तीसरी फ़स्ल
दुश्मनाने दीन के बारे में अहलेबैत (अलैहिस्सलाम
)की सीरत
कारेईने किराम! अब जबकि क़ुरआने मजीद की रौशनी से मलऊईन ( जिन पर लानत हो ) की पहचान हो गई है तो आईये अहलेबैत अलैहमुस्सलाम की बज़्म में बैठ कर यह पता लगायें कि इन लोगों पर लानत करने और इन से बेज़ारी की अहमियत क्या है और इन लोगों पर किस तरह लानत की जाये
?।
आइये तारीख़ के सफ़्हात (पन्नों) में तलाश करते हैं-
(1)हज़रते रसूले अकरम (स.अ.) का इरशादे गिरामी है-
"मैं बहिशत में दाख़िल हुआ तो उसके दरवाज़े पर लिखा हुआ था- "ला इलाहा इलल्ललाह
,मुहम्मदन हबीबल्लाह
,अली इब्ने अबी तालिब वलीउल्लाह
,फ़ातिमा अममतुल्लाह
,अल-हसनो वल हुसैन सिफ़वतुल्लाह
,अला मुबग़ज़ीहुम लानतुल्लाह "।
तरजुमा- "अल्लाह के अलावा कोई माबूद नहीं
,हज़रते मुहम्मद अल्लाह के हबीब हैं
,हज़रत अली इब्ने अबी तालिब अल्लाह के वली हैं
,और फ़ातिमा ज़हरा ख़ुदा की मुन्तख़ब कनीज़ हैं और इमामे हसन व इमामे हुसैन अल्लाह के चुने हुए हैं इन से बुग़्ज़ ओ हसद रखने वालों पर अल्लाह की लानत है "।
दुशमनाने दीन से बेज़ारी और उन पर लानत करना जन्नत में वारिद होने की शर्तों में से एक शर्त है
,जन्नत के दरवाज़े से वही दाख़िल हो सकता है जो दुनिया में हज़राते मोहम्मद वा आले मोहम्मद अलैहमुस्सलाम के दुश्मनो पर लानत को अपना शिआर (आदत) बनाये हुऐ है।
बा-दस्ते ख़ुद बर दरे जन्नत नवशित।
बुग़्ज़े अली जहन्नम
,व हुब्बे अली बहुश्त।
(अपने हाथ से जन्नत के दरवाज़े पर लिखा कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम से बुग़्ज़ और दुशमनी जहन्नम है और उनकी मोहब्बत और दोस्ती जन्नत है।)
(2).ज़ियारते आशूरा- यह वह ज़ियारत है जिसकी सनद (सबूत) मुस्तहक़म और मतीन (प्रमाणित) है
,जिस पर सद्रे इस्लाम (इस्लाम के शुरूआती दौर) ही से उल्मा-ए-इस्लाम ने ताईद और ताक़ीद (ज़ोर देना) की है
,इस ज़ियारत में करबला के दर्दनांक वाक़ेये की बुनियाद डाले जाने का बयान किया गया है और उन बुनियाद डालने को पहचनवाया गया है और उन पर लानत की गई है
,इस ज़ियारत में ख़ुदा और अहलेबैते रसूल के दुश्मनो पर लानत भेजने को दीन की बुनियाद बताया गया है और उन पर लानत को ख़ुदा और औलिया-अल्लाह से तक़र्रूब (क़रीब होने) का ज़रिया बताया हः-
"अल्ला हुम्मा इन्नी अतक़रूब इलैका-------- बिल बराअते मिनहुम वल लानता अलैहिम"
(तरजुमाः- ख़ुदाया! मैं क़ुरबत चाहता हूँ
,उन लोगों (जिन्होंने आले मुहम्मद पर ज़ुल्म किये) से बराएत बेज़ारी और लानत के ज़रिये)
इस ज़ियारते शरीफ़ में अहलेबैत अलैहुम्मुस्साल पर ज़ुल्मों सितम की बुनियाद डालने वालों पर लानत का हुक्म औलिया-अल्लाह पर दुरूद और सलाम से भी ज़्यादा हुआ है।
इस ज़ियारत के आख़िर में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम
,अहलेबैत अलैहुम्मुस्सलाम और आपके असहाब पर सौ मरतबा दुरूद और सलाम से पहले
,सौ मरतबा दुश्मनो पर लानत को मुक़द्दम (अहमियत) रक्ख़ा गया है यानी पहले सौ मरतबा दुश्मनो पर लानत पढ़ी जाती है
,उसके बाद इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और आपके असहाब पर सौ मरतबा सलाम भेजा जाता है।
इससे लानत की अहमियत वाज़ेह हो जाती है कि दीने इस्लाम में लानत का मसअला कितना असासी और बुनियादी है।
सलाम के बाद एक बार फिर हाथ बुलन्द किये जाते है और इन तमाम ज़ुल्म व सितम की बुनियाद रखने वालों पर एक-एक करके लानत की जाती हैः-
अल्ला हुम्मा ख़ुस्सा अन्ता अव्वला ज़ालिम (अबूबक्र) बिल-लाअन मिन्नी व अब्दा बेह अव्वलन सुम्मा सानी ( उमर ) वस-सालिस ( उसमान ) वर-राजेह ( माविया )
,अल्ला हुम्मा लाअन यज़ीद ख़ामेसन--------।
(तरजुमाः- ऐ अल्लाह! सबसे पहले ज़ालिम अबूबक्र पर मेरी तरफ़ से मख़सूस लानत हो और उसी से लानत की शुरूआत करता हूँ और उसके बाद दूसरे उमर पर
