ज़ुल्मत से निजात

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ज़ुल्मत से निजात लेखक:
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ज़ुल्मत से निजात

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: आक़ाई वहीद मुहम्मदी
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ज़ुल्मत से निजात

ज़ुल्मत से निजात

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

ज़ुल्मत से निजात

आक़ाई वहीद मुहम्मदी

अर्ज़े नाशिर

"मुहब्बत व नफ़रत" या "तवल्ला व तबर्रा" और लग़वी (शब्दकोश) और मानवी ऐतेबार (रूप) से एक दूसरे की मुताज़ाद (शब्दविलोम) लफ़्ज़ें हैं और "लानत व मलामत" की मानवी हैसियत से क़द्रे हमआहन्ग है इस लिये बाज़ उल्मा लानत मालामत को तबर्रा से ताबिर करते है और यह कहते हैं किसी पर तबर्रा या लानत ना किजाये चाहे वह दुश्मनें अहलेबैत अ. ही क्यों न हो।

अक़्ली और मन्तक़ी उसूलों की रौशनी में "तबर्रा व लानत" के मोतरज़ीन की यह बाद दुरूस्त नहीं है कि जो लोग बूरे बदकिरदार थे या हैं उन पर लानत सलामत न किजाये इस ज़ैल में एक सवाल यह भी पैदा होता है कि क्या किसी ऐसे आदमी पर जो वाक़ई बुरा है लानत करना या उसे बुरा कहना दुरूस्त है या नहीं ?इस सवाल के जवाब में पहले हमें यह देखना होगा कि किसी आदमी को बुरा कहने और बुरा समझने में फ़र्क़ है ?

अहले इल्म हज़रात इस अम्र से बाख़ूबी वाक़िफ़ हैं कि बुरे और भले के दरमियान फ़र्क़ पैदा करना हवासे बातिन का काम है ,इसलिये बुरे को बुरा और भले को भला समझने पर इन्सान फ़ितरतन मजबूर है यानी भले और बुरे में तमीज़ करना इन्सान का फ़ितरी क़ौल है और अगर कोई आदमी या आलिम यह कहता है कि हम बुरे को भी बुरा नहीं समझते तो इस ना समझने वाले आदमी या आलिम के बारे में इसके अलावा और क्या समझा जा सकता है कि वो नफ़्से नातिक़ा से महरूम और मजनून है।

अव्वल तो बुरे शख़्स को बुरा न कहने वाला ख़ुद जिहालत में गिरफ़्तार हो जाता है यानी जब उसे मालूम हो कि फ़ुलॉ शख़्स बुरा है तो उसने उसको बुरा समझ लिया क्यों कि उसके नज़दीक मालूम करने और समझ लेने में कोई फ़र्क़ नहीं है ,दूसरे यह अम्र भी क़ाबिले ग़ौर है कि जो शख़्स किसी बुरे आदमी को बुरा नहीं समझता वह बज़ाते ख़ुद बुरा है या अच्छा ?

इस मंज़िल में अक़्ल का फ़ैसला यह होगा कि अव्वल तो बुरे का बुरा न समझने वाला शख़्स बुरा न समझने का इक़रार ज़बानी कर रहा है वरना उसका दिल बुरे को बुरा ज़रूर समझा होगा दूसरे अगर वाक़ई इसका दिल भी बुरे को बुरा नहीं समझता तो इसका मतलब यह होगा कि उसने भी बुरे कामो को अन्जाम देते-देते अपने अन्दर यह फ़ितरते सानिया पैदा कर ली जो किसी बुरे शख़्स को बुरा समझने ही नहीं देती यानी बुरे को बा न समझने वाला शख़्स ख़ुद भी बुरा है।

इस फ़ितरी उसूल की रौशनी में यह मालूम हुआ कि "अच्छे को अच्छा" और "बुरे को बुरा" समझना या न समझना इन्सान का इख़्तेयानी फ़ेल नहीं है बल्कि फ़ितरी तक़ाज़ो के तहत इन्सान बुरे को बुरा और अच्छे को अच्छा समझने के लिये मजबूर है और इस मजबूरी के तहत अगर वह ज़ालिमों और ग़ासिबों को बुरा कहने लगे उनके अफ़आल और आमाल से नफ़रत करने  लगे उनसे बचना चाहे ,उनसे इज़हारे बेज़ारी करे ,उनसी दूरी इख़्तियार करे और उन पर लानत मलामत करे तो इसमें क्या ग़लत है।

