दूसरा बोहतान
मुस्लिम , बुख़ारी और तिर्मिज़ी वग़ैरा में ये रवायत भी हज़रत आयशा की ज़बान से मरकूम है जिसमें आपने ये फ़रमाया है किः-
पैग़म्बर (स.अ.व.व) पर वही का सिलसिला अच्छे ख़्वाबों से शुरू हुआ। आं हज़रत , शुरू ज़माना ए नबुवत में जब कोई ख़्वाब देखते तो वह सुबह की रौशनी की तरह होता , यानी सच्चा ख़्वाब होता , जैसा देखते वैसा ही बेदारी मं ज़ाहिर होता। फिर आपको ख़लवत नशीनी , महबूब रहने लगी , चुनान्चे ग़ारे हिरा में तन्हा जा कर बैठा करते थे। एक दिन फ़रिश्ता आपके पास आया , और कहा पढ़िये , आं हज़रत (स.अ.व.व) ने फ़रमाया मैं पढ़ा नहीं हूं। फिर आं हज़रत (स.अ.व.व) ने फ़रमाया कि इस जवाब पर जिब्रील ने मुझे पकड़ कर इस तरह दबाया की मैं कांपने लगा फिर मुझे छोड़ दिया और कहा , अब पढ़िये। मैंने फिर वही जवाब दिया , मैं पढ़ा नहीं हूं। उस पर फिर उसने मुझे दबोचा कि मेरी जान पर बन गई। फिर छोड़ा और कहा पढ़ियेः- इक़रा बिइस्मे रब्बेका..........
हज़रत आयशा फ़रमाती हैं किः-
रसूलल्लाह (स.अ.व.व) घर वापस आये , आप पर लर्ज़ा तारी था और दिल बुरी तरह धड़क रहा था। ख़दीजा (स.अ.) से फ़रमाया मुझे उढ़ा दो। आपको उढ़ा दिया गया थोड़ी देर आपने ख़दीजा से सारा वाक़िआ बयान किया और फ़रमाया उस वक़्त मुझ पर ख़ौफ़ो हेरास तारी था। ख़दीजा (स.अ.) ने कहा , ख़ुदा आपको बेसहारा न छोड़ता क्यों कि आप सिला ए रहम करते हैं , दूसरों का बोझ अपने सर पर लेते हैं , नादारों मोहताजों और ग़रीबों की ख़बरगिरी करते हैं , मेहमानों की ज़ियाफ़त करते हैं , हक़ की हिमायत करते हैं और हक़दारों को उनका हक़ दिलवाते हैं।
हज़रत आयशा फिर बयान करती हैः-
ख़दीजा , आं हज़रत को अपने इब्ने अम (चचा के बेटे) वरक़ा बिन नोफ़ल के पास ले गयीं , जो नसरानी , नाबीना और बूढ़ा था , ख़दीजा ने वरक़ा से कहाः-
अपने भतीजे मुहम्मद का वक़िआ सुनों , आं हज़रत ने सरगुज़श्त बयान की। वरक़ा ने कहा यह नामूस फ़रिश्ता था इसे ख़ुदा ने मूसा (अ.स) पर नाज़िल किया था। काश मैं उस वक़्त तक ज़िन्दा रहता जब तुम्हारी क़ौम के लोग तुम्हें मक्के से निकाल देंगे।( 1)
आयशा की इस हदीस से ज़ाहिर होता है कि नबी हो जाने के बाद भी आं हज़रत (स.अ.व.व) को अपनी नबूवत पर यक़ीन नहीं था , फ़रिश्ता आने के बाद भी आप इश्तेबाही कैफ़ियत में मुबतिला रहे , क़ुर्आन नाज़िल होने के बाद भी ये न समझ सके कि ये कलामे इलाही है या कुछ और है , फिर आप इस क़दर ख़ौफ़ज़दा हुए कि ख़दीजा को ढारस बंधाना बड़ी। और आप वरक़ा बिन नौफ़िल के पास जाने को मजबूर हो गये जो ज़माने जिहालत का नसरानी और नाबीना शख़्स था। उसने आपको तसल्ली दी और पेशिनगोई भी की कि आपकी क़ौम आपको मक्के से निकाल देगी। ये तमाम बाते नामुम्किन और अक़्ल के ख़िलाफ़ हैं।
जब हम इस बात पर ग़ौर करते हैं कि जिब्रील ने पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व) को पकड़ा या जकड़ कर इस क़ुव्वत से दबाया कि आंपने या कांपने लगे , आपका दिल बुरी तरह धड़कने लगा , आप ख़ौफ़ज़दा हो गये तो हमारी समझ में यह नहीं आता कि यो सब क्यों हुआ ? जिब्रील ने किस ज़रूरत के तहत ये सब किया ? ये बातें तो न ख़ुदा के लिए मुनासिब हो सकती हैं न रसूल के लिये और न मलायका के लिये और न अम्बियाओं मुर्सलीन के लिये। बुख़ारी के शारेहीन ने ये वजाहत भी की है कि किसी नबी के साथ इस क़िस्म का वाक़ेआ पेश नहीं आया तो फिर अल्लाह का अपने हबीब पर ये ख़ुसूसी और अज़ीयतनाक बरताव क्यों ? जिब्रील कहते हैं पढ़िये हुज़ूर कहते हैं मैं पढ़ा नहीं हूं क्या आपकी समझ में यह नहीं आया कि फ़रिश्ते का मतलब क्या है ? फ़रिश्ता कहता है , इक़रा आप फ़रमाते हैं मैं पढ़ा नहीं हूं आप दोहराते जायें लेकिन पैग़म्बर ये समझ रहे थे कि वो मुझसे कोई ख़त या कोई किताब पढ़वाना चाहता है। अक़्ल के नज़दीक ये तमाम बातें नामुम्किन और मुहाल हैं और ये रवायत आयशा की तरफ़ से पैग़म्बर (स.अ.व.व) पर सरीही तोहमत और बोहतान हैं।
ये रवायत मज़मून के लिहाज़ से भी बातिल है और अस्नाद के लिहाज़ से भी ग़लत और मोहमल। अस्नाद के लिहाज़ से मोहमल और ग़लत होने की ये दलील काफ़ी है कि आयशा ने इस वाक़िये को जिससे सुना होगा उसका कोई ज़िक्र नहीं है और ये वाक़िआ आयशा की पैदाइश से पहले का है जब कि उनका कोई वजूद भी नहीं था , और न वो नुज़ूले वही की इब्तेहा के वक़्त मौजूद थीं।
गुड़ियों में घोड़ा
रसूल (स.अ.व.व) के घर में आने के बाद जहां और तमाम ख़ुराफ़ाती मशागेल हज़रत आयशा की ज़ाती सिफ़ात से वाबस्ता थे वहीं ये भी था कि उन्होंने अपने बचपन की आदतों को तर्क नहीं किया था बल्कि खेल कूद , नाच रंग और सहेलियों की बज़्म आराइयों को बदस्तूर बाक़ी रखा था। चुनान्चे मोवर्रेख़ीन का कहना है कि वो एक मरतबा अपनी कुछ सहेलियों के साथ गुड़ियां खेल रही थीं उन गुड़ियों में एक घोड़ा भी था जिसके पर थे , रसूलल्लाह (स.अ.व.व) की नज़र जो पड़ी तो आपने फ़रमायाः-
आयशा , ये बीच में क्या चीज़ है ?
कहाः- घोड़ा है।
फ़रमायाः- घोड़ों के पर कहां होते हैं ?
