इब्तेदाईया
(अज़ अलहाज मौलाना सैय्यद ज़ाहिद अहमद साहब क़िब्ला मुजतहिद)
क़ुरआने मजीद मक्का और इस के इर्दगिर्द के इलाक़ों को हरम अमन इलाही की हैसियत से पेश करता है। जैसा कि इरशाद हैः- व मन दखलहू कान आमेना यानी जो इस घर में दाख़िल हुआ हो वह अमन के हिसार में आ गया है।
मुसलमानों के जद बुज़ुर्गवार हज़रत इब्राहीम ((अ.स.) ) ने भी बारगाहे ख़ुदा वन्दी में यह मुतालबा किया था कि रब्बे जअल हाज़ल बलादन आमेना परवर दिगार इस शहर (मक्का) को अमन व अमान की जगह क़रार दे।
अब सवाल यह पैदा होता है कि क्या हरमैन शरीफ़ैन के मौजूदा मुतावल्लियान इस इलाही शरीयत के हक़ीक़ी महाफ़िज़ हैं ? क्या इस्लामी मुमालिक के लीडरान वाक़यी ऐसा अमन व अमान रखते हैं कि इस इलाक़े में रूनुमा होने वाले अहम सियासी व इस्लामी मसाएल के बारे में होने वाले मिल्लते इस्लामिया के हक़ीक़ी नुमान्दों को आलमे इस्लाम के दर्दनांक हालात से आगाह कर सकें और इन्हे लाहए अमल बता सकें ? या फिर इस्लामी जमाअतों के दरमियान सिर्फ़ हम्बली जमाअत वालों को ही बोलने का हक़ है और आला उलूमे इस्लामी व मुअर्रिफ़ के दरमियान सिर्फ़ इब्ने तीमिया व इब्ने क़य्यम और मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के ख़ुशक जामिद अफ़कार ख़यालात ही पेश किये जा सकते हैं क्या सैकड़ों समाजी , सियासी और सक़ाफ़ती मुबाहेस के दरमियान सिर्फ़ ज़्यारत अम्वात एहतेराम आसारे रेसालत और एहतेरामे औलियायी जैसे मौज़ूआत पर ही बहस की जानी चाहिए और क्या वहाबियत के मुख़ालेफ़ीन तकफ़ीर के डंडे से पीटते रहना चाहिए और उन पर लानतो मलामत की बौछार करते रहना चाहिए ? क्या हरामन आमेना का यही मतलब है ? और मैं नहीं जानता कि इन हालात को नज़र में रखते हुए क्या यह कहना ग़लत है कि काबा................... के क़ब्ज़े में हैं।
दरहक़ीक़त तमद्दुनो वहाबियत दीगर इस्लामी फ़िर्क़ों को तकफ़ीर मुसलमानों के दरमियान तफ़रेक़ा की ईजाद आसार वही। रिसालत की नाबूदी और यज़ीद इब्ने माविया जैसे दुनिया के तमाम ज़ालिमों की मावनत की बुनियादों पर क़ायम है। उन के पास जो ख़तीब व मुसन्निफ़ हैं वह सब दरबारी मुल्ला और शाही वाएज़ हैं। यह ऐसे वज़ीफ़े ख़्वार लोग हैं जो अपने आक़ा की सिखायी हुई बातों के अलावा कुछ नहीं जानते। यह बातें ग़ैर मन्तक़ी और ग़ैर बेबुनियाद नहीं हैं। इन बातों की दलील में हक़ायक़ अमीरूल मोमेनीन यज़ीद इब्ने माविया नामी वह बेहूदा किताब पेश की जा सकती है जो सऊदी वज़ारते उलूम की इजाज़त से शाया हुई है और जिस में यज़ीद जैसे फ़ासिक़ व फ़ाजिर इन्सान की भरपूर मदह की गयी है। जिस ने मिन्जनीक की मदद से ख़ाना ए काबा पर संगबारी की थी और अहले मदीना की इज़्ज़तो आबरू और उन के जानों माल को अपने ख़ूंख़ार और दरिंदा सिफ़त सिपाहियों के लिए मोबाह कर दिया था और मदीना क़त्लो ग़ारतगरी का मरक़ज़ बन गया था। इस हक़ीक़त को निगाह में रखते हुए कहा जा सकता है कि इस मुल्क (सऊदी अरब) में एक तरह की आज़ादि ए मुतलक़ और एक तरह की मुकम्मल पाबन्दी व घुटन का बोल बाला है। ऐसी किताबों की नश्र व इशाअत की आज़ादी है जिस में अमवी व अब्बासी ज़ालिंमों और जल्लादों की मदह व सना की गयी हो लेकिन वह किताबें क़तई तौर पर मम्नूं हैं जिनमें अहलेबैत ((अ.स.) ) नुबूवत का दिफ़ा किया गया है और फ़क़त इसकी किताबें ही नहीं बल्कि इस मुल्क की सरहद में दाख़िल होने वालीं हर किताब का एहतेसाब लाज़मी है और सऊदी वज़ारते इत्तेलात की मन्ज़ूरी के बाद ही किसी किताब को इस मुल्क में ले जाया जा सकता है।
