अबू बकर व उमर का दौरे हुकूमत और आयशा
रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के अहद में हज़रत आयशा की पूरी ज़िन्दगी खेलकूद , हंगामा आराई , धमा चौकड़ी , नफ़रतो अदावत , रश्को हसद इख़तेलाफ़ और लड़ाई झगड़े में गुज़री जिसकी वजह से रसूल को भी बाज़ मवाक़े पर सख़्त अज़ीयतों और दुशवारियों में मुब्तिला होना पड़ा।
रसूलल्लाह (स.अ.व.व) की शहादत के बाद आपकी मनचली तबीअत क़दरे सन्जीदगी की तरफ़ माएल हुई। अबू बकर का ज़माना आपकी ज़िन्दगी और शख़्सियत साज़ी का बेहतरीन ज़माना था। बाप की हुकूमत का सुकूनों आराम मयस्सर था , ख़ुशहाली और कामरानी आपके क़दमों में थी , सियाह-सफ़ेद का इख़्तियार हासिल था , गोया आप मलका ए वक़्त थीं और कुल सल्तनत आप ही की थी।
इब्ने सअद का कहना है कि अहदे अबू बकरो उमर में हज़रत आयशा फ़तवे दिया करती थीं और अकाबेरीने सहाबा उनसे पैग़म्बर के अहकामात मालूम किया करते थे। ( 1)
अबू बकर के बाद उमर के दौरे हुकूमत में भी आपको वही अज़मतों मन्ज़ेलत मयस्सर रही। ख़लीफ़ा ए वक़्त ने तमाम अज़्वाजे रसूल का सालाना वज़ीफ़ा दस हज़ार मुक़र्रर किया था लेकिन आपकी ख़ुसूसी मुराआत के तहत बारह हज़ार मिलते थे। ( 2)
(ज़ुक़वान) ग़ुलामे आयशा का बयान है कि एक मरतबा ईराक़ से उमर के पास एक सन्दूक भेजा गया जो बेशक़ीमत जवाहरात से भरा हुआ था , उमर ने लोगों से दर्याफ़्त किया कि अगर तुम लोग कहो तो मैं ये सन्दूक आयशा को दे दूं क्यों कि वह रसूल की चहीती हैं , सब ने मन्ज़ूर कर लिया और उमर ने वो सन्दूक आयशा को नज़्र कर दिया। ( 3)
हज़रत आयशा की क़द्रो मन्ज़िलत का अन्दाज़ा इस वाक़ेए से होता है कि 23 हिजरी में उमर आख़िरी हज के लिये तैय्यार हुए तो ज़ैनब और सौदा के अलावा दीगर उम्माहातुल मोमिनीन के साथ आयशा ने भी हज की ख़्वाहिश की जिसे उमर ने ब सरो चश्म मन्ज़ूर ही नहीं किया बल्कि ये हुक्म भी दिया कि सामाने सफ़र के साथ उम्मुल मोमिनीन के लिए ख़ुसूसी इन्तिज़ामात भी किये जायें और जुम्ला आसाइशें भी मुहय्यां की जायें।
चुनांचे अमारियां आरास्ता की गयीं और उन पर सब्ज़ रंग के ख़ुशनुमा पर्दे डाले गये। उस्मान बिन उफ़्फ़ान और अब्दुर रहमान बिन औफ़ ऊंटों की सारबरानी पर मुक़र्रर हुए और उम्मुल मोमिनीन इस शानो शौकत और जाहो जलाल के साथ दीगर अज़्वाज के हमराह हज के लिए रवाना हुईं कि उनके नाक़े के आगे उस्मान थे जो चीख़ चीख़ कर ये आवाज़ देते जाते थे कि...... होशियार........ ख़बरदार...... इधर को कोई रूख़ न करे और न नज़र उठा कर देखने की कोशिश करे अज़्वाजे पैग़म्बर के साथ उम्मुल मोमिनीन महवे सफ़र हैं। अब्दुर रहमान बिन औफ़ काफ़िले के पीछे चल रहे थे और उनकी भी वही हालत थी जो उस्मान की थी। ( 4)
उम्मुल मोमिनीन ज़ैनब और सौदा ने इस सफ़र में आयशा का साथ इस लिये नहीं दिया कि उनका कहना था कि अब ऊंट की पीठ हमें हरकत नहीं दे सकती। रसूले ख़ुदा के साथ हमने हज भी कर लिया और उमरा भी , अब हमारे लिये ख़ुदा का हुक्म यही है कि हम घर में बैठे।
ग़रज़ की हज़रत आयशा ख़ुसूसी तवज्जो और इनायात का अज़ीम मरकज़ थीं। ख़लीफ़ा ए सानी के दौर में उन्हें जो मरतबा हासिल हुआ वो किसी को भी नसीब न हो सका। आयशा भी उमर का पूरी तरह एहतिराम करती थीं और उन दोनों के क़ौलो अमल में बड़ी हद तक यकसानियत भी थी। बुख़ारी , बैअते उस्मान के वाक़ेआत में और इब्ने सअद ने तबक़ात में एक तवील रवायत नक़ल की है जिससे दोनों के ख़्यालात की हम आहंगी का पता चलता है , इस रवायत को नज़र अन्दाज़ कर देना ही मेरे ख़्याल से मुनासिब है।
अल्लामा इब्ने अबदरबा ने अक़्दे फ़रीद में मिम्बराने शूरा की ज़बानी उमर की गुफ़्तुगू नक़ल की है जिसका खुलासा ये है कि उमर की वसीयत ये थी कि मेरे बाद तुम लोग आयशा के हुजरे में ही ख़लीफ़ा का इन्तिख़ाब करना चुनान्चे उमर की तदफ़ीन हो चुकी तो मिक़दाद बिन अस्वद ने आयशा की मर्ज़ी से अरकाने शूरा को उनके घर में इकट्ठा किया , अमरे आस और मुगीरा बिन शैबा भी दरवाज़े पर आकर बैठ गये लेकिन सअद ने उन्हें पत्थर मार कर भगा दिया और कहा कि कल तुम दोनों भी अपने आप को मिम्बराने शूरा में शुमार करने लगोगे और लोगों से कहोगे कि हम भी शूरा में मौजूद थे। ( 5)