,उसके बाद तीसरे उसमान पर और उसके बाद चौथे माविया पर
,परवरदिगार फिर इनके पाँचवे यज़ीद पर लानत फ़रमा)
इन्सान एक के बाद एक लानत के बाद अपने को बारगाहे परवरदिगार में इस क़दर नज़दीक पाता है कि के जुमरे (गिरोह) में शामिल हो जाये।
(3)-हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम हर नमाज़ के बाद चार मर्दों और चार औरतों पर लानत किया करते थे। मर्दों में अबूबक्र
,उमर
,उसमान और माविया पर लानत और औरतों में अबूबक्रे मलऊन की बेटी आयशा पर
,उमर की बेटी हफ़्सा पर
,अबूसुफ़ियान की बीवी और माविया की माँ हिन्दा पर और उम्मुल-हकम पर।
कारेईने किराम! इमाम (अ.स.) का हर नमाज़ के बाद इन लोगों पर लानत करना इस बात की वजह से था कि इन लोगों ने ख़ुदा और रसूल और दीने ख़ुदा नीज़ उम्मते रसूल पर ज़ुल्मों सितम किये
,जैसा कि आपने कुमैत इब्ने ज़ैद के जवाब में इरशाद फ़रमायाः-
"ऐ कुमैल बिन ज़ैद! इस्लाम में किसी का ख़ूने ना-हक़ नहीं बहेगा
,हराम तरीक़े से मालो दौलत क़स्ब नहीं की जायेगी
,कोई ज़िना नहीं होगा मगर यह कि इनका हिसाब इन दोनों ( उमर और अबूबक्र ) की गर्दन पर होगा
,यहाँ तक की हम अहलेबैत में से क़ायमें आले मुहम्मद (अ.स.) क़याम (ज़ाहिर) करेगा। "
"हम बनी हाशिम अपने छोटे बड़ों को हुक्म देते हैं कि इन दोनों पर लानत करें और इनके लिये ना-सज़ा कहें।"
इस सिलसिले में अहलेबैत इस्मतो तहारत (अ.स.) से बहुत सी रवायतें मौजूद हैं जो इस मुख़्तसर किताब की वुस्अत से बाहर हैं
,मसअलन हज़रते अमीरूल- मोमिनीन (अ.स.) की वह दुआ जिसको आप शबो रोज़ की नमाज़े में दर्द भरी आवाज़ से पढ़ा करते थे और अबूबक्र और उमर और उनकी बेटियों पर लानत किया करते थे। (वह दुआ सनमी क़ुरैश (बलदुल-अमीनः – सः-
551)है जिसका तरजुमा किताब के आख़ीर में पेश किया जाऐगा)।
इसी तरह हज़रत इमामे जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) से एक दूसरी दुआ जिसमें इन ना-अहलों पर बेशुमार लानते की गई हैं
,आप फ़रमाते हैः-
"हमारे दोस्तो और शियों पर हमारा हक़ यह है कि हर नमाज़ के बाद इस दुआ को पढ़ें "।
बराअत (तबर्रा) शर्ते ईमान है
(1)हज़रते रसूले अकरम (स.अ.) फ़रमाते हैः-
"ख़ुदा वन्दे आलम किसी बन्दे के ईमान को उस वक़्त तक क़ुबूल नहीं करता जब तक हज़रत अली (अ.स.) की विलायत और उनके दुश्मनो से बेज़ारी न करे "।
(2)हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) फ़रमाते हैः-
"अगर कोई शख़्स हमारे दुश्मनो को दोस्त रक्खे या हमारी दोस्ती को दुश्मन रक्खे! क़सम उस परवरदिगार की जिसने सबऐ मसानी और क़ुरआने करीम को नाज़ील किया ऐसा शख़्स काफ़िर है " ।
(3)यह भी फ़रमाते हैः-
"उस ख़ुदा की क़सम जिसने हज़रते मुहम्मदे मुस्तफ़ा (स.अ.) को मबऊस बा-रिसालत किया अगर जनाबे जिबरईल और मिकाईल के दिल में ज़र्रा बराबर भी उमर और अबूबक्र की मुहब्बत होती तो ख़ुदा उनको आतीशे जहन्नम में डाल देता "।
(4)फिर इमामे जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) फ़रमाते हैः-
"जो शख़्स भी हमारे दुश्मनो और हम पर ज़ुल्म करने वालों के काफ़िर होने में शक करे बेशक वो काफ़िर है "।
अहलेबैत के दुश्मनो पर लानत करने की फ़ज़ीलत
हज़रत इमाम ज़ैनुल-आबिदीन (अ.स.) फ़रमाते हैः-
"जो शख़्स उमर और अबूबक्र पर दिन में एक मरतबा लानत करे ख़ुदा वन्दे आलम सत्तर-सत्तर हज़ार नेकियाँ उसके नामा-ए-आमाल में लिख देता है और सत्तर-सत्तर हज़ार गुनाह मिटा देता है और सत्तर-सत्तर हज़ार दरजात बुलन्द कर देता है और जो शख़्स राम में उन पर एक मरतबा लानत करे उसके लिये भी वही अज्र और सवाब है "। (शिफ़ा-उस-सुदूर
,जिः-
2,सः-
378)
1.बहुत से दलाएल और शवाहिद मौजूद हैं कि जिब्त और ताग़ूत से अबूबक्र और उमर मुराद हैं।