खुरूजे मुख्तार

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खुरूजे मुख्तार लेखक:
: मौलाना सैय्यद अली हसन अख़तर अमरोहवी
कैटिगिरी: शियो का इतिहास

खुरूजे मुख्तार

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: सैय्यद मौहम्मद अली अफ़ज़ई
: मौलाना सैय्यद अली हसन अख़तर अमरोहवी
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खुरूजे मुख्तार
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खुरूजे मुख्तार

खुरूजे मुख्तार

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

ज़िन्दगी ए मुख़्तार

हर आज़ाद इन्सान की ज़िन्दगी उसके माँ बाप और उसकी तरबियत से वाबस्ता है तारीख़ का मुतालेआ करने वाले ख़ूब जानते हैं कि एक बुलन्द फ़िक्र आज़ाद मर्द हमेशा एक मुक़द्दस आग़ोश और आली ख़ानदान की परवरिश का नतीजा होता है लेकिन इससे भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि कभी कभी शाज़ व नादर ख़श व ख़ाशाक के ढेर से भी लाला का फूल उगा है।

क़बीला ए सक़ीफ़

तायफ़ के हिजाज़ का एक मर्दम ख़ेज़ ख़ित्ता था जिस में अबु उबैदा बिन मसऊद (पदरे मुख़्तार) उरवा इब्ने मसऊद (अम्मूई मुख़्तार) अबु इस्हाक़ मुख़्तार इब्ने अबु उबैदे सक़फ़ी जैसे नामवर दिलावर अफ़राद पैदा हुए जिनकी मर्दानगी के नुक़ूश आज भी तारीख़ में मौजूद हैं।

मक्का की फ़तहा के बाद लश्करे इस्लाम ने ताएफ़ का रूख़ किया जहाँ क़बीला बनी सक़ीफ़ सुकूनत पज़ीर था वाक़ेआ यह पेश आया की अहले तायफ़ शिकस्त ख़ाकर पीछे हटे और शहर में क़िला बन्द हो गया।

लश्करे इस्लाम ने शहर का मुहासिरा कर लिया उनके बाग़ात व काश्त को बर्बाद किया मगर शहर पर क़ाबिज़ न हो सके की ज़िक़ाद का महिना आ गया और लश्करे इस्लाम मुहासिरा ख़त्म करके मक्के रवाना हो गया बिन आख़ीर तायफ ने इस्लाम क़ुबूल किया और लश्करे इस्लाम के नामूर बहादुरों में शुमार हुआ।

पिदरे मुख़्तार

पिदरे मुख़्तार (अबु उबैद बिन मसऊदे सक़फ़ी) मुजाहिदे इस्लाम ईरान और इस्लाम की जंग में शहीद हो गये यही मुख़्तार का बाप एक रोज़ इस्लाम के ख़िलाफ़ जंग कर रहा था लेकिन आज इस्लाम की राह में जान दे रहा है वजह ज़ाहिर और रौशन है कि जिस ज़माने में इस्लाम की हक़्क़ानियत पर पर्दा डाल कर उसको दीने हक़ की सदाक़त से ग़ाफ़िल रखा गया था तायफ़ की जंग के बाद उसको मालूम हुआ की दीने इस्लाम की तमाम अदयान से बेहतर और बर्तर है चुनाँचे इस्लाम के लश्कर के सरदारों में नाम पाकर इस्लाम की राह में जामे शहादत पिया।

जंगे ईरान और इस्लाम में मुख़्तार अपने बाप के हमराह था मगर कमसिन होने की वजह से शरीक़े जंग न था बाप की शहादत के बाद अपने चचा की सरपरस्ती में जो मोहिब्बे अहलेबैत था ज़िन्दगी बसर की।

