हर्फ़े आग़ाज़ः
हुज्जतुल इस्लाम मौलाना सैय्यद ज़ाहिद अहमद साहब क़िबला रिज़वी
सेक्रेट्रीः- अमीरूल मोमिनीन ट्रस्ट लखनऊ
उम्मलुम मोमेनीन हज़रत आयशा की तारीख़ी शख़्सियत बड़ी ही अजीब नज़र आती है। मुसलमानों की मां का किरदार इस्लामी मामलात में बड़ा ही मशकूक लगता है क्यों कि उलमा ए अहले सुन्नत ने अपनी तारीख़ी और सीरत की किताबों में जो वाक़ियात रक़म किये हैं वह ख़ुद मौसूफ़ के तलव्वुन मिजाज़ होने का एलान कर रहे हैं।
हज़रत आयशा की अज़्दवाजी ज़िन्दगी के हालात भी मुख़तलिफ़ नज़र आते हैं । मिजाज़ का चिड़चिड़ापन हादिसाना रवय्या और अक़वालों अफ़आल का इख़तिलाफ़ बड़ी शद्दोमद से दिखाई देता है।
अक़वाल का इख़तिलाफ़ हज़रत उस्मान के क़त्ल के वाक़िए में यूं नज़र आता है कि जो मोहतरमा क़त्ल से पहले कह रहीं थीं कि इस नअस्ल को क़त्ल कर दो ये काफ़िर हो गया है क़त्ल के बाद अपना अन्दाज़ यह कहकर बदल देती हैं कि उस्मान मज़लूम क़त्ल किये गये।
मोहम्मद बिन अबीबक्र को जब माविया की साज़िश से मिस्र में क़त्ल कर दिया गया और उसकी लाश को ख़च्चर की खाल में लपेट कर नज़्रे आतिश कर दिया गया तो इन बीबी ने माविया के लिए बद दुआ शुरू कर दी मगर जब इमाम हसन (अ.स) को माविया के भेजे गए ज़हर से शहीद किया गया तो इन्ही ख़ातून ने बनी उम्मया की मदद से इमाम हसन (अ.स) के जनाज़े को रसूल (स.अ.व.व) के रौज़े में दफ़्न न होने दिया और मरवान ने जनाज़े पर तीर बरसाये।
मुसलमानों की तलव्वुन मिजाज़ माँ जब अपने शौहरे नामदार हज़रत पैग़म्बर (स.अ.व.व) से नाराज़ होती तो बरजस्ता कहतीं कि क्या आप यह गुमान करते हैं कि मैं अल्लाह का रसूल हूँ ? इस क़ौल के बाद सीरत की किताबों में रसूले मक़बूल से मोहतरमा की मोहब्बत का बयान भी कुछ अजब अन्दाज़ का मिलता है।
हज़रत फातेमा (स.अ) के सिलसिले में मोहब्बत भरे अल्फ़ाज़ भी तारीख़ में मिलते हैं मगर अमलन फातेमा (स.अ) को अज़ीयत देना भी मिलता है। हज़रत ख़दीजा (स.अ.) के ज़िक्र पर चराग़पा होना और हज़रत अली (अ.स) से अमलन बरसरे पैकार रहना भी किताबों में ख़ूब नज़र आता है।
हज़रत अली (अ.स) से आम मुसलमानों की बैअत के बाद इन ख़ातून का मक्काए मोअज़्ज़मा से तल्हा और ज़ुबैर के साथ लशकर जमा कर के निकलना और फिर यह कहना कि मैं मुसलमानों के दो फ़िरक़ों में सुलह करना के लिए निकली थी , यह अमल का तज़ाद नहीं तो और क्या है ? अगर सुलह कराना थी तो मक्के की मुक़द्दस सरज़मीन सब से बेहतर थी , वहीं मुसलमानों को जमा कर के सुलह करा देतीं या फिर मदीने जा कर क़बरे रसूल (स.अ.व.व) के नज़दीक सब को इकट्ठा कर के सुलह का हुक्म देतीं।
मिज़ाज के चिड़चिड़ेपन का यह आलम था कि जंगे जमल में जंग के ख़ात्मे के बाद जब हौदज के क़रीब जा कर अम्मारे यासिर ने अम्मा कहकर सलाम किया तो अम्मार से कहा कि मैं तुम्हारी मां नहीं हूं जब कि अम्मार का क़ुसूर यह था कि वह अली (अ.स) के लशकर में शरीक थे , और अम्मां , अम्मार से इस लिए ख़फ़ा थीं कि उनकी वजह से अम्मां के लशकर को लड़ने में मुश्किल पेश आ रही थी कि कि कहीं अम्मार क़त्ल ना हो जाएं क्यों कि अम्मार के लिए रसूल (स.अ.व.व) ने फ़रमाया था कि ऐ अम्मार तुम्हें बाग़ी गिरोह क़त्ल करेगा।