उमर ने अपनी ज़िन्दगी के आख़िरी लम्हों तक आयशा का पासो लिहाज़ किया और इम्तियाज़ी और तरजीही सुलूक़ को बदस्तूर रवा रखा और उन्हें इस क़ुव्वतो ताक़त का मालिक बना दिया कि बाद में वो हर हुकूमत से टकरायी और उसे लिए दर्दे सर बन गयी।
उमर अगर एक तरफ़ हज़रत आयशा की ज़ात से वालिहाना अक़ीदतों मुहब्बत रखते थे तो दूसरी तरफ़ अपने मौकिफ़ में इन्तिहाई सख़्त भी थे जिसका अन्दाज़ा उल्लामा मुहिबउद्दीन तबरी की इस रवायत से होता है। वो तहरीर फ़रमाते हैः-
जब अबू बकर का इन्तिक़ाल हो गया तो आयशा ने ग़म में सफ़े मातम बिछाई और गिरया ओ मातम का एहतिमाम किया। उमर को जब ये ख़बर मालूम हुई तो वो कुछ हमराहियों के साथ आ धमके और दरवाज़े पर खड़े हो कर अपनी गरजदार आवाज़ में गिरयाओ मातम से मना करने लगे मगर जब आयशा और दूसरी औरतें रोने से बाज़ न आयीं तो उमर ने हिशाम बिन ख़ालिद को हुक्म दिया कि घर में घुस जाओ और रोने वालियों को ज़बरदस्ती घसीट लाओ। हिशाम घर में अन्दर घुस गया और आयशा की बहन उम्मे फ़रवा को ख़ींचता हुआ बाहर ले आया। उमर ने रोने के जुर्म में उम्मे फ़रवा को इतने दुर्रे मारे कि वो लहू लुहान हो गयीं।
बज़ाहिर उम्मे फ़रवा और आयशा का जुर्म एक था मगर उमर ने उम्मे फ़रवा को जदोकोब करने के बाद आयशा को छोड़ दिया , शायद इस लिये कि उनकी हुकूमत आयशा की मरहूमे मिन्नत थी।
उमर के इस इक़दाम पर आयशा जितनी भी फ़ख़्र करें कम है क्यों कि उमर ने उनका वो पासो लिहाज़ किया जो रसूल के बाद उनकी कुदसी सिफ़ात बेटी फातेमा ज़हारा (स.अ.) का भी नहीं किया।
तबरी की इस रवायत से ये भी पता चल गया कि ग़मे हुसैन (अ.स) में गिरयाओ मातम के ख़िलाफ़ बिदअत के फ़तवे इसी उमरी सीरत पर अलक का शाख़साना है।
उस्मान का दौरे हुकूमत और आयशा
ख़िलाफ़ते उस्मानियां के इब्तिदाई छः बरसों में हज़रत आयशा उस्मान की सरगर्म हिमायती रहीं और क़दम क़दम पर उनकी इताअत करती रहीं। उसके बाद दोनों के दर्मियान इख़तिलाफ़ पैदा हो गया। इस इख़तिलाफ़ की वजह यह बताई जाती है कि , उमर ने तमाम अज़्वाजे पैग़म्बर (स.अ.व.व) का सालाना वज़ीफ़ा 10 हज़ार मुक़र्रर किया था और आयशा को बारह हज़ार देते थे। उस्मान ने दो दो हज़ार कम करे उनका वज़ीफ़ा भी दीगर अज़्वाज के मसावी कर दिया।
रफ़्ता रफ़्ता इसी मुख़ालिफ़त ने ख़तरनाक सूरत इख़तियार कर ली और आयशा खुल कर उस्मान से मुक़ाबले के लिये मैदान में उतर आयीं। उन्होंने मुसलमानों को वरग़लाया , भड़काया और आमादा ए पैकार किया और फ़तवा दिया कि उस्मान काफ़िर हो गया है इस नअसल को क़त्ल कर दो।
जब मुसलमान उस्मान के ख़िलाफ़ पूरी तरह मुशतइल और बरगश्ता हो गये और हालात इन्तिहाई नाज़ुक मोड़ पर आ गये तो आप मदीना छोड़ कर हज के बहाने से मक्के रवाना हो गयीं। आपके जाते ही आपके हिमायती तल्हा ज़ुबैर वग़ैरह की मदद से आम मुसलमानों को आमादा कर के हुकूमते उस्मान का तख़्ता पलट दिया और उस्मान बड़ी बेदर्दी से मौत के घाट उतार दिये गये।
बलाज़री का कहना है किः-
हज़रत आयशा की वो पहली ज़ात है जिसने उस्मान की मुख़ालिफ़त में आवाज़ बलन्द की , उनके मुख़ालिफ़ीन के लिये जाए पनाह बनीं और उनसे आमादा ए पैकार लोगों की क़ियादत की। उस वक़्त पूरी ममलेकते इस्लामिया में हज़रत अबू बकर के ख़ानदान से बढ़ कर उस्मान का दुश्मन न था। ( 1)
हज़रत उस्मान से आयशा के इख़तिलाफ़ का सबब उनके वज़ीफ़े में तख़फ़ीफ़ के अलावा वो ज़ियादतियां मज़ालिम और तशद्दुद भी थे जिन्हें उस्मान और उनके आमिलों ने आम मुसलमानों पर रवा रखे थे और जिनकी वजह से मुसलमानों और असहाबे पैग़म्बर (स.अ.व.व) में ग़मों ग़ुस्सा और बरहमी की लहर पैदा हो चुकी थी। तल्हा और ज़ुबैर की वो मिली भगत भी थी जिसके ज़रिये वो लोग हुकूमतो अमारत के ख़्वाहां थे और जिसकी हक़ीक़ी तस्वीर जंगे जमल के मौक़े पर उभर कर सामने आयीं।
इस दलील के तमाम हालात और वाक़ेआत को हम अपनी किताब अल ख़ुलफ़ा हिस्सा दोम में मुफ़स्सल तौर पर तहरीर कर चुके हैं मुनासिब होगा कि कारेईने किराम उस किताब का मुतालिआ फ़रमायें।
क़त्ले उस्मान पर आयशा के ख़िलाफ़ सहाबा की गवाहियां
(माख़ज़ अज़ अल ख़ुलफ़ा)
(हिस्सा दोम)
मुग़ीरा एक दिन आयशा के पास आया तो उन्होंने उस से फ़रमाया कि ऐ अबू अब्दुल्लाह ! काश तुम जंगे जमल में देखते कि तीर किस तरह मेरे हौदज को तोड़ कर निकल रहे थे। मुग़ीरह ने कहा काश उन तीरों में से कोई तीर आपका ख़ात्मा कर देता। आयशा ने फ़रमाया , आख़िर क्यों ? मुग़ीरह ने कहा तुम्हारे क़त्ल से उस सइए क़त्ल का कफ़्फ़ारह हो जाता जो उस्मान के लिये आपने की है। ( 2)
