हज़रत आयशा
अहादीस , रवायत और तारीख़ के मजाज़ी परदों में लिपटी हुई उम्मुल मोमिनीन हज़रत आयशा की तहदार और पुरअसरार शख़्सियत आलमें इस्लाम में तअर्रूफ़ की मोहताज नहीं। हर शख़्स जानता है कि आप ख़लीफ़ा ए अव्वल ( हजऱत अबू बक्र) की तलव्वुन मिज़ाज बेटी और पैग़म्बर इस्लाम हज़रत मोहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम की ग़ुस्ताख़ और नाफ़रमान बीवी थीं। आपकी निस्वानी सरिश्त में रश्क , हसद , जलन , नफ़रत , अदावत , ख़ुसूमत , शरारत , ग़ीबत , ऐबजुई , चुग़लख़ोरी , हठधर्मी , ख़ुदपरस्ती , कीनापरवरी और फ़ित्ना परदाज़ी का उनसुर बदर्जा ए अतम कारफ़रमा था।
रसूल (स.अ.व.व) की ज़ौजियत और ख़ुल्के अज़ीम की सोहबत से सरफ़राज़ होने के बावजूद आपका दिल इरफ़ाने नबूवत से ख़ाली और ना आशना था आपकी निगाहों में नबी और नबूवत की क़द्रो मन्ज़िलत यह थी कि जब आप पैग़म्बर से किसी बात पर नाराज़ हो जाती और आपका पारा चढ़ जाता तो पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व) को नबी कहना छोड़ देती , बल्कि इब्राहीम का बाप कहकर मुख़ातिब किया करतीं थीं।( 1)
जसारतों और ग़ुस्ताख़ियों का यह हाल था कि एक बार आपने झगड़े के दौरान पैग़म्बर (स.अ.व.व) से यह भी कह दिया किः-
आप ये गुमान करते हैं कि मैं अल्लाह का नबी हूं।( 2) (मआज़ अल्लाह)
नबी को नबी न समझने वाली या नबी की नबूवत में शक करने वाली शख़्सियत क्या इस्लाम की नज़र में मुसलमान हैं ? इसका फ़ैसला मोहतरम कारेईन ख़ुद फ़रमा लें , क्यों कि बात साफ़ और वाज़ेह है।
बहरहाल हज़रत आयशा के बारे में तारीख़ हमें बताती है कि अज़वाज की सफ़ में क़दम क़दम पर पैग़म्बर (स.अ.व.व) के लिए कर्ब अज़ीयत और कशमकश की दीवारें खड़ी करना आपका मशग़ला और मामूल था जिसमें हज़रत हफ़सा बिनते उमर आपकी मुईनो मददगार और साहिमों शरीक थीं चुनान्चे एक बार इन दोनों फ़रमाबरदार बीवियों ने आपस में साज़बाज़ कर के आं हज़रत (स.अ.व.व) के ख़िलाफ़ ऐसा बेहूदा मनसूबा तैयार किया जिस से तंग व परेशान हो कर सरकारे दो आलम (स.अ.व.व) ने अल्लाह के हलाल अम्र को अपने ऊपर हराम कर लिया और यह कर्बनाक , सिलसिला एक मुअय्यना मुद्दत तक क़ायम रहा जैसा कि बुख़ारी में मरक़ूम हैः-
रसूलल्लाह (स.अ.व.व) ने एक माह तक अज़वाज से कोई रब्तो ताल्लुक़ नहीं रखा और अलाहिदा चटाई पर सोते रहे। ( 1)
यहां तक कि ख़ुदा को अपने हबीब (स.अ.व.व) से पूछना पड़ाः-
ऐ नबी तुमने अपने ऊपर उस चीज़ को क्यों हराम कर लिया है जिसे तुम्हारे परवरदिगार ने तुम पर जाएज़ रखा है क्या तुम अपनी बीवियों की मर्ज़ी चाहते हो ? (तहरीम - 1)
इस वाक़िये से सहाबा में यह ख़बर मशहूर हो गयी कि हुज़ूर ((स.अ.व.व)) ने अपनी अज़वाज को तलाक़ दे दी है ( 2) हालांकि यह ख़बर ग़लत और बेबुनियाद थी सिर्फ़ आयशा और हफ़सा के बारे में अल्लाह का यह इरशाद थाः-
ऐ रसूल उन दोनों में जिसे चाहें आप (अपनी ज़ौजियत से) अलाहिदा कर दें और जिसे चाहें अपनी पनाह में रखें। (अहज़ाब – 50)
मगर उम्मुल मोमिनीन को मोमिनीन के परवर दिगार की यह बात सख़्त नागवार गुज़री चुनान्चे आप तड़प कर उठीं , पैग़म्बर (स.अ.व.व) की ख़िदमत में हाज़िर हुई और गुस्ताख़ आमेज़ लहजे में फ़रमायाः-
मैंने अल्लाह को आप ही की नफ़सानी ख़्वाहिशात के बारे में ताजील (जल्दी) करते देखा। ( 1)
आयशा की ग़ुस्ताख़ी और बेअदबी पर क़ुदरत का अन्दाज़े गुफ़तुगू बदला और आयत इन अल्फ़ाज़ में नाज़िल हुईः-
अगर तुम दोनों (आयशा , हफ़सा) मेरे रसूल (स.अ.व.व) की मुख़ालिफ़त में एक दूसरे की मदद करती भी रहो तो कुछ परवा नहीं ख़ुदा जिब्रील , मलाइक और सालेहुल मोमिनीन उसके मुईनो मददगार हैं। (तहरीम - 4)
और यह तम्बीह भी कर दीः-
तुम दोनों अपनी हरकतों से बाज़ आओ और तौबा करो क्यों कि तुम्हारे दिलों में कजी पैदा हो गयी है। (तहरीम)
फिर आख़िर में यह सख़्त वार्निंग भी दे दीः-
अगर मेरा हबीब (स.अ.व.व) तुम्हे तलाक़ भी दे देगा तो मैं उसे तुम से बेहतर बीवियां अता करूगां जो ईमानदार , मुतीअ , इबादतगुज़ार और तौबा करने वालियां हो। (तहरीम)
ख़लीफ़ा ए सानी उमर इब्ने ख़त्ताब का क़ौल है कि ये आयतें आयशा , हफ़सा के लिए नाज़िल हुई हैं।( 2) और मेरा क़ौल है कि सूरा ए तहरीम आयशा , हफ़सा पर एताब बन कर नाज़िल हुआ है नीज़ आख़िरूज़्ज़िक्र आयत से यह सराहत भी होती है कि अरब के मुस्लिम मोआशरे में उस वक़्त आयशा , हफ़सा से बदरजहा बेहतर , हसीनो जमील और ख़ूब सूरत औरतें मौजूद थीं जो ईमानदार , मुतीअ , फ़रमाबरदार , इबादतगुज़ार और तौबा करने वालियां भी थी।
जब कि अल्लाह की निगाह मे आयशा , हफ़सा इन सिफ़ात से मुत्तसिफ़ नहीं थी।
सूरा ए तहरीम अक़ीदत मन्दाने आयशा के इस ख़्याल की भी तरदीद करता है जो इस खुश फ़हमी में मुबतिला है कि वह हिसाब किताब के बग़ैर सीधी जन्नत में चली जाएगीं क्यों कि वो रसूल (स.अ.व.व) की बीवी थीं।
इसी सूरे की दसवीं आयत में परवरदिगार ने नूह (अ.स) और लूत (अ.स) की बीवियों की मिसाल से यह सराहत फ़रमा दी कि आमाले सालेहा के बग़ैर महज़ ज़ौजियत का शरफ़ औरत को कोई फ़ैज़ नहीं पहुंचा सकता ख़्वाह उसका शौहर नही या रसूल ही क्यों न हो। चुनान्चे इरशाद हुआः-
ये दोनों (नूह और लूत की बीवियां) हमारे (नेक) बन्दों के तसर्रूफ़ में थीं लेकिन इन्होंने अपने शौहरों से दग़ा की तो इन के शौहर (इताबे ख़ुदा के सामने) इनके कुछ काम न आए और इन दोनों को हुक्म हुआ कि जहन्नम में जाने वालों के साथ तुम भी दाख़िल हो जाओ। (तहरीम – 10)
इस आयत से यह मस्अला भी साफ़ हो जाता है कि नबी की बीवियां दग़ाबाज़ और फ़रेबकार भी हो सकती हैं। अलबत्ता वह औरतें जो मुतीअ , फ़रमाबरदार , मोमिना , इताअतगुज़ार और इबादतगुज़ार हैं या वह जो आमाल ए सालेहा की अमीन है उन के लिए ख़ुदा वन्दे आलम ने आसिया (फ़िरऔन की बीवी) की मिसाल के साथ उसका क़ौल भी नक़ल किया है। ( 1) और दूसरी मिसाल मरियम बिन्दे इमरान की पेश करते हुए इरशाद फ़रमायाः-
