हज़रत सादिक़े आले मोहम्मद (अ.स.) का इल्मुल क़ुरआन
मुख़्तसर यह है कि आपके इल्मी फ़यूज़ व बरकात पर मुफ़स्सल रौशनी डालनी तो दुश्वार है जैसा कि मैंने पहले अर्ज़ किया है। अलबत्ता सिर्फ़ यह अर्ज़ कर देना चाहता हूँ कि इल्मुल क़ुरआन के बारे में दम ए साकेबा पृष्ठ 478 पर आपका क़ौल मौजूद है। वह फ़रमाते हैं कि , ख़ुदा की क़सम मैं क़ुरआने मजीद को अव्वल से आखि़र तक इसी तरह पर जानता हूँ गोया मेरे हाथ में ज़मीन व आसमान की ख़बरें हैं और वह ख़बरे भी हैं जो हो चुकी हैं और हो रही हैं और होने वाली हैं , और क्यों न हो जब कि क़ुरआने मजीद में हैं कि इस पर हर चीज़ अयां है। एक मक़ाम पर आपने फ़रमाया है कि हम अम्बिया और रसूलों के उलूम के वारिस हैं।
इल्मे नुजूम
इल्मे नुजूम के बारे में अगर आपके कमालात देखना हों तो कुतुबे तवाल का मुतालेआ करना चाहिये। आपने निहायत जलील उलेमा ए इल्म अल नुजूम से मुबाहेसा और मुनाज़ेरा कर के अंगुश्त बदन्दां कर दिया है। बेहारूल अनवार मनाक़िबे शहरे आशोब व दमए साकेबा वग़ैरा में आपके मनाज़िरे मौजूद हैं उलेमा का फ़ैसला है कि इल्मे नुजुम हक़ है लेकिन उसका सही इल्म आइम्मा ए अहले बैत के अलावा किसी को नसीब नहीं। यह दूसरी बात है कि हल्क़ा बगोशान मोअद्दते नूरे हिदायत से कसबे ज़िया कर लें।
इल्मे मन्तिक़ुत तैर
सादिके़ आले मोहम्मद (अ.स.) दीगर आइम्मा की तरह मन्तिक़ अल तैर से भी बा क़ायेदा वाक़िफ़ थे। जो परिन्दा या कोई जानवर आपस में बात चीत करता था उसे आप समझ लिया करते थे और ब वक़्ते ज़रूरत उसकी ज़बान में तकल्लुम फ़रमाया करते थे। मिसाल के लिये मुलाहेज़ा हों किताब तफ़सीरे लुबाब अल तावील जिल्द 5 पृष्ठ 113 व मआलम अल तन्ज़ील पृष्ठ 113, अजायबुल क़सस पृष्ठ 105, नूरूल अनवार पृष्ठ 311 प्रकाशित ईरान में है कि सादिक़े आले मोहम्मद (अ.स.) ने क़बरह नामी परिन्दा जिसको चकोर या चनडोल कहते हैं कि बोलते हुए असहाब से फ़रमाया कि तुम जानते हो यह क्या कहता है ? असहाब ने सराहत की ख़्वाहिश की तो फ़रमाया यह कहता है ‘‘ अल्लाहुम्मा लाअन मबग़ज़ी मोहम्मद व आले मोहम्मद ’’ ख़ुदाया मोहम्मद (स अ व व ) व आले मोहम्मद (अ.स.) से बुग़्ज़ करने वालों पर लानत कर। फ़ाख़्ता की आवाज़ पर आपने कहा कि इसे घर में न रहने दो यह कहती है कि ‘‘ फ़क़्द तुम फ़क़्द तुम ’’ ख़ुदा तुम्हें नेस्तो नाबूद करे , वग़ैरा वग़ैरा।
हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) और इल्मुल अजसाम
मनाक़िबे शहरे आशोब और बेहारूल अनवार जिल्द 14 में है कि एक ईसाई ने हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) से इल्मे तिब के बारे में सवालात करते हुए जिस्मे इन्सानी की तफ़सील पूछी। आपने इरशाद फ़रमाया कि ख़ुदा वन्दे आलम ने इन्सान के जिस्म में वसल , 248 हड्डियां और तीन सौ साठ रगें ख़ल्क़ फ़रमाई हैं। रगें तमाम जिस्म को सेराब करती हैं। हड्डियां जिस्म को , गोश्त हड्डियों को और आसाब गोश्त को रोके रखते हैं।
सादिक़े आले मोहम्मद (अ.स.) ने जन्नत में घर बनवा दिया
यह एक मुसल्लेमा हक़ीक़त है कि बेहिश्त पर अहले बैते रसूल (स अ व व ) का पूरा पूरा हक़ व इक़्तेदार है। मुल्ला जामी लिखते हैं कि एक शख़्स ने हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) रवाना ए हज होते हुए कुछ दिरहम दिये और अर्ज़ की कि मैं हज को जाता हूँ मेहरबानी फ़रमा कर मेरी वापसी तक एक मकान मेरी रहाईश का बनवा दीजिए गा या ख़रीद फ़रमा दीजिए गा। जब वह लौट कर आया तो आपने फ़रमाया कि मैंने तेरे लिये जन्नत में एक घर ख़रीद लिया है। जिसके हुदूदे अरबा यह हैं। हुदूदे अरबा बताने के बाद आपने एक नविश्ता दिया और वह घर चल गया। वहां पहुँच कर बीमार हुआ और मरने लगा की कि नविश्ता मेरे कफ़न में रखा जाय। चुनान्चे लोगों ने रख दिया। जब दूसरा दिन हुआ तो क़ब्र पर वही परचा मिला। ‘‘ व बर पुश्त दे नविश्ता ’’ कि ‘‘ जाफ़र बिन मोहम्मद वफ़ा नमूद बा नचे वायदा करदा बूद। ’’ इस परचे की पुश्त पर लिखा हुआ था कि सादिक़े आले मोहम्मद (अ.स.) ने जो वायदा किया था , दुरूस्त निकला और मुझे मकान मिल गया।