लानत का लफ़्ज़ क़ुरआन मजीद में मुख़तलिफ़ मक़ामात पर इस्तेमाल हुआ है मसअलन लानतुल्लाहे अल्लल काज़ेबीन और लानतुल्लाहे अल्ज़जालेमीन वग़ैरा लेकिन अगर कोई यह सवाल करे कि अल्लाह ने ख़ुद लानत की है मगर उसने दूसरों को लानत करने का हुक्म कहाँ दिया है ?इस इशतेबाह (शक) को क़ुरआने मजीद ने एक दूसरे मक़ाम पर इन अल्फ़ाज़ के साथ दूर किया है कि "उलाएका जज़ाओहुम इन्ना अलैहिम लानतुल्लाहे व मालाऐकतेही वन-नासे अजमाईन "

  सुराए-आले इमरान आयत- 87।

तर्जुमा- उनकी सज़ा यह है कि अल्लाह और उसके फ़रिश्ते और लोग उन पर लानत करते हैं ,और दूसरी आयत में इरशाद हुआ कि "बेशक जिन लोगों ने कुफ़्र इख़्तियार किया और कुफ़्र ही की हालत में मर गये ,उन्हीं पर ख़ुदा की फ़रिश्तों और तमाम लोगों की लानत है।"

सुराए बक़रा ,आयत- 161।

इन आयतों से पता चलता है कि अगर फ़रिश्तों और उन तमाम लोगों जिनका शुमार मख़लूक़े ख़ुदा में है ,लानत करने का हुक्म न होता तो क़ुरआन इसका तज़किरा ही न करता बल्कि यह कहता कि आख़ीर इन फ़रिश्तों और दीगर लोगों को क्या हो गया है कि वह लानत करने लगे हैं। इस अन्दाज़ में ज़िक्र न करना इस बात की मोहकम दलील है कि लानत करने का अमल निगाहे क़ुदरत में ममदूह व मुस्तहसन है नीज़ इस से यह भी ज़ाहिर होता है कि लानत करने का इस्तेहक़ाक़ (हक़) ग़ैरे ख़ुदा को भी है जिसमें फ़रिश्तें और इन्सान नुमाया हैसियत रखते हैं।

इसके अलावा हदीसो और तारीख़ों की किताबों से यह बात भी साबित है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने  मुस्तहक़ीने लानत पर नाम बनाम लानत की है तारीख़ में पैग़म्बरे इस्लाम नाम लेकर लानत करते नज़र आ रहे हैं। अल्लामा ज़मख़शरी ने रबीउलअबरार के सफ़ा नम्बर 92पर तहरीर किया है कि जंगे ओहद में पैग़म्बरे इस्लाम ने अबू सुफ़ियान ,सफ़वान इब्ने उमय्या और सहल इब्ने अमरू पर नाम लेकर लानत की। इसलिये किसी आलिम का यह कहना भी दुरूस्त नहीं हो सकता कि किसी मुस्तहक़े लानत पर उसके नाम के साथ लानत न की जाये।

मुख़्तसर यह कि बुरे बदकिरदार ,बदआमाल और ख़ुसूसन दुशमनाने आले रसूल (स.अ. वा आलेही) पर लानत का जवाज़ क़ुरआन हदीस और तारीख़ से साबित है और इसमें न तो किसी इन्कार की गुंजाईश है ,न उसकी तावील मुमकिन है और न उसे झुठलाया जा सकता है।

ज़ेरे नज़र किताब "ज़ुल्मत से निजात" जो आक़ाई वहीद मुहम्मदी के बेहतरीन क़लम का नतीजा है दरहक़ीक़त उस अक़्ली व नक़्ली और क़ुरआन व तारीख़ी बहस पर मुबनी (आधारित) है जिसके मुतरज्जिम जनाब अबु मोहम्मद हैं जिन्होंने इस गरॉक़द्र सरमाये को फ़ारसी से उर्दू में नक़्ल किया है।

उर्दू में इस किताब की मक़बूलियत के बाद बेहद इसरार हुआ कि इस किताब को हिन्दी में भी पेश किया जाये ताकि उर्दू न जानने वाले नौजवान भी फ़ायदा उठा सकें इसी लिये हिन्दी में यह किताब नाज़रीन की ख़िदमत में हाज़िर है।

