पहली फ़स्ल
(पहला भाग)
बन्दगी की पहली शर्त कल्मा-ए- "ला-इलाहा इलल्लाह" है जिसका पहला हिस्सा "ला इलाह" है जिसका मतलब है दूसरे तमाम ख़ुदाओ का इन्कार करना
,उनसे बेज़ारी (तबर्रा) का ऐलान करना और उन सब से दूरी करना
,उसके बाद कहीं "इलल्ल-लाह" की बारी आती है यानी दूसरे तमाम ख़ुदाओं के इन्कार के बाद ख़ुदाऐ वहदहू ला शरीक की वहदानियत का इक़रार करना होता है।
जैसा कि ख़ुदा वन्दे आलम ने क़ुरआने करीम में इलाही रस्सी के तमस्सुक (जुङने) के लिये ताग़ूत (गुमराह करने वाला
,शैतान) से इन्कार रक्ख़ा है और उसके बाद ख़ुदा पर इमान रखना क़रार दिया है
,इरशाद होता है-
"जिस शख़्स ने झूठे ख़ुदाओं (बुतों) से इन्कार किया और ख़ुदा ही पर ईमान लाया तो उसने वह मज़बूत रस्सी पकङ ली जो टूट ही नहीं सकती।"
(सुरा-ए-बक़रा
,आयत-
257)
यह वह शर्त है जिसको हर साहबे अक़्ल समझता है यहाँ तक की वह काफ़िर भी जो बुतों की पूजा करता है
,तमाम चीज़ों से अपनी आँख़े बन्द कर लेता है और उनको पसे पुश्त (अनदेखा) कर देता है
,यहाँ तक के अपने दिल में मौजूद ख़ुदा के नाम पर क़लम फ़ेर कर बुत के सामने सजदे में गिर जाता है।
अज़ हर चे ग़ैर दोस्त चराँन्गज़रद कसे
काफ़िर बराऐ ख़ातिरे बुत अज़ ख़ुदा गज़श्त
(क्योंकर ग़ैरे दोस्त से दोस्ती इख़्तियार न की जाऐ
,जबकि काफ़िर बुत की ख़ातिर ख़ुदा से दूर हो गया)
हर साहबे अक़्ल इस बात पर यक़ीन रखता है कि अपने दोस्त के साथ बैठना और दोस्त के दुश्मन से ताल-मेल रखना
,दोस्ती और सिदक़ो सफ़ा के उसूल और क़वानीन के ख़िलाफ़ है ऐसा करने से निफ़ाक़ ओ क़ुदरत की बू आती है।
लिहाज़ा सबसे पहले ज़रूरी है कि दोस्त और दुश्मन को पहचानें ताकि दोस्त से दोस्ती की जाये और दुश्मन से दुश्मनी।
दोस्त कौन है और दुश्मन कौन
?
हज़रत अमीरूलमोमिनीन अली इब्ने अबीतालिब (अ.) फ़रमाते हैं-
दोस्त की तीन क़िस्में हैं
,और दुश्मन की भी
,दोस्त यह है- तुम्हारा दोस्त
,तुम्हारे दोस्त का दोस्त
,तुम्हारे दुश्मन का दुश्मन. और दुश्मन यह है
,तुम्हारा दुश्मन
,तुम्हारे दोस्त का दुश्मन और तुम्हारे दुश्मन का दोस्त। (नहजुल बलाग़ा सफ़्हा-
527)
एक दिल और एक दोस्त
कारेईने किराम! जब आपने दोस्त और दुश्मन को पहचान लिया तो उनमें से एक का इन्तेख़ाब करें जैसा कि बुज़ुर्गो का कहना भी है कि "दोस्त को अपनाओ और दोस्त के दुश्मन से दूर रहो- क्या इसके अलावा भी कोई दूसरा रास्ता हो सकता है कि इसको भी दोस्त रक्खो और उसको दुश्मन को भी दोस्त
,न इस से दुश्मनी करो न उस से!
?नहीं! हरग़िज़ नहीं!