मादरे मुख़्तार

मुख़्तार की वालिदा (दो-मतुल हसना) एक शेर दिल और शेर परवर ख़ातून थीं उनकी शुजाअत और दिलेरी के अफ़साने बेशुमार हैं हम ब-नज़रे इख़्तेसार सिर्फ़ इस वाक़ेआ पर इक्तेफ़ा करेंगे के इस्लाम और ईरान की जंग में यह ख़ातून अपने शौहर अबु उबैद ए सक़फ़ी के हमराह मसरूफ़े जेहाद थी और इस बहादुर ख़ातून ने उस जंग में अपने बहादुर शौहर को जामे शहादत पीते देखा।

कारनामा ए मुख़्तार

बाप की शहादत के बाद मुख़्तार ने अपना चचा साद बिन मसऊद की ज़ेरे सरपरस्ती जवानी का ज़माना गुज़ारा क्योंकि यह सारा घर इस्लाम का ख़ैर ख़ाह और दोस्तदाराने अहलेबैते अतहार था। मुख़्तार के दिल में भी मोहब्बते अहलेबैत जोश ज़न थी। सिर्फ़ दो वाक़ेआत हम पेश कर रहे हैं जो मुख़ालेफीने मुख़्तार के रूख़सार पर एक ज़बरदस्त तमाचा है।

(1) जिस ज़माने में ज़्याद बिन अबीहा हाकिमे कूफ़ा था। हजर इब्ने अदी के ख़िलाफ़ दोस्ती ए अहलेबैत (अ.स) के जुर्म में एक शिकायत नामा तैयार किया गया जिस पर मोअज़्ज़ेज़िने कूफ़ा के दस्तख़त लिये गये जब मुख़्तार की बारी आई तो मुख़्तार ने उस पर दस्तख़त करने से साफ़ इन्कार कर दिया।

(2) जब कूफ़ा की हुकूमत मुख़्तार के क़ब्ज़े में गई तो मुख़्तार ने अहलेबैते अतहार (अ.स) से दरख़ास्त की के वह इस हुकूमत को जो उन्हीं का हक़ है मन्ज़ूर फ़रमालें।

(अल-अफ़्फ़ानी जिल्द 4 स. 7)

मुख़्तार के इज़्ज़त व एहतेराम की हुकूमते वक़्त की नज़र में एक ख़ास वजह यह थी कि मुख़्तार की हमशीरा अब्दुल्लाह बिन उमर से जिसकी इज़्ज़त हुकूमत ख़ुद करती थी मनसूब थी।

तव्वाबीन की हंगामा आराई के वक़्त मुख़्तार की ज़िन्दगी से रिहाई का बायस भी यही रिश्ता बना।

मुख़्तार की फ़िदाकारी

जिस ज़माने में इमाम हसन (अ.स) और मुआविया में नेज़ाअ और जंग की सूरत पेश आई और सल्तनते ज़ाहिरी मुआविया के ग़ासेबाना हाथों में जा पहुँची शिया पैरू ए इमाम रहे और दुनिया परस्तों की अकसरियत ने अमीरे शाम के हाथ पर बैअत कर ली। मुख़्तार उस ज़माने में अमीरे शाम की ईरानी और रूसी शहनशाहिय्यत के जलवे देखकर और यज़ीद की वली अहदी का एलान सुनकर सोचता था कि यह जाह व जलाल और यह शान व शौकत यह हुकूमत में वरासत ख़िलाफ़े अहकामे इस्लाम है इसके ख़िलाफ़ हर मुस्लमान का फ़रिज़ा ए अव्वालीन है कि इस्लाम के रौशन एहकाम को ज़िन्दा रखने हक़्क़े अहलेबैत (अ.स) को वापिस लेने की कोशीश करें चुनाँचे मुख़्लेसाना तौर पर मुख़्तार काफ़ी मुद्दत इन्क़ेलाब की तदाबीर में मुनाफ़क्क़िर नज़र आता है।