आयशा ने कहा हज़रत सुलेमान के घोंड़ों के पर भी थे।
इस पर रसूलल्लाह हंस पड़े। ( 2)
आयशा का बयान है कि हज़रत भी इस खेल को देखते थे तो खुश होते थे और ख़ामोश रहते थे। ( 3)
गुड़ियां गुड्डों (गुलाबों , सताबो) का यह खेल मआज़ल्लाह रसूल भी देख कर महजूज होते थे , हज़रत आयशा का कम्सिनी और खुर्दसाली का नतीजा नहीं कहा जा सकता क्यों कि परदार घोड़े का वाक़िआ ग़ज़वा ए हुनैन या तबूक की वापसी का है अगर आम ख़्याल के मुताबिक़ हम थोड़ी देर के लिए फ़र्ज़ भी कर लें कि ब वक़्ते रूख़सती हज़रत आयशा की उम्र नौ बरस की थी तो इस वाक़िये के वक़्त उनकी उम्र तक़रीबन सत्रह , अट्ठारह साल की क़रार पाती है। क्या ये उम्र गुड़िया खेलने की है ? और क्या रसूल (स.अ.व.व) के घर की तहज़ीब आयशा को इस बात की इजाज़त दे सकती है।
हज़रत आयशा की मुज़ख़रफ़ हदीसें
सहाह और मसानीद में हज़रत आयशा की बयान करदह हदीसें मरक़ूम हैं। उनकी मजमूई तादाद दो हज़ार एक सौ दस बताई जाती है। बाज़ मुहद्देसीन दो हज़ार एक सौ दस बताते हैं यक़ीनन ये एक बहुत बड़ी तादाद है और वज़ए अहादीस में अबूं हुरैरा के बाद आप ही का नम्बर है। अबू हुरैरा के अलावा इतनी अहादीस किसी ने नहीं बयान कीं। यहां तक की खुल्फ़ा ए अर्बा (चारों ख़लीफ़ा) और उम्महातुल मोमनीन की जुमला हदीसें एक जगह इकट्ठा कर ली जायें और आयशा की हदीसे एक तरफ़ तो तादाद के लिहाज़ से आयशा की हदीसों का पल्ला भारी होगा।
(इस किताब को आप “अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क ” पर पढ़ रहे है।)
हालात और कैफ़ियत के मुताबिक़ जो तरीक़ा आपने हदीस बयान करने का इख़्तियार किया था वो हर दौर और हर अहद की ख़ुसूसियातों ज़ुरूरियात को मद्देनज़र रखते हुए , जिस तरह आपने रंग बिरंगी हदीसें बयान की हैं वो दुनिया की निगाहों से पोशीदाह नहीं है।
मोअज़्ज़मा की बयान हुई चन्द मुज़ख़रफ़ और कराहत आमेज़ हदीसों को हम बतौरे नमूना ज़ेल में पेश करेंगे जिनका ज़िक्र अरबाबे सहाह व मसानीद ने बड़े एहतेमाम से किया है लेकिन उन हदीसों से इस्लाम और पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व) से मुताल्लिक़ कोई अच्छा तास्सुर पैदा नहीं होता , बल्कि ये हदीसें इस्लाम के दुशमनों को तमसख़ुर और इस्तेहज़ा का मौक़ा फ़रहम करती हैं।
ये भी हो सकता है कि ये हदीसें आयशा ने बयान ही न की हों , उमवी दौर के रावियों ने इन्हें उनके नाम से मन्सूब कर दिया हो जैसा कि उस दौर में ऐसा हुआ है और हज़ारों की तादाद में हदीसें गढ़ी गयी हैं। बहरहाल हक़ीक़त कुछ सही अहादीस की किताबों में ये हदीसें आयशा से मरवी हैं लिहाज़ा जिस तरह अबू हुरैरा अजीबो ग़रीब हदीसें बयान करने के मामले में मतऊन हैं उसी तरह ये हदीसें भी आयशा के दामन पर बदनुमा धब्बा हैं।
वो रसूल (स.अ.व.व) जिसका नूर अल्लाह का नूर है जो तमाम अम्बियाओं मुर्सलीन का सरदार है जिसकी बदौलत ज़मीनों आसमान की ख़िल्क़त हुई जो मासूमो है , जिसकी चौखट पर मलाएका की जबीने झुकती हैं और जिसका किरदार ऐने क़ुर्आन है वही रसूल (स.अ.व.व) (ख़ाकम ब दहन) आयशा की हदीसों की रौशनी में एक मामूली इन्सान से भी पस्त नज़र आता है........... ये कितना अजीब बात है ?
ये अम्र भी क़ाबिले ग़ौर है कि हज़रत आयशा ने रसूले अकरम (स.अ.व.व) से इतनी हदीसें क्यों कर सुनलीं कि उनकी तादाद दो हज़ार से ज़्यादा हो गयी। क्या पैग़म्बर शबोरोज़ सिर्फ़ आयशा ही के पास बैठे रहते थे और हदीसे बयान किया करते थे ? जब कि आपके दिन मस्जिदे नब्वी में मुसलमानों की तालीमों तर्बियत और मुल्की व क़ौमी उमूर पर सर्फ होते थे और रातें अज़्वाज में तक़सीम थीं। हज़रत आयशा के हिस्से में ज़्यादा से ज़्यादा महीने की सिर्फ़ तीन रातें आती थीं और उन रातों को भी दो तिहाई हिस्सा पैग़म्बरे इस्लाम ख़ुदा की इबादत में गुज़ार देते थे। हदीसे बयान करने का वक़्त कहां था ?
इस से ज़्यादा अहम बात यह है कि आय़शा ही की बारी में आं हज़रत महवे तकल्लुम होते और हदीसों पे हदीसें इरशाद फ़रमाते ? आख़िर आपकी और बीवियां भी तो थीं उनकी बारी में आप ख़ामोश क्यों रहते थे ? क्या वो आप से हदीसें सुनने की मुस्तहक़ नहीं थीं ? आयशा ही में कौन सी ख़ुसूसीयत थी कि आप सिर्फ़ उन्हीं से हदीसें बयान फ़रमाते थे ? फिर ऐसी मुबतजल हदीसें जो इन्सान को बदहवास कर दें।
इन तमाम बातों के पेशे नज़र ये नतीजा अख़्ज़ करना पड़ता है कि ये हदीसें फ़र्ज़ी है और इस्लाम व पैग़म्बरे इस्लाम को बदनाम करने के ख़्याल से दुशमनों ने इन हदीसों को वज़अ कर के आयशा के सर मंढ दिया है। अगर हज़राते अहले सुन्नत वाक़ई इन हदीसों को आयशा ही का कारनामा समझते हैं तो ये इन्तिहाई क़ाबिले अफ़सोस बात है क्यों कि इन आहदीस से उम्मुल मोमिनीन के क़लबी रूजहानात और नफ़सानी ख़्वाहिशात की ताईद भी होती है।
जिसके चन्द नमूने गुज़श्ता सफ़हात में हम पेश कर चुके हैं। चन्द मज़ीद नमूने ज़ैल में मुलाहेज़ह फ़रमाएं।
आयशा का जनाज़ा
सहीह बुख़ारी में इब्ने शहाब से रवायत है कि मुझ से उर्वह ने और उनसे आयशा ने बयान किया किः-
जब रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व) नमाज़ पढ़ते तो मैं उनके और कि क़िबला के दर्मियान फ़र्श पर इस तरह पड़ी रहती जैसे कोई जनाज़ा रखा हो। और जब पैग़म्बर (स.अ.व.व) सजदे में जाते तो वो मुझे दबाते थे उस पर मैं अपनी दोनों टांगे उठा लेती थी , और जब आप सजदे से सर उठाते तो फिर फैला दिया करती थी। ( 1)
अल्लामा इब्ने हजरे असक़लानी रक़म तराज़ हैः-