सअद इब्ने अबी विक़ास
सअद से एक शख़्स ने पूछा कि उस्मान का क़ातिल कौन है ? उन्होंने कहा , उस तलवार से क़त्ल हुए जो आयशा ने खींची थी। ( 3)
इब्ने कलाब
हिसारे उस्मान के वक़्त आयशा मक्के चली गयी थी और जब उस्मान क़त्ल हो गये तो मक्के से फिर मदीने की तरफ़ पलटीं। सर्फ़ के मक़ाम पर इब्ने कलाब से मुलाक़ात हुई , पूछा , क्या ख़बर है ? कहा उस्मान क़त्ल कर दिये गये। ये सुन कर आयशा फिर मक्के की तरफ़ पलटीं और फ़रमाया उस्मान बे गुनाह क़त्ल हुए।
इब्ने कलाब ने कहा , आप ही ने उस्मान का क़त्ल चाहा आप ही वो हैं कि जिसने ये फ़तवा दिया कि नअसल को क़त्ल कर डालों क्यों कि ये काफ़िर हो गया है। ( 4)
अम्मार बिन यासिर
उस्मान के क़त्ल होने पर आयशा ने शोर मचाया कि उस्मान बे गुनाह क़त्ल हुए। उस पर अम्मार ने कहा , कल तुम उनके क़त्ल के लिये लोगों को भड़काती थीं और आज शोर मचाती हो। ( 5)
हज़रत आयशा का इक़रार
जब अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली (अ.स) के बैअत की ख़बर आयशा को मिली तो वो उस वक़्त मदीने में नहीं थी। उनसे कहा गया कि उस्मान क़त्ल हो गये और अली के हाथ पर बैअत हो गयी। ये सुन कर आयशा ने कहा , मुझे परवाह नहीं , अगर ज़मीनों आसमान मुझ पर फट पड़ें। ख़ुदा की क़सम उस्मान बेगुनाह क़त्ल हुए और अब मैं उनके ख़ून का इन्तिक़ाम लूंगी। उस पर उबैद ने कहा , ऐ उम्मुल मोमिनीन ! सबसे पहले जिसने उस्मान पर तअन की और लोगों को उनके क़त्ल पर उभारा वो आप थीं और आप ही ने कहा कि इस नअस्ल को क़त्ल कर डालो क्यों कि ये काफ़िर हो गया है। आयशा ने कहा , हां ख़ुदा की क़सम मैंने ये ज़रूर कहा और किया , मगर दूसरा क़ौल पहले क़ौल से बेहतर है। उबैद ने कहा , हमारे नज़दीक क़ातिल वो है जिसने क़त्ल का हुक्म दिया। ( 6)
अमरए आस
इब्ने क़ैबा ने अपनी किताब अल इमामत वल सियासत में तहरीर किया है कि जिस वक़्त उस्मान क़त्ल हुए अमरए आस फ़िलिस्तीन में था। उसे ख़बर मालूम हुई तो उसने सअद इब्ने अबी विक़ास को ख़त लिख कर पूछा कि उस्मान को किसने क़त्ल किया। जवाब में सअद ने लिखा , कि उस तलवार से उस्मान क़त्ल हुए जो आयशा ने तैय्यार की थी और तल्हा ने उस पर सैक़ल की थी। ( 7)
ये वो तारिख़ी शवाहिद हैं जो इस सरबस्ता राज़ पर पड़े हुए पर्दे को चाक कर देते हैं कि उस्मान का अस्ल क़ातिल कौन है ? अब सवाल ये है कि अगर आयशा ने उस्मान के क़त्ल का हुक्म दिया और इस हुक्म के अमल दर आमद पर मुसलमानों को हमवार किया तो फिर उस्मान के क़त्ल हो जाने के बाद उन्होंने ख़ूने उस्मान के क़िसास का नारा क्यों बलन्द किया जिसके नतीजे में जंगे जमल के नाम से एक हौलनाक हादसा रूनुमा हुआ। इसका जवाब यह है कि सियासी नुक़्ता ए नज़र से आयशा के लिए इससे बेहतर कोई सूरत नहीं थी कि मुसलमानों को फ़रेब में मुब्तिला कर के अपने दामन से क़त्ले उस्मान के धब्बों को साफ़ कर लें।
दूसरे ये कि वो दुश्मनी और अदावत जो हज़रत अली (अ.स) की तरफ़ से आपके दिल में थी उसके इन्तिक़ाम के लिये भी ज़रूरी था कि वो इस मौक़े से फ़ायदा उठाते हुए मैदाने कारज़ार गर्म कर दें। अगर जंग में ये कामयाब हो जातीं तो उनकी सारी दिली मुरादें पूरी हो जातीं यानी हज़रत अली (अ.स) भी क़त्ल हो जाते और हुकूमत की बागडोर भी उनके हाथों में आ जाती।
क्यों कि आयशा , तल्हा , ज़ुबैर और माविया इन चारों में हर एक ये चाहता था कि वो इक़्तिदार का मालिक बने। हज़रत आयशा की सियासत ये भी कि अगर मैं किसी वजह से इक़्तिदार की मालिक न बन सकूं तो मेरी बहन का लड़का अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर इस मनसब पर फ़ाइज़ हो। यही वजह थी कि उस्मान के क़त्ल में उन्होंने अपना पूरा सियासी ज़ोर सर्फ़ कर दिया।
अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली (अ.स) के ख़िलाफ़ आयशा का मौक़फ़
एक मुहक़्क़िक़ की जुस्तुजू हज़रत अली इब्ने अली तालिब अलैहिस्सलाम के ख़िलाफ़ आयशा के मौक़फ़ में अहले बैत से दुश्मनी और अदावत के अलावा और कुछ नहीं पाती ये भी एक मोज़िजा है कि आले रसूल (स.अ.) ख़ुसूसन हज़रत अली (अ.स) से आयशा की दुश्मनी और अदावत को तारीख़ ने क़यामत तक के लिए महफ़ूज़ कर लिया है। चुनान्चे बुख़ारी का बयान है कि हज़रत अली से आयशा का बुग़्ज़ो हसद इस नुक़्ताए उरूज पर था कि वो अमीरूल मोमिनीन का नाम लेना भी गवाराह नहीं करती थीं। ( 1)
