करीमे अहलेबैत इमाम हसन अलैहिस्सलाम
0%
कैटिगिरी: इमाम हसन (अ)
कैटिगिरी: इमाम हसन (अ)
करीमे अहलेबैत हज़रत इमाम हसन
अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क
हज़रत इमाम हसन (अ.स) हज़रत अली इब्ने अबी तालिब (अ.स) और सैयदतुन निसाइल आलमीन हज़रत फ़ातेमा (स.) के बेटे हैं।
इमाम हसन 15वीं रमज़ानुल मुबारक सन् 3 हिजरी में मदीना ए मुनव्वरा में पैदा हुए। इमाम हसन (अ.स) को ख़ुदा वंदे आलम ने हज़रत अली (अ.स) व हज़रत फ़ातेमा (अ.स) की पहली औलाद क़रार दिया।
रसूले इस्लाम (स) ने पैदाइश के फ़ौरन ही बाद अपनी गोद में लेकर आपके दाहिने कान में अज़ान और बायें कान में इक़ामत कही। आपके बाल कटवाकर उसके बराबर चाँदी जो एक दिरहम के लगभग बनती थी , ग़रीबों में बटवाई।
पैग़म्बरे इस्लाम (सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम ) ने हुक्म दिया कि सर पर ख़ूशबू लगाई जाए। उसके बाद से ही अक़ीक़ा और बच्चे के बालों के बराबर चाँदी सदक़ा देने की सुन्नत क़ायम हो गयी।
पैग़म्बरे इस्लाम (सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम ) ने इस बच्चे का नाम हसन रखा। यह नाम इससे पहले किसी का नही रखा गया था आपकी कुन्नीयत अबू मुहम्मद रखी और यह कुन्नीयत भी सिर्फ़ आपसे मख़सूस है।
आपके अलक़ाब सिब्त , सैयद , ज़की , मुज्तबा हैं। लेकिन इन सब में मशहूर मुज्तबा है।
पैग़म्बरे इस्लाम (सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम ) को इमाम हसन और इमाम हुसैन से एक ख़ास लगाव था जिसकी वजह से आपने कई जगह पर फ़रमाया: यह हसन व हुसैन मेरे बेटे हैं।
इस मौक़े पर हज़रत अली (अ.स) ने अपनी दूसरी औलाद के लिये फ़रमाया: कि तुम लोग मेरी औलाद हो और हसन व हुसैन पैग़म्बर (सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम ) की औलाद हैं।
इमाम हसन ने सात साल और कुछ महीने की ज़िन्दगी अपने नाना की मुहब्बत भरी आग़ोश में ही गुज़ारी। लेकिन उनकी वफ़ात और जनाबे फ़ातिमा (अ.स) की शहादत- जो कि पैग़म्बरे इस्लाम (सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम ) की वफ़ात के दो या तीन महीने के बाद हुई उसके बाद इमाम अली ने इमाम हसन की तरबीयत को अपने हाथों में ले लिया।
इमाम हसन अपने वालिदे बुज़ुर्गवार की शहादत के बाद हुक्मे ख़ुदा और हज़रत अली की वसीयत के मुताबिक़ इमाम बने और आपने ज़ाहिरी ख़िलाफ़त की बाग डोर संभाली।
इस तरह तक़रीबन छ: महीने मुसलमानों के तमाम उमूर अंजाम दिये थे। इसी दौरान मुआविया जो अली और ख़ानदाने अली का सख़्त का सख़्त दुश्मन था और बरसों से ख़िलाफ़त के लिये (शुरु में ख़ूने उस्मान का बहाना लेकर और आख़िर में ख़िलाफ़त के दावेदार के रूप में खुल कर) जंग की थी।
इराक़ में जो कि इमाम हसन की ख़िलाफ़त की केन्द्र था उसने एक फ़ौज तैयार की और जंग शुरू कर दी। इमाम हसन अख़लाक़ी , जिस्मी और बुज़ुर्गी के ऐतबार से अपने नाना की तरह थे।