मरियम ने अपने नामूस को महफ़ूज़ रखा तो हम ने उस में अपनी रूह फूंक दी और उस ने अपने परवरदिगार की बातों और उस की किताबों की तसदीक़ की और वह फ़रमाबरदारों में थी। (तहरीम - 12)
सूरा ए तहरीम में........................... अगर एक तरफ़ अल्लाह की जानिब से आयशा , हफ़सा पर एताब का तसलसुल है तो दूसरी तरफ़ मोमिना , सालिहा और फ़रमाबरदार औरतों की तसल्ली व तशफ़्फ़ी का सामान भी फ़राहम किया गया है। अगर एक तरफ़ क़समों के कफ़्फ़ारे तौबतुन नुसूह का तज़किरा है तो दूसरी तरफ़ कफ़्फ़ारे की तशबीह और जिहाद वग़ैरह का हुक्म भी है लेकिन इन तमाम बातों के बावजूद ऐसा लगता है कि इस सूरे का पूरा पसमन्ज़र पैग़म्बरे इस्लाम की ख़ानगी और अज़्दवाजी ज़िन्दगी से वाबस्ता और मरबूत है।
ज़ाहिर है कि सरवरे काएनात सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम की पहली शादी शहज़ादिए अरब हज़रत ख़दीजतुल कुबरा (स.अ.) से हुई और उन की हयात में आपने कोई दूसरा अक़्द नहीं फ़रमाया। पच्चीस साल के बाद......... जब आपकी उम्र पचास बरस की थी तो मौत के हाथों ने इस पुर अज़मतो बाविक़ार ख़ातून और वफ़ादारो फ़रमाबरदार बीवी को आप से जुद कर दिया। इस आलमनाक हादसे के बाद सिर्फ़ तेरह बरस और आप इस दुनिया में ज़िन्दा रहे इसी तेरह बरस के अर्से में आपने यके बाद दीगरे पन्द्रह अज़वाज को अपने अयवाने ज़िन्दगी में दाख़िल किया इन औरतों में कुछ कनीज़े कुछ मुतलक़ा और बक़िया सारी औरतें बेवा थीं।
इन मुसलसल व मुतवातिर शादियों का मक़सद वह हरगिज़ नहीं था जो आम तौर पर किसी औरत के लिए किसी मर्द के दिल में होता है।
बल्कि हक़ीक़त यह है कि यह तमाम शादियां मसलिहते इलाही और बसीरते नब्वी का नतीजा थी , क्यों कि आं हज़रत दीनी पेशवा और मज़हबी रहनुमा होने के अलावा एक उभरती हुई इस्लामी सलतनत के सरबराह व ताजदार भी थे इस लिए इस्लाम के तब्लीग़ी उमूर में आसानियों और सहूलियतों के पेशे नज़र आप अरब के मुख़तलिफ़ व बाअसर क़बीलों में अज़्दवाजी रिश्ते क़ायम कर के उनकी काफ़िराना व मुशरेक़ाना सरिश्त पर मुहरे हिदायत सब्त करना चाहते थे। दूसरे यह कि आप चूंकि इन्सानियत के अलमबरदार और हुक़ूक़े बशरी के मुहाफ़िज़ भी थे इस लिए मर्दों के हुक़ूक़ में इर्तिकाई जिद्दोजहद के साथ साथ अपने ईसारो अमल के ज़रिए औरतों के हुक़ूक़ और निसवानी वक़ार को इतना सरबलन्द , मोहकम और पायदार कर देना चाहते थे कि आपके बाद आने वाला ज़माना औरतों को ज़लील , पस्त और कमतर समझने या उसके हुक़ूक़ पामाल करने की कोशीश न करे।
अगर आपको इलाही मसलेहतों के साथ साथ मोहताज कनीज़ों , लावारिस बेवाओं , और ग़रीबों नादार औरतों का ख़्याल या उनके हुक़ूक़ का पासो लिहाज़ न होता तो शहज़ादी ख़दीजा (स.अ.) के बाद आप हर्गिज़ दूसरा अक़्द न फ़रमाते। अपनी पुरआलाम और मशग़ूल तरीन ज़िन्दगी के आख़िरी तेरह साला दौर में आपने मुसलसल व पै दर पै शादियां कर के औरत के लिए शरई व क़ानूनी बदबन्दी की। अज़्दवाजी रिश्ते के तक़द्दुस का ऐलान किया और आदलों मसावत का एक ऐसा निज़ाम दुनिया वालो के सामने पेश किया जिसके बाद क़यामत तक किसी क़ानून या किसी निज़ाम की ज़रूरत न महसूस हो। हुज़ूर (स.अ.व.व) के फ़र्ज़े मनसबी का तक़ाज़ा भी यही था।
पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व) ने अपनी अज़वाज के लिए अलग अलग हुजरे बनवा दिए थे और उनकी बारी के दिन भी मुक़र्रर फ़रमा दिए थे ताकि हर एक के पास एक एक रात बसर हो सके और किसी की हक़ तल्फ़ी न हो लेकिन इन अज़वाज से आपको वह सुकून , वह इतमिनान , वह सुख , वह चैन , वह आराम , वह राहत , वह शादमानी और वह कामरानी न मिल सकी जो अपनी महरहूमा बीवी हज़रत ख़दीजा से मिली थी यही वजह थी कि आप उठते बैठते और सोते जागते जनाबे ख़दीजा (स.अ.) का ज़िक्र इस अन्दाज़ से करते कि आपकी आंखे नम हो जातां।
ख़ुल्के अज़ीम की ज़बाने मुबारक पर अपनी मरहूमा बीवी का तज़किरा इस बात की मुहकम दलील है कि उन्होंने अपने अज़ीम शौहर के दिल पर मकारमे अख़लाक़ व हुस्नों किरदार , सच्ची , पुरख़ुलूस और ग़ैरेफ़ानी मोहब्बत ईसरो क़ुरबानी , अताअतों फ़रमाबरदारी और महबूबियत के जो नुकूश पच्चीस साल की ज़ौजियत व रिफ़ाक़त के दौरान मुरत्तब किए वो मिटाए न मिट सके और पन्द्रह बीवियों की मजमूई ख़िदमतें इन नुकूश के मुक़ाबले में एक नक़्श भी मुरत्तब न कर सकीं।
पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व) की ज़बान से ख़दीजा का ज़िक्र सुनकर दीगर अज़्वाज के दिलों पर क्या गुज़रती तारीख़ चुप है , मगर आयशा व हफ़सा के बारे में तारीख़ का यह ऐलान है कि हज़रत ख़दीजा के नाम से उन पर रश्को हसद की बिजलियां गिर पड़ती जैसा कि बुख़ारी किताबुन्निसा में ख़ुद आयशा के बयान से ज़ाहिर हैः-
मैं रसूलल्लाह (स.अ.व.व) की किसी बीवी से इतना नहीं जलती जितना ख़दीजा से , क्यों कि रसूलल्लाह उठते बैठते उनकी तारीफ़ किया करते थे और इसी बुख़ारी बाबे मनाक़िबे ख़दीजा में आयशा ही से ये रवायत भी हैः-
मैंने पैग़म्बर की अज़्वाज में किसी पर इतना रश्क नहीं किया जितना की ख़दीजा पर हालां कि मैंने ख़दीजा को देखा ही नहीं लेकिन पैग़म्बर हर वक़्त उनका तज़किरा करते और जब गोसफ़न्द ज़िबह करते तो गोश्त के हिस्से उनकी सहेलियों में तक़सीम करते( 1)
बुख़ारी ही में हज़रत आयशा से ही यह रवायत भी हैः-
ख़दीजा की भांजी हाला ने पैग़म्बर की ख़िदमत में बारयाबी की इजाज़त चाही उनकी आवाज़ और लबो लहजा ख़दीजा से बिल्कुल मिलता था सुन कर आप बेचैन हो गये। इस बेचैनी पर मुझे बेहद रश्क हुआ। मैंने कहा , आप कुरैश की बुढ़ियों में उस बुढ़िया को याद करते हैं जिसकी बाछें सुर्ख़ थीं और जो मौत से हमकिनार हुई। ख़ुदा ने आपको इस से बेहतर बीवियां अता की हैं।
काश बुख़ारी ज़िन्दा होते और मैं उनसे ये पूछता कि आपने बाबे मनाकिबे ख़दीजा में उम्मुल मोमिनीन का यह क़ौल नक़्ल किया है कि मैंने ख़दीजा को नहीं देखा। और रवायते बाला में आप ही आयशा का यह क़ौल भी नक़्ल फ़रमाते हैं कि वह सुर्ख़ बाछों व ली थी.............. आख़िर क्यों ?