अल्लामा एहसान उल्लाह गोरखपुरी ने अपनी तारीख़े इस्लाम में तहरीर किया है कि अली और फातेमा (स.अ) से आयशा का रश्को हसद मुख़तलिफ़ वाक़ेआत से गुज़र कर नफ़रत की हदों तक पहुंच गया था। ( 2)
इमाम अहमद बिन हम्बल का कहना है कि एक रोज़ अबू बकर रसूल अल्लाह की ख़िदमत में हाज़िर हुए और बारयाबी की इजाज़त चाही लेकिन घर में दाख़िल होने से क़ब्ल उन्होंने आयशा की आवाज़ सुनी जो चीख़ चीख़ कर बुलन्द आवाज़ में पैग़म्बर (स.अ.व.व) से कह रहीं थी कि ख़ुदा की क़सम आप अली को मुझसे और मेरे बाप से ज़्यादा चाहते हैं। ( 3)
इब्ने अबुल हदीदे मोअतज़ेली का बयान है कि एक दिन रसूल अल्लाह (स.अ.व.व) हज़रत अली (अ.स) के हमराह गुफ़्तुगू करते हुए जा रहे थे , आयशा उनके पीछे पीछे चल रही थीं , अचानक मोअज़्ज़मा की रग भड़क गयी और वो रसूल अल्लाह और अली के दरमियान हायल होते हुए कहने लगीं कि बस बहुत हो चुकी अब ख़त्म करो इस गुफ़्तुगू को आयशा की इस नाशाइस्ता हरकत पर रसूले अकरम बेहद ग़ज़बनाक हुए। ( 4)
मसरूफ से एक रिवायत है कि मैं उम्मुल मोमिनीन आयशा की ख़िदमत में हाज़िर था और उनसे मसरूफ़े गुफ़्तुगू था कि इतने में आयशा ने अब्दुर रहमान के नाम से अपने एक हब्शी ग़ुलाम को आवाज़ दी वो आकर खड़ा हो गया। आयशा ने मुझ से फ़रमाया कि मसरूफ़ तुम्हे मालूम है कि इस ग़ुलाम का नाम अब्दुर रहमान क्यों रखा ? मैं ग़ौर ही कर रहा था कि फिर फ़रमाया कि चूंकि अब्दुर रहमान इब्ने मुलजिम अली क़ा क़ातिल था इस लिये ये नाम मुझे बहुत अज़ीज़ है और मैं इस नाम से इन्तिहाई मोहब्बत करती हूं।
इस वाक़ेए को अल्लामा शेख़ मुफ़ीद (र) ने अपनी किताब अल जमल में तहरीर फ़रमाया है और उस में शेख़ अबू जाफ़रे तूसी (र) ने अपनी किताब अशशाफ़ी जिल्द 4 स. 158 पर नक़्ल किया है।
गुजश्ता सफ़हात में हम अहलेबैत से आयशा की अदावत के नाम से तहरीर कर चुके हैं कि हज़रत अली की शहादत पर आयशा ने शुक्र का सज्दा किया मसर्रतों शादमानी का इज़हार फ़रमाया और तरबिया अशआर पढ़े।
आप हसनैन अलैहेमुस्सलाम से पर्दा करती थीं और जब इमाम हसन (अ.स) की शहादत वाक़ेए हुए तो उनके जनाज़े को रसूल (स.अ.व.व) के रौज़े में दफ़्न नहीं होने दिया हद ये है कि ख़ुद खच्चर पर सवार हो कर निकल पड़ी और इमाम के जनाज़े पर इतने तीर बरसाये कि सत्तर तीर जसदे अतहर में पेवस्त हो गये।
(इस किताब को आप “अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क ” पर पढ़ रहे है।)
ये वो तारीख़ी हक़ाएक़ हैं जिन से इन्कार की कोई गुन्जाइश नहीं है।
क़त्ले उस्मान के बाद जब ख़िलाफ़त हज़रत अली की तरफ़ मुनतक़िल हुई तो आप मक्के से मदीने की तरफ़ वापस आ रही थीं , रास्ते में मालूम हुआ कि अली की बैअत हो गई तो फ़रमाने लगीं कि मुझे आसमान का फट पड़ना गवारा है मगर अली का ख़लीफ़ा होना गवारा नहीं। फिर आप क़िसासे ख़ूने उस्मान का सहारा ले कर उठ खड़ी हुई , लशकर जमा किया जिसके नतीजे में एक ऐसी ख़ूंरेज़ हौलनाक और तबाह कुन जंग हुई जो तारीख़ में जंगे जमल के नाम से याद की जाती है।
जंगे जमल की तैयारियां और उसका पस मंज़र
दुनिया की ख़ूनी जंगों में जंगे जमल वो हौलनाक और हलाकत ख़ेज़ जंग है जो ख़िलाफ़ते अली के इब्तिदाई दौर में क़िसासे ख़ूने उस्मान के नाम से लड़ी गयी।
इस तबाहकुन और ख़ुंरेज़ जंग के अफ़सोसनाक नताइज और इफ़तेराक़ बैनल मुस्लिमीन की तमामतर मुजरिमाना ज़िम्मेदारियां हज़रत आयशा , तल्हा और ज़ुबैर पर आइद होती है जो इन्तिक़ामे ख़ूने उस्मान की आड़ में अमीरूल मोमिनीन बनने का जज़्बा ले कर तलवारों के साथ उठ खड़े हुए थे। हालांकि यही लोग उस्मान की ज़िन्दगी में उनके सख़्त मुख़ालिफ़ रहे , यहां तक कि इन्ही की कोशिश से तीसरे ख़लीफ़ा बड़ी बेदर्दी के साथ मौत के घाट उतार दिये गये।
उस्मान के ख़िलाफ़ लोगों को भड़काने उकसाने और वरग़लाने में हज़रत आयशा का किरदार बहुत ही अहम है। वो इस अम्र से बख़ूबी वाक़िफ़ थीं कि रसूले अकरम (स.अ.व.व) से वालिहाना अक़ीदत की बिना पर मुसलमान हुज़ूरे (स.अ.व.व) के जिस्मे अतहर से मस होने वाले वाक़िआत और आसार की ज़ियारत को तरस रहे हैं लिहाज़ा इन्ही वाक़िआत का तवस्सुल उस्मानी हुकूमत का तख़ता पलट देने के लिये काफ़ी है। जब ये चीज़े मुसलमानों के सामने रखी जायेंगी तो वो जज़्बात से मग़लूब होकर बेक़ाबू हो जायेंगे और उनके दिलों में एक हैज़ानी कैफ़ियत पैदा हो जायेगी।
