हज़रत आयशा की मिज़ाजी कैफ़ियत
मनचली , रंगीन मिजाज़ और शौकीन औरतों की सिफ़त में हज़रत आयशा सरे फ़ेहरिस्त हैं। रसूले जैसे शाइस्ता और मोहज्ज़ब शख़्स के घर में आने के बाद भी नाच , रंग गाना , बजाना और खेल कूद आपका महबूब तरीन मशग़ला था। जैसा कि बुख़ारी , मुस्लिम , मिशक़ात और तिर्मिज़ी वग़ैरह की रवायतों से साबित है।
अहलेबैत (अ.स) से दुश्मनी और पैग़म्बर की दीगर अज़्वाज से रश्को हसद और नफ़रतों कदूरत आपकी तीनत में रवां दवां थी। आपकी मुतहर्रिको मुज़तरिब तबीअत , शरफ़ो मन्ज़िलत और बुज़ुर्गी व बरतरीका आसमान छूने के लिए हर लम्हा बेचैन रहती थी। नख़वत , ग़ुरूर और ख़ुदपरस्ती का ये आलम था कि अपने आगे किसी की कोई अहमियत नहीं समझती थीं।
उन्हें सिर्फ़ अपने मैके वाले और रिश्तेदारों का ख़्याल रहता था और उन्हीं पर जान छिड़कती थीं। मिजाज़ में चिड़चिड़ापन भी था जिसकी वजह से बात बात पर पैग़म्बर और उनकी अज़्वाज से लड़ाई झगड़ा तू-तू मैं-मैं और मारपीट हुआ करती थी , ग़ीबत और चुग़लख़ोरी की आदत से मजबूर थीं , फ़ितरत में नफ़ासत पसन्दी और ख़ुदनुमाई थी इस लिए अपने बनाव सिंघार और अराइशों ज़ेबाइश का ख़्याल रखती थीं और ख़ुश्बू में बसे हुये ज़र्दो सुर्ख़ कपड़े ज़्यादा पहनती थीं ताकि शौहर की तवज्जो आपकी भरपूर जवानी पर हमावक़्त मरक़ूज़ रहे।
पार्टी बन्दी
हज़रत आयशा के जज़्बा ए हसद ने अज़्वाजे रसूल (स.अ.) में इफ़्तिराकों इख़तिलाफ़ पैदा कर के उन्हें बक़ायदाह दो पार्टियों में तक़्सीम कर दिया था। एक पार्टी की क़यादत मुअज़्ज़मा ख़ुद फ़रमाती थीं , जो रसूलल्लाह (स.अ.व.व) की परेशानी और ईज़ारसानी का सामान मुहैय्या करतीं थीं , और दूसरी पार्टी की नुमाइन्दह हज़रत उम्मे सलमा थीं जो पैग़म्बर (स.अ.व.व) की हमदर्द , ग़मगुसार , मोईनो मददगार दुख सुख की साथी और अहलेबैत (अ.स) की हामी व हमनवां थीं।
अल्लामा अब्दुल वहाब शेरानी ने अनस से रवायत की है कि रसूलल्लाह (स.अ.व.व) की बीवियों में दो पार्टियां थीं , एक पार्टी में आं हज़रत की और बीवियां थी( 1) मिस्री मुअर्रिख़ अब्बास महमूद उक़ाद फ़रमाते हैः-
तमाम बीवियों में हज़रत उम्मे सलमा (र) ही हज़रत आयशा का खुल्लम खुल्ला मुक़ाबला किया करती थीं चूकि रसूलल्लाह (स.अ.व.व) उनकी तबीअत और सरिश्त से अच्छी तरह वाक़िफ़ थे इस लिए उनसे बहुत अच्छा सुलूक किया करते थे। हज़रत आयशा को ये देख कर बहुत तकलीफ़ हुआ करती थी चुनान्चे वो बयान करती है कि एक दिन रसूलल्लाह (स.अ.व.व) मेरे पास तशरीफ़ लाये तो मैंने उन से कहाः-
आप सारा दिन कहां रहते हैं ?
आपने जवाब दिया – हुमैरा , मैं उम्मे सलमा के पास था।
मैंने कहाः न मालूम उम्मे सलमा के पास आपको क्या मिलता है ?