इन दोनों अक़्वाल में कौन सा क़ौल सही है और कौन सा ग़लत अगर पहला सही है तो इस के मानी यह है कि दूसरा ग़लत ? और अगर दूसरा सही है तो पहला ग़लत। इस ग़ल्ती और झूठ की ज़िम्मेदारी किसकी गर्दन पर है ? आपकी या आयशा की।
बाज़ मुअर्रेख़ीन ने हाला की जनाबे ख़दीजा की बहन बताया है।
मसनद अहमद बिन हम्बल में भी लफ़्ज़ों की उलटफेर से यह रवायत मरक़ूम हुई है और जहां इबारत तमाम हुई है वहां यह लफ़्ज़ें भी मज़कूर हैः-
ये सुन कर पैग़म्बर (स.अ.व.व) का चेहरा इस तरह मुतग़य्यर हो गया जिस तरह नुज़ूले वही के वक़्त हो जाता था।( 1)
ये रवायात भी किताबों में मरक़ूम है कि आयशा की गुफ़्तुगू सुन कर पैग़म्बर (स.अ.व.व) ने फ़रमाया , ख़ुदा ने मुझे हरगिज़ उन से (ख़दीजा से) बेहतर बीवी अता नहीं की , वो उस वक़्त मुझ पर ईमान लायीं जब तमाम लोग मेरे मुनकिर थे। उस वक़्त उन्होंने मेरी रिसालत की तसदीक़ की जब सब मुझे झुठला रहे थे। उस वक़्त उन्होंने मुझे मालोज़र से सहारा दिया जब सब ने मुझे महरूम कर रखा था , और ख़ुदा ने मुझे उन के बतन से औलाद अता की जब मैं किसी दूसरी बीवी की औलाद से महरूम था। ( 2)
हज़रत ख़दीजा से आयशा के रश्को हसद पर मब्नी ये तमाम रवायतें ऐसी किताबों से माख़ज़ हैं जो अक़ीदतमन्दाने आयशा के लिए हुज्जत हैं और इन रवायतों से साफ़ ज़ाहिर है कि रसूले अकरम (स.अ.व.व) की ज़बान पर ख़दीजा (स.अ.) का तज़किरा और उनकी सहेलियों के साथ हुस्ने सुलूक आयशा की हासिदाना सरिश्त पर पहुत शाक गुज़रता था। चुनांचे बाज़ रवायतों से यह भी पता चलता है कि हज़रत आयशा अक्सरो बेशतर आं हज़रत से ग़ुस्ताख़ियों और तानाज़नी की मुर्तकिब भी हुई और पैग़म्बर ने उन पर दिल खोल कर लानत भी की।
पैग़म्बर (स.अ.व.व) ख़दीजा (स.अ.) और आयशा के ज़ैल में मेरी ये गुफ़्तुगू ज़िम्नी नहीं बल्कि रब्तेकलाम के तहत थी। अब मोहतरम कारेईन वो वाक़ियात भी मुलाहिज़ा फ़रमाए जो नुज़ूले सूरऐ तहरीम का सबब बने।
पहला वाक़िआः- जिस का इजमाल यह है कि रसूले अकरम की एक बीवी ज़ैनब बिनते हजश थीं जो आपके लिए शहद मुहैय्या किया करती थीं , चुनांचे आप उन के घर तशरीफ़ ले जाते और थोड़ी देर बैठ कर शहद नोश फ़रमाते , यह मामूल था और चूंकि ज़ैनब तमाम अज़वाज में सब से ज़्यादा हसीनो जमील और सब से ख़ूब सूरत थीं , इस लिए हज़रत आयशा को यह धड़का रहता कि कहीं ऐसा न हो कि हुज़ूर की मुकम्मल तवज्जो ज़ैनब ही की तरफ़ मबज़ूल हो जाए। लिहाज़ा उन्होंने हफ़सा को एतिमाद में लिया और काफ़ी ग़ौरो फ़िक्र के बाद यह मन्सूबा तैयार किया कि आं हज़रत के दिल को इस शहद की तरफ़ से फेर दिया जाए ताकि रोज़ रोज़ आपका ज़ैनब के यहां जाना छूटे। स्कीम के तहत आयशा और हफसा के दर्मियान यह तय हुआ कि शहदनोशी के बाद जब रसूलल्लाह ज़ैनब के घर से तशरीफ़ लाएं तो उन से कहा जाए कि आपके मुंह से मुग़ाफ़ीर की बू आ रही है।
ग़रज़ की जब दूसरे दिन पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व) शहद नोश फ़रमा कर ज़ैनब के घर से हफ़सा के घर तशरीफ़ लाए तो मोहतरमा नें दूर ही से नाक सिकोड़ी और मुंह पर हाथ रखते हुए फ़रमाया कि या रसूलल्लाह (स.अ.व.व) आप के दहन से मुग़ाफ़िर की बू आ रही है। पैग़म्बर (स.अ.व.व) ने मुस्कुराते हुए जवाब दियाः-
मालूम होता है तुम शहद की ख़ुशबू और मुग़ाफ़िर की बदबू से नाआशना हो।
फ़िर आप आयशा के यहां गए उन्होंने इसी हरकत का मुज़ाहिरा किया। आपने इरशाद फ़रमाया कि मैंने तो सिर्फ़ शहद नोश किया है मुग़ाफ़िर से उसका क्या ताअल्लुक़ ? उस पर आयशा तड़प कर बोलीं शहद की मक़्खियों ने मुग़ाफ़िर के फूल चूसे होंगे।
मुख़तसर यह कि रसूले अकरम (स.अ.व.व) ने आयशा को बार बार यक़ीन दिलाने की कोशिश फ़रमाई कि मैंने सिर्फ़ शहद पिया है मुग़ाफ़िर से उसका कोई ताअल्लुक़ नहीं , मगर मोअज़्ज़मा ने अपने मन्सूबे के साथ आसमान सर पे उठा लिया इस लिए कि ख़ामोश क्यों कर रह सकती थीं जब तक कि मक़सद पूरा न होता।
आख़िरकार पैग़म्बर (स.अ.व.व) को यह वादा करना पड़ा कि आइन्दा मैं वह शहद नोश नहीं करूंगा मगर इस शर्त के साथ कि यह बात किसी पर ज़ाहिर न हो वरना ज़ैनब की ख़ातिर शिकनी होगी मगर आयशा का हाज़मा इस क़ुव्वत से महरूम था जो किसी बात को हज़म करने की सलाहियत रखती है। पेट में मरोड़ पैदा हुई और मौक़ा मिलते ही हफ़सा के सामने जा कर सब कुछ उगल दिया।
*मुग़ाफ़िर एक शीरीं और बदबूदार गोंद जिसे अकसर अरब इस्तेमाल करते थे।
दूसरा वाक़िआः- मारिया क़ब्तिया (मादरे इब्राहीम) का है। एक रात हफ़सा बिनते उमर अपनी बारी पर ग़ैर हाज़िर थीं इस लिए कि वो अपने मैंके गयी थीं घर अकेला था , पैग़म्बर (स.अ.व.व) ने वहीं आराम का इरादा किया और हफ़सा की जगह मारिया को अपनी ख़िदमत में तलब फ़रमा लिया। हफ़सा जब वापस आईं और उन्हें पैग़म्बर और मारिया की शबख़्वाबी का हाल मालूम हुआ तो उनके तन बदन में आग लग गयी। अंग अंग से रश्को हसद का ज्वालामुखी उबलने लगा ग़ुस्से से बेक़ाबू हो कर पैग़म्बर पर चढ़ दौड़ीं और गला फाड़ फाड़ कर कहने लगीं कि आपने मुरी इज़्ज़तो हुरमत का भी ख़्याल नहीं किया , मारिया को मुझ पर तर्जीह दी , कहां मैं और कहां वो कनीज़ ? ये ज़ुल्म.............. ये ग़जब........... ये अन्धेरे............. कि मेरा ही घर , मेरी ही बारी , मेरा ही बिस्तर और वह लौंडी। ( 1)
रफ़्ता रफ़्ता हफ़सा की इस हंगामा आराई ने वह शक्ल इख़्तियार की कि नबी को पूछना पड़ा कि तुम क्या चाहती हो ? कहा , मारिया से आपकी किनारा कशी और वह इस तरह कि जब तक आप उसे अपने ऊपर हराम न कर लेंगे मैं आपकी तरफ़ न देखूंगी। पैग़म्बर ने फ़रमाया कि मैं तुम्हारी ख़ातिर मारिया को इस शर्त के साथ अपने ऊपर हराम करता हूं कि यह राज़ मेरे और तुम्हारे दर्मियान सरबस्ता रहे और इसकी भनक तक न फूटे........ लेकिन हफ़सा अपनी हमराज़ आयशा से कहे बग़ैर कैसे चैन लेतीं , दिल में खलबली पैदा हुई और मौक़ा पा कर उन से जड़ दिया। उसके साथ ये मुज़दा भी सुनाया कि मारिया से पीछा छुटा। यही हफ़सा की वह हरकत थी जिस पर पैग़म्बर ने उन्हें तलाक़ दे दी ( 1)
और यही वह वाक़िया था जो नुज़ूले वही का सबब बना और परवर दिगार का इरशाद हुआ किः-