दस्ते सादिक़ (अ.स.) में एजाज़े इब्राहीमी
पैग़म्बरे इस्लाम (स अ व व ) की मशहूर हदीस है कि मेरे अहले बैत मेरे अलावा तमाम अम्बिया से बेहतर हैं। इसका मतलब यह हुआ कि जो मोजिज़ात अम्बिया कराम दिखाया करते थे वह आपके अहते बैत भी दिखा सकते थे। यह दूसरी बात है कि उन्हें तहद्दी के तौर पर असबाते नबूवत के लिये दुनिया वालों को दिखाना ज़रूरी था , लेकिन अहले बैत (अ.स.) को ऐसे मोजिज़ात दिखलाना ज़रूरी न हो , लेकिन अगर किसी वक़्त कोई इस क़िस्म का मोजेज़ा तलब करे तो वह शाने इस्लाम दिखलाने के लिये मोजेज़ा दिखला दिया करते थे।
मुल्ला जामी लिखते हैं कि एक शख़्स ने सादिक़े आले मोहम्मद (अ.स.) से पूछा कि हज़रत इब्राहीम (अ.स.) ने चार जानवरों को ज़िन्दा किया था तो वह परिन्दे हम जिन्स थे या मुख़्तलिफ़ अजनास के थे। हज़रत ने ताअज्जुबाना सवाल को सुन कर फ़रमाया , देखो हज़रत इब्राहीम (अ.स.) ने इस तरह ज़िन्दा किया था। यह फ़रमा कर आपने आवाज़ दी ताऊस यहां आ। ग़राब यहां आ। बाज़ यहां आ। कबूतर यहां आ। यह तमाम परिन्दे हज़रत के पास आ गये। आपने हुक्म दिया इन्हें ज़ब्हा कर के इनके गोश्त को ख़ूब पीस डालो। उसके बाद आपने सर हाथ में ले कर एक एक को आवाज़ दी। आवाज़ के साथ गोश्त उड़ा और अपने अपने सर से जा लगा और पहरन्दा फिर मुकम्मल हो गया। यह देख कर सायल हैरान रह गया।
ख़तो किताबत और दरख़्वास्त के बारे में आपकी हिदायत
बिस्मिल्लाह के लिखने का तरीक़ा
हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी चीज़ों के बारे में हिदायत फ़रमाई है। उसूले काफ़ी पृष्ठ 690 प्रकाशित ईरान में है कि जब कुछ भी लिखो तो ‘‘ बिस्मिल्लाह अर रहमान अर रहीम ’’ से शुरू करो और देखो बिस्मिल्लाह को दन्दाने वाले ‘‘ सीन ’’ से लिखना , यानी बे बाद सीन इर तरह लिखना।
दरख़्वास्त लिखने का तरीक़ा
आप फ़रमाते हैं कि दाहेनी तरफ़ दवात रख कर दरख़्वास्त लिखो। इमाम शिब्लंजी नूरूल अबसार प्रकाशित मिस्र के पृष्ठ 133 और अल्लामा मजलिसी हुलयतुल मुत्तक़ीन में लिखते हैं कि सादिक़े आले मोहम्मद (अ.स.) ने फ़रमाया है कि जब कोई दरख़्वास्त दो , और चाहो कि वह ज़रूर मन्ज़ूर हो जाय तो उसके सर नामे पर
बिस्मिल्लाह हिर्ररहमार्निरहीम
‘‘ वआदअल्लाह अल साबेरीन अल मख़रज मिम्मा यकराहून वल रिज़्क़ मिन हैस ला यसतबून जाअलना अल्लाह व इय्या कुम मिनल लज़ीना ला ख़ौफ़ुन अलैहिम वला हुम यह ज़नून ’’ अल्लामा अरबली किताब कशफ़ुल ग़म्मा के पृष्ठ 97 पर इसी तरीक़ा ए तहरीर को लिखते के बाद लिखते हैं कि बर सरे रूक़ा ब क़लम बे मदाद ब नवीस यानी यह इबारत बिला रौशनाई के बर सर दरख़्वास्त लिखनी चाहिये।
ख़त और जवाबे ख़त
उसूले काफ़ी पृष्ठ 690 में है कि ‘‘ क़ाला अल सादिक़ (अ.स.) रद्दे जवाब अल किताब वाजेबून को जोबे रद्देस सलाम ’’ हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) फ़रमाते हैं कि ख़त का जवाब देना इसी तरह वाजिब है जिस तरह सलाम का जवाब देना वाजिब है।
हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की अन्जाम बीनी और दूर अन्देशी मुवर्रेख़ीन लिखते हैं कि जब बनी अब्बास इस बात पर आमादा हो गये कि बनी उमय्या को ख़त्म कर दें तो उन्होंने यह ख़्याल किया कि आले रसूल (स अ व व ) की दावत का हवाला दिये बग़ैर काम चलना मुश्किल है लेहाज़ा वह इमदाद व इन्तेक़ामे आले मोहम्मद (अ.स.) की तरफ़ दावत देने लगे और यही तरीक़ा करते हुए उठ खड़े हुए जिससे आम तौर पर आले मोहम्मद (अ.स.) यानी बनी फ़ात्मा (अ.स.) की मदद समझी जाती थी। इसी वजस से शियाने बनी फ़ात्मा को भी उनसे हमदर्दी पैदा हो गयी थी और वह उनके मद्दगार हो गए थे और इसी सिलसिले में अबू सलमा जाफ़र बिन सुलैमान कूफ़ी आले मोहम्मद की तरफ़ से वज़ीर तजवीज़ किये गये थे। यानी वह गुमाश्ते के तौर पर तबलीग़ करते थे। उन्हें इमामे वक़्त की तरफ़ से कोई इजाज़त हासिल न थी। यह बनी उमय्या के मुक़ाबले में बड़ी कामयाबी से काम कर रहे थे। जब हालात ज़्यादा साज़गार नज़र आये तो उन्होंने इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) और अबू मोहम्मद अब्दुल्लाह इब्ने हसन को अलग अलग एक एक ख़त लिखा कि आप यहां आ जायें ताकि आपकी बैअत की जाय।