हुज़ूर (स.अ.व.व) ये सुन कर मुस्कुराए और ज़बान से कुछ नहीं कहा , फिर मैंने कहा या रसूलल्लाह (स.अ.व.व) ये तो बताइये कि अगर दो घाटियां हो , एक घाटी बंजर हो जिस में का सब्ज़ा जानवरों से महफ़ूज़ भी हो तो आप किस घाटी में सैर करना पसन्द करेंगे ? हुज़ूर (स.अ.व.व) ने जवाब दिया , सरसब्ज़ों शादाब घाटी में। तब मैंने कहा कि मेरा रूतबा तमाम बीवियों में सब से बुलन्दतर है क्यों कि मेरे सिवा कोई कुंआरी औरत आपके अक़्द में नहीं आई ये सुन कर रसूलल्लाह (स.अ.व.व) दोबारा मुस्कुरा दिये ( 2)
आयशा कितनी ज़बरदस्त कुंआरी थीं ? इसकी तफ़सील शादी के उनवान से रक़म हो चुकी है बहरहाल , इसी रवायत को बुख़ारी ने दूसरे अन्दाज़ से तहरीर फ़रमाया है। वो लिखते हैः-
आयशा ने आं हज़रत से कहाः-
या रसूलल्लाह (स.अ.व.व) आप एक जंगल में जाए और वहां एक दरख़्त देखें जिसको ऊंट चर गये हों , फिर एक (दूसरा) दरख़्त देखें जिस में किसी ने न चरा हो तो आप अपने ऊंट को किसी दरख़्त में चरायेंगे ? आपने फ़रमाया , उस दरख़्त में जिसे किसी ने न चरा हो।( 3)
इस लगों , मोहमल और मज़हका ख़ेज़ रवायत के रावियों को हज़रत आयशा की ग़ैरत ने शायद ये नहीं बताया कि उनकी इस बेहूदा और ग़ैर मुहज़्ज़ब गुफ़्तुगू का पैग़म्बर की मुहज़्ज़ब सरिश्त पर क्या रद्देअमल देखा ? यानी इस गुफ़तुगू के बाद सरकारे दो आलम आपकी सरसब्ज़ो शादाब घाटियों की सैर से लुत्फ़ अन्दाज़ हुए या नहीं ? उन्होंने अपने ऊंट को आपकी चरागाह में चराया या नहीं ?
ख़ुदा न ख़्वास्ता मुअज़्ज़मा कहीं इस अम्र की वज़ाहत फ़रमा देतीं तो बुख़ारी ऐसे न जाने कितने अक़ीदतमन्द मुद्दीसीनों मुवर्रेख़ीन अजूबा समझ कर उसे भी अपनी किताबों की ज़ीनत बना लेते और दुश्मनाने इस्लाम को पैग़म्बर (स.अ.व.व) पर अंगुश्त नुमाई का एक मौक़ा और फ़राहम हो जाता।
मेरे नज़दीक इस रवायत की कोई असलियत या अहमियत नहीं है क्यों कि इस से हज़रत आयशा की बेग़ैरती और बेहयाई का पता चलता है।
अहलेबैत (अ) से आयशा की अदावत
हज़रत आयशा और अहलेबैत (अ.स) के दरमियान अदावत का सिलसिला मासूमा ए कौनेन हज़रत फातेमा ज़हरा (स.अ) से शुरू होता है। जिनकी हमागीर अज़मतो तौक़ीर आयशा के दिल में कांटे की तरह खटकती थी चुनान्चे अंग्रेज़ी मुवर्रिख़ कोर्ट फ़्रेशलर आलमानी अपनी किताब आयशा बाद अज़ पैग़म्बर (स.अ.व.व) में लिखता हैः-
जब हज़रत आयशा का रिश्ता पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व) से तय हो गया और ये ख़बर गर्म हुई कि वो रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व) की बीवी होने वाली है तो उन्हें हज़रत फातेमा ज़हरा (स.अ) से इस लिए रश्क़ पैदा हो गया कि हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व) उन्हें इस क़दर चाहते क्यों हैं ? उन से इतनी मोहब्बत क्यों करते हैं ? रावी कहता है कि मुझे यक़ीन है कि रोज़े अव्वल ही से आयशा के दिल में अली (अ.स) और फातेमा (स.अ) की तरफ़ से अदावत पैदा हो गयी थी।( 1)