और जब पैग़म्बर ने अपनी एक बीवी (हफ़सा) से कोई राज़ की बात कही और उसने चुग़ली खायी तो ख़ुदा ने उस अम्र को रसूल पर ज़ाहिर कर दिया तो रसूल ने बाज़ बातों को बताया और बाज़ को टाल दिया। बस इस (अफ़शाए राज़) की ख़बर (आयशा) को दी तो वो हैरत से बोल उठीं कि आप को किसने मुत्तला किया। रसूल ने कहा , मुझे अलीमों ख़बीर ख़ुदा ने बताया। अगर तुम दोनों ख़ुदा से तौबा करो तो कुछ फ़ायदा नहीं क्यों कि तुम दोनों के दिल टेढ़े हो गये हैं और अगर तुम दोनों (आयशा-हफ़सा) रसूल की मुख़ालिफ़त में एक दूसरे की एआनत करती हो तो कुछ परवा भी नहीं क्यों कि ख़ुदा जिब्रील मलाइक और सालेहुलमोमिनीन (अली अलैहिस्सलाम) उन के मददगार रहे हैं। (तहरीम)
इस इबरत नाक वाक़िए का इख़तिताम इस शक्ल में हुआ कि हुज़ूरे अकरम ने हफ़सा को तलाक़ देने के बाद हुक्मे इलाही के मुताबिक़ मारिया को फिर अपने ऊपर हलाल कर लिया। इब्ने अब्बास का बयान है कि मैंने मौक़ा पाकर एक दिन हज़रत उमर से पूछा कि वो औरतें कौन हैं जिन्होंने रसूलल्लाह पर ग़ल्बा हासिल करना चाहा था और जिन के दिल टेढ़े हो गये थे ? तो उन्होंने फ़रमाया कि वो आयशा और हफ़सा हैं। ( 2)
तारीख़ का बयान है कि हफ़सा की तलाक़ के बाद......... इब्ने ख़त्ताब उम्र भर रोते रहे और फ़रमाते रहे किः-
अगर आले ख़त्ताब में कोई ख़ैरो ख़ूबी होती तो रसूलल्लाह (स.अ.व.व) मेरी बेटी हफ़सा को तलाक़ न देते।( 1)
उमर इब्ने ख़त्ताब से मरवी इस रवायत से भी अज़्वाजे रसूल की हंगामा आराइयों ख़ुसूसन हज़रत आयशा के गुरूरो घमण्ड का पता चलता है , वो बयान करते हैं किः-
हम लोग जब मक्के में थे तो हमारी औरतें हमारे दबाव और क़ाबू में थीं , मगर जब मदीने में आये तो हमारी औरतें भी मदीने की औरतों की तरह हवा में उड़ने लगीं और चढ़ चढ़ के बोलने लगीं......... मेरी बीवी भी एक दिन मुझ पर चढ़ी और उस ने कहा कि तुम ऐसे ऐसे करते तो अच्छा था। मैंने उसे डांटा और कहा , तुझसे क्या मतलब ? जैसे मेरा जी चाहता है करता हूं। मेरी इस बात पर वो बिगड़ गयी और मुझ से कहने लगी , बस तुम्हारा सारा ज़ोर और दबाव मुझ पर ही चलता है अपनी बेटी हफ़सा की ख़बर क्यों नहीं लेते जो रसूलल्लाह से आये दिन लड़ाई झगड़ा और तकरार किया करती है। मैंने हफ़सा से पूछा क्या ये सच है ? उसने कहा , एक मैं क्या उनकी सब बीवियां उन से लड़ाई झगड़ा किया करती हैं। हफ़सा की इस बात पर मुझे सख़्त ग़ुस्सा आया चुनान्चे उसे फ़टकारते हुए मैंने कहा , ख़ुदा के ग़ज़ब और रसूल के ग़ज़ब से ख़ौफ़ खाया कर , आयशा बनने की कोशीश न कर जिसे अपने हुस्नों जमान पर बड़ा ग़ुरूरो घमण्ड है। ( 2)
ये वो तारीख़ी और क़ुरआनी शवाहिद है जिन से हज़रत आयशा की ज़ाहिरी और बातिनी सरिश्त का अन्दाज़ा कुछ मुश्किल नहीं रह जाता....... लेकिन इस बदनसीबी का क्या किया जाये कि नावाकिफ़ मुसलमानों की अकसरियत (बग़ैर समझे बूझे) आपकी ज़ात से वालिहाना अक़ीदत रखती है और आप के चाल चलन को अपने लिए नजात का रास्ता समझती है।
आप से तक़रीबन दो हज़ार एक सौ दस हदीसें सहाहे सित्ता और दीगर किताबों में मरवी हैं और सवादे अज़ाम के शरई व फ़िक़ही मसाइल व दीनी अहकाम का ज़्यादह तर हिस्सा आप ही की बयान करदह अहदीस की रौशनी में मुरत्तब हुआ है।
नसबी सिलसिला
हज़रत आयशा के वालिद अबू बकर बिन क़हाफ़ा बिन उस्मान बिन आमिर बिन अमर बिन क़अब बिन सअद बिन तैम बिन मुर्रह थे.............. और वालिदा.......... उम्मे रूमान बिन्ते आमिर बिन उवैमर बिन अब्दुश्शम्स बिन उताब थीं। जो अबू बकर के अक़्द में आने से पहले अब्दुल्लाह बिन हारिस बिन सनजरह की ज़ौजियत में थीं और उन से एक लड़का तुफ़ैल पैदा हुआ था। अब्दुल्लाह की वफ़ात के बाद उम्मे रूमान ने अबू बकर से अक़्द किया। ( 1) इन के नाम में भी इख़तिलाफ़ है बअज़ का कहना है कि ज़ैनब था और बअज़ ने वअहद ( 2) बताया है। इनका ताअल्लुक़ बनु कनाना से था और मां की तरफ़ से कनानिया थीं( 3) शोहरा ए आफ़ाक़ मुवर्रिख़ आलमानी का कहना है कि आयशा की माँ उम्मे रूमान असकंदरिया की रहने वाली यूनानी नज़ाद थी। ( 4)
पैदाइश
आप कब तक शिकमें मादर में रहीं और इस दुनिया में कब वारिद हुई इस के जवाब में तारीख़ें ख़ामोश हैं शायद इस लिए कि मुवर्रेख़ीन को आप का तआर्रूफ़ उस वक़्त से हुआ जब आप रसूलल्लाह (स.अ.व.व) की ज़ौजियत में दाख़िल हुई लेकिन कुछ ज़मीर फ़रोश सीरत निगारों ने हुकूमते वक़्त की ख़ुशनूदी के लिए अक़्लो ख़िरद , फ़हमो इदराक और होशो हवास को बाला ए ताक़ रख कर रसूल की दीगर अज़्वाज पर आपको फ़ज़ीलत देने , नीज़ कम्सिन कुवांरी और दोशीजह साबित करने की ग़रज़ से क़यास की बिना पर आपके बारे में सिनो साल की जो मफ़रूज़ा इमारत खड़ी की है , उसके बेरूनी फ़ाटक पर महज़ ख़्याली साले विलादत 4 बेअसत और 5 बेअसत तहरीर फ़रमाया है जिसे शुऊर मन्तिक़ और आक़िलाना इस्तेदलाल क़ुबूल करने से क़ासिर है।
ज़ाहिर है कि हज़रत आयशा की पैदाइश के वक़्त न तो तहरीरी रिकार्ड का कोई रवाज था और न ही विलादत या मौत के बारे में कोई सरकारी या ग़ैर सरकारी रजिस्टर मुरत्तब होता था जिस से आप की विलादत का साल मालूम होता लिहाज़ा आप ही की ज़बानी रावियों को जो मालूम हुआ उसी को वह बयान करते गये और मसलेहत का क़लम उन के बयानात को कागज़ पर सब्त करता गया......... ये ज़रूरी नहीं कि ख़ुद आयशा ने अपनी उम्र का तअय्युन सही किया हो क्यों कि औरत की फ़ितरी आदत है कि वह हमेशा अपनी उम्र को कम तसव्वुर करती है और आयशा इस निसवानी ख़ुसूसियत से बालातर हर्गिज़ नहीं हो सकती थीं।
इस सिलसिले में जब हम उम्वी दौर के मुवर्रेख़ीन की मुनतशिरो मुबहम बातों को अक़्लों इस्तेदलाल की कसौटी पर रखते हैं तो ये फ़िक्री नतीजा बरामद होता है कि हज़रत आयशा की विलादत बेअसत से एक साल क़ब्ल या एक साल बाद हुई यही तहक़ीक़ मुम्ताज़ मिस्री मुवर्रिख़ अब्बास महमूद उक़ाद ने अपनी तसनीफ़ आयशा में पेश की है। उनका कहना है कि ये अम्रमुतहक़्क़ि नहीं हो सका कि हज़रत आयशा किस सन् में पैदा हुई ताहम अग़लब ख़्याल ये है कि उनकी विलादत हिजरत से ग्यारह साल क़ब्ल हुई। ( 1)
कोर्ट फ़्रेशलर आलमानी ने अपनी मायए नाज़ किताब आयशा बाद अज़ पैग़म्बर में साबित बिन इर्ताह से जो बयान नक़ल किया है उससे भी पता चलता है कि हज़रत आयशा का सने विलादत एक बेअसत है। ( 2) इस तरह अब्बास महमूद उक़ाद की तहक़ीक़ दुरूस्त और क़रीने क़यास है।
शादी
रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के साथ आयशा की शादी....... इस्लामी तारीख़ का एक मुअम्मा है जो आज तक हल न हो सका।
इस पुरअसरार शादी से मुताल्लिक़ बुख़ारी , मुस्लिम मिशकात , मसनद अहमद बिन हम्बल , तबरी , तबक़ात इब्ने सअद , इस्तेयाब , इज़ालतुल ख़फ़ा और मदारिजिन नुबुव्वत वग़ैरह में जो हैरत अंगेज़ और मज़हक़ा ख़ेज़ हिकायत मरक़ूम हुई है उसका निचोड़ ये है किः-