हज़रत आयशा का ये हर्बा , यक़ीनन असरदार तरीन हर्बा था। चुनान्चे उन्होंने सरकारे दो आलम की नअलैने मुबारक और पैराहने अक़दस का सहारा लिया और ये दोनों चीज़े मुसलमानों के सामने रख कर माइल ब फ़रयाद हुई कि अभी ये चीज़ें कोहना भी नहीं होने पायीं कि उस्मान ने आं हज़रत (स.अ.व.व) की शरीअत को एकदम बदल कर रख दिया। काश ! इस नअसल को कोई क़त्ल कर दे क्यों कि ये काफ़िर हो गया है।
हज़रत आयशा की ये सियासी तदबीर किसी तरह सऊदी पेट्रोल से कम न थी। इसने उस्मान के ख़िलाफ़ सुलगती हुई चिंगारी को शोला बना दिया। आवाम में ग़मों ग़ुस्से की आग भड़क उठी , और मुख़ालेफ़ीन के बिखरे हुए सैलाब ने क़सरे ख़िलाफ़त को चारों तरफ़ से घेर लिया। जब आपने देखा कि मुख़ालिफ़ीनो मोहासेरीन की गिरफ़्त मज़बूत हो चुकी है तो ज़ैद इब्ने साबित , मरवान बिन हकम और अब्दुर रहमान बिन उताब की मिन्नत समाजत के बवजूद उस्मान को मुहासरे में छोड़ कर हज के बहाने से मक्के रवाना हो गयीं। सफ़र के दौरान भी उस्मान के ख़िलाफ़ आपका तब्लीग़ी अमल जारी रहा। चुनान्चे मदीने से कुछ दूर निकल कर सलसल के मक़ाम पर जब आपकी मुलाक़ात इब्ने अब्बास से हुई जो अमीरे हज की हैसियत से मक्के जा रहे थे तो आपने उनसे भी फ़रमायाः-
ऐ इब्ने अब्बास ! ख़ुदा ने तुम्हे क़ुव्वते गोयाई अता की है तो लोगों को उस्मान की मदद से रोको और उनके बारे में उन्हें शको शुबहे में मुब्तिला करो रास्ता हमवार हो चुका है , मुख़ालिफ़ शहरों से लोग फ़ैसलाकुन अम्र के लिए मदीने में जमा हो चुके हैं। तल्हा ने बैतुल माल की कुंजियों पर क़ब्ज़ा कर लिया है अगर वो ख़लीफ़ा हो गये तो अपने इब्ने अम अबूबकर की सीरत पर अमल करेंगें। ( 1)
हज़रत आयशा की इस गुफ़्तुगू से ये अम्र पोशीदा नहीं रह जाता कि वो उस्मान के बाद तल्हा की ख़िलाफ़त का ख़्वाब देख रहीं थी और उनके ज़रिये इक़तिदार का रूख़ भी अपने ख़ानदान की तरफ़ मोड़ना चाहती थीं।
उस्मानी अहदे हुकूमत के इब्तिदाई छः सालों में हज़रत आयशा उस्मान की ख़ैरख़्वाह , हमनवा , तरफ़दार और मोईनों मददगार रहीं मगर उसके बाद मुख़ालिफ़ हो गयीं मुख़ालिफ़त की वजह ये बयान की जाती है कि हज़रत उमर ने अपने दौरे हुकूमत में अज़्वाजे रसूल का वज़ीफ़ा दस हज़ार मुक़र्रर किया था , लेकिन आयशा को तरजीही बुनियाद पर बारह हज़ार मिलता था।
उस्मान ने दो हज़ार कम करे उनका वज़ीफ़ा भी दीगर अज़्वाज के बराबर कर दिया था। जैसा कि याक़ूबी का कहना है किः-
हज़रत उस्मान और आयशा के दर्मियान मुख़ालिफ़त की वजह ये थी कि उस्मान ने उनका वज़ीफ़ा जो हज़रत उमर उन्हें दिया करते थे कम कर दिया। ( 2)
हज़रत उस्मान और उनके उम्माल की आमिराना रविश की वजह से सहाबा का एक गिरोह पहले ही से उस्मान का मुख़ालिफ़ था। मुस्तजाद ये कि आयशा की इश्तेआल अंगेज़ी ने उसे और हवा दी यहां तक कि उस मुख़ालिफ़त ने ज़ोर पकड़ लिया और लोग उस्मान के ख़िलाफ़ सरगर्मे अमल हो गये ख़ुसूसन तल्हा इब्ने उबैदुल्लाह और उनका क़बीला बनी तैम इस मुख़ालिफ़त में पेश पेश रहा जिसकी क़ाएद हज़रत आयशा थीं। उन लोगों ने क़त्ले उस्मान के असबाब फ़राहम करने में कोई कसर उठा नहीं रखी। बलाज़री रक़म तराज़ है किः-
तल्हा से बढ़ कर हज़रत उस्मान पर सख़्तगीर कोई नहीं था। ( 3)
तल्हा ने अपनी हिकमते अमली से मुहासेरीन में जोशो ख़रोश पैदा कर के उस्मान पर मुहासरे को मज़ीद तंग किया। उन पर पानी बन्द किया। रात के अन्धेरे में क़सरे ख़िलाफ़त पर तीरों की बारिश की और अब्दुर रहमान बिन अदबस को इस अम्र पर मजबूर किया कि वो उनके घर आने जाने वालों पर पाबन्दी आएद कर दें। चुनान्चे उस्मान को इन बातों का इल्म हुआ तो उन्होंने कहाः-
परवर दिगार मुझे तल्हा के शर से महफ़ूज़ रखे इसी ने लोगों को मेरे ख़िलाफ़ भड़काया है और मेरे गिर्द घेरा डलवा दिया। ( 4)
उस्मान के क़त्ल हो जाने के बाद तल्हा के रवय्ये में फ़र्क़ न आया। उनकी लाश पर पत्थर बरसाये और उन्हें जन्नतुल बक़ी में दफ़्न न होने दिया और यही हालत ज़ुबैर की भी थी कि वो मुहासेरीन के दर्मियान आयशा की इस बात को दोहराते रहते थे किः-
उस्मान को क़त्ल कर दो उसने तो तुम्हारे दीन ही को बदल दिया। ( 5)