आलमानी की ये बात इस लिए क़ाबिले क़ुबूल और क़रीने क़यास है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व) ने हज़रत ख़दीजा र 0 के इन्तिक़ाल के बाद आयशा से अक़्द किया और उन्हें अपने घर लाये हज़रत फातेमा ज़हरा (स.अ) बहरहाल हज़रत ख़दीजा र 0 की इकलौती बेटी थी और ये मुशाहिदा है कि जब किसी लड़की की माँ दुनिया से रूख़सत हो जाती है और उस लड़की का बाप किसी दूसरी औरत से शादी कर के उसे अपने घर में ले आता है तो उस लड़की और औरत के दरमियान कशीदगी या तनाव का पैदा हो जाना एक फ़ितरी अम्र है क्यों कि बाप का रूजहानों मैलान उस औरत की तरफ़ होता है और लड़की उस अजनबी औरत की तरफ़ अपने बाप के रूजहानों मैलान को उसी तरह ना पसन्द कतरी है जिस तरह वो अपनी माँ की सौतन को। लिहाज़ा इन हालात में आयशा की तरफ़ से हज़रत फातेमा का दामन कश होना ताज्जुब ख़ेज़ नहीं हो सकता , (जबकि ऐसा नही हुआ) बल्कि ताज्जुब ख़ेज़ हज़रत आयशा का वो तर्ज़े अमल है जो अपने अज़ीम शौहर की अज़ीम बेटी की क़दरो मन्ज़िलत से वाक़िफ़ होने के बावजूद उसकी दिल जुई कर सका न प्यार दे सका और न उसे अपना सका।
तारीख़े शाहिद है कि सरवरे कायनात ने अपनी मरहूम बीवी की इस वाहिद निशानी फातेमा (स.अ) की जो ताज़ीमो करीम की उसकी मिसाल नहीं मिलती। जब सैय्यदा ए आलमिया (स.अ) आपकी ख़िदमत में तशरीफ़ लाती तो आप उन्हें देखते ही ताज़ीम के लिए खड़े हो जाते और उन्हें अपनी मसनद पर जगह देते। शायद ही किसी बाप ने अपनी बेटी की ऐसी इज़्ज़तो तौक़ीर की हो जैसी की पैग़म्बर (स.अ.व.व) ने की। चुनान्चे आपने एक मरतबा नहीं , बार बार एक मक़ाम पर नहीं , मुख़तलिफ़ मक़ामात पर , हर ख़ासो आम के सामने बिल ऐलान ये फ़रमाया किः-
फातेमा (स.अ) तमाम औरतों की सरदार हैं।( 2)
फातेमा (स.अ) मरयम बिन्ते इमरान का जवाब है। ( 3)
फातेमा (स.अ) जब मौक़िफ़े हिसाब से गुज़रेंगी तो एक मुनादी निदा देगा कि ऐ हिसाब वालों अपनी आंखें बन्द कर लो ताकि फातेमा (स.अ) बिन्ते मोहम्मद (स.अ.व.व) गुज़र जायें। ( 4)
फातेमा (स.अ) मेरे जिस्म का टुकड़ा हैं , जिस ने इन्हें अज़ीयत दी , उसने मुझे अज़ीयत दी। ( 5)
इस क़िस्म की बातें आयशा के कीना व एनाद में इज़ाफ़े का बाइस होती। सौतापे की जलन ये गवारा न कर सकती कि पैग़म्बर सौत की दुख़तर को ये मरतबा दें इस तरह चाहें कि उसे देखते ही ताज़ीम के लिए खड़े हों। अपनी मसनद पर जगह दें और सैय्यदते निसाईल आलमीन कह कर तमाम दुनिया की औरतों पर उसकी फ़ौक़ीयत को ज़ाहिर करें।
तारीख़ से निशानदही भी हो जाती है कि हज़रत अबू बकर ने रसूलल्लाह से आयशा की शादी इस ग़रज़ इस ख़्वाहिश इस आरज़ू और इस तमन्ना के तहत की थी कि उनकी बेटी के बत्न से और पैग़म्बर के नुतफ़े से जो बच्चा होगा वो रसूल का जानशीन और वारिस होगा। ख़लीफ़ातुल मुस्लिमीन बनेगा और तमाम बेलाहे इस्लामी पर उसकी हुकूमत होगी , और यक़ीन है कि ख़ुद आयशा भी यही ख़्वाब देख रही थीं चुनान्चे इब्तिदा में जब वो रसूल के घर में ब्याह कर आयीं तो अपने साथ उमंगों , आरज़ूओं , तमन्नाओं और ख़ुशियों का एक तूफ़ान लेकर आयीं , और आपका रवैया भी मियाना रहा लेकिन कुछ अर्से के बाद जब मारिया कब्तिया के बत्न से इब्राहीम (अ.स) की विलादत हुई और उन्हें इस बात का एहसास हुआ कि वो अक़ीमा (बांझ) हैं तो उनका सारा ख़्वाब हवा में उड़ गया। उमंगों , आरज़ूओं तमन्नाओं का आलीशान ख़्याली क़स्र एक ही झटके में ज़मीन दोज़ हो गया। अरमानों पर ख़ाक और ख़ुशियों पर ओस पड़ गयी। जज़्बात सर्द पड़ गये ख़्यालात गुम हो गये , तसव्वुरात धुंवा हो गये और जज़्बा ए रश्को हसद पर भरपूर जवानी आ गयी।