अशशिया वत्तशय्यो पाकिस्तान के एक वहाबी मुसन्निफ़ की लिखी हुई किताब है जो सऊदी अरब से शायां हुई है इस किताब के सफ़ा 20 पर शेख़ मोहम्मद हुसैन मुज़फ़्फ़र का एक जुमला नक़ल कर के इसकी ख़ातिर ख़्वाह तफ़सीर की गयी है। ज़ैल में हम दोनों इबारतें नक़ल किये देते हैं ताकि वाज़ह हो जाये कि वहाबी मुसन्नेफ़ीन किस बेशर्मी के साथ लोगों पर शिक्र की तरफ़ दावत देने का इल्ज़ाम आयद करते हैं। मरहूम मुज़फ़्फ़र का बयान है कि त्तशय्यो की इब्तेदा इस से हो गयी जब पैग़म्बरे अकरम स 0 की दावत के साथ ही साथ अबुल हसन हज़रत अली (अ.स.) की पैरवी भी आगे बढ़ी।
पाकिस्तान का यह वहाबी मुसन्निफ़ शेख़ मुज़फ़्फ़र मरहूम के इस जुमले पर तन्क़ीद करते हुए लिखता हैः-
मुज़फ़्फ़र के क़ौल के मुताबिक़ पैग़म्बरे अकरम अली को अपनी नबूवत और रिसालत में शरीक क़रार देते थे।
अगर यह वहाबी मुसन्निफ़ नफ़सियाती ख़्वाहिशात का असीर न होता तो और अपने ज़मीर को वहाबियों के हाथों फ़रोख़्त न कर दिया होता और अगर शिया अक़ाएद की बिल्कुल इब्तेदायी बातों से भी वाक़िफ़ होता तो ऐसा मज़हक़ा ख़ेज़ एतेराज़ कभी न करता।
अगर इस तरह की दावत , शिर्क या नबूवत या रिसालत में शिरकत की दावत क़रार पाती है तो सब से पहले ख़ुद क़ुरआने मजीद ने यह काम अन्जाम दिया है क्योंकि क़ुरआन ख़ुदा और रसूल स 0 की इताअत की दावत के साथ ही साथ ऊलिल अम्र की इतातो पैरवी का भी हुक्म देता है।
अगर इस वहाबी मुसन्निफ़ की बात बिल फ़र्ज़ मुहाल सच मान ली जाए तो इस का मतलब हुआ कि रसूले ख़ुदा स 0 ने लोगों को तौहीद की दावत के बजाय (माज़ अल्लाह) शिर्क की दावत दी है क्योंकि ख़ुदा की इताअत के साथ साथ पैग़म्बरे अकरम स 0 ने बहुक्मे क़ुरआन ऊलिल अम्र की इतात की दावत भी दी है और दुनिया ऊलिल अम्र की कोई भी तौज़ीह करे। हज़रत अली (अ.स.) बहरहाल इस के मिस्दाक़ हैं।
यह हक़ीक़त तमाम आलमे इस्लाम पर रौशन है कि जब पैग़म्बरे अकरम को अपने अज़ीज़ो अक़रबा की दावत का हुक्म दिया गया और आयत नाज़िल हुई तो आप स 0 ने अपने अज़ीज़ो और रिश्तेदारों को बुलाया और इस मजलिस में अपनी नबूवत का ऐलान करते हुए फ़रमायाः-
तुम में से कौन है जो इस काम में मेरी मदद करे और तुम्हारे दरमियान में मेरा भाई , मेरा वसी और मेरा जानशीन बन जाये।
इस मौक़े पर हज़रत अली (अ.स.) के अलावा कोई न उठा , पैग़म्बर ने जुम्ला दो मरतबा इरशाद फ़रमाया लेकिन हज़रत अली (अ.स.) के अलावा किसी ने कोई जवाब न दिया तो आपने बड़ी वज़ाहत के साथ ऐलान कियाः-
तुम्हारे दरमियान यही मेरा भाई है , मेरा वसी , मेरा जानशीन है तुम लोग इस की बातों को सुनों और इसकी इताअतो पैरवी करो।
