ग़दीर और वहदते इस्लामी

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ग़दीर और वहदते इस्लामी लेखक:
कैटिगिरी: इमाम अली (अ)

ग़दीर और वहदते इस्लामी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: मौलाना इक़बाल हैदर हैदरी
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ग़दीर और वहदते इस्लामी
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ग़दीर और वहदते इस्लामी

ग़दीर और वहदते इस्लामी

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

आयत में रोज़े ग़दीर के ख़ुसूसियात

सूर ए मायदा की तीसरी आयत के मुताबिक़ रोज़े ग़दीरे ख़ुम 18 ज़िल हिज्जा जिसमें हज़रत अमीर (अ) की इमामत का ऐलान हुआ , उस रोज़ के 6 ख़ुसूसियात मौजूद हैं:

1. उन तमाम दुश्मनों की उम्मीद , यास व नाउम्मीदी में तब्दील हो गई जो इस्लाम की नाबूदी के लिये अपनी कमर बाँधे हुए थे।.....)

2. उनकी उम्मीद , नाउम्मीदी में तब्दील होने के अलावा , उनकी साज़िशें इस तरह नाकारा हो गयीं कि उनसे मुसलमानों के ख़ौफ़ को बिला वजह क़रार दिया गया है।...)

3. मुम्किन था कि मुसलमान इस अज़ीम नेंमत को नज़र अंदाज़ करते और उससे मुँह मोड़ते हुए इस अज़ीन नेमत के मुक़ाबले में नाशुक्री करते और ग़ज़बे इलाही और कुफ़्फ़ार रे ग़लबे का रास्ता फ़राहम कर लेते और कुफ़्फ़ार के दिल में एक नई उम्मीद पैदा कर देते , इसी वजह से इस मसले से रोक थाम के लिये फ़रमाया: (...)

4. दीने इलाही में कैफ़ियत के लिहाज़ से कमाल पैदा हो और दीन की तरक्क़ी का रास्ता फ़राहम हो।....)

5. मुतलक़े नेमते इलाही (यानी विलायत) में कम्मी (यानी तमामियत) के लिहाज़ से तरक्क़ी हो और उसके आख़िरी दर्जे तक पहुच जाये। (.....)

6. ऐलान की मंज़िल में ख़ुदा वंदे आलम राज़ी हो गया कि विलायत के साथ इस्लाम हमेशा के लिये लोगों का दीन क़रार पाये।.....)

लिहाज़ा यह रोज़ तारिख़े इस्लाम के लिये एक नये ज़माने का आग़ाज़ है।

नुज़ूले आयत की कैफ़ियत

बाज़ उलामा ए शिया ने मुतअद्दिद रिवायात के ज़ुहूर की बेना पर यह ऐहतेमाल दिया है कि आयत का यह हिस्सा दूसरे हिस्सों से अलग नाज़िल हुआ है और जब क़ुरआन को जमा किया गया तो इस हिस्से को दीगर आयात के साथ रख दिया गया जबकि अकसर या तमाम अहले सुन्नत मुफ़स्सेरीन का कहना है कि आयात का यह मजमूआ एक साथ नाज़िल हुआ है और उनके मुख़्तलिफ़ हिस्से मज़मून के लिहाज़ से मुश्तरक हैं। इस वजह से दोनो ऐहतेमाल पर अलग अलग बहस व गुफ़तगू करना ज़रूरी है:

1. शिया उलामा का नज़रिया

शिया उलामा कहते है: सिर्फ़ आयात का वाहिद या मुतअद्दिद होना दलील बनने के लिये काफ़ी नही होता कि यह आयत एक मर्तबा नाज़िल हुई है या चंद बार , जिस तरह दो आयतों का होना उनके मुतअद्दिद बार नाज़िल होने की निशानी नही है , एक आयत का होना भी उस हिस्से की तमाम आयात के एक होने की दलील नही बन सकती। मिसाल के तौर पर सूर ए आहज़ाब में नाज़िल होने वाली आयके ततहीर इस बात की निशानी है कि यह आयत अपने मा क़ब्ल व मा बाद के मुख़ातब के अलावा है। उलामा ए अहले सुन्नत ने आयत के लिये जो शाने नुज़ूल बयान किया है वह भी इस बात की निशानी है कि आयत का यह हिस्सा एक मख़्सूस वाक़ेया में नाज़िल हुआ है।

मज़कूरा आयत भी इसी तरह है: क्योकि ख़ुदा वंदे आलम ख़ून , मुर्दार और गोश्ते ख़िन्ज़ीर वग़ैरह के हुक्म को बयान करते वक़्त फ़रमाता है: (आयत....)

जैसा कि हम जानते हैं कि ख़ून और गोश्ते ख़िन्ज़ीर का हुक्म मालूम होना दुश्मन के ना उम्मीद और दीन के कामिल होने को सबब नही होगा। इस बात पर शाहिद है कि यह अहकाम पहले भी दो मक्की सूरों (सूर ए अनआम आयत 145 और सूर ए नहल आयत 115) में नीज़ सूर ए बक़रह जो सबसे पहला मदनी सूरह है उसकी आयत नम्बर 173 में हुक्म नाज़िल हो चुका है लेकिन उनमें कुफ़्फ़ार की ना उम्मीदी और तकमीले दीन की बात नही आई है जबकि अगर उन अहकाम का नुज़ूल और उनका ऐलान ऐसी ख़ुसूसियत के हामिल हैं तो उन सूरों में भी बयान होना चाहिये था।.......)

इस तरह (....) के ज़रिये ख़ून और मुर्दार के हुक्म के नाज़िल होने के दिन की तरफ़ इशारा नही किया जा सकता बल्कि एक ऐसे रोज़ की तरफ़ इशारा होना चाहिये जिसमें कोई अहम वाक़ेया पेश आया हो , इस वजह से शिया ऐतेक़ाद रखते हैं कि (.......) उस रोज़ की तरफ़ इशारा है कि जिसमें रसूले अकरम (स) ने आय ए बल्लिग़ को अमली जामा पहनाया और जो कुछ ख़ुदा वंदे आलम ने फ़रमाया था

: يَا أَيُّهَا الرَّسُولُ بَلِّغْ مَا أُنزِلَ إِلَيْكَ مِن رَّبِّكَ وَإِن لَّمْ تَفْعَلْ فَمَا بَلَّغْتَ رِسَالَتَهُ

(सूर ए मायदा आयत 67)

ऐ पैग़म्बरे , आप उस हुक्म को पहुचा दें जो आपके परवर दिगार की तरफ़ से नाज़िल किया गया है।

एक इतना अहम हुक्म कि अगर उस अमल न होता रसूले अकरम (स) की 23 साल की मेहनत बर्बाद हो जाती और रिसालत का ऐलान न होता।

नतीजा:

इन तमाम बातों के पेशे नज़र हम कहते हैं: यह दो हिस्से अपने मा क़ब्ल व बाद से जुदा और मुस्तक़िल नाज़िल हुए हैं , लेकिन क़ुरआन की तरतीब के वक़्त ख़ुद पैग़म्बरे अकरम (स) या जिन्होने आँ हज़रत (स) के बाद क़ुरआन को जमा किया है।क़ुरआन को तरतीब देने में मुख़्तलिफ़ उसूल के मुताबिक़) उनके हुक्म से उस जगह रख दिया गया है। या हम यह कहें: यह दो जुमले अपने मा क़ब्ल व मा बाद के साथ नाज़िल हुए है लेकिन नुज़ूले आयत के रोज़ इस वजह से कि बाज़ शरई अहकाम के नुज़ूल का ज़र्फ़ है इशारा नही करती बल्कि एक मोतरेज़ा जुमला है जो उन जुमलों के दरमियान वाक़े है।

इस दावे की दलील यह है कि अगर उन दो जुमलों को हज़्फ़ कर दिया जाये तो बाक़ी आयात कामिल और पूरी हैं और उनके मअना में कोई ख़लल और कमी वाक़े नही होती जैसा कि आयते ततहीर को हज़्फ़ करके गुज़िश्ता आयात के मअना में कोई ख़लल वाक़े नही होता बल्कि उसके मअना मज़ीद वाज़ेह और उसका तर्जुमा व तफ़सीर मज़ीद आसान हो जाती है।

2. दूसरा ऐहतेमाल , अहले सुन्नत का नज़रिया

दूसरा ऐहतेमाल यह है कि आयत का यह फ़िक़रा आयात के दूसरे हिस्सों के साथ नाज़िल हुआ है और उनसे जुदा नही है जैसा कि अहले सुन्नत मुफ़स्सेरीन का अक़ीदा है।

इस ऐहतेमाल की बेना पर भी यह कहा जाये: अल यौम आयत में मज़कूरा अहाकाम के नुज़ूल की तरफ़ इशारा है क्योकि एक साथ नाज़िल होना इस लिहाज़ से कोई असर नही रखता जैसा कि सूर ए युसुफ़ की 29 वीम आयत का पहला हिस्सा हज़रत युसुफ़ (अ) से मुख़ातब है: (आयत) (ऐ युसुफ़ इस वाक़ेया से सरफ़े नज़र कर लो) और आयत का बाद वाला हिस्सा अज़ीज़े मिस्र की ज़ौजा से मुख़ातब है (आयत) (और तू ऐ औरत अपने गुनाह से तौबा कर ले) जबकि यह दोनो जुमले एक ही आयत के हैं और दरमियान में अज़ीज़े मिस्र का नाम भी नही आया है। इस आयत में किसी ने यह दावा नही किया है कि यह आयत के दोनो हिस्से एक शख़्स से ख़िताब हैं लिहाज़ा मुहावरों और आम गुफ़्तगू में वहदते सियाक़ को एक क़ानून और अक़्ली क़ायदे के उनवान से याद किया जाता है और उसको अहमियत दी जाती है लेकिन यह नही कहा जा सकता कि यह एक कुल्ली और आम क़ायदा है और हमेशा उसको दलील और ताईद के उनवान से मान लिया जाये , मख़सूसन अगर अंदरुनी या बेरुनी निशानियाँ उसके बर ख़िलाफ़ हों।

बाज़ लोगों का कहना है: सूर ए मायदा की तीसरी आयत के शुरु हराम गोश्तों के बारे में गुफ़्तगू होती है और उसके आख़िर में इज़तेराब और मजबूरी की हालत को बयान किया गया है और उन दोनो के दरमियान आय ए इकमाल से मुराद विलायत व इमामत और पैग़म्बरे अकरम (स) की जानशीनी हो तो पहले हिस्से और बाद वाले हिस्से में क्या मुनासेबत पाई जाती है ?

जवाब:

क़ुरआने मजीद की आयात किसी क्लास की किताब की तरह तंज़ीम नही हुई है बल्कि जिस शक्ल में पैग़म्बरे अकरम (स) पर नाज़िल हुई थी , आँ हज़रत (स) के हुक्म से क़रार दी जाती थी। इस बेना पर मुम्किन है कि मौरिदे बहस आयत का पहला हिस्सा रसूले अकरम (स) से हराम गोश्तों के बारे में सवाल करने की वजह से वाक़ेय ए ग़दीर से पहले नाज़िल हुआ हो और एक मुद्दत के बाद वाक़ेय ए ग़दीर पेश आया हो और आय ए इकमाल नाज़िल हुई हो और कातेबाने वहयी ने हराम गोश्तों के हुक्म के बाद रख दिया हो। उसके बाद इज़्तेरार और मजबूरी का वाक़ेया पेश आया हो और उसका हुक्म नाज़िल हुआ हो और इस आयत के ज़ैल में जिसमें इज़्तेरार का हुक्म है उसके बाद और आयत के दरमियान में रख दिया हो। लिहाज़ा मज़कूरा नुक्ते के पेशे नज़र यह ज़रुरी नही है कि आयात के दरमियान मख़सूस मुनासेबत पाई जाती है।

आय ए सअला सायलुन

ग़दीरे ख़ुम के वाकेया से मुतअल्लिक़ नाज़िल होने वाली आयात में से नीज़ हज़रत अली (अ) की विलायत व ख़िलाफ़त पर हदीसे ग़दीर की दलालत की ताईद करने वाली एक आयत है जिसमें ख़ुदा वंदे आलम इरशाद फ़रमाया है:

سَأَلَ سَائِلٌ بِعَذَابٍ وَاقِعٍ لِّلْكَافِرِينَ لَيْسَ لَهُ دَافِعٌ

(सूर ए मआरिज आयत 1,2)

एक माँगने वाले ने वाक़े होने वाले अज़ाब का सवाल किया , जिसका काफ़िरों के हक़ में कोई दफ़ा करने वाला नही है।

अस्ली वाक़ेया क्या है ? और वाक़ेय ए ग़दीर से इसका क्या ताअल्लुक़ है ? और किस तरह इमामत व विलायत पर हदीसे ग़दीर की दलालत पर ताईद करता है ? यह ऐसे सवालात हैं जिनके सिलसिले में हम यहाँ बहस करते हैं।

वाक़ेय ए ग़दीर में आयत के नुज़ूल का इक़रार

बहुत से अहले सुन्नत उलामा ने वाक़ेय ए ग़दीर में इस आयत का इक़रार किया है जैसे:

1. अबू इसहाक़ सालबी

मौसूफ़ कहते हैं: सुफ़यान बिन ऐनिया से ख़ुदा वंदे आलम ने क़ौल (...) की तफ़सीर के बारे में सवाल हुआ कि यह आयत किस की शान में नाज़िल हुई है ? तो उन्होने जवाब में कहा: तुम ने मुझ से एक ऐसे मसले के बारे में सवाल किया है कि उससे पहले किसी ने यह सवाल नही किया है। मुझ से मेरे वालिद ने , उन्होने जाफ़र बिन मुहम्मद से और उन्होने अपने आबा व अजदाद से रिवायत की है कि जिस वक़्त रसूले अकरम (स) ग़दीरे ख़ुम की सर ज़मीन पर पहुचे तो सभी हाजियों को ऐलान करके एक जगह पर जमा किया और उस मौक़े पर अली बिन अबी (अ) के हाथ को बुलंद करके फ़रमाया: जिस का मैं मौला हूँ उसके यह अली भी मौला हैं। यह ख़बर इतनी मशहूर हुई कि सभी मुल्कों और शहरों में फैल गई , चुनाचे जब यह ख़बर हारिस बिन नोमान फ़हरी तक पहुची। वह अपने ऊँट पर सवार था और उस वक़्त वह सर ज़मीने अबतह पर था , चुँनाचे अपने ऊँट से उतरा , ऊँट को बिठाया और उसके पैरों को बाँध दिया और उसने रसूले अकरम (स) की ख़िदमत में आया , हाँलाकि उसके साथ उसके चंद साथी भी थे। उसने कहा: ऐ मुहम्मद , आपने हमको ख़ुदा वंदे आलम की तरफ़ से हुक्म दिया कि ख़ुदा की वहदानियत और मेरी रिसालत की गवाही दें और हमने क़बूल किया , आपने हुक्म दिया कि पाँच वक़्त की नमाज़ें पढ़ो , हमने उसको भी मान लिया , आपने माहे रमज़ान के रोज़े नीज़ ज़कात व हज का हुक्म दिया हमने उसको भी मान लिया (लेकिन) आप इस पर राज़ी न हुए और अपने चचा ज़ाद के हाथों को बुलंद किया और उनको हम पर बरतरी दे दी और फ़रमाया: हदीस.... (जिसका मैं मौला हूँ उसके यह अली मौला हैं) क्या आपने यह बात अपनी तरफ़ से कही है या ख़ुदा वंदे आलम की तरफ़ से ?।

पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया: क़सम उसकी कि जिसके अलावा कोई ख़ुदा नही है , बेशक इस बात को मैने ख़ुदा वंदे आलम की तरफ़ से बयान किया है , उस मौक़े पर हारिस बिन नोमान पैग़म्बरे अकरम (स) से मुँह मोड़ कर अपने ऊँट की तरफ़ यह कहता हुआ चला पालने वाले , अगर जो कुछ मुहम्मद कहते हैं कि वह हक़ है तो मुझ पर आसमान से पत्थर गिरा दे या दर्रनाक अज़ाब में मुब्तला कर दे , वह अभी अपने ऊँट तक नही पहुचा था कि ख़ुदा वंदे आलम ने उसके ऊपर एक पत्थर नाज़िल किया जो उसके सर पर आ कर लगा और उसकी पीठ से निकल गया और उसी जगह पर ढेर हो गया। उस मौक़े पर ख़ुदा वंदे आलम ने यह आयत नाज़िल फ़रमाई:

سَأَلَ سَائِلٌ بِعَذَابٍ وَاقِعٍ لِّلْكَافِرِينَ لَيْسَ لَهُ دَافِعٌ

(अल कश्फ़ वल बयान मज़कूरा आयत के ज़ैल में

अबू इसहाक़ सालबी के मुख़्तसर हालात

इब्ने ख़लक़ान कहते हैं: अबू इसहाक़ अहमद बिन मुहम्मद बिन इब्राहीम सालबी नैशापूरी , वह मशहूर व मारुफ़ मुफ़स्सिरे क़ुरआन और इल्मे तफ़सीर में अपने ज़माने की बेनज़ीर शख़्सियत थे , उन्होने ऐसी तफ़सीर लिखी है जिसकी वजह से उन्हे दूसरे मुफ़स्सेरीन पर बरतरी हासिल है। अब्दुल ग़ाफ़िर बिन इस्माईल फ़ारसी ने अपनी किताब सयाक़े तारिख़े नैशापूर में उनका ज़िक्र किया है और उन पर दुरुद भेजा है , नीज़ उनको सहीहुन नक़्ल , मौरिदे इतमिनान और साहिबे वुसूक़ माना है।

सफ़दी भी उनके बारे में कहते हैं: वह हाफ़िज़ , आलिम , उलूमे अरब में साहिबे नज़र और मुवस्सक़ हैं।

सुफ़यान बिन ऐनिया के मुख़्तसर हालात

सुफ़यान बिन ऐनिया अहले सुन्नत की क़ाबिले वुसूक़ और मशहूर शख़्सियत हैं। नोवी साहब उनके बारे में कहते हैं: सुफ़यान बिन ऐनिया... आमश , सौरी , मुसइर , इब्ने जरीह , शोअबा , हम्मामस वकीअ , इब्ने मुबारक , इब्ने मेहदी , क़त्तान , हम्माद बिन ज़ैद , क़ैस बिन रबीअ , हसन बिन सालेह , शाफ़ेई , इब्ने वहब , अहमद बिन हंबल , इब्ने मदीनी , इब्ने मुईन , इब्ने राहवय , हमीदी और ख़लायक़ी वग़ैरह जिनका शुमार करना मुश्किल है , उन सब ने उनसे रिवायत की है और सौरी ने कत्तान से उन्होने इब्ने ऐनिया से रिवायत नक़्ल की है। उलामा उनकी इमामत , जलालत और अज़मत पर इत्तेफ़ाक़ रखते हैं।

ज़हबी कहते हैं: इमाम अबू मुहम्मद सुफ़यान बिन ऐनिया हेलाली शेख़ हिजाज़ हैं।

शाफ़ेई कहते हैं: अगर न होते मालिक और सुफ़यान तो हिजाज़ का इल्म ख़त्म हो जाता.. मौसूफ़ हदीस में साबित क़दम थे। बहज़ बिन असद कहते हैं: मैंने इब्ने ऐनिया की तरह किसी को नही देखा... और अहमद कहते हैं: मैंने किसी को हदीस में उनसे ज़्यादा आलिम नही पाया।

याफ़ेई कहते हैं: उलामा ने उनके सिलसिले में कहा कि वह इमाम , आलिम , साबित , बा तक़वा , थे और उनकी अहादीस को सही मानने पर इजमाअ है।

(वफ़यातुल आयान जिल्द 1 पेज 61, 62)

(अल वाफ़ी बिल वफ़यात जिल्द 8 पेज 33)

(तहज़ीबुल असमा वल लुग़ात जिल्द 1 पेज 224)

(अल ऐबर सन् 197 हिजरी के वाक़ेयात)

(मेरातुल जेनान सन् 198 के वाक़ेयात)

2. अबू उबैद हरवी (मुतवफ़्फ़ा 223)

हरवी अपनी तफ़सीर ग़रायबुल क़ुरआन में आय ए के ज़ैल में तहरीर करते हैं: जिस वक़्त रसूले अकरम (स) ने ग़दीर में तय शुदा हुक्म लोगों के सामने बयान कर दिया और यह ख़बर मुल्कों और शहरो में पहुच गई , जाबिर बिन नज़्र बिन हारिस बिन कलद ए अब्दरी ने (रसूले अकरम (स) की ख़िदमत में आकर अर्ज़ किया: ऐ मुहम्मद , आपने हमें ख़ुदा वंदे आलम की जानिब से हुक्म दिया कि ख़ुदा की वहदानियत की गवाही दो....रिवायत के आख़िर तक।

इब्ने ख़लक़ान , हरवी की सवानेह हयात तहरीर करते हैं: वह रूहानी शख़्सियत और इस्लामी उलूम में मुख़्तलिफ़ फ़ुनून के मालिक थे , उनकी रिवायत हसन और सहीहुन नक़्ल है और हम किसी ऐसे शख्स को नही पहचानते जिसने उनको दीनी हवाले से बुरा भला कहा हो।

(वफ़यातुल आयान जिल्द 4 पेज 60 रक्म 534)

3. शेखुल इस्लाम हम्मूई

मौसूफ़ किताब फ़रायदुस समतैन के 15 वें बाब में शेख़ इमादुद्दीन अब्दुल हाफ़िज़ बिन बदरान से , वह क़ाज़ी जमालुद्दीन अब्दुल क़ासिम बिन अब्दुल समद अँसारी से , वह अब्दुल ज़ब्बार बिन मुहम्मद ख़ारज़मी बैहक़ी से और वह अबिल हसन अली बिन अहमद वाहेदी से नक़्ल करते हैं: मैंने अपने उस्ताद अबू इस्हाक़ सालबी की तफ़सीर में पढ़ा कि सुफ़यान बिन ऐनिया से इस आयत (आयत) के बारे में सवाल हुआ कि यह आयत किसकी शान में नाज़िल हुई है ? तो उन्होने इसी हदीस को नक़्ल किया (जिसको हमने इससे पहले नक़्ल किया है ).

हमूई वही इब्राहीम बिन हम्द बिन मुअय्यद बिन हमविया सदरुद्दीन अबुल मजामेअ शाफ़ेई हैं जो ज़हबी के उस्ताद हैं , जिनकी वफ़ात 722 हिजरी में हुई। उलामा ए अहले सुन्नत ने उनको उलूमे हदीस और फ़िक्ह में इमाम के नाम से याद किया है।

उनकी किताब फ़रायदुस समतैन की तालीफ़ 716 हिजरी में तमाम हुई है।

(फ़रायदुस समतैन जिल्द 1 पेज 82 हदीस 63)

(तज़किरतुल हुफ़्फ़ाज़ जिल्द 4 पेज 505, मोजमे शुयूख़ुज़ ज़हबी पेज 125 रक़्म 156)

बग़दादी कहते हैं: जवीनी अपनी किताब फ़रायदुस समतैन की तालीफ़ से 716 हिजरी में फ़ारिग़ हुए है।

उनकी किताब उन बेहतरीन किताबों में से है जो अहले सुन्नत ने अहले बैत (अ) के फज़ायल व मनाक़िब में लिखी हैं।

(इज़ाहुल मकनून दर ज़ैले क़श्फ़ुज़ ज़ुनून जिल्द 4 पेज 182)

4. हाकिम हसकानी

हाकिम हसकानी हनफ़ी ने इस रिवायत की बहुत सी सनदों को आईम्म ए अहले बैत (अ) और बहुत से असहाब से नक़्ल किया है। हम यहाँ पर उनमें से एक रिवायत नक़्स करते हैं:

हाकिम हसकानी , अबू बक्र मुहम्मद बिन मुहम्मद बग़दादी से , वह अबू मुहम्मद अब्दुल्लाह बिन अहमद बिन जाफ़रे शैबानी से , वह अब्दुर्रहमान बिन हसन असदी से , वह इब्राहीम बिन हुसैन कसाई से , वह फ़ज़्ल बिन दकीन से , वह सुफ़यान बिन सईद से , वह मंसूर से , वह रुबई से और वह हुज़ैफ़ा बिन यमान से नक़्ल करते हैं कि उन्होने कहा: जिस वक़्त रसूले अकरम (स) ने अली (अ) के बारे में फ़रमाया: (हदीस)

नोमान बिन मुन्ज़िर फ़हरी खड़ा हुआ और उसने कहा... और फिर पूरा वाक़ेया नक़्ल किया।

• अबू बक्र मुहम्मद बिन मुहम्मद बग़दादी: हाफ़िज़ अब्दुल ग़ाफ़िर नैशापूरी उनके हालाते ज़िन्दगी में कहते हैं: वह फ़क़ीह , फ़ाज़िल और दीनदार थे।

• अब्दुल्लाह बिन अहमद बिन जाफ़रे शैबानी नैशापूरी: ख़तीबे बग़दादी उनकी सवानेह उमरी के बारे में कहते हैं: उनके पास बहुत सी दौलत थी लेकिन उस दौलत को राहे इल्म , अहले इल्म , हज , जेहाद और नेक कामों में ख़र्च करते रहते थे और उन्होने अपने ज़माने के तमाम उलामा से ज़्यादा हदीसें सुनी हैं.... और वह मौरिदे वुसूक़ थे।

(शवाहिदुत तंज़ील जिल्द 2 पेज 381 से 385)

(अस सेयाक़ फ़ित तारीख़ नैशापूर पेज 37)

(तारिख़े बग़दाद जिल्द 9 पेज 391)

अब्दुर्हमान बिन असदी:

ख़तीबे बग़दादी ने उनकी सवानेह हयात में तारीफ़ व तमजीद की है।अगर चे उनके बाज़ हम अस्र उलामा ने उनकी तज़ईफ़ की है लेकिन ज़हबी और इब्ने हजर के नज़रिये के मुताबिक़ हम अस्र लोगों की तज़ईफ़ क़ाबिले तवज्जो नही होती।

इब्राहीम बिन हुसैन कसाई मारुफ़ बे इब्ने दैज़ल: ज़हबी ने उनके बारे में कहा: वह इमाम , हाफ़िज़ , सिक़ह औऱ आबिद थे.... हाकिम ने उनको सिक़ह अमीन में शुमार किया है।

फज़्ल बिन दकीन: यह सेहाहे सित्ता के रेजाल में शुमार होते हैं। इब्ने हजर कहते हैं: वह सिक़ह और ज़ाबित थे और उनका शुमार बुख़ारी के बुज़ुर्ग असातिज़ में होता था।

(तारिख़े बग़दाद जिल्द 10 पेज 292)

(लिसानुल मीज़ान जिल्द 5 पेज 234, मीज़ानुल ऐतेदाल जिल्द 1 पेज 111)

(सेयरे आलामुन नबला जिल्द 13 पेज 184)

(तक़रीबुत तहज़ीब जिल्द 2 पेज 110)

सुफ़यान बिन सईद:

सौरी के नाम से मशहूर हैं , शोअबा , सुफ़यान बिन ऐनिया , अबू आसिम नबील , यहया बिन मुईन और बहुत से दीगर उलामा ने उनको हदीस में अमीरुल मोमिनीन का लक़्ब दिया है। सुफ़यान ऐनिया कहते हैं: असहाबे हदीस तीन हज़रात हैं , अपने ज़माने में इब्ने अब्बास , अपने ज़माने में शअबी और अपने ज़माने में सौरी। अब्बास दौरी कहते हैं: मैंने इस बात का मुसाहिदा किया है कि यहया बिन मुईन , फ़िक्ह व हदीस और ज़ौहद वग़ैरह में सुफ़यान पर किसी को मुक़द्दम नही मानते थे और वह सिहाहे सित्ता के रेजाल में से हैं।

रुबई: यह वही मंसूर बिन मोतमिर हैं जिनका शुमार सिहाहे सित्ता के रेजाल में होता है। इब्ने हजर उनके बारे में कहते हैं: वह सिक़ह और साबित थे और धोके बाज़ नही थे।

हुज़ैफ़ा बिन यमान: मौसूफ़ जलीलुल क़द्र असहाब में से हैं।

(तहज़ीबुल कमाल जिल्द 11 पेज 164 से 169)

(तक़रीबुत तहज़ीब जिल्द 2 पेज 177)

(तक़रीबुत तहज़ीब जिल्द 1 पेज 243)

अहले बैत (अ) और असहाब में हदीस के रावी

इस रिवायत को बाज़ आईम्म ए अहले बैत (अ) और बहुत से असहाब ने रिवायत की है जैसे:

1. इमाम अमीरुल मोमिनीन (अ)

2. इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ)

3. इमाम जाफ़क सादिक़ (अ)