(इस किताब को आप “अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क ” पर पढ़ रहे है।)
अल्लामा इब्ने सअदे वाक़िदी लिखते हैं किः-
अज़्वाजे रसूल पर इब्राहीम की ख़बर बार हुई और जब उन्हें इत्तिलाअ मिली कि इब्राहीम पैदा हुए हैं तो शदीद क़लक हुआ।( 6)
अज़्वाजे रसूल में इस ख़बर से किस किस पर बिजली गिरी होगी ? इसका फ़ैसला हर वो शख़्स कर सकता है जिसकी नज़र इस्लाम की तारीख़ पर है। हम भी यह वज़ाहत कर चुके हैं कि हज़रत आयशा ने अज़्वाज को दो पार्टियों में तक़सीम कर दिया था और एक पार्टी की क़यादत ख़ुद फ़रमाती थीं जिस में हफ़सा सौदा और सफ़ीया शामिल थीं लिहाज़ा जो लोग अबू बकर और आयशा के मक़सद से बा ख़बर हैं वो फ़ौरन यह कह देंगे कि इस ख़बर से आयशा और उनकी पार्टी की बीवियों पर ही बिजली गिरी होगी।
हज़रत आयशा खुद फ़रमाती हैः-
मारिया की तरफ़ से रश्को हसद का जज़्बा मेरे दिल में था , वो किसी दूसरी औरत से नहीं था क्यों कि मारिया बेहद ख़ूब सूरत और हसीन थीं चुनान्चे जब हुज़ूर (स.अ.व.व) मारिया के पास जाते तो हम पर बहुत शाक गुज़रता।( 7)
और ये बयान भी आयशा ही का है कि जब इब्राहीम पैदा हुए तो रसूलल्लाह (स.अ.व.व) उन्हें मेरे घर लाये और मुझसे फ़रमाया कि देखो , ये बच्चा मुझसे कितना मुशाबेह है मैंने जल कर कहा , मुझे तो कोई मुशाबेहत नज़र नहीं आती।
रसूलल्लाह (स.अ.व.व) ने फ़रमायाः-
क्या तुम ये नहीं देखती कि ये कितना तन्दरूस्त है और इसका रंग कितना गोरा है।
मैंने जवाब दिया कि जो बच्चा बकरी का दूध पीकर पलेगा वह ऐसा ही होगा।( 8)
औरत के लिये संग दिल होना उसके निसवाना वक़ार की पेशानी पर बदनुमा दाग़ है। आयशा ने रसूल (स.अ.व.व) के जज़्बात का भी कुछ पासो लिहाज़ न किया और उल्टे जली कटी सुनाने लगीं , दिल ही दिल में इस अन्दाज़ से कोसा कि डेढ़ ही साल की उम्र में इब्राहीम इस दुनिया से उठ गये और 10 हिजरी में आपका इन्तिक़ाल हो गया यानी आयशा की नज़र पैग़म्बर के इस नूरे नज़र को खा गयी। शायद इब्राहीम का क़ुसूर ये था कि वो आयशा के बत्न से पैदा होने के बजाय मारिया के बत्न से क्यों पैदा हो गये ?
मुवर्रेख़ीन का कहना है कि जिस दिन इब्राहीम का इन्तिक़ाल हुआ और रसूल अल्लाह (स.अ.व.व) उन्हें सिपुर्दे ख़ाक कर चुके तो देर तक क़ब्र पर खड़े होकर आंसुओं से रोते रहे मगर आयशा पर इस हादसे का कोई असर नहीं हुआ।
जब मारिया और इब्राहीम से आयशा के रश्को हसद और ख़ुसूमतो अदावत का ये हाल था तो रसूल (स.अ.व.व) की उस बेटी को मोहब्बत की नज़र से क्यों कर देखतीं जिसका एहतराम हुज़ूर (स.अ.व.व) ख़ुद करते हों , जिस से बे पनाह मोहब्बत रखते हों , जिसको मुबाहिला में नुबुव्वत का गवाह और रिसालत का शाहिद बना कर ले गये हों , जिसको ख़ातूने जन्नत , शफ़ीआ ए महशर और जिसे सैय्यदते निसाइल आलमीन कहा हो जिसे उम्मे अबीहा का लक़ब मरहमत फ़रमाया हो और जो सूरा ए कौसर की तफ़सीर और कुफ़्फ़ारे मक्का के तानों का जवाब बन कर आई हो , और जिसकी गोद में आने वाले मासूम बच्चे इमामे हसन (अ.स) और इमामे हुसैन (अ.स) उम्मते मुस्लिमा के रहबर हों जिन के बारे में पैग़म्बर (स.अ.व.व) ने फ़रमाया हो कि ये दोनों जवानाने जन्नत के सरदार हैं और जिन्हें रसूले अकरम अपना फ़रज़न्द कहें।
