सहराऐ महशर में ज़िनाकार की बदबू
और जब वो अपनी क़ब्र से बाहर आएगा तो उसकी बदबू से लोगों को अज़ीयत होगी
,चुनाँचे वो उस शदीद बदबू से पहचान लिया जाऐगा और लोग जान लेंगे कि ये ज़िनाकार है यहाँ तक कि हुक्म दिया जाएगा कि उसे लाज़िमी तौर से आग में डाल दिया जाए। ख़ुदावन्दे आलम ने महर्रमात को क़तअन तौर से हराम फ़रमाया है और उनके लिये हुदूद मुअयन फ़रमाए हैं पस कोई शख़्स ख़ुदा से ज़्यादा ग़ैरतमंद नही है और ये ग़ैरत इलाहिया ही का नतीजा है कि फ़ोहश कामों को हराम फ़रमाया है।
मैं तुम्हारे लिये बरज़ख़ से डरता हूँ
उमरू बिन यज़ीद से मरवी है कि मैंने इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स)
से अर्ज़ किया कि मैंने आपका ये क़ौल सुना है कि हमारे तमाम शिया बहिशत में होंगे ख़्वाह उनके गुनाह कैसे ही हों हज़रत ने फ़रमाया मैंने सही कहा है
,ख़ुदा की क़सम वो सब के सब बहिश्ती हैं मैंने कहा मैं आप पर फ़िदा हो जाऊ हक़ीक़तन गुनाह तो बहुत हैं और बड़े बड़े बहुत हैं फ़रमाया लेकिन क़यामत में उस रोज़ पैग़म्बरे ख़ुदा (स.अ.व.व)
या आपके वसी की शिफ़ाअत से तुम सब के सब बहिश्त में होगे लेकिन ख़ुदा की क़सम मैं तुम्हारे लिये बरज़ख़ से डरता हूँ मैंने अर्ज़ किया बरज़ख़ क्या चीज़ है
?तो आपने फ़रमाया बरज़ख़ क़ब्र है मौत के वक़्त से रोज़े क़यामत तक।
कल आँसूओं के बदले ख़ून रोऐंगे
पैग़म्बरे अकरम (स
0अ
0)ने इब्ने मसऊद के लिये अपनी वसीयतों में फ़रमाया कि गुनाह को छोटा न समझो और गुनाहाने कबीरा से परहेज़ करो क्योंकि क़यामत के रोज़ जब बन्दा अपने गुनाह को देखेगा तो उसकी आँख़ों से पीप और ख़ून जारी होगा। ख़ुदा फ़रमाता है क़यामता वो दिन है जिसमें हर शख़्स अपने नेक और बद अमल को अपने सामने मौजूद पाएगा और आरज़ू करेगा कि काश इसके और उसके गुनाहों के दरमियान लम्बा फ़ासला होता।
और हज़रत रसूलेख़ुदा (स.अ.व.व)
से भी मरवी है कि एक बन्दा अपने गुनाहों में से एक गुनाह के लिये सौ साल तक क़ैद में रक्खा जाऐगा।
पहले अपने बरज़ख़ को तय करे
काम उस मंज़िल तक पहुँचना चाहिये कि ख़ुदबीनी से कोई वास्ता न रह जाए ख़ुदा की याद उसके वुजूद के अन्दर ऐसा अमल करे कि ख़ुद उसकी अपनी शख़्सीयत दरमियान से हट जाए और वो अपनी ख़ुदी से निजात पा जाए इस तरह जिस वक़्त उसकी मौत आएगी तो वो अपने बरज़ख़ से पहले ही गुज़र चुका होगा और ऐसे मक़ाम पर पहुँच चुका होगा जहाँ ओलियाए ख़ुदा की मंजिल होगी और जिनके सरदार हज़रते सैय्यदुश शुहदा अबू अब्दुल्लाहिल हुसैन अलैहिस्सलाम से असहाब होंगे। शुहदाए करबला अर्श के नीचे इमाम हुसैन (अ.स)
की हुज़ूरी में इस क़दर मसरूर हैं कि ख़ुद हूरें उन्हें पैग़ाम भेजती हैं कि हम तुम्हारे मुशताक़ हैं लेकिन जवाब देते हैं कि हम हुसैन (अ.स)
का जवार कैसे छोड़ सकते हैं।
जवारे हुसैन (अ.स)
में अताए इलाही
इमाम हुसैन (अ.स)
की बारगाह में हाज़री इस क़द्र फ़रहत बख़्श है कि वो हूरों की परवाह नहीं करते। मुहब्बत का आलम भी अजीब है ये वही अताया ए इलाही और अज़ीम इनायतें हैं (ऐना मवाहिबकल हनयत ऐना मनाऐकल सुन्नत- दुआए अबूहमज़ा शुमाली) जिन्होंने किसी के दिल में भी ख़तूर नहीं किया है न सिर्फ़ यें कि किसी आँख ने नहीं देखा है और किसी कान ने नहीं सुना है बल्कि किसी दिल से भी नहीं गुज़री है। (अद्दतल इबादिउल सालिहीन माला ऐना ज़ारत वला इज़ना समेअत वला ख़तर अला क़ल्बे बशर)