क़ासिद अपने अपने खु़तूत ले कर मंज़िल तक पहुँचे , मदीने में जिस वक़्त क़ासिद पहुँचा वह रात का वक़्त था। क़ासिद ने अर्ज़ कि मौला मैं अबू सलमा का ख़त लाया हूँ। हुज़ूर उसे मुलाहेज़ा फ़रमा कर जवाब इनायत फ़रमायें।
यह सुन कर हज़रत ने चिराग़ तलब किया और ख़त ले कर उसी वक़्त पढ़े बग़ैर नज़रे आतिश कर दिया और क़ासिद से फ़रमाया कि अबू सलमा से कहना कि तुम्हारे ख़त का यही जवाब था।
अभी वह क़ासिद मदीने पहुँचा भी न था कि 3 रबीउल अव्वल 132 हिजरी को जुमे के दिन हुकूमत का फ़ैसला हो गया और सफ़ाह अब्बासी ख़लीफ़ा बनाया जा चुका था।
ख़लीफ़ा मन्सूर दवानेक़ी और हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ
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मुवर्रिख़ अबुल फ़िदा लिखता है कि अबुल अब्बास सफ़ाह बिन अब्दुल्लाह अब्बासी ने चार साल छः माह
हुकूमत कर के ज़िल्हिज्जा 136 हिजरी मुताबिक़ 754 ई 0 में इन्तेक़ाल किया और वक़्ते वफ़ात अपने भाई मन्सूर को अपना वली अहद क़रार दिया। जिस वक़्त सफ़ाह ने इन्तेक़ाल किया मन्सूर हज को गया हुआ था। 137 हिजरी में उसने वापस आ कर एनाने हुकूमत संभाल ली।
जस्टिस अमीर अली लिखते हैं कि मन्सूर बनी अब्बासी का वह बादशाह है जिसकी आक़ेबत अन्देशी और दूर बीनी से इस ख़ानदान को इतना क़याम और इस क़द्र इक़तेदार हासिल हुआ कि दुनियावी सलतनत जाने के बाद भी अरसे तक ख़ानदानी वक़ार बाक़ी रहा।
मुवर्रेख़ ज़ाकिर हुसैन लिखते हैं कि मन्सूर मुदब्बिर , मुन्तज़िम , मगर दग़ा बाज़ , बे रहम , शक्की , वसवासी और सफ़्फ़ाक था। जिस पर उसे ज़रा भी शुब्हा होता था कि ज़ात या ख़ानदान के लिये मुज़िर साबित होगा , उसे हरगिज़ ज़िन्दा न छोड़ता था। हज़रत अली (अ.स.) की औलाद के साथ जो ज़ुल्म उसने किये हैं उन्हीं ने अब्बासी तारीख़ के सफ़ों को सब से ज़्यादा सियाह किया है। उसी ने अलवियों और अब्बासियों में अदावत की बीज बोया। बड़ा कंजूस था। एक एक दांग पर जान देता था। इसी लिये उसे दवानेक़ी कहते हैं। हज़रत इमाम हसन (अ.स.) और हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) की औलाद अगरचे जुम्ला दुनियावी उमूर से किनारा कश थी लेकिन उनका रूहानी इक़तेदार मन्सूर के लिये निहायत ही तकलीफ़ देह था और ख़्वाम ख़्वाह उनकी तरफ़ से उसे खटका लगा रहता था। यह सादात से पूरी दुश्मनी करता था। उसने बनी हुसैन (अ.स.) की जायदातें ज़ब्त कीं और बहुत से सादात क़त्ल किये , बहुतों को ज़िन्दा दीवारों में चुनवा दिया। इमाम मालिक को इसी लिये ताज़याने लगवाये की उन्होंने एक मौक़े पर सादात की हिमायत की थी। इमाम अबू हनीफ़ा को इसी लिये क़ैद किया कि उन्होंने इब्तेदा में जै़द शहीद की बैअत कर ली थी। फिर 150 ई 0 में उन्हें ज़हर दिलवा दिया। ग़रज़ कि उसके ज़माने में बेशुमार सादात क़त्ल हुए और बहुत से क़ैद ख़ाने में सड़ गए और ज़िन्दान के ज़हरीले बुख़ारात की वजह से मर गए। हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) के साथ भी उसका रवय्या इसी अन्दाज़ का था हालांकि आपने और आपसे पहले आपके वालिदे माजिद हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़र (अ.स.) ने इसे ब इल्मे इमामत हाकिम होने की ख़ुश ख़बरी दी थी और उस वक़्त उसने उनकी मदह सराई की थी।