हम इस किताब की इशाअत के साथ यह उम्मीद करते हैं कि यह गुमराहों के लिये मशअले राह बनेगी और अवामी सतह पर बेदारी की एक लहर पैदा करेगी। (सैय्यद अली अब्बास तबातबाई)

मुक़दमा

बिस्मिल्लाहिर्र-रहमानिर-रहीम ,अल्हम्दो लिल्लाहे रब्बुल आलेमीन ,व सल्लल लाहो अला सय्यदेना मुहम्मदिन व आलेहित-ताहेरीन व लानल-ल्लाहो अला आदा-ए-हिम अजमईन इला यौमिद-दीन।

क़ारेईन किराम! शायद आप भी मेरी तरह हों और आपका दिल भी यह चाहता हो कि ख़ुदा-ए-मेहरबान से दोस्ती और मोहब्बत करें और उसके क़रीब हो जायें और उसकी रहमत ,लुत्फ़ो करम की ख़ुन्की नसीमें सहर (सुब्ह की हवा) की तरह अपने अन्दर महसूस करें ताकि आप ख़ुदा तक पहुँच जायें और ख़ुदा के मुक़र्रब बन्दों और उसके दोस्तों के साथ दोस्ती और मुहब्बत करें और उनकी विलायत के बाग़ में दाख़िल हो जायें और उनके क़ुर्ब और मन्ज़ेलत का नज़ारा करें ,उनकी दोस्ती के फ़र्श पर बैठ कर दिलो जान उनके हवाले कर दें ताकि वह अपनी दोस्ती की सवारी पर बिठाकर ख़ुदा-ए-मेहरबान व ग़फ़ूर ओ रहीम के विसाल तक पहुँचा दें।

लेकिन इस सआदत व नेकबख़्शी का ख़ज़ाना कहाँ छिपा हुआ है ?और इस अज़ीम ख़ुशबख़्ती और कामयाबी की कलीद (कुन्जी) कहाँ है ?

क़ारेईने किराम! दोस्ती के लिये भी कुछ क़ानून और शर्ते होती हैं ,जिनका मालूम करना हर दोस्त का फ़रीज़ा है।

दोस्ती की पहली शर्त यह है कि दोस्त के साथ हम ख़्याल और हमआह्नग होना ज़रूरी है और यह शर्त पूरी नहीं हो सकती मगर यह कि दोस्त के अलावा दूसरे को छोङना पङेगा और मुहब्बत और दोस्ती की आवाज़ पर बेदार रहने और दोस्त के साथ दुश्मनी करने वाले से बेज़ारी करनी पङेगी ,फ़ारसी का शायर कहता है-

गर आशिक़े दिलदारी बा ग़ैर चे दिलदारी

कॉ दिल के दर ऊ ग़ैर अस्त दिलदार नमी गन्जद

(अगर किसी की मोहब्बत और इश्क़ का दावा है तो अगर इस दिल में किसी ग़ैर की मोहब्बत आ गई तो आशीक़ की मोहब्बत की जगह बाक़ी नहीं रहती)

लिहाज़ा ख़ुदा और रसूल और औलिया-अल्लाह (इमामों) से दोस्ती भी इस क़ाएदे की बुनियाद पर होना चाहिये।

क़ारईने किराम! हमारी यह किताब चन्द फ़सलों (भाग) पर मुशतमिल (आधारित) है-

1.पहली फ़स्ल (भाग)- दोस्ती और मोहब्बत के क़ानून और शर्ते।

2.दूसरी फ़स्ल- ख़ुदा वन्दे आलम ने क़ुरआने मजीद में किन लोगों पर लानत की है।

3.तीसरी फ़स्ल- दीने इस्लाम के दुश्मनों के बारे में अहलेबैत (अ.) की सीरत क्या है ?