हिजरत से तीन साल क़ब्ल 10 बेअसत में हुज़ूरे सरवरे कायनात की पाकबाज़ो ग़मगुसार बीवी , मोहसिना ए इस्लाम हज़रत ख़दीजा ताहिरा दुनिया से रूख़सत हुई और उनकी वफ़ात के तीसरे दिन आप के मुशफ़िक़ मेहरबान और मुहाफ़िज़ चचा हज़रत अबु तालिब (अ.स) का इन्तिक़ाल भी हो गया तो आप अपनी बेयारी और तन्हाई पर हर वक़्त मग़मूमो महजून रहने लगे और आप ने इस हुज़्नों मलाल के साल को आमुल हुज़्न से ताबीर किया। ( 1)
(इस किताब को आप “अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क ” पर पढ़ रहे है।)
हज़रत अबू बकर से आप के हुज़्नों मलाल की ये कैफ़ियत देखी न गयी चुनान्चे वो अपनी पांच साला बच्ची आयशा को ले कर एक दिन आं हज़रत (स.अ.व.व) की ख़िदमत में हाज़िर हुए और अर्ज़ किया , या रसूलल्लाह (स.अ.व.व) ये बच्ची हाज़िर है आप इस से दिल बहलायें ताकि आपका ग़म ग़लत हो। इस बच्ची में ख़दीजा की सलाहियत पाई जाती है। ( 2) अबू बकर की इस हैरत अंगेज़ तजवीज़ पर पैग़म्बर ने सुकूत इख़तियार किया यहां तक कि बच्ची को उन्होंने गोद में उठाया और वापस चले गये। उस के बाद बक़ौले मुअर्रिख़ पैग़म्बर अबू बकर के घर में आने जाने लगे। ( 3)
मगर फिर भी आं हज़रत (स.अ.व.व) के कर्बो इज़तिराब में कोई तख़फ़ीक़ नहीं हुई और हुज़्नों मलाल अपनी जगह बरक़रार रहा तो तो उस्मान बिन मज़ऊन की ज़ौजा ख़ूला बिन्ते हकीम (जो सहाबिया में थीं) ने ये कह कर आपको अक़्द पर आमादह किया कि ख़दीजा के बाद तन्हाई व बेचारगी दूर करने के लिए यह ज़रूरी है कि आप निकाह कर लें। मेरी नज़र में बाकरा और बेवा दोनों तरह की औरतें हैं अगर हुज़ूर (स.अ.व.व) इजाज़त मरहमत फ़रमायें तो मैं सिलसिला जुम्बानी करूं। मुझे उम्मीद है कि अक़्द के बाद रन्जो अलम का बोझ कुछ हल्का होगा।
पैग़्मबर (स.अ.व.व) ने पूछा...... वो औरतें कौन हैं ? ख़ूला ने कहाः- बाकरा....... आयशा बिन्ते अबू बकर है...... और बेवा....... सौदा बिन्ते जुम्आ।
आपने चन्द लम्हों तवक़्कुफ़ फ़रमाया और कहाः-
अगर तुम्हारी ख़्वाहिश यही है तो दोनों जगह पैग़ाम दे दो।
ऐसा लगता है कि अबू बकर और ख़ूला के दर्मियान मामला पहले ही से तय था इस लिए वो सीधी अबू बकर के घर गयीं। अंधा क्या चाहे दो आँखें । अबू बकर फ़ौरन राज़ी हो गये और आं हज़रत (स.अ.व.व) नुबुव्वत के ग्यारवहें साल माहे शव्वाल में पांच सौ दिरहम ( 1) मेहर पर अबू बकर की छः साला बच्ची के शौहर बन गये। उसके बाद ख़ूला ने सौदा के घर वालों से राब्ता क़ायम किया वो भी तैयार हो गए और हज़रत (स.अ.व.व) का निकाह सौदा से भी हो गया। ( 2)
हज़रत आयशा का यह बयान क़ाबिले तवज्जो है कि उन्होंने फ़रमायाः-
मैं अपने अक़्द से बिल्कुल बेख़बर थी। अक़्द के बाद जब मेरी मां ने मेरे बाहर निकलने पर पाबन्दी आइद कर दी और मुझे समझाया तो मैं समझी कि मेरा निकाह हो गया है।( 3)
बुख़ारी का कहना है कि आयशा निकाह के वक़्त इस अम्र की मुतहम्मिल नहीं थीं कि उन से ताल्लुक़ाते ज़ौजियत क़ायम किए जा सकते इस लिए उन्हें दो साल तीन माह मक्के में और नौ माह मदीने में यानी तीन बरस तक शौहर से अलग रहना पड़ा। ( 1)
मुझे नहीं मालूम कि निकाह के बाद सिर्फ़ तीन बरस के अन्दर सिर्फ़ नौ साल की उम्र में निस्वानी फ़ितरत के ख़िलाफ़ हज़रत आयशा किन वुजूह की बिना पर जवान और बालिग़ हो गयीं , और वह इस तरद्दुद में मुब्तिला हो गये कि रसूलल्लाह (स.अ.व.व) उनकी बेटी की तरफ़ मुलतफ़ित क्यों नहीं होते ? आख़िरकार एक दिन मौक़ा महल देख कर आप रसूले अकरम (स.अ.व.व) से यह कह बैठे कि या रसूलल्लाह आप आयशा को अपने तसर्रूफ़ में क्यों नहीं लाते ? हज़रत ने फ़रमाया मेरे पास मेहर नहीं है ये सुन कर अबू बकर ने साढ़े बारह अवक़िया पैग़म्बर की ख़िदमत में पेश किया और कहा ये महर हाज़िर है। ( 2)
बहरहाल इस सिलसिले की दूसरी मज़हक़ा ख़ेज़ रवायत बुख़ारी और तबरी में यूं मरक़ूम है कि रसूलल्लाह (स.अ.व.व) माहे शव्वाल में एक दिन अपने चन्द असहाब के साथ अबू बकर के घर गये। आयशा उस वक़्त अपनी हमजोलियों के साथ झूला झूलने में मशग़ूल थीं। उनकी मां (उम्मे रूमान) ने मौक़ा ग़नीमत जान कर उन्हें आवाज़ दी वह हापती हुई आयीं। मां ने उन के हाथ मुंह धुलाए उन्हें सजाया , संवारा और उसके बाद आं हज़रत (स.अ.व.व) की ख़िदमत में लेकर हाज़िर हुई और ये कह कर उनकी गोद में बिठा दिया कि ये आपकी ज़ौजा है। असहाब शरमा कर वहां से उठ गये। बुख़ारी का कहना है कि आयशा को ख़बर नहीं थी कि क्या होने वाला है( 3) और तबरी का कहना है कि जफ़ाफ के बाद उसी वक़्त से ज़ौजियत की इब्तिदा हुई। ( 4)
इसी रवायत को शाह अब्दुल हक़ मुहद्दिसे देहेल्वी ने हज़रत आयशा की ज़बानी यू नक़्ल फ़रमाया हैः-
आयशा फ़रमाती हैं कि जब हम लोग मदीने में वारिद हुए तो मेरे वालिद अबू बकर ने मोहल्लाह ए सख़ में हबीब इब्ने रियान या ख़ारजा बिन ज़ैद के यहां रिहाइश इख़तियार की। एक रोज़ हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व) तशरीफ़ लाए , हज़रत के साथ अन्सार के मर्दों और औरतों का मजमा था उस वक़्त मेरी अम्मा जान ने मुझे पकड़ कर मेरे बालों में कंघी की मां निकाली , मुह धुलाया और मुझे ख़ींचती हुई उस जगह ले गयीं जहां रसूलल्लाह (स.अ.व.व) फ़रोकश थे। चूंकि मेरा नफ़्स मुझ पर तंगी कर रहा था इस लिए मेरी मां ने थोड़ी देर तवक्कुफ़ किया और जब मेरी हालत पुर्सुकून हुई तो उन्होंने मुझे आं हज़रत की गोद में बिठा दिया और कहा ये आप की बीवी है। इस के बाद सब लोग कमरे से बाहर चले गये और हज़रत ने मेरे साथ ( 1)........... और कोई ऊंट या बकरा ज़िब्ह नहीं किया गया शादी का खाना जिसे वलीमा कहते हैं एक प्याला दूध था जो मअद इब्ने उब्बादह के घर से आया था। उस रोज़ मैं नौ बरस की थी। ( 2)
यही वह ताज्जुब ख़ेज़ हिक़ायत और यही वो हैरत अंगेज़ दास्तान है जिस के पेचोख़म और दामे फ़रेब में तेरह सौ बरस से सारी दुनिया उलझी हुई है और यही वो इस्लामी तारीख़ की मुअम्मा है जिसे हल करने की कोशिश में मुसबत और मनफ़ी दलीलें अकसरों बेशतर एक दूसरे से टकराती रहती हैं मगर आयशा की तारीख़ी हैसियत उम्वी हुकमरां , हक़ फ़रोश उलमा और ज़मीर फ़रोश मुवर्रेख़ीन की बदौलत आज भी ज़िन्दा है इस का पोस्टमार्टम होना चाहिए क्यों कि इस क़िस्म की मज़हूल अहादीस व मोहमल रवायात से जो ज़्यादातर आयशा से ही मरवी है रसूल की रिसालत , इस्मत , फ़ज़ीलत और अज़मत मुतस्सिर होती है। इस्लाम दुशमन अनासिर को लबकुशाई और दरीहद देहनी का मौक़ा फ़राहम होता है।