दोस्ती में एक दिल और एक रंग होने नीज़ दोस्ती में सिदाक़तो सच्चाई होने पर क़ुरआने मजीद ने बहुत ताकीद की है और दोस्त के दुश्मन से दोस्ती करने को दोस्त की मसख़रा करना क़रार दिया है
,इरशाद होता है-
"और जब उन लोगों से मिलतें हैं जो ईमान ला चुकें हैं तो कहते हैं
,हम तो ईमान ला चुके और जब अपने शैतानों से मिलते हैं तो कहते हैं हम तो तुम्हारे साथ हैं
,हम तो (मुसलमानों) का मज़ाक़ बनाते हैं " (सूरा-ए-बक़रा
,आयत-
14)
और इस तरह का अमल निफ़ाक़ के अलावा कुछ नहीं है-
इसी तरह मुनाफ़िक़ीन के बारे में इरशाद होता है-
"बेशक मुनाफ़िक़ीन जहन्नम के सबसे नीचे तबक़े में हैं।" (सूरा-ए-निसा आयत-
145)
नीज़ इसी चीज़ को मद-दे-नज़र रखते हुए इरशाद होता है-
ख़ुदा वन्दे आलम ने किसी आदमी के सीने में दो दिल नहीं पैदा किये "। (ताकि एक से किसी से मोहब्बत करे और दूसरे दिल से बुग़्ज़ो हसद रक्खे) (सूरा-ए-अहज़ाब आयत-
4)
यहाँ इमामे मासूम अ. के कलाम से पर्दा उठता है कि आपने फ़रमाया-
"क्या दीन दोस्ती और दुश्मनी के अलावा कोई दूसरी चीज़ है "
(उसूले काफ़ी जिल्द-
2,सफ़्हा-
125,बिहारूल अनवार
,जिल्द-
67,सफ़्हा-
52)
यानी दीन का खुलासा यह है कि अल्लाह और रसूल और औलिया-अल्लाह (इमाम) से दोस्ती (तव्वला) और उनके दुश्मनों से दुश्मनी (तबर्रा) की जाये।
इसी तरह इरशाद होता है-
"वह शख़्स झुठा है जो ज़बान से हमारी विलायत (व मुहब्बत) का दावा करे लेकिन हमारे दुश्मनो से बराअत (तबर्रा) और बेज़ारी का इज़हार न करें "
(सरायर सफ़्हा-
94,हवाला-
59,बिहारूल- अनवार
,जिल्द-
27सफ़्हा-
58)
नीज़ मासूम (अ.) फ़रमातें हैं-
"अगर किसी के दिल में हमारी दोस्ती और हमारे दुश्मन की मोहब्बत जमा हो जाये तो वह हम में से नहीं है
,और हमारा भी उससे कोई ताल्लुक़ नहीं है।"
(तफ़्सीरे क़ुम्मी
,सफ़्हा-
514,बिहारूल अनवार जिल्द-
27,सफ़्हा-
51)
लिहाज़ा यहाँ पर दो ही रास्ते हैं-
या तो नबी वाले बनो या अबूसुफ़ियानी और अबूजहली
,या तो अली (अ.) और फ़ातिमा (स.) वाला बने
या उमरी (ल.)
,बूबकरी (ल.) और उसमानी (लानतुल्लाह) बने
,या इमामे हसन (अ.) या माविया(ल.) वाला बने
,या फिर हुसैनी होने की लज़्ज़त हासिल करे या फिर यज़ीदी होने की ज़िल्लत
,क्योंकि ज़ुल्मत और तारीकी का नूर से कोई वास्ता नहीं।
मुहब्बत का इज़हार और आज़ा व जवारेह
(दिल
,दिमाग़
,जिस्म के हिस्से) में बुग़्ज़।
सिर्फ उस शख़्स का ईमान कामिल है जिसके दिल में ईमान का चश्मा मौजे मारता है हुआ ज़बान की नहर से जारी हो और तमाम आज़ा और जवारेह को सैराब कर दे
,लेहाज़ा ज़रूरी है कि ख़ुदा और रसूल और आलिया-अल्लाह (अहलेबैत) के दुश्मनों से बराअतो बेज़ारी
,इन्सान के ज़बान और किरदार से ज़ाहिर हो।
ज़ाहिर सी बात है कि इन्सान अगर किसी की मुहोब्बत का दम भरता है या किसी से दुश्मनी रखता है तो उसकी ये मुहब्बत या दुश्मनी उसकी ज़बान या हाथ के ज़रिये ज़ाहिर हो क्योंकि जिस चीज़ का दिल हुक्म देता है
,आज़ा व जवारेह को उसकी इताअत करना चाहिये क्योंकि तमाम बदन का हाकिम वही है और कूज़े से वही छलकता है जो उसमें होता है।
जी हाँ। पैग़म्बरे अकरम
,औलिया-अल्लाह और अहलेबैत (अ. स.) से दोस्ती का असर ज़बान के ज़रिये उन पर दरूद और सलाम से होता है और उनके दुश्मनों से नफ़रत और बेज़ारी की अलामत ज़बान के ज़रिये उन पर लानत के ज़रिये ज़ाहिर होती है।
वाक़ेअन तअज्जुब है उस शख़्स पर जो हज़रत अली (अ.) और हज़रते फ़ातिमा ज़हरा (स.) से मुहब्बत का दावा करे लेकिन दिल के एक गोशे में अबूबक्रे मलऊन और उमरे मलऊन की दोस्ती छुपी हुई हो क्योंकि कभी-कभी ख़्वास्ता न ख़्वास्ता (जाने-अनजाने) में दिल में छुपा हुआ राज़ ज़ाहिर हो जाता है इसी लिये हज़रत अली (अ.) ने इरशाद फ़रमाया- "गुफ़तुगू करो ताकि पहचान हो जाऐ क्योंकि इन्सान की हक़ीक़त उसकी ज़बान पर ज़ाहिर और रौशन हो जाती है "। (इमाली
,शैख़े तूसी (रह
0)सफ़्हा-
494,हदीस
51,बिहारूल अनवार
,जिल्द
71सफ़्हा-
283)