बिल आख़िर मक़ामे ज़िक्र यहाँ तक पहुँचता है कि ख़ुद अपनी शख़्सियत फ़रामोश हो जाती है ज़िक्र मुस्तक़िल सूरत इख़्तियार कर लेता है हत्ता की अपने लिये कोई ख़ुदी नहीं आती ।
हिज़क़ील ने किस चीज़ से इबरत हासिल की
मरवी है कि जब हज़रत दाऊद (अ.स)
से तरके औला सरज़द हुआ तो वो पहाड़ों और बियाबानों में रोते और नाला ओ फ़रियाद करते हुए चलते रहते थे यहाँ तक कि एक ऐसे पहाड़ पर पहुँचे जिसके अन्दर एक ग़ार था और उसमे एक इबादत गुज़ार पैग़म्बर हज़रत हिज़क़ील मुक़ीम थे उन्होंने जब पहाड़ों और हैवानात की आवाज़े सुनी तो समझ लिया कि हज़रत दाऊद आए हैं (क्योंकि हज़रत दाऊद जिस वक़्त ज़बूर पढ़ते थे तो सभी उनके साथ नालों में शरीक हो जाते थे) हज़रत दाऊद (अ.स)
ने उनसे कहा कि क्या आप इजाज़त देते हैं कि मैं ऊपर आ जाँऊ
?उन्होंने कहा कि आप गुनाहगार हैं। हज़रत दाऊद (अ.स)
ने रोना शुरू किया तो हज़रत हिज़क़ील को वही पहुँची के दाऊद को उनके तरके औला पर सरज़निश न करो
,और मुझसे आफ़ियत तलब करो
,क्योंकि मैं जिस शख़्स को उसके हाल पर छोड़ देता हूँ वो ज़रूर किसी ख़ता में मुब्तिला हो जाता है। चुनाँचे हज़रत हिज़क़ील
,हज़रत दाऊद का हाथ पकड़ के उन्हें अपने साथ ले आए हज़रत दाऊद ने कहा "ऐ हिज़क़ील! तुमने कभी किसी गुनाह का क़स्द किया है
?उन्होंने कहा नहीं!
,उन्होंने फ़िर पूछा कभी तुम्हारे अन्दर उजुब और ख़ुदपसन्दी पैदा हुई
?उन्होंने कहा नहीं। फिर दरयाफ़्त किया आया दुनिया और उसकी ख़्वाहिशों की तरफ़ कभी आपका दिल मायल हुआ
?उन्होंने कहा हाँ । हज़रत दाऊद ने पूछा कि आप इस चीज़ का इलाज किस चीज़ से करते हैं
?तो उन्होंने जवाब दिया मैं इस शिग़ाफ़ में दाख़िल हो जाता हूँ और जो कुछ वहाँ है उससे इबरत हासिल करता हूँ हज़रत दाऊद उनके हमराह उस शिग़ाफ़ में दाख़िल हुए तो देखा कि एक आहनी तख़्त बिछा हुआ है जिस पर कुछ बोसीदा हड्डीयाँ हैं और उसी तख़्त के पास लोहे की एक तख़्ती रक्खी है हज़रत दाऊद ने लोहे को पढ़ा तो उसमें लिखा हुआ था मैं अरदाइ बिन शलम हूँ मैंने हज़ार साल बादशाही की
,हज़ार शहर बसाए और हज़ार कुवाँरी लड़कियों को अपने तसर्रूफ़ में लाया लेकिन बिल आख़िर मेरा अन्जाम ये हुआ कि ख़ाक मेरा बिस्तर है पत्थर मेरा तकिया हैं और साँप और चूँटियां मेरे हमसाए हैं पस जो शख़्स मुझे देखे वो दुनिया का फ़रेब न खाए ।
जिसकी आख़िरी ख़्वाबगाह चन्द मुट्ठी ख़ाक है
ये थी एक बादशाह की सरगुज़्शत और उसका अन्जाम
,बहरहाल मोमिन को चाहिये कि अपने को तल्क़ीन करे कि बिलफ़र्ज़ मैंने शैतान और नफ़्स की बात सुनी हवा और हवस के जाल में फ़ँसा और दुनिया और उसकी मसर्रतों के पीछे दौड़ा ये सरगर्मी कब तक
?अगर कोई शख़्स अपनी ज़ात के लिये बहुत ज़्यादा हाथ पाँव मारे तो क्या उसे मौत न आएगी
?मैं चाहे जिस क़दर जान लड़ाऊँ उस बादशाह की मानिन्द नहीं हो सकता
,लेकिन उसका अन्जाम भी निगाहों के सामने है।
आँके रा ख़्वाबगी आख़िर दो मुशते ख़ाक अस्त
गो चे हाजत कि बर अफ़लाक कशी ऐवाँ रा
यानी जिसकी आख़ीर ख़्वाबगाह दो मुट्ठी ख़ाक है उससे कहो कि तुझे ये फ़लक बोस महल बनाने की क्या ज़रूरत है
?