इस जुर्अतमन्दाना इक़दाम के लिए मुझ जैसे शायर और अदीब का तन्हा क़लम काफ़ी नहीं हो सकता बल्कि उन उलमा की भी ज़िम्मेदारी है कि जो हिन्दुस्तान और बैरूनी मुल्को में रवादारी के प्लेटफ़ार्म से अपनी मुनाफ़िकाना तक़रीरों और फ़रेबकारियों के ज़रिए हुसूले दौलत में मसरूफ़ हैं।
बहरहाल अक़्द की इस पूरी कहानी में आयशा और रसूले अकरम (स.अ.व.व) के दरमियान ख़ूला बिन्ते हकीम की वेसातत और उनकी ख़्वाहिश पर अक़्द के लिए आं हज़रत की आमादगी बईद अज़ क़यास है क्यों कि बाज़ अक़ीदतमंद मुअर्रिख़ीन के क़ौल के मुताबिक़ जब हिजरत से तीन बरस क़ब्ल सिर्फ़ छः साल की उम्र में मोअज़्ज़मा का निकाह हुआ और एक बेअसत में ज़फ़ाफ़ हुआ तो तीन साल तक इस निकाह से रसूल (स.अ.व.व) को क्या फ़ायदा पहुंचा ? हज़रत का कोई फ़ेअल अक़ल के ख़िलाफ़ और मसलिहत से ख़ाली नहीं होता और छः साल की बच्ची से शादी में कोई मसलिहत नज़र नहीं आती। अगर निकाह के बाद आप रूख़सती के क़ाबिल होतीं और रसूलल्लाह (स.अ.व.व) अपने घर ले आते तो एतराज़ या तन्क़ीद की गुंजाइश हर्गिज़ न होती क्यों कि उमूरे ख़ानदानी और मासूमा ए कौनेन (स.अ.) की दिल बसतगी वग़ैरह मसालह थे मगर मौसूफ़ा अक़्द के बाद भी आग़ोशे मादर में रहीं और आप पर बचपना इस क़दर ग़ालिब था कि रूख़सती के बाद भी शौहर के घर गुड़ियों और गुड्ड़ों के खेल से लुत्फ़ अन्दोज़ होती रहीं। इन वजूह से यह तसलीम करना पड़ता है कि सियासी उमूर को पेशेनज़र रख कर ख़ुद अबू बकर ने ये शादी की होगी मगर रसूलल्लाह (स.अ.व.व) से आपका यह फ़रमाना कि ये कुछ ग़म ग़लत करेगी क्यों कि इस में ख़दीजा की सलाहिय्यत पाई जाती है , इस का क्या मतलब होता है ? क्या छः बरस की बच्ची पचास या बावन बरस के शौहर का ग़म बीवी की हैसियत से ग़लत कर सकती है। जब कि आयशा इतनी नादानो ना समझ थीं कि उन का ख़ुद कहना है कि निकाह की मुझे ख़बर तक नहीं हुई जब मेरी माँ ने बाहर निकलने पर पाबन्दी लगा दी तो मुझे पता चला कि निकाह हो चुका है और बाद में मेरी माँ ने मुझे समझा भी दिया। ( 1)
ग़रज़ कि तारीख़ और सीरत की किताबों में इसका जवाब किसी भी नौइय्यत से अस्बात में नहीं मिलता और उसूली हैसियत से भी इस उम्र में लड़कियों की शादी किसी मुल्क किसी मज़हब और किसी समाज में पसन्द नहीं की जाती।
अरब के हालात , तारीख़ और अदब की किताबों में तफ़सील से है , लेकिन ये किताबें भी इस क़िस्म की मिसाल पेश करने से क़ासिर हैं।
अल्लामा इब्ने हज़र की किताब असहाबा सहाबा के हालात में एक मुफ़स्सल और जामेअ किताब है उसकी आख़िरी जिल्द , जिल्दे हफ़्तुम सिर्फ़ औरतों के हालात पर मब्नी है। उस में मुख़तलिफ़ मक़ामात मुख़तलिफ़ क़बाइल , मुख़तलिफ़ ख़ानदान की तक़रीबन डेढ़ हज़ार औरतों के हालात मरक़ूम हैं (जो सहाबिया भी थीं) मगर किसी के मुताल्लिक़ ये नहीं है कि उनका निकाह छः बरस की उम्र में हुआ हो जब कि इस किताब में मुतअद्दिद औरतों की उम्र और तारीख़े विलादत व वफ़ात का तज़किरा है। ख़ुद अबू बकर की दूसरी साहबज़ादी अस्मा का निकाह इस उम्र या इस से साल दो साल आगे पीछे नहीं हुआ। अबू बकर के तीन बेटे भी थे मगर किसी बेटे की शादी ऐसी लड़की से नहीं हुई जिस की उम्र छः साल रही हो। हज़रत उमर के भी कई बेटियां थीं उन्होंने भी अपनी किसी बेटी की शादी छः बरस की उम्र में नहीं की।
हज़रत उस्मान की सत्तरह औलादें थीं मगर कोई मिसाल ऐसी नहीं मिलती। ख़ानदाने बनी उमय्या और बनी अब्बास में किसी भी लड़की के बारे में ये पता नहीं चलता कि उसकी शादी छः साल की उम्र में हुई हो। इस से मालूम होता है कि अरबों में कम उम्री और कमसिनी की शादियों का कोई दस्तूर या रवाज नहीं था। लिहाज़ा ये मानना पड़ेगा कि हज़रत आयशा इस वस्फ़ में मुनफ़रिद हैं , और अबू बकर ने दस्तूर के ख़िलाफ़ वो काम कर दिखाया जिस की नज़ीर क़यामत तक मुम्किन नहीं।
हज़रत आयशा की उम्र इज़्दिवाजी ज़िन्दगी के लिहाज़ से तीन हिस्सों पर तक़सीम हो सकती है।
1.शादी से क़ब्ल का ज़माना ,
2.शादी के बाद का दौर ,
3.बेवगी का ज़माना।
लुत्फ़ की बात यह है कि हर दौर हर ज़माने में आप का कोई न कोई हैरत अंगेज़ वाकेआ ऐसा मिलता है जो अक़्ल को हैरानों परेशान करता है।
शादी से क़ब्ल का वाकेआ यह है कि जब आप सिर्फ़ छः बरस की थीं तब आप के वालिद आप को रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व) की ख़िदमत में ले कर हाज़िर हुए और कहा , आप इस (बच्ची) से दिल बहलायें........ यक़ीनन एक अनोखी निराली और अजूबा बात थी।
शादी के बाद का वाक़ेआ अफ़क़ जिसमें आप की ज़ात इत्तिहाम का निशाना बनी , जिस से ज़्यादा शर्मनाक बदनामी औरत के लिए मुम्किन नहीं यहां तक ख़ुद पैग़म्बर (स.अ.व.व) ने इस तोहमत को ग़लत नहीं समझा जब तक वही का नुज़ूल नहीं हुआ।
बेवगी के अहद के वाक़ेआ अपनी नज़ीर नहीं रखता , और वो ये है कि जब आपकी उम्र पैंसठ साल की थी तो उन्तीस साला यज़ीद इब्ने माविया ने आप से अक़्द की ख़्वाहिश की , जिस के जवाब में आपने मुंह पीट लिया। शाह अब्दुल हक़ मुहद्दिस ने भी इस वाक़िए को नक़्ल किया है। ( 1)
ये वो वाक़ेआत है जो बजाए ख़ुद हज़रत आयशा की शख़्सियत पर तारीख़ी दस्तावेज़ है.......... इस लिए मैं अपनी तरफ़ उन के बारे में किसी तन्क़ीद का हक़ नहीं रखता मगर इस गुफ़्तुगू के ज़ैल में ये ज़रूर चाहूंगा कि तारीख़ ही की रौशनी में ये सराहत भी हो जाये कि रसूलल्लाह (स.अ.व.व) से अक़्द के वक़्त मुअज़्ज़मा क़ुआरी थीं या नहीं ?
इस सिलसिले में ख़ुद आयशा की ज़बानी जो रवायतें मुवर्रेख़ीन तक पहुंची हैं , उन से यही पता चलता है कि शादी के वक़्त आप छः साल की नासमझ और नाबालिग़ बच्ची थीं मगर तीन ही साल के अन्दर न जाने कि शोअबदह बाज़ी के तहत आप पर भरपूर जवानी आ गयी , यहां तक कि नौ साल की उम्र में जफ़ाफ़ की तमामतर सऊबतों को बआसानी झेलने के क़ाबिल हो गयीं लेकिन इस रिवायती हिक़ायत को मिस्री के नामवर और मुम्ताज़ मुवर्रिख़ अब्बास महमूद उक़ाद की तहक़ीक़ ने क़ुबूल नहीं किया चुनान्चे वो अपनी किताब आयशा में तहीरर फ़रमाते हैः-
अग़लब ख़्याल ये है कि उनकी विलादत ज़िरत से ग्यारह साल क़ब्ल हुई इस एतिबार से रसूलल्लाह (स.अ.व.व) के अक़्दे ज़ौजियत में आते वक़्त उम्र लगभग चौदह साल की बनती है।( 1)
हर होशमन्द इन्सान उसी बात को मानेगा जिसे अक़्ल भी क़ुबूल करे। फ़हमो इद्राक की दुनिया हैरान थी कि जिस सन् में रसूले अकरम (स.अ.व.व) के दो अज़ीम ग़मगुसारों , मददगारों और चाहने वालों ने रेहलत की और जिस साल को आपने आमुल हुज़्न क़रार दिया उसी साल कोई दूसरा अक़्द भी किया हो ?