आप के हुलिये की तारीफ़ लोगों ने इस तरह से की है: आपके रुख़सारे मुबारक सुर्ख़ी माएल आख़ें स्याह , घनी दाढ़ी और बाल काले , गर्दन लम्बी , जिस्म मुनासिब , बाज़ू चौड़े , हठ्टीयाँ मज़बूत , क़द दरमीयाना , नक़्श व नुक़ूश जाज़िब ख़ूबसूरत और चेहरा पुरकशिश था।
इंसानी कमालात :
इमाम हसन कमालाते इंसानी में अपने बाप की निशानी और अपने नाना के कामिल नमूना थे जब तक पैग़म्बरे इस्लाम (सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम ) ज़िन्दा थे इमाम हसन और इमाम हुसैन को अपने पहलूओं में बिठाते कभी , अपने काँधों पर सवार करते तो कभी चूमते गले से लगाते थे।
आपने इमाम हसन व इमाम हुसैन के बारे में फ़रमाया: यह दोनो मेरे बेटे और इमाम हैं चाहे जंग करें या सुल्ह करें (इससे मुराद यह है कि बहरहाल यह इमाम व रहनुमा हैं) इमाम हसन ने 25 मर्तबा पैदल हज किया , इस तरह से कि घोड़े की लगाम आपके हाथ में होती थी जब भी मौत और क़ब्र को याद करते रोते , रोज़े हिसाब को याद करते तो बेसाख़्ता चीख़ उठते और बेहोश हो जाया करते थे।
जब वुज़ू करते और नमाज़ के लिये खड़े होते थे तो बदन काँपने लगता और रंग ज़र्द हो जाया करता था। तीन बार अपनी सारी जायदाद को अल्लाह की राह में ख़ैरात कर दिया। और दो बार अपना हक़ लोगों पर माँफ़ कर दिया।
मुख़तसर यह कि इमाम हसन अपने ज़माने के आबिद तरीन और शरीफ़तरीन लोगों में से थे इमाम की फ़ितरत व तबीयत में इंसानीयत के बेहतरीन नमूने पाये जाते थे। जो भी उन्हे देखता उनकी कामों पर फ़िदा हो जाता था।
जो भी आपसे मुलाक़ात करता था आपका शैदाई हो जाता था , जो भी आपका ख़ुतबा सुनता चाहे दोस्त हो या दुश्मन , ख़ुतबा ख़त्म होते होते आपके चाहने वालों में से हो जाता।
मुहम्मद इब्ने इसहाक़ बयान करते हैं: अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम ) के बाद कोई इंसान इज़्ज़त व क़द्र व बुज़ुर्गी में इमाम हसन (अ.स) के मक़ाम तक नही पहुच सका।
जब इमाम हसन अपने घर के बाहर बैठ जाया करते थे तो रास्ता बंद हो जाता था आपके ऐहतेराम का यह आलम था कि आपके भाईयों में से कोई उधर से गुज़रता नही था। आप समझ जाते थे और उठ कर घर के अंदर चले जाते थे तब सब लोग आना शुरु करते थे।
एक बार मक्के के रास्ते में घोड़े से नीचे उतर कर पैदल चलने लगे तो क़ाफ़िले के तमाम लोगों ने पैदल चलना शुरु कर दिया यहाँ तक कि सअद इब्ने अबी वकास भी पैदल हो कर आपके साथ चलने लगे। इब्ने अब्बास जो कि इमाम हसन व इमाम हुसैन (अ.स) से बड़े थे , घोड़े की लगाम थामे हुऐ फ़ख्र से यह कहते चले जा रहे थे कि यह अल्लाह के रसूल(सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम ) के बेटे हैं।
