर ,सामान ऊपर उठाने का यंत्र अर्थात क्रेम तुला ,घनत्व मीटर जैसे विभिन्न प्रकार के उपकरण ,उनकी इस पुस्तक में लिख हुये हैं।

ख़ाज़नी ने वस्तुओं के भार पर हवा के दबाव के प्रभाव की ओर बहुत ही सूक्ष्मता से संकेत किया है। वह इस संबंध में टोरिचली ,पास्कल ,बॉयल और दूसरों से कई शताब्दी आगे हैं।

इब्ने हैसम के नाम से प्रसिद्ध अबू अली हसन इब्ने हैसम बसरी ,चौथी सहस्त्राब्दी के विख्यात मुसलमान गणितज्ञ ,भौतिक शास्त्री और प्रकाश विशेषज्ञ हैं।

उन्होंने भौतिक शास्त्र और यंत्र विज्ञान के क्षेत्र में बहुत ही मूल्यवान और महत्त्वपूर्ण अविष्कार किये हैं।

वह मध्ययुगीन लैटिन भाषा में लिखी गयी पुस्तकों में अलहाज़िन के नाम से प्रसिद्ध हैं।

इब्ने हैसम को प्रयोगिकी विज्ञान के क्षेत्र का अग्रणी और ध्वजवाहक वैज्ञानिक कहा जा सकता है।

क्योंकि उन्होंने अपने वैज्ञानिक दृष्टिकोणों विशेषकर प्रकाश के संबंध में अपने दृष्टिकोणों को प्रयोगिकी विज्ञान की शैलियों से प्राप्त किया है।

इब्ने हैसम ने प्रकाश संबंधी विज्ञान के आधार को परिवर्तित करके उसे सुव्यवस्थित और स्पष्ट ढंग से प्रस्तुत किया। वह ओक़लीदोस की भांति सैद्धांतिक और प्रयोगिक भौतिक शास्त्री थे।

उन्होंने प्रकाश की प्रत्यक्ष गति ,छाये की विशेषता ,लेंस के प्रयोग और ब्लैक रुम की विशेषता को जानने के लिए विभिन्न परीकण अंजाम दिए।

इसी प्रकार उन्होंने प्रकाश के प्रतिबिंबन के नियमों के बारे में आकर्षक शोध किए। इब्ने हैसम ने शीशे की वृत्ताकार और बेलनाकार परिधि में प्रकाश के अपवर्तन के बारे में शोध किया है।

उन्होंने बहुत सी पुस्तकें भी लिखी हैं। मुसलमान और यूरोपीय शोधकर्ताओं ने एक सहस्त्राब्दी पूर्व इब्ने हैसम की कुछ रचनाओं और आलेखों का अनुवाद किया और प्रकाशित किया।

प्रकाश और भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में इब्ने हैसम ने बहुत सी पुस्तक लिखी हैं।

मध्ययुगीन शताब्दी में नूरूल मनाज़िर नामक पुस्तक के लैटिन भाषा में अनुवाद ने पश्चिम में प्रकाश और भौतिक विज्ञान पर बहुत अधिक प्रभाव डाला है

किन्तु इब्ने हैसम से पूर्व इस्लामी जगत में प्रकाश के ज्ञान का पतन हो रहा था ,यहां तक कि ख़्वाजा नसीरूद्दीन तूसी जैसे महान विद्वान उनकी वैज्ञानिक उपलब्धियों से अवगत नहीं थे।

सातवीं सहास्त्राब्दी में एक बार फिर प्रकाश के ज्ञान पर ध्यान दिया जाने लगा और क़ुतुबुद्दीन शीराज़ी ने इस ज्ञान को "क़ौसो क़ज़ह" के नाम से ईरान में प्रचलित किया।

वर्तमान समय में प्रकाश के विषय में पश्चिम की प्रगति ,मुसलमान वैज्ञानिकों विशेषकर इब्ने हैसम के प्रयासों से बहुत सीमा तक प्रभावित रही है।

इसीलिए पश्चिम में इब्ने हैसम को प्रकाश के पितामह की उपाधि दी गयी है।

कुछ लेखकों का यह मानना है कि पश्चिम विशेषकर आक्सफ़ोर्ड मत में प्रकाश के संबंध में होने वाली चर्चाओं में जो आंदोलन असित्त्व में आया है व

ह इब्ने हैसम के प्रकाश संबंधी दृष्टिकोणों से पश्चिम के अवगत होने का परिणाम है।

इस बिन्दु में भी कोई संदेह नहीं है कि ब्रिटेन के प्रसिद्ध दर्शन शास्त्री रोजर बेकन पूर्ण रूप से इब्ने हैसम से प्रभावित थे।

इस्लामी सभ्यता में मैकेनिक्स या यंत्र विज्ञान और भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में हर चीज़ से पहले इस विज्ञान की उपलब्धियों और तकनीक पर मुसलमानों की दृष्टि थी जो

इसको हर ज्ञान से अलग करती है। वास्तव में यदि हम यह चाहते हैं कि मुसलमान बुद्धिजीवियों की वैज्ञानिक उपलब्धियों से अधिक से अधिक