इसके बरअक्स आयशा की गोद औलाद से ख़ाली थी और मां बन्ने की ख़्वाहिश ने अपने भांजे के नाम पर अपनी कुन्नियत उम्मे अब्दुल्लाह रख कर दिल को समझा लिया था , लेकिन इस एहसास की आग में मुअज़्ज़मा का वजूद हर वक़्त सुलगता रहता था कि अगर ख़ुद उनके बत्न से कोई औलाद होती तो वो हस्नैन (अ.स) के बजाय रसूल अल्लाह (स.अ.व.व) की मोहब्बतो शफ़क़त का मरक़ज़ बनती। इस उधेड़ बुन ने हज़रत फातेमा ज़हरा (स.अ) की तरफ़ से आयशा के दिल में वो नफ़रत पैदा कर दी थी कि उनका बस चलता तो मासूमा का गला ही घोंट देतीं मगर वो मजबूर थीं और सैय्यदह (स.अ) के ख़िलाफ़ लगाई बुझाई किया करतीं लेकिन इसके बावजूद वो रसूल (स.अ.व.व) की तवज्जोहात को फातेमा (स.अ) की तरफ़ से हटाने में कामयाब न हो सकीं और क़ुदरत उनके मनसूबों को ख़ाक में मिलाती रही।
इस रंजिश , कशीदगी और अदावत का तज़किरा हज़रत अबूबकर के कानों में भी पहुंचता रहता था जिससे वो दिल ही दिल में पेचोताब खाया करते थे। मगर उन के बनाये भी कुछ न बनती। सिवा इसके कि उनकी ज़बानी हमदर्दियां अपनी बेटी के साथ होती थीं। यहां तक कि रसूल (स.अ.व.व) इस दुनिया से रूख़सत हुए और हुकूमत की बागडोर उनके हाथों में आयी। अब मौक़ा था कि वो जिस तरह चाहते इन्तिक़ाम लेते जो तश्द्दुद चाहते रवा रखते। चुनान्चे उन्होंने पहला क़दम ये उठाया कि जनाबे फातेमा ज़हरा (स.अ) को विरासत से महरूम कर देने के लिए पैग़म्बरों के विरसे की नफ़ी कर दी और ये फ़रमाया कि........... अम्बिया न किसी के वारिस होते हैं और न उनका कोई वारिस होता है। बल्कि उनका तरका हुकूमत की मिल्कियत होता है। इस हादसे से जनाबे सैय्यदा इतना मुतास्सिर हुई कि उन्हों ने अबूबकर से बोलना छोड़ दिया , और इन्ही तास्सुरात के साथ दुनिया से रूख़सत हो गयीं। इस मौक़े पर भी आयशा ने अपनी रविश न बदली और ये तक गवारा न किया कि उनके इन्तिक़ाले पुरमलाल पर अफ़सोस का इज़हार करतीं।
चुनान्चे इब्ने अबिल हदीद ने तहरीर फ़रमाया है किः-
जब हज़रत फातेमा ज़हरा (स.अ) ने रेहलत फ़रमाई तो तमाम अज़्वाजे पैग़म्बर (स.अ.) बनी हाशिम के यहां जमा हो गयीं और आयशा नहीं आयी और ये ज़ाहिर किया कि वो बीमार हैं। उनकी तरफ़ से हज़रत अली (अ.स) तक जो अल्फ़ाज़ पहुंचे हैं उनसे मसर्रतो शादमानी का पता चलता है।( 1)
अस्मा बिन्ते उमैस से एक रवायत ये भी है किः-
जब फातेमा ज़हरा (स.अ) की वफ़ात हो गयी तो हज़रत आयशा तशरीफ़ लायीं मैंने उनको हुजरे में दाख़िल होने नहीं दिया तो उन्होंने ख़फ़ा हो कर अपने वालिद अबूबकर से शिकायत की। अबूबकर आये और उन्हों ने वजह दर्याफ़्त की कि आयशा को तुम बिन्ते रसूल (स.अ) के पास क्यों नहीं जाने देतीं ? मैंने कहाः-
ख़ुद बिन्ते नबी (स.अ) ने इस अम्र की मुमानिअत फ़रमाई है कि मैं इन्हें उनके जनाज़े पर न आते दूं।( 2)