शुक्र का मक़ाम है कि किसी शिआ नहीं बल्कि एक सुन्नी मुहक़्क़्कि की तहक़ीक़ से यह हक़ीक़त वाज़ेह हो रही है कि सरकारे दो आलम (स.अ.व.व) ने 10 नब्वी यानी अय्यामे आमुल हुज़्न में कोई अक़्द नहीं फ़रमाया और न ही हज़रत आयशा छः साल की उम्र में रसूल (स.अ.व.व) की ज़ौजियत से मुशर्रफ़ हुईं।
अब्बास महमूद उक़ाद आयशा के अफ़सान्वी अक़्द का परदा फ़ाश करते हुए अपनी किताब के सफ़ह 91 पर मज़ीद तहरीर फ़रमाते हैः-
अभी तक किसी शख़्स को पूरा यक़ीन नहीं था कि आयशा ज़रूर रसूलल्लाह (स.अ.व.व) के अक़्द में आ जायेंगी , वजह ये थी कि वो पहले ही "जबीर बिन मुतअम बिन अदी से जो हुनूज़ हालते कुफ़्र पर क़ायम था मनसूब हो चुकी थीं।" ( 2)
फिर फ़रमाते हैः-
हमारे नज़दीक क़रीने क़ियास अम्र ये है कि रूख़सती के वक़्त आयशा की उम्र बारह से किसी तरह कम और पन्द्रह साल से ज़्यादा नहीं थीं।( 3)
क़रीन क़यास नहीं बल्कि ये यक़ीनी अम्र है कि रसूलल्लाह (स.अ.व.व) से अक़्द के वक़्त हज़रत आयशा मुकम्मल तौर पर बालिग़ और भरपूर जवान थीं।
हम ज़िक्र कर चुके हैं कि पैग़म्बर (स.अ.व.व) ने 10 नब्वी में कोई अक़्द नहीं फ़रमाया क्यों कि ये साल हुज़ूर (स.अ.व.व) के लिए इन्तिहाई रंजो मलाल , कर्बो इज़तिराब और ग़मों अलम का साल था।
हक़ीक़त यह है कि वफ़ाते हज़रते ख़दीजा (स.अ.) के तीन बरस बाद 13 नब्वी में हिजरत से कुछ पहले सरकारे दो आलम (स.अ.व.व) ने आयशा से अक़्द किया जैसा कि अल्लामा शिबली नोमानी के शागिर्दे रशीद मौलवी सुलैमान नदवी ने बुख़ारी और मसनद के हवालों से अपनी किताब सीरते आयशा में तहरीर फ़रमाया है किः-
बुख़ारी और मसनद में ख़ुद उन (आयशा) से दो रवायते हैं , एक में है कि हज़रत ख़दीजा की वफ़ात के तीन बरस बाद निकाह हुआ।
इस अक़्द के बाद 10 हिजरी में रूख़सती अमल में आयी। इस हिसाब से बवक़्ते रूख़सती मोहतर्मा की उम्र तक़रीबन बीस साल की बनती है।
अब्बास महमूद उक़ाद का ये कहना बजा है कि रसूलल्लाह (स.अ.व.व) के अक़्द में आने से पहले आयशा ज़बीर इब्ने मुतअम से मनसूब हो चुकी थी। इस पूरे वाक़िए का निचोड़ हम क़दीम तरीन मुवर्रिख़ इब्ने सअदे वाक़िदी (अलमतूफ़ी 230 हिजरी) की ज़बाने क़लम से सुनाते हैं। जिस के बारे में अल्लामा शिबली नोमानी का कहना है कि मोहम्मद बिन सअद , कातिबे वाक़िदी निहायत सक़ह और मोतमिद मुवर्रिख़ हैः-
आयशा के लिए हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व) ने हज़रत अबू बकर को पैग़ाम दिया तो उन्होंने कहा या रसूलल्लाह (स.अ.व.व) उस को तो मैं जबीर इब्ने मुतअम के हवाले कर चुका हूं मुझे ज़रा मोहलत दीजिए ताकि मैं उन लोगों से आयशा को दोबारह हासिल करूं। (चुनान्चे) अबू बकर ख़ामोशी से आयशा को वहां से ले आये (फिर) ज़बीर ने तलाक़ दी और वो रसूलल्लाह (स.अ.व.व) के साथ ब्याही गयीं( 1)
आयशा के लिए रसूल ने ख़ुद पैग़ाम दिया , किसी से दिलवाया या आयशा के वालिदैन ने ख़ुद उन्हें रसूलल्लाह (स.अ.व.व) की गोद में डाल दिया , ये अलग मसअला है बहरहाल....... वाक़िदी की इस रवायत से ये मुकम्मल तौर पर वाज़ेह है कि हज़रत आयशा न ये कि सिर्फ़ ज़बीर इब्ने मुतअम से मनसूब थीं बल्कि मोहतर्मा अक़्द और रूख़सती की मन्ज़िलों से गुज़रकर ज़फ़ाफ़ का सख़्त तरीन मरहला भी तय कर चुकी थीं।
हज़रत आयशा जबीर बिन मुतअम को कब ब्याही गयीं , और कितनी मुद्दत तक आप उसके पास रहीं ? इसके जवाब में तारीख़े ख़ामोश हैं , और तलाश के बावजूद मुझे कोई ऐसी रवायत नहीं मिली जिस से कुछ मालूम होता। लेकिन वाक़िदी के इस बयान की रौशनी में बिल ऐलान में यह कह सकता हूं कि हज़रत आयशा रसूल (स.अ.व.व) के अक़्द में आते वक़्त हर्गिज़ कुआंरी नहीं थी बल्कि एक मुतलक़ा की हैसियत से वो उम्महातुल मोमिनीन की सफ़ में शामिल हुई थी।
इस मौक़े पर यह वज़ाहत भी ज़रूरी है कि पैग़म्बर (स.अ.व.व) के अक़्द में आने से पहले भी आप औलाद से महरूम रहीं और जबीर बिन मुतअम की काफ़िराना कोशिश आप के बांझपन को कोई सौग़ात न दे सकी , और पैग़म्बर (स.अ.व.व) के अक़्द में आने के बाद भी आप की मुरादों , तम्न्नाओं और आरज़ूओं का काशकोल नेअमते औलाद से ख़ाली रहा। रसूले अकरम (स.अ.व.व) से आपकी औलाद क्यों नहीं हुई , इसका क्या सबब था ? अब्बास महमूद उक़ाद की ज़बानी सुनियेः-
इसका सबब जहां तक हमारी समझ में आ सका है वो यह है कि रसूलल्लाह (स.अ.व.व) ने औलाद की ख़ातिर अपनी अज़्वाज से निकाह नहीं किया। हुज़ूर के निकाह बिल उमूम दो अग़राज के तहत होते थेः
1. बाज़ औरतें अपने ख़ावन्द की वफ़ात के बाद बिल्कुल बे सहारा हो जाती थीं , हुज़ूर उनकी बेबसी और बेकसी का मदावा करने के लिए उन से निकाह कर लेते थे।
2. बाज़ अज़्वाज से निकाह करने में ये ग़रज़ पिन्हा थी कि हुज़ूर उन के क़बीलों को इस्लाम की तरफ़ माएल करने के लिए उनसे ताल्लुक़ क़ायम करना चाहते थे। ( 2)
हुस्नो जमाल
उम्वी दौर के हक़ फ़रोश उलमा , मुवर्रेख़ीन और मुहद्दिसीन की एक बड़ी जमाअत ने हुकूमते वक़्त की ख़ुशनूदी और अपने ज़ाती मफ़ाद की ख़ातिर हबीबे किर्दिगार की दीगर अज़्वाज पर आयशा को अफ़ज़लियत और फ़ौक़ियत देने के लिए ख़ुद उन्हीं की ज़बानी उन के हुस्नों जमाल , ख़ूबसूरती रअनायी और ज़ेबाई के जो शर्मनाक तज़किरे अपनी किताबों में किए हैं , उससे ग़ैर मुस्लिमों को मज़ाक , इस्तेहज़ा और इस्तिहानत के साथ साथ पैग़म्बर (स.अ.व.व) की पाको पाकीज़ह शख़्सियत और मासूम सीरत पर इत्तिहाम एहानत और अंगुश्तनुमाई का भर पूर मौक़ा फ़राहम किया।
हज़रत आयशा के हुस्नों जमाल की हिकायों के तहरीरों और किताबों के ज़रिये अवाम में मुशतहिर करने का मक़सद इसके अलावह और क्या हो सकता है कि दुनिया वालों को ये बावर करने पर मजबूर किया जाये रसूल (स.अ.व.व) की तमाम अज़्वाज में हज़रत आयशा ही सब से ज़्यादा हसीनों जमील और ख़ूबसूरत थीं , हुज़ूर (स.अ.व.व) उन्हें सब से ज़्यादा चाहते , दिलोजान से मुहब्बत फ़रमाते , और अपनी तमामतर तवज्जेह हमावक़्त उन्हीं की तरफ़ मबज़ूल रखते।
ये ग़लत और अफ़सोसनांक बात मुशतहिर क्यों हुई इसकी असल वजह यह है कि बअदे वफ़ाते रसूल (स.अ.व.व) अहदे शेख़ैन में हज़रत आयशा को हुकूमत की बेटी होने का शरफ़ हासिल था और इक़तिदार परस्तों को इलतिफ़ात पूरी तरह आपकी ज़ाते ख़ास से जिससे वाबस्ता था। इन्हें वो हुक़ूक़ हासिल थे जिससे रसूल (स.अ.व.व) की दूसरी अज़्वाज महरूम थीं वो अज़मत वो मन्ज़िलत मयस्सर थी जो किसी ज़ौजा को नसीब न थी। हालांकि पैग़म्बर (स.अ.व.व) ने इन्तिक़ाल के वक़्त नौ बीवियां छोड़ी थी लेकिन अबू बकरो उमर ने किसी को इतनी अहमियत नहीं दी। जब कोई फ़तवा दर्याफ़्त करना होता या कोई शरई मस्अला मालूम करना होता तो यह दोनों हज़रत आयशा की दो तरफ़ रजूअ करते थे , जैसे कि इब्ने सअद का बयान हैः-
हज़रत अबू बकरो उमर और उस्मान के अहद में तन्हा हज़रत आयशा ही फ़तवा दिया करती थीं और उनकी यही कैफ़ियत मरते दम तक रही।( 1)
ये वह सियासी इक़दाम था जिसने रफ़्ता रफ़्ता हज़रत आयशा की मरज़ेइयत को उस दौर के मुसलमानों में मुस्तहकम कर दिया। इस के अलावा वज़ाइफ़ो अताया में भी उन्हें दीगर अज़्वाज पर मुक़द्दम रखा गया। चुनान्चे हज़रत उमर ने अज़्वाजे रसूल में हर एक का दस हज़ार और आपका बारह हज़ार वज़ीफ़ा मुक़र्रर किया था इन ख़ुसूसी तवज्जुतो मराआत ने आयशा की शख़्सियत को उरूज अज़ा कर के एहतिराम की उस मन्ज़िल से हम किनार कर दिया कि उन्होंने रसूल (स.अ.व.व) की ज़ौजियत और अपनी मरज़ेइयत से ख़ूब नाजाइज़ फ़ायदा उठाते हुए अपने बारे में जो कुछ भी उल्टा सीधा और औल फ़ौल अपीन ज़बान से बका वो अक़ीदत मन्दों के नज़दीक सच बनता गया। यहां तक कि उलमा , मुवर्रेख़ीन और मुहद्दिसीन भी उसे अपनी किताबों में जगह देते चले गये और किसी ने उसकी तरदीद में लब कुशाई की जसारत नहीं की।
ख़ुदा भला करे अहदे हाज़िर के सुन्नी मुवर्रिख़ अब्बास महमूद उक़ाद का जिसकी जुस्तजू आमेज़ तहक़ीक़ ने हज़रत आयशा के ख़ुद साख़्ता हुस्नों जमाल के चेहरे से मजाज के परदे और उनकी ख़ूबसूरती के देरीना घिरौंदे को हमेशा के लिए मिसमार कर दिया।
मौसूफ़ अपनी तहक़ीक़ी किताब आयशा में फ़रमाते हैः-
हज़रत आयशा का बचपन बीमारियों में गुज़रा , तारीख़ का मुतालिआ करने से मालूम होता है कि दस बरस की उम्र में उन्हें बुख़ार आया , जिससे उनके तमाम बाल झड़ गये। बाद में उनकी सेहत ठीक नहीं रही और वो अकसर बीमार हो जाया करती थीं।( 2)
इसी किताब में एक दूसरे मक़ाम पर तहरीर फ़रमाते हैः-
हज़रत आयशा की बयान कर्दह बाज़ रवायत से ये भी मालूम होता है कि शदीद बुख़ार की वजह से उनके बाल झड़ गये थे चुनान्चे मिन जुमला दीगर रवायात के एक रवायत ये भी है कि एक मरतबा उन्होंने औरतों को नसीहत करते हुए फ़रमाया कि तुम में से जिस औरत के बाल हों वो उन्हें संवार कर रखे।( 3)
इस के बाद........ उक़ाद का ये इन्किशाफ़क़ारी को हैरत ज़दह कर देता हैः-
जमल के वाक़ेआत पढ़ कर ये इल्म भी होता है कि हज़रत आयशा जहरूस सूरत थीं।( 4)
इन इन्किशाफ़ात के बाद हज़रत आयशा के हुस्नो जमाल की हक़ीक़त को अक़्लो ख़िरद की कसौटी पर परख लेना कोई दुश्वार अम्र नहीं । अगर उक़ाद की मज़कूरह तहरीरों को मुशक्कल कर दिया जाये तो मोहतरमा एक ऐसी मुहीब औरत की शक्ल में उभर कर सामने आती है कि जिसके सर पर बाल नहीं जो मुसलसल बीमार रहती है , और जिसकी आवाज़ मर्दाना और ग़रज़दार है।
अब मोहतरम कारेईन ख़ुद फ़ैसला करें कि क्या एक गंजी , दाएमुल मरीज़ और जहरूस सूरत औरत को दुनिया का कोई अक़लमन्द इन्सान हुस्नों जमाल का मुजस्समा क़रार दे सकता है ? और क्या ऐसी औरत ख़ूब सूरत कही जा सकती है ?