अवगत हों तो हमें यंत्र और भौतिक विज्ञान के विषयों में उनके प्रयासों का भी अध्ययन करना चाहिए।

चिकित्सा विज्ञान भी खगोल शास्त्र की भांति अति प्राचीन ज्ञानों में से एक है जो मुसलमानों के बीच प्रचलित हुआ और जिस पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया।

एक हदीस में है कि ज्ञान के दो प्रकार हैः इल्मुल अबदान व इल्मुल अदियान अर्थात शरीर का ज्ञान और धर्म का ज्ञान ,इससे इस्लाम में चिकित्सा विज्ञान के महत्व का अनुमान किया जा सकता है।

चिकित्सा विज्ञान की प्रगति में मुसलमानों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

मुसलमानों को चिकित्सा विज्ञान संबंधी जो नुस्ख़े मिले वो बोक़रात और जालीनूस जैसे यूनानी हकीमों के नुस्ख़े थे

जिनका यूनानी भाषा से अरबी भाषा में अनुवाद किया गया किंतु मुस्लिम चिकित्सकों को अपने क्षेत्रों में जिन बीमारियों का सामना था

उनमें कुछ बीमारियों एसी थी जो इन्हीं क्षेत्रों से विशेष थीं जिनका उल्लेख यूनानी हकीमों के नुस्ख़ों में नहीं था।

मुस्लिम विद्वान ज़करिया राज़ी ने अपनी पुस्तक अलहावी में सात सौ जड़ी बूटियों और उनके उपचारिक गुणों का उल्लेख किया है जबकि

यूनानी विद्वान देविसकोरीदस ने अपनी पुस्तक में पांच सौ जड़ी बूटियों का ही उल्लेख किया है। चिकित्सा विज्ञान के इतिहास में अलहावी एक महान रचना है।

इस पुस्तक में विभिन्न बीमारियों के बारे में बड़े विस्तार से बात की गई है। इस पुस्तक के विभिन्न भागों में जिन बीमारियों का उल्लेख किया गया है

और उनके उपचार के लिए जो नुस्ख़े सुझाए गए हैं उनकी संख्या जालीनूस ,बोक़रात तथा दूसरे यूनानी विद्वानो की पुस्तकों से बहुत अधिक हैं।

इस्लामी काल में यूनानी और भारतीय विद्वानों की पुस्तकों के अनुवाद के साथ ही चिकित्सा विज्ञान में बड़ा विस्तार हुआ।

पांचवीं शताब्दी ईसवी में रोम शासन ने अपने देश से नस्तूरी ईसाइयों को बाहर निकाल दिया। नस्तूरी ईसाई वहां से ईरान आ गए और जुन्दी शापूर में अपना विज्ञान केन्द्र खोला।

उन्होंने इस नगर में चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा देना आरंभ कर दिया और यूनानी चिकित्सा शैली को भारतीय चिकित्सा शैली से मिलाकर जो पहले ही ईरान में प्रचलित थी

एक व्यापक चिकित्सा शैली तैयार कर ली। इस केन्द्र से पढ़कर निकलने वाले चिकित्सकों ने चिकित्सा विज्ञान तथा उपचार केन्द्रों के विकास में बड़ा योगदान दिया।

इस्लामी काल में चिकित्सा विज्ञान के विकास में जिन संस्थाओं ने प्रशंसनीय भूमिका निभाई उनमें जुन्दी शापूर विश्वविद्यालय भी प्रमुख है।

जुन्दी शापूर में बड़े अच्छा अस्पताल और चिकित्स विश्वविद्यालय था। यहां संस्कृत और यूनानी भाषा की चिकित्सा पुस्तकों का अनुवाद किया जाता था।

जुन्शी शापूर के अस्पताल ईरान के प्राचीनतम अस्पताल हैं जो शापूर द्वितीय के शासन काल में बनाए गए थे।

यह अस्पताल ईरानी चिकित्सकों और शिक्षकों के परिश्रम से तीन शताब्दियों तक चलते रहे और इन्हें इस्लामी क्षेत्रों का सबसे बड़ा चिकित्सा केन्द्र माना जाता था।

इन केन्द्रों में विख्यात चिकित्सक शिक्षार्थियों को चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा देते थे और रोगियों का उपचार करते थे।

जुन्दी शापूर में चिकित्सा विज्ञान के विकास में कुछ परिवारों की मूल भूमिका रही। इनमें एक बख़्तशूअ परिवार था।

दूसरी शताब्दी हिजरी के मध्य से पांचवीं शताब्दी हिजरी के मध्य तक इस परिवार के बारह विद्वान और चिकित्सा विशेषज्ञ अब्बासी शासकों के चिकित्सक और सलाहकार बने और वे अनुवाद के काम भी लीन रहे। वे अब्बासी शासकों के दरबार में नई पुस्तकों का अनुवाद करते और रोगियों का उपचार करते थे।

बरमकी शासकों ने बग़दाद में अपने नाम से एक अस्पताल बनाया और एक भारतीय चिकित्सक इब्ने देहन को उसका प्रमुख बना दिया।