शख़्सियते मुख़्तार

मुख़्तार मुजाहिदाने इस्लाम में एक बे-बदल मुजाहिद था जिसने अपने मक़सद की कामयाबी में इन्तेहाई मसायब और दुशवारियों का सामना किया। अशराफ़े कूफ़ा में एक शरीफ़ तरीन इन्सान था जिसकी शराफ़त , ज़ेहानत और मतानत के लिये यह वाक़ेआ बहुत काफ़ी है कि एक रोज़ अय्यामे तेफ़ूलियत में मुख़्तार को हज़रत अली (अ.स) की ख़िदमत में ले जाया गया। हज़रत बे- इन्तेहा शफ़क़्क़त व मोहब्बत से पेश आये अपनी आग़ोशे मुबारक में बैठा लिया सर पर हाथ फेरते जाते थे और ( या क़य्यिस या क़य्यिस ) ऐ अक़्लमन्द ऐ अक़्लमनद फ़रमाते जाते थे गोया हज़रत किसी आने वाले वक़्त के लिये उस बच्चे की ज़ीरकी की पेश गोई फ़रमा रहे थे।

मुख़्तार एक वह इन्क़ेलाबी मुजाहिद है जिसका मुसलमानों की अक्सरियत ने साथ दिया मुख़्तार एक शरीफ़ जादा शरीफ़ुल खानदान होने के बावजूद हमेशा ग़ोरबा (निर्धन) और मेहनत कश मज़दूरों में ज़िन्दगी बसर करता उनके दुख दर्द व तकलीफ़ में उनके मुआविन व मददगार बनता यही बातें थीं जो उसकी ग़ैरे मामूली कामयाबी का बायस बनी वह आक़िल व आदिल था। अदल व इन्साफ़ के पेशे नज़र उसने आक़ाओ व सरमायादारों के हालात को ख़त्म करके उसने बराबरी का परचम लहराया और ताजीस्त अपने उस ईमान पर मुस्तहक़म रहा।

अहलेबैते अतहार (अ.स) का बे बदल दोस्तदार था। जनाबे मुस्लिम बिन अक़ील से बचपन की मोहब्बत और अक़ीदत थी। मुख़्तार यारे ब वफ़ा साहेबे जूदो सख़ा ग़रीबों का दोस्तदार महनत कशों का मददगार , नेक किरदार और ख़ुशगुफ़्तार था। हज्जाज बिन युसूफ़ जैसा दुश्मनने जान , मुख़्तार के मुताल्लुक़ कहता था कि मुख़्तार आतिशे जंग का भड़कने वाला और दुशमनों की सरकशी की सरक़ूबी करने वाला है।

उसकी बीवी जिससे बढ़कर राज़दां नहीं हो सकती कहती है कि मुख़्तार की रातें इबादत में और दिन रोज़े में गुज़रते थे।

तारीख़

तारीख़ गवाह है कि हर मुजाहिद ने अपने मक़ासिदे इन्क़ेलाबी को इब्तेदा में पोशीदा रखा है और अर्से दराज़ के बाद मुनासिब मौक़ा और महल पर ज़ाहिर किया है मुख़्तार के हालात भी इससे जुदा नहीं हैं। मज़कूरा वाक़ेआत और हालात से मालूम होता है कि बचपन ही से इन्क़ेलाबी हालात उसके दिल व दिमाग़ में गर्दिश कर रहे थे जो अय्यामें जवानी में गाहे- गाहे ज़ाहिर होते रहे और बिल आख़ीर आज़मूदाकारी , तजुर्बा कारी में पुख़्तागी आने के बाद एक अज़ीम तहरीक़ की सूरत में ज़ाहिर हुए। मुख़्तार को इस तहरीक़ में अमली जामा पहनाने में बड़ी दिक़्क़ते आईं। इस लिये की उस ज़माने में उमवी जाबिर हुकूमत बर- सरे इक़्तेदार थी। आज़ादी ख़ाह और आज़ादी पसन्द अफ़राद पर हुकूमत की कड़ी नज़र थी। मुख़्तार अपने आफ़कारे इन्क़ेलाबी को सामने लाने के लिये मौक़े का मुन्तज़िर रहा। मुख़्तार के तारीख़ी कारनामों का दोहराना अगर चे ज़्यादा मुफ़ीद नहीं लेकिन अगर तौफ़ीक़ाते इलाही शामिल हों तो क्या अजब कि आज़ादी पसन्द नौजवानों के लिये दर्से इबरत हो सके।