इस शान व मर्तबे के बावजूद उनकी सादगी का यह आलम था कि एक दिन ग़रीबों के एक गिरोह की तरफ़ से गुज़र रहे थे जो ज़मीन पर बैठे हुए थे ,जिनके सामने रोटीयों के कुछ टुकड़े ज़मीन पर रखे हुए थे जब उन्होने आपको देखा तो कहा ऐ नबी के लाल क्या आप हमारे साथ खाना पसंद करेगें। आप फ़ौरन घोड़े से उतरे और फ़रमाया अल्लाह तकब्बुर करने वालों को पसंद नही करता और इनके साथ खाने में शरीक हो गये। उसके बाद आपने उन लोगों को अपने घर आने की दावत दी। और आपने उनके खाने का इन्तेज़ाम भी किया और उनके लिबास का भी।
जिस वक़्त वह वहशतनाक वाक़िया पेश आया जिसमें हज़रत अली (अ.स) के मुबारक सर पर तलवार लगी और इमाम हसन (अ.स) को हुक्म दिया कि बेटा तुम नमाज़ पढ़ाओ और अपनी ज़िन्दगी के आख़री वक़्त में आपको अपना जा नशीन क़रार दिया। ऐ मेरे बेटा , मेरे बाद तुम मेरे जानशीन और मेरे ख़ून का इन्तेक़ाम लेने वाले हो। इस हुक्म से इमाम हुसैन (अ.स) और दूसरे तमाम बेटों , बुज़ुर्गाने शिया और ख़ानदान के सारे बुज़ुर्गों को आगाह किया और किताब और तलवार इमाम हसन के हवाले किया और उसके बाद फ़रमाया: ऐ मेरे बेटे अल्लाह के नबी(सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम ) ने मुझे हुक्म दिया है कि मैं तुम्हे अपना जानशीन बनाऊँ और अपनी किताब और तलवार तुम्हारे हवाले कर दूँ। जिस तरह अल्लाह के रसूल(सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम ) ने मुझे अपना जानशीन बनाया। और अपनी तलवार और किताब मेरे हवाले की। और साथ ही मुझे इस बात का भी हुक़्म भी दिया गया है कि मैं तुम से कह दूँ कि तुम भी अपनी ज़िन्दगी के आख़री वक़्त में इन तमाम चीज़ों को अपने भाई हुसैन के हवाले कर देना।
इमाम हसन (अ.स) मुसलमानों के दरमियान आए और अपने बाप के मिम्बर पर खड़े हुए ताकि हज़रत अली (अ.स) पर होने वाले हादसे की लोगों को ख़बर दें। अल्लाह और उसके रसूल(सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम) की हम्द व सना के बाद फ़रमाया: वह शख़्स आज रात हमारे दरमीयान से चला गया जिस गुज़रे हुए लोग आगे न बढ़ सके और आगे भी कोई उसके बुलंद मर्तबे और मक़ाम तक नही पहुच सकेगा।
हज़रत अली (अ.स) ने दीने इस्लाम की राह में जिस हिम्मत व शुजाअत व बहादुरी व कोशिश का मुज़ाहिरा किया और जंगों में जो उन्हे कामयाबी नसीब हुई थी , आपने उसका भी तज़किरा किया। और इस बात की तरफ़ भी इशारा किया कि आख़री वक़्त सिर्फ़ सात सौ दिरहम आपके पास था वह भी बैतुल माल से मिलने वाला आपका हिस्सा था कि जिससे वह अपने घर वालों की ज़रुरतों को पूरा करना चाहते थे।
उसी वक़्त जब मस्जिद लोगों से भरी हुई थी , अदुल्लाह इब्ने अब्बास ने खड़े होकर लोगों से हज़रत इमाम हसन की बैअत के लिये अपील की और लोगों ने शौक़ व ख़ुशी से इमाम हसन की बैअत की। यह हज़रत अली (अ.स) की शहादत(यानी 21 रमज़ान 40 हिजरी) का दिन था। कूफ़ा व मदाएन , इराक़ व हिजाज़ और यमन के तमाम लोगों ने ख़ुशी ख़ुशी इमाम हसन (अ.स) की बैअत की सिवाए मुआविया के , जो दूसरी राह इख़्तियार करना चाहता था। वही रास्ता जो उसने हज़रत अली (अ.स) के ज़माने में इख़्तियार किया था।