यही वो लोग थे जिन्होंने क़त्ले उस्मान की बुनियाद रखी , और उनके ख़िलाफ़ ऐसी फ़ज़ा पैदा कर दी कि जिसके नतीजे में वो क़त्ल कर दिये गये। अगर उस्मान का क़त्ल वाक़ई जुर्म था तो ये लोग उस जुर्म से बरी हरग़िज़ नहीं क्यों कि क़ातिलों और मुजरिमों की मदद और पुश्त पनाही भी जुर्म है।
हज़रत आयशा को अपनी कामयाबी का यक़ीन था उनका बोया हुआ बीज फल ज़रूर देगा इस लिये वो क़त्ले उस्मान से बीस दिन पहले ही इस ख़्याल के तहत मदीने से खिसक लीं कि दुनिया उनको तमाम हंगामा आराइयों से बेताल्लुक़ तसव्वुर करे और जब उस्मान का काम तमाम हो जाये तो वो तल्हा या ज़ुबैर को बरसरे इक़्तिदार लाकर उस माली नुक़्सान की तलाफ़ी कर सके जो मौजूदा हुकूमत से उन्हें पहुंचा है। मगर वो अपने इस मक़सद में कामयाब न हो सकीं और उनकी अहम मौजूदगी में ही मुसलमानों ने हज़रत अली की ख़िलाफ़त का फ़ैसला कर लिया।
हज़रते उस्मान ने जो शूरा क़ायम किया था उसके रूक्न तल्हा और ज़ुबैर भी थे इस लिये उनका ज़हन भी ख़िलाफ़त के तसव्वुर से ख़ाली नहीं था , चुनान्चे क़त्ले उस्मान के सिलसिले की तमाम तर कोशिशें इसी मक़सद के हुसूल का नतीजा थीं मगर उन लोगों ने जब ये देखा कि लोग हज़रत अली की ख़िलाफ़त पर बज़िद हैं और उनके अलावा किसी की बैअत पर रज़ामन्द नहीं हैं तो उन लोगों ने भी राय आम्मा का रूख़ देख कर पेश क़दमी की और हज़रत अली की बैअत कर ली और दूसरे ही दिन ये मुतालिबा किया कि उन्हें कूफ़ा और बसरा की अमारत दे दी जाये। लेकिन हज़रत आली ने ये गवारा न किया कि उन इलाक़ों को जो हुकूमत के मुहासिल का सरचश्मा हैं उनकी बढ़ती हुई हिर्सो हवस की आमाजगाह बनने दें। चुनान्चे आपने ये कह कर इन्कार कर दिया की मैं तुम्हारे मामलात में जो बेहतर होगा वो करूगां , फ़िलहाल तुम दोनों का मेरे पास ही मरकज़ में रहना ज़्यादा बेहतर है।
तल्हा और ज़ुबैर समझ रहे थे कि कूफ़ा और बसरा में उनके असरात हैं और उन्हीं की आवाज़ पर वहां के लोग उस्मानी हुकूमत में इन्क़िलाब बरपा करने की ग़रज़ से जमा हुए थे इस लिये अमीरूल मोमिनीन उन असरो रूसूख़ से मुतास्सिर हो कर उन्हें कूफ़े और बसरे की हुकूमत का परवाना लिख देंगे। मगर मायूसी के अलावा उन्हें और कुछ हासिल न हुआ और उन्होंने समझ लिया कि अली (अ.स) के होते हुए उन्हें न तो मनमानी करने का मौक़ा फ़राहम होगा और न ही वो ख़ुसूसी मुराआत हासिल होंगी जो सबका हुकूमतों में हासिल थीं लिहाज़ा उन्होंने अपने मक़ासिद की तकमील के लिए ग़ैर आईनी ख़ुतूत पर सोचना शुरू किया और अपनी तवज्जो का रूख़ आयशा की नक़्लों हर्कत की तरफ़ मोड़ दिया ताकि उनके अज़ाइम की रौशनी में मुस्तक़बिल का प्रोगाम तरतीब दें।
हज़रत आयशा ये चाहती थीं कि उस्मान के क़त्ल के बाद , तल्हा को बरसरे इक़तिदार लायें और इस तरह ख़िलाफ़त को मुस्तक़िलन अपने क़बीले बनी तैम में मुन्तक़िल कर दें इस लिये की मक्के में क़याम के दौरान बलवाइयों की यूरिश का नतीजा मालूम करने के लिये बेचैन रहती थीं और हर आने जाने वाले से मदीने के हालात और उस्मान के अंजाम के बारे में मालूम करती रहती थीं। इसी अस्ना में मदीने से अख़ज़र नामी एक शख़्स मक्के आया। हज़रत आयशा ने उसे बुलवाकर पूछा कि मदीने की शोरिश अंगेज़ी का क्या नतीजा हुआ ? उसने कहा कि हज़रत उस्मान ने मिस्र के बलवाइयों को मौत के घाट उतार दिया है और शोरिशो हंगामें पर क़ाबू पा लिया है। इस ख़बर ने उनके सारे ख़्यालात का शीराज़ा दरहम बरहम कर दिया , उन्होंने तास्सुफ़ आमेज़ लहजे में कहाः-
इन्ना लिल्लाहे व इन्ना एलैहे राजेऊन ! क्या उन लोगों को उस्मान ने क़त्ल कर दिया जो अपना हक़ मांगने और ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ बलन्द करने की ग़रज़ से गये थे ? ख़ुदा की क़सम हम इस पर राज़ी नहीं हैं। ( 6)
अभी आयशा अफ़सुर्दगी की हालत में थी कि एक दूसरे शख़्स ने आकर ये इत्तिला दी कि अख़ज़र की बातें ग़लत हैं मिस्रियों में से कोई क़त्ल नहीं हुआ , वो खुले बन्दो मदीने में दनदनाते हुए फिर रहे हैं , अलबत्ता हज़रत उस्मान उन लोगों के हाथों मारे गये हैं। ये सुन कर उम्मुल मोमिनीन पर मसर्रतो शादमानी तारी हो गयी और उन्होंने मुस्कुराते हुए फ़रमायाः-
ख़ुदा उसे अपनी रहमत से दूर रखे , वो अपने करतूतों को पहुंच गया। ( 7)