4.चौथी फ़स्ल- ख़ुदा के दुश्मनों से बेज़ारी (तबर्रा) करने वालों पर ख़ुदा की ख़ास इनायतें।

5.पाँचवी फ़स्ल- लानत का मौसम।

पहली फ़स्ल

(पहला भाग)

बन्दगी की पहली शर्त कल्मा-ए- "ला-इलाहा इलल्लाह" है जिसका पहला हिस्सा "ला इलाह" है जिसका मतलब है दूसरे तमाम ख़ुदाओ का इन्कार करना ,उनसे बेज़ारी (तबर्रा) का ऐलान करना और उन सब से दूरी करना ,उसके बाद कहीं "इलल्ल-लाह" की बारी आती है यानी दूसरे तमाम ख़ुदाओं के इन्कार के बाद ख़ुदाऐ वहदहू ला शरीक की वहदानियत का इक़रार करना होता है।

जैसा कि ख़ुदा वन्दे आलम ने क़ुरआने करीम में इलाही रस्सी के तमस्सुक (जुङने) के लिये ताग़ूत (गुमराह करने वाला ,शैतान) से इन्कार रक्ख़ा है और उसके बाद ख़ुदा पर इमान रखना क़रार दिया है ,इरशाद होता है-

"जिस शख़्स ने झूठे ख़ुदाओं (बुतों) से इन्कार किया और ख़ुदा ही पर ईमान लाया तो उसने वह मज़बूत रस्सी पकङ ली जो टूट ही नहीं सकती।"

(सुरा-ए-बक़रा ,आयत- 257)

यह वह शर्त है जिसको हर साहबे अक़्ल समझता है यहाँ तक की वह काफ़िर भी जो बुतों की पूजा करता है ,तमाम चीज़ों से अपनी आँख़े बन्द कर लेता है और उनको पसे पुश्त (अनदेखा) कर देता है ,यहाँ तक के अपने दिल में मौजूद ख़ुदा के नाम पर क़लम फ़ेर कर बुत के सामने सजदे में गिर जाता है।

अज़ हर चे ग़ैर दोस्त चराँन्गज़रद कसे

काफ़िर बराऐ ख़ातिरे बुत अज़ ख़ुदा गज़श्त

(क्योंकर ग़ैरे दोस्त से दोस्ती इख़्तियार न की जाऐ ,जबकि काफ़िर बुत की ख़ातिर ख़ुदा से दूर हो गया)

हर साहबे अक़्ल इस बात पर यक़ीन रखता है कि अपने दोस्त के साथ बैठना और दोस्त के दुश्मन से ताल-मेल रखना ,दोस्ती और सिदक़ो सफ़ा के उसूल और क़वानीन के ख़िलाफ़ है ऐसा करने से निफ़ाक़ ओ क़ुदरत की बू आती है।

लिहाज़ा सबसे पहले ज़रूरी है कि दोस्त और दुश्मन को पहचानें ताकि दोस्त से दोस्ती की जाये और दुश्मन  से दुश्मनी।

दोस्त कौन है और दुश्मन कौन ?

हज़रत अमीरूलमोमिनीन अली इब्ने अबीतालिब (अ.) फ़रमाते हैं-

दोस्त की तीन क़िस्में हैं ,और दुश्मन की भी ,दोस्त यह है- तुम्हारा दोस्त ,तुम्हारे दोस्त का दोस्त ,तुम्हारे दुश्मन का दुश्मन. और दुश्मन यह है ,तुम्हारा दुश्मन ,तुम्हारे दोस्त का दुश्मन और तुम्हारे दुश्मन का दोस्त। (नहजुल बलाग़ा सफ़्हा- 527)

एक दिल और एक दोस्त

कारेईने किराम! जब आपने दोस्त और दुश्मन को पहचान लिया तो उनमें से एक का इन्तेख़ाब करें जैसा कि बुज़ुर्गो का कहना भी है कि "दोस्त को अपनाओ और दोस्त के दुश्मन से दूर रहो- क्या इसके अलावा भी कोई दूसरा रास्ता हो सकता है कि इसको भी दोस्त रक्खो और उसको दुश्मन को भी दोस्त ,न इस से दुश्मनी करो न उस से! ?नहीं! हरग़िज़ नहीं!