अस्मा बिन्ते उमैस से मरवी ये रवायत पहली रवायत से ज़्यादा क़रीने क़यास और क़ाबिले क़ुबूल है क्यों कि मुअज़्ज़मा उस वक़्त अबू बकर की बीवी और आयशा की सौतेली मां थीं और फिर ये कि आप मौक़े पर मौजूद थीं।
इस रवायत से यह भी ज़ाहिर है कि मासूमा ए कौनेन (स.अ) से आयशा का एनाद इस हद तक था कि आपने अपने जनाज़े पर उन्हें आने से रोक दिया।
बहरहाल जब पैग़म्बर (स.अ.व.व) की बेटी से आयशा की दुश्मनी इस इन्तिहा पर थी तो जिसका दामन मासूमा से वाबस्ता हो वो किस तरह उनकी दुश्मनी से महफ़ूज़ रह सकता है और जिसके बारे में आयशा पैग़म्बर (स.अ.व.व) के ये इरशाद बराबर सुनती रहती थीं किः-
अली (अ.स) का दोस्त मोमिन और उनका दुश्मन काफ़िर है। ( 3)
मैं इल्म का शहर हूं और अली (अ.स) उसका दरवाज़ा। ( 4)
अली (अ.स) मुझ से हैं और मैं अली से हूं। ( 5)
अली (अ.स) मेरे बाद जुमला मोमिनीन के वली हैं। ( 6)
अली (अ.स) की दोस्ती गुनाहों को खा जाती है। ( 7)
अली (अ.स) और मैं एक ही नूर के दो टुकड़े हैं। ( 8)
अली (अ.स) की तरफ़ नज़र करना इबादत हैं। ( 9)
अली (अ.स) का ख़ूना मेरा ख़ून और अली (अ.स) का गोश्त मेरा गोश्त है। ( 10)
अली (अ.स) जन्नत और दोज़ख़ के तक़्सीम करने वाले हैं। ( 11)
अली (अ.स) हक़ के साथ हैं और हक़ अली के साथ हैं। ( 12)
मेरे बाद जब फ़ित्ना पैदा हो तो उस वक़्त अली (अ.स) की इताअत वाजिब है। ( 13)
अमीरूल मोमिनीन (अ.स) के इन फ़ज़ाइलों मनाक़िब के साथ रसूले अकरम (स.अ.व.व) ने यह भी फ़रमायाः-
अली (अ.स) पर ख़ुरूज करने वाला काफ़िर है। ( 14)
जंगे जमल के बाद जब हज़रत आयशा से पूछा गया कि इस हदीस की मौजूदगी में आपने हज़रत अली (अ.स) पर ख़ुरूज क्यों किया ? तो आपने फ़रमाया कि उस वक़्त मुझे यह हदीस याद नहीं रही।
पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व) ने अली (अ.स) , फातेमा (स.अ) , हसन (अ.स) , हुसैन (अ.स) से कुदूरतों अदावत रखने वालों को हरामी भी क़रार दिया। ( 15) लेकिन चूंकि हज़रत आयशा को उम्मुल मोमिनीन का मरतबा हासिल है इस लिए मैं उनके बारे में कुछ कहने का हक़ नहीं रखता मगर ये कहे बग़ैर भी नहीं रह सकता कि हज़रत अली (अ.स) फातेमा (स.अ) इमामे हसन (अ.स) और इमामे हुसैन (अ.स) के ख़िलाफ़ आप का मुख़ालिफ़ाना रवैया तारीख़ की नज़रों से पोशीदह नहीं है चुनान्चे इस ज़ैल में बुख़ारी का कहना है किः-
उम्मुल मोमिनीन हज़रत आयशा को हज़रत अली से इस क़दर दुशमनी थी कि वो उनका नाम अपनी ज़बान पर लाना पसन्द नहीं करती थीं। ( 16)
मुवर्रिख़े इस्लाम अल्लामा एहसान उल्लाह गोरखपूरी ने इस हक़ीक़त को यूं बयान किया हैः-
आं हज़रत (स.अ.व.व) , हज़रत अली (अ.स) और हज़रत फातेमा (स.अ) पर अज़हद फ़रेफ़्ता थे आयशा को बइक़्तिज़ाए इनसानियत इस का रश्क था और ये रश्क मुख़तलिफ़ वाक़िआत से नफ़रत की हद तक पहुंच गया था। ( 17)
अल्लामा मौसूफ़ के बइक़तिजाए इनसानियत से मुझे क़तई इत्तिफ़ाक़ नहीं है क्यों कि रश्को हसद हर इन्सान में नहीं होता बल्कि बाज़ लोगों की सरिश्त में फ़ितरतन हासिदाना उन्सूर पाया जाता है और रश्क उसी हासिदाना उन्सूर का हिस्सा है। इस के अलावा अल्लामा को यह सराहत भी फ़रमाना चाहिए था कि वो मुख़तलिफ़ वाक़िआत क्या थे जो आयशा की मुख़ालिफ़त को हवा देते रहे और उन के जज़्बा ए नफ़रत को उभारते रहे ? जिसकी वजह से आप नफ़रत के समन्दर में ग़र्क़ हो गयीं।