हज़रत आयशा इस तरह लेटी रहती थीं जिस तरह सामने जनाज़ा रखा जाता है , और मुराद ये है कि हज़रत आयशा इस तरह आं हज़रत (स.अ.व.व) के सामने होतीं कि उनका सर पैग़म्बर (स.अ.व.व) के दायें हाथ की तरफ़ होता और पांव बाये हाथ की तरफ़ जिस तरह जनाज़ा पढ़ने वाले शख़्स के सामने जनाज़ा होता है। ( 2)
बुख़ारी ही ने हज़रत आयशा का ये बयान भी क़लम बन्द किया हैः-
मैं हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व) के सामने सोती रहती थी और मेरे दोनों पांव क़िब्ले की तरफ़ दराज़ रहते थे चुनान्चे जब हज़रत सजदह में जाते और मेरे पैरों में चुटकियां लेते तो मैं उन्हें समेट लेती थी और जब खड़े होते तो फिर पैर फ़ैला देती थी। ( 3)
इस आख़री रवायत से पता चलता है कि आयशा का बयान ग़लत है। पैग़म्बर (स.अ.व.व) की नमाज़ के वक़्त वो सोई हुई नहीं होती थी बल्कि जागती रहती थीं और आंखे खोले हुए हुज़ूर (स.अ.व.व) की नक़्लों रहकत को देखा करती थीं क्यों कि सोने वाला शख़्स तक़रीब मुर्दा होता है और उसे ये अन्दाज़ा नहीं हो सकता कि कौन नमाज़ पढ़ रहा है , कौन कब सजदे में गया , और कौन कब खड़ा हुआ , या कौन घर में दाख़िल हुआ और कौन चला गया।
चेजाइकि आयशा का ये बयान कि आं हज़रत (स.अ.व.व) हालते नमाज़ में मेरे पैरों में जब चुटकियां लेते तो मैं उन्हें समेट लेती और जब सजदें के बाद क़याम फ़रमाते तो फिर फैला लेती , किस क़द्र मज़हका ख़ेज़ इबरदनाक और बेअदबी का मज़हर है।
ये सवाल भी पैदा होता है कि हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व) इस तरह नमाज़ ही क्यों पढ़ते थे कि आयशा एक मैय्यत की तरह आपके सामने होतीं ? आख़िर इसमें कौन सी मसलेहत और कौन सा राज़ पिन्हा था जो मुसलमानों या ख़ुद आयशा के लिए नामूना ए अमल बन सकता था और अगर ये कहा जाए कि हज़रत आयशा का हुज़रह तंग था इस लिए रसूल (स.अ.व.व) को मजबूरन इस तरह नमाज़ अदा करनी पड़ती थी , तो इसका खुला हुआ जवाब यह है कि आयशा का हुजरा मस्जिद से मुलहक़ो मुत्तसिल था , हुज़ूर (स.अ.व.व) वहां , यानी मस्जिद में नमाज़ अदा कर सकते थे , क्या ज़रूरी था कि आयशा की इस ग़ुस्ताख़ी और बेअदबी के सामने बेचारी नमाज़ की हुर्मत पामाल होती।
दूसरी रवायत जिस में आयशा फ़रमाती हैं कि मैं पैग़म्बर (स.अ.व.व) के सामने इस तरह लेटी होती कि मेरे पांव हुज़ूर (स.अ.व.व) के बायें हाथ की तरफ़ और सरो धड़ दाहिने हाथ की तरफ़ होता , अजीब दरद्दद पैदा करती है। इसका मतलब तो ये हुआ कि रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम का सरे अक़दस हज़रत आयशा की कमर के आस पास होता था। (लाहौला वला क़ुव्वत)
हज़रत आयशा का एतेराफ़
हाय उस ज़ूद पशेमां का पशेमां होना
हज़रत आयशा फ़रमाती हैं कि तुमने बुरा किया जो हम लोगों को कुत्ते और गधे के बराबर कर दिया , बेशक मैंने अपने को देखा कि रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व) नमाज़ पढ़ते होते थे और मैं आपके और क़िब्ले के दर्मियान लेटी होती। ( 4)
ये हदीस इस लिहाज़ से भी नाक़िस है कि इसमें ये सराहत नहीं है कि आयशा का तख़ातुब किन लोगों से है , जिन्होंने उनके हक़ में बुरा किया , और इस ग़ुस्ताख़ी के मुर्तकिब हुए कि उन्हें कुत्ते और गधे के बराबर कर दिया। इस मन्ज़ेलत और फ़ज़ीलत में सहाबा का हाथ था या किसी और का ? बुख़ारी के मुतर्जिम (जिन्होंने ये रवायत नक़ल की है) मिर्ज़ा हैरत ने भी कोई तसरीह नहीं फ़रमाई जिस से कुछ पता चलता , फिर आयशा ने हम लोगों का जुमला इस्तेमाल किया है जिससे ये इश्तेबाह पैदा होता है।
इस फ़ज़ीलत में मौसूफ़ा के अलावह उनके ग्रुप की कोई और औरत भी शामिल है।
आयशा की हड्डी
आयशा का बयान है किः-
दसतरख़्वान पर जब आं हज़रत (स.अ.व.व) मेरे साथ खाना खाते तो उसी हड्डी को आप भी चूसते , जिसे मैं चूसती थी , और उसी प्याले में उसी जगह आप भी मुंह लगा कर पीते जिस प्याले में जहां पर मैं मुहं लगाती थी , हालांकि मैं हैज़ की हालत में होती थी। ( 1)
इस बयान के ज़रिये हज़रत आयशा का मक़सद सिर्फ़ ये ज़ाहिर करना है कि रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व) आपको इस क़द्र चाहते थे कि उन्हें आपके थूक या हैज़ से कोई गुरेज़ नहीं था लेकिन यह बात समझ में नहीं आती कि आख़िर आं हज़रत उसी हड्डी को क्यों चूसते थे जिसे आप चूसती थीं ? क्या आधी हड्डी आपके और आधी हड्डी पैग़म्बर (स.अ.व.व) के मुंह में होती थी क्या उस हड्डी में दोनों तरफ़ छेद होता था कि आधा गूदा आपके हिस्से में और आधा गूदा पैग़म्बर के हिस्से में आता था ? या फिर चूसने का कोई और तरीक़ा था कि जब आप उस हड्डी को चूस लेती थीं तो पैग़म्बर चूसते थे ? मगर आपके चूसने के बाद उसमें गोश्त , गूदा या शोर्बा वग़ैरह तो रहता न होगा , फिर पैग़म्बर क्या चूसते थे ?
बयान में ये सराहत भी नहीं की गयी कि जिस प्याले में आयशा और पैग़म्बर एख ही जगह मुंह लगा कर पीते थे उसमें क्या चीज़ होती थी ? पानी........... या कुछ और।
फ़िर ये बयान करती हैं कि मैं हैज़ की हालत में होती थी कौन सी ख़ुसूसियत पिन्हा हैं ? इससे तो आयशा की बेग़ैरती और बेशर्मी का पता चलता है।
1.अहमद बिन हम्बलः- जिल्द 6, पेज न. 64
शैतानी काम
एक मरतबा ईद के मौक़े पर अबू बकर अपनी बेटी आयशा से मिलने आये तो उन्होंने देखा कि उनके साथ कुछ लड़कियां गाना गा रही हैं और रसूलल्लाह (स.अ.व.व) क़रीब ही कपड़ा होढ़े लेटे हुए हैं। अबू बकर को ये देख कर कुछ ग़ुस्सा आया और वो बेटी पर चीख़ पड़े। रसूल अल्लाह के घर में ये शैतानी काम ! रसूल अल्लाह (स.अ.व.व) ने अपने चेहरे से कपड़ा हटाया और फ़रमायाः- अबू बकर ! इन्हें कुछ न कहो , ईद का दिन है , लड़कियां अपना दिल बहला रही हैं। ( 1)