जब लोग बैअत कर चुके तो आपने एक ख़ुतबा दिया और लोगों को अहले बैत (अ.स) जो दो क़ीमती चीज़ों (क़ुरआन व अहतेबैत) में से एक थे , की इताअत का हुक्म दिया और उनको शैतान और शैतान सिफ़त लोगों से बचने का हुक्म दिया।
कुफ़े के क़याम के दौरान इमाम हसन (अ.स) लोगों के नज़दीक़ बहुत महबूब थे। रहबरी की तमाम शर्ते आपके मुबारक वुजूद में पूरी तरह से मौजूद थीं इसलिये कि आप नबी(स) के बेटे थे। आपके हर काम ईमान की शर्तों पर पूरे उतरने वाले थे।
दूसरी बात यह कि बैअत का तसव्वुर यह था कि लोग आपकी इताअत व फ़रमानदारी करें।इमाम (अ.स) ने तमाम उमूर को मुनज़्ज़म व मुरत्तब किया हाकिमाने शहर को मुअय्यन किया और तमाम इन्तेज़ामात को अपने हाथ में ले लिया। लेकिन अभी थोड़ा अर्सा भी नही गुज़रा कि लोगों नें जब इमाम हसन (अ.स) अपने बाप की तरह अदालत व इस्लामी अहकाम व सज़ाओं पर सख़्ती से अमल करते देखा , तो एक गिरोह ने अंदर ही अंदर साज़िशें रचना शुरु कर दीं।
यहाँ तक कि उन्होने मुआविया को चुपके से एक ख़त लिखा जिसमें उसे कुफ़े की तरफ़ बढ़ने पर उकसाया और साथ ही इस बात की भी गारंटी दी कि जैसे ही तुम्हारी फ़ौज इमाम हसन (अ.स) की छाँवनी के क़रीब पहुचेगी , हम इमाम हसन (अ.स) के हाथ बाँध कर तुम्हारे हवाले कर देगें या उन्हे क़त्ल कर देगें।
ख़वारिज भी जो हाशिमी हुकूमत के दुश्मन थे , आपसी इत्तेहाद की वजह से उनकी इस साज़िश में शरीक हो गये। मुनाफ़ेक़ीन के इस गिरोह के मुक़ाबले में , अली (अ.स) के मानने वाले शिया और मुहाजेरीन व अंसार की एक जमाअत थी जो कूफ़े आकर बस चुकी थी , दूसरी तरफ़ वह अख़लाक़ की बुलंदी पर पहुचे बुज़ुर्ग और अटल इरादे वाले लोग थे जिन्होने हर मौक़े पर चाहें वह बैअत की शुरुवात हो या जिहाद का ज़माना जब इमाम ने जिहाद का हुक्म दिया हर मौक़े पर डटे रहे।
इमाम हसन (अ.स) ने जब अपने मुक़ाबले में मुआविया की ज़्यादतीयों और बग़ावत को देखा और उसके ख़तों को पढ़ा तो उसको साज़िशों और ख़ून ख़राबे से रोकने की दावत दी लेकिन मुअविया इमाम हसन (अ.स) के जवाब में हमेशा सिर्फ़ एक ही बात को दलील बनाता कि मैं हुकूमत में तुम से पहले से हूँ और इस मामले में तुम से ज़्यादा तजरबेकार और उम्र में तुमसे बड़ा हूँ और बस।
मुआविया कभी अपने ख़तों में आपकी क़ाबिलीयत का ऐतराफ़ करते हुए लिखता था: मेरे बाद ख़िलाफ़त के हक़दार आप हैं इसलिये कि आपसे बेहतर और मुनासिब कोई नही है और आख़िर में इमाम हसन (अ.स) के दूतों को जो जवाब दिया वह यह था कि वापस चले जाओ। हमारे और तुम्हारे दरमीयान तलवार फ़ैसला करेगी।
इस तरह से ज़्यादती और दुश्मनी मुआविया की तरफ़ शुरु हुई यानी इमाम के ख़िलाफ़ क़त्ल व साज़िश की शुरुवात हुई और मुआविया अपनी साज़िश में कामयाब होते हुए जिस मौक़े की तलाश में था वह उसे हाथ आ गया। उसने ज़मीरफ़रोश और कमज़ोर ईमान वालों को ख़रीदना और उन्हे फ़ायदा पहुचाना शुरु कर दिया।