दोस्ती में एक दिल और एक रंग होने नीज़ दोस्ती में सिदाक़तो सच्चाई होने पर क़ुरआने मजीद ने बहुत ताकीद की है और दोस्त के दुश्मन से दोस्ती करने को दोस्त की मसख़रा करना क़रार दिया है ,इरशाद होता है-

"और जब उन लोगों से मिलतें हैं जो ईमान ला चुकें हैं तो कहते हैं ,हम तो ईमान ला चुके और जब अपने शैतानों से मिलते हैं तो कहते हैं हम तो तुम्हारे साथ हैं ,हम तो (मुसलमानों) का मज़ाक़ बनाते हैं " (सूरा-ए-बक़रा ,आयत- 14)

और इस तरह का अमल निफ़ाक़ के अलावा कुछ नहीं है-

इसी तरह मुनाफ़िक़ीन के बारे में इरशाद होता है-

"बेशक मुनाफ़िक़ीन जहन्नम के सबसे नीचे तबक़े में हैं।" (सूरा-ए-निसा आयत- 145)

नीज़ इसी चीज़ को मद-दे-नज़र रखते हुए इरशाद होता है-

ख़ुदा वन्दे आलम ने किसी आदमी के सीने में दो दिल नहीं पैदा किये "। (ताकि एक से किसी से मोहब्बत करे और दूसरे दिल से बुग़्ज़ो हसद रक्खे) (सूरा-ए-अहज़ाब आयत- 4)

यहाँ इमामे मासूम अ. के कलाम से पर्दा उठता है कि आपने फ़रमाया-

"क्या दीन दोस्ती और दुश्मनी के अलावा कोई दूसरी चीज़ है "

(उसूले काफ़ी जिल्द- 2,सफ़्हा- 125,बिहारूल अनवार ,जिल्द- 67,सफ़्हा- 52)

यानी दीन का खुलासा यह है कि अल्लाह और रसूल और औलिया-अल्लाह (इमाम) से दोस्ती (तव्वला) और उनके दुश्मनों से दुश्मनी (तबर्रा) की जाये।

इसी तरह इरशाद होता है-

"वह शख़्स झुठा है जो ज़बान से हमारी विलायत (व मुहब्बत) का दावा करे लेकिन हमारे दुश्मनो से बराअत (तबर्रा) और बेज़ारी का इज़हार न करें "

(सरायर सफ़्हा- 94,हवाला- 59,बिहारूल- अनवार ,जिल्द- 27सफ़्हा- 58)

नीज़ मासूम (अ.) फ़रमातें हैं-

"अगर किसी के दिल में हमारी दोस्ती और हमारे दुश्मन की मोहब्बत जमा हो जाये तो वह हम में से नहीं है ,और हमारा भी उससे कोई ताल्लुक़ नहीं है।"

(तफ़्सीरे क़ुम्मी ,सफ़्हा- 514,बिहारूल अनवार जिल्द- 27,सफ़्हा- 51)

लिहाज़ा यहाँ पर दो ही रास्ते हैं-

या तो नबी वाले बनो या अबूसुफ़ियानी और अबूजहली ,या तो अली (अ.) और फ़ातिमा (स.) वाला बने

या उमरी (ल.) ,बूबकरी (ल.) और उसमानी (लानतुल्लाह) बने ,या इमामे हसन (अ.) या माविया(ल.) वाला बने ,या फिर हुसैनी होने की लज़्ज़त हासिल करे या फिर यज़ीदी होने की ज़िल्लत ,क्योंकि ज़ुल्मत और तारीकी का नूर से कोई वास्ता नहीं।

मुहब्बत का इज़हार और आज़ा व जवारेह

(दिल ,दिमाग़ ,जिस्म के हिस्से) में बुग़्ज़।

सिर्फ उस शख़्स का ईमान कामिल है जिसके दिल में ईमान का चश्मा मौजे मारता है हुआ ज़बान की नहर से जारी हो और तमाम आज़ा और जवारेह को सैराब कर दे ,लेहाज़ा ज़रूरी है कि ख़ुदा और रसूल और आलिया-अल्लाह (अहलेबैत) के दुश्मनों से बराअतो बेज़ारी ,इन्सान के ज़बान और किरदार से ज़ाहिर हो।

ज़ाहिर सी बात है कि इन्सान अगर किसी की मुहोब्बत का दम भरता है या किसी से दुश्मनी रखता है तो उसकी ये मुहब्बत या दुश्मनी उसकी ज़बान या हाथ के ज़रिये ज़ाहिर हो क्योंकि जिस चीज़ का दिल हुक्म देता है ,आज़ा व जवारेह को उसकी इताअत करना चाहिये क्योंकि तमाम बदन का हाकिम वही है और कूज़े से वही छलकता है जो उसमें होता है।