मुल्ला जामी और इमाम शिब्लंजी लिखते हैं कि मंसूर अब्बासी का एक मुक़र्रब बारगाह नाक़िल है कि मैंने एक दिन मन्सूर को मुताफक्किर देख कर सबबे तफ़क्कुर दरयाफ़्त किया , मन्सूर ने कहा कि मैंने अलवियों की जमाअते कसीर को फ़ना कर दिया लेकिन उनके पेशवा को अब तक बाक़ी रखा है। मैंने पूछा वह कौन हैं ? मन्सूर ने कहा ‘‘ जाफ़र बिन मोहम्मद (अ.स.) ’’ मैंने अर्ज़ कि जाफ़र इब्ने मोहम्मद (अ.स.) तो ऐसे शख़्स हैं जो हमेशा इबादत और यादे ख़ुदा में मशग़ूल रहते हैं दुनियां से कुछ ताअल्लुक़ नहीं रखते। मन्सूर ने कहा जानता हूँ कि तू दिल से इनकी इमामत का ख़्याल रखता है , मगर मैंने क़सम खाई है कि रात होने से पहले ही इनकी तरफ़ से मुतमईन हो जाऊंगा। यह कह कर जल्लाद को हुक्म दिया कि जब जाफ़र बिन मोहम्मद को लोग हाज़िर करें और मैं अपने सर पर हाथ रखूं तो तू फ़ौरन उनको क़त्ल कर देना। थोड़ी देर के बाद हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) तशरीफ़ लाये , वह उस वक़्त कुछ पढ़ रहे थे। जब मन्सूर की नज़र उन पर पड़ी तो कांपने लगा और इस्तेक़बाल कर के उनको अपनी मसनद पर बिठा लिया उसके बाद पूछा कि या बिन रसूल अल्लाह(अ स ) आपके तकलीफ़ करने की क्या वजह हुई ? उन्होंने फ़रमाया तलब किये जाने पर आया हूँ। मन्सूर ने कहा कि अगर कोई हाजत हो तो बयान कीजिये। हज़रत (अ.स.) ने फ़रमाया , यही हाजत है कि आइन्दा मेरी तलबी न हो , जब मैं चाहूं आऊँ , यह कह कर वहां से चले गए।
मन्सूर अब्बासी की सादात कशी
जब बनी उमय्या की सलतनत का ज़माना ख़त्म हुआ , तो बनी अब्बास की हुकूमत का दौर चला। यह लोग बनी उमय्या से भी ज़्यादा सादात के दुश्मन साबित हुए। इनके ज़माने में तो सादात पर वह तबाही आई कि इसके बयान से बदन पर रौंगटे ख़ड़े होते हैं। इस सिलसिला ए अब्बासिया का दूसरा बादशाह मन्सूर अब्बासी हुआ है। ख़ुदा की पनाह इसके मज़ालिम का क्या ठिकाना है। हज़ारों सय्यदों को इस ज़ालिम ने क़त्ल कराया। इनके खू़न के गारों से दीवारें तामीर कराईं यही नहीं बल्कि बहुत से बेगुनाहों को दीवारों में ज़िन्दा चिनवा दिया। बीखों और बुनियादों में दबवा दिया।। क़ैद ख़ाने में सड़ा सड़ा कर मार दिया। इसके ज़माने में शिया या सय्यदों का शुब्हा हो जाना क़त्ल के लिये काफ़ी था। सब से ज़्यादा तबाही इस ज़ालिम के दौरे सलतनत में हुसैनी सादात पर आई। ख़्याल करो कि नाज़ुक दौर में हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने किस ऐहतियात से अपनी ज़िन्दगी बसर की होगी। ज़ुल्म के बर्दाश्त करने की भी कोई हद होती है। सालहा सालसे ग़रीब सादात एक अजीब बे कसी की हालत में बसर कर रहे थे , आखि़र उनके सीनों भी दिल था और एक बहादुर ख़ानदान का ख़ून रगों में दौड़ा हुआ था। रफ़ता रफ़ता उनको भी जोश आ गया। इमाम हसन (अ.स.) की औलाद में उनके पोते जनाबे अब्दुल्लाह महज़ एक बड़े नेक दिल और जोशीले सय्यद थे। उन्होंने चाहा कि सादात को अब्बासियों के मज़ालिम से किस तरह छुड़ायें। इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) ने उनको इस इरादे से रोकना चाहा मगर उनका जोश कर नहीं हुआ और लोगों को मन्सूर के खि़लाफ़ उभारने लगे। उनके दो बेटे थे। एक का नाम मोहम्मद नफ़से ज़किया और दूसरे का इब्राहीम था। इन दोनों ने इस कोशिश में पूरा हिस्सा लिया। मन्सूर को जब उनके इरादों का हाल मालूम हुआ तो उसने सादाते हुसैनी की गिरफ़्तारी के लिये एक फ़ौज भेजी जिनमें सत्तर पछत्तर आदमी , कमसिन बच्चे , नौजवान और बूढ़े सब शामिल थे , गिरफ़्तार कर लिये गये। लिखा है कि जब यह सित्म रसीदा काफ़िला मदीने से चला तो उनकी बे कसी व मजबूरी , बे गुनाही व बे कसूरी का ख़्याल कर के हर एक अपने मक़ाम पर रोता और बेचैन नज़र आता था। आह वह साहेबाने फ़ज़लो कमाल जो सूरतो सीरत में बे मिस्ल बे नज़ीर थे जिनका एक एक जवान हिम्मत व दिलेरी में तमाम अरब में मशहूर था। गले में तौक़ पहने और हाथों में दोहरी जंजीरें डालें शर्मों हिजाब से गरदने नीचे किये लाग़र ऊंटों की पीठों पर बैठे हुए मदीना ए रसूल (स अ व व ) से निकल रहे थे।