हरीर में आयशा
बुख़ारी में हज़रत आयशा का बयान है कि रसूलल्लाह (स.अ.व.व) ने मुझ से फ़रमायाः-
मैंने दो बार तुझको ख़्वाब में देखा कि एक शख़्स (जिब्रील) तुझको हरीर के एक टुकड़े में उठाये हुए है और वो कहता है कि ये तुम्हारी बीवी है मैंने वो कपड़ा खोला तो अन्दर तू निकली मैंने कहा , अगर ये ख़्वाब अल्लाह की तरफ़ से है तो वो ज़रूर पूरा करेगा।( 1)
चन्द लफ़्ज़ों की उलटफेर से ये हदीस मिशकात( 2) और तिर्मिज़ी( 3) में भी बयान की गई है और बाज़ मुवर्रेख़ीन का कहना है कि हज़रत आयशा की ये आसमानी तस्वीर सब्ज़ रंग के रेशमी कपड़ों में लपेट कर तीन बार आं हज़रत को ख़्वाब में पेश की गयी।( 4)
मसलिहत के स्टूडियों में पैग़म्बरी ख़्वाब के कैमरे से खींची गयी इस तस्वीर के बारे में अल्लामा अब्दुल हक़ मुहद्दिसे देहेल्वी अपनी अक़ीदत का मुज़ाहिरह करते हुए रक़म तराज़ हैः-
इस से मुराद इज़्हारे शौक़ो रंगबत है और आयशा के लिए ये मनक़बते अज़ीम है कि अल्लाह के रसूल (स.अ.व.व) के पास पहुंचने से पहले उन्होंने रसूल (स.अ.व.व) को अपने जमाले पुरअनवार का मुश्ताक कर दिया और क्यों न इश्तियाक़ होता कि ज़ुलैख़ा ने ख़्वाब में यूसुफ़ (अ.स) को एक मरतबा देखा था तो वो आशिक़ो फ़रेफ़्ता हो गयीं थीं और यहां सरवरे कायनात ने आयशा की तस्वीर तीन बार देखी , फिर उन्सो मुहब्बत में ज़्यादती क्यों न होती।( 5)
बाज़ दूसरी अज़्वाज के बारे में अल्लामा मौसूफ़ फ़रमाते हैः-
उन्होंने रसूल की ज़ौजियत में आने से पहले ख़्वाब में देखा कि उनके घरों में आफ़ताब उतर आया है या आसमान से माहताब आ गया है। जैसा कि हज़रत ख़दीजा (स.अ.) और हज़रत सौदा के हालात में मरक़ूम है मगर ये हज़रत आयशा के इन्तिहाई हुस्नो जमाल की कैफ़ियत थी वो रसूल के लिए ब बन्ज़िला ए यूसुफ़ और रसूल उनके लिए ब मन्ज़िला ए ज़ुलैख़ा थे।( 6)
वहशत में हर एक नक़्शा उल्टा नज़र आता है।
मजनू नज़र आती है लैला नज़र आता है।।
इस मोहमल और वज़ई ने अब्दुल हक़ मुहद्दिस ऐसे होशमन्द और जलीलुल क़द्र आलिम को भी चक्कर में उलझा कर उनकी अक़्ल की बिसात उल्ट दी और वो ऐसी दहशत का शिकार हुए कि ख़ुदा का रसूल (स.अ.व.व) उन्हें ज़ुलैख़ा दिखाई देने लगा और आयशा युसूफ़ नज़र आने लगीं। जब कि इस हदीस पर ग़ौरो फ़िक्र करने और इसे तारीख़ की रौशनी में देखने से यह हक़ीक़त वाज़ेह हो जाती है कि हज़रत आयशा ने अपनी फ़ज़ीलत और ख़ुदनुमाई की ज़रूरत के तहत बज़ाते ख़ुद इसको जन्म दिया या फिर इसकी इख़तिरा का सेहरा उम्बी दौर के ज़र ख़रीद मुअर्रेख़ीनो मुहद्दिसीन के सर है।
बुख़ारी ने अपनी सहीह में इन ग़लत अहदीस को आयशा की ज़बानी नक़्ल किया है और एबारत में एक शख़्स के आगे ब्रेकेट में जिब्रील का नाम तहरीर किया है जिससे ये इश्तिबाह पैदा होता है कि ये नाम इज़ाफ़ी हैं।
अगर थोड़ी देर के लिए ये मान लिया जाये कि आयशा की तस्वीर लाने वाले जिब्रील ही थे तो सवाल यह पैदा होता है कि वो और किसी मौक़े पर पैग़म्बर (स.अ.व.व) के ख़्वाब में क्यों नहीं आयें ? आख़िर हज़रत आयशा में कौन सी ख़ूबी कौन सी इन्फ़िरादियत और कौन सा कमाल था कि उनकी वजह से उन्हें बार बार पैग़म्बर के ख़्वाब में आना पड़ा ? ये एक मामूली सा काम था जो रसूलल्लाह की बेदारी की हालत में भी हो सकता था और आयशा की यही तस्वीर कपड़े में लपेट कर , कागज़ के लिफ़ाफ़े में मोहर बन्द कर के या फ़्रेम मढ़वा कर उनकी ख़िदमत में पेश की जा सकती थी।
रसूले अकरम (स.अ.व.व) का ये तर्ज़े अमल भी क़ाबिले ग़ौर है कि वो आयशा की तस्वीर बार बार ख़्वाब में देखने के बावजूद हज़रत अबू बकर से उनकी ख़्वाहिश नहीं करते बल्कि अक़्द का मस्अला मशहूर सहाबी उस्मान बिन मसऊन की बीवी ख़ूला बिन्ते हकीम की बदौलत मन्ज़िले तकमील तक पहुंचता है।
इसके अलावा तारीख़ ये भी कहती हैं कि हज़रत ख़दीजा (स.अ.) की वफ़ात के बाद जब आयशा छः बरस की बच्ची थी तो अबू बकर ख़ुद ही उन्हें लेकर पैग़म्बर (स.अ.व.व) के पास पहुंचे और बच्ची को आं हज़रत की ख़िदमत में पेश करते हुए फ़रमाया किः-
या रसूलल्लाह (स.अ.व.व) आप इस से दिल बहलायें।
फिर जब मुवर्रेख़ीन की अक़सरियत इस बात पर अड़ी हुई है कि आयशा छः साल की उम्र में रसूल (स.अ.व.व) के अक़्द में आयीं तो ये सराहत क्यों नहीं की गयी कि उस वक़्त मोहतरमा की उम्र क्या थी ? आग़ोशे मादर में थीं या उम्र की दो चाल मन्ज़िले तय कर चुकी थी ? तीन चार बरस की बच्ची का जमाले पुर अनवर क्या होगा ? इसे सिर्फ़ अल्लामा मुहद्दिसे देहेल्वी की अक़ीदत ही समझ सकती है।
इस तमाम अक़्ली दलीलों के बावजूद अक़ीदतमन्दाने आयशा इस हदीस को दुरूस्त समझे और अपनी हठधर्मी पर क़ायम रहें तो किसी को क्या एतराज़ हो सकता है। हम तो इतना जानते हैं कि किसी की तस्वीर सिर्फ़ उसकी ख़ूबियों और अच्छाईयों की आईनादार नहीं होती बल्कि बुरे लोगों और मुजरिमों की पहचान के लिए भी काम आती है।