ताज्जुब की बात तो ये है कि अबू बकर इस फ़ेल को शैतानी काम से ताबीर करते हैं और रसूलल्लाह (स.अ.व.व) कहते हैं , कुछ न कहो इसका मतलब तो ये हुआ कि आयशा के इस शग़ले ग़िना को पैग़म्बर रहमानी फ़ेल पर महमूल करते हैं। (अयाज़न बिल्लाह) ख़ुदा समझे उन रावियों से जो अल्लाह के हबीब पर इस बोहतान के मुर्तक़िब हैं।
हब्शियों का नाच
आयशा फ़रमाती हैं कि ईद का दिन था , मस्जिद में हब्शियों की एक टोली अपना नाच और कर्तब दिखा रही थी। रसूलल्लाह ने मुझसे फ़रमाया , क्या तुम भी नाच देखोगी ? मैंने रज़ामन्दी ज़ाहिर की तो आं हज़रत (स.अ.व.व) मुझे ले गये और इस तरह अपनी पुश्त पर मुझे खड़ा किया कि मेरे रूख़सार आपके रूख़सारों पर थे। नाचने वालों को आं हज़रत लल्कार लल्कार कर झूम झूम कर नाचने की तरग़ीब दे रहे थे और मैं लुत्फ़ अन्दोज़ हो रही थी। यहां तक कि मैं थक गयी तो तो आपने फ़रमाया , अच्छा अब घर चलो। ( 1)
ये वाक़िआ मुसलमानों की ग़ैरते इस्लामी के लिए इबरत का एक ताज़ियाना है। सिर्फ़ ये ज़ाहिर करने के लिए कि रसूले करीम (स.अ.व.व) आयशा को कितना चाहते थे , उम्मते मुस्लिमा ने दुशमनाने इस्लाम की गढ़ी हुई रवायतों को बख़ुशी क़ुबूल कर लिया और ये न सोचा कि मुर्सले आज़म को इन ख़ुराफ़ात , लग़्वियान और मुज़रवफ़रात से क्या सरोकार ? अज़मत , विक़ार और मनसब के लिहाज़ से क्या इस अम्र की तवक़्क़ो की तवक़्क़ो की जा सकती है कि रसूल अल्लाह (स.अ.व.व) हब्शियों का नाच और तमाशा देखते ? वो भी मस्जिद में........। क्या एक शौक़ीन मिज़ाज औरत के लिये हुज़ूर (स.अ.व.व) मस्जिद के एहतिराम को अपने हाथों दफ़्न कर सकते हैं ? ग़ैर........ मुम्किन है।
कहानियों का शौक़
अक़ीदत मन्दाने आयशा बड़े फ़ख़्र से बयान करते हैं कि उम्मुल मोमिनीन को कहानियां सुनने और सुनाने का शौक़ था। चुनान्चे कभी आप आं हज़रत (स.अ.व.व) को क़िस्से , कहानियां सुनाया करती थीं और कभी आं हज़रत (स.अ.व.व) आपको कहानी सुनाया करते थे। ( 1)
ये अम्र ग़ौर तलब है कि क़ससों हिक़ायत की ख़ुराफ़ात और दास्तानों अफ़साना गोई की लग़्वियात से रसूल (स.अ.व.व) की परहेज़गारी का ऐलान परवरदिगार रिसालत से पहले करता है , मगर मबऊस बरिसालत होने के बाद आप तबलीग़ के मैदाने में उतरे तो ख़ुदा की तरफ़ से ये हुक्म हो गया कि आप रात रात भर बिवियों का दिल बहलायें क़िस्से सुनायें कहानियां और दास्तानें बयान करें और उनसे ख़ुद भी सुनें। गानें सुनिये और हब्शियों का नाच दिखाईये और देखिये।
लम्बी दौड़
हज़रत आयशा का बयान हैः-
एक सफ़र में रसूल अल्लाह (स.अ.व.व) के साथ मैं भी थी। अचानक आपने अस्हाब को हुक्म दिया कि तुम सब लोग आगे बढ़ जाओ। जब लोग कुछ दूर आगे चले गये तो आं हज़रत ने मुझसे फ़रमाया आयशा आओ हम दोनों दौड़े तो मैं आगे निकल गयी और आं हज़रत पीछे रह गये। उन्हें शर्मिन्दगी हुई और वो इस बात को दिल में लिए रहे। फिर ऐसा ही एक दूसरा मौक़ा आया , और हम दोनों की दौड़ हुई। अब चूंकि मैं मोटी हो चुकी थी इस लिये हार गयी। रसूल अल्लाह (स.अ.व.व) ने फ़रमाया ये उस दिन का बदला है। ( 1)
अगर ये वाक़िया सहीह है तो पहली बार आयशा की सूर्अते रफ़्तार और दूसरी बार मोटापे की दौड़ को देख कर मलाएका भी खिलखिला कर हंस पड़े होंगे , इसके अलावा इस लम्बी दौड़ का मक़सद क्या था ख़ुदा जानें।
छुली छुलय्या
आयशा का बयान है कि आं हज़रत (स.अ.व.व) मेरे साथ छुली छुलय्या खेला करते थे। चुनान्चे जब मैं भागती तो वो मेरे पीछे दौड़ते और जब मैं छुप जाती तो वो मुझे ढ़ूंड निकालते। ( 2)
काश........ मैं उम्मुल मोमिनीन के दौर में पैदा हुआ होता तो इन्तिहाई अदबों एहतिराम से उनसे पूछता कि ऐ मादरे गिरामी , रसूलल्लाह (स.अ.व.व) की नमाज़ के वक़्त उनके सामने मैय्यत की तरह आपका पड़ी रहना ये ज़ाहिर करता है कि आपका हुजरा इतना तंग था कि उसमें छुली छुलय्या खेलने की गुन्ज़ाइश नहीं थी , आख़िर ये छुली छुलय्या खेलने कहां जाती थी ? किसी और के घर में ?
आऊज़ो बिल्लाहे मिन हाज़ल ख़ुराफ़ात
आयशा फ़रमाती हैं कि मैं आं हज़रत (स.अ.व.व) के कपड़ों से मनी ख़ुरच कर साफ़ कर देती थी और आप उसी को पहन कर नमाज़ पढ़ते थे। ( 1)
आयशा फ़रमाती हैं कि हालते हैज़ में आं हज़रत (स.अ.व.व) मेरे साथ मुबाशिरत फ़रमाते थे। ( 2)
आयशा फ़रमाती हैं कि हालते हैज़ में आं हज़रत (स.अ.व.व) अपनी अज़वाज के साथ कपड़ों के ऊपर से मुबाशिरत करते थे। ( 3)
आयशा फ़रमाती हैं कि मैं हालते हैज़ से होती थी और आं हज़रत (स.अ.व.व) मेरी गोद में सर रख कर क़ुर्आन की तिलावत किया करते थे। ( 4)
आयशा फ़रमाती हैं कि लड़कियों को आं हज़रत (स.अ.व.व) अपने कंधों पर बिठा कर नमाज़ पढ़ाते थे। ( 5)
आयशा फ़रमाती हैं कि हालते सौम में आं हज़रत मेरा मुंह चूमते थे और कभी कभी मेरी ज़बान अपने दहन में ले कर चूसा करते थे। ( 6)
अब मुसलमान खुद फ़ैसला करें कि एक ऐसी औरत जिसकी नफ़सानी , शहवानी , अख़लाक़ी , मुआशीराती , दीनी और ईमानी हालातों ख्यालात ऐसे नागुफ़्ताबह हों और जिस रसूल (स.अ.व.व) जैसी अज़ीमुश्शान व अज़ीमुल मरतबत हस्ती पर इस क़िस्म के बेहूदह , लग़्व नाजाइज़ और तहज़ीब से गुज़रे हुए इलज़ामात आइद करते हुए शर्म , हया और ग़ैरत न आती हो और न जिसे अपने शौहर की अज़मत , बुज़ुर्गी औ वक़ार का पासो लिहाज़ हो। इस्लाम और हले इस्लाम की नज़र में किस हैसियत की हामिल हो सकती है और किस नज़र से देखी जा सकती है।
हज़रत आयशा का अनोखा ग़ुस्ल
अबू बकर बिन हफ़स का बयान है कि मैंने अबू सलमा से सुना , वो कहता है कि मैं आयशा के भाई के हमराह आयशा के पास इस ग़रज़ से गया कि उनसे ये मालूम करूं कि रसूल अल्लाह (स.अ.व.व) किस तरह और कितने पानी से ग़ुस्ल फ़रमाते थे ?