तारीख़े कामिल में है कि जब इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) को कुन्बे की गिरफ़्तारी का हाल मालूम हुआ तो बेचैन हो गये। मस्जिदे रसूल के दरवाज़े पर खड़े थे कि मज़लूम सादात का काफ़ेला इधर से गुज़रा। इमाम (अ.स.) ने जब यह हाल देखा कि किसी के पैर में ज़न्जीर है किसी के गले में तौक़ , किसी की मुश्कें कसी हैं किसी के पैर ऊंट के पेट से बंधे हुए हैं तो आप ज़ार ज़ार रोने लगे और फ़रमाया ख़ुदा की क़सम आज के बाद से हुरमते हरमे ख़ुदा और रसूल महफ़ूज़ न रहेगी। ख़ुदा की क़सम क़ौमे अन्सार से जो मुआहेदा हज़रत रसूले ख़ुदा (स अ व व ) ने लिया था यानी उनकी औलाद और उनकी हिफ़ाज़त को वह भूल गये। ख़ुदा वन्दा तू अन्सार से सख़्त मुआख़ेज़ा करना। हज़रत की परेशानी का उस वक़्त यह आलम था कि रिदाये मुबारक दोशे अक़दस से गिर गई थी। इस वाक़िये का आप पर इतना गहरा असर पड़ा कि आप उसी रोज़ से बीमार पड़ गये और तक़रीबन बीस रोज़ तक तप (बुख़ार) की वह शदीद तकलीफ़ उठाई कि जान के लाले पड़ गये। हज़रत ने चाहा कि अपने चचा हज़रते अब्दुल्लाह महज़ तक जायें और तसल्ली व दिलासा दें मगर एक संगदिल ने वहां तक न जाने दिया।
मोहम्मद नफ़से ज़किया व इब्राहीम
हज़रत अब्दुल्लाह महज़ उस ज़माने में रूपोश हो गये थे और सहराई अरबों का भेस बदल कर रहने लगे थे। चुनान्चे उसी भेस में वह छुप कर एक मंज़िल पर जनाबे अब्दुल्लाह महज़ से मिले। उन्होंने बेटों से कहा कि इस ज़िल्लत की ज़िन्दगी से इज़्ज़त की मौत बेहतर है। मन्सूर उस ज़माने में कूफ़े में था। क़ैदी उसके सामने पेश हुये। चन्द रोज़ बाद ही यह लोग मरने लगे। क़यामत यह आई कि उनके मुरदों को भी क़ैद ख़ाने से बाहर न निकाला गया। वहीं मरते और सड़ते रहे। इससे वहां की हवा और ज़्यादा गन्दी हो गई और एक ऐसी वबा फैली कि हर रोज़ दो चार मरने लगे। हक़ीक़त यह है कि सादात कशी में बनी अब्बास के मज़ालिम बनी उमय्या से भी कहीं ज़्यादा बढ़ गये थे। बनी उमय्या ने अगर ऐसा किया तो गै़र हो कर क़दीमी दुश्मन बन कर यह तो अपने कहलाते थे माले दुनियां की तमा और हुकूमत की हिर्स ने उनकी आखों पर ऐसा परदा डाला कि नेक व बद की तमीज़ बाक़ी न रही और दुनियां के पीछे आख़ेरत को बिल्कुल भूल गये। बहर हाल ग़रीब सादात ने इस क़ैद ख़ाने में बड़ी इबरत नाक हालत में ज़िन्दगी बसर की लेकिन इस हालत में भी ख़ुदा की याद से ग़ाफ़िल न रहे। शबो रोज़ तिलावते कलामे पाक से काम रहता था। क़ैद ख़ाने की तारीकी में दिन के अवक़ात का चूंकि पता न चलता था , इस लिये अपनी तिलावत को पांच हिस्सों में तक़सीम कर दिया था और उन्हीं से अवक़ाते नमाज़ का पता लगाते थे। उनको इस क़ैद ख़ाने में कई कई वक़्त फ़ाके से गुज़र जाते थे और कोई पुरसाने हाल न था बल्कि खाने का क्या ज़िक्र पानी भी ज़रूरत भर न मिलता था।
अब इधर का हाल सुनों , मोहम्मद नफ़्से ज़किया ने बहुत जल्द एक फ़ौज फ़राहम कर के मन्सूर पर चढ़ाई की और मदीने पर क़ब्ज़ा कर लिया मगर चन्द ही रोज़ बाद मन्सूर की फ़ौजों ने फिर आ घेरा। मोहम्मद उनके मुक़ाबले की ताब न ला सके आखि़र शहीद हो गये। उनका सर काट कर के मन्सूर के पास भेज दिया गया। इस ज़ालिम ने इस सर को एक क़ैद ख़ाने में रख कर क़ैद ख़ाने में उनके बूढ़े बाप अब्दुल्लाह महज़ के पास भेज दिया। जनाबे अब्दुल्लाह उस वक़्त नमाज़ पढ़ रहे थे कि सर मुसल्ले के पास रखा गया। नमाज़ से फ़ारिग़ हो कर जब देखा तो जवान बेटे का सर रखा हुआ है। बे साख़्ता एक आह सीने से निकली , सर को छाती से लगा लिया और कहने लगे बेटा , शाबाश तुम बे शक उन्हीं वायदा वफ़ा करने वालों में से हो जिनकी तारीफ़ ख़ुदा ने क़ुरआन में की है। बेटा तुम ऐसे जवान थे कि तुम्हारी तलवार ने तुमको ज़िल्लत से बचा लिया और तुम्हारी परहेज़गारी ने तुम को गुनाहों से महफ़ूज़ रखा। फिर सर लाने वाले से कहा कि मन्सूर से कह देना कि हम तो मक़तूल हो ही चुके , अब तुम्हारी बारी है। अब हमारा और तुम्हारा इंसाफ़ ख़ुदा के यहां होगा। यह कह के एक ठंडी सांस भरी और दम निकल गया।