तारीख़ बताती है कि इन वाक़िआत में सब से अहम वाक़िआ वाक़ेया ए अफ़क़ है जिस के ज़ैल में पैग़म्बर (स.अ.व.व) से हज़रत अली (अ.स) ने ये फ़रमाया कि आयशा आपकी जूती का तसमा हैं इसे छोड़िये और तलाक़ दे कर अलग कीजिए।
ज़ाहिर है कि हज़रत आयशा ने अपने बारे में जब हज़रत अली (अ.स) के ये कल्मात सुने होंगे तो बेक़रारी के बिस्तर पर करवटें बदलने लगी होंगी और उनके दिल में अमीरूल मोमिनीन के ख़िलाफ़ नफ़रतों अदावत का जज्बा इन्तिहाई शिद्दत से उभरा होगा। इस के अलावा ऐसे भी वाक़ेआत पेश आते रहे कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व) ने बाज़ उमूर में उनके वालिद अबूबकर के मुक़ाबले में हज़रत अली (अ.स) को इम्तियाज़ी और ख़ुसूसी मरतबा अता किया और उन के मदारिज़ को नुमाया और बलन्द किया जैसा सूरा ए बराअत की तबलीग़ के मौक़े पर अबूबकर को माजूल कर के उन्हें वापस बुला लेना और हुक्में इलाही के तहत अज़ीम ख़िदमत हज़रत अली (अ.स) के सिपुर्द कर देना या इसी तरह मस्जिदे नब्वी में खुलने वाले तमाम दरवाज़ों को (जिन में अबूबकर का दरवाज़ा भी शामिल था) बन्द कर देना और सिर्फ़ हज़रत अली (अ.स) के घर का दरवाज़ा खुला रहने देना।
आयशा को अपने बाप के मुक़ाबले में हज़रत अली (अ.स) का तफ़व्वुक़ क्यों कर गवारा होता। चुनान्चे जब भी कोई इम्तियाज़ी सूरत पैदा होती तो मुअज़्ज़मा उसका डटकर मुक़ाबला करतीं और उसे मिटाने में कोई कसर न उठा रखतीं।
चुनान्चे उनकी इस जद्दो जहद का अन्दाज़ा उस वाक़ेए से होता है जब पैग़म्बर (स.अ.व.व) ने वक़्ते आख़िर असामा का लश्कर तरतीब दिया और तमाम अंसारों मुहाजिरीन के साथ अबूबकर और उमर को भी उस लशकर में शामिल हो कर जाने का हुक्म दिया और जब ये लशकर इन दोनों हज़रात के इन्तिज़ार में हुदूदे मदीना से बाहर निकल कर ख़ैमाज़न हुआ तो आयशा की तरफ़ से उन्हें यह पैग़ाम मिला कि आं हज़रत (स.अ.व.व) की हालत इन्तिहाई नाज़ुक है लिहाज़ा लश्कर को पेश क़दमी करने के बजाय पलट आना चाहिए , शायद उनकी नज़रों ने यह भांप लिया था कि मदीने को मुहाजिरीन , अनसार और अकाबिरी ने सहाबा से ख़ाली कराने का मक़सद सिर्फ़ ये हो सकता है कि वफ़ाते रसूल (स.अ.व.व) के बाद ख़िलाफ़त के मस्अले में हज़रत अली से कोई शख़्स वज़ाओ मुज़ाहमत न कर सके और किसी शोरिश अंगेज़ी के बग़ैर ख़िलाफ़त के मनसब पर आसानी से फ़ाइज़ हो सके।
चुनान्चे असामा का लश्कर हज़रत आयशा के इस पैग़ाम पर अफ़रा तफ़री का शिकार हुआ। जब पैग़म्बर ने यह देखा तो असामा को फ़िर लशकर ले जाने की ताक़ीद की और ये तक फ़रमा दिया कि जो शख़्स असामा के लशकर से तख़ल्लुफ़ करेगा उस पर ख़ुदा की लानत होगी। असामा लशकर के साथ रवाना हो गये मगर उन्हें फिर पलटाया गया जब कि आयशा को ये मालूम था कि ख़ुदा और रसूल की नाफ़रमानी कुफ़्र की दलील है। ग़रज़ कि हुज़ूरे अकरम (स.अ.व.