हज़रते मुस्लिम (अ.स) का कूफ़े में दाख़िला

पाँचवी शव्वाल को ब-रवायते तबरी व इब्ने असीर हज़रत मुस्लिम (अ.स) कूफ़े में दाख़िल हुए और अपने बचपन के दोस्त मुख़्तार के घर को जाए- अम्न क़रार दिया क्योंकि तमाम अहले कूफ़ा मुख़्तार की बे इन्तेहा इज़्ज़त करते थे मुख़्तार आपकी तशरीफ़ आवरी से बे इन्तेहां ख़ुश हुए और बड़ी इज़्ज़त व एहतेराम से पेश आये। हज़रत मुस्लिम को उनके पेशवाये बुज़ुर्ग हज़रत इमाम हुसैन (अ.स) की तरफ़ से जो प्रोग्राम सुपुर्द हुआ था उसमें एहले कूफ़ा के ख़यालात और अफ़कार का जायज़ा भी लेना था चुनाँचे आपने मुख़्तार को हुक्म दिया कि वह अतराफ़े कूफ़ा में इन उमूर का जायज़ा लें। मुख़्तार हालियाने कूफ़ा का जायज़ा लेने और अपना हम ख़याल बनाने की ग़रज़ से कूफ़े से रवाना हुआ। हज़रत मुस्लिम हानी बिन उरवा के मकान में मुनतक़िल हो गये। अठ्ठारह हज़ार कूफ़ियों ने हज़रत मुस्लिम के हाथ पर बैअत कर ली , कि इब्ने ज़्याद कूफ़े का हाकिम बनाकर भेज दिया गया। जाबिर हुकूमत नें डरा धमका कर तमअ ए ज़र के वायदा वईद करके अहले कूफ़ा को अपना हम ख़्याल बना लिया मगर लोगों के दिल अभी जनाबे मुस्लिम ही की तरफ़ मायल थे। मगर क़त्ल होने , क़ैद होने और ला-वारसी ए अतफ़ाल के ख़ौफ़ ने हज़रत मुस्लिम का साथ देने से बाज़ रखा और उन लोगों ने यह बेहतर समझा कि उमूरे सियासी में ख़ामोशी ही इख़्तेयार की जाये , और घर के गोशे में ख़ामोश बैठकर हज़रत की कामयाबी की दुआ करते रहें।

लेकिन इस मामले में जान को अज़ीज़ रखना सही न था। क्या कभी सुना है कि मुसलमाने इस्लामी ग़ज़वात में अस्लेह से दस्तर्बदार होकर मस्जिद में दुआ के लिये बैठ गयें हों और जंग में फ़त्हा पा ली हो। मुजाहिदीने इस्लाम ने जब सर ब कफ़ होकर जान की बाज़ी लगाई तब मुसलमानों को फ़त्हा व कामरानी नसीब हुई है देखो इमाम हुसैन (अ.स) ने अगर शब को दुआ के लिये मोहलत चाही तो दिन को जान की बाज़ी लगाई। अगर इमाम (अ.स) के अन्सान ने रात इबादत में गुज़ारी तो दिन को दरगाहे ख़ुदावन्दी में सर को नज़्र कर दिया।

अबुल फ़ज़लिल (अ.स) नें अगर रात नमाज़ियों की हिफ़ाज़त में बसर की तो दिन में राहे ख़ुदा में सर दे दिया। मर्दुमें कूफ़ा क्यों सुल्हो पसंद बन बैठे क्यों इस्लाम को सिर्फ़ नज़रे ज़ाहिर से देखा उन्हें चाहिये था कि हज़रत मुस्लिम का साथ देते क्योंकि वह नायबे इमाम थे और इमाम की तरफ़ से इजाज़त याफ़्ता थे। क्या यह इजाज़त सिर्फ़ हज़रत मुस्लिम (अ.स) के वास्ते थी। हमें ज़रा अपने हाल पर नज़र करनी चाहिये। हमारा हाल भी इस वक़्त कूफ़ियों से कम नहीं। आख़ीर कार हज़रत मुस्लिम शहीद हुए और तमाम कूफ़े में सिर्फ़ एक जान फ़रोश हानी बिन उरवा निकला जिसने हज़रत मुस्लिम पर जान निसार कर दी और सिर्फ़ एक औरत जिसने अपने घर में पनाह दी। आख़ीर वह वक़्त आया कि हज़रत मुस्लिम दारूल-अमारा से फेके गये। सारा कूफ़ा बेचैन था लेकिन क़ैद व बन्द के ख़ौफ़ से अपनी बेचैनी और इज़्तेराब को भी ज़ाहिर नहीं कर सकता था।