मेरी अर्ज़ याददहीनी और नसीहत है अगर इन्सान अपने को बिल्कुल आज़ाद छोड़ दे और मुतानब्बे न करे तो उसका नफ़्स बेलगाम हो जाता है। उसे चाहिये कि कोह (पहाड़) के मानिन्द रहे उकाह (घांस) के मानिन्द नहीं कि एक वसवसे की वजह से शैतान के पीछे चलने लगे उसे अपने ज़ाहिरी ज़र्क़ ओ बर्क़ से चश्मपोशी करके अपने अन्जाम कार को देखना चाहिये।
ज़ियारते क़ुबूर ख़ुद तुम्हारे लिये है
ये बहरहाल ज़रूरी है कि ख़ुद तुम्हारे वुजूद के अन्दर एक वाज़ ओ नसीहत करने वाला मौजूद रहे शरहे मुक़द्दस में ज़ियारते क़ुबूर और बिलख़ुसूस वालेदैन की क़ब्रों की ज़ियारत के लिये जो इस क़द्र ताक़िद की गई है वो किस लिये है
?इस मक़ाम से जब तुम फ़ातिहा पढ़ते हो तो उन्हें पहुँच जाता है और सदक़ा जहाँ से भी दो वो उस से बहरामन्द होते हैं। लेकिन इरशाद है कि अपने बाप की क़ब्र पर जाओ क्योंकि वो दुआ क़ुबूल होने का मुक़ाम है उसका सबसे बड़ा फ़ायदा ख़ुद तुम्हारे लिये है कि तुम उस बात पर मुतावज्जेह रहो कि तुम्हारे बाप नहीं रहे इसी तरह तुम भी न रहो गे और जल्द या ब-देर उनसे जा मिलोगे दो रोज़ा दुनिया का फ़रेब न खाओ और वसवसो को अपने दिल में जगह न दो खुलासा ये कि ग़फ़लत में न रहो।
हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स. अ.) शोहदाए ओहद की क़ब्रों पर
सिद्दीक़ाए कुबरा जनाबे फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाहे अलैहा के हालात में वारिद है कि आप पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व)
कि वफ़ात के बाद उन मुसीबतों की वजह से जो आप को पहुँची बीमार हो गईं उसके बावजूद हर दो शन्बे और पंचशन्बे को अमीरूलमोमिनीन हज़रत अली (अ.स)
से इजाज़त लेकर ओहद में अपने चचा हमज़ा और दीगर शोहदाए ओहद की क़ब्रों पर तशरीफ़ ले जाती थीं
,ख़ुद रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व)
भी मर्ज़उलमौत की हालत में बावजूद ये कि बुख़ार में मुब्तला थे और चलने की ताक़त नहीं रखते थे फिर भी फ़रमाते थे कि मेरी बग़लों में हाथ देकर मुझे क़बरिस्ताने बक़ी तक पहुँचा दो। ख़ुदा वन्दा ! हमें भी अहले ज़िक्र और नसीहत याफ़्ता अफ़राद में क़रार दे।
बरज़ख़
यानी मौत के वक़्त से क़यामत तक इन्सानी हयात "वमन वराएहुम बरज़ख़ इला यौमा याबेसून"
तर्जुमाः- और उनकी मौत के बाद बरज़ख़ है उस रोज़ तक जब वो उठाए जाएगें। इस बात को यक़ीन के साथ जान लेना चाहिये कि कोई इन्सान मौत से निस्त ओ नाबूद नहीं होता मौत इन्सान की रूह और जिस्म के दरमियान जुदाई का नाम है और उससे रूह का जिस्म से मुकम्मल क़त्ऐ ताल्लुक़ हो जाता है