जी हाँ। पैग़म्बरे अकरम ,औलिया-अल्लाह और अहलेबैत (अ. स.) से दोस्ती का असर ज़बान के ज़रिये उन पर दरूद और सलाम से होता है और उनके दुश्मनों से नफ़रत और बेज़ारी की अलामत ज़बान के ज़रिये उन पर लानत के ज़रिये ज़ाहिर होती है।

वाक़ेअन तअज्जुब है उस शख़्स पर जो हज़रत अली (अ.) और हज़रते फ़ातिमा ज़हरा (स.) से मुहब्बत का दावा करे लेकिन दिल के एक गोशे में अबूबक्रे मलऊन और उमरे मलऊन की दोस्ती छुपी हुई हो क्योंकि कभी-कभी ख़्वास्ता न ख़्वास्ता (जाने-अनजाने) में दिल में छुपा हुआ राज़ ज़ाहिर हो जाता है इसी लिये हज़रत अली (अ.) ने इरशाद फ़रमाया- "गुफ़तुगू करो ताकि पहचान हो जाऐ क्योंकि इन्सान की हक़ीक़त उसकी ज़बान पर ज़ाहिर और रौशन हो जाती है "। (इमाली ,शैख़े तूसी (रह 0)सफ़्हा- 494,हदीस 51,बिहारूल अनवार ,जिल्द 71सफ़्हा- 283)

दूसरी फ़स्ल

क़ुरआन में किन लोगों पर लानत की गई है

चन्द गिरोहों पर क़ुरआने मजीद में ख़ुदा और औलिया-अल्लाह की तरफ़ से वाज़ेह तौर (ख़ुले रूप) से लानत की गई है।

सवाल यह पैदा होता है कि "लानत" के क्या मतलब है ?

तो इस सवाल के जवाब में यह कहा जायेगा कि लानत के मानी दूरी करना और छोङ देना है ,तो अब ख़ुदा की लानत का मतलब यह है कि ख़ुदा किसी को अपनी रहमत से दूर कर दे या अपने  लुत्फ़ ओ करम को ख़त्म कर दे।

क़ुरआने मजीद में जिन लोगों पर लानत की गई उन्में चन्द गिरोह यह है-

1.ख़ुदा और रसूल को अज़ीयत देने वाले।

2.हक़ाएक़े इलाही पर पर्दा डालने वाले।

3.ज़ालेमीन (ज़ुल्म करने वाले)।

ख़ुदा व रसूल को अज़ीयत देने वाले

सुन्नी शिया दोनों किताबों में इस तरह की बहुत सी रवायतें मौजूद  हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम (स. अ.) ने इरशाद फ़रमाया-

"फ़ातिमा (स.) मेरा टुकङा हैं जिसने उसे अज़ीयत दी उसने मुझे अज़ीयत दी और जिसने मुझे अज़ीयत दी उसने ख़ुदा को अज़ीयत दी।" (सही बुख़ारी ,जिल्द- 5स- 96,मतबूआ दारूल-उलूम ,अवालिमे हज़रते ज़हरा (स.) जिल्द- अव्वल ,स- 143)

हज़रते सिद्दीक़ा-ए-कुबरा फ़ातिमा शहीदा( 1)के घर में आग लगाने का दर्दनांक वाक़िया और आपके पहलू-ए-मुबारक पर जलता हुआ दरवाज़ा गिरने से मासूम बच्चे हज़रते मोहसिन( 2)का शहीद हो जाना ,इसी तरह शहज़ादि-ए-दो आलम का शबो रोज़ ख़ून के आँसू बहाना ,नीज़ आपको रात में दफ़्न करना और आपकी क़ब्र का मख़फ़ी रहना( 3)।

बैतुल अहज़ान ,स. 109,तारीख़े तबरी जि- 2स. 443,मतबूआ मकतबा-ए-ग़रीब ,मिस्र।

मनाक़िब इब्ने हरे आशोब ,जि. 3,स. 385। सियरे अलामुल-नब्ला जि. 15,स. 278।

बैतुल अहज़ान बाबे कैफ़ियते दफ़्ने फ़ातिमा ज़हरा (स 0),सही बुख़ारी ,जि. 5,स. 252,दारूल इल्म ,मिस्र।)