4. अब्दुल्लाह बिन अब्बास

5. हुज़ैफ़ा बिन यमान

6. सअद बिन अबी वक़ास

7. अबू हुरैरा

अहले सुन्नत उलामा में हदीस के रावी

इस मज़मून की हदीस को बहुत से उलाम ए अहले सुन्नत ने अपनी अपनी किताबों में रिवायत किया है जैसे:

हाफ़िज़ अबू उबैद हरवी ( 1223)

(तफ़सीरे ग़रीबुल क़ुरआन)

अबू बक्रे नकास मूसली बग़दादी ( 351)

(तफ़सीरे शिफ़ाउस सुदूर)

3. अबू इसहाक़ सालबी नैशा पूरी ( 427)

(अल कश्फ़ वल बयान)

4. हाकिम हसकानी हनफ़ी

(शवाहिदुत तंजील जिल्द 2 पेज 383)

5. अबू बक्रे यहया क़ुरतुबी ( 567)

(अल जामेउल अहकामिल क़ुरआन जिल्द 8 पेज 278)

6. सिब्ते बिन जौज़ी हनफ़ी ( 654)

(तज़किरतुल ख़वास पेज 30)

7. शेख़ुल इस्लाम हमूई

(फ़रायदुस समतैन जिल्द 1 पेज 82 हदीस 63)

8. शेख़ मुहम्मद ज़रन्दी हनफ़ी

(नज़्म दुररुस समतैन पेज 93)

9. नुरूद्दीन इब्ने सब्बाग़े मालिकी

(अल फ़ुसूलुल मुहिम्मा पेज 41)

10. सैयद नुरूद्दीन समहूदी शाफ़ेई

(जवाहिरुल अक़दैन पेज 179)

11. अबुस सईद इमादी

(इरशादुल अक़्लिस सलीम जिल्द 9 पेज 29)

12. शमसुद्दीन शिराज़ी

(अस सिराजिल मुनीर जिल्द 4 पेज 380)

13. सैयद जमालुद्दीन शिराज़ी

(अरबईन फ़ी मनाक़िब अमीरिल मोमिनीन पेज 40)

14. शेख़ ज़ैनुद्दीन मनावी शाफ़ेई

(शरहे जामेउस सग़ीर जिल्द 6 पेज 218)

15. शेख़ बुरहानुद्दीन अली हलबी शाफ़ेई

(अस सिरतुल हल्बिया जिल्द 3 पेज 274)

16. सैयद मोमिन शबलंजी शाफ़ेई

(नुरुल अबसार पेज 159)

17. शेख़ अहमद बिन बाकसीर मक्की शाफ़ेई

(वसीलतुल मआल पेज 119)

18. शेख़ अब्दुर्हमान सफ़ूरी

(नुज़हतुल मजालिस जिल्द 2 पेज 209)

19. शमसुद्दीन हनफ़ी शाफ़ेई

(शरहे जामेउस सग़ीर जिल्द 2 पेज 378)

20. अबू अब्दिल्लाह ज़रक़ानी मालिकी

(शरहुल मवाहिबिल लदुन्निया जिल्द 7 पेज 13)

21. कंदूज़ी हनफ़ी

(यनाबीउल मवद्दत पेज 274)

22. मुहम्मद बिन युसुफ़ गंजी और दीगर हज़रात

(किफ़ायतुत तालिब)

हदीस की दलालत

यह रिवायत उन शवाहिद और क़रायन में से है जो दलालत करती हैं कि हदीस ग़दीर में मौला के मअना सर परस्ती के हैं , क्योकि अगर हदीसे ग़दीर में मौला के मअना मुहब्बत व नुसरत के हों तो फिर हारिस बिन नोमान को क्यो ज़रुरत थी कि वह रसूले इस्लाम (स) से इस तरह कट हुज्जती करता और आख़िर में इस तरह ख़ुदा वंदे आलम से अज़ाब की दर ख़्वास्त करता ? बेशक उसने हदीसे ग़दीर से हज़रत अली (अ) की इमामत व सर परस्ती को समझा था। लिहाज़ा वह हज़रत अली (अ) से दुशमनी की वजह से बर्दाश्त न कर सका , उसका हसद इस बात का बाइस बना कि वह ख़ुदा से ऐसी दरख़्वास्त करे।

चंद ऐतेराज़ और उनके जवाब

अहले सुन्नत के बाज़ मुतअस्सिब उलामा ने इस हदीस की तावील या तकज़ीब करने की (बेजा) कोशिश की है। अब यहाँ पर उन ऐतेराज़ात को बयान करके उनकी तहक़ीक़ व तंक़ीद करते हैं:

1. सूर ए मआरिज मक्की है!!

इब्ने तैमिया ने इस हदीस पर बाज़ ऐतेराज़ात किये हैं: सूर ए मआरिज जिसकी यह पहली आयत है , उलामा के इत्तेफ़ाक़ के मुताबिक़ मक्की है , नतीजा यह हुआ कि यह आयत वाक़ेय ए ग़दीर से दस साल या उससे भी ज़्यादा पहले नाज़िल हुई है।

(मिनहाजुस सुन्नह जिल्द 4 पेज 31)

जवाब:

जिस इजमाअ का इब्ने तैमिया ने दावा किया है उससे यक़ीनी बात यह है कि सूरह मजमू तौर पर मक्की है न कि मजमूई तौर पर तमाम आयात मक्की हैं क्योकि मुम्किन है कि मख़्सूस तौर पर यह आयत मदनी हो।

अगर कोई यह ऐतेराज़ करे कि सूरों के मक्की या मदनी होने में क़ायदा यह है कि सूरह के शुरु की आयत कहाँ नाज़िल हुई है और चूँकि सूरह की शुरुआत मदनी आयात से हुई है तो वह सूरह मक्की होने के मुवाफ़िक़ नही है।

तो हम जवाब में कहते हैं: यह दावा हक़ीक़त के ख़िलाफ़ है क्योकि बहुत से मक़ामात पर इस चीज़ के बर ख़िलाफ़ हैं जैसे:

अलिफ़. सूर ए अंकबूत: इस सूरह की तमाम आयात मक्की हैं सिवाए शुरु की दस आयात के।

बे. सूर ए कहफ़: इसकी तमाम आयते मक्की हैं , सिवाए शुरु की सात आयतों के कि जो मदनी हैं।

जीम. सूर ए मुतफ़्फ़ेफ़ीन: इसकी तमाम आयात मक्की है सिवाए पहली आयत के।

दाल. सूर ए लैल: इसकी तमाम आयात मक्की हैं , सिवाए पहली आयत के।

हे. सूर ए मुजादेला: इसकी तमाम आयात मक्की हैं सिवाए शुरु की दस आयात के।

वाव. सूर ए बलद. इसकी तमाम आयात मक्की हैं सिवाए पहली आयत के।

(जामेउल बयान जिल्द 20 पेज 133, अल जामेउल अहकामिल क़ुरआन जिल्द 13 पेज 41,)

(अल जामेउल अहकामिल क़ुरआन जिल्द 10 पेज 235, अल इतक़ान जिल्द 1 पेज 41)

(जामेउल बयान जिल्द 30 पेज 91)

(अल इतक़ान जिल्द 1 पेज 47)

(इरशादुल अक़्लिस सलीम जिल्द 8 पेज 215)

(अल इतक़ान जिल्द 1 पेज 47)

2.ख़ुदा वंदे आलम पैग़म्बरे अकरम (स) के होते हुए अज़ाब नही करेगा!!

इब्ने तैमिया का यह भी कहना है कि यह आयत मक्के के मुशरेकीन के ताने की वजह से नाज़िल हुई है और इसकी वजह से उसके बाद अज़ाब नाज़िल नही हुआ है क्योकि ख़ुदा वंदे आलम का फ़रमान है:

وَمَا كَانَ اللَّـهُ لِيُعَذِّبَهُمْ وَأَنتَ فِيهِمْ ۚ وَمَا كَانَ اللَّـهُ مُعَذِّبَهُمْ وَهُمْ يَسْتَغْفِرُونَ

लेकिन (ऐ पैग़म्बर) जब तक आप उनके दरमियान हैं , ख़ुदा वंदे आलम उनको अज़ाब नही करेगा और जब तक इसतिग़फ़ार करेगें तो (भी) ख़ुदा उन पर अज़ाब नाज़िल नही करेगा।

(सूर ए अनफ़ाल आयत 33)

(मिनहाजुल सुन्नह)

जवाब:

अव्वल. इसमें कोई क़बाहत नही है कि मक्के के मुशरेकीन पर अज़ाब नाज़िल न हुआ हो लेकिन इस मक़ाम पर हारिस पर अज़ाब नाज़िल हुआ है।

दूसरे. बाज़ रिवायात से यह नतीजा निकलता है कि पैग़म्बरे अकरम (स) के ज़माने में भी बाज़ लोगों पर अज़ाब नाज़िल हुआ है:

अलिफ़. मुस्लिम ने अपनी सहीह में अपनी सनद के साथ इब्ने मसऊद से नक़्ल किया है कि क़ुरैश ने रसूले अकरम (स) की नाफ़रमानी की और इस्लाम कबूल नही किया। पैग़म्बरे अकरम (स) ने उनके हक़ में नफ़रीन (द दुआ) की और ख़ुदा वंदे आलम की बारगाह में अर्ज़ किया: पालने वाले , जनाबे युसुफ़ के (ज़माने की) तरह सात साल तक इन पर क़हत नाज़िल फ़रमा , उसी मौक़े पर शिबहे जज़ीर ए हिजाज़ में ख़ुश्क साली शुरु हो गई और नौबत यह पहुच गई कि लोग मुरदार का गोश्त खाने लगे और भूक प्यास की शिद्दत से आसमान धूँए की तरह दिखाई देने लगा।

बे. इब्ने अब्दुलबर रिवायत करते हैं: पैग़म्बरे अकरम (स) जिस रास्ते पर चलते थे तो कभी दाहिनी तरफ़ झुकते थे तो कभी बायीं तरफ़। हक्म बिन आस ने भी इसी तरह आँ हज़रत (स) की नक़्ल करना शुरु की , एक रोज़ पैग़म्बरे अकरम (स) ने उसको देख लिया कि यह मेरी नक़्लें उतारता है , आँ हज़रत (स) ने उस पर नफ़रीन की कि ख़ुदा करे तू ऐसा ही हो जा। चुँनाचे उसी मौक़े से वह ऐसी हालतमुब्तला हो गया कि चलते वक़्त उसका बदन लरज़ता था।

जीम. बैहक़ी अपनी सनद के साथ ओसामा बिन ज़ैद से नक़्ल करते हैं कि रसूले अकरम (स) ने किसी शख्स को एक मुहल्ले में भेजा , उसने रसूले अकरम (स) की तरफ़ झूठी निस्बत दी , जिसके बाद आँ हज़रत (स) ने उस पर नफ़रीन की को लोगों ने उसको मुर्दा पाया और देखा कि उसका पेट फटा पड़ा है और जब उसको दफ़्न करना चाहा तो लाख कोशिश की लेकिन ज़मीन ने उसको क़बूल नही किया।

(सही मुस्लिम जिल्द 5 पेज 342 हदीस 39, सही बुख़ारी जिल्द 4 पेज 1730 हदीस 4416)

(अल इस्तिआब क़िस्मे अव्वल पेज 359)

(अल ख़सायसुल कुबरा जिल्द 2 पेज 130)

इन वाक़ेयात और इस तरह के दीगर वाक़ेयात से नतीजा हासिल होता है कि पैग़म्बरे अकरम (स) या तमाम अंबिया के होते हुए जो अज़ाबे इलाही नाज़िल नही होता वह आम अज़ाब होता है न मख़्सूस अज़ाब या किसी ख़ास शख़्स पर , यह मतलब हिकमत के मुवाफ़िक़ है , क्योकि कभी कभी हालात इस बात का तक़ाज़ा करते हैं।

3. अगर ऐसा था तो मोजिज़ा होना चाहिये था!!

इब्ने तैमिया का यह भी कहना है: अगर यह वाक़ेया सही होता तो असहाबे फ़ील के वाक़ेया की तरह मोजिज़े के उनवान से लोगों में मशहूर हो जाता और सभी लोग उसको देखते जबकि ऐसा कुछ नही है।

जवाब:

अव्वल. इब्ने तैमिया का एक इंफ़ेरादी वाक़ेया का असहाबे फ़ील के वाक़ेया से क़यास करना क़यास मअल फ़ारिक़ है क्योकि असहाबे फ़ील के वाक़ेया में एक अज़ीम हादेसा सबकी नज़रो के सामने पेश आया लिहाज़ा उसकी ख़बर बहुत तेज़ी से लोगों के दरमियान फ़ैल गई , बर ख़िलाफ़ हारिस बिन नोमान के वाक़ेया के कि एक शख़्स के लिये और मख़्सूस जगह पर पेश आया।

दूसरे. चूँकि यह वाक़ेया हज़रत अमीर (अ) के फ़ज़ायल से मुतअल्लिक़ है और मकतबे ख़ुलाफ़ा का हमेशा से यह नसबुल ऐन रहा है कि वह आपके फ़ज़ायल को मख़्फ़ी रखने की कोशिश करते रहे हैं।

3. मुसलमान पर दुनिया में अज़ाब नही होता!!

इब्ने तैमिया मज़ीद कहते हैं: हारिस के ज़ाहिरी अल्फ़ाज़ से यह मालूम होता है कि वह मुसलमान था और पाँचों वक़्त की नमाज़ का इक़रार कर रहा था और यह मालूम है कि दुनिया में मख़सूसन पैग़म्बरे अकरम (स) के ज़माने में किसी मुसलमान को अज़ाब नही होता।

जवाब:

जिस तरह मज़कूरा हदीस से हारिस का इस्लाम साबित होता है , उसी गुफ़्तगू के आख़िर में उसने ऐसी बात कही कि जिससे मालूम होता है कि वह मुरतद हो गया था और हक़ीक़त में मुशरिक हो गया था लिहाज़ा इस तरह के अज़ाब का मुसतहिक़ था।

(मिनहाजुस सुन्ना)

(मिनहाजुस सुन्ना)

हदीस ग़दीर पर अक्सर सहाबा के ऐतेराज़ का राज़

जब अहले सुन्नत और शियों के दरमियान हज़रत अमीरुल मोमिनीन (अ) की हक़्क़ानियत व विलायत की बहस तूलानी होती है और अहले सुन्नत हज़रत अमीर (अ) की ख़िलाफ़त व इमामत के दलायल मिन जुमला हदीसे ग़दीर को मुलाहिज़ा करते हैं और उसकी सनद की सेहत और इसतेहकाम को देखते हैं तो उनकी तरफ़ से आख़िरी सवाल या ऐतेराज़ यह होता है कि हज़रत अली (अ) की शान और आपकी इमामत के बारे में इतनी ज़्यादा आयात व रिवायात के बावजूद सहाबा केराम ने उन पर क्यों तवज्जो नही की है ? और हज़रत अली बिन अबी तालिब (अ) को छोड़ कर दूसरों की तरफ़ चले गये और उनको ख़िलाफ़त के लिये मुन्तख़ब कर लिया ? क्यो हज़रत अली (अ) से लोगों ऐराज़ (यानी बे तवज्जोही) उन मज़कूरा रिवायात के ज़ईफ़ होने की निशानी नही है ?