अब दूसरे भाई यानी इब्राहीम का हाल सुनो , यह भी मुद्दतों इधर उधर घूमते फिरे आखि़र उन्होंने भी एक फ़ौज जमा कर के मिस्र की हुकूमत हासिल कर ली। जिस ज़माने में नफ़्से ज़किया मन्सूर से लड़ रहे थे। उन्होंने भाई की मद्द को आना चाहा , मगर मन्सूर ने रास्ते बन्द कर रखे थे , मुम्किन न हुआ। मोहम्मद पर फ़तेह पाने के बाद मन्सूर ने इब्राहीम का भी ख़ात्मा कर दिया। सूरत यह हुई कि इब्राहीम अपने लशकर को साथ लिये कूफ़े की तरफ़ रवाना हुए। मक़ाम ‘‘ अल अहमरा ’’ में ख़ेमा ज़न थे कि मन्सूर का लशकर भी वहां पहुँच गया। दोनों लशकरों में सख़्त मुक़ाबला हुआ। सैकड़ों आदमी मारे गये। इब्राहीम की फ़तेह के आसार नुमायां हो चुके थे कि यका यक मामेला दिगर गूँ हो गया और इब्राहीम की फ़ौज ने भागते हुए दुश्मन का पीछा किया मगर नेक दिल इब्राहीम को उनकी तबाह हालत पर रहम आ गया , अपने सिपाहियों को ताअक़्कु़ब से रोक दिया। मन्सूर के सरदार ‘‘ ऐनी ’’ ने इस मौक़े से फ़ायदा उठाया और अपनी तितर बितर क़ुव्वत को जमा कर के फिर एक दम हमला कर दिया। इब्राहीम की फ़ौज को इस बलाए नागहानी की क्या ख़बर थी। वह अपनी फ़तेह देख कर अपनी कमरे खोल चुके थे कि शिकस्त खाई दुश्मन की फ़ौज फिर लौट पड़ी। अब इब्राहीम को मुक़ाबला करना दुश्वार हो गया। फ़ौज तितर बितर हो गई। मजबूरन तलवार ले कर ख़ुद मुक़ाबले को निकल पड़े। देर तक हाशमी शुजाअत के जौहर दिखाते रहे। आखि़र कहां तक लड़ते। दुश्मन ने चारों तरफ़ से घेर कर हलाक कर दिया। यह वाक़ेया 25 ज़िक़ादा 145 हिजरी का है। इब्राहीम वह शख़्स थे कि पूरे पांच बरस रूपोश रहे थे और मन्सूर बावजूद इतनी क़ुदरतो ताक़त के किसी तरह उनको गिरफ़्तार न कर सका था।
इब्राहीम और नफ़से ज़किया के क़त्ल होने के बाद भी मन्सूर के मज़ालिम सादात पर कम न हुए। जहां जिसको पाया बिना क़त्ल किये न छोड़ा। उस ज़माने में सादात की वह तबाही हुई कि बयान में नहीं आ सकती। अल्लामा मजलिसी लिखते हैं कि मन्सूर के ज़माने में बे शुमार औलादे अली (अ.स.) शहीद किये गये और बहुतों को दीवार में चिन्वा दिया गया। मन्सूर उस ज़माने में बग़दाद में महल बनवा रहा था। इसमें जहां औरो को ज़िन्दा चिनवा दिया था एक हसीन नौजवान को भी चुनवाया , वह चूंकि बहुत ही हसीनों ख़ूब सूरत था। उसके चेहरे पर मेमार की नज़र पड़ी तो बे साख़्ता उसका दिल रोने लगा। हुक्म से मजबूर था। दीवार में चुनते चुनते उसे मौक़ा मिल गया। बोला कि ऐ फ़रज़न्दे रसूल (अ.स.) आप घबरायें नहीं , मैं सांस के लिये सूराख़ छोड़ देता हूँ और रात को आ कर निकाल लूंगा। चुनांचे वह रात की तारीकी में दीवार के क़रीब आया और ईंटें हटा कर उस ना जवान बाग़े रिसालत को दीवार से निकाल दिया और कहा कि आप सिर्फ़ इतना कीजिये कि इस तरह ज़िन्दा बच कर किसी तरफ़ चले जाइये कि आपका पता निशान न मिल सके और ऐ फ़रज़न्दे रसूल (अ.स.) आप अपने नाना मोहम्मद मुस्तफ़ा (स अ व व ) से मेरी बख़्शिश की सिफ़ारिश फ़रमाईयेगा।
उन्होंने शुक्रिया अदा किया और कहा ऐ शेख़ अगर तुम से हो सके तो मेरी ज़ुल्फ़ों को तराश लो और किसी रात को मेरी दुखिया मां के पास फ़लां महल्ले में जा कर उन्हें मेरी ज़ुल्फ़ें दे कर कह दें कि मैं ज़िन्दा हूँ और अन्क़रीब मिलंूगा। इस मेमार का बयान है कि मैं उनकी ख़्वाहिश के मुताबिक़ उनके मकान पर पहुँचा तो उनकी माँ बैठी रो रही थीं। मैंने उन्हें सुबूते हयात के लिये ज़ुल्फ़ें दे कर नवेदे ज़िन्दगी सुनाई और वापस चला आया।
तवारीख़ में है कि जनाबे नफ़्से ज़किया के शहीद होने के बाद से जहां मज़ालिम का पूरा ज़ोर पैदा हो गया था वहां इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) भी महफ़ूज़ नहीं रह सके। इमाम शब्लन्जी लिखते हैं कि उनको क़त्ल कराने के बाद मन्सूर ने इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) को तलब किया और उनकी सख़्त तहदीद की और क़त्ल की खुले अल्फ़ाज़ मे धमकी दी।
मन्सूर का हज और इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) पर बोहतान तराज़ी हालात की रौशनी में हर बा फ़हम इसका अन्दाज़ा कर सकता है कि हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की ज़िन्दगी किस दौर से गुज़र रही थी और मन्सूर किस ताक में था और किस तरह बहाना तलाश कर रहा था।