और जिस वक़्त वह दोनो (अबुबक्र और उमर) हज़रते मासूमा-ए-आलम की ज़ाहिरी अयादत के लिये गये लेकिन हक़ीक़त यह है कि दोनों अयादत के लिये नहीं बल्कि दुख़्तरे रसूल (स.अ.) को बिस्तरे अलालत पर तड़पता हुआ देखने के लिये गये थे ,उस वक़्त बीबी ने उनसे वाज़ेह तौर पर उनसे बराअत और बेज़ारी का सबूत दिया ,यहाँ तक कि आपने उनके (अबुबक्र और उमर मलऊन) सलाम का जवाब भी न दिया और सबके सामने ख़ुदा को गवाह क़रार दिया कि इन दोनों ने मुझे अज़ीयत पहुँचाई है।

यह सब कुछ तारीख़ी गवाह और ऐनी शाहिद है कि इन लोगों (अबूबक्र ,उमर और उनके साथी) ने हज़रते ज़हार सलामुल्लाहे अलैहा को अज़ीयत पहुँचाई है और नबी-ए-अकरम की इकलौती बेटी को सताया और हदीस की रौशनी में हज़रते ज़हरा ससामुल्लाहे अलैहा को अज़ीयत देने वाला ख़ुदा को अज़ीयत देने वाला है ,कुरआने मजीद में ऐसे लोगों को ख़ुले तौर पर लानत का हक़दार बताया है-

बेशक जो लोग ख़ुदा और रसूल को अज़ीयत देते हैं ,उन पर ख़ुदा ने दुनिया और आख़िरत दोनों में लानत की है और उनके लिये रूसवा करने वाला अज़ाब तैयार कर रक्ख़ा है।

(सूरा-ए-अहज़ाब ,आयत- 57)

इस लिये हज़रत फातिमा ज़हरा सलामुल्लाहे अलैहा ने अबुबक्र (ल 0)से फ़रमाया-

मैं हर नमाज़ के बाद तुम पर नफ़रीन और लानत करूँगी।

कारेईने किराम अगर हम भी इन लोगों पर लानत करते हैं तो ग़ैर आक़िलाना एहसासात की वजह से नहीं बल्कि क़ुरआन के हुक्म की वजह से इनको लानत का मुस्तहक़ समझते हैं और ख़ुदा वन्दे आलम के सिखाये हुए अदब की वजह से यानी दोस्त को तलाश व कोशीश करना चाहिये कि अपने महबूब की शबीह और मिस्ल बना दे ताकि उसके नज़दीक हो सके।

इलाही हक़ाएक़ को छुपाने वाले

एक दूसरी हक़ीक़त यह है कि इन लोगों ने दीने इस्लाम के रोज़े रौशन की तरह वाज़ेह हक़ाएक (सच्चाईयों) पर पर्दा डाला और उनका इन्कार किया।

चुनाँचें पैग़म्बरे अकरम ने अपनी हयाते तय्यबा के हुज्जतुल-विदा की वापसी के मौक़े पर रोज़े ग़दीर ( 18ज़िलहिज) को ख़ुदा के हुक्म से सवा लाख हाजियों के सामने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को अपना जानशीन व ख़लीफ़ा मुक़र्रर फ़रमाया और अपनी उम्मत तक का रास्ता वाज़ेह तौर पर बयान फ़रमा दिया यह ऐलान आलमी पैमाने पर दुनिया भर से आये मुख़्तलिफ़ मक़ामात के नुमाईन्दों के सामने किया गया ताकि किसी मुसलमान के लिये ज़र्रा बराबर भी शक की गुंजाईश बाक़ी न रहे यही नहीं बल्कि आँहज़रत सलल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम ने अपनी हयाते तय्यबां में अपने बाद ख़िलाफ़त के मसअले को बयान फ़रमाया जिनका ज़िक्र शिया सुन्नी तारीख़ी ,अहादीसी ,तफ़्सीरी और ऐतेक़ादी किताबों में मौजूद है। ख़िलाफ़त ओ इमामत का यह मसअला सबसे बङी हक़ीक़त है जिसको ख़ुदा वन्दे आलम ने नाज़िल किया और अपने महबूब पैग़म्बर को ख़िताब करके फरमाया-

व इन लम तफ़अल फ़मा बल्लग़ता रिसालतहू- अगर आपने यह काम (ऐलाने विलायते हज़रत अली अलैहिस्सलाम ) न किया तो गोया सारी रिसालत का कोई काम ही अन्जाम न दिया