हज़रत आयशा ने एक बरतन में सवा सेर पानी मंगवाया और परदह दर्मियान में डाल कर ग़ुस्ल किया इस तरह कि पानी अपने सर पर डाला। ( 1)
पूछने वाले इस लिए गये थे कि उम्मुल मोमिनीन से ग़ुस्ल का तरीक़ा मालूम करें और मुअज़्ज़मा ने ग़ुस्ल कर के अमली तौर पर बता भी दिया , लेकिन दर्मियान में परदह हाइल था। पूछने वालों को बग़ैर देखे ग़ुस्ल का तरीक़ा क्यों कर मालूम हुआ ? अक़्ल में सिर्फ़ एक बात आती है और वो ये कि परदह बारीक था उधर की चीज़ इधर दिखाई दे रही थी।
आयशा के बारे में रसूल (स.अ.व.व.) की पेशिनगोईयां
एक दिन आयशा के घर की तरफ़ इशारा करते हुए मुख़बिरे सादिक़ (स.अ) ने मस्जिद में बालाए मिम्बर इरशाद फ़रमायाः-
इस घर में फ़ितना है और यहीं से शैतान अपनी सींग निकालेगा। ( 2)
एक बार हज़रत अली (अ.स) की मौजूदगी में रसूले अकरम (स.अ.व.व) ने आयशा से फ़रमायाः-
मेरी बीवियों में एक बीवी मेरे इब्ने अम पर ख़ुरूज करेगी।
आं हज़रत (स.अ.व.व) की ज़बाने मुबारक से ये फ़िरक़ा सुन कर आयशा बेइख़्तियार हंस पड़ी तो आपने मज़ीद फ़रमायाः-
ऐ आयशा कहीं वो तुम न हो।
फिर अली (अ.स) से मुख़ातिब हुए और कहाः-
अगर इसका मामला तुम्हारे सिपुर्द हो जाये तो इसके साथ नर्मीं करना। ( 3)
एक बार फिर आपने आयशा से फ़रमायाः-
मेरी एक बीवी सुर्ख़ ऊँट पर सवार हो कर अली पर ख़ुरूज करेगी और उस पर हव्वाब के कुत्ते भौंकेगें। ( 4)
रसूल अल्लाह (स.अ.व.व) इन पेशिन गोईयों के ज़रिये आयशा को आगाह भी कर रहे थे और हुज्जत भी तमाम कर रहे थे वरना आप जुम्ला हालात से बख़ूबी वाक़िफ़ और बा ख़बर थे।
एक अनार दो बीमार
क़त्ले उस्मान के ख़ुसूसी मुजरिम तल्हा इब्ने उबैदुल्लाह के लिए हज़रत आयशा के दिल में किस क़िस्म के ख़्यालातो जज़्बात थे ? ख़ुदा जाने। तारीख़ें तो हमें यही बताती हैं कि मिस्टर तल्हा अकसर ये कहा करते थे कि रसूलल्लाह (स.अ.व.व) की वफ़ात के बाद मैं आयशा से अक़्द करूंगा। ( 1)
तुम्हारे लिये ये हर्गिज़ जाइज़ नहीं कि तुम रसूल को अज़ीयत दो और उनके बाद उनकी बीवियों से अक़्द का इरादा करो। ( 2)
ये अम्र ग़ौर तलब है कि तल्हा की इस ग़ुस्ताख़ी और दरीदा दहनी पर बरहम व नाराज़ होने के बजाय हज़रत आयशा ने सिर्फ़ ख़ामोशी इख़्तियार की बल्कि ऐसे कमीना ख़सलत इन्सान के हर फेल में सहीमों शरीक रहीं , यहां तक कि उसकी रिफ़ाक़त में आपने अपनी ग़ैरत , हया और शर्म को बालाए ताक़ रख कर ख़ुदा और रसूल की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ क़दम उठाया और घर का गोशा छोड़ कर वो तवील सफ़र इख़्तियार किया जिसकी मन्ज़िल जमल में हज़रत अली के ख़िलाफ़ महाज़ अराई पर ख़त्म हुई।
इसके बरअक्स हज़रत आयशा अमीरूल मोमिनीन से महज़ इस बात पर तमाम उम्र बरहमों बरग़शता रहीं कि अफ़क़ के मामलें में उन्होंने रसूलल्लाह (स.अ.व.व) को ये मशवरह दिया था कि ये (आयशा) आपकी जूती का तसमा है , तलाक़ दे कर उससे पीछा छुड़ाइये , आपके लिए औरतों की कमी नहीं है।
यक़ीनन ये वाक़िआ ऐसा है जो उम्मुल मोमिनीन के बातिनी किरदार का आईनादार है।
दूसरा अफ़सोस नाक वाक़िया माविया के फ़ासिक़ो फ़ाजिर बेटे यज़ीद से मुताल्लिक़ है , जिसने 29 साल की उम्र में हज़रत आयशा से अक़्द की ख़्वाहिश का इज़हार कर के मुअज़्ज़मा के 65 साला बुढ़ापे को चक्कर में डाल दिया था , शाह अब्दुल हक़ मुहद्दिसे देहल्वी फ़रमाते हैः-
किताबों में मिलता है कि यज़ीदे शक़ी ने हज़रत आयशा से निकाह की ख़्वाहिश का इज़हार किया , लोगों ने उसे बहुत समझाया और इस इरादा ए बद से बाज़ रखने के लिए क़ुर्आन की आयत पढ़ी कि नबी की बीवी से निकाह नाजाइज़ है तब कहीं जा कर वो मन्हूस बाज़ आया। ( 3)
कौन कह सकता है कि यज़ीदे मलऊन के इस ख़बीस इरादे में इस्लाम और पैग़म्बरे इस्लाम की तौहीनों तज़लील का जज़्बाकार फ़रमा नहीं था , बड़ी ख़ैरियत हुई की आयत आयशा के हक़ में सिपर बन गयी वरना इस कमबख़्त की जवानी मुअज़्ज़मा के बुढ़ापे की मिट्टी ख़राब कर देती। अब ऐसी सूरत में अगर कोई शख़्स तल्हा और यज़ीद पर लानत करे तो उसके इस फेल को हक़ ब जानिब क्यों न कहा जाय।
पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व) की शहादत
हज़रत मोहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम से इमामे हसन असकरी (अ.स) तक मासूमों की फ़ेहरिस्त में कोई मासूम ऐसा नहीं है जो शहादत के दर्जे पर फ़ाइज़ न हुआ हो। किसी को ज़हर दिया गया और किसी की शहादत तलवार से वाक़े हुई। इन तमाम शहीदों की सफ़ में एक मासूमा भी शामिल हैं जो उमर इब्ने ख़त्ताब की शमशीरे ज़ुल्म से मनसबे शहादत पर फ़ाइज़ हुईं। इन तमाम मासूमों की शहादत का हाल किताबों में मरक़ूम है लेकिन रसूले अकरम की शहादत पर उलमाए अहले सुन्नत की तरफ़ से अख़फ़ाए जुर्म और शिया उलमा की तरफ़ से चश्मपोशी , ख़ामोशी और रवादारी के मज़ाजी पर्दे पड़े हुए हैं जिसकी वजह से मुसलमानों की अकसरियत अपनी नावाक़िफ़ियत की बिना पर हुज़ूर की शहादत को वफ़ात से ताबीर करती है। उन परदो को चाक होना चाहिये और हक़ीक़त को सामने आना चाहिये जैसा कि अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली इब्ने अबी तालीब (अ.स) का इरशाद है कि हक़ बात कहो वो अपने ही ख़िलाफ़ क्यों न हो।
सहीह बुख़ारी , सिर्रूल आलमीन , अलवाफ़ि और मिशक़ात की रवायतों से इस बात की निशानदेही होती है कि सरवरे कायनात (स.अ.व.व) को आपकी अलालत के दौरान मदीने में ज़हर दे कर शहीद किया गया। ( 1)
इस इनकिशाफ़ के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि ख़ैबर में ज़हर ख़ूरानी की तशहीर महज़ धोका थी और इसी जुर्म को छिपाने की ग़रज़ से अमल में लाई गयी थी।
(इस किताब को आप “अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क ” पर पढ़ रहे है।)