इस ख़बर के बाद हज़रत आयशा के लिए मदीने जाना ज़रूरी हो गया ताकि तल्हा की ख़िलाफ़त का रास्ता हमवार करें और फ़िज़ा को उनके लिए अपने असरात से साज़गार बनायें।
चुनान्चे उन्होंने फ़ौरन सामाने सफ़र बांधा और मदीने की तरफ़ चल पड़ीं। लेकिन अभी मक्के से तक़रीबन 10 किलोमीटर का फ़ासला तय किया होगा कि सर्फ़ के मक़ाम पर उबैदुल्लाह इब्ने अबी सलमा से मुलाक़ात हुई। आपने उस्मान और मदीने के सियासी हालात के बारे में उस से दर्याफ़्त किया। उसने कहा हज़रत उस्मान क़त्ल कर दिये गये हैं पूछा , फिर क्या हुआ ? कहा ! मुसलमानों ने हज़रत अली की बैअत कर ली है। ये सुनते ही ज़मीन पैरो तले से ख़िसकने लगी और आसमान धुंवा बन कर उड़ता नज़र आने लगा। कानों को यक़ीन न आया तो फिर पूछा कि क्या वाक़ई अली की बैअत हो गयी है। भला उनसे ज़्यादा मसनदे ख़िलाफ़त का मुस्तहक़ और सज़ावार कौन था ? अब आयशा के लिये अपने जज़्बात पर क़ाबू रखना मुशकिल हो गया। तेवराकर गिरने ही वाली थीं कि बेसाख्ता उनकी ज़बान से निकलाः-
काश ये आसमान मुझ पर फट पड़े और मैं उसमें समा जांऊ। ( 8)
ग़रज़ कि मुअज़्ज़मा उल्टे पैरों मक्के की तरफ़ पलट पड़ी और रंजोग़म के स्टेज पर इन अलफ़ाज़ के साथ एक नया ड्रामा शुरू कर दियाः-
ख़ुदा की क़सम उस्मान मज़लूम मारे गये , मैं उनके ख़ून का इन्तिक़ाम ले कर रहूंगी। ( 9)
अब्दुल्लाह इब्ने अबी सलमा इस मुतज़ाद तर्ज़े अमल को देख कर हैरत और इस्तेजाब के दरिया में ग़र्क़ हो गया उसने आयशा से कहाः-
आप तो बार बार ये कहा करती थी कि इस नअस्ल को क़त्ल कर डालो ये काफ़िर हो गया है। ( 10)
अब ये तब्दीली कैसी ? कहाः-
हां ! पहले मैं यही कहा करती थी लेकिन अब ये मेरी राय पहली राय से ज़्यादा बेहतर है। हज़रत आयशा की इस बात से उबैद मुतमइन न हो सके। चुनान्चे उन्होंने कहा कि ऐ उम्मुल मोमिनीन ! ख़ुदा की क़सम ये इन्तिहाई बौदा उज़्र है। ( 11)
उसके बाद उबैद इब्ने अबी सल्मा ने हज़रत आयशा को मुख़ातिब कर के अरबी में कुछ शेर पढ़े , जिनका उर्दू तर्जमा हस्बे ज़ैल है।
1. आप ही ने पहल की आप ही ने मुख़ालिफ़त के तूफ़ान उठाये और अब आप अपना रंग बदल रही हैं।
2. आप ही ने ख़लीफ़ा के क़त्ल का हुक्म दिया और हम से कहा कि वो काफ़िर हो गया।
3. हमने माना की आपके हुक्म की तामील में ये क़त्ल हमारे हाथों से हुआ , मगर हमारे नज़्दीक अस्ल क़ातिल आप हैं जिस ने क़त्ल का हुक्म दिया।
4. (सब कुछ हो गया) मगर न आसमान हमारे ऊपर फट पड़ा और न चांद , सूरज को गहन लगा।
5. और लोगों ने उसकी बैअत कर ली जो क़ुव्वतों शिकोह से दुश्मनों को हकाने वाला है , तलवारों की धारों को क़रीब फ़टकने नहीं देता और गर्दन कशों के बल निकाल देता है।
उम्मुल मोमिनीन चूंकि जल्द अज़ जल्द मक्के पहुंच जाना चाहती थीं , इस लिये उन्होंने उबैद के अशआर पर कोई तवज्जो नहीं दी और आगे बढ़ गयीं। जब मक्के वापस पहुंची तो लोगों ने कहाः-
ऐ उम्मुल मोमिनीन ! अभी तो आप रवाना हुई थीं आख़िर पलट क्यों आयीं ? बोलीः-
उस्मान बेगुनाह मारे गये , मैं उनका ख़ून राएगां नहीं जाने दूंगी और उस वक़्त तक वापस नहीं जाऊंगी जब तक उनके ख़ून का इन्तिक़ाम नहीं ले लूंगी।
लोग उनकी साबेक़ा और मौजूदा रविश के तज़ाद पर सख़्त हैरान हो गये मगर कुछ कहने के बजाय ख़ामोश रहे। ग़रज़ कि आयशा ने उस्मान की मज़लूमियत का ढिडोंरा पीट पीट कर मक्के ही में हज़रत अली के ख़िलाफ़ एक मज़बूत महाज़ क़ायम कर लिया और जब तल्हा और ज़ुबैर को मालूम हुआ कि उनकी मादरे गिरामी मक्के में उस्मान की मज़लूमियत का प्रचार कर रही हैं और अली को उनके क़त्ल का ज़िम्मेदार ठहरा रही हैं तो उन्होंने अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर को चन्द ख़ुतूत के साथ चुपके से आयशा के पास मक्के रवाना किया और उस पर ज़ोर दिया कि वो क़िसासे ख़ूने उस्मान की तहरीक चलायें और जिस तरह मुम्किन हो मज़ीद लोगों को अली की बैअत से बाज़ रखें। इन पैग़ामात ने उनके इरादों को और मज़बूत किया और उन्होंने पूरे जोशो ख़रोश और ज़ोर शोर से क़िसासे उस्मान के नाम पर लोगों को दावत देना शुरू कर दी। चुनान्चे सब से पहले अब्दुल्लाह इब्ने आमिर ने जो उस्मान की तरफ़ से मक्के का गवर्नर था उनकी आवाज़ पर लब्बैक कही और सईद इब्ने आस और वलीद इब्ने उक़्बा भी उनके हमनवा बन गयें।