(सूरा-ए-मायदा ,आयत- 67)

लेकिन इस गुमराह गिरोह ने इस अहम हक़ीक़त और नबा-ए-अज़ीम से साफ़ इन्कार कर दिया या इसमें तहरीफ़ करने लगे और जब दीन के इस असासी और बुनियादी रूकन का इन्कार कर दिया तो फिर इनको कोई चीज़ रोकना सकी ,हज़ारों अहकामे इलाही को बदल डाला और दीन में बिदअतें फैलाना शुरू कर दीं। (इन लोगों ने क्या बिदअते फैलाईं इस सिलसिलें में किताब नस ओ इज्तेहाद का मुतालेआ करें)

इनके क्या क्या कारनामें थे जिनकी बिना पर क़ुरआने मजीद के मुताबिक़ इन्होंने अपने को ख़ुदा और तमाम लानत करने वालों की लानत का मुस्तहक़ बना लिया-

बेशक जो लोग (हमारी) इन रौशन दलीलों और हिदायतों को जिन्हें हमने नाज़िल किया है ,इसके बाद छुपाते हैं जबकि हम किताब में लागों के सामने साफ़-साफ़ बयान कर चुके हैं यही लोग हैं जिन पर ख़ुदा भी लानत करता है और लानत करने वाले भी लानत करतें हैं।

(सूरा-ए-बक़रा ,आयत , 159)

क़ारेईने किराम तव्वजो फ़रमायें कि इस गिरोह पर न सिर्फ़ लानत करना बुरा काम है बल्कि इन लोगों पर लानत करने वालों की ख़ुदा की नज़र में इतनी अहमियत है कि ख़ुदा ने लानत करने वालों को अपनी रदीफ़ (साथ) में रक्ख़ा है ,यानी इस गिरोह पर ख़ुदा की लानत और लानत करने वालों की लानत है।

किस क़द्र अहम बात है कि ख़ुदा वन्दे आलम ने अपने नाम के बाद लानत करने वालों को क़रार दिया है।

ज़ालेमीन

अला लानतुल्लाहे अल्लल क़ौमिज़ ज़ालेमीन- (आगाह रहो कि ज़ालेमीन पर ख़ुदा की लानत है। )

(सूरा-ए-हूद ,आयत , 18)

आप ख़ुद बताऐं कि क्या दीने इस्लाम के रास्ते में इन्हेराफ़ करने और उम्मते इस्लाम में इख़्तिलाफ़ की बुनियाद डालने और फ़ितना ओ फ़साद को हवा देने से बढ़कर कोई ज़ुल्म हो सकता है ?क्या वह लोग जिन्होंने ख़ाना-ए-वही ( बीबी फ़ातिमा (स.अ.) का घर ) को आग लगाई ,शहरे इल्मे नबी के दरवाज़े को बन्द कर दिया ,लोगों को गुमराह कर डाला और रिश्तेदारी का नजायज़ इस्तेमाल करते हुए ख़ुद को अल्लाह और रसूल का ख़लीफ़ा क़रार दिया और ख़ुदा के और रसूल के नाम पर कोई ज़ुल्म व ज़्यादती और ख़्यानत न छोड़ी ,कोई ऐसा सितम नहीं जो अन्जाम न दिया हो ,क्या यह सब कुछ अन्जाम देने वाले ज़ालिम नहीं ? !

"अगर यह सब ज़ुल्म नहीं तो ज़ुल्म क्या है ?"।

और ज़ालिम कौन हैं ?क्योंकि इनसे बढ़कर और क्या ज़ुल्म तसव्वुर किया जा सकता है ?।

एक दूसरा सवाल यह पैदा होता है कि जिन लोगों ने ख़ुदा पर लानत की है उनके बारे में हमारा वज़ीफ़ा (अमल) क्या है ?

हमें क्या करना चाहिये ताकि इमामे जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की लानत के मुस्तहक़ हम न हों क्योंकि आप फ़रमाते हैं-

"जो शख़्स ख़ुदा के लानत शुदा लोगों पर लानत करने को गुनाह तसव्वुर करे ,उस पर ख़ुदा की लानत है "। (किताब- रिजाल-कशी सफ़्हा- 528)