मुख़्तार की कूफ़े की तरफ़ वापसी

मुख़्तार नें वापसी पर शहर को पुर आशोब देख कर अन्दाज़ा लगाया कि ज़रूर कोई हादिसा हुआ है। कूफ़े में दाखिल होते वक़्त अबु क़दाम ए शामी पासबाने दरवाज़ा ए शहर से मुलाक़ात हुई अबु क़दाम से शहादत हज़रत मुस्लिम (अ.स) का हाल मालूम करके मुख़्तार और मुख़्तार के साथी इस क़द्र मुतास्सिर हुए कि देर तक रोते रहे।

मुख़्तार ने क़बाएल के बहादुर साथियों को रूख़सत किया और ख़ुद कूफ़े में तन्हा दाख़िल हुआ इससे मालूम होता है कि मुख़्तार को हज़रते मुस्लिम (अ.स) के क़ैद होने और शहीद होने का बिल्कुल इल्म नहीं था।

दूसरे दिन मुख़्तार की मुलाक़ात अमरौं बिन हरीस निगेहबाने शहर से हुई। अमरौ ने मुख़्तार को उबैदुल्लाह इब्ने ज़्याद से मिलने का मशविरा दिया।

(बद बातिनी)

मुख़्तार ने उसकी सरकशी और बद बातिनी के बायस उससे मिलने से इन्कार कर दिया मगर अमरौ हिफ़ाज़त का वायदा कर के मुख़्तार को उबैदुल्लाह के पास ले गया मुख़्तार निहायत लापरवाही और बे-एअतेनाई से उबैदुल्लाह के सामने जा बैठा जिसको यह मुताकब्बिर और ख़ुद परस्त इन्सान देख कर बर आशोफ़्ता हुआ और कलमाते नाज़ेबा मुख़्तार के लिये इस्तेमाल किये कि क्यों मुस्लिम को अपने घर में पनाह दी। मुख़्तार जवाब देना चाहता था कि अमरौ ने मुख़्तार की तरफ़दारी में कुछ कल्मात कहे ही थे कि अबु क़दामा के शिकस्त ख़ौरदा साथी उबैदुल्लाह के दरबार में दाख़िल हुए और मुख़्तार की शिकायत की , उबैदुल्लाह ने निहायत बर अफ़रोख़्ता होकर मुख़्तार को क़ैद का हुक्म सादिर कर दिया।