,इस जुदाई के बाद जस्त मुर्दा मिट्टी के अन्दर फ़ासिद और मुन्ताशिर हो जाता है और बिल आख़िर बिल्कुल ख़ाक हो जाता है रूह उसकी जुदाई के दौरान एक लतीफ़ जिस्म के साथ रहती है जो शक्ल ओ सूरत में इसी माद्दी जिस्म की मानिन्द होता है लेकिन शिद्दते लताफ़त की वजह से हैवानी आँखों से देखा नहीं जा सकता। इस अम्र पर यक़ीन रखना चाहिये कि मौत के बाद अकाएद और आमाल के बारे में पुरसिश हो सवालात होंगे लिहाज़ा उन्के जवाबाद के लिये आमादा और मुस्तइद रहना चाहिये लेकिन उनकी कैफ़ियत और तफ़सील जानना ज़रूरी नहीं है साथ ही यक़ीन रखना चाहिये कि बरज़ख़ में फ़ी जुमला सवाब ओ उक़ाब भी हैं यानी अक़ाएद ओ किरदार के असरात से बहरामन्दी हासिल रहना चाहिये यहाँ तक कि क़यामते कुबरा में मुकम्मल सवाबे इलाही और बहीशते जावेदानी तक रसाई हो या पनाह बख़ुदा हमेशा के अज़ाब में गिरफ़्तारी हो
,बहुत से मोमिनीन ऐसे हैं जिनका किरदार अच्छा नहीं रहा उनका हिसाब इसी बरज़ख़ी अज़ाब से इस तरह बराबर हो जाता है कि क़यामत में उनके लिये कोई सज़ा नहीं है। (हालाते बरज़ख़ की तफ़सील किताब "मआद" में लिखी जा चुकी उस तरफ़ रूजू करें।)
यक़ीन मज़कूर के लिये लाज़िम है कि अक़ाएदे हक़्क़ा की पुख़्तगी और इस्तेकाम में इस तरह सई करें कि वो दिल में मज़बूती से जगह पकड़ लें ताकि पुरसिश और सवाल के वक़्त मब्हूत और हैरान न हों नीज़ जल्द से जल्द और ज़्यादा से ज़्यादा वाजिबात और मुस्तहिबात में से हर अमले ख़ैर बजा लाने की कोशिश करें।
ख़ुलासा ये कि मौत के बाद की ज़िन्दगी के लिये नेक आमाल की काश्तकारी से एक लहज़े के लिये भी ग़ाफ़िल न बैठें क्योंकि वक़्त बहुत तंग और फ़स्ल काटने का वक़्त बहुत क़रीब है एक इन्सान और उसके आमाल के नताएज के दरमियान सिवा मौत के और कोई चीज़ हायल नहीं है और वो भी हर लहज़ा इन्सान को ख़ौफ़ ज़दा कर रही है।
यक़ीन क़यामत पर यानी उस दिन पर जिसमें तमाम अव्वालीन ओ आख़िरीन अफ़रादे बशर दोबारा ज़िन्दा करके उठाए जाऐंगे और सब एक जगह जमा होंगे जिस रोज़ आफ़ताब और महताब में कोई रौशनी न होगी जिस रोज़ पै दर पै ज़लज़लों के नतीजों में पहाड़ रेज़ा रेज़ा और रेगे बियाबान के मान्निद नर्म हो जाऐगें जिस रोज़ ज़मीन और आसमान बदल किये जाऐगें जिस रोज़ इन्सानों की एक जमाअत मुकम्मल अमनो अमान
,शादमानी और सफ़ेद रौशन चहरों के साथ आऐगी और उन लोगों के नामाए आमाल उनके दाहिने हाथ में होंगे और दूसरा गिरोह इन्तेहाई शिद्दत ओ इज़तेराब
,रंज ओ अन्दोह और स्याहरूई का हामिल होगा और उनके नामाए आमाल उनके बाऐं हाथों में होंगे।
ये वही दिन होगा जिसे ख़ुदावन्दे आलम ने बरज़ख़ बताया है और ये ऐसा हौलनांक होगा कि बुर्ज़ुगेदीन भी इसे याद करके ख़ौफ़ज़दा
,ग़मगीन
,गिरयाँ और नाला हो जाते थे और हक़ीक़त ये है कि हर बेदार दिल रखने वाला इन्सान जब क़ुराने मजीद में इसके हालात और औसाफ़ को पढ़ता है और ग़ौर करता है तो उसका सुकून ओ क़रार रूख़सत हो जाता है उसका दिल दुनिया और उसकी ख़्वाहिशों से हट जाता है और उस रोज़ के हौल से ख़ुदा की पनाह माँगता है। इस बात का जानना कोई ज़रूरी नहीं है कि क़यामत कब बरपा होगी