इस तारीख़ी सनद के मुताबिक़ शिया यह कहते हैं कि जब पैग़म्बर से लोगों को ख़ुदा की वहदानियत और अपनी रिसालत की तब्लीग़ के लिये कहा गया उसी वक़्त उन से ख़िलाफ़ते अली (अ.स.) की दावत के लिए भी कहा गया। चुनान्चे नबी स 0 की नबूवत और अली (अ.स.) की इमामत की दावत साथ ही साथ दी गयी।
मज़कूरा सूरते हाल के तहत क्या शियों के बारे में यह कहना दुरूस्त है कि वह यह कहते हैं कि पैग़म्बरे अकरम से यह कहा गया था कि वह अली (अ.स.) को अपनी नबूवत व रिसालत में शरीक करें।
दरहक़ीक़त शिया अक़ाएद के बारे में सुन्नी मुसन्नेफ़ीन बिलख़ुसूस वहाबियों ने जो किताबें लिखी हैं उन में दो तरह की अहम नक़ाएस पाये जाते हैं।
1 शिया अक़ाएद से नावाक़्फ़ियतः- यह ख़राबी और परेशानी हर दौर में हाकिम रही है और इस का सबब अमवी और अब्बासी जहन्नमी ताक़तों का वजूद था। जो दुनिया ए तसन्नुन की इल्मी महफ़िलों मे शिया अक़ाएद को पेश करने की इजाज़त नहीं देती थीं की दीगर मक़ातिब फ़िक्र की तरह लोग तशीय से भी आगाह हो सकें। वाज़ेह रहे कि अमवी और अब्बासी दौरे हुकूमत में शियों के अलावा हर मकतबे फ़िक्र के लोगों को इल्मी और इबादती मराकिज़ में अपनी बात कहने का हक़ हासिल था और शियों को कभी कभी मक़सूस हालात में इतना कम वक़्त दिया जाता था जो किसी ऐतबार से भी इस मुकातिब के ताअर्रुफ़ के लिये नाक़ाफ़ी होता था।
2. दुनिया ए तसन्नुन की इल्मी महफ़िलों में तालीम व तआलम और दर्स व तदरीस के ऐतबार से एक ऐसा इन्क़ेलाब रूनुमां हुआ जिस के तहत अक़ाएद व इल्म कलाम में नयी और सतही किताबों ने अल मवाक़िफ़ और शरह मक़ासिद जैसी पुरानी और अमीक़ किताबों की जानशीनी हासिल कर ली जिस का नतीजा यह हुआ कि किसी इस्लामी मुल्क में एक शख़्स ऐसा भी नहीं मिलता जो आठवीं सदी हिजरी की इन अहम किताबों का मुतालेआ करे।
इस सतही राह रविश की वजह से ही एहसान इलाही ज़हीर जैसे मुसन्निफ़ को दावते ख़िलाफ़त और दावते नुबूवत के दरमियान कोई फ़र्क़ महसूस नहीं होता और फ़िर्क़ा व तारीख़ जैसे अहम मौज़ू पर लिखी गयी उसकी किताब डालर की मदद से शायां हो जाती है। जबकि मुसन्निफ़ शिया अक़ाएद के अलिफ़ बे से भी वाक़्फ़ियत नहीं रखता।
हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) का इरशाद है किः- अपने दौर के हालात से वाक़िफ़ इन्सान नागवार हवादिस के हमलों से दो चार नहीं होता।
इस उसूल के तहत अहदे हाज़िर में आलमे इस्लाम के तल्क़ और अफ़सोसनाक हवादिस के बारे में इस लिए ग़ौर व फ़िक्र करते हैं ताकि हमें इस्लाम के हक़ीक़ी दुश्मनों का ताअर्रुफ़ हासिल हो जाये।
तक़रीबन सौ साल से ज़्यादा वक़्त और अरसा गुज़र चुका है कि इस्लाम के ख़िलाफ़ फ़िक्री और अक़ीदती जंग जारी है और मशरिक़ व मग़रिब के लशकर अपने मावनीन व अन्सार के साथ इस्लाम के ख़िलाफ़ पूरी तरह सफ़ बस्ता नज़र आते हैं और ऐसा कोई हफ़्ता नहीं गुज़रता जब कि मुख़तलिफ़ अनादीन की तरफ़ से इस्लाम और इस्लामी तालीमात के ख़िलाफ़ कोई किताब शायां न की जाती हो। इस से यह ज़ाहिर होता है कि इस्लामी दुनिया में इस्लाम और तशीय के अलावा कोई दूसरा मसला नहीं है।