तारीख़े हबीबुस सियर में है कि 144 हिजरी में मन्सूर अब्बासी हज के लिये गया। मन्सूर ने हज से फ़राग़त की तो एक शख़्स ने उससे कहा कि इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) तुम्हारे खि़लाफ़ लोगों को भड़काते और उकसाते हैं। उसने इमाम (अ.स.) को बुला कर उनसे कहा कि मुझे ऐसा मालूम हुआ है कि आप मेरी हुकूमत के खि़लाफ़ प्रोपेगन्डा करते और लोगों को उकसाते और भड़काते हैं। आपने इरशाद फ़रमाया , ऐ बादशाह ! यह बिल्कुल ग़लत है और तूझे मेरे कहने पर यक़ीन न आये तो तू उस शख़्स को मेरे सामने तलब कर। मन्सूर ने उसे बुलाया। आपने फ़रमाया कि तूने मुझ पर क्यों बोहतान बांधा हैं ? उसने कहा कि मैंने सच कहा है। इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया कि क्या तू क़सम खा कर कह सकता है ? उसने कहा हां , फिर उसने ख़ुदा की क़सम खाई। आपने कहा इस तरह नहीं जिस तरह मैं कहूँ उस तरह क़सम खा। चुनान्चे आपने फ़रमाया कि अपनी ज़बान से यह कह कर क़सम खा ‘‘ बरत मिन हौल अल्लाह ’’ मैं ख़ुदा की क़ुव्वत व ताक़त से दूर हट कर अपने भरोसे पर क़सम खाता हूँ। उसने पहले तो हल्का सा इन्कार किया फिर वह क़सम खा गया। उसका नतीजा यह हुआ कि उसी जगह गिर कर हलाक हो गया।
इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) का दरबारे मन्सूर में एक तबीबे हिन्द से तबादला ए ख़यालात
अल्लामा रशीद उद्दीन अबू अब्दुल्लाह मोहम्मद बिन अली इब्ने शहरे आशोब माज़न्द्रानी अल मतूफ़ी 588 हिजरी ने दरबारे मन्सूर का एक अहम वाक़ेया नक़ल फ़रमाया है जिसमें मुफ़स्सल तौर पर यह वाज़े किया गया है कि एक तबीब जिसको अपनी क़ाबलियत पर बड़ा भरोसा और ग़ुरूर था वह इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के सामने किस तरह सिपर अन्दाख़्ता हो कर आपके कमालात का मोतरिफ़ हो गया। हम मौसूफ़ की अरबी इबारत का तरजुमा अपने फ़ाज़िल मआसर के अल्फ़ाज़ में पेश करते हैं।
एक बार हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) मन्सूर दवानक़ी के दरबार में तशरीफ़ फ़रमा थे। वहां एक तबीबे हिन्दी तिब की बाते बयान कर रहा था और हज़रत ख़ामोश बैठे सुन रहे थे। जब वह कह चुका तो हज़रत से मुख़ातिब हो कर कहने लगा। अगर कुछ पूछना चाहें तो शोक़ से पूछें। आपने फ़रमाया , मैं क्या पूछूँ , मुझे तुझ से ज़्यादा मालूम है। तबीब अगर यह बात है तो मैं भी कुछ सुनूं। इमाम (अ.स.) जब किसी मर्ज़ का ग़लबा हो तो उसका इलाज ज़िद से करना चाहिये यानी हार , गर्म का इलाज बारद सर्द से , तर का ख़ुश्क से , ख़ुश्क का तर से और हर हालत में अपने ख़ुदा पर भरोसा रखे। याद रख मेदा तमाम बिमारियों का घर है और परहेज़ सौ दवाओं की एक दवा है। जिस चीज़ का इंसान आदी हो जाता है उसके मिजाज़ के मुवाफ़िक़ और उसकी सेहत का सबब बन जाती है। तबीब बे शक आपने जो बयान फ़रमाया है असली तिब यही है। इमाम (अ.स.) यह न समझना चाहिये कि मैंने जो बयान किया है यह तिब की किताबें पढ़ कर हासिल किया है बल्कि यह उलूम मुझको ख़ुदा की तरफ़ से मिले हैं। अब बता तू ज़्यादा इल्म रखता है या मैं ? तबीब मैं। इमाम (अ.स.) अच्छा मैं चन्द सवाल करता हूँ उनका जवाब दे।
1. आंसुओं और रूतूबतों की जगह सर में क्यों है ?
2. सर पर बाल क्यों हैं ?
3. पेशानी बालों से खाली क्यों है ?
4. पेशानी पर ख़त और शिकन क्यों हैं ?
5. दोनों पल्कें आंखों के ऊपर क्यों हैं ?
6. नाक दोनों आंखों के दरमियान क्यों है ?
7. आंखें बादामी शक्ल की क्यों हैं ?
8. नाक का सूराख़ नीचे की तरफ़ क्यो है ?
9. मूंह पर दो होंठ क्यों बनाये गये हैं ?
10. सामने के दांत तेज़ और दाढ़ें चौड़ी क्यों है और उन दोनों के बीच में लम्बे दांत क्यों हैं ?
11. दोनों हथेलियां बालों से ख़ाली क्यों हैं ?
12. मर्दो के दाढ़ी क्यों होती है ?
13. नाख़ून और बालों में जान क्यों नहीं ?
14. दिल सनोबरी शक्ल का क्यों है ?
15. फ़ेफड़े के दो टुकड़े क्यों हैं और वह अपनी जगह हरकत क्यों करता हैं ?
16. जिगर की शक्ल मोहद्दब क्यों है ?
17. गुर्दे की शक्ल लोबिये के दाने की तरह क्यों होती है ?
18. घुटने आगे को झुकते हैं पीछे को क्यों नहीं झुकते ?
19. दोनों पावों के तलवे बीच से ख़ाली क्यों होते हैं ?