व) के मरज़ में शिद्दत पैदा हुई और लशकर का मामला आगे न बढ़ सका इस कार्यवाई के फ़ौरन बाद आयशा ने बिलाल के ज़रिये अपने वालिद अबूबकर को ये पैग़ाम भेजा कि नमाज़ में रसूल की जगह वो इमामत के फ़राइज़ अन्जाम दें ताकि उनके लिए ख़िलाफ़त का रास्ता हमवार हो सके और यही वो हरबा था जिसने रसूल के बाद अबूबकर को ख़लीफ़ा बना दिया। इसके बाद भी ख़िलाफ़त के मस्अले में उम्मुल मोमिनीन की पुश्ते परदा कोशिश यही रही कि वो हज़रत अली (अ.स) के हाथों तक न पहुंच सके लेकिन क़त्ले उस्मान के बाद हालात ने इस तरह करवटें ली कि उम्मते मुस्लिमा हज़रत अली (अ.स) के हाथ पर बैअत के लिए मजबूर हो गयी। आयशा उस मौक़े पर मक्के में थीं , जब उन्हें हज़रत अली (अ.स) के हाथों पर मुसलमानों की बैअत का हाल मालूम हुआ तो आपे से बाहर हो गयीं। आंखों से शरारे बरसने लगे , ग़ैज़ो ग़ज़ब ने मिज़ाज में बरहमी पैदा कर दी और नफ़रतों अदावत ने वो शिद्दत इख़्तियार की , कि जिस ख़ूंन के मुबाह होने का फ़त्वा दे चुकी थीं उसी के क़िसास का सहारा ले कर उठ खड़ी हुई और ख़ुल्लम ख़ुल्ला हज़रत अली (अ.स) के साथ जंग का ऐलान कर दिया। जिस के नतीजे में ऐसा कुश्तो ख़ून हुआ कि बसरा की ज़मीन सुर्ख़ हो गयी और इफ़तिराक़ का दरवाज़ा हमेशा के लिए खुल गया लेकिन इसके बाद भी हज़रत आयशा के दिल में अदावत की ये आग मुसलसल भड़कती रही , यहां तक कि हज़रत अली (अ.स) की शहादत वाक़े हुई तो आपने शुक्र का सज्दा किया , मसर्रतो शादमानी का इज़हार फ़रमाया और तरबिया अशआर पढ़े जिस पर ज़ैनब बिन्ते सलमा ने आपको टोका और कहा , ये क्या ग़ज़ब कर रही है , तो आप ने फ़रमाया कि मैं तो भूल गयी थी।
हज़रत अली (अ.स) की शहादत के मौक़े पर हज़रत आयशा की ये भूल कयामत के दिन उन्हें किस तरफ़ ले जायेगी , इसके बारे में कोई कुछ नहीं कह सकता , सिर्फ़ अन्दाज़ा मुम्किन है।
आयशा की यही नफ़रतों अदावत हज़रत अली (अ.स) और हज़रत फातेमा (स.अ) से एक क़दम आगे बढ़ कर उनके फ़रज़न्दों इमामे हसन (अ.स) और इमामे हुसैन (अ.स) तक इस अंदाज़ से पहुंची कि आप उनसे परदह करने लगीं।( 1) ग़ालिबन नवासों से नानी जान का परदह इस्लामी शरियत का वो पहला , आख़िरी और वाहिद परदह है जिसकी मिसाल ज़माना पेश करने से क़ासिर है।
तारीख़े गवाह हैं कि अपने इन नवासों से नानी जान की अदावत का ये हाल था कि जब इमामे हसन (अ.स) को माविया ने जअदह बिन्ते अशअस के ज़रिये ज़हर दिलवा दिया और आपकी शहादत वाक़े हो गयी तो मुअज़्ज़मा ने आपके जनाज़े को रसूल (स.अ.व.व) के रौज़े में दफ़्न नहीं होने दिया( 2) और हंगामा करने की ग़रज़ से मरवान बिन हकम और सईद बिन आस वग़ैरह के साथ खच्चर पर सवार हो कर ख़ुद भी निकल पड़ी चुनान्चे आपकी क़यादत में इमामे हसन (अ.स) के जसदे ख़ाकी (पार्थिव शरीर) पर इतने तीर बरसाये गये कि सत्तर तीर जनाज़े में पेवस्त हो गये। ( 3) और मजबूरन इमाम (अ.स) का जनाज़ा जन्नतुल बक़ी में दफ़्न कर दिया गया।
इस वाक़े को शोअरा ने भी नज़्म किया है। किसी शाइर का एक शेर बहुत मशहूर है जिसका तर्जुमा ये हैः-
ऐ आयशा तुम कल ऊंट पर सवार थीं , और आज मैं देखता हूं कि खच्चर पर सवार होकर निकली हो।
अहलेबैत अतहार (अ.स) से हज़रत आयशा की अदावतो ख़ुसूमत निस्वानी तारीख़ का एक ऐसा अल्मिया हैं जिसकी मिसाल क़यामत तक ज़माना पेश करने से आजिज़ो क़ासिर रहेगा। ( 3)