शेर पिंजरे में

मुख़्तार उबैदुल्लाह के हुक्म से क़ैद कर दिया गया लेकिन यह ज़िन्दान मुख़्तार के लिये बेहतरीन दर्सगाह साबित हुआ। यहाँ मुख़्तार को मीसमे तम्मार जैसे दीनदार बुज़ुर्ग से मुलाक़ात और उनके तजुर्बात से फ़ायदा उठाने का मौक़ा मिला। हज़रत इमाम हुसान (अ.स) के ख़ूने नाहक़ के इन्तेक़ाम के सिलसिले में मीसमे तम्मार ने मुफ़ीद राय और पेश बीनी की राहें दिखलायीं। तारीख़ गवाह है कि अवाम की परेशान हाली और सल्बे सल्बे आज़ादी ही अवाम को हुकूमत दुशमनी पर आमादा करती रही है। मुख़्तार बावजूद कूफ़े के मुमताज़ और मोअज़्ज़ज़ होने के हमेशा मज़लूमों और कमज़ोरो का मुआविन व मददगार रहा। इस लिये ग़ुलामी की जकड़ी ज़ंजीरों में अवाम की कसीर जमाअत मुख़्तार की हम ख़याल हो गई। मुख़्तार की क़ैद ख़ाने में पा सिर्फ़ मीसमे तम्मार की बल्कि उमैर इब्ने आमिर से भी मुलाक़ात हुई। मीसमे तम्मार हज़रत अली (अ.स) के असहाबे ख़ास में से थे और यही एक वजह उनकी क़ैद की हुई और हज़रत (अ.स) की पेशीन गोई के बिल्कुल मुताबिक़ आपकी शहादत वाक़ेअ हुई। उमैर इब्ने आमिर कूफ़े के उलमा में से एक मुमताज़ आलिम- मोअल्लिम और दोस्तदाराने अहलेबैत (अ.स) में से था दर्सगाह में जब के मशग़ूले दर्स थे प्यास मालूम हुई और पानी पीने के बाद आपने इमाम हुसैन (अ.स) पर दुरूद भेजा तलबा में सनान बिन अनस का लड़का भी था उसने बाप से दुरूद भेजने का हाल जा कहा और यही वजह उनके क़ैद की हुई। हुकूमत ख़ूब जानती थी कि जब तक नामे हुसैन (अ.स) लोगों के दिलों से ख़त्म न होगा हुकूमत की पायदारी और इस्तहक़ाम नामुमकिन हैं। एक अर्से बाद अमीर बिन आमीर अपने भाई की सिफ़ारिश से जो दरबारी अफ़सर था रिहा हुए। मुख़्तार ने इस मौक़े का फ़ायदा उठाया और एक ख़त अपनी क़ैद व बन्द के हालात का अब्दुल्लाह बिन उमर बिन ख़त्ताब को जो मुख़्तार का बहनोई था लिखकर दे दिया कि यज़ीद से रिहाई की सिफ़ारिश करे ये वह मवाक़े हैं जिनमें एक आज़ादी चाहने वालें मुजाहिद को क़ैद व बन्द में रहते हुए भी मामूली फ़ुर्सत को हाथ से न जाने देना चाहिये , और उससे बड़े से बड़ा फ़ायद उठाने चाहिये। मुख़्तार चाहता था कि क़ैद से निकल कर आवाम को ख़ाबे ग़फ़लत से बेदार करें और हुसूले आज़ादी में क़ुर्बानियाँ देने से भी दरेग़ न करें। यज़ीद के हुक्म से उबैदुल्लाह मुख़्तार के आज़ाद करने पर मजबूर हो गया और इस शर्त पर रिहा किया कि फिर हुकूमत के ख़िलाफ़ किसी सियासी कोशिश में हिस्सा न लें और तीन रोज़ के अन्दर कूफ़े से निकल जायें।