तबीब मैं इन बातों का जवाब नहीं दे सकता। इमाम (अ.स.) ख़ुदा के फ़ज़्ल से मैं इन सब सवालों का जवाब जानता हूँ। तबीब ने कहा कि बराऐ करम बयान फ़रमाइये।
इमाम (अ.स.) ने फरमायाः
1. सर अगर आंसुओं और रूतूबतों का मरकज़ न होता तो ख़ुश्की की वजह से टुकड़े टुकड़े हो जाता।
2. बाल इस लिये सर पर हैं कि उनकी जड़ों से तेल वग़ैरा दिमाग़ तक पहुँचता रहे और बहुत से दिमाग़ी अबख़रे निकलते रहें , दिमाग़ गर्मी और सर्दी से महफ़ूज़ रहे।
3. पेशानी बालों से इस लिये ख़ाली है कि इस जगह से आंखों में नूर पहुँचता है।
4. पेशानी में लकीरें इस लिये हैं कि सर से जो पसीना गिरे वह आंखों में न जा पाये। जब शिकनों में पसीना जमा हो तो इंसान उसे पोंछ कर फे़क दे जिस तरह ज़मीन पर पानी जारी होता है तो गढ़ों में जमा हो जाता है।
5. पलकें इस लिये आंखों पर क़रार दी गई हैं कि आफ़ताब की रौशनी इतनी उन पर पड़े जितनी ज़रूरत है और ब वक़्ते ज़रूरत बन्द हो कर आंखों की हिफ़ाज़त कर सके और सोने में मद्द दे सकें। तुम ने देखा होगा की जब इंसान ज़्यादा रौशनी में बलन्दी की तरफ़ किसी चीज़ को देखना चाहता है तो हाथ आंखों के ऊपर रख कर साया कर लेता है।
6. नाक को दोनों आंखों के बीच में इस लिये क़रार दिया गया है कि मजमा ए नूर से रौशनी तक़सीम हो कर बराबर दोनों आंखों को पहुँचे।
7. आंखों को बदामी शक्ल का इस लिये बनाया गया है कि बा वक़्ते ज़रूरत सलाई के ज़रिये से दवा , सुरमा वग़ैरा इसमें आसानी से पहुँच जायें। अगर आंख चकोर या गोल होती तो सलाई का उसमें फिरना मुश्किल होता। दवा उसमें ब ख़ूबी न पहुँच सकती और बीमारी दफ़ा न होती।।
8. नाक का सूराख़ नीचे को इस लिये बनाया कि दिमाग़ी रूतूबतें आसानी से निकल सकें अगर ऊपर को होता तो यह बात न होती और दिमाग़ तक किसी भी चीज़ की बू जल्दी से न पहुँच सकती।
9. होंठ इस लिये मुंह पर लगाये गये कि जो रूतूबतें दिमाग़ से मुंह मे आयें वह रूकी रहें और खाना भी इंसान के इख़्तियार में रहे , जब चाहे फेकें और थूक दे।
10. दाढ़ी मर्दों को इस लिये दी कि मर्द और औरत में तमीज़ हो जाय।
11. अगले दांत इस लिये तेज़ हैं कि किसी चीज़ का काटना सहल हो और दाढ़ों को चौड़ा इस लिये बनाया कि ग़िज़ा पीसना और चबाना आसान हो। इन दोनों के दरमियान लम्बे दांत इस लिये बनाये कि दोनों के इस्तेहकाम के बाएस हों जिस तरह मकान की मज़बूती के बाएस सुतून (खम्बे) होते हैं।
12. हथेलियों पर बाल इस लिये नहीं कि किसी चीज़ को छूने से इसकी नरमी , सख़्ती , गर्मी और सर्दी वग़ैरा आसानी से मालूम हो जाय। बालों की सूरत में यह बात हासिल न होती।
13. बाल और नाख़ूनों में जान इस लिये नहीं कि इन चीज़ों का बढ़ना बुरा मालूम होता है और नुक़्सान देह है , अगर इन में जान होती तो काटने में तकलीफ़ होती।
14. दिल सनोबरी शक्ल यानी सर पतला और दुम चौड़ी (निचला हिस्सा) इस लिये है कि आसानी से फे़फ़ड़े में दाखि़ल हो सके और उसकी हवा से ठंडक पाता रहे ताकि उसके बुख़ारात दिमाग़ की तरफ़ चढ़ कर बीमारियां पैदा न करें।
15. फे़फ़ड़े के दो टुकड़े इस लिये हुए कि दिल उनके दरमियान रहे और वह उसको हवा दें।
16. जिगर मोहद्दब इस लिये हुआ कि अच्छी तरह मेदे के ऊपर जगह पकड़े और अपनी गरानी व गर्मी से ग़िज़ा को हज़म करे।
17. गुर्दा लोबिये के दाने की शक्ल का इस लिये हुआ कि मनी यानी नुत्फ़ा इंसानी पुश्त की जानिब से इसमें आता है और उसके फ़ैलने और सुकड़ने की वजह से आहिस्ता आहिस्ता निकलना है जो सबबे लज़्ज़त है।
18. घुटने पीछे की तरफ़ इस लिये नहीं झुकते कि चलने में आसानी हो अगर ऐसा न होता तो आदमी चलते वक़्त गिर गिर पड़ता , आगे चलना आसान न होता।
19. दोनों पैरों के तलवों के बीच में जगह ख़ाली इस लिये है कि दोनों किनारों पर बोझ पड़ने से आसानी से पैर उठ सकें अगर ऐसा न होता और पूरे बदन का बोझ पेरों पर पड़ता तो सारे बदन का बोझ उठाना दुश्वार हो जाता।
यह जवाबात सुन कर हिन्दोस्तानी तबीब (हकीम , वैद्य) हैरान रह गया और कहने लगा कि आपने यह इल्म किससे सीखा है ? फ़रमाया अपने दादा से उन्होंने रसूले ख़ुदा (स अ व व ) से हासिल किया और उन्होंने ख़ुदा से सीखा है। उसने कहा , ‘‘ इन्ना अशहदो अन ला इलाहा इलल्लाह व अन मोहम्मदन रसूल अल्लाह व अब्दहू ’’ मैं गवाही देता हूँ कि ख़ुदा एक है और मोहम्मद (स अ व व ) उसके रसूल और अब्दे ख़ास हैं। ‘‘ व इन्नका आलमो अहले ज़माना ’’ और आप अपने ज़माने में सब से बडे आलिम हैं।