दूसरी तरफ़ उसने अपनी फ़ौज को जंग की तैयारी का हुक्म दे दिया। इमाम (अ.स) ने भी इन हालात को देखते हुए मुआविया की मक्कारी के मुक़ाबले में बहुत तेज़ी से क़दम उठाया और बाक़ायदा तौर पर जंग का ऐलान कर दिया।
अगर मुआविया की फ़ौज में सोने और जवाहिर के लालची और हुकूमते शाम के पिठ्ठू जंग के लिये तैयार हुए तो दूसरी तरफ़ इमाम हसन (अ.स) की फ़ौज में भी नूरानी चेहरे के मालिक अली (अ.स) के शियाँ मौजूद थे। जैसे हुज्र इब्ने अदी , अबू अय्यूब अँसारी , अदी इब्ने ख़ातम वग़ैरह ऐसे लोग थे जो इमाम हुसैन (अ.स) के क़ौल के मुताबिक़ एक एक इंसान पूरी पूरी फ़ौज पर भारी था।
लेकिन जहाँ बुज़ुर्ग और अज़ीम शख़्सीयतें थी वहीं कुछ सुस्त व अपाहिज लोग भी थे जिन्होने जंग से हाथ खैच कर भरपूर तरह से साज़िशें करने में लग गये और दुनिया की चमक पर फ़िदा हो गये।
इमाम हसन (अ.स) को पहले से ही इन हालात का शक था। इराक़ी फ़ौज की कुल तादाद 3 लाख बयान की गयी है।
इमाम हसन (अ.स) ने मस्जिदे कूफ़ा में एक ख़ुतबा दिया और सिपाहीयों को मज़बूत इरादे के साथ नुख़ैला की तरफ़ बढ़ने का हुक्म दिया। अदी इब्ने ख़ातम इमाम को हुक्म को मानने वाले पहले शख़्स थे जो सबसे पहले घोड़े पर सवार हुए और बहुत से लोगों ने उनकी तरह हुक्म की इताअत की।
इमाम हसन (अ.स) ने अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास को , जो आपके रिश्तेदारों में से थे और जिन्होने सबसे पहले आपकी बैअत के लिये लोगों को तैयार किया था , 12 हज़ार फ़ौज के साथ मसकन नामी जगह जो हाशिमीयों के वफ़ादार थे , की तऱफ़ रवाना किया।
लेकिन मुआविया की साज़िशों और मक्कारीयों ने उन्हे अपने घेरे में ले लिया। इमाम (अ.स) के वफ़ादार और भरोसेमंद कमाँडर को दस लाख दिरहम की पेशकश देकर अपनी फ़ौज में शामिल कर लिया।
इसके नतीजे में 12 हज़ार सिपाहीयों में से 8 हज़ार सिपाही उबैदुल्लाह इब्ने अब्बास के साथ मुआविया के पास अपने दीन को दुनिया के बदले बेच कर चले गये।
उबैदुल्लाह के बाद फ़ौज के क़ैस इब्ने सअद हो गये , मुआविया के सिपाहीयों और मुनाफ़िक़ो ने उनके क़त्ल होने की अफ़वाह उड़ा कर इमाम हसन (अ.स) के सिपाहीयों की रूही ताक़त को कमज़ोर कर दिया।
मुआविया के एजेन्टों का एक गिरोह मदाएन से इमाम हसन (अ.स) के पास मिलने आया उसने भी इमाम हसन (अ.स) से कहा कि इस वक़्त लोगों की राय यह है कि आप सुल्ह कर लें।
दूसरी तरफ़ ख़वारिज में से एक ज़ालिम शख़्स ने आपकी रान पर बल्लम मारा जिससे उसका असर उनकी हठ्ठी तक हुआ और आपकी रान में एक बहुत बड़ा ज़ख़्म हो गया।
बहरहाल इमाम (अ.स) के साथ ऐसे हालात पेश आ चुके थे कि सुल्ह के अलावा और कोई रास्ता नही था। जब मुआविया ने मुनासिब हालात देखे तो उसने फ़ौरन इमाम हसन (अ.स) के सामने सुल्ह का प्रस्ताव दे दिया।