शेख़ सलीम अल बशरी , मरहूम शरफ़ुद्दीन आमिली से तूलानी बहस करने और हज़रत अली (अ) की बिला फ़स्ल इमामत व विलायत से मुतअल्लिक़ अहादीस की तसदीक़ करने के बाद कहते हैं: मैं क्या कहूँ! अगर इन दलीलों के देखता हूँ तो सनद और दलालत के लिहाज़ से मुकम्मल तौर पर सही पाता हूँ लेकिन दूसरी तरफ़ देखता हूँ कि अक्सर सहाबा ने हज़रत अली (अ) से ऐराज़ किया है , जिसके मअना यह है कि उन्होने उन रिवायतों पर अमल नही किया है , मैं ऐसे हालात में क्या करू ?

(अल मुराजेआत)

लिहाज़ा इस मौक़े पर मुनासिब है कि इस सवाल और ऐतेराज़ की छान बीन करें और मसले को अच्छी तरह से वाज़ेह करें ताकि हक़ व हक़ीक़त रौशन हो जाये।

पहला सबब: सहाबा के दरमियान दो नज़रियों का वुजूद

जो शख़्स पैग़म्बरे अकरम (स) के ज़माने या उन के बाद हयाते सहाबा के सिलसिले में किताबों की वरक़ गरदानी करे तो उसको यह मालूम हो जायेगा कि सहाबा ए केराम के दरमियान फ़िक्री लिहाज़ से दो नजरिये पाये जाते थे:

अलिफ़. नस्स के मुक़ाबले में इज्तेहाद का नज़रिया

इस नज़रिये पर ऐतेक़ाद रखने वाले इस बात पर अक़ीदा रखते थे कि पैगम्बरे अकरम (स) की तमाम ख़बरों और अहकाम पर ईमान लाना और उनको बिदूने चूँन व चराँ कबूल करना ज़रूरी नही है बल्कि दीनी तहरीरों में मसलहत के पेशे नज़र इज्तेहाद करते हुए उनमें तसर्रुफ़ किया जा सकता है। यह नज़रिया मकतबे ख़ुलाफ़ा का बुनियादी मसअला है। चुँनाचे पैग़म्बरे अकरम (स) ने इस नज़रिये की वजह से बहुत से मसायब बर्दाश्त किये हैं।

बे. इस नज़रिये के मुक़ाबले में एक दूसरा नज़रिया भी है कि जिसका अक़ीदा यह है कि जिसका ऐतेक़ाद है कि दीन व शरीअत के तमाम अहकाम के सामने सरे तसलीम ख़म किया जाये और उनको चूंन व चराँ के बग़ैर कबूल किया जाये। यह नज़रिया वही अहले बैत (अ) का रास्ता या दूसरे लफ़्ज़ो में अहले बैत (अ) का मकतब है।

इज्तेहादी तरीक़े के तरफ़दार

चूँकि नस्स के मुक़ाबले में इज्तेहाद मसलहत की रिआयत की ख़ातिर इँसान की अपनी मर्ज़ी और ख़्वाहेशात नफ़्स के मुताबिक़ होता है लिहाज़ा बाज़ असहाब ने पैग़म्बरे अकरम (स) के ज़माने से ही यह काम करना शुरु कर दिया और अमली तौर पर आँ हज़रत (स) से मुक़ाबला शुरु किया , जिनकी सरे फ़ेहरिस्त हज़रत उमर बिन ख़त्ताब का नाम आता है। मौसूफ़ ने सुल्हे हुदैबिया के मौक़े पर शदीदन पैग़म्बरे अकरम (स) की मुख़ालेफ़त की (और आज़ान में दख़्ल व तसर्रुफ़ किया। .....(को निकाल दिया और उसकी जगह सुबह की आज़ान में रख दिया(मुतअतुन निसा को हराम किया (और हज तमत्तोअ की तातील कर दी (मौसूफ़ ने और भी दीगर उमूर में जैसे लश्करे ओसामा में शिरकत करने (और पैग़म्बरे अकरम (स) के आख़िरी वक़्त में वसीयत लिखने के लिये क़लम व क़ाग़ज़ हाजिर करने की अमली तौर पर मुख़ालेफ़त की (यह सब ऐसी चीज़ें इस बात पर दलालत करती है कि असहाब के दरमियान एक मख़्सूस नज़रिया पाया जाता था जिसकी वजह से पैग़म्बरे अकरम (स) के साथ इस तरह का रवय्या इख़्तियार किया जाता था क्योकि वह पैग़म्बरे अकरम (स) को वहयी के अलावा दूसरी चीज़ों में एक आम इंसान फ़र्ज़ किया करते थे।

उमर बिन ख़त्ताब , पैग़म्बरे अकरम (स) के वसीयत नामा लिखे जाने की मुख़ालेफ़त में कहते हैं: मैं जानता था कि पैग़म्बरे अकरम (स) क्या चीज़ लिखना चाहते थे , आँ हज़रत (स) चाहते थे कि अपने बाद के लिये हज़रत अली (स) के लिये वसीयत करें लेकिन मैं इस्लाम की दिल सोज़ी और मेहरबानी की ख़ातिर इस काम में मानेअ हो गया।

(सही मुस्लिम किताबुल जिहाद वस सेयर बाब 34 जिल्द 3 पेज 1412 हदीस 1785)

(सीरये हलबी जिल्द 2 पेज 98, नीलुल अवतार जिल्द 2 पेज 32)

(अल मुवत्ता पेज 57 पेज हदीस 151)

(सही मुस्लिम जिल्द 4 पेज 131 बाब निकाहुल मुतआ)

(ज़ादुल मआद जिल्द 2 पेज 184, सही मुस्लिम जिल्द 4 पेज 48)

(तबक़ात इब्ने साद जिल्द 2 पेज 190, सीरये हलबी जिल्द 3 पेज 207)

(सही बुख़ारी जिल्द 7 पेज 9 किताबुल मर्ज़ी)

(शरहे नहजुल बलागा़ , इब्ने अबिल हदीद जिल्द 12 पेज 21)

इमाम अली (अ) की मुख़ालिफ़त में मकतबे ख़ुलाफ़ा का बहाना

तारिख़ और मकतबे ख़ुलाफ़ा के अरकान के कलाम को देखने के बाद यह मालूम होता है कि अमीरुल मोमिनीन (अ) के हक़े ख़िलाफ़त को छिनने की कोशिशों में मुख़्तलिफ़ बहानो का सहारा लिया गया है , जो न सिर्फ़ उनके लिये शरई और अक़्ली उज़्र नही है बल्कि ख़ुद ही उनके नज़रियात के बातिल होने पर दलालत करते हैं। अब हम यहाँ पर उन तौजीहात व ताविलात की तरफ़ इशारा करते हैं:

1. क़ुरैश का पसंद न करना

कभी कभी अपने नाशाइस्ता अमल को सही पेश करने के लिये ऐसे जुमले कहते थे जैसा कि आज बहुत से लोग इस तरह के शेयार अपनी ज़बानो पर जारी करते हैं और उसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हैं। चुँनाचे वह कहते थे: क़ुरैश को यह बात नापसंद थी कि नबूवत व ख़िलाफ़त एक ही ख़ानदान में जमा हो जाये , अगर नबूवत ख़ानदाने बनी हाशिम में थी तो इमामत और पैग़म्बरे अकरम (स) की ख़िलाफ़त किसी दूसरे ख़ानदान में होना चाहिये।और चूँकि इस्लामी हुकूमत में सियासी वुसअत होना चाहिये लिहाजा कु़रैश की तवज्जो मबज़ूल करने के लिये अली (अ) से कि जो बनी हाशिम से थे , छीन लेना चाहिये।

(कामिले इब्ने असीर जिल्द 3 पेज 63, तारिख़े तबरी जिल्द 4 पेज 323, शरहे इब्ने अबिल हदीद जिल्द 3 पेज 107)

जवाब:

इस इस्तिदलाल का बेहतरीन जवाब उसी ज़माने में जनाबे इब्ने अब्बास ने दिया है। उन्होने उन लोगों के जवाब में कहा: अगर क़ुरैश ने अपने लिये ख़िलाफ़त का इंतेख़ाब किया तो उसकी वजह थी कि ख़ुदा वंदे आलम का यही इरादा था , इसमें कोई मुश्किल नही है लेकिन हक़ इसके बर ख़िलाफ़ है , ख़ुदा वंदे आलम ने बाज़ लोगों की हिदायत की कराहत को बयान करते हुए फ़रमाया:

ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمْ كَرِهُوا مَا أَنزَلَ اللَّـهُ فَأَحْبَطَ أَعْمَالَهُمْ

(सूर ए मुहम्मद आयत 9)

यह इस लिये कि उन्होने ख़ुदा के नाज़िल किये हुए अहकाम को बुरा समझा तो ख़ुदा ने भी उनके आमाल को ज़ाय कर दिया।

ख़ुदा वंदे आलम की मर्ज़ी यही थी कि अली (अ) और उनके अहले बैत (अ) को दूसरों पर फ़ज़ीलत दे , क्योकि उनके दिल , क़ल्बे रसूले ख़ुदा से हैं , यह वह हज़रात हैं जिनके वुजूद से ख़ुदा वंदे आलम ने रिज्स और बुराई को दूर रखा है और उनके दिलों को पाक व पाकीज़ा क़रार दिया है।

(तारिख़े तबरी जिल्द 4 पेज 224)

क़ारेईने मोहतरम , जो हुकूमत , इस्लाम और दीन के नाम पर क़ायम हो , उसके लिये जायज़ नही है कि बाज़ बेदीन और बे तवज्जो नीज़ इस्लाम और मुसलमानों के दुश्मनों को बिला वजह इम्तियाज़ दे , यहाँ तक कि अहम ओहदों पर उनको मुक़र्रर किया जाये या आदिल इस्लामी हाकिम को जो मुआशिरा की रहबरी के लिये ख़ुदा वंदे आलम की जानिब से मुअय्यन हुआ हो , उसको माज़ूल करके नाअहल लोगों को इस ओहदे पर बिठा दिया जाये। क्या यह क़ुरैश वही नही थे जिन के लिये वह दिलसोज़ी करते थे कि जब तक कि मक्के व मदीने में आँ हज़रत (स) बा हयात रहे , इस्लाम और मुसलमानों और ख़ुदा आँ हज़रत (स) पर ख़तरनाक हमले किये और आख़िर में मुसलमानों से ख़ौफ़ ज़दा होकर इस्लाम को इख़्तियार कर लिया ?

क्या ऐसे लोगों की तवज्जो जल्ब करने के लिये हक़ व हक़ीक़त के साथ हाथ धो लिया जाये ? और साहिबे हक़ को ख़ाना नशीन कर दिया जाये और किसी ऐसे शख्स को इस्लामी हुकूमत के ओहदे पर मुक़र्रर कर दिया जाये , जिसको दीन व इस्लाम की ख़ास मालूमात भी न हो ?

2. अरब को अली (अ) बर्दाश्त नही थे

हज़रत अली (अ) की ख़िलाफ़त को ग़स्ब करने के लिये कभी कभी बहाना पेश करते थे: चूँकि हज़रत अली (अ) अदल व अदालत के मज़हर थे और अरब इमाम अली (अ) के अदल व इंसाफ़ को बर्दाश्त नही करसकते थे लिहाज़ा उनके लिये ख़लीफ़ा बनने में मसलहत नही थी।

(अत तबक़ातुल कुबरा जिल्द 5 पेज 20, तारिख़े याक़ूबी जिल्द 2 पेज 158, क़ामूसुर रेजाल जिल्द 6 पेज 36)

जवाब:

अव्वल , यह नस के मुका़बिल इज्तेहाद है जो लोग बिल फ़र्ज़ ऐसी नियत रखते थे , क्या उन लोगों ने हज़रत अली (अ) की शान में रसूले अकरम (स) की इतनी ज़्यादा सिफ़ारिशें , वसीयतें और बहुत ज़्यादा ताकीदात को नही देखा था ? क्या वह रसूले इस्लाम (स) को मासूम , उम्मत का ख़ैर ख़्वाह और उम्मत के लिये मसलहत अंदेश नही मानते थे ? क्या हक़ को बर्दाश्त न करने की वजह से वजह से हक़ से मुँह मोड़ा जा सकता है और बातिल का रुख़ किया जा सकता है ? ऐसा बातिल जिसमें गुमराही के अलावा कुछ भी तो नही है। ख़ुदा वंदे आलम क़ुरआने मजीद में इरशाद फ़रमाता है:

فَذَٰلِكُمُ اللَّـهُ رَبُّكُمُ الْحَقُّ ۖ فَمَاذَا بَعْدَ الْحَقِّ إِلَّا الضَّلَالُ ۖ فَأَنَّىٰ تُصْرَفُونَ

(सूर ए युनुस आयत 32)

और हक़ के बाद ज़लालत के सिवा कुछ भी नही है।

अगर ऐसा है तो फिर क्यो रसूले अकरम (स) मुशरेकीन को अपनी तरफ़ ख़ैचने के लिये अपने उसूल से एक क़दम पीछे नही हटे ? यहाँ तक कि आपको अपने वतन से हिजरत और जंग जैसी मुश्किलात का सामना करना पड़ा , लेकिन आप अपने उसूल से एक क़दम भी पीछे न हटे।

दूसरे , क्या अरब अली (अ) के अलावा दूसरे लोगों की निस्बत राज़ी थे जो अली (अ) से राज़ी न थे ? क्या ऐसा नही था कि साद बिन ओबादा एक बड़े क़बीले के सरदार ने अबू बक्र कि मुख़ालिफ़त नही की।क्या ऐसा नही था कि एक गिरोह रसूले इस्लाम (स) के दीन से बिल्कुल निकल गया और मुरतद हो गया ? क्या ऐसा नही है कि बाज़ लोगों ने क़सम ख़ाई कि जब तक ज़िन्दा है अबू फ़सील की बैअत नही करेगें ? (क्या सक़ीफ़ा में अंसार ने अबू बक्र पर ऐतेराज नही किया जिसकी बेना पर क़ुरैश ग़ज़बनाक हो गये यहाँ तक कि उनके दरमियान झगड़ा हो गया और एक दूसरे को गालियाँ देने और नाज़ेबा अल्फ़ाज़ कहने लगे ?