तल्हा और ज़ुबैर क़िसासे उस्मान की आड़ में हंगामा खड़ा कर के अपनी महरूमी और नाकामी का बदला लेना चाहते थें लेकिन मदीने की फ़ज़ा इस हंगामा आराई के लिए साज़गार न थी क्यों कि क़त्ले उस्मान के सिलसिले में अहले मदीना उनका किरदार देखे हुए थे। अलबत्ता मक्के में तहरीक कामियाब हो सकती थी क्यों कि उम्मुल मोमिनीन के अलावा साबिक़ा गवर्नरे मक्का मरवान बिन हकम और मदीने से निकल खड़े होने वाले दीगर बनी उमय्या वहां जमा हो गये थे। चुनान्चे उन दोनों (तल्हा ज़ुबैर) ने भी मक्का जाने का फ़ैसला किया और अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली (अ.स) से कहा कि हम लोग उमरा की नीयत से मक्के जाना चाहते हैं। लिहाज़ा हमें इजाज़त मरहमत फ़रमाये। अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली उनके तेवरों को फ़ौरन भांप गये कि ये लोग बैअत की जकड़ बन्दियों से निकल कर अपनी जोलानियों और शोरिशों का मरकज़ मक्के को बनाना चाहते हैं चुनान्चे आपने फ़रमायाः-
ख़ुदा की क़सम उनका इरादा उमरा का नहीं है कि ये लोग ग़द्दारी और फ़रेबदारी पर उतर आये हैं। ( 12)
अमीरूल मोमिनीन ने उन्हें समझाया कि तुम लोगों का मक्के जाना मुनासिब नहीं है मगर ये लोग बराबर इसरार करते रहे और अपनी ज़िद पर अड़े रहे बिल आख़िर हज़रत ने उन से दूबारा बैअत ले कर उन्हें मक्के जाने की इजाज़त दे दी और ये लोग भी मक्के पहुंच कर हज़रत आयशा की जमाअत के सरगर्म मिम्बर बन गये और बाक़ायदा क़िसास की मुहिम शुरू कर दी।
इस मुहिम को कामयाब बनाने के लिये सरमाये की ज़रूरत भी थी , उसका हल यूं निकल आया कि बसरा का माज़ूल हाकिम अब्दुल्लाह इब्ने आमिर बैतुलमाल की सारी पूंजी ले कर मक्के पहुंच गया और यमन से यअली इब्ने उमय्या छः लाख दिरहम और छः सौ ऊंट अपने साथ लाया और ये तमाम सरमाया जंगी इख़राजात के लिये महफ़ूज़ कर दिया गया।
अबुल फ़िदा ने तहरीर किया किः-
यअली तमाम पूंजी समेट कर निकल खड़ा हुआ और मक्के पहुंच कर आयशा तल्हा और ज़ुबैर के साथ हो गया और वो माल उनकी तहवील में दे दिया। ( 13)
अहले मक्का से भी सरमाया फ़राहम किया गया और माली एतबार से लोग मुतमइन हो गये। जंग तो बहरहाल एक तय शुदा अम्र थी मगर रज़्मगाह की तजवीज़ में फ़िक्रे लड़ी हुई थीं। चुनांचे हज़रत आयशा की रिहाइशगाह पर एक मीटिंग रखी गयी जिसमें सब लोग शरीक हुए। उम्मुल मोमिनीन की तजवीज़ थी कि मदीने पर हमला कर के उसे तराज़ो मिसमार किया जाये मगर कुछ लोगों ने इसकी मुख़ालिफ़त की और कहा कि अहले मदीना से जंग एक मुश्किल मरहला होगी लिहाज़ा किसी और मक़ाम को मरकज़ बनाना चाहिये। कुछ लोगों ने ये मशवरा भी दिया कि शाम को महाज़े जंग क़रार दिया जाये। इस पर इब्ने आमिन ने कहा कि माविया के होते हुए शाम में तुम्हारी ज़रूरत नहीं है। ( 14)
शाम को महाज़ क़रार देने ये शायद ये अम्र भी माने था कि माविया जिसने उस्मान का मातहत होते हुए भी उनकी मदद से गुरेज़ किया था , वो इन लोगों की मदद पर क्यों आमादा होता ? फिर जिसने हज़रत अली की ख़िलाफ़त को क़ुबूल न किया हो वो इन लोगों की कामयाबी के बाद तल्हा और ज़ुबैर की ख़िलाफ़त को क्यों कर तस्लीम करता ?
बेशक माविया इन लोगों का हमनवा था मगर उसी हद तक कि जिस हद तक हज़रत अली को इक़तिदार से हटाने का ताल्लुक़ हो।
आख़िरकार बड़ी रद्दोक़द और सोच विचार के बाद महाज़े जंग के लिए बसरा की सरज़मीन का इन्तिख़ाब अमल में आया। बसरा को महाज़े जंग बनाने में जहां ये मसलेहत कार फ़र्मा थी कि वहां उनके हमनवा कसरत से मौजूद थे जो जंग में उनका साथ देते वहां से फ़ायदा भी मद्देनज़र था कि हिजाज़ के एक तरफ़ शाम है जहां माविया की हुकूमत है और दूसरी तरफ़ इराक़ है। अगर इराक़ पर तसल्लुत क़ायम रह जायेगा जिसके बाद अमीरूल मोमिनीन की सिपाह को बआसानी ज़ेर करके इक़तिदार पर क़ब्ज़ा किया जा सकता है या इन दोनों ताक़तों के ज़ेरे असर उन्हें रखा जा सकता है लेकिन ये महज़ उन लोगों की ख़ाम ख़्याली थी क्यों कि साहेबे ज़ुल्फ़िक़ार से मुक़ाबिला उनके इमकान से क़तई बाहर था।
इन तमाम बातों से ये अन्दाज़ा भी होता है कि आयशा और उनके हमनवाओं के पेशेनज़र ख़ूने उस्मान का क़िसास था ही नहीं। अगर क़िसास मक़सूस होता तो ये लोग बसरा को महाज़े जंग बनाने के बजाय मदीने ही को अपनी तख़रीब कारियों की आमाजगाह बनाते जो हज़रत आय़शा की साबेक़ा जौलानियों का मसकन भी था और जहां उस्मानी हादसे के ज़िम्मेदार अफ़राद भी काफ़ी तादाद में मौजूद थे।