इस के अलावा अगर यह किताबें मन्तिक़ी अन्दाज़ में होती तो भी कोई मुज़ाएक़ा नहीं था। इस वक़्त शिया उलमा की यह ज़िम्मेदारी होती कि वह मन्तिक़ी बातों का जवाब देते या उन्हें तसलीम कर लेते लेकिन अफ़सोस तो यह है कि यह किताबें इस्लामी तशय्यो और शिया उलमा के ख़िलाफ़ फ़ोहश और नाज़ेबा बातों से भरी हुई होती हैं और कभी कभी इन में मोहम्मद स 0 व आले मोहम्मद (अ.स.) ख़ुसूसन हज़रत अली (अ.स.) की शाने अक़दस में जसारतें और ग़ुस्ताख़ियां भी हुआ करती हैं।
इस क़िस्म की ग़ैर मन्तिक़ी किताबों के मवल्लेफ़ीन ज़्यादातर तबरी इब्ने कसीर और इब्ने ख़ुलदून जैसी अहम तारीख़ी किताबों में सनद क़रार देते हुए शिया अक़ायद को अब्दुल्लाह इब्ने सबा नामी यहूदी की ईजाद क़रार देते हैं और इस के बाद अपने मक़सद की तकमील के लिये और ईसाई माहिरीन ए उलूमे मशरिक़या मसलन दोज़ी , मिल्लर और हाग़ज़न वग़ैरा से मदद हासिल करते हैं। लेकिन शिया अक़ायद के बारे में शेख़ सद्दूक़ (अलमुतावफ़्फ़ी सन् 381 हिजरी) और शेख़ मुफ़ीद (अलमुतावफ़्फ़ी सन् 413 हिजरी) जैसे नामवर शिया उलमा की तहरीर करदा बातों को क़बूल नहीं करते बल्कि उस के बरअक्स यह कहते हैं कि यह शियों का प्रोपगंडा लिटरेचर है जबकि यह अमरे मुसल्लेमा है। यह फ़रीक़ैन की अहादीस के दरमियान ज़ईफ़ और ग़लत हदीसें भी मौजूद हैं और किसी हदीस या रिवायत को नक़ल करना उसके मज़मून पर एतेक़ाद की अलामत नहीं है क्योंकि अमवी और अब्बासी दौर में अहादिस ही के ज़रिये इस ज़माने के तारीख़ी अक़ाएद में तहरीफ़ और उलट फेर की कोशीश की गयी है। क्या इस तहक़ीक़ी दौर में किसी ऐसी किताब को क़ाबिले ऐतमाद या एतबारे क़रार दिया जा सकता है। जिस की बुनियाद फ़र्ज़ी हदीसों पर हो और जिसके रावी झूठे फ़रेबी और जाली हों ?
शियों और सुन्नियों के माबैन इन इख़्तेलाफ़ी मसायल को हल करने के लिए एक ऐसी इल्मी व इस्लामी अन्जुमन की तशकील मुफ़ीद व मोवस्सिर साबित हो सकती है जिस में मुख़तलिफ़ अफ़कार व ख़यालात को इल्मी और मन्तक़ी अन्दाज़ में पेश किया जा सके।
सरेदस्त वहाबियत और दीगर इस्लामी जमाअतों के दरमियान तौहीद व शिर्क के मुताअल्लिक़ मसाएल में जो इख़तेलाफ़ात पायें जाते हैं उन्हें ख़त्म करने के लिये यह मुनासिब नहीं है कि एक आला सतही इल्मी सेमिनार मुनअक़िद किया जाये और इसमें आज़ादी बयान का एहतेराम किया जाये हो सकता है कि मुख़तलिफ़ अफ़कार व ख़यालात के बाहमी टकराव के नतीजे में कोई ऐसी किरन चमक उठे जिसकी रौशनी में अक़ाएद पूरी तरह वाज़ेह हो जायें।
ज़ेरे नज़र किताब में मोहक़्क़ि बसीर , जनाब फ़रोग़ काज़मी ने इन तमाम मसाएल का तजज़िया किया है। जो वहाबियों और दीगर इस्लामी जमाअतों के दरमियान इख़तेलाफ़ व इन्तेशार का बाएस है। इस के अलावा क़ुरआने करीम और सुन्नते नबवी की रौशनी में इस्लामी नज़रियात को पूरी तरह वाज़ेह करने की कोशिश भी की गयी है।
अल्लाह करे ज़ोरे क़लम और ज़्यादा।
ख़ाक पा ए अहलेबैत
मौ 0 सैय्यद ज़ाहिद अहमद रिज़वी लखनवी
6 अगस्त 1997 ई 0