मुख़्तार की हिजाज़ को रवानगी

इन मज़कूरा शरायत पर मुख़्तरा रिहा होकर मक्के की तरफ़ चल पड़ा और मक्का पहुँच कर सुना की अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर इन्तेक़ामे हुसैन (अ.स) का दावेदार है यह सुन कर दिल ही दिल में बहुत ख़ुश हुआ कि एक हम ख़याल साथी और मिल गया फ़ौरन अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर से मिलकर उसको अपनी हिमायत का यक़ीन दिलाया। अब्दुल्लाह क्योंकि मुख़्तार की नुमायां शख़्सियत और मक़बूलियत से ख़ूब वाक़िफ़ था फ़ौरन राज़ी हो गया मगर बाज़ मोअर्रेख़ीन ने लिखा है कि मुख़्तार को अपना रक़ीब समझ कर वह इम काम में अपना शरीक न करना चाहता था अपने असहाब के इसरार और मशविरे के बाद राज़ी हुआ। यज़ीद की मौत के बाद अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर ने अपना रूख़ बदला बजाये इन्तेक़ाम के अब वह सल्तनत और अवाम पर हुकूमत की गुफ़्तुगू करता और ख़ूने हुसैन (अ.स) के इन्तेक़ाम के सिलसिले में कभी ज़बान ही नहीं खोलता। मालूम हुआ , अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर ने यह देखकर कि अवाम इन्तेक़ामें ख़ूने हुसैन (अ.स) के प्यासे हैं उनको अपनी तरफ़ मायल करने के लिये इब्तेदा में अवाम के सामने ख़ुद को ख़ूँ ख़ाही के रंग में पेश किया था। मुख़्तार ने अब्दुल्लाह का यह रंग देख कर कूफ़े का रूख़ किया क्योंकि अगर उसका इरादा हुकूमत करना होता तो अब्दुल्लाह का साथ न छोड़ता। मुख़्तार सिर्फ़ अवाम की आज़ादी और इन्तेक़ामें ख़ूने हुसैन (अ.स) का ख़ाहाँ था। कूफ़े में उस वक़्त पहुँचा जबकि तव्वाबीन का गरोह इन्तेक़ामें ख़ूने हुसैन (अ.स) के लिये तैयार हो चुका था। मुख़्तार ने कूफ़े में अपने घर पर मोअज़्ज़ेज़ीने कूफ़ा की एक मजलिस मुनक़्क़द की जिसमें अपने अजायम और मक़ासिद की वज़ाहत की गई। मोअज़्ज़ेज़ीने कूफ़ा ने एक होकर मुख़्तार से दर्ख़ास्त की कि वह अभी कुछ तवक़्क़ुफ़ करें और अपने इरादे को अमली जामा न पहनायें क्योंकि अहले कूफ़ा से सुलेमान बिन सर्दे ख़ुज़ाई ने बैअत ले ली है।

मुख़्तार गाहे गाहे लोगों से इस सिलसिले में बात करता और उनकी तवज्जोह अपने मक़सद की तरफ़ मुन- अतिफ़ करता रहा। शाही इनामात के वायदे वईद जैसा कि हर हुकूमत करके लोगों को अपनी तरफ माएल करती है दर हक़ीक़त बेकार और फ़ुज़ूल है , इसलिये कि क़ौम व मिल्लत जानती है और ख़ूब समझती है कि कौन दोस्त है और कौन दुशमन और जब ताक़त पकड़ लेती है तो इन्केलाबे अज़ीम का बायस होती है। मुख़्तार जानता था , और अपने फ़रायज़ को हत्तुल- इम्कान अदा करता रहा।

तव्वाबीन (तौबा करने वाले)

इससे पहले की हम इस गरोह के हालात पर रौशनी डालें ज़रूरत है कि लफ़्ज़ (तव्वाबीन) की वज़ाहत कर दें। तव्वाबीन के माना तौबा करने वालों के हैं। तौबा वह करता है जो अपने गुज़ीश्ता अमालों से ज़िश्त से नादिम होकर अहद करे कि आइंन्दा वह अमले ग़ैरे मुस्तहसन न करेगा। यहाँ तव्वाबीन से मुराद उन लोगों से है जिन्होनें तीसरी ख़िलाफ़त के बाद हज़रत अली (अ.स) के हाथ पर बैअत की थी और अब ख़ूने हुसैन (अ.स) और इन्तेक़ामे हुसैन (अ.स) लेने जमा हुए थे। उनका मक़सद सिर्फ़ यह था कि ज़ालिम के तरफ़दारों को ज़्यादा से ज़्यादा क़त्ल करें और ख़ुद भी शहीद हो जायें।

गिरोहे तव्वाबीन

इस जमाअत की बुनियाद 61 हिजरी में बादे शहादते इमामे हुसैन (अ.स) पड़ी लेकिन यह लोग चाहते थे कि अपने इरादों को कुछ साल पोशीदा रखें। इस गरोह ने अपने इरादों को 61 हिजरी से 64 हिजरी तक पोशीदा रखा और आलाते जंग व सामाने हर्ब मोहय्या करते रहे हत्ता के 64 हिजरी में यज़ीद वासिले जहन्नम हो गया उसे बाद तब्लीग़े इन्क़ेलाबी का आग़ाज़ हुआ और सुलेमाने बिन सर्दे ख़ुज़ाई की सरकर्दगी में बसरा और कूफ़े के इर्द- गिर्द मुरासलत शुरू हो गई और बुज़ुर्गाने जमाअत ने इस काम मे काफ़ी रूपया ख़र्च किया।