यह वाक़ियात और बहुत से वाक़ियात तारीख़ की मुख़तलिफ़ किताबों में भरे पड़े हैं मगर उर्दू ज़बान में न होने के बारबर थे। मुहक़िक़्क़े बसीर जनाब फ़रोग़ काज़मी ने उर्दू ज़बान में उम्मुल मोमिनीन हज़रत आयशा की तारीख़ी हैसियत लिख कर ये कमी पूरी कर दी। मौसूफ़ ने यह किताब लफ़्फ़ाज़ी पर मबनी दास्तान के तौर पर नहीं लिखी बल्कि ठोस तारीख़ी हवालों और मज़बूत दलीलों के साथ बड़ी मेहनत से वाक़िआत को इकट्ठा किया है जिसकी वजह से किताब का मुतालिआ करने वाला कोई शख़्स भी यह शिकवा नहीं कर सकता कि किताब में किसी की दिल आज़ारी की गयी है।
फ़रोग़ साहब की शायरी में जानी पहचानी शख़्सियत तो बहुत पहले से थी मगर एक मुअल्लिफ़ की हैसियत से किताब तफ़सीरे कर्बला लिखने के बाद पहचाने गये और किताब अलमुर्तज़ा के जवाब में अलख़ुलफ़ा की दो जिल्दें तालीफ़ कीं जिससे उनकी यह सलाहियत और भी आशकार हुई। अलखुलफ़ा ने दुशमनाने अहलेबैत (अ.स) को यह यक़ीन दिलाया कि शिओं में अभी मज़बूत क़लम के ऐसे बा सलाहियत अफ़राद बाक़ी हैं।
फ़रोग़ साहब की चौथी किताब हज़रत आयशा की तारीख़ी हैसियत के नाम से मन्ज़रे आम पर आ रही है जिसके पढ़ने के बाद ये अन्दाज़ा होगा कि इस किताब की तालीफ़ में मौसूफ़ को कितनी मुश्किलात का सामना करना पड़ा क्यों कि यह किताब ऐसी ज़ात के सिलसिले में लिखी गयी है जिन्हें ज़ौजियते रसूल (स.अ.व.व) का शरफ़ भी हासिल है लिहाज़ा इसका पास रखना भी इन्हीं मुश्किलात में से एक मुश्किल है और फिर मुसलमानों की माँ हैं इसका ख़्याल भी हर वक़्त रखना पड़ा। बहरहाल इस किताब में अम्मां के हालात रक़म कर के फ़रोग़ साहब ने एक बहुत बड़ी ज़रूरत को पूरा कर दिया है।
यहां यह बात भी वाज़ेह करना ज़रूरी है कि शायद कुछ लोग इस किताब के सिलसिले में यह कहें कि ऐसी किताब शाया कर के इत्तिहादे बैनुल मुसलिमीन को नुकसान पहुंचाया। यह ख़्याल उस वक़्त सही नज़र आता जब फ़रोग़ साहब ने मोहतरमा के सिलसिले में अपने ख़्यालात रक़म किए होते। मौसूफ़ ने तो मुसलमानों की मोतबर किताबों के हवाले से वाक़ेयात रक़म किए हैं लिहाज़ा यह ख़्याल उन मोतबर किताबों के मुसन्नेफ़ीन को करना चाहिए था जिसमें ख़ुद इमाम बुख़ारी भी शामिल हैं। तारीख़ी हक़ाहक़ पेश करने से इत्तिहाद को नुक़सान नहीं पहुंचता बल्कि ग़लत फ़हमियां दूर होती है।
ये किताब बहुत पसन्द की जाएगी और इसका हर घर में होना बहुत ज़रूरी है ताकि हक़ाइक़ से वाक़फ़ियत हो सके।
किताब की तबाअत का काम बड़ा दुशवार गुज़ार मरहला होता है और क़दम क़दम पर ज़रे कसीर की ज़रूरत होती है और मुश्किलात का सामना इस मरहले पर मौलाना अली अब्बास साहब तबातबाई के हौसले की दाद देना भी ज़रूरी है जिन्होंने क़ौम के लिए बहुत नायाब किताबें शाए कर के कारेनुमायां अन्जाम दिया है। अब अरबाबे क़ौम का फ़र्ज़ है कि वह मुअल्लिफ़ीन और नाशिरीन की हौसला अफ़ज़ाई फ़रमाएं और इस अज़ीम कारे ख़ैर में हिस्सा ले कर सवाबे अज़ीम हासिल करें। अफ़रादे क़ौम किताबें ख़ुद अपने लिए और दोस्तों को तोहफ़ा देने के लिए भी।
आख़िर में मेरी दुआ है कि ख़ुदा वन्देआलम फ़रोग़ काज़मी साहब के ज़ोरे क़लम में और इज़ाफ़ा करे और उनकी पांचवीं किताब तफ़सीरे इस्लाम बहुत जल्द तहरीर की मन्ज़िलों से गुज़रकर मन्ज़रे आम पर आ जाए। जिस से एक अहम ज़रूरत भी पूरी हो जाए।
वस्सलामः
ख़ाके पाए अहलेबैत (अ.स)
ज़ाहिद अहमद रिज़वी
सेक्रेट्री इदाराए अमीरूल मोमिनीन (अ.स)
लखनऊ