?इसी तरह इसके बाज़ ख़ुसूसियात और कैफ़ियत का जानना न ज़रूरी है न फ़ायदेमंद बल्कि उनके बारे में सवालात करना बेजा है क्योंकि ये ख़ुदाए तआला के मख़्सूस उलूम मे से है अलबत्ता उस रोज़ के जिन मवाक़िफ़ की तस्रीह क़ुराने मजीद में मौजूद है उनका जानना लाज़िम बल्कि उनपर यक़ीन करना वाजिब है और उन मवाक़िफ़ से इबारत है मीज़ान
,सिरात
,हिसाब
,शिफ़ाअत
,बहिश्त और दोज़ख़ जैसा कि आइन्दा ज़िक्र होगा।
बरज़ख़
लुग़त में बरज़ख़ के माने ऐसे परदे और हायल के हैं जो दो चीज़ों के दरमियान वाक़े हो और उन दोनों को एक दूसरे से मिलने न दे मसअलन दरियाए शोर व शीरीं में दोनों मौजें मार रहे हैं लेकिन ख़ुदाए तआला ने उनके दरमियान एक ऐसा मानेय क़रार दिया है कि उनमें से एक दूसरे पर हावी नहीं हो सकता (मरजल बहरैने यलततक़ियान बैनाहुमा बहज़ख़ुल यबग़ियान
,सूरा रहमान)
और इसी को बरज़ख़ कहते हैं लेकिन इस्तेलाह के मुताबिक़ बरज़ख़ एक ऐसा आलम है जिसे ख़ुदावन्दे आलम ने दुनिया और आख़िरत के दरमियान क़ायम फ़रमाया है ताकि ये दोनों अपनी अपनी ख़ुसूसियत और कैफ़ियत के साथ बाक़ी रहें ये दुनियावी और उख़रवी ऊमूर के माबैन एक आलम है बरज़ख़ में सर का दर्द
,दाँतो का दर्द या दूसरे अमराज़ और दर्द मौजूद नहीं हैं ये सब इस आलमे माददी के तरकीबात का लाज़िमा हैं अलबत्ता उस जगह मुजर्रदात हैं जिनका माद्दे से ताअल्लुक़ नहीं है लेकिन वो सरीही तौर से आख़िरत भी नहीं है यानी गुनाहगारों के लिये ज़ुल्मते महज़ और इताअत गुज़ारों के लिये नुरे महज़ नहीं है। लोगों ने इमाम (अ.स)
से सवाल किया कि बरज़ख़ का ज़माना कौन है
?तो फ़रमाया मौत के वक़्त से उस वक़्त तक जब लोग क़ब्रों से उठेगें (मन हैना मौतहू इला यौमा यबसेऊन- बिहारूल अनवार) और क़ुराने मजीद में इरशाद है "और उनके पीछे एक बरज़ख़ है रोज़े क़यामत तक"
आलमे मिसाली- बदने मिसाली
बरज़ख़ को आलमे मिसाली भी कहते हैं क्योंकि वो इसी आलम के मानिन्द है लेकिन सिर्फ़ सूरत और शक्ल के लिहाज़ से अलबत्ता माद्दे और ख़्वास व ख़ुसूसियात के लिहाज़ से फ़र्ख़ रखता है मौत के बाद हम एक ऐसे आलम में वारिद होते हैं कि ये दुनिया उसके मुक़ाबले में ऐसी ही महदूद है जैसे शिकमे मादर इस दुनिया की निस्बत से।
बरज़ख़ में तुम्हारा बदन भी बदने मिसाली है यानी शक्ल के ऐतेबार से तो इसी मद्दी जिस्म के मुताबिक़ है लेकिन उसके अलावा जिस्म और मद्दा नहीं है जिम मक़ाम पर भी क़याम करे हर चीज़ को देखता है उसके लिये दीवार के इस तरफ़ और उस तरफ़ का कोई सवाल नहीं है। इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स)