अब सवाल यह पैदा होता है कि हुज़ूर (स.अ.व.व) को ज़हर देने वाला कौन था ? इसके जवाब में किताबें ख़ामोश हैं लिहाज़ा ऐसी सूरत में ज़रूरी है कि हक़ीक़त की तह तक पहुंचने के लिए रसूल (स.अ.व.व) के आख़िरी दौर में रूनुमा होने वाले उन हालात पर नज़र डाली जाए जिनके पस मन्ज़र में ज़हर दिये जाने के इमकानात मसतूरो मुज़्मर हैं।
तारीख़ गवाह है कि रसूल (स.अ.व.व) की ज़िन्दगी के आख़िरी दौर यानी 8 हिजरी के अवाइल में कुछ मफ़ाद परस्तों और शर पसन्दों ने आपके ख़िलाफ़ साज़िशों का आग़ाज़ कर दिया था। जिसकी सब से बड़ी दलील सूरा ए मुनाफ़िक़ून का नुज़ूल है। ये तमाम साज़िशें रसूलल्लाह (स.अ.व.व) के इर्द गिर्द रहने वाले अफ़राद और मुनाफ़ित सहाबा की आग़ोशे मुनाफ़िक़न में पल और बढ़ रही थी। ख़ास सबब ? पैग़म्बर (स.अ.व.व) की जानशीनी , इस्लामी क़यादत और इक़्तिदारी का मस्अला था।
इन साज़िशों में शिद्दत और सुरअत उस वक़्त पैदा हुई जब 9 हिजरी में पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व) तीस हज़ार का लश्कर लेकर शहनशाहे रूम (हरक़ल) के मुक़ाबिले को निकले और तबूक नामी बसती में बीस रोज़ तक क़ियाम फ़रमाया। मगर चूंकि जंग की नौबत नहीं आयी इस लिए इक्कीसवें दिन हुज़ूरे अकरम को लौट आना पड़ा।
वाज़ह रहे कि इस मारके में रसूले अकरम (स.अ.व.व) तमाम जंगों के फ़ात्ह अली को अपने हमराह नहीं ले गये थे जिस पर अमीरूल मोमिनीन कबींदह ख़ातिर हुए थे और आपने पैग़म्बर (स.अ.व.व) से शिकवा भी किया था। हुज़ूर ने फ़रमाया कि ऐ अली ! ? तुम मेरे जानशीन और ख़लीफ़ा हो इस लिये तुम्हारा यहां रहना और मेरा वहां जाना ज़्यादा मुनासिब है। ( 2)
तज़किरा ए ख़वासुल उम्मा में है कि पैग़म्बर (स.अ.व.व) ने फ़रमाया कि ऐ अली ! क्या तुम इस बात पर ख़ुश नहीं हो कि तुमको मुझसे वही निसबत है जो हारून को मूसा (अ.स) से थी। ( 3)
कनज़ूल आमाल में है कि हुज़ूरे अकरम (स.अ.व.व) ने फ़रमाया कि ऐ अली ! मैं तुम्हें इस लिये अपने साथ नहीं ले गया कि तुम ही मेरे बाद उम्मत के ख़लीफ़ा और मेरे जानशीन हो। मदीने की हालत सिर्फ़ मेरे और तुम्हारे रहने से ही दुरूस्त रह सकती है। ( 4)
यक़ीनन दहने रिसालत से निकले इन जुमलों से साज़िशी ये समझ गये होंगे कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व) ने हज़रत अली (अ.स) को अपना जानशीन और ख़लीफ़ा मुक़र्रर करना तय कर लिया है और शायद यही वजह थी इनही साज़िशों ने रसूले अकरम (स.अ.व.व) की शम्मे हयात गुल करने की नापाको नाकाम कोशिश भी की जो तारीख़ में वाक़ेए उक्बा के नाम से मशहूर है।
इसमें कोई शक नहीं कि ये इक़्दाम इस्लाम में पहला शैतानी इक़दाम था। इज़माल यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व) का नाका तबूक़ की वापसी पर उक़्बा नामी पहाड़ी की ख़तरनाक ढलानों से गुज़र रहा था , रात तारीक थी और उसी तारीकी में मुनाफ़िक़ीन अपने चेहरों को नक़ाब से छिपाये ख़तमी मरतबत को मौत के घाट उतारने के लिए घात लगाये खड़े थे कि इतने में बएजाज़े इलाही बिजली चमकी और उसकी रौशनी इतनी देर तक क़ायम रही कि पैग़म्बर (स.अ.व.व) ने उन सब को पहचान लिया और नाक़े की मेहार थामे हुए हुज़ैफ़ाए यमानी (र) को उनके नामों से आगाह कर दिया लेकिन इस के साथ ही ये ताक़ीद भी फ़रमा दी कि किसी से इसका तज़किरह न करना वरना फ़साद बरपा हो जाएगा। ( 5)
तारीख़ ये बताती है कि इस वाक़िए के बाद हज़रत उमर हुज़ैफ़ा से अकसर पूछा करते थे कि क्या साज़िशी मुनाफ़िक़ीन में मेरा नाम भी शामिल है। ( 6)
हुज़ैफ़ा उमर के इस सवाल पर हमेशा ख़ामोश रहे , आख़िरकार वो वक़्त भी आ गया कि दमाग़ी कचोकों और क़ल्बी टहोंकों से मजबूर हो कर हज़रत उमर ने ख़ुद ब ख़ुद ये एतिराफ़ कर लिया कि , ऐ हुज़ैफ़ा ख़ुदा की क़सम मैं भी उन मुनाफ़िक़ीन में शामिल हूं जो रसूलल्लाह (स.अ.व.व) को मौत के घाट उतारना चाहते थे। ( 7)
इस अफ़सोस नाक वाक़िये के बाद व हिजरी में एक वाक़िआ और रूनुमा हुआ जिसने मुनाफ़िक़ीन की साज़िशी मसरूफ़ियात में मज़ीद तेज़ी पैदा कर दी , और वो यह है कि माहे ज़िल्हिज में पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व) ने तीन सौ मुसलमानों का एक काफ़िला अबू बकर की सरबराही में मदीने से मक्के की तरफ़ बग़रज़े हज रवाना किया और इसके साथ ही सूरा ए बराअत भी अबू बकर के हवाले कर के ये हुक्म सादिर फ़रमाया कि वो इसकी तब्लीग़ हज के मौक़े पर कर दें। हज़रत अबू बकर ने अपने मुक़द्दर पर नाज़ किया और काफ़िला लेकर रवाना हो गये। अभी कुछ ही दूर काफ़िला पहुंचा था कि जिब्रील नाज़िल हुए और उन्होंने फ़रमाया कि या रसूलल्लाह (स.अ.व.व) परवर दिगारे आलम का ये हुक्म है कि सूरा ए बराअत की तब्लीग़ आप ख़ुद फ़रमायें या उसके हवाले करें जो आपकी ज़ुर्रियत में शामिल हो , कोई दूसरा शख़्स इस काम को अंजाम देने का मजाज़ नहीं है।
इस हुक्म के मौसूल होते ही रसूल (स.अ.व.व) ने अपने इब्ने अम हज़रत अली इब्ने अबी तालिब (अ.स) को तलब किया और उन्हें इस तब्लीग़ी मनसब पर फ़ाइज़ करते हुए ये इरशाद फ़रमाया कि तेज़ी से जाओ और अबू बकर से सूरा ए बराअत वापस ले कर उन्हें मदीने भेज दो। चुनान्चे अबू बकर जब हज से महरूमी और तबलीग़ से माज़ूली का ग़म ले कर मदीने वापस आये तो रसूल (स.अ.व.व) के सामने फूट फूट कर रोने लगे। ( 8)
एक रवायत ये भी है कि अबू बकर के साथ उमर भी तब्लीग़ पर मामूर हुए थे और वो भी माज़ूल किये गये।
ज़ाहिर है कि हज़रत आयशा अबू बकर की बेटी थीं लिहाज़ा बाप की इस तौहीनो तज़लील पर उन्हें फ़ितरी तौर पर सदमा ज़रूर हुआ होगा।
10 हिजरी में पैग़म्बर (स.अ.व.व) ने आखिरी फ़रीज़ा ए हज अदा किया अल्लामा तरीही का कहना है कि इस हज के मौक़े पर अबू बकर , उमर , अबू उबैदह , अब्दुर्रहमान और सालिम (हुज़ैफ़ा का ग़ुलाम) ने ख़ाना ए कआबा में ये अहद किया कि वो ख़िलाफ़त को बनी हाशिम में नहीं जाने देंगे।
अल्लामा की तहरीर से ये इन्किशाफ़ भी होता है कि उम्मुल मोमिनीन हज़रत आयशा इस साज़िशी गिरोह की सरगर्म मेम्बर थीं।
