जंग-ए-जमल
हिजरत के 36 वें वर्ष में इराक़ के बसरा नगर में हज़रत अली (अ) और हज़रत आयशा की सेनाओ के बीच युद्ध हुआ. इस जंग को जंग-ए-जमल भी कहते हैं क्योंकि इस युद्ध में हज़रत आयशा ने अपनी सेना का नेतृत्व ऊँट पर बेठ कर किया था और ऊँट को अरबी भाषा में जमल कहा जाता है।
इस जंग का नतीजा भी वही हुआ जो इस से पहले की तमाम इस्लामी जंगो का हुआ था, जिसमें नेतृत्व हज़रत अली (अ) के हाथों में था। हज़रत आयशा की सेना को मात मिली। हज़रत आयशा जिस ऊँट पर सवार थीं जंग के दौरान उस से नीचे गिरी, हज़रत अली (अ) ने उनको किसी प्रकार की सज़ा देने के बदले उनको पूरे सम्मान के साथ उनके छोटे भाई मोहम्मद बिन अबू बक़र और चालीस महिला सिपाहियों के संरक्षण में मदीने वापस भेज दिया. इस तरह उन इस्लामी आदर्शों की हिफ़ाज़त की जिनके तहत महिलाओं के मान सम्मान का ख्याल रखना ज़रूरी है। हज़रत अली (अ) की तरफ से अच्छे बर्ताव का ऐसा असर हुआ कि हज़रत आयशा राजनीति से अलग हो गईं। इस युद्ध के बाद और इस्लामी शासन के लिए लगातार बढ़ रहे खतरे को देखते हुआ हज़रत अली (अ) ने इस्लामी सरकार की राजधानी मदीने से हटा कर इराक के कूफा नगर में स्थापित कर दी।
इस जंग के बाद कबीले वाद की पुश्तेनी दुश्मनी ने एक बार फिर सर उठाया और उमय्या वंश के एक सरदार अमीर मुआविया ने हज़रत अली (अ) के इस्लामी शासन के खिलाफ विद्रोह कर दिया। इसका एक कारण यह भी था की पैग़म्बरे इस्लाम (स) के निधन के बाद इस्लामी नेतृत्व दो हिस्सों में बँट गया था, एक को इमामत और दूसरे को ख़िलाफ़त कहा जाता था।
इमामों पर विशवास रखने वाले दल को यकीन था की इमाम व पैग़म्बर सिर्फ अल्लाह द्वारा चुने होते हैं। जबकि खिलाफत पर विश्वास रखने वाले दल का मानना था की पैग़म्बर अल्लाह की तरफ से नियुक्त होते हैं लेकिन उत्तराधिकारी चुनने का अधिकार जनता को प्राप्त है या कोई ख़लीफ़ा मरते वक़्त किसी को मनोनीत कर सकता था अथवा कोई ख़लीफ़ा मरते समय एक चयन समिति बना सकता था. इन्हीं मतभेदों को लेकर पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बाद मुस्लिम समाज दो बागों में बंट गया।
खिलाफत पर यकीन रखने वाला दल संख्या में ज्यादा था और इमामत पर यकीन रखने वालों की संख्या कम थी। बाद में कम संख्या वाले वर्ग को शिया और अधिक संख्या वाले दल को सुन्नी कहा जाने लगा लेकिन जब हज़रत अली (अ) ख़लीफ़ा बने तो इमामत और खिलाफत सा संगम हो गया और मुसलमानों के बीच पड़ी दरार मिट गई। यही एकता इस्लाम के पुराने दुश्मनों को पसंद नहीं आई और उन्होंने मुसलामानों के बीच फसाद फैलाने की ग़रज़ से तरह तरह के विवाद को जन्म देना शुरू कर दिए और मुसलामानों का खून पानी की तरह बहने लगा।
अमीर मुआविया ने पहले तो क़त्ले उस्मान के बदले का नारा लगाया लेकिन बाद में ख़िलाफ़त के लिए दावेदारी पेश कर दी. मुआविया ने ताक़त और सैन्य बल के ज़रिये सत्ता पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश के तहत सीरिया के प्रान्त इस्लामी राज्य से अलग करने की घोषणा कर दी। मुआविया को हज़रत उस्मान ने सीरिया का गवर्नर बनाया था। दोनों एक ही काबिले बनी उम्म्या से ताल्लुक अखते थे, फिर मुआविया ने एक बड़ी सेना के साथ हज़रत अली (अ) के इस्लामी शासन पर धावा बोल दिया और इस को भी जिहाद का नाम दिया. जबकि यह इस्लामी शासन के खिलाफ खुली बगावत थी।
जंगे सिफ्फीन
हिजरत के 39वे वर्ष में सिफ्फीन नामन स्थान पर इस्लामी सेनाओं और सीरिया के गवर्नर अमीर मुआविया के सेनाओं के बीच घमासान युद्ध हुआ. मुआविया की सेनाओ ने रणभूमि में पहले पहुँच कर पानी के कुओं पर क़ब्ज़ा कर लिया और हज़रत अली की सेना पर पानी बंद करके मानवता के आदर्शो पर पहला वार किया. हज़रत अली की सेनाओं ने जवाबी हमला करके कुओं पर क़ब्ज़ा कर लिया. लेकिन इस बार किसी पर पानी बंद नहीं हुआ और मुआविया की फ़ौज भी उसी कुएं से पानी लेती रही जिस पर अली वालों का क़ब्ज़ा था. इस युद्ध में जब हज़रत अली की सेना विजय के नज़दीक पहुँच गई और इस्लामी सेना के कमांडर हज़रत मालिक-ए-अश्तर ने दुश्मन फ़ौज के नेता मुआविया को लगभग घेर लिया तो बड़ी चालाकी से सीरिया की सेना ने पवित्र कुरान की आड़ ले ली और क़ुरान की प्रतियों को भालो पर उठा कर आपसी समझोते की बात करना शुरू कर दी. अंत में शांति वार्ता के ज़रिये से युद्ध समाप्त हो गया.
हज़रत अली के प्रतिनिधि अबू मूसा अशरी के साथ धोका किये जाने के साथ ही सुलह का यह प्रयास विफ़ल हो गया और एक बार फिर जंग के शोले भड़क उठे. अबू मूसा के साथ धोका होने की वजह से हज़रत अली की सेना के सिपाहियों द्वारा फिर से युद्ध शुरू करने के आग्रह और समझोता वार्ता से जुड़े अन्य मुद्दों को लेकर हज़रत अली के सेना का एक टुकड़ा बाग़ी हो गया. इस बाग़ी सेना से हज़रत अली को नहर-वान नामक स्थान पर जंग करनी पड़ी. हज़रत अली से टकराने के कारण इस दल को इस्लामी इसिहास मे खारजी(निष्कासित) की संज्ञा दी गई है.
हज़रत अली की सेना में फूट और मुआविया के साथ शांति वार्ता नाकाम होने के बाद सीरिया में मुआविया ने सामानांतर सरकार बना ली. इन लडाइयों के नतीजे मैं मुस्लिम समाज चार भागो में बंट गया. एक वर्ग हज़रत अली को हर तरह से हक़ पर समझता था. इस वर्ग को शिया आने अली कहा जाता है. यह वर्ग इमामत पर यकीन रखता है और हज़रत अली से पहले के तीन खलीफाओं को मान्यता नहीं देता है. दूसरा वर्ग मुआविया की हरकातो को उचित करत देता था. इस ग्रुप को मुआविया का मित्र कहा जाता है. यह वर्ग मुआविया और यजीद को इस्लामी ख़लीफ़ा मानता है. तीसरा वर्ग ऐसा है जो कि मुआविया और हज़रत अली दोनों को ही अपनी जगह पर सही क़रार देता है और दोनों के बीच हुई जंग को ग़लतफ़हमी का नतीजा मानता है, इस वर्ग को सुन्नी कहा जाता है(लेकिन इस वर्ग ने भी मुआविया को अपना खलीफा नहीं माना). चौथे ग्रुप की नज़र में………………….
हज़रत अली की सेनाओं को कमज़ोर पाकर मुआविया ने मिश्र में भी अपनी सेनाएं भेज कर वह के गवर्नर मोहम्मद बिन अबू बक़र(जो पैग़म्बरे इस्लाम (स) की पत्नी हज़रत आयशा के छोटे भाई और पहले खलीफा अबू बक़र के बेटे थे) को गिरफ्तार कर लिया और बाद में उनको गधे की खाल में सिलवा कर ज़िन्दा जलवा दिया. इसी के साथ मुआविया ने हज़रत अली के शासन के तहत आने वाले गानों और देहातो में लोगो को आतंकित करना शुरू कर दिया. बेगुनाह शहरियों को केवल हज़रत अली से मोहब्बत करने के जुर्म में क़त्ल करने का सिलसिला शुरू कर दिया गया. इस्लामी इतिहास की पुस्तक अल-नसायह अल काफ़िया में हज़रत अली के मित्रो को आतंकित करने की घटनाओं का बयान इन शब्दों में किया गया है: “अपने गुर्गों और सहयोगियों की मदद से मुआविया ने हज़रत अली के अनुयाइयों में सबसे अधिक शालीन और श्रेष्ट व्यक्तियों के सर कटवा कर उन्हें भालों पर चढ़ा कर अनेक शहरो में घुमवाया. “इस युग में ज़्यादातर लोगों को हज़रत अली के प्रति घृणा प्रकट करने के लिए मजबूर किया जाता अगर वो ऐसा करने के इनकार करते तो उनको क़त्ल कर दिया जाता।
हज़रात अली की शहादत
अपनी जनता को इस आतंकवाद से छुटकारा दिलाने के लिए हज़रत अली ने फिर से इस्लामी सेना को संगठित करना शुरू किया. हज़रत इमाम हुसैन, क़ेस बिन सअद और अबू अय्यूब अंसारी को दस दस हज़ार सिपाहियों की कमान सोंपी गई और खुद हज़रत अली के अधीन 29 हज़ार सैनिक थे और जल्द ही वो मुआविया की सेना पर हमला करने वाले थे, लेकिन इस के पहले कि हज़रत अली मुआविया पर हमला करते, एक हत्यारे अब्दुल रहमान इब्ने मुल्ज़िम ने हिजरत के 40वें वर्ष में पवित्र रमज़ान की 18वी तारीख़ को हज़रत अली कि गर्दन पर ज़हर में बुझी तलवार से उस समय हमला कर दिया जब वो कूफ़ा नगर की मुख्य मस्जिद में सुबह की नमाज़ का नेतृत्व(इमामत) कर रहे थे और सजदे की अवस्था में थे. इस घातक हमले के तीसरे दिन यानी 21 रमज़ान (28 जनवरी 661 ई०) में हज़रत अली शहीद हो गए. इस दुनिया से जाते वक़्त उनके होटों पर यही वाक्य था कि “रब्बे क़ाबा(अल्लाह) कि कसम, में कामयाब हो गया”. अपनी ज़िन्दगी में उन्होंने कई लड़ाइयाँ जीतीं. बड़े-बड़े शूरवीर और बहादुर योद्धा उनके हाथ से मारे गए मगर उन्होंने कभी भी अपनी कामयाबी का दावा नहीं किया. हज़रत अली की नज़र में अल्लाह कि राह मैं शहीद हो जाना और एक मज़लूम की मौत पाना सब से बड़ी कामयाबी थी. लेकिन जंग के मैदान में उनको शहीद करना किसी भी सूरमा के लिए मुमकिन नहीं था. शायद इसी लिए वो अपनी इस क़ामयाबी का ऐलान कर के दुनिया को बताना चाहते थे कि उन्हें शहादत भी मिली और कोई सामने से वार करके उन्हें क़त्ल भी नहीं कर सका. वे पहले ऐसे व्यक्ति हैं जो क़ाबा के पावन भवन के अन्दर पैदा हुए और मस्जिद में शहीद हुए।
हज़रत अली ने अपने शासनकाल में न तो किसी देश पर हमला किया न ही राज्य के विस्तार का सपना देखा. बल्कि अपनी जनता को सुख सुविधाएँ देने की कोशिश में ही अपनी सारी ज़िन्दगी कुर्बान कर दी थी. वो एक शासक की तरह नहीं बल्कि एक सेवक की तरह ग़रीबों, विधवा औरतों और अनाथ बच्चों तक सहायता पहुँचाते थे. उनसे पहले न तो कोई ऐसा शासक हुआ जो अपनी पीठ पर अनाज की बोरियाँ लादकर लोगों तक पहुँचाता हो न उनके बाद किसी शासक ने खुद को जनता की खिदमत करने वाला समझा।
हज़रत अली के बाद उनके बड़े बेटे हज़रत इमाम हसन ने सत्ता संभाली, लेकिन अमीर मुआविया की और से उनको भी चैन से बेठने नहीं दिया गया. इमाम हसन के अनेक साथियों को आर्थिक फ़ायदों और ऊँचे पदों का लालच देकर मुआविया ने हज़रत हसन को ख़लीफ़ा के पद से अपदस्थ करने में कामयाबी हासिल कर ली. हज़रत हसन ने सत्ता छोड़ने से पहले अमीर मुआविया के साथ एक समझौता किया।
26 जुलाई 661ई० को इमाम हसन और अमीर मुआविया के बीच एक संधि हुई जिसमें यह तय हुआ:
)1) मुआविया की तरफ से धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं होगा।
(2) हज़रत अली के साथियों को सुरक्षा प्रदान की जाएगा।
(3) मुआविया को मरते वक़्त अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने का अधिकार नहीं होगा।
(4) मुआविया की मौत के बाद ख़िलाफ़त(सत्ता) पैग़म्बरे इस्लाम (स) के परिवार के किसी विशिष्ट व्यक्ति को सौंप दी जायेगी।
समझोते का एहतराम करने के स्थान पर मुआविया की और से पवित्र पैग़म्बरे इस्लाम (स) के परिवार के सदस्यों और हज़रत अली के चाहने वालों को प्रताड़ित करना शुरू कर दिया गया. इसी नापाक अभियान की एक कड़ी के रूप में इमाम हसन को केवल 47 वर्ष की उम्र में एक महिला के ज़रिये ज़हर दिलवा कर शहीद कर दिया गया।
अमीर मुआविया ने इमाम हसन के साथ की गई संधि को अपने मतलब के लिए इस्तेमाल करने के बाद इस को रद्दी की टोकरी में डाल कर अपने परिवार का शासन स्थापित कर दिया. मुआविया को अपने खानदान का राज्य स्थापित करने में तो कामयाबी मिल गई लेकिन मुआविया का खलीफा बनने का सपना पूरा नहीं हो सका. मुआविया ने लगभग 12 वर्ष राज किया और जिहाद के नाम पर दूसरे देशों पर हमला करने का काम शुरू करके जिहाद जैसे पवित्र काम को बदनाम करना शुरू किया. इस के अलावा मुआविया ने इस्लामी आदर्शों से खिलवाड़ करते हुए एक ऐसी परंपरा शुरू की जिसकी मिसाल नहीं मिलती. इस नजिस पॉलिसी के तहत उस ने हज़रत अली और उनके परिवार जनों को गालियाँ देने के लिए मुल्ला किराए पर रखे. अमीर मुआविया ने अपने जीवन की सबसे बड़ी ग़लती यह की कि अपने जीवन में ही अपने कपूत यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।
इन सब हरकतों का नतीजा यह हुआ की समस्त मुसलामानों ने ख़िलाफ़त के सिलसिले को समाप्त मान कर इमाम हसन के बाद खिलाफत-ए-राशिदा(सही रास्ते पर चलने वाले शासकों) के ख़त्म हो जाने का ऐलान कर दिया. इस तरह मुआविया को सत्ता तो मिल गई लेकिन मुसलामानों का भरोसा हासिल नहीं हो सका।
यजीद की सत्ता
अमीर मुआविया ने अपने क़बीले बनी उमय्या का शासन स्थापित करने के साथ साथ उस इस्लामी शासन प्रणाली को भी समाप्त कर दिया जिसमें ख़लीफ़ा एक आम आदमी के जैसी ज़िन्दगी बिताता था। मुआविया ने ख़िलाफ़त को राज शाही में तब्दील कर दिया और अपने कुकर्मी और दुराचारी बेटे यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी घोषित करके उमय्या क़बीले के अरबों और दूसरे मुसलामानों पर राज्य करने के पुराने ख्वाब को पूरा करने की ठान ली।
मुआविया को जब लगा कि मौत क़रीब है तो यज़ीद को सत्ता पर बैठाने के लिए अहम् मुस्लिम नेताओं से यज़ीद कि बैयत(मान्यता देने) को कहा।
यज़ीद को एक इस्लामी शासक के रूप में मान्यता देने का मतलब था इस्लामी आदर्शों की तबाही और बर्बादी. यज़ीद जैसे कुकर्मी, बलात्कारी, शराबी और बदमाश को मान्यता देने का सवाल आया तो सब से पहले इस पर लात मारी पैग़म्बरे इस्लाम (स) के प्यारे नवासे और हज़रत अली (अ) के शेर दिल बेटे इमाम हुसैन (अ) ने कहा कि वह अपनी जान क़ुर्बान कर सकते हैं लेकिन यज़ीद जैसे इंसान को इस्लामिक शासक के रूप में क़ुबूल नहीं कर सकते।
इमाम हुसैन के अतिरिक्त पैगम्बर साहब की पत्नी हज़रात आयशा ने भी यज़ीद को मान्यता देने से इनकार कर दिया। कुछ और लोग जिन्होंने यज़ीद को मान्यता देने से इनकार किया वो हैं: अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर, 2. अब्दुल्लाह बिन उमर, 3 उब्दुल रहमान बिन अबू बकर, 4, अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास. इनके आलावा अब्दुल रहमान बिन खालिद इब्ने वलीद और सईद बिन उस्मान ने भी यज़ीद की बैअत से इनकार किया लेकिन इनमें से अब्दुल रहमान को ज़हर देकर मार डाला गया और सईद बिन उस्मान को खुरासान(ईरान के एक प्रान्त) का गवर्नर बना कर शांत कर लिया गया।
मुआविया की नज़र में इन सारे विरोधियों का कोई महत्व नहीं था उसे केवल इमाम हुसैन (अ) की फ़िक्र थी कि अगर वे राज़ी हो जाएँ तो यज़ीद की ख़िलाफ़त के लिए रास्ता साफ़ हो जाएगा। मुआविया ने अपने जीवन में इमाम हुसैन (अ) पर बहुत दबाव डाला कि वो यज़ीद को शासक मान लें मगर उसे सफ़लता नहीं मिली।
यज़ीद का परिचय
यज़ीद बनी उमय्या के उस कबीले का कपूत था, जिस ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) को जीवन भर सताया. इसी क़बीले के सरदार और यज़ीद के दादा अबू सूफ़ियान ने कई बार हज़रत मोहम्मद (स) की जान लेने की कौशिश की थी और मदीने में रह रहे पैग़म्बरे इस्लाम (स) पर कई हमले किये थे. यज़ीद के बारे में कुछ इतिहासकारों की राय इस प्रकार है:
तारीख-उल-खुलफ़ा में जलाल-उद-दीन सियोती ने लिखा है की “यज़ीद अपने पिता के हरम में रह चुकी दासियों के साथ दुष्कर्म करता था। जबकि इस्लामी कानून के तहत रिश्ते में वे दासियाँ उसकी माँ के समान थीं।
सवाअक-ए-महरका में अब्दुल्लाह बिन हन्ज़ला ने लिखा है की “यज़ीद के दौर में हम को यह यकीन हो चला था की अब आसमान से तीर बरसेंगे क्योंकि यज़ीद ऐसा व्यक्ति था जो अपनी सौतेली माताओं, बहनों और बेटियों तक को नहीं छोड़ता था. शराब खुले आम पीता था और नमाज़ नहीं पढता था.”
जस्टिस अमीर अली लिखते हैं कि “यज़ीद ज़ालिम और ग़द्दार दोनों था उसके चरित्र में रहम और इंसाफ़ नाम की कोई चीज़ नहीं थी”.
एडवर्ड ब्रा ने हिस्ट्री और पर्शिया में लिखा है कि “यज़ीद ने एक बददु(अरब आदिवासी) माँ की कोख से जन्म लिया था। रेगिस्तान के खुले वातावरण में उस की परवरिश हुई थी, वह बड़ा शिकारी, आशिक़, शराब का रसिया, नाच गाने का शौकीन और मज़हब से कोसो दूर था.”
अल्लामा राशिद-उल-खैरी ने लिखा है कि “यज़ीद गद्दी पर बेठने के बाद शराब बड़ी मात्रा में पीने लगा और कोई पल ऐसा नहीं जाता था कि जब वह नशे में धुत न रहता हो और जिन औरतों से पवित्र कुरान ने निकाह करने को मना किया था, उनसे निकाह को जायज़ समझता था.”
ज़ाहिर है इमाम हुसैन (अ) यज़ीद जैसे अत्याचारी, कुकर्मी, बलात्कारी, शराबी और अधर्मी को मान्यता कैसे दे सकते थे। यजीद ने अपने चचाज़ाद भाई वलीद बिन अत्बा को जो मदीने का गवर्नर था यह सन्देश भेजा कि वह मदीने में रह रहे इमाम हुसैन, इब्ने उमर और इब्ने ज़ुबैर से उसके लिए बैयत (मान्यता) की मांग करे और अगर तीनों इनकार करें तो उनके सर काट कर यज़ीद के दरबार में भेजें।
इमाम हुसैन (अ) की हिजरत:
वलीद ने इमाम हुसैन (अ) को संदेसा भेजा कि वह दरबार में आयें उनके लिए यज़ीद का एक ज़रूरी पैग़ाम है। इमाम हुसैन (अ) उस समय अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर के साथ मस्जिद-ए-नबवी में बेठे थे।
जब यह सन्देश आया तो इमाम से इब्ने ज़ुबैर ने कहा कि इस समय इस प्रकार का पैग़ाम आने का मतलब क्या हो सकता है? इमाम हुसैन (अ) ने कहा कि लगता है कि मुआविया कि मौत हो गई है और शायद यज़ीद की बैयत के लिए वलीद ने हमें बुलाया है। इब्ने ज़ुबैर ने कहा कि इस समय वलीद के दरबार में जाना आपके लिए ख़तरनाक हो सकता है। इमाम ने कहा कि में जाऊँगा तो ज़रूर लेकिन अपनी सुरक्षा का प्रबंध करके वलीद से मिलूँगा। खुद अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर रातों रात मक्के चले गए।
इमाम अपने घर आये और अपने साथ घर के जवानों को लेकर वलीद के दरबार में पहुँच गए। लेकिन अपने साथ आये बनी हाशिम के(जोशीले और इमाम पर हर वक़्त मर मिटने के लिए तैयार रहने वाले) जवानों से कहा कि वे लोग बाहर ही ठहरे और अगर इमाम की आवाज़ बुलंद हो तो अन्दर आ जाएँ।
इमाम दरबार में गए तो उस समय वलीद के साथ मर-वान भी बैठा था जो पैग़म्बरे इस्लाम (स) के परिवार वालों का पुराना दुश्मन था। जब इमाम हुसैन (अ) आये तो वलीद ने मुआविया की मौत कि ख़बर देने के बाद यज़ीद की बैयत के लिए कहा। इमाम हुसैन (अ) ने यज़ीद की बैयत करने से साफ़ इनकार कर दिया और वापस जाने लगे तो पास बैठे हुए मर-वान ने कहा कि अगर तूने इस वक़्त हुसैन को जाने दिया तो फिर ऐसा मौक़ा नहीं मिलेगा यही अच्छा होगा कि इनको गिरफ़्तार करके बैयत ले ले या फिर क़तल कर के इनका सर यज़ीद के पास भेज दे। यह सुनकर इमाम हुसैन (अ) को ग़ुस्सा आ गया और वह चीख़ कर बोले “भला तेरी या वलीद कि यह मजाल कि मुझे क़त्ल कर सकें?” इमाम हुसैन (अ) की आवाज़ बुलंद होते ही उनके छोटे भाई हज़रत अब्बास के नेतृत्व मैं बनी हाशिम के जवान तलवारें उठाये दरबार में दाखिल हो गए लेकिन इमाम ने इन नौजवानों के जज़्बात पर काबू पाया और घर वापस आ कर मदीना छोड़ने के बारे मैं मशविरा करने लगे।
बनी हाशिम के मोहल्ले मैं इस खबर से शोक का माहौल छा गया। इमाम हुसैन (अ) अपने खानदान के लोगों को साथ लेकर मदीने का पवित्र नगर छोड़ कर मक्का स्थित पवित्र काबे की और प्रस्थान कर गए जिसको अल्लाह ने इतना पाक करार दिया है कि वहां किसी जानवर का खून बहाने कि भी इजाज़त नहीं है।
मक्का पहुँचने के बाद लगभग साढ़े चार महीने इमाम अपने परिवार सहित पवित्र काबा के निकट रहे लेकिन हज का ज़माना आते ही इमाम को सूचना मिली कि यज़ीद ने हाजियों के भेस में एक दल भेजा है जो इमाम को हज के दौरान क़त्ल कर देगा। वैसे तो हज के दौरान हथियार रखना हराम है और एक चींटी भी मर जाए तो इंसान पर कफ्फ़ारा(प्रायश्चित) अनिवार्य हो जाता है लेकिन यज़ीद के लिए इस्लामी उसूल या काएदे कानून क्या मायने रखते थे?
इमाम ने हज के दौरान खून खराबे को टालने के लिए हज से केवल एक दिन पहले मक्का को छोड़ने का फैसला कर लिया।
कर्बला में धर्म और अधर्म का टकराव:
इमाम हुसैन (अ) ने मक्का छोड़ने से पहले अपने चचेरे भाई हज़रत मुस्लिम को इराक के कूफ़ा नगर में भेज दिया था ताकि वह कूफे के असली हालात का पता लगाएँ। कूफा जो कि किसी समय में हज़रत अली कि राजधानी था, वहां भी यज़ीद के शासन के खिलाफ क्रांति की चिंगारियां फूटने लगी थीं। कूफ़े से लगातार आग्रह पत्र इमाम हुसैन (अ) के नाम आ रहे थे कि वह यज़ीद के खिलाफ चल रहे अभीयान का नेतृत्व करें।
कूफ़े मैं इमाम हुसैन (अ) के भाई का बड़ा भव्य स्वागत हुआ और लगभग एक लाख लोगों ने इमाम हुसैन (अ) के प्रति अपनी वफादारी कि शपथ ली यह खबर सुन कर यज़ीद ग़ुस्से से पागल हो गया और कूफ़े के गवर्नर नोअमान बिन बशीर के स्थान पर यज़ीद ने कूफ़े में उबैद उल्लाह इब्ने ज़ियाद नामक सरदार को गवर्नर बना कर भेजा। इब्ने ज़ियाद हज़रत अली के परिवार का पुश्तैनी दुश्मन था। उसके कूफ़े में पहुँचते ही आतंक फ़ैल गया। कूफ़े के लोग यज़ीद की ताकत और सैन्य बल के आगे सारी वफ़ादारी भूल गए। इब्ने ज़ियाद ने इमाम हुसैन (अ) से वफ़ादारी व्यक्त करने वाले ओगों को चुन चुन कर मार डाला या गिरफ्तार करके सख्त यातनाएं दिन। उसने हज़रत मुस्लिम बिन अक़ील को बेदर्दी से क़त्ल करके उनकी लाश के पाँव में रस्सी बाँध कर कूफ़े की गली कूचों में घसीटे जाने का आदेश भी दिया। यही नहीं हज़रत मुस्लिम के साथ में गए हुए दो मासूम बच्चों, आठ साल के मोहम्मद और छे साल के इब्राहीम की भी निर्मम रूप से हत्या कर दी गई। बच्चो को शहीद करने की यह पहली आतंकवादी घटना थी।
इमाम हुसैन (अ) का क़ाफ़िला लगातार आगे बढ़ता रहा और रास्ते में ही उन्हें हज़रत मुस्लिम और उनके बच्चो कि शहादत की ख़बर मिली। उधर यज़ीद की सेनाएं भी लगातार इमाम हुसैन (अ) के उस कारवान क़ा पीछा कर रहीं थीं जिसमें लगभग साठ-सत्तर पुरुष, कुछ बच्चे और चंद औरतें शामिल थीं।
हुर्र का आना
ज़ुहसम नाम के एक स्थान पर इमाम हुसैन (अ) क़ा सामना यज़ीद की फ़ौज के पहले दस्ते से हुआ। लगभग एक हज़ार फ़ौजियों के इस दस्ते क़ा सेनापति हुर्र बिन रियाही नाम क़ा अधिकारी कर रहा था। जब हुर्र की सैनिक टुकड़ी इमाम के सामने आई तो रेगिस्तान में भटकने के कारण सैनिकों क़ा प्यास के मारे बुरा हाल था। इमाम हुसैन (अ) ने इस बात क़ा ख़्याल किए बग़ैर कि यह दुश्मन के सिपाही हैं इस प्यासे दस्ते को पानी पिलाया और मानवता के नए कीर्तिमान क़ायम किये। अगर इमाम हुसैन (अ) हुर्र के सिपाहियों को पानी न पिलाते तो इस सैनिक टुकड़ी के सभी लोग प्यास से मर सकते थे और इमाम हुसैन (अ) के दुश्मनों में कमी हो जाती, लेकिन इमाम हुसैन (अ) उस पैग़म्बर के नवासे थे जो अपने दुश्मनों की तबियत खराब होने पर उनका हाल चाल पूछने के लिए उसके घर पहुँच जाते थे।
2 मौहर्रम
लगभग 22 दिन तक रेगिस्तान की यात्रा करने के बाद इमाम हुसैन (अ) क़ा काफ़िला (2 अक्तूबर 680 ई० या 2 मुहर्रम 61 हिजरी) इराक़ के उस स्थान पर पहुँचा, जिसको क़र्बला कहा जाता है। हुर्र की सैनिक टुकड़ी भी इमाम के पीछे पीछे कर्बला में आ चुकी थी। इमाम के यहाँ पड़ाव डालते ही यज़ीद की फौजें हज़ारों कि संख्या में पहुँचने लगीं। यज़ीदी सेनाओं ने सब से पहले फ़ुरात नदी(अलक़मा नहर) के किनारे से इमाम को अपने शिविर हटाने को बाध्य किया और इस तरह अपने नापाक इरादों क़ा आभास दे दिया।
7 मौहर्रम
पांच दिन बाद यानी सात मुहर्रम को नदी के अहातों (किनारों) पर पहरा लगा दिया गया और इमाम हुसैन (अ) के परिवार जनों और साथियों के नदी से पानी लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। रेगिस्तान की झुलसा देने वाली गर्मी में पानी बंद होने से इमाम हुसैन (अ) के बच्चे प्यास से तड़पने लगे। दो दिन बाद अचानक यज़ीदी सेनाओं ने इमाम के क़ाफिले पर हमला कर दिया। इमाम हुसैन (अ) ने यज़ीदी सेना से एक रात की मोहलत मांगी ताकि वह अपने मालिक की इबादत कर सकें। यज़ीदी सेना राज़ी हो गई क्योंकि उसे मालूम था कि यहाँ से अब इमाम और उनके साथी कहीं नहीं जा सकते और एक दिन की और प्यास से उनकी शारीरिक और मानसिक दशा और भी कमज़ोर हो जायेगी।
शबे आशूर
रात भर इमाम, उनके परिवार-जन और उनके साथी अल्लाह कि इबादत करते रहे। इसी बीच इमाम ने तमाम रिश्तेदारों और साथियों को एक शिविर में इकठ्ठा होने के लिए कहा और इस शिविर में अँधेरा करने के बाद सब से कहा कि: “तमाम तारीफ़ें खुदा के लिए हैं। मैं दुनिया में किसी के साथियों को इतना जाँबाज़ वफादार नहीं समझता जितना कि मेरे साथी हैं और न दुनिया में किसी को ऐसे रिश्तेदार मिले जैसे नेक और वफ़ादार मेरे रिश्तेदार हैं। खुदा तुम्हें अज्र-ए-अज़ीम(अच्छा फल) देगा। आगाह हो जाओ कि कल दुश्मन जंग ज़रूर करेगा। मैं तुम्हें ख़ुशी से इजाज़त देता हूँ कि तुम्हारा दिल जहाँ चाहे चले जाओ, मैं हरगिज़ तुम्हें नहीं रोकूंगा। शामी (यजीदी सेना) केवल मेरे खून की प्यासी है। अगर वह मुझे पा लेंगे तो तुम्हें को तलाश नहीं करेंगे”। इसके बाद इमाम ने सारे चिराग़ भुझाने को कहा और बोले इस अँधेरे मैं जिसका दिल जहाँ चाहे चला जाए। तुम लोगों ने मेरे प्रति वफ़ादार रहने कि जो क़सम खाई थी वह भी मैंने तुम पर से उठा ली है।” इस घटना पर टिप्पड़ी करते हुए मुंशी प्रेम चंद ने लिखा है कि अगर कोई सेनापति आज अपनी फ़ौज से यही बात कहे तो कोई सिपाही तो क्या बड़े बड़े कप्तान और जर्नल घर कि राह लेते हुए नज़र आयें। मगर कर्बला में हर तरह से मौका देने पर भी इमाम का साथ छोड़ने पर कोई राज़ी नहीं हुआ। ज़ुहैन इब्ने क़ेन जैसा भूढ़ा सहाबी कहता है कि “ऐ इमाम अगर मुझको इसका यकीन हो जाए कि मै आपकी तरफ़दारी करने की वजह से ज़िन्दा जलाया जाऊँगा, और फिर ज़िन्दा करके जलाया जाऊं तो यह काम अगर 100 बार भी करना पड़े तो भी में आपसे अलग नहीं हो सकता।
रिश्तेदार तो पहले ही कह चुके थे कि “हम आप को इस लिए छोड़ दें की आपके बाद जिंदा रहे? हरगिज़ नहीं, खुदा हम को ऐसा बुरा दिन दिखाना नसीब न करे।
फिर इमाम ने अपने चाचा हज़रत अक़ील की औलाद से यह आग्रह किया कि वह वापस चले जाएँ क्योंकि उनके लिए हज़रत मुस्लिम बिन अक़ील का ग़म अभी ताज़ा है और इस दुखी परिवार पर वह और ज़्यादा ग़म नहीं डालना चाहते लेकिन औलादें हज़रत अक़ील ने कह दिया कि वह अपनी जानें कुर्बान करके ही दम लेंगे।
हालांकि सब को पता था कि यज़ीद की सेनाएं हज़ारों की तादाद में हैं और 70 सिपाहियों (हज़रत हुर्र और उनके बेटे के शामिल होने के बाद यह तादाद बाद में 72 हो गई) की यह मामूली सी टुकड़ी शहादत के आलावा कुछ हासिल नहीं कर सकतीं लेकिन इमाम को छोड़ने पर कोई राज़ी न हुआ। यह लोग दुनिया को जिहाद का असली मतलब बताना चाहते थे ताकि क़यामत तक कोई यह न कह सके कि जिहाद किसी का बेवजह खून बहाने का नाम नहीं है या किसी देश पर चढाई करने का नाम नहीं हैं।