(तारिख़े याक़ूबी जिल्द 2 पेज 103)

(तारिख़े याक़ूबी जिल्द 3 पेज 254)

(तारिख़े याक़ूबी जिल्द 2 पेज 128)

कभी भी अंसार का यह नही था कि अली (अ) को ख़िलाफ़त से दूर रखा जाये , क्योकि उनमें से अकसर लोग यह करते थे: हम अली के अलावा किसी से बैअत नही करेंगें।

अगर अली (अ) ख़िलाफ़त पर पहुत जाते तो किसी भी सूरत में अरब के क़बीले आपके ख़िलाफ़ कोई सरकशी नही कर सकते थे , वह ख़ुद अपने दरमियान अली (अ) से बेहतर ख़िलाफ़ते रसूल (स) का मुसतहिक़ नही मानते थे।

जनाब आलूसी साहब इस वाक़ेया की तावील में कि क्यों रसूले अकरम (स) ने सूर ए बराअत की तबलीग़ को अबू बक्र से लेकर हज़रत अली बिन अबी तालिब (अ) का इंख़ेताब किया ? और आँ हज़रत (स) ने फ़रमाया: इस सूरह की तबलीग़ मेरे या मुझ जैसे शख़्स के अलावा कोई नही कर सकता। कहते हैं: क्योकि अरब का मानना था कि कोई इलाही अहद व मीसाक़ या उसके नक़्ज़ का मुतवल्ली नही हो सकता मगर ख़ुद पैग़म्बरे अकरम (स) या जो उनके क़रीबी हो ताकि लोगों पर हुज्जत तमाम हो जाये।

जनाबे आलूसी की गुफ़तुगू से अच्छी तरह मालूम हो जाता है कि मुसलमान रसूले अकरम (स) के नुमाइंदे और ख़लीफ़ा को अच्छी तरह क़बूल कर लेते लेकिन क्या करें कि बाज़ लोगों ने अपनी मख़्सूस चालों और चालाकियों से लोगों की अक़्लों पर पर्दा डाल दिया और उनको मुनहरिफ़ कर दिया।

क़ारिये मोहतरम , हक़ यह है कि अरब या क़ुरैश जिससे राज़ी नही थे और उसकी सर परस्ती को कबूल नही करना चाहते थे वह अली (अ) नही थे बल्कि वही मुहाजेरीन के चंद लोग थे कि जिनकी हक़ीक़त सबको मालूम थी , लिहाज़ा अपने अहदाफ़ व मक़ासिद तक पहुचने के लिये हर तरीक़ ए कार को अपनाया यहाँ तक कि ताक़त व तलवार का भी सहारा लिया गया।

इब्ने अबिल हदीद कहते हैं: अगर उमर के ताज़याने और शल्लाक़े नही न होतीं तो अबू बक्र की ख़िलाफ़त क़ायम न होती।

(तारिख़े तबरी जिल्द 3 पेज 202, अल कामिल जिल्द 2 पेज 325)

(रुहुल मआनी जिल्द 10 पेज 45)

(शरहे इब्ने अबिल हदीद ख़ुतब ए सिव्वुम)

उन्होने हक़ व हक़ीक़त और हज़रत अमीरिल मोमिनीन (अ) के हक़्क़े विलायत और इमामत की तरफ़ दावत देने के बजाए लोगों को दूर किया और उनकी अक़्लों को मुसख़्ख़र कर लिया , लोगों को धोखा दिया और ख़िलाफ़त को अपने नाम कर लिया। मख़्सूसन हज़रत उमर ने अबू बक्र की ख़िलाफ़त के लिये जो कारनामें अंजाम दिये हैं अगर उनके आधे भी हज़रत अली (अ) की ख़िलाफ़त को साबित करने के लिये अँजाम दिये होते तो तौबत यहाँ तक नही पहुचती। क्या अबू सुफ़यान , तलहा व ज़ुबैर उस ज़माने में हज़रत अली (अ) के मुदाफ़ेअ और आपके तरफ़दार नही थे , क्या अबू सुफ़यान सरदारे क़ुरैश ने रसूले अकरम (स) की वफ़ात के बाद हज़रत अली (अ) की बैअत करने का मशविरा नही दिया। क्या मुहाजेरीन व अंसार के एक गिरोह ने अबू बक्र की मुख़ालेफ़त करते हुए हज़रत अली (अ) के बैतुश शरफ़ में पनाह नही ली थी , यहाँ तक कि उनको खौफ़ ज़दा करके बैअत के लिये ले जाया गया , क्या ज़ुबैर ने तलवार नही निकाली और क्या यह नही कहा कि मैं अपनी तलवार नियाम में नही रखूँगा जब तक अली (अ) की बैअत न हो जाये।

(अल अक़दुल फ़रीद जिल्द 4 पेज 85)

उन लोगों ने मुख़्तलिफ़ बहानों से हज़रत अली (अ) का हक़ ग़स्ब कर लिया क्यो कि यह लोग सिर्फ़ अपनी मनमानी हुकूमत चाहते थे , उन्हे इस्लाम और दीगर लोगों की फ़िक्र नही थी लेकिन उन्होने और साज़िशों के ज़रिये लोगों की अक़्लों को मुसख़्ख़र कर लिया।

ख़ुज़री कहते हैं: इस बात में कोई शक नही है कि अगर ख़लीफ़ ए अव्वल अहले बैते नबूवत में से होता तो यक़ीनन तौर पर लोग ज़्यादा मायल होते और भरपूर रिज़ायत के साथ उसकी बैअत करते , जैसा कि लोगों ने अपनी मर्ज़ी व रग़बत के साथ पैग़म्बरे अकरम (स) की बैअत की थी और उनके इर्द गिर्द जमा हो गये थे क्योकि लोगों के दरमियान दीनी पहलू बहुत ज़्यादा असर व रुसूख़ रखते थे। इसी वजह से दूसरी हिजरी के शुरु में अहले बैते पैग़म्बर (स) के उनवान से लोगों को अपनी तरफ़ दावत दी जाती थी और वह उसमें कामयाब भी हुए हैं।

(तारिख़ुल उममिल इस्लामिया पेज 497)

कम उम्र होना

उमर बिन ख़त्ताब , इब्ने अब्बास के ऐतेराज़ पर कहते हैं , जब उन्होने यह ऐतेराज़ किया कि क्यो तुम लोगों ने अली (अ) का हक़ ले लिया है ? तो हज़रत उमर कहते हैं: मैं गुमान नही करता कि अली (अ) को ख़िलाफ़त से दूर रखने में इस इल्लत के अलावा कोई और वजह हो कि क़ौम उनको कम उम्र और छोटा शुमार करती थी।

इब्ने अब्बास ने हज़रत उमर के जवाब में कहा: चूँकि ख़ुदावंदे आलम ने उनको मुनतख़ब किया है लिहाज़ा अली (अ) को छोटा शुमार नही किया है।

(शरहे इब्ने अबिल हदीद जिल्द 6 पेज 45)

क्या मक़ामे फ़ज़ीलत उम्र और सिन् व साल से होता है ? क्या ऐसा नही है कि ओसामा बिन ज़ैद एक 19, 20 साल के जवान थे , क्यो पैग़म्बरे अकरम (स) ने अपने लश्कर की अमारत के लिये इतना इसरार किया यहाँ तक कि उमर और अबू बक्र वग़ैरह की तरफ़ से बहुत इसरार हुआ कि वह (ओसामा बिन जै़द) कमसिन हैं , हमारे दरमियान जंग में माहिर और तजरूबाकार लोग मौजूद हैं , फिर आपने उनको लश्कर की सरदारी के लिये क्यो मुनतख़ब फ़रमाया ? आँ हज़रत (स) ने उनकी बातों पर तवज्जो न दी और फ़रमाया: अगर आज तुम लोग उनकी अमारत व सरदारी में शक व शुब्हा करते तो पहले भी उनके बाप की सरदारी में भी शक व शुब्हा करते थे। पैग़म्बरे अकरम (स) के इस तरीक़ ए कार से यह मालूम होता है कि ओहदा व मक़ाम , सलाहियत की बेना पर होता है न कि सिन व साल के बल बूते पर।

ख़ुदा ने नही चाहा

बाज़ लोगों ने अपनी ग़लत कारकरदगी की तसहीह के लिये मसअल ए जब्र का सहारा लेते हुए यह कहा: अगर ऐसा हुआ तो उसकी वजह यह थी कि ख़ुदा ने नही चाहा कि अली (अ) को ख़िलाफ़त मिले , अगरचे रसूले ख़ुदा (स) ने इस सिलसिले में काफ़ी कोशिश की और जब ख़ुदा वंदे आलम और रसूले ख़ुदा के इरादे में तआरुज़ और टकराओ तो ख़ुदा वंदे आलम का इरादा मुक़द्दम है।

(शरहे इब्ने अबिल हदीद जिल्द 12 पेज 78)

अव्वल. यह तावील , दर हक़ीक़त मसअल ए जब्र का बाब खोलना है कि अगर यह दरवाज़ा खुल जाये कि तो फिर यह मसअला गुनाहाने कबीरा तक भी पहुच जाता है , जिसके नतीजे में तमाम उक़लाई , अक़्ली और मंक़ूला बुनियादें दरहम व बरहम हो जाती हैं , ख़ुदा वंदे आलम हर इंसान से अपने इख़्तियार से कोई अमल चाहता है न कि जब्र कि बेना पर।

दूसरे. क्या विलायते अबी बिन अबी तालिब (अ) की दरख़्वास्त हज़रत रसूले अकरम (स) की ज़ात से मख़्सूस है , जिसका ख़ुदा वंदे आलम की मर्ज़ी से टकराओ हो जाये ? क्या ख़ुदा वंदे आलम ने क़ुरआने मजीद की बहुत सी आयात जैसे आय ए विलायत में हज़रत अमीरुल मोमिनीन (अ) की विलायत के बारे में गुफ़तुगू नही की है ?

तीसरे. क्या हज़रते रसूले अकरम (स) ख़ुदा वंदे की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ कोई इरादा कर सकते हैं ? क्या क़ुरआने मजीद में इरशाद नही हुआ है

: قُلْ إِن كُنتُمْ تُحِبُّونَ اللَّـهَ فَاتَّبِعُونِي يُحْبِبْكُمُ اللَّـهُ وَيَغْفِرْ لَكُمْ ذُنُوبَكُمْ وَاللَّـهُ غَفُورٌ رَّحِيمٌ

(सूर ए आले इमरान आयत 31)

ऐ पैग़म्बर , आप कह दीजिये कि अगर तुम अल्लाह से मुहब्बत करते हो तो मेरी पैरवी करो , ख़ुदा भी तुम से मुहब्बत करेगा।

नीज़ एक दूसरी जगह इरशाद होता है:

مَّن يُطِعِ الرَّسُولَ فَقَدْ أَطَاعَ اللَّـهَ وَمَن تَوَلَّى فَمَا أَرْسَلْنَاكَ عَلَيْهِمْ حَفِيظًا

(सूर ए निसा आयत 80)

जो शख्स रसूल की इताअत करेगा बेशक उसने अल्लाह की इताअत की।

नतीजा: पहली तावील में रसूले अकरम (स) की वफ़ात के बाद असहाब का हज़रत अमीरुल मोमिनीन (अ) से ऐराज़ और रूगरदानी के बारे में हमने कहा कि असहाब के दरमियान दो रविशे फिक़्र और दो नज़रिये पाये जाते थे , जिन में से बाज़ ख़ुद को शरीयत के मुक़ाबिल साहिबे नज़र जानते थे और वह शरीयत के मुक़ाबिल मसहलत अंदेशी और इज्तेहाद किया करते थे। उन लोगों ने हज़रत अली (अ) की इमामत व ख़िलाफ़त के दलायल के साथ भी ऐसा ही कुछ किया और मुख़्तलिफ़ बहानों से उसकी तसहीह करना चाही।

दूसरी तरफ़ असहाब के एक दूसरे गिरोह पर यह बात ज़ाहिर न हो सकी , क्योकि वह इस नज़रिये के हामिल लोगों को भी हक़ीक़ी असहाब गरदानते थे जो लोग रसूले अकरम (स) के पास बैठते हों , इस दूसरे गिरोह को यह यक़ीन नही था कि इस गिरोह के लोग इतने ज़्यादा मक्कार हैं और हक़ व हक़ीक़त को पाँव तले रौंद देते हैं।

एक और गिरोह जो हज़रत अली (अ) की ताबीर के मुताबिक़ हुमुज रेआअ.. था जो हर हवा के झोकें में उड़ने लगता था , मख़्सूसन जो लोग पैग़म्बरे अकरम (स) की वफ़ात से मुसीबत ज़दा और बहुत ग़म ज़दा थे यहाँ तक कि उनमें सोचने समझने की सलाहियत भी बाक़ी नही थी लिहाज़ा मकतबे ख़ुलाफ़ो के सरदारों ने उस वक़्त को बेहतरीन ग़नीमत शुमार किया और अपने नक़्शों को अमली जामा पहनाने की कोशिश की और बहुत तेज़ी के साथ सक़ीफ़ा में गये और मसअल ए ख़िलाफ़त को अपने हक़ में तमाम कर लिया।

दूसरा सबब: दुश्मनी व कीना

इमाम अली (अ) ने उन्ही ताज़ा मुसलमानों के काफ़िर आबा व अजदाद को मुख़्तलिफ़ जंगों में क़त्ल किया था लिहाज़ा उनके दिल में आपकी दुश्मनी भरी हुई थी।

अली बिन हसन बिन फ़ज़्ज़ाल ने अपने पिदरे बुज़ुर्गा वार से रिवायत की है: मैंने इमाम अबुल हसन अली बिन मूसर रिज़ा (अ) से हज़रत अमीरुल मोमिनीन (अ) के बारे में सवाल किया कि लोगों ने किस वजह की बेना पर आप से मुँह मोड़ा और दूसरों की तरफ़ मायल हो गये , जबकि हज़रत अली (अ) के फ़ज़ायल व मनाक़िब और रसूले अकरम (स) के नजदीक आपकी बहुत ज़्यादा अज़मत थी ? उस मौक़े पर इमाम रेज़ा (अ) ने फ़रमाया: इसकी वजह यह है कि इमाम अली (अ) ने उनके आबा व अजदाद , भाईयों , चचा , मामू और दूसरे उन रिश्तेदारों में से बहुत से लोगों को क़त्ल किया था जो दुश्मने ख़ुदा व रसूल थे , इस वजह से उन लोगों के दिलों में आपकी दुश्मनी और किनह भरा हुआ था , लिहाज़ा वह नही चाहते थे कि अली (अ) उनके सर परस्त हों , लेकिन हज़रत अली (अ) के अलावा दूसरे लोगों की दुश्मनी उनके दिलों में इतनी नही थी जितनी हज़रत अली (अ) की थी , क्योकि हज़रत अली (अ) की तरह किसी ने भी मुशरेकीन से जिहाद नही किया है , इसी वजह से इमाम अली (अ) से लोगों ने मुँह मोड़ लिया और दूसरों की तरफ़ चले गये।

अब्दुल्लाह बिन उमर ने हज़रत अली (अ) की ख़िदमत में अर्ज़ किया: आप को क़ुरैश किस तरह दोस्त रखें जबकि आपने जंगे बद्र में उनके सत्तर बुज़ुर्गों को कत्ल किया है।

हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ) और इब्ने अब्बास से सवाल हुआ: क्यो क़ुरैश , हज़रत अली (अ) से बुग़्ज़ रखते थे ? इमाम (अ) ने फ़रमाया: क्योकि उनमें से एक गिरोंह को वासिले जहन्नम किया और उनके एक गिरोह को ज़लाल व ख़ार किया।

अबू हफ़्स कहते हैं: हरीज़ बिन उस्मान , हज़रत अली (अ) पर शदीद हमला किया करता था और मिम्बर पर जाकर आपको गालियाँ देता था और वह हमेशा कहता था: मैं इस वजह से उनको दोस्त नही रखता कि उन्होने मेरे आबा व अजदाद को क़त्ल किया है।

(ऐललुश शराये जिल्द 1 पेज 146 हदीस 3, उयूने अख़बारे रिज़ा जिल्द 2 पेज 81 हदीस 15)

(अल मनाक़िब जिल्द 3 पेज 220)

(बिहारुल अनवार जिल्द 29 पेज 482, तारिख़े दमिश्क़ जिल्द 42 पेज 291, मारेफ़तुस सहाबा अबी नईम पेज 22 मख़तूत , शरहे इब्ने अबिल हदीद जिल्द 2 पेज 23)

(मुख़तसरे तारिख़े दमिश्क़ जिल्द 6 पेज 276, तहज़ीबुल कमाल जिल्द 5 पेज 59, तहज़ीबुत तहज़ीब जिल्द 2 पेज 210, अल मजरूहीन इब्ने हब्बान जिल्द 1 पेज 268, अल अंसाब समआनी जिल्द 3 पेज 50)

लिहाज़ा हम तारिख में देखते हैं कि यज़ीद बिन मुआविया ने हज़रत इमाम हुसैन बिन अली बिन अबी तालिब (अ) को क़त्ल करने के बाद आपके सरे मुबारक से ख़िताब किया और इब्ने ज़बअरी के इन अशआर को पढ़ा जिनमें बद्र के मक़तूलीन के बदले की तरफ़ इशारा किया है।

शेर

(अल बिदाया वन निहाया जिल्द 8 पेज 142, तज़किरतुल ख़वास पेज 235, शरहे अबिल हदीद जिल्द 3 पेज 283)

तर्जुम ए अशआर:

ऐ काश मेरे क़बीले के वह आबा व अजदाद ज़िन्दा होते जो जंगे बद्र में क़त्ल हो गये तो वह देखते कि नैज़े लगने की वजह से क़बील ए ख़ज़रज किस तरह से गिरया व ज़ारी कर रहा था , यह देख कर वह ख़ुशी व मुसर्रत में यह नारा लगाते: ऐ यज़ीद , तेरे हाथ शल न हों। कि तूने अपने बुज़ुर्गों को क़त्ल कर दिया और यह बद्र का बदला था , बनी हाशिम हुकूमत के साथ खेले हैं क्योकि न कोई आसमान से ख़बर आई है और न वहयी नाज़िल हुई है , मैं ख़दफ़ की औलाद से नही हूँ , अगर आले अहमद की दुश्मनी का बदला उसकी औलाद से न ले लूँ।

तीसरा सबब: इमाम अली (अ) की अदालत

हज़रत अली (अ) तक़वा और इलाही जिहात के बग़ैर किसी को दूसरे पर मुक़द्दम नही किया करते थे। वह सभी को एक नज़र से देखते थे। इसी वजह से आपकी ख़िलाफ़त के ख्वाहा सिर्फ़ कुछ ही लोग थे। वह लोग चाहते थे कि ख़िलाफ़त के लिये कोई ऐसा शख़्स मुअय्यन हो जो उनके दरमियान फ़र्क़ का क़ायल हो और उनको मुसलमानों के बैतुल माल से ज़्यादा फायदा पहुचाये।

इब्ने अबिल हदीद लिखते हैं: अमीरिल मोमिनीन (अ) से अरब के मुँह मोड़ने की सबसे बड़ी अहम वजह माली मसला था। क्योकि अली (अ) ऐसे शख़्स न थे जो बिला वजह किसी को दूसरों फ़ज़ीलत देंते और अरब को अजम पर तरजीह देते। जैसा कि दीगर बादशाहों का रवैय्या होता है। आप कभी किसी को इजाज़त नही देते थे कि किसी ख़ास वजह से आप की तरफ़ मायल हो।

(शरहे अबिल हदीद जिल्द 2 पेज 197)

इब्ने अबिल हदीद , हारून बिन सअद से रिवायत करते हैं कि अब्दुल्लाह बिन जाफ़र बिन अबी तालिब ने हजरत अली (अ) से अर्ज़ किया: या अमीरल मोमिनीन , मैं आप से मदद चाहता हूँ , ख़ुदा की कसम , आज खाने पीने के लिये कुछ भी नही है मगर यह कि अपनी सवारी को बेच डालूँ और उसकी क़ीमत से अपनी ज़िन्दगी के इख़राजात पूरे करूँ।

इमाम (अ) ने फ़रमाया: नही ख़ुदा की क़सम , मैं तुम्हारे लिये कोई चीज़ नही पाता हूँ मगर यह कि तुम अपने चचा को चोरी करने का हुक्म दो जिसमें से वह तुम्हे कुछ दे सके।

हमू कहते हैं: हज़रत अली (अ) से रू गरदानी करने वालों में से अनस बिन मालिक भी हैं , जिसने हज़रत अली (अ) के फ़ज़ायल को छुपाया है और दुनिया की मुहब्बत में आपके दुश्मनों की मदद की।

(शऱहे अबिल हदीद जिल्द 2 पेज 200)

(शरहे अबिल हदीद जिल्द 4 पेज 174)

चौथा सबब: बनी हाशिम से दुश्मनी

तारिख़ इस बात की गवाही देती है कि क़ुरैश , हज़रत रसूले अकरम (स) के ज़माने ही से बनी हाशिम से ख़ास दुश्मनी रखते थे। यहाँ तक कि जब तक रसूले अकरम (स) ज़िन्दा रहे , हर तरह के आज़ार व अज़ीयत से बाज़ नही आये। क्योकि जब उन्होने ज़हूरे इस्लाम और पैग़म्बरे इस्लाम (स) के नये दीन की दावत को देखा कि हमें उनके दीन की वजह से बहुत ज़्यादा नुक़सान पहुचा है , मख़सूसन यह कि उस दीन का असली मक़सद बुत परस्ती और उनके ऐतेक़ादात का ख़ातमा था। चुँनाचे जब उन्होने यह देख लिया कि मुहम्मद (स) की दीन रोज़ ब रोज़ लोगों के दिलों में नाफ़िज़ होता जा रहा है , और लोग मुसलसल उनके दीन में दाख़िल होते जा रहे हैं तो उनके मुक़ाबले में एक अज़ीम मोरचा तैयार हो रहा है लिहाज़ा उनके दिलों में आँ हज़रत (स) की दुश्मनी भर गई और आँ हज़रत (स) से मुक़ाबला करने की कोशिश करने लगे और शिद्दत के साथ आपके मुक़ाबले के लिये खड़े हो गये।

अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब एक रोज़ ग़ुस्से के आलम में रसूले अकरम (स) की ख़िदमत में आये तो आँ हज़रत (स) ने उनसे सवाल किया: किस वजह से आप ग़ज़बनाक हैं ? उन्होने अर्ज़ किया या रसूलल्लाह , हमने क़ुरैश के साथ क्या किया है कि जब वह आपस में एक दूसरे से मिलते हैं तो बहुत ही गर्म जोशी से गले मिलते हैं लेकिन जब हम से मिलते हैं तो उनका अँदाज़ बदला बदला सा होता है ?

रावी कहता है उस मौक़े पर रसूले अकरम (स) इस क़दर ग़ज़बनाक हुए कि आप का चेहरा सुर्ख हो गया और फ़रमाया: क़सम उसकी जिसके क़ब्ज़ ए क़ुदरत में मेंरी जान है , किसी के दिल में उस वक़्त तक ईमान दाख़िल नही हो सकता जब तक वह ख़ुदा व रसूल की वजह से तुम को न रखे।

(यनाबीउल मवद्दत जिल्द 1 पेज 53)

हज़रत रसूले अकरम (स) चूँकि अपने इलाही मक़सद को आगे बढ़ाने के लिये उनसे मुक़ाबला करना पर मजबूर थे लिहाजा इस सिलसिले में हज़रत अली (अ) से बहुत मदद मिली , उनके क़ौम व क़बीले के बहुत से लोग जंगों में क़त्ल हुए थे जिसकी वजह से रसूले अकरम (स) की वफ़ात के बाद , उन्होने हजरत अली (अ) से अपनी दुश्मनी निकाली और आपसे उनका बदला लिया और ख़ुदा वंदे आलम के मुअय्यन किये हुए हक़ तक पहुचने में मानेअ हो गये।

उमर बिन ख़त्ताब , इब्ने अब्बास से मुनाज़ेरे के आख़िर में कहते हैं: ख़ुदा की क़मस , बेशक तुम्हारा चचाज़ाद ख़िलाफ़त के मसले में सबसे ज़्यादा हक़दार है लेकिन क़ुरैश उनको बर्दाश्त नही कर सकते।

अनस बिन मालिक कहते हैं: मैं रसूले ख़ुदा (स) और अली बिन अबी तालिब (अ) के साथ था कि हमारा गुज़र एक बाग़ की तरफ़ से हुआ , अली (अ) ने अर्ज़ किया या रसूलल्लाह , क्या आपने मुलाहिज़ा फ़रमाया कि कितना हसीन बाग़ है ? पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया: जन्नत में आपका बाग़ इससे कहीं ज़्यादा हसीन है। अनस कहते हैं हम सात बाग़ों से गुज़रे और यही सवाल व जवाब तकरार हुए , उस मौक़े पर रसूले ख़ुदा रुक गये और हम भी खड़े हो गये , उस मौक़े पर आँ हज़रत (स) ने अपने सर को अली (अ) के शाने पर रखा और गिरया करना शुरु कर दिया , अली (अ) ने अर्ज़ किया या रसूलल्लाह , आप के गिरया फ़रमाने की क्या वजह है ? तो आँ हज़रत (स) ने फ़रमाया: इस क़ौम के दिलों में आपकी दुश्मनी भरी हुई है जिसको यह लोग अभी ज़ाहिर नही करते यहाँ तक मैं इस दुनिया से चला जाऊ...(उस वक़्त उनकी दुश्मनी आपके सामने ज़ाहिर हो जायेगी।

पैग़म्बरे अकरम (स) ने एक हदीस के ज़िम्न मे हज़रत अली (अ) से ख़िताब करते हुए फ़रमाया: बेशक मेरे बाद अन क़रीब यह उम्मत आपके साथ साज़िश करेगी।

नीज़ आँ हज़रत (स) ने हज़रत अली (अ) से ख़िताब करते हुए फ़रमाया: आगाह हो जाओ कि मेरे बाद अनक़रीब आपको मसायब का सामना होगा , अली (अ) ने अर्ज़ किया: क्या मेरा दीन सालिम रहेगा ? तो पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया: हाँ आपका दीन सालिम रहेगा।

हज़रत उस्मान , एक रोज़ अली (अ) से ख़िताब करते हुए कहते हैं: मैं क्या करूँ कि क़ुरैश तुम को दोस्त नही रखते , क्योकि तुम ने जंगे बद्र में उनके सत्तर लोगों को क़त्ल किया हैं।

(तारिख़े याक़ूबी जिल्द 2 पेज 137, कामिल बिन असीर जिल्द 3 पेज 24)

(शरहे इब्ने अबिल हदीद जिल्द 4 पेज 107)

(मुसतदरके हाकिम जिल्द 3 पेज 150 हदीस 4676)

(मुसतदरके हाकिम जिल्द 3 पेज 151 हदीस 4677)

(शरहे इब्ने अबिल हदीद जिल्द 9 पेज 23)

हज़रत अली (अ) ख़ुदा वंदे आलम की बारगाह में अर्ज़ करते हैं: तेरी बारगाह में क़ुरैश की शिकायत करता हूँ , उन्होने तेरे रसूल के साथ बहुत शरारतें और धोखे बाज़ियाँ कीं , लेकिन उनके मुक़ाबले की ताब न ला सके और तू उनके दरमियान हायल हो गया लेकिन पैग़म्बरे अकरम (स) के बाद यह लोग मेरे पास जमा हो गये और अपने पलीद इरादों को मुझ पर जारी करने लगे , पालने वाले , हसन व हुसैन की हिफ़ाज़त फ़रमा और जब तक मैं ज़िन्दा हूँ , उनके क़ुरैश के शर से महफ़ूज़ रख , और जब तू मेरी रुह कब्ज़ कर लेगा उसके बाद उनकी हिफ़ाज़त करना और तू हर चीज़ पर शाहिद है।

एक शख़्स ने हज़रत अली (अ) की ख़िदमत में अर्ज़ किया आप मुझे बतायें कि अगर पैग़म्बरे अकरम (स) को कोई बालिग़ और रशीद बेटा होता तो क्या अरब उसकी ख़िलाफत को क़बूल कर लेते ? इमाम (अ) ने फ़रमाया: हरगिज़ नही , बल्कि अगर जिन तदबीरों से मैने काम लिया है वह उन तदबीरों से काम न लेता तो उसको क़त्ल कर डालते , अरब को हज़रत मुहम्मद मुसतफ़ा सल्ललाहो अलैहे वा आलिही वसल्लम के काम पसंद नही थे और जो कुछ ख़ुदा वंदे आलम ने अपने फज़्ल व करम से आँ हज़रत (स) को अता किया था उस पर हसद किया करते थे...।

(शरहे इब्ने अबिल हदीद जिल्द 20 पेज 298 रक़्म 413)

(शरहे इब्ने अबिल हदीद जिल्द 20 पेज 298 रक़्म 414)

हदीसे ग़दीर के इंकार के नतायज

हज़रत रसूले अकरम (स) की वफ़ात के बाद अकसर मुसलमानों ने हदीसे ग़दीर से मुँह मोड़ लिया और उसका इंकार कर दिया या उसको भूला डाला जबकि क़ुरआने मजीद उनकी पैरवी की दावत करता है , जिस के नतीजे में बहुत से मसायब में मुबतला हो गये।

ख़ुदा वंदे आलम क़ुरआने मजीद में इरशाद फ़रमाता है:

1. يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا اسْتَجِيبُوا لِلَّـهِ وَلِلرَّسُولِ إِذَا دَعَاكُمْ لِمَا يُحْيِيكُمْ وَاعْلَمُوا أَنَّ اللَّـهَ يَحُولُ بَيْنَ الْمَرْءِ وَقَلْبِهِ وَأَنَّهُ إِلَيْهِ تُحْشَرُونَ

(सूर ए अनफ़ाल आयत 24)

ऐ ईमान वालों , अल्लाह और रसूल की आवाज़ पर लब्बैक कहो जब वह तुम्हे इस अम्र की तरफ़ दावत दें जिसमें तुम्हारी ज़िन्दगी (की भलाई) है...।

2. وَمَا كَانَ لِمُؤْمِنٍ وَلَا مُؤْمِنَةٍ إِذَا قَضَى اللَّـهُ وَرَسُولُهُ أَمْرًا أَن يَكُونَ لَهُمُ الْخِيَرَةُ مِنْ أَمْرِهِمْ وَمَن يَعْصِ اللَّـهَ وَرَسُولَهُ فَقَدْ ضَلَّ ضَلَالًا مُّبِينًا

(सूर ए अहज़ाब आयत 36)

और किसी मोमिन मर्द या औरत को यह इख़्तियार नही है कि जब ख़ुदा व रसूल किसी अम्र के बारे में फ़ैसला कर दें तो अपने अम्र के बारे में साहिबे इख़्तियार बन जायें और जो ख़ुदा व रसूल की नाफ़रमानी करेगा वह बड़ी खुली हुई गुमराही में मुबतला होगा।

3. وَرَبُّكَ يَخْلُقُ مَا يَشَاءُ وَيَخْتَارُ مَا كَانَ لَهُمُ الْخِيَرَةُ سُبْحَانَ اللَّـهِ وَتَعَالَى عَمَّا يُشْرِكُونَ

(सूर ए क़सस आयत 68)

और तुम्हारा परवर दिगार जिसे चाहता है पैदा करता है और जिसे चाहता है मुन्तख़ब करता है।

अहले सुन्नत की जबान से हदीस के इंकार के (बुरे) नतायज का इक़रार

यह बात ज़ाहिर है कि इमामे मासूम के बारे में इलाही शरई नस्स (व हुक्म) का इंकार करने और इस काम को उम्मत के सुपुर्द करने के नतायज ख़तरनाक होगें कि जो अहले सुन्नत के रौशन फिक्र हज़रात पर मख़्फ़ी नही हैं। अब हम यहाँ चंद हज़रात की तहरीर पेश करते हैं:

1. डाक्टर अहमद महमूद सुबही

मौसूफ़ कहते हैं:

सियासत का उसूले हुकूमत के मसले या वाज़ेह अल्फ़ाज़ में निज़ामे बैअत ने अहले बैत के तर्ज़े फ़िक्र में बहुत सी मुश्किलात पैदा कीं हैं जैसे ख़ुलाफ़ा ए सलासा में से हर एक ने दूसरे के तरीक़े के बर ख़िलाफ़ अमल किया है। इस सूरत में उन हज़रात की मुख़्तलिफ़ कार करदगी से इस्लाम के नज़रिये को किस तरह से समझा जा सकता है , ताकि तमाम मुसलमानों का उस पर इत्तेफ़ाक़ हो जाये।

मौसूफ़ यह भी कहते हैं: जब मुआविया ने यह सोचा कि अपने बाद ख़िलाफ़त अपने बेटे यज़ीद के हवाले कर दे तो उसने इस्लामी निज़ाम में एक नई बिदअत पैदा कर दी और इस सिलसिले में एक ऐसी तक़लीद ईजाद की जिसने सुन्नते सलफ़ को बदस डाला और ख़िलाफ़त को फ़ारसी और बैज़नती बादशाहत के मुशाबेह कर दिया और ख़िलाफ़त को (जैसा कि जाहिज़ ने भी कहा है) क़ैसर व कसरा की बादशाहत में बदल डाला।

नीज़ मौसूफ़ रक़्मतराज़ है: जो कुछ भी इस्लाम के नाम पर ज़ालिम व सितमगर ख़ुलाफ़ा के ज़माने में नागवार वाक़ेयात पेश आये हैं , दीने ख़ुदा उससे बरी है और उनका गुनाह रोज़े क़यामत तक उन्हे लोगों की गर्दन पर है जिन्होने ऐसी हुकूमत की बुनियाद डाली है।

(नज़रियतुल इमामह लदश शिया असना अशरी पेज 501)

(अन नज़मुल इस्लामी नशअतुहा व ततवुरेहा पेज 267)

(अन नज़मुल इस्लामी नशअतुहा व ततवुरेहा पेज 279)

2. जाहिज़

मौसूफ़ हाँलाकि उस्मान के तरफ़दारों में से हैं लेकिन फिर भी मुआविया की हूकूमत के तरीक़ ए कार पर ऐतेराज़ करते हुए कहते हैं: मुआविया ने अपने हुकूमत को ज़ुल्म व सितम के आगे बढ़ाया और शूरा के बाक़ी अरकान नीज़ अंसार व मुहाजेरीन की जमाअत पर ज़ुल्म व सितम किया हाँलाकि उस साल को साले जमाअत के नाम दिया था मगर वह जमाअत का साल नही बल्कि तफ़रेक़ा और क़हर व ग़लबे का साल था। जिस साल इमामत , बादशाही में बदल गई और ख़िलाफ़त शहन्शाही मंसब बन गया।

(रसायले जाहिज़ पेज 292, 297 रिसाला नंबर 11)

3. इब्ने क़तीबा

वह कहते है: जहमिय्या और मुशब्बिहा ने हज़रत अली (कर्रमल लाहो वजहहु) की ताख़ीर में ग़ुलू किया है और आपके हक़ को ज़ाया किया है और वह अपनी गुफ़तुगू में कट हुज्जती करते रहे , उन्होने अपने ज़ुल्म का इक़रार न किया और मज़लूमों के ख़ून को नाहक़ और ज़ुल्म व सितम की बिना पर बहाया.. और उन्होने अपनी जिहालत की वजह से आइम्मा को इमामत से ख़ारिज कर दिया और फ़ितना गर इमामों की सफ़ में क़रार दे दिया , उनकी ख़िलाफ़त पर लोगों के इख़्तिलाफ़ की वजह से ख़िलाफ़त का नाम नही दिया जिसकी बिना पर यज़ीद बिन मुआविया को लोगों के इजमा की वजह से ख़िलाफ़त का मुसतहिक़ समझ लिया...।

(अल इख़्तिलाफ़ फ़िद रद्दे अलल जहमिया वल मुशब्बिहा पेज 47 से 49)

4. मक़रेज़ी

मक़रेज़ी साहब लिखते हैं: ख़ुदा व रसूल ने सच फ़रमाया है कि रसूले अकरम (स) के बाद ऐसे ख़लीफ़ा आयेगें जो हिदायत और दीने हक़ के मुताबिक़ फ़ैसले नही करेंगें और हिदायत की सुन्नतों को बदल देगें...।

(अन निज़ाअ वत तख़ासुम जिल्द 12 पेज 315, 317)

5.इब्ने हज़्म ज़ाहिरी

मौसूफ़ कहते हैं: यज़ीद बिन मुआविया ने इस्लाम पर बुरे नतायज छोड़े हैं , उसने अहले मदीना , बुज़ुर्गाने क़ौम और बाक़ी असहाब को रोज़े हर्रा अपनी हुकूमत के आख़िरी वक़्त में क़त्ल करा दिया और (इमाम) हुसैन (अ)

और आपके अपनी बैत को अपनी हुकूमत के शुरु में क़त्ल कराया। और इब्ने ज़ुबैर को मस्जिदुल हराम में घेर लिया और ख़ान ए काबा और इस्लाम का अज़मत का ख़्याल तक न किया....।

मौसूफ़ किताब अल महल्ली में कहते हैं: बनी उमय्या के बादशाहों ने नमाज़ से तकबीर को ख़त्म कर दिया और नमाज़े ईदे क़ुरबाँ के ख़ुतबों को मुक़द्दम कर दिया यहाँ तक कि यह मसायल पूरी दुनिया में फैल गये लिहाज़ा यह कहना सही है कि रसूले अकरम (स) के अलावा किसी दूसरे का अमल हुज्जत नही है।

(जमहरतिल अंसाबिल अरब पेज 112)

(अल महल्ली जिल्द 1 पेज 55)

2. अबुस सना आलूसी

وَإِذْ قُلْنَا لَكَ إِنَّ رَبَّكَ أَحَاطَ بِالنَّاسِ وَمَا جَعَلْنَا الرُّؤْيَا الَّتِي أَرَيْنَاكَ إِلَّا فِتْنَةً لِّلنَّاسِ وَالشَّجَرَةَ الْمَلْعُونَةَ فِي الْقُرْآنِ وَنُخَوِّفُهُمْ فَمَا يَزِيدُهُمْ إِلَّا طُغْيَانًا كَبِيرًا

मौसूफ़ मज़कूरा आय ए शरीफ़ा की तफ़सीर में इब्ने जरीर से , वह सहल बिन साद से , वह इब्ने अबी हातम और इब्ने मरदुवा से , और अद दयायल में बैहक़ी व इब्ने असाकर से , वह सईद बिन मुसय्यब से , और रिवायते इब्ने अबी हातम याली बिन मर्रा से , और वह इब्ने उमर से पैग़म्बरे अकरम (स) के ख़्वाब के बारे में रिवायत करते हैं कि रसूले अकरम (स) ने ख़्वाब देखा कि बनी उमय्या मेरे मिम्बर पर बंदर की तरह चढ़ रहे हैं। आपको यह ख़्वाब ना गवार लगा और उसी मौक़े पर ख़ुदा वंदे आलम ने मज़कूरा आयत नाज़िल फ़रमाई..।

(सूर ए इसरा आयत 60)

तर्जुमा , जैसे आपने देखा है वह हमने इसलिये दिखाया है कि वह लोगों के दरमियान फ़ितना हैं और क़ुरआने मजीद में वह शजर ए मलऊना है और हम लोगों को डराते रहते हैं लेकिन उनकी सरकशी बढ़ती हा जा रही है।

(तफ़सीरे आलूसी मज़कूरा आयत के ज़ैल में)

3. डाक्टर ताहा हुसैन मिस्री

मौसूफ़ अपनी किताब मिरातुल इस्लाम में कहते हैं: ख़ुदा वंदे आलम ने क़ुरआने मजीद में मक्के की अज़मत बयान की है और मदीने को पैग़म्बरे अकरम (स) के ज़रिये मोहतरम क़रार दिया लेकिन बनी उमय्या ने मक्के और मदीने को मुबाह कर दिया। यज़ीद बिन मुआविया के जम़ाने में शुरु हुआ जिसने मदीने को तीन बार मुबाह और ताराज किया है। अब्दुल मलिक बिन मरवान ने भी मक्के को मुबाह करने की इजाज़त हुज्जाज बिन युसुफ़ को दी और क्या क्या ज़ुल्म व सितम वहाँ अंजाम न दिये ?। और यह सब इसलिये था कि शहरे मुक़द्दस (के रहने वाले) अबू सुफ़यान और बनी मरवान की औलाद के सामने झुके रहे , इब्ने ज़ियाद ने यज़ीद बिन मुआविया के हुक्म से (इमाम) हुसैन (अ) और आपके बेटों और भाईयों को क़त्ल किया और रसूलल्लाह (स) की बेटियों को असीर कर लिया... मुसलमानों का माल ख़ुलाफ़ा की ज़ाती मिल्कियत बन कर रह गया और जिस तरह चाहा उसको ख़र्च किया , न जिस तरह से ख़ुदा वंदे आलम चाहता था...।

नीज़ मौसूफ़ का बयान है: तुग़यान व सरकशी मशरिक़ व मग़रिब तक फैल गई , ज़ियाद उसकी औलाद ज़मीन पर फ़साद रहे थे ता कि बनी उमय्या की हुकूमत बरक़रार रह सके और बनी उमय्या ने उनके लिये उन फ़सादात को मुबाह कर दिया था और हुज्जाज ज़ियाद व इब्ने ज़ियाद के बाद इराक़ में वारिद हुआ जिसने इराक़ को शर व फ़साद और बुराईयों से भर दिया।

(मरअतुल इस्लाम पेज 268, 270)

(मरअतुल इस्लाम पेज 268, 272)

इसी तरह मौसूफ़ अपनी किताब अल फ़ितनतुल कुबरा में रक़्म तराज़ है: अली (अ) रसूले अकरम (स) के सबसे करीबी शख़्स थे , वह आँ हज़रत (स) के तरबीयत याफ़्ता और आपकी अमानतों को वापस करने में जानशीन थे वह पैग़म्बरे इस्लाम (स) के अक़्दे उख़ूवत की बिना पर आँ हज़रत (स) के भाई थे , वह दामादे पैग़म्बर और रसूले ख़ुदा (स) की ज़ुर्रियत के बाप थे , वह पैग़म्बरे अकरम (स) के अलमदार और आपके अहले बैत के दरमियान थे और हदीसे नबवी के मुताबिक़ रसूले अकरम (स) के नज़दीक आपका मर्तबा जनाबे मूसा के नज़दीक हारुन के मर्तबे की तरह था। अगर तमाम मुसलमान यही सब कुछ कहते औऱ उन्ही मतालिब की वजह से अली (अ) का इंतेख़ाब करते तो कभी भी हक़ से दूर न होते और मुनहरिफ़ न होते।

यह सब चीजें हज़रत अली (अ) की ख़िलाफ़त की निशानियाँ थीं , आपकी रसूले अकरम (स) से रिश्तेदारी , इस्लाम में सबक़त , मुसलमानो के दरमियान अज़मत , जिहाद और जंग में मसायब का बर्दाश्त करना और ऐसी सीरत जिसमें किसी तरह का कोई इंहेराफ़ और कजी नही थी। दीन व फ़क़ाहत में शिद्दत और किताब व सुन्नत का इल्म और राय में इसतेहकाम वग़ैरह वग़ैरह , तमाम सिफ़ात आपका रास्ता हमवार करने वाली थीं , बनी हाशिम को ख़िलाफ़त से बिल्कुल दूर रखा गया , क़ुरैश ने उनके साथ यह सुलूक किया क्योकि वह इस बात से ख़ौफ़ज़दा थे कि बनी हाशिम के पास एक जमाअत जमा हो जायेगी वह नही चाहते थे कि ख़िलाफ़त उनके क़बीले के अलावा किसी दूसरे कबीले में जाये।

नीज़ मौसूफ़ कहते हैं: "मुआविया के बारे में जो कुछ भी लोग कहें लेकिन वह अबू सुफ़यान का बेटा है जो जंगे ओहद व ख़ंदक़ में मुशरेकीन का सरदार था , वह हिन्दा का बेटा है जो हमज़ा के क़त्ल का बाइस बनी और उनके शिकम को चाक करके जीगर को निकाला , चुँनाचे पैग़म्बरे अकरम (स) के नज़दीक यह एक ऐसा हादेसा था जिसको देख कर गोया आपकी जान निकली जा रही हो....।"

(अल फ़ितनतुल कुबरा जिल्द 1 पेज 152)

(अल फ़ितनतुल कुबरा जिल्द 2 पेज 15)

4. मशहूर मुवर्रिख़ सैयद अमीर अली हिन्दी

मौसूफ़ कहते हैं: हुकूमते बनी उमय्या ने सिर्फ़ ख़िलाफ़त के उसूल और उसकी तालिमात ही को नही बदला बल्कि उनकी हुकूमत ने इस्लाम की बुनियादों को पलट कर रख दिया।

मौसूफ़ एक दूसरी जगह कहते हैं: जब शाम में मुआविया ने ख़िलाफ़त पर क़ब्ज़ा कर लिया तो उसकी हुकूमत गुज़िश्ता बुत परस्ती की तरफ़ पलट गई और उसने इस्लामी डेमोक्रेसी की जगह ले ली....।

एक और जगह मौसूफ़ तहरीर करते हैं: इस तरह मक्के की बुत परस्ती वापस लौट आई और उसने शाम में सर निकाला।

नीज़ मौसूफ़ कहते हैं: बनी उमय्या में उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ के अलावा सब बुत परस्त थे वह लोग अहकामें शरीयत की रिआयत न करने और अरकाने दीन को मुनहदिम करने पर फ़ख़र व मुबाहात किया करते थे , वही दीन जिसका इक़रार करते थे... उन्होने ख़िलाफ़त की कुर्सी को बहुत से जरायम से मुलव्विस किया और ख़ून के दरिया में ग़ोता दिया...।

(मुख़तसर तारिख़िल अरब वत तमद्दुनिल इस्लामी पेज 63)

(रुहुल इस्लाम पेज 296)

(रुहुल इस्लाम पेज 300)

(रुहुल इस्लाम पेज 301)

5. डाक्टर अहमद अमीन मिस्री

मौसूफ़ अपनी किताब ज़ुहल इस्लाम में तहरीर करते हैं: ख़िलाफ़त के सिलसिले में अहले सुन्नत का नज़रियी मुताआदिल तर , मुसतहकम तर और अक़्ल के नज़दीक तर है अगरचे उनसे इस सिलसिले में बाज़ पुर्स होना चाहिये कि उन्होने अपने नज़रिये को मुसतहकम और अच्छी तरह अमली नही किया है , उन्होने अपने आईम्मा की वाज़ेह तौर पर तंक़ीद नही की है और जब उन्होने ज़ुल्म किया तो उनके मुक़ाबले में खड़े नही हुए और जब उन्होने ज़ुल्म किया तो वह उनको राहे मुस्तक़ीम पर नही लाये और उन्होने ऐसे कवानीन नही बनाये जो ख़लीफ़ो को उम्मत पर ज़ुल्म करने से रोक सकें बल्कि उनके मुक़ाबले में सरे तसलीम ख़म किये रखा जो वाक़ेयन नागवार था , इसी वजह से उन्होने उम्मत पर बहुत ज़ुल्म किया है।

वह अपनी दूसरी किताब यौमुल इस्लाम में तहरीर करते हैं: रसूले इस्लाम (स) ने उस बीमारी में जिसमें आपने रेहलत फ़रमाई , यह इरादा किया कि अपने बाद के लिये मुसलमानों का वली ए अम्र मुअय्यन कर दें जैसा कि बुख़ारी और सही मुस्लिम में रिवायत है कि आँ हज़रत (स) ने फ़रमाया: लाओ तुम्हारे लिये एक ऐसा ख़त लिख दूँ जिससे मेरे बाद गुमराह न हों... लेकिन उन लोगों ने ख़िलाफ़त की मेहार को अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ अपने हाथों में ले लिया , इसी वजह से ख़िलाफत के सिलसिले में आज तक इख़्तिलाफ़ बाक़ी है। रसूले अकरम (स) के जम़ाने में इस्लाम मुसतहकम और मतीन था लेकिन जब आँ हज़रत (स) की रेहलत हुई तो ख़तरनाक जंगें शुरु हो गयीं।

नीज़ मौसूफ़ कहते हैं: इख़्तिलाफ़ का एक मिसदाक़ वह इख़्तिलाफ़ था जो रसूले अकरम (स) के बाद ख़िलाफ़त के सिलसिले में हुआ और यह चीज़ ख़ुद उन लोगों की कमज़ोरी की निशानी है क्योकि रसूले अकरम (स) ने दफ़्न होने से पहले ही इख़्तिलाफ़ शुरु कर दिये....।

मौसूफ़ अपनी एक किताब और किताब फजरे इस्लाम (स) में तहरीर करते हैं: जब बनी उमय्या ने ख़िलाफ़त को अपने हाथों में ले लिया तो फिर तअस्सुब ज़मान ए जाहिलियत की तरह अपनी पुरानी हालत पर पलट गया।

(ज़ुहल इस्लाम जिल्द 3 पेज 225)

(यौमुल इस्लाम पेज 41)

(यौमुल इस्लाम पेज 53)

(फ़जरुल इस्लाम पेज 79)

नीज़ मौसूफ़ कहते हैं: ख़लिफ़ ए दमिश्क़ (मुआविया) का कनीज़ों के गानों और लह व लअब को साज़ व सामान से भरे हुए थे। वह अलल ऐलान और मख़्फ़ी तौर पर गुनाह करता था और लोगों के दरमियान फ़हशा व मुन्कर को रायज करता था...।

नीज़ मौसूफ़ एक दूसरी तरह तहरीर करते हैं: अबू सुफ़यान ने अपने कुफ़्र आमेज़ अक़ीदे का इज़हार उस वक़्त किया कि जब उस्मान बिन अफ़्फ़ान हुकूमत पर पहुचे , चुँनाचे उसने कहा: तीम व अदी के बाद हुकूमत तुम तक पहुची है लिहाज़ा इसको गेंद की तरह एक दूसरे हाथ में देते रहो और उसके अरकान में बनी उमय्या को क़रार दो , क्योकि ख़िलाफ़त , मुल्क और हुकूमत है और मैं नही जानता था कि जन्नत व जहन्नम है भी या नही ? (और अगरचे उस्मान ने उनको दूर रखा लेकिन कुछ मुद्दत में उस काफ़िर घराने की रस्सी का जाल ख़िलाफ़त पर आ गिरा और जब उस घराने में हुकूमत आई तो उनके ज़हरीले आसार अकसर औक़ात ज़ाहिर होते रहे हैं।

नीज़ मौसूफ़ कहते हैं: मैं मुआविया को इस बात से बरी नही करूँगा कि उसने (इमाम) हसन (अ) को ज़हर दिया , क्योकि यह शख़्स हरगिज़ पक्का मुसलमान नही था बल्कि यूँ कहा जाये तो बेहतर है कि यह एक ऐसा जाहिल था जो अपने बेटे के लिये हर गुनाह और जुर्म अंजाम देने के लिये तैयार था। यह शख़्स फ़तहे मक्का के वक़्त आज़ाद हुआ था लेकिन उसने अपनी ज़िन्दगी में बड़े बड़े सहाबा जैसे हज्र बिन अदी और उनके साथियों को दर्दनाक तरीक़े से क़त्ल किया और लोगों से अपने बेटे यज़ीद की बैअत के लिये न जाने क्या क्या कारनामे अंजाम दिये , लिहाज़ा ख़िलाफ़त जाहिलियत की बादशाही में बदल गई , जिसको आले मुआविया एक के बाद दूसरे की तरफ़ मुन्तक़िल करते रहे।

(नशअतुल फ़िक्रिल फ़लसफ़ी फ़िल इस्लाम जिल्द 1 पेज 229)

(अन नज़ाअ वन तख़ासुम पेज 31)

(नशअतुल फ़िक्रिल फ़लसफ़ी फ़िल इस्लाम जिल्द 1 पेज 198)

(नशअतुल फ़िक्रिल फ़लसफ़ी फ़िल इस्लाम जिल्द 2 पेज 46)

11. अब्बास महमूद अक़्क़ाद

मौसूफ़ अपनी किताब मुआविया फ़िल मीज़ान में तहरीर करते हैं: ख़िलाफ़त के ज़माने के बाद बनी उमय्या की हुकूमत का क़ायम होना तारीख़े इस्लाम और तारिख़े बशरी का सबसे ख़तरनाक हादेसा था।

(मुआविया फ़िल मीज़ान जिल्द 3 पेज 542)

तबरी , सईद बिन सवीद से एक मदरक व सनद के साथ रिवायत करते हैं कि मुआविया ने लोगों से ख़िताब करते हुए कहा: मैंने तुम्हारे साथ इस वजह से जंग नही की है कि तुम रोज़ा रखो , नमाज़ पढ़ो , हज करो और ज़कात दो , क्योकि मैं जानता हूँ कि यह आमाल तो तुम अंजाम देते ही रहते हो , मैंने तुम से सिर्फ़ वजह से जंग की है कि मैं तुम्हारा अमीर हो जाऊँ।

12. डाक्टर महमूद ख़ालिदी , प्रोफ़ेसर यरमूक युनिवर्सिटी (जार्डन)

मौसूफ़ तहरीर करते हैं: रसूले अकरम (स) की वफ़ात के बाद निज़ामे ख़िलाफ़त एक नये अंदाज़ में ज़ाहिर हुआ... और उसमें बाबे इज्तेहाद खुल गया , ख़िलाफ़त के ऊपर आम लोगों के दरमियान बहस व जदल और इज्तेहाद का बाज़ार गर्म हो गया और इस सिलसिले में बहुत से नज़रियात पैदा हो गये। ख़िलाफ़त की शक्ल व सूरत और उसको इख़्तियार करने या जिस घर से ख़लीफ़ का इंतेख़ाब हो , उन तमाम चीज़ों के सिलसिले में मुख़्तलिफ़ राय और नज़रियात सामने आये और उस इख़्तिलाफ़ के नतीजे में ख़िलाफ़त की मुख़्तलिफ़ शक्लें सामने आयीं....।

क़ारिये मोहतरम , यह तमाम मुश्किलात और इख़्तिलाफ़ात नतीजा हैं अहले बैत और उनके सरे फ़ेहरिस्त हज़रत अली (अ) के मुतअल्लिक़ अहादिस के इंकार का।

(अल उसूलुल फ़िकरिया लिस सक़ाफ़तिल इस्लामिया जिल्द 3 पेज 16)

13. मुस्तफ़ा राफ़ेई , पेरिस युनिवर्सिटी में हुक़ूक़ के माहिर

मौसूफ़ बनी उमय्या के ज़माने के सिलसिले में कहते हैं: तुम्हारे ज़माने में एक इंक़ेलाब आया बल्कि तुमने ख़िलाफ़त को निज़ामे हुकूमत के उनवान से देखा। ऐसी हुकूमत जो अपने पहले जौहर और दीनी अमल के उनवान से दूर हो गई है। इस ज़माने में ख़लीफ़ा अपने लिये महल बनाता था और तकिया लगाकर ख़िदमत गुज़ार रखता था.... उसी ज़माने में मुआविया ने नई सुन्नतों का इज़ाफ़ा किया और उनको अमली जामा पहनाने के लिये हर हीला व मक्कारी से काम लिया ताकि आम मुसलमान उस निज़ाम का पैरवी करें।

(मुस्तफ़ा राफ़ेई , अल इस्लाम निज़ामे इँसानी पेज 30)

14. मुहम्मद रशीद रज़ा

मौसूफ़ अपनी तफ़सीर अलमनार में तहरीर करते हैं: किस तरह बनी उमय्या ने इस इस्लामी हुकूमत को गंदा कर दिया , उसके क़वायद व उसूल को पामाल कर दिया और मुसलमानों के लिये ज़ाती हुकूमत बना कर रख दिया , लिहाज़ा जिस शख़्स ने उस पर अमल किया और जो शख़्स रोज़े क़यामत तक उस पर अमल करेगा उसका गुनाह उन्ही की गर्दन पर है।

तफ़सीरे अल मनार जिल्द 5 पेज 188

क़ारेईने केराम , यह तमाम मुश्किलात ख़लीफ़ ए मुसलेमीन की ख़िलाफ़त व इमामत पर इलाही हुक्म के इंकार करने की वजह पेश आई। अगर मुसलमान रसूले अकरम (स) के बाद होने वाले हक़ीक़ी आईम्मा के बारे में अहादीस का इंकार न करते तो फिर ऐसे मसायब व मुश्किलात में गिरफ़्तार न होते। यह ऐसी मुसीबतें हैं जिनका इक़रार ख़ुद अहले सुन्नत के उलामा ने किया है और वह उनके तौर व तरीक़े से शिकायत करते हैं लेकिन अहले बैत (अ) की पैरवी करने वाला शिया मुआशरा उन मुसीबतों में मुब्तला नही है।