फ़रमाते हैं कि अगर तुम उस बदने मिसाली को देखो तो कहोगे कि ये तो बिल्कुल वही दुनियावी जिस्म है (लौरायतालकुलता हौहौ) ।
(बिहारूल अनवार) इस वक़्त अगर तुम अपने बाप को ख़्वाब में देखो तो इसी दुनियावी बदन का मुशाहिदा करोगे लेकिन उनका जिस्म और माददा तो क़ब्र के अन्दर है ये सूरत और बदन मिसाली है- बरज़ख़ी जिस्म।
वो आँखें रखता है
,वो उन्हीं माददी आँख़ो का हमशक्ल हैं लेकिन उनमे चर्बी वग़ैरा नहीं है उनमें दर्द नहीं होता क़यामे क़यामत तक देखती रहेंगी वो बख़ूबी देख सकती हैं न इन आँखों की तरह कभी कमज़ोर होती हैं न ऐनक वग़ैरा की ऐहतियाज रखती हैं हुक्मा और मुताकल्लेमीन उसको उस तस्वीर से तश्बीह देते हैं जो आएने में नज़र आती है लेकिन उसी सूरत में कि उसके अन्दर दो शर्ते पाई जाती हों
,एक क़याम बिन लज़्ज़ात यानी उस तरह कि ख़ुद अपने वजूद से क़ायम हो न कि आइने और दिगर इदराक ओ शऊर के ज़रिये बदने मिसाली अपनी ज़ात पर क़ायम और फ़हमो शऊर का हामिल होता है उसकी मिसाल वही ख़्वाब है जो तुम देखते हो कि एक चश्मे ज़दन में तवील मुसाफ़ते तय कर लेते हो कभी मक्के पहुँच जाते हो और कभी मशहदे मुक़द्दस
,इस आलम में ऐसी तरह तरह की खाने पीने और नोश करने की चीज़ें
,ज़ेबा और दिलरूबा सूरतें और नग़मे मौजूद हैं जिनमें से किसी एक पर भी दुनिया वाले दस्तरस नहीं रखते लेकिन मिसाली जिस्मों के अन्दर बसने वाली रूहें उन तमाम चीज़ों से बहरा अन्दाज़ होती और रिज़्क़ हासिल करती हैं।
अलबत्ता उस आलम में ख़ुर्द ओ नौश की अशिया और दीगर नेमतें सभी लतीफ़ हैं और उनका मददे से कोई तआल्लुक़ नहीं है इसी बिना पर जैसा कि रवायतों में वारिद हुआ है मुमकिन है कि एक ही चीज़ मोमिन के इरादे के मुताबिक़ मुख़्तलिफ़ सूरतों मुबददिल हो जाए मसअलन ज़र्द आलू मौजूद हो लेकिन वो शफ़तालू चाहता है तो शफ़तालू बन जाए ये सब तुम्हारे इरादे पर मुन्हसिर होगा चुनाँचे एक रवायत में रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व)
से मनक़ूल है कि आँहज़रत ने फ़रमाया मैंने अपने चचा सैय्युश शोहदा हमज़ा को (बादे शहादत) देखा कि उनके सामने जन्नत के अनार का एक दबक़ रखा हुआ है और वो उनमें से नौश फ़रमा रहें हैं नागहाँ वो अनार अंगूर हो गऐ और उन्होंने नौश फ़रमयाए फिर मैंने देखा कि दफ़अतन वो अंगूर रूतब की सूरत में आ गऐ (बक़िया रवायत का खुलासा ये है कि आँहज़रत ने फ़रमाया कि मैंने अपने चचा से पूछा कि यहाँ कौन सी चीज़ मूवस्सिर और नतीजा ख़ेज़ होती है
?तो उन्होंने कहा तीन चीज़ें ज़्यादा काम आती हैं अव्वल प्यासे को पानी पिलाना दोम आप और आपकी आल पर सलवात भेजना सोम अली (अ.स)
की मोहब्बत ) मेरा मक़सद एक चीज़ का मुख़्तलिफ़ सूरतों में बदल जाना है क्योंकि वो माददा नहीं और लतीफ़ है ।