इमाम हसन (अ.स) ने अपने सिपाहीयों से राय व मशविरे की ख़ातिर एक ख़ुतबा दिया और उन सब को जंग व सुल्ह जैसी दो राहों में से एक का इख्तियार दिया। ज़्यादा लोग सुल्ह के तरफ़दार थे। एक गिरोह ने अपनी ज़बान के ख़ंजर से इमाम (अ.स) को तकलीफ़ भी पहुचायी।
आख़िरकार मुआविया ने जो सुल्ह की पेशकश की थी इमाम हसन (अ.स) ने कबूल कर ली , लेकिन इस सुल्ह का मक़सद यह था कि उसमें क़ैद व शर्त व पाबंदी हो , इसलिये कि यह मालूम था कि मुआविया ज़्यादा दिन तक अपने वादे पर बाक़ी रहने वाला नही रह सकता और आईन्दा एक के बाद एक करके शर्त को अपने पैरों तले रौदेंगा।
जिसके नतीजे में उसके नापाक इरादे , वादाख़िलाफ़ी और बेईमानी लोगों पर वाज़ेह हो जायेगी। सुल्ह कबूल करने की एक वजह यह भी थी कि इमाम हसन (अ.स) चाहते थे कि मुआविया जिसका अस्ल मक़सद यह था कि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को क़त्ल करे , नाहक़ खून बहाये। और अली (अ.स) के शियों को ख़त्म करे दे , सुल्ह के ज़रीये वह महफ़ूज़ रहते।
इस तरह इमाम हसन (अ.स) का चेहरा फिर निख़र कर सामने आ गया जिस तरह पैग़म्बरे इस्लाम(सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम) ने इस सिलसिले में पहले ही भविष्यवाणी की थी कि जिस मुस्लेहे अकबर(सर्वश्रेष्ठ शाति प्रिय) के रूप में इस्लाम में उभर कर सामने आयेगें।
मुआविया ने जो सुल्ह की पेशकश की थी उसकी मक़सद दुनिया पा लेने के सिवा कुछ भी नही था और वह यह चाहता था कि हुकूमत पर क़ाबिज़ हो जाये। लेकिन इमाम हसन (अ.स) इस वजह से राज़ी नही हुए बल्कि वजह यह थी कि अपने मज़हब ओर अपने फ़िक्री उसूल को ख़त्म होने से बाक़ी रख सकें और अली (अ.स) के शिया भी क़त्ल होने से महफ़ूज़ रहें।
मुआविया इस बात का ज़िम्मेदार है कि अल्लाह की किताब , रसूललुल्लाह (सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम) की सुन्नत और ख़ुलाफ़ा की नेक सीरत पर अमल करेगा। और अपने बाद किसी को ख़लीफ़ा नही बनायेगा। इमाम हसन (अ.स) और अली (अ.स) की दूसरी तमाम औलादों और उनके शियों पर मुल्क में कहीं भी उनके ख़िलाफ़ कोई साज़िश नही करेगा।
और हज़रत अली (अ.स) पर होने वाले गाली गलौच पर पाबंदी होगी। किसी भी मुसलमान पर ज़ुल्म व ज़्यादती नही करेगा। आपने इन कसमों व वादों पर अल्लाह , उसके रसूल और बहुत से लोगों को गवाह बनाया।
मुआविया बहुत से लोगों के साथ कूफ़े आया ताकि सुल्ह की शर्तें इमाम हसन (अ.स) के सामने पेश हों और तमाम मुसलमानों को इस बात का इल्म हो जाये। लोगों का एक सैलाब कूफ़े की तरफ़ उमड़ पड़ा।
मुआविया ने मिम्बर पर जाकर यह तक़रीर की: ऐ अहले कूफ़ा क्या तुम समझते हो कि मैंने तुम से नमाज़ , रोज़ा व हज व ज़कात के लिये जंग नही की थी , बल्कि मैंने जो तुम से जंग की वह इस वजह से कि तुम पर हुकूमत करू , तुम्हारी हुकूमत की बागडोर अपने हाथों में ले लूँ। ख़ुदा ने मुझे इस मक़ाम तक पहुचा दिया है जबकि तुम इस बात पर ख़ुश नही हो। अब तुम यह बात कान खोल कर सुन लो कि हर वह ख़ून जो इस लड़ाई की वजह से ज़मीन पर बहा है , बे फ़ायदा है और हर वह वादा जो मैंने किसी से किया है , मेरे दोनों पैरों के नीचे है।