आशूरा के बाद सुलेमान बिन सर्द मुख़्तार के साथ क़ैद में था। आज़ाद होने पर मुख़्तार मक्के की तरफ़ चला गया और सुलेमान ने कूफ़े में रहकर मख़्फ़ी कोशिश जारी रखी।

जिन लोगों ने उबैदुल्लाह बिन ज़्याद से रिश्वत ले कर ख़ामोशी इख़्तेयार कर ली थी आहिस्ता- आहिस्ता शर्मसार और नादिम हुए। उसी ज़माने में सुलेमान ने भी उन लोगों को अपनी तरफ़ कर के इन्तेक़ाम और ख़ून चाहने पर तैयार कर लिया। सबसे पहले सुलेमान ने मोअज़्ज़ेज़ीने कूफ़ा से जो अहलेबैत अतहार (अ.स) से ताल्लुक़ रख़ते थे , बात की , जिनमें अबदुल्लाह बिन वाल , वलीद बिन हसीन भी थे। लोगों ने इसी मजलीस में सुलेमान को अपना रहबर चुन लिया। चुनने के बाद सुलेमान ने एक दिलकश पुर – ज़ोर तक़रीर की। हाज़िरीन ने इस तक़रीर के बाद ख़ुद को एक बड़ी तारीकी मे देखा और अहद कर लिया की शहीद होने से पहले हम आराम से न बैठेंगे। इसी मजलिस में अरकाने मजलिस के तक़सीमें कार का इन्तेख़ाब हुआ।

बेहतरीन अफ़राद के सुपुर्द मैदाने जंग का फ़रीज़ा किया गया। पहले बताया गया कि यज़ीद के मरने के बाद और दूसरी रवायत से मरवान के मरने के बाद इन्तेक़ाम का खुल्लम खुल्ला काम हुआ। इन्तेक़ाम की आवाज़े हर तरफ़ से उठीं। या सारातुल हुसैन (अ.स) की सदाओं से कूफ़े की फ़िज़ायें गूँजने लगीं।

या-सारातुल-हुसैन का फ़िक़रा तव्वाबीन का ईजाद किया हुआ है। अरबी डिक्शनरी में "सार" के माना (अर्थ) तहरीक या जुंबिश के हैं , यह कह कर लोगों को इन्तेक़ाम में शिरकत के लिये बुलाया जाता था। चुनाँचे 16 हज़ार अफ़राद की भीड़ इमाम के चाहने वालों की जमा हो गई। इसमें ज़्यादातर वे लोग थे जिन्होंने दावते इमाम (अ.स) पर "लब्बैक" न कही थी और अब अपनी ग़लती का एहसास करके शर्मिन्दा थे। मुक़र्रेरीन गरोह अपनी पुर- ज़ोश तक़रीर से लोगों के दिल हिला देते थे जिससे इन्तेक़ाम की आग और भी भड़क गई। इन्ही तक़ारीर करने वालों में एक ख़तीब ख़ालीद बिन कूफ़ी भी था जिसने अपनी तक़रीर में यह कहा कि ख़ुदा की क़सम अगर हमारी तौबा दरगाहे अहादीस में क़ुबूल हो जाये और वह मुन्तक़िमे हक़ीक़ी मुझसे राज़ी हो जाये तो अपना सब माल व मताअ उसकी राह में क़ुर्बान कर दूगाँ सिवाय उस तलवार के जिससे ज़ालिमों से जंग करूँ यहाँ तक के क़त्ल हो जाऊँ। मक़सद यह की इस क़िस्म की तक़रीरें लोगों के मुर्दा एहसास में ज़िन्दगी डाल कर फ़िदाकारी और जाँनिसारी पर आमादा और तैयार कर रही थीं।