अंग्रेज़ मुवर्रिख़ डेविन पोर्ट अपनी किताब तारीख़े ख़िलाफ़त में लिखता है कि रसूल (स.अ.व.व) की ज़िन्दगी ही में ये मस्अला तय हो चुका था कि हज़रत अली (अ.स) जो हर तरह ख़िलाफ़त के हक़दार हैं अपने हक़ को पहुंचने न पायें।
लुत्फ़ की बात तो यह है कि एक तरफ़ साज़िशी हज़रत अली (अ.स) को ख़िलाफ़त से महरूम रखने के लिए कोशां थे और दूसरी तरफ़ परवर दिगारे आलम अपने हबीब को ये हुक्म दे रहा था कि जब तुम हज से फ़ारिग़ हो चुको तो अपना जानशीन मुक़र्रर कर लो। ( 9)
ग़रज़ कि रसूल जब हज से फ़ारिग़ हुए और उनके साथ एक अज़ीम काफ़िला पलटा तो रास्ते में ग़दीरे ख़ुम के मक़ाम पर जलाले किबरिया का आईना बनकर ये आयत नाज़िल हुई कि ऐ रसूल (स.अ.व.व) जो तुम पर नाज़िल किया गया है उसे फ़ौरी तौर पर पहुंचा दो और अगर तुमने ऐसा न किया तो गोया रिसालत का कोई काम अन्जाम ही नहीं दिया। ख़ुदा तुम्हें मुनाफ़िक़ीन के शर से महफ़ूज़ रखेगा। ( 10)
अब रसूल के लिए ताख़ीर मुम्किन नहीं थी चुनान्चे आपने ज़ुल अशीरा में किये गये वादे के मुताबिक़ मनकुन्तो मौला ही फ़हाज़ा अलीयुन मौला कह कर अली को अपना जैसा हाकिम बना दिया। ( 11)
अबनाअना , निसाअना , वअनफ़ोसना की अमली तफ़सीर के ज़रिये अहलेबैत (अ.स) में शामिल जुमला अफ़राद का ताअर्रूफ़ भी करा दिया।
साज़िशायों और साज़िशों से पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व) हर्गिज़ बे ख़बर नहीं थे अगर बे ख़बर होते तो अपनी ज़िन्दगी के आख़िरी अय्याम में ऐसे अहकाम सादिर न फ़रमाते जिनसे आक़ाबिरीने सहाबा ने न सिर्फ़ इख़तिलाफ़ किया बल्कि ऐसी नाफ़रमानियों और ग़ुस्ताख़ियों के मुर्तकिब हुए कि सरकारे दो आलम को लानत जैसा अबदी हर्बा इस्तेमाल करना पड़ा।
अपनी अलालत और शहादत के दरमियान रसूले अकरम (स.अ.व.व) ने उम्मत को इन्तिशारों इफ़्तिराक़ और दाएमीं फ़िर्क़ा बन्दी से बचाने के लिए बड़े ही हकीमाना अन्दाज़ में लशकर की तशकील की जिसकी सरबराही और क़यादत पर असामा बिन ज़ैद को मामूर फ़रमाया।
ख़तमी मरतबत ने इस लशकर में हज़रत अली (अ.स) और चन्द मख़सूस सहाबा को छोड़ के तमाम अंसारों मुहाजिरीन और आयाने मदीना के हमराह अबू बकरो , उमरों उस्मान , सअद इब्ने अबी विक़ास , उबैदए जर्राह , अब्दुर्रहमान बिन औफ़ , तल्हा और ज़ुबैर वग़ैरह को भी शामिल किया और उन्हें ये ताजीली हुक्म दिया कि सब लोग बग़ैर किसी ताख़ार के मदीना छोड़ के असामा के साथ महाजे जंग पर रवाना हो जायें।
असामा बिन ज़ैद हुक्में पैग़म्बर (स.अ.व.व) के मुताबिक़ लशकर लेकर मदीने से रवाना हुए मगर अभी सिर्फ़ तीन मील का रास्ता तय हुआ था कि उन्हें ज़रफ़ नामी एक मक़ाम पर ठहर जाना पड़ा , इसका सबब ये था कि अबू बकर वग़ैरह इस लशकर में शामिल नहीं हुए थे। ( 12)
असामा तीन दिन तक इन लोगों का इन्तिज़ार करते रहे मगर उन्हें न जाना था न गये। अलबत्ता असामा को उम्मे ऐमन के तवस्सुल से हज़रत आयशा का ये पैग़ाम ज़रूर मौसूल हुआ कि पैग़म्बर (स.अ.व.व) की हालत नाज़ुक है , लिहाज़ा लशकर को पेशक़दमी करने के बजाय मदीने की तरफ़ वापस पलट आना चाहिये।
अबू बकर वग़ैरह की तरफ़ से असामा का तख़ल्लुफ़ और हज़रत आयशा की तरफ़ से हुक्में पैग़म्बर (स.अ.व.व) के ख़िलाफ़ लशकर को पलटाने का नारवा इक़्दाम हमें ये सोचने पर मजबूर करता है कि बाप और बेटी के दर्मियान ख़िलाफ़त के बारे में कोई तालमेल ज़रूर था और शायद आयशा की दूर रस निगाहों ने ये भी महसूस कर लिया था कि ख़िलाफ़त के बारे में पैग़म्बर को जिन लोगों से ख़तरा था उन्हें आप मदीने से बाहर भेज देना चाहते थे ताकि अली से कोई झगड़ा न कर सके। ये भी मुम्किन है कि आयशा ने लशकर को वापस पलटा कर रसूल के बाद ख़िलाफ़त के मस्अले पर साहिबे ज़ुल्फ़िक़ार के मुक़ाबले में अपने बाप को तहफ़्फ़ुज़ देने का ख़्याल किया हो।
बहर हाल तारिख़ी तजज़िये के बाद हर इन्साफ़ पसन्द शख़्स ये कहने पर मजबूर होगा कि हज़रत आयशा की इस हिकमते अमली ने रसूले अकरम (स.अ.व.व) के तमाम मनसूबों पर पानी फेर दिया।
इस वाक़ेए के बाद तमाम साज़िशी लोग खुल कर रसूल (स.अ.व.व) के सामने आ गये। इसकी मोहकम दलील ये है कि वक़्ते आख़िर जब सरकारे दो आलम ने मिल्लते मुस्लिमा को गुमराही से बचाने और ख़िलाफ़त के इशकाल को दूर करने के लिये क़लम , दवात और काग़ज़ तलब किया तो इन्हीं साज़िशियों ने मुख़ालिफ़त की और हंगामा बरपा किया। उमर इब्ने ख़त्ताब इस क़दर मुश्तइल हुए कि उन्होंने यहां तक कह दिया कि इस मर्द को इसके हाल पर छोड़ दो क्यों कि ये हिज़्यान बक रहा है। हमारे लिये ख़ुदा की किताब काफ़ी है। ( 13) मज़ीद किसी नविशते की ज़रूरत नहीं। ये बात अलाहिदा है कि उमर की इस ग़ुस्ताख़ी पर आं हज़रत (स.अ.व.व) ने उन्हें और उनके साथियों को अपने घर से निकाल बाहर किया। ( 14)
ये वो हादसात हैं जो पैग़म्बर (स.अ.व.व) के आख़िरी दौरे हयात में यके बाद दीगरे रूनुमा होते रहे। इनको तसलसुल ये बताता है कि इन तमाम वाक़िआत के पसे पर्दा सिर्फ़ हवसे इक़्तिदार का जज़्बाकार फ़रमा था और तमाम साज़िशी ये उम्मीद लिए बैठे थे कि किसी तरह रसूल (स.अ.व.व) की आंखे बन्द हों और अपने देरीना मनसूबों को अमली जामा पहना सकें। जैसा कि डॉक्टर मोहम्मद अबू बकर खां मलिहाबादी अपने एक मज़मून में तहरीर फ़रमाते हैः-
सादा लौह मुसलमान और चालाक मुनाफ़िक़ीन मरे नहीं थे बल्कि मुनाफ़िक़त की नक़ाब चेहरों पर डाले मुसलमानों में घुल मिल गये थे और उस दिन का इन्तिज़ार कर रहे थे कि पैग़म्बर (स.अ.व.व) की आंखे बन्द हो और वो सल्तनते इस्लामी पर क़ब्ज़ा करके ख़ूब गुलछर्रे उड़ायें। ( 15)
अज़मतों इक़्तिदार की भूकी शख़्सियतें कितनी परेशान थीं और साज़िशी गिरोह के अरकान पर ख़िलाफ़त का भूत किस हद तक सवार था इसका अन्दाज़ा हज़रत आयशा के उस बयान से होता है जिसमें आप फ़रमाती हैं किः-