इसी तरह वह संधि प्रस्ताव जो उसने लिखा था , जिसकी पेशकश की थी , जिस पर अपनी मोहर लगाई थी उसे अपने दोनों पैरों तले रौंदा और इतनी जल्दी उसने अपने आपको बेइज़्ज़त कर लिया।
उसके बाद इमाम हसन (अ.स) इमामत के अज़मत व वक़ार के साथ जो लोगों की आख़ों को चकाचौंध और उनके ऐहतेराम पर मजबूर कर रही थी , मिम्बर पर आये। और एक इतिहासिक़ ख़ुतबा देते हुए अल्लाह की हम्द व सना और पैग़म्बरे अकरम(स) पर सलवात व सलाम के बाद इस तरह फ़रमाते हैं: ख़ुदा की क़सम मैं यह आरज़ू कर रहा था कि मैं लोगों में सबसे ज़्यादा उनकी भलाई चाहने वाला हूँ। और ख़ुदा का शुक्रगुज़ार हूँ कि मेरे दिल में किसी मुसलमान के लिये कोई नफ़रत नही है। और न ही मैं किसी मुसलमान को बुरा समझता हूँ। उसके बाद फ़रमाया: मुआविया यह समझता था कि मैं उसे ख़िलाफ़त का हक़दार समझता हूँ और ख़ुद को उसके लायक़ नही समझता , वह झूट बोलता है। मैं क़ुरआन मजीद और अल्लाह के रसूल(सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम) के फ़ैसले के मुताबिक़ हुकूमत के लिये सारे लोगों से बेहतर हूँ लेकिन जिस वक़्त पैग़म्बरे इस्लाम(सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम) की वफ़ात हुई। उस वक़्त से मैं लोगों के ज़ुल्म व सितम का शिकार हो गया हूँ।
उसके बाद आपने ग़दीरे ख़ुम और अपने बाप की ख़िलाफ़त छिने जाने और ख़िलाफ़त की गुमराहीयों की तरफ़ इशारा किया और फ़रमाया:
यह गुमराही सबब बनी कि हक़ छिनने वाले आज़ाद हो गये और उनकी औलादें यानी मुआविया और उसके सिपाहीयों ने ख़िलाफ़त के मसले में लालच के काम लिया।
चुँकि मुआविया ने अपनी बातों में हजरत अली (अ.स) को बुरा भला कहा था लिहाज़ा इमाम हसन (अ.स) ने अपना तआरुफ़ कराने के साथ साथ अपने ख़ानदान की शराफ़त बयान करने के बाद मुआविया पर लानत भेजी और मुसलमानों की एक बड़ी तादाद ने मुआविया के सामने आमीन कहा।
इमाम हसन (अ.स) कुछ दिनों के बाद मदीने चले गये और मुआविया इस्लामी हुकूमत को अपने क़ब्ज़े में लेने के लिये इराक़ पहुच गया।
उसने अहले बैत (अ.स) और उनके शियों पर सख़्त तरीन पाबंदीयों व सज़ाओं को जाइज़ क़रार दे दिया।
इमाम हसन (अ.स) ने अपनी दस साला इमामत के दौरान बहुत सख़्त और मुश्किल ज़िन्दगी गुज़ारी जिसमें किसी तरह का कोई सुकून नही था हद तो यह है कि घर में चैन व सुकून नही था। आख़िरकार 50 हिजरी में मुआविया के कहने पर आपको ज़हर देकर शहीद कर दिया।
करीमे अहलेबैत हज़रत इमाम हसन 1
विलादत 2
अलक़ाब 3
खिलाफत 4
इंसानी कमालात 5
बैअत: 9
ज़िन्दगी के तौर तरीक़े: 11
मुआविया की साज़िशे 16
सुल्ह 17
सुल्ह की शर्तें: 20
सुल्हशिकन मुआविया 21
शहादत 24
फेहरीस्त 25