उन्होंने इब्ने देहन से कहा कि वो संस्कृत भाषा की पुस्तकों का अरबी में अनुवाद करे। यही अस्पताल अन्य स्थानों पर अस्पतालों के निर्माण के लिए आदर्श बन गया।

अब्बासी शासन के आरंभिक वर्षों मे ज्ञान विज्ञान और चिकित्सा शास्त्र पर ध्यान दिया गया और विशेष रूप से यूनानी पुस्तकों पर काम हुआ।

वर्ष 148 हिजरी क़मरी में अब्बासी शासक मंसूर ने बीमार हो जाने के बाद बख़तीशूअ को बुलाया। बख़तीशूअ ने ख़लीफ़ा का उपचार करके उसे ठीक कर दिया।

बख़तीशूअ के परिवार के लोग बाद में भी चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में सक्रिय रहे और बग़दाद में ही लोगों के उपचार में व्यस्त रहे।

जब अनुवाद का काम बहुत व्यापक स्तर पर होने लगा तो यूनान और रोम के चिकित्सा नुसख़े का भरपूर उपयोग किया गया।

सबसे महत्वपूर्ण यूनानी पुस्तक जिसका अरबी भाषा में अनुवाद किया गया देवेसकोरीदस की पुस्तक थी।

तीसरी शताब्दी हिजरी में बैतुल हिकमह के नाम से एक संस्था की स्थापना हुई जहां बहुत से विद्वान चिकित्सा विज्ञान की पुस्तकों का अरबी भाषा में अनुवाद करने लगे।

इस केन्द्र का प्रख्यात अनुवादक हुनैन इब्ने इसहाक़ अब्बादी थे।

हुनैन पुस्तकों का अपने सहयोगियों और विशेष रूप से अपने पुत्र इसहाक़ के साथ मिलकर अरबी और सरियानी भाषा में अनुवाद करते थे।

अपनी मौत के समय उन्होंने बताया कि उन्होंने जालीनूस की 95 पुस्तकों का सरियानी और 34 पुस्तकों का अरबी भाषा में अनुवाद किया।

हुनैन ने अनुवाद के साथ ही कुछ पस्तकें स्वयं भी लिखीं। अलमसायल फी तिब लिलमुतअल्लेमीन उनकी विख्यात पुस्तक है।

उन्होंने आंखों की बीमारियों के बारे में एक पुस्तक लिखी जिसका नाम अलअशर मक़ालात फ़िल एन है।

इस प्रकार हुनैन और दूसरे अनुवादकों ने अपने अनुवादों और लेखनों से इस्लामी चिकित्सा विज्ञान में नए शब्द भी परिचित कराए।

जुन्दी शापूर के विश्वविद्यालय में जो नस्तूरी चिकित्सक सक्रिय थे उनमें एक इब्ने मासवैह थे जिनका पूरा नाम अबू यूहन्ना मासवैह था।

उन्होंने अरबी भाषा में कई महत्वपूर्ण लेख लिखे हैं जिनमें ज्वर के अनेक प्रकारों ,कुष्ठ रोग ,मेलनकोलिया ,आंखों के रोगों और आहार संबंधी बिंदुओं का उल्लेख किया गया है।

अबुल हुसैन अली इब्ने सहल इब्ने तबरी भी विख्यात चिकित्सकों में थे। उन्होंने अपनी पुस्तक फ़िरदौसुल हिकमह में यूनानी ,रोमी तथा भारतीय चिकित्सा शैलियों को विस्तार से बयान किया है।

इस पुस्तक का बाद के समय में चिकित्सा विज्ञान पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा। रिस्क फ़ैक्टर और दवाओं की पहचान के संबंध में इब्ने तबरी ने बड़ी मूल्यवान और उपयोगी बातें बताई हैं।

तीसरी शहाब्दी हिजरी के अतिंम वर्षों तक चिकित्सा विज्ञान का आधार बोक़रात और जालीनूस के बताए हुए नुसख़े थे किंतु इसी शताब्दी में एक

नई चिकित्सा पुस्तकें भी प्रचलित हुईं जिसका नाम तब्बुन्नबवी था यह पुस्तकें एक नई चिकित्सा शैली पर आधारित थी। यह पुस्तकें धर्मगुरू लिखते थे।

वे पैग़म्बरे इस्लाम के काल की चिकित्सा शैली तथा क़ुरआन और हदीस में उल्लेखित चिकत्सा उपायों को यूनानी चिकित्सा शैली से अधिक उपयोगी मानते थे और कभी कभी दोनों

शैलियों को मिलाकर कोई नया नुसख़ा तैयार कर लेते थे। इस काल की महत्वपूर्ण पुस्तकों में एक तिब्बुल अइम्मा है जिसका संबंध तीसरी शताब्दी हिजरी से है।

लगभग इसी काल में इब्ने हबीब उंदलुसी ने मुख़तसर फ़ी तिब नामक पुस्तक लिखी थी जिससे बाद के लेखकों ने बड़ा लाभ उठाया।

सातवीं और आठवीं शताब्दी हिजरी में इन पुस्तकों को बहुत पसंद किया गया और आज तक इनसे लाभ उठाया जाता है।