वक़्ते आख़िर पैग़म्बर (स.अ.व.व) ने मुझसे फ़रमाया कि मेरे हबीब को बुलाओं तो मैंने अपने वालिद अबू बकर को बुलाया आं हज़रत (स.अ.व.व) ने उन्हें देखा तो मुंह फेर लिया। कुछ तवक़्क़ुफ़ के फिर फ़रमाया कि मेरे हबीब को बुलाओ तो मैंने उमर को बुलाया। उन्हें भी देख कर आं हज़रत (स.अ.व.व) ने मुंह फेर लिया। तीसरी मरतबा फिर फ़रमाया कि मेरे हबीब को बुलाओ तो मैंने अली को तलब किया जब वो आए तो सरकारे दो आलम (स.अ.व.व) ने उन्हें अपनी चादर में ले लिया और उस वक़्त तक अपने सीने से लगाये रहे जब तक कि आपकी रूह आपके जिस्म से परवाज़ न कर गयी। ( 16)
हज़रत आयशा के मज़कूरह बयान पर ग़ौर करने से मुन्दर्जा ज़ैल बातों का इन्किशाफ़ होता है।
1. ये कि दौराने अलालत पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व) के पास साज़िशियों और आयशा के अलावा ख़ानदाने बनी हाशिम में से कोई मौजूद नहीं था।
2. पैग़म्बर (स.अ.व.व) के मुताल्लेक़ीन और क़राबतदारों को पैग़म्बर (स.अ.व.व) की क़ुर्बत से अलग रखा गया था।
3. हज़रत आयशा की नीयत साफ़ न थी वरना वो रसूल (स.अ.व.व) की पहली ही आवाज़ पर हज़रत अली (अ.स) को तलब करतीं क्यों कि वो जानती थीं कि ख़ुदा को हबीब हज़रत अली के अलावा और कोई नहीं हो सकता।
4. हज़रत आयशा ने ऐसे लोगों को क्यों तलब किया जो साज़िशी गिरोह के मुखिया थे और जिनके मकरूह चेहरों को देख कर पैग़म्बर (स.अ.व.व) ने अपना मुंह फेर लिया।
इन तमाम उमूर का ख़ास सबब आले रसूल (स.अ.व.व) और अली (अ.स) से हज़रत आयशा की बुनियादी दुशमनी थी जैसा कि अंग्रेज़ मुवर्रिख़ मिस्टर गिबन का कहना है किः-
रसूल का बिसतरे मरज़ आयशा जैसी चालाक औरत के मुहासिरे में था जो अबू बकर की बेटी और अली की बदतरीन दुश्मन थीं। ( 17)
शम्सुल उलमा डिप्टी नज़ीर अहमद फ़रमाते हैः-
आयशा इब्तिदा ए अलालत से तादमें मर्ग पैग़म्बर (स.अ.व.व) के पास से न खिसकीं। ( 18)
इसकी वजह मौसूफ़ ये बयान करते हैं किः-
वो (आयशा) दिल से बाप की इमामत और ख़िलाफ़त सभी कुछ चाहती थीं। ( 19)
अपने बाप के लिए आयशा की तमन्नाऐं ख़िलाफ़त के बारे में शम्सुल उलमा का नज़रिया सौ फ़ीसद दुरूस्त है , मगर अबू बकर की इमामत यानी पेश नमाज़ी की फ़रसूदह दास्तान से मुझे क़तई इत्तिफ़ाक़ नहीं है हालांकि इस दास्तान को तमाम मुवर्रेख़ीनों मुहद्दिसी ने हज़रत आयशा की ज़बान से बयान किया है , और मौसूफ़ भी तहरीर फ़रमाते हैः-
तसफ़ीया ए ख़िलाफ़त के वक़्त इसी इमामत को ख़िलाफ़ते अबू बकर के लिए ताज़ह सनद गर्दान कर इसी बिना पर सहाबा ने बिल इजमाअ हज़रत अबू बकर को पैग़म्बर साहब का ख़लीफ़ा तस्लीम कर लिया। ( 20)
तारीख़े शाहिद हैं कि अबू बकर मुनाफ़िक़ भी थे और मुशरिक भी। ( 21)
इसके अलावा अगर अबू बकर में इस्लामी और दीनी उमूर की सलाहियत होतीं तो वो सूरा ए बराअत से माज़ूल न किये जाते या असामा के लशकर से तख़ल्लुक़ की बिना पर पैग़म्बरे इस्लाम उन पर लानत न फ़रमाते। भला ये कैसे मुम्किन था कि रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व) किसी ऐसे शख़्स को अपनी जगह पेशनमाज़ी जैसे अहम फ़रीज़े के लिए नामज़द करते जो मुनाफ़िक़ भी हो , मुशरिक भी हो , लानती भी हो और बहुक्मे ख़ुदा क़ुर्आन के तबलीग़ी मनसब से माज़ूल भी किया गया हो। फिर ख़ुद अबू बकर ने भी सक़ीफ़ा में बैअत के मौक़े पर इस दलील को ख़िलाफ़त की बुनियाद नहीं बनाया कि मैं मस्जिदे नब्वी में का इमामे जमाअत हूं और पैग़म्बरे इस्लाम ने मुझे इस मनसब पर फ़ाइज़ किया है और न ही उमर ने इस दलील की तरफ़ अबू बकर की तवज्जो मबज़ूल कराई और न आयशा ने अपने वालिदे मोहतरम को ख़िलाफ़त के अखाड़े में भेजते वक़्त ये कहा कि आपकी ख़िलाफ़त के लिए आपकी इमामत की दलील मोहकम और काफ़ी है। अबू बकर जब ख़लीफ़ा बनने के बाद तख़ते ख़िलाफ़त पर मुतमक़्क़िन हुए तो दरबारे ख़िलाफ़त में उन्होंने हज़रत अली के सामने भी इस्तेहक़ाक़े ख़िलाफ़त के बारे में इस दलील को पेश नहीं किया। बहरहाल मेरे नज़दीक इस वाक़िए की कोई हक़ीक़तों अहमियत क़तई नहीं हैं ये सिर्फ़ मनगढ़त फ़र्ज़ी और बनी उमय्या की इख़तिराअ है जिसे हज़रत आयशा की तरफ़ मनसूब कर दिया गया है।
हक़ीक़त यही है कि पैग़म्बरे इस्लाम की हयात के आख़िरी दौर में हुज़रा (स.अ.व.व) के ख़िलाफ़ जुम्ला साज़िशों और साज़िशी गिरोह की तमामतर सरगर्मियां और महाज आराइयां सिर्फ़ और सिर्फ़ ख़िलाफ़त की बाज़याबी के लिये थी। हज़रत आयशा चूंकि अबू बकर की बेटी थीं लिहाज़ा फ़ितरी तौर पर उनकी दरपर्दा कोशिश ये थी कि रसूलल्लाह (स.अ.व.व) के बाद ख़िलाफ़त की बागडोर उनके बाप अबू बकर के हाथों में रहे मगर ये काम आसान नहीं था , क्यों कि पैग़म्बर आख़िरी हज से वापसी के दौरान ग़दीर में बहुक्में ख़ुदा हज़रत अली की ख़िलाफ़तो विलायत का एलान कर के तक़रीबन दो लाख मुसलमानों की मौजूदगी में उन्हें अपना जानशीन और ख़लीफ़ा मुक़र्रर कर चुके थे। अब मस्अला सिर्फ़ उम्मते मुस्लिमा की तरफ़ से अली की ख़िलाफ़त पर अमल दर आमद का था जिसके बारे में पैग़म्बर ख़ुद भी ये महसूस कर रहे थे कि जब साज़िशी गिरोह के अफ़राद मदीने में मौजूद हैं , मुसलमानों को अली की ख़िलाफ़त पर मुत्तफ़िक़ो मुत्ताहिद होने न देंगे इस लिये आप तमाम साज़िशियों को असामा बिन ज़ैद के लशकर में शामिल कर के मदीने से बाहर महाज़े जंग पर रवाना कर देना चाहते थे ताकि बाद में कोई झगड़ा ही न रहे। मगर हज़रत आयशा ने अपने सियासी जोड़ तोड़ से पैग़म्बर (स.अ.व.व) के इस मनसूबे को नाकाम बना कर अपने मक़सद में कामयाबी हासिल कर ली। जिसका नतीजा ये हुआ कि इस्लाम में फ़ितनाओं फ़साद के दरवाज़े खुल गये और मुसलमान तिहत्तर फ़िरक़ों में तक़सीम हो गये।
(इस किताब को आप “अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क ” पर पढ़ रहे है।)
हुसूले ख़िलाफ़त की इस रस्साकशी के अलावा दूसरा अहमतरीन - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -