हज़रत आयशा की तारीख़ी हैसियत

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हज़रत आयशा की तारीख़ी हैसियत लेखक:
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हज़रत आयशा की तारीख़ी हैसियत

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: जनाब फरोग़ काज़मी साहब
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हज़रत आयशा की तारीख़ी हैसियत
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हज़रत आयशा की तारीख़ी हैसियत

हज़रत आयशा की तारीख़ी हैसियत

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हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

आयशा के बढ़ते क़दम

महाज़े जंग के तसफ़िये के बाद कूच की तैय्यारियां शुरू हो गयीं। यअली बिन उमैय्या ने क़बीलाए उर्निया के एक शख़्स से छः सौ दिरहम में एक बदनसीब ऊंट ख़रीद कर आयशा के हवाले किया और उमूमी तौर पर ये ऐलान किया कि जिसके पास हथियार और सवारी नहीं है वो आये उसे तमाम चीज़ें मुहैय्या की जायेंगी।

चुनान्चे अमीरूल मोमिनीन ने यअली के बारे में फ़रमाया किः-

वो मुझसे लड़ने के लिए लोगों को घोड़ा हथियार और तीस तीस दीनार देता था। ( 1)

तल्हा और ज़ुबैर ने अब्दुल्लाह इब्ने उमर पर दबाव भी डाला कि वो उनकी मुवाफ़िक़त और हमराही इख़्तियार करे मगर उन्होंने ये कह कर इन्कार कर दिया कि आयशा के लिए हौदज में बैठने से घर में क़ैद रहना और तुम लोगों के लिए बसरा से मदीने में रहना ज़्यादा बेहतर है। ( 2)

हज़रत आयशा ने हफ़सा और उम्महातुल मोमिनीन को जो हज के बाद मक्के में क़याम पज़ीर थीं अपना हम ख़्याल बनाने की कोशिश की और उन्हें भी अपने हमराह जंग में हिस्सा लेने की दावत दी। हफ़सा तैय्यार हो गयीं मगर बक़िया अज़्वाजे पैग़म्बर (स.अ.व.व) ने साफ़ इनकार कर दिया। चुनान्चे अब्दुल्लाह इब्ने उमर को जब अपनी बहन हफ़सा के इस इरादे का इल्म हुआ तो उन्होंने उन्हें भी रोक दिया।

इब्ने असीर का कहना है किः-

अज़्वाजे रसूल आयशा के साथ मदीने जाने का इरादा रखती थीं मगर जब आयशा की राय बदल गयी और वो (हज़रत अली से मुक़ाबले के लिए) बसरा जाने पर तैय्यार हो गयीं तो सब ने उनका साथ छोड़ दिया मगर हफ़सा उनके साथ बसरा जाने पर तैय्यार हो गयीं , मगर जब अब्दुल्लाह इब्ने उमर को मालूम हुआ तो उन्होंने रोक दिया। ( 3)

हफ़सा की आमादगी ख़िलाफ़े तवक़्क़ो न थी इस लिए कि उनके और आयशा के नज़रियात में बड़ी हद तक हमआहंगी थी। न उनके मिज़ाजों में तज़ाद था और न तबीअतों में इख़तिलाफ़ और इसी बिना पर दोनों अज़्वाजे रसूल एक ही गिरोह से वाबस्ता थीं।

जैसा कि बुख़ारी ने तहरीर किया है किः-

अज़्वाजे पैग़म्बर में दो गिरोह थे। एक में आयशा और हफ़सा और सौदा थीं और दूसरे गिरोह में उम्मे सलमा और दीगर अज़्वाज थीं। ( 4)

हज़रत उम्मे सलमा की तमाम तर हमदर्दियां हज़रत अली (अ.स) के साथ थीं चुनान्चे जब आयशा ने उन्हें अपना हमनवा बनाने की कोशिश की तो उन्होंने उनके इस इक़दाम की मुख़ालिफ़त की और जवाब दियाः-

अगर रसूलअल्लाह (स.अ.व.व) ये समझते कि औरतें जिहाद का बोझ उठा सकती हैं तो वो अपनी हयात में इसका हुक्म ज़रूर देते। क्या तुम्हें मालूम नहीं कि पैग़म्बर तुम्हे दीनी मामलात में तजावुज़ से मना फ़रमा गये हैं। वो जानते थे कि अगर दीन का सुतून झुक गया तो औरतों से तो थम नहीं सकता और अगर उसमें शिग़ाफ़ पड़ गया तो औरतों के ज़रिये उसकी दुरूस्तगी और इस्लाम मुम्किन नहीं। औरतों का जिहाद सिर्फ़ ये है कि वो निगाहें नीचीं रखें। अपने ताल्लुक़ात को महदूद रखें और अपने दामन को समेंटे। अगर रसूल (स.अ.व.व) तुम्हें इन सहराओं में ऊंट दौड़ाते हुए एक चश्मे से दूसरे चश्में तक जाते हुए देखते तो क्या कहते ? कल तुम्हे रसूलल्लाह (स.अ.व.व) के सामने जाना होगा तो तुम क्या जवाब दोगी ? ख़ुदा की क़सम अगर हश्र में मुझसे ये कहा गया कि ऐ उम्मे सलमा तुम जन्नत में दाख़िल हो जाओ तो अगर मैंने उस हिजाब को तोड़ा है जिसका रसूल मुझे पाबन्द बना गये थे तो मुझे उनका सामना करते हुए शर्म आएगी। लिहाज़ा बेहतर है कि तुम पर्दे की पाबन्द और घर की चारदीवारी में बन्द रहो। ( 5)

हज़रत उम्मे सलमा की इन नसीहत आमेज़ बातों से सबक़ हासिल करने के बजाये आयशा ने उन्हें ये जवाब दिया कि मैं दो मुतहारिब गिरोहों में सुल्ह कराने और बरगश्ता माहौल को पुरअम्न और साज़गार बनाने की ग़रज़ से जा रही हूं।

(इस किताब को आप “अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क ” पर पढ़ रहे है।)

ज़ाहिर है कि उम्मुल मोमिनीन का ये जवाब दफ़उल वक़्ती के लिए था वरना हक़ीक़त ढकी छुपी नहीं थी कि वो इस लड़ाई में ख़ुद एक फ़रीक़ की हैसियत रखती थीं। अगर वो ख़ुदा और रसूल के हुक्म पर अमल पैरा हो कर घर में बैठी रहती और लशकर जमा कर के बसरा का रूख न करतीं तो दो फ़रीक़ पैदा ही न होते और न ही जंगो जदल की नौबत ही आती और अगर मुअज़्ज़मा का मक़सद दो गिरोहों में सुल्हों सफ़ाई पर मब्नी था तो फिर उन्हें सामाने हर्बो ज़र्ब और लशकर इकट्ठा करने की क्या ज़रूरत थी ?

बहरहाल हज़रत आयशा सात सौ की जमीअत के साथ जो उस वक़्त उनके परचम के नीचे जमा हो चुकी थी बसरा की तरफ़ रवाना हो गयीं।

इस तरह कि आयशा ऊंट पे बैठी थीं रसूलन बन कर रास्ते में वो लोग भी उनकी चिकनी चुपड़ी बातों से मुतास्सिर हो कर फ़रेब में मुब्तिला होते गये जो बे समझें बूझे उनके साथ हो गए। इस तरह लशकरियों की तादाद तीन हज़ार तक पहुंच गयीं और जब ये लशकर उस मोड़ (ज़ाते अर्क़) पर पहुंचा जहां से बसरा की राह लेनी थी तो सईद इब्ने आस ने मरवान से पूछाः-

हम लोग आख़िर किस तरफ़ मुंह उठाये हुए चले जा रहे हैं ? और इस दस्त पैमाई का मक़सद क्या है ? मरवान ने कहाः-

हम बसरा जा रहे हैं। सईद ने कहाः-

बसरा में क्या है ? मरवान ने कहा हम उस्मान के क़ातिलों से बदला लेना चाहते हैं। उस पर सईद ने सख्त लहजे में कहाः-

उस्मान के क़ातिल (तल्हा व ज़ुबैर) तो तुम लोगों के साथ ही हैं , उन्हीं को क़त्ल कर डालो और अपने घरों को वापस चले जाओ। एक दूसरे का नाहक़ ख़ून न बाहाओ। ( 6)

उसके बाद सईद इब्ने आमिर तल्हा और ज़ुबैर के पास आये , और उनसे तन्हाई में पूछाः-

ये बताओ अगर तुम लोगों ने ये जंग जीत ली और अपने मक़सद में कामयाब हो गये तो ख़लीफ़ा कौन होगा ? सईद ने कहाः- जब तुम ख़ूने उस्मान के क़िसास पर जंग का इरादा रखते हो तो तुम्हें उस्मान के बेटों में से किसी को ख़लीफ़ा बनाना चाहिये। जब कि उनके दो साहबज़ादे अबान और वलीद तुम्हारे साथ हैं और अगर तुम ने ऐसा न किया तो दुनिया के लोग यही कहेंगे कि ख़ूने उस्मान के क़िसास का लबादा ओढ़ कर अपने इक़तिदार की राह हमवार करने निकले थे।

उस पर तल्हा और ज़ुबैर दोनों एक साथ तड़प कर बोल उठेः-

क्या हम बुज़ुर्गो सिन रसीदा मुहाजिरीन को छोड़ के उस्मान के बाल बच्चों को ख़लीफ़ा बनायेंगे। ( 7)

तल्हा और ज़ुबैर की इस गुफ़्तुगू ने सईद पर वाज़ेह कर दिया कि ये लोग क़िसास तलबी के लिए नहीं निकले बल्कि ये सारा हड़बोग हुकूमत और इक़तिदार के लिए है। चुनान्चे वो किनाराकश हो गये और उनके साथ अब्दुल्लाह इब्ने ख़ालिद , मुग़ीरह बिन शैबा और क़बीलाए बनी सक़ीफ़ के लोग भी अलाहिदा हो कर ताएफ़ की तरफ़ चले गये। बाक़ी लशकर अपनी मन्ज़िल की तरफ़ रवाना हो गया।

1. तारीख़े इस्लाम ज़हबीः- जिल्द 2 पेज न. 14

2. अल इमामत वल सियासतः- जिल्द 1 पेज न. 61

3. कामिलः- जिल्द 3 पेज न. 106

4. बुख़ारीः- जिल्द 2 पेज न. 59

5. अक़दुल फ़रीदः- जिल्द 2 पेज न. 99

6. तबरीः- जिल्द 3 पेज न. 472

7. तबरीः- जिल्द 3 पेज न. 472

कुत्तों का इसतेफ़सार

लशकर अपनी मुअय्यना मन्ज़िल की तरफ़ गामज़न था कि दौराने सफ़र एक ऐसा वाक़ेआ रूनुमा हुआ जिसने आयशा के होशों हवास को दरहम बरहम और उनके अजाएमों इरादों को मुतज़लज़िल कर दिया। वो ये कि जब उम्मुल मोमिनीन अपने लशकर के साथ हव्वाब ( 1) नामी एक चश्में के क़रीब शब गुज़ारी के लिए फ़रोकश हुईं तो आपने कुत्तों के भौंकने की आवाज़े सुनीं जो भौंक भौंक कर आपका ख़ैर मक़दम कर रहे थे और अपनी ज़बान में ये पूछ रहे थे कि ऐ उम्मुल मोमिनीन ! ख़ुदा और रसूल के हुक्म के ख़िलाफ़ आप घर से क्यों निकल खड़ी हुंईं ? आख़िर आपके साथ क्या मजबूरी थी जब कि पैग़म्बर की तरफ़ से आपको घर में बैठने की सख़्त ताक़ीद थी। क्या आप हुज़ूर (स.अ.व.व) की तम्बीह भूल गयीं थीं जिसमें आपने अपनी अज़्वाज को मुख़ातिब करके फ़रमाया था कि वो कौन हैं जिस पर हव्वाब के कुत्ते भौंकेंगे ?

फिर कुत्तों ने ये फ़र्याद भी कीः-

हमें अफ़सोस है कि आपने अपने ही हाथों अपना दामने इज़्ज़तों हुर्मत चाक कर डाला। ख़ुदा के लिये वापस जाइये और तौबा और इसतिग़फ़ार के ज़रिये अपनी इस ग़लती की तलाफ़ी कीजिए और हमें ज़्यादा भौंकने पर मजबूर न कीजिए।

कुत्तों की इस फ़र्याद और इसतेफ़्सार का असर आयशा पर हुआ हो या न हुआ हो लेकिन उनके दिमाग़ों दिल में एक ख़लिश और उलझन ज़रूर पैदा हो गयी , चुनान्चे उन्होंने क़रीब खड़े सारबान से पूछा कि ये कौन सा मक़ाम है ? उसने कहा ये हव्वाब है। हव्वाब का नाम सुनना था कि आप पर लर्ज़ा जारी हो गया , ख़ौफ़ो दहशत से कांपने लगीं और चींख़ चींख़ कर कहने लगीं किः-

मुझे वापस जाने दो , ख़ुदा की क़सम मैं ही वो हव्वाब वाली हूं। ( 2)

तल्हा और ज़ुबैर वग़ैरह को भी उनकी इस अचानक तबदीली पर हैरत हुई , उन लोगों ने उन्हें तसल्ली दी और कहा हव्वाब है तो दुआ करें आप इस क़दर सरासीमा और परेशान क्यों हैं ? और वापसी पर इसरार क्यों हैं ? जवाब में आपने फ़रमायाः-

एक मरतबा रसूलल्लाह (स.अ.व.व) की बीवियां उनके गिर्द जमा थीं कि मैंने आपको फ़रमाते हुए सुना कि तुम में वो कौन है जिस पर हव्वाब के कुत्ते भौंकेंगे। ( 3)

लिहाज़ा अब मुझे कोई शको शुब्ह नहीं कि उससे मुराद मैं हूं और आं हज़रत (स.अ.व.व) का इशारा मेरी ही तरफ़ था। बेहतर यही है कि मुझे वापस चला जाना चाहिये।

जब तल्हा ज़ुबैर ने सारा मामला बिगड़ते देखा तो कहा कि कुत्तों को भौंकने दीजिए और सारबान को कहने दीजिए ये हव्वाब नहीं है। फिर मुअज़्ज़मा को यक़ीन दिलाने के लिए अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर ने आस पास के पचास आदमियों को इकटठा किया और उन्हें कुछ दे दिला कर इस अम्र की झूठी गवाही दिलवा दी कि ये हव्वाब नहीं है। इमामे शअबी का कहना है कि ये पहली झूठी गवाही थी जो इस्लाम में दी गयी। ( 4)

अभी उम्मुल मोमिनीन ज़ेहनी कशमकश और तज़बजुब के आलम में मुबतला ही थीं कि तल्हा ने एक तरफ़ से ये हुल्लड़ मचवा दिया कि जल्दी करो , उठो और चलो , अली इब्ने अबी तालीब (अ.स) सरों पर आ पहुंचे हैं। ( 5)

तल्हा की ये तदबीर कारगर हुई , सुनते ही लोग अफ़रा तफ़री के आलम में खड़े हो गये और हज़रत अली का नाम सुनते ही उम्मुल मोमिनीन के ख़्यालात ने इस तरह पलटा खाया कि उन्हें न तो कुत्तों को भौंकना याद रहा न हव्वाब , न क़ौले पैग़म्बर (स.अ.व.व)। अमीरूल मोमिनीन की अदावत और दुश्मनी में उनके मुज़महिल इरादों और पसमुर्दा हौसलों पर फिर से शबाब आ गया और वो मुकम्मल जोशों ख़रोश के साथ लशकर की क़यादत करती हुई बसरा की तरफ़ फिर चल पड़ी।

उम्मुल मोमिनीन उम्मे सलमा की पेशकश

एक तरफ़ हज़रत आयशा क़दम क़दम पर नये नये गुल खिला रहीं थी और दूसरी तरफ़ अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली (अ.स) माविया की तरफ़ से शाम में रूनुमा होने वाली बग़ावत को फरो करने की फ़िक्र में थे कि उन्हें तल्हा और ज़ुबैर की बैअत शिकनी और आयशा की लशकर कशी की इत्तेला मदीने में फ़राहम हुई।

आपको तल्हा और ज़ुबैर की तरफ़ से ये अन्देशा ज़रूर था कि वो माविया से साज़ बाज़ कर के फ़ित्ना व शर को हवा देंगे। मगर आयशा की तरफ़ से ख़्याल भी न था कि वो मारका आराई के लिए फौज कशी करेंगी और ख़ुदा व रसूल के ख़िलाफ़ घर से निकल खड़ी होंगी। लिहाज़ा आपने मजबूरन शाम की मुहिम का ख़्याल तर्क किया ताकि मौजूदा सूरते हाल से निपटा जा सके। चुनान्चे मदीने के सरकर्दा अफ़राद को आपने मस्जिदे नब्वी में जमा किया और फ़रमाया कि तल्हा और ज़ुबैर के बाग़ियाना इक़दाम का तुम्हे इल्म हो चुका है , तुम लोग मेरा साथ दो ताकि बसरा पहुंचने से पहले ही उन लोगों को रास्ते में रोक लिया जाये। कुछ लोग आयशा तल्हा और ज़ुबैर जैसी बाअसर शख़्सियतों के मुक़ाबले खड़े होने से खिचकिचाने लगे , कुछ लोगों ने साफ़ इनकार कर दिया अलबत्ता ज़्यादा इब्ने हन्ज़ला , हसीम इब्ने तैहान और अबू क़सावए अन्सारी वग़ैरह ने हिमायत का यक़ीन दिलाया , अबू क़सावा ने एक पुरज़ोर तक़रीर भी की और ये कहाः-

या अमीरूल मोमिनीन ! ये तलवार मुझे रसूलल्लाह (स.अ.व.व) ने सौंपी थी और एक अर्से से ये मियान में है लेकिन अब वक़्त आ गया है कि मैं इन ज़ालिमों के ख़िलाफ़ इसे बे नियाम करूं जो उम्मत को फ़रेब देने में आगे है। ( 6)

हज़रत उम्मे सलमा ने अपने फ़रज़न्द उमर इब्ने अली सलमा को अमीरूल मोमिनीन की ख़िदमत में पेश किया और फ़रमायाः-

मैं इसे आपके हवाले करती हूं ये जान से ज़्यादा मुझे अज़ीज़ है। मेरा फ़रज़न्द तमाम मारको में आपके साथ रहेगा यहां तक कि ख़ुदा वन्दे आलम वो फ़ैसला करे जो करने वाला है। अगर रसूलल्लाह (स.अ.व.व) के हुक्म की ख़िलाफ़ वर्ज़ी न होती तो मैं भी आपके हमराह जाती जिस तरह आयशा , तल्हा और ज़ुबैर के साथ निकल खड़ी हुई है। ( 7)

हज़रत उम्मे सलमा की इस पेशकश पर हक़ परस्ती जिस क़दर भी फ़ख़्र करे कम है।

1. ये चश्मा ए हव्वाब बिन्ते कल्ब इब्ने दबुर्रह के नाम पर हव्वाब कहलाता है।

2. तारीख़े कामिलः- जिल्द 3 पेज न. 107

3. तारीख़े कामिलः- जिल्द 3 पेज न. 107

4. तज़किरा ए खवासुल उम्माः- पेज न. 39

5. कामिलः- जिल्द पेज न. 108

6. तारीख़े कामिलः- जिल्द 3 पेज न. 13

7. अनसाबुल अशनफ़ः- जिल्द 1 पेज न. 430

अबू मूसा अशअरी की रख़ना अंदाज़ी (साज़ीशे)

अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली (अ.स) ने मदीने में सहल इब्ने हुनैफ़े अनसारी और मक्के में क़सम इब्ने अब्बास को अपना क़ायम मक़ाम मुक़र्रर किया और इस शान से मुहिम सर करने के लिए कि आम लशकरियों के अलावा सत्तर बद्र में और चार सौ बैअते रिज़वान में शरीक होने वाले सहाबा आपके शरीक थे।

मक़ामे ज़ीवक़ार पर पहुंच कर आपने मन्ज़िल की और जंग की नज़ाकत को मद्देनज़र रखते हुए इमामे हसन (अ.स) और अम्मारे यासिर को कूफ़ा रवाना किया कि वहां के लोगों को जिहाद की दावत दें। जब ये लोग कूफ़े पहुंचे और अहले कूफ़ा को अमीरूल मोमिनीन का पैग़ाम दिया तो वालिए कूफ़ा अबू मूसा अशअरी दर्मियान में दीवार बन कर हाएल हो गया और ये कहकर लोगों को रोकना शुरू किया कि ये इक़तिदार की जंग है जो दुनिया का तलबगार हो वो जाये और जो आख़ेरत का ख़्वाहगार हो वो गोशा नशीन हो कर घर में बैठे। अबू मूसा अशअरी की इस रख़ना अंदाज़ी की इत्तेला जब अमीरूल मोमिनीन को मिली तो आपने इब्ने अब्बास और मालिके अशतर को कूफ़े भेजा कि वो अबू मूसा को समझायें कि वो इन हरकतों से बाज़ रहें। चुनान्चे मस्जिदे कूफ़ा में उन लोगों ने समझाया कि अमीरूल मोमिनीन की नुसरतों मदद का मक़सद फ़ित्ना व शर का इन्सेदाद और इस्लाह बिन्नास है। मगर उसने कहा कि मैंने रसूलल्लाह (स.अ.व.व) को फ़रमाते सुना है कि अनक़रीब एक फ़ितना बरपा होगा जिसमें बैठने वाला खड़े होने वाले से , खड़ा होने वाला चलने वाले से और चलने वाला सवार होने वाले से बेहतर होगा। ( 1)

आख़िर वो लोग (तल्हा और ज़ुबैर) भी तो हमारे ही भाई बन्द हैं , न उनका ख़ून हमारे लिए मुबाह है और न उनका माल छीनना हमारे लिए जाएज़ है। उस पर अम्मारे यासिर ने बिगड़ कर कहाः-

बेशक तुम्हारा गोशा नशीन हो जाना बेहतर है। ( 2)

फिर ये दोनों एक दूसरे से उलझते रहे और अबुमूसा यही इसरार करता रहा कि ये एक फ़ितना है इससे किनारा कशी ही बेहतर है।

इधर ये कशमकश जारी थी , उधर ज़ैद इब्ने सौहान ने हज़रत आयशा की तरफ़ से मूसा के नाम मौसूल शुदा दो ख़ुतूत हाज़िरीन को पढ़ कर सुनाये जिन में अबू मुसा को ये ताक़ीद की गयी थी कि तुम मेरी मदद को आओ और अगर किसी मजबूरी के तहत न आ सको तो अहले कूफा को अली की नुसरत और मदद से रोको।

इन ख़ुतूत को पढ़ने के बाद ज़ैद ने तन्ज़िया लहजे में कहाः-

तुम दरिया के बहाव को नहीं रोक सकते , लिहाज़ा जो बात तुम्हारे इख़्तियार में नहीं है उससे दस्तबरदार हो जाओ और लोगों को अमीरूल मोमिनीन की नुसरत से रोकने के बजाये ख़ामोश हो कर घर में बैठ जाओ।

मगर उस पर किसी बात का असर न हुआ और वो बराबर ये कहता रहा कि ये एक फ़ितना है इससे बचना चाहिये। इमामे हसन (अ.स) भी मस्जिद में मौजूद थे , जब आपने अबू मूसा का ये मुआनिदाना रवैय्या देखा तो उसे फटकारते हुए फ़रमायाः-

हमारी मस्जिद से निकल और जहां तेरा दिल चाहे चला जा। ( 3)

फिर आपने मिम्बर से एक बलीग़ और पुरअसर तक़रीर की और लोगों को अमीरूल मोमिनीन की नुसरत पर आमादा किया। इसका असर ये हुआ कि अहले कूफ़ा ने करवट ली और अवामी सैलाब आगे बढ़ने लगा। जब कूफ़े की फ़ज़ा मुकम्मल तौर पर साज़गार हो गयी तो मालिके अशतर ने दारूल अमारा पर क़ब्ज़ा कर लिया और अबू मूसा को क़स्र में दाख़िल होने से रोक दिया। अबू मूसा ने गिड़गिड़ा कर खुशामद की और कहा कि मुझे एक रात की मोहलत दीजिये।

मालिके अशतर ने कहा कि तुम्हें सिर्फ़ इशा तक मोहलत दी जाती है , अपना मुंह काला करो और शहर से निकल जाओ। चुनान्चे वो शाम की तरफ़ निकल गया। इधर अहले कूफ़ा गिरोह दर गिरोह उठ खड़े हुए और अबू मूसा की कोशिश और आयशा के ख़ुतूत के बावजूद बारह हज़ार शमशीर ज़न रातो रात मक़ामे ज़ीक़ार मे अमीरूल मोमिनीन के परचम तले जमा हो गये।

अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली (अ.स) का ये जंगी इक़दाम हुक्मे रसूल (स.अ.व.व) के ऐन मुताबिक़ था और इस मुहिम को सर करने की पैग़म्बर ने आपको हिदायत की थी। जैसा कि अबू अय्यूबे अन्सारी का बयान है किः-

रसूलल्लाह (स.अ.व.व) ने हज़रत अली को ये हुक्म दिया था कि वो बैअत शिकनों (असहाबे जमल) बेराहरूओं (अस्हाबे सिफ़्फ़ीन) और बेदीनों (ख़वारिज) से जंग करें। ( 4)

पैग़म्बरे इस्लाम ने हज़रत अली के इस इक़दाम को एक मज़लूम और हक़ परस्त का इक़दाम और इसके मुक़ाबले में ज़ुबैर की जंग को ज़ालिमाना वा ज़ारिहाना क़रार देते हुए बतौरे पेशिनगोई फ़रमाया थाः-

ऐ ज़ुबैर ! जब तुम अली से जंग करोगे तो उनके हक़ में ज़ालिम हो गये। ( 5)

और हज़रत आयशा को हव्वाब के सिलसिले में मुतनब्बे करते हुए फ़रमाया थाः-

ख़बरदार , ऐ आयशा ! कहीं वो तुम ही न हो। ( 6)

इन इरशादाते पैग़म्बर के अलावा क़ुर्आने मजीद में भी बाग़ियों के बारे में ये सरीही हुक्म है किः-

अगर अहले ईमान के दो गिरोह आपस में बरसरे पैकार हों तो उनमें सुल्ह कराओ , और अगर उनमें से एक गिरोह दूसरे गिरोह पर ज़ियादती करे तो तुम उस ज़ियादती करने वाले गिरोह से जंग करो।

इस नुसूस के होते हुए कौन कह सकता है कि हज़रत का ये इक़दाम आयशा के मुक़ाबले में ग़लत था।

1. कामिलः- जिल्द 3 पेज न. 117

2. कामिलः- जिल्द 3 पेज न. 117

3. अख़बारूत तौलः- पेज न. 145

4. मुसतदरक हाकिमः- जिल्द 3 पेज न. 139

5. कामिलः- जिल्द 3 पेज न. 122

6. याक़ूबीः- जिल्द 3 पेज न. 157

आयशा और अहले बसरा

हज़रत आयशा का लशकर चश्माए हव्वाब से रवाना हो कर जब चाहे अबू मूसा नामक जगह पर पहुंचा और हाकिमे बसरा उस्मान बिन हुनैफ़ को लशकर के साथ अचानक वारिदे बसरा होने की ख़बर मिली तो उसने अबू असवदे वाएली और इमरान इब्ने हसीन को भेजा कि वो आपसे बसरा आने का सबब मालूम करे चुनान्चे लोग गये और आयशा से पूछाः-

ऐ मादरे गिरामी ! आप किस मक़सद से यहां तशरीफ़ लायी हैं , और ये फ़ौजो सिपाह आपके साथ क्यों है ? कहा कि मैं ख़ूने उस्मान का इन्तिक़ाम लेने आई हूं जो बेजुर्मो ख़ता घर के अन्दर क़त्ल कर दिये गये। अबुल असवद ने कहा कि बसरा में उस्मान का क़ातिल कोई नहीं है , आप ग़लतफ़हमी में मुब्तिला हैं।

आयशा ने कहा कि मैं अहले बसरा के तआव्वुन से इन्तिक़ाम लेना चाहती हूं। अबुल असवद ने कहा , रसूलल्लाह आपको घर में बैठने का हुक्म दे गये हैं , इन मारका आराईयों से आपको क्या मतलब ? क्या आपके शायाने शान ये बात है कि घर का गोशा छोड़ कर मैदाने कारज़ार गर्म करने निकल खड़ी हों ?

हज़रत आयशा ने कहा हम से लड़ने की हिम्मत कौन करेगा ? इस पर अबुल असवद ने कहा , हम लड़ेगे , और दुनिया देखेगी कि किस तरह लड़ा जाता है।

आयशा का ये ग़ुरूर और ये घमण्ड शायद इस लिये था कि वो उम्मुल मोमिनीन हैं और ज़ौजाए रसूल होने की वजह से इन्तिहाई इज़्ज़तों तौक़ीर की मुस्तहक़ हैं लिहाज़ा ऐसी सूरत में कौन उनसे नबर्द आज़मायी की जसारत कर सकता है ? मगर उनका ये ख़्याल उस वक़्त सही होता जब वो ख़ुद इस एहतिराम को बरक़रार रखतीं , और घर का गोशा न छोड़तीं। जब वो अपनी मन्ज़िलत का पासो लिहाज़ न कर सकीं तो उन्हें ये तवक़्क़ों क्यों थी कि जो एहतिराम उन्हें घर के अन्दर रहने में हासिल था , बाहर भी बरक़रार रहता। इस सिलसिले में मोहतर्मा का दूसरा ख़्याल ग़ालिबन ये था कि हज़रत अली के हमराह वही चन्द गिने चुने अफ़राद होंगे जो उनके साथ मदीने से चले होंगे। कूफ़ा जहां से जंगजू सिपाह फ़राहम हो सकती हैं वो अबू मूसा अशअरी के ज़ेरे असर हैं उसके होते हुए वहां से मदद मिलने का इमकान नहीं है लिहाज़ा ऐसी सूरत में हज़रत अली मुख़तसर सी फ़ौज उनके लशकरे गरां की ताब न ला सकेगी , और वो बग़ैर लड़े ही हथियार डालने पर मजबूर हो जायेगी। लेकिन मामला इसके बरख़िलाफ़ निकला। अमीरूल मोमिनीन की आवाज़ पर अहले कूफ़ा उमंड पड़े और रातों रात उनकी सिपाह में शामिल हो कर पूरे लशकर पर छा गये।

ग़रज़ कि अबुल असवद उनकी गुफ़्तुगू से समझ गये कि ये लोग फ़ितना व शर पर आमादा और जंगो जदल पर तुले हुए हैं। अब उनसे मज़ीद बात चीत करना वक़्त को बरबाद करना है लिहाज़ा वो पलट आये और उस्मान बिन हुनैफ़ को उनके इरादों से आगाह कर दिया और साथ ही साथ उनको ये मशविरा भी दिया कि दिफ़ाई और हिफ़ाज़ती इन्तिज़ामात और मज़बूत कर दिये जाये।

चाहे अबू मूसा पर कुछ तवक़्क़ुफ़ के बाद , उम्मुल मोमिनीन का लशकर हरकत में आ गया और हुदूदे बसरा में दाख़िल हो कर उसने मज़ीद ऊंटों की मन्डी में पड़ाव डाल दिया।

अहले बसरा को जब आयशा , तल्हा और ज़ुबैर के आने की ख़बर मिली तो वो चारों तरफ़ से सिमट कर कसीर तादाद में उनके गिर्दो पेश जमा हो गये और बाहम चेमी गोइयां और क़यास आराइयां होने लगीं। कोई कुछ कहता था कोई कुछ। एक शख़्स ने खड़े हो कर मजमे को ख़िताब किया और कहाः-

ऐ लोगों ! अगर ये लोग किसी ख़ौफ़ो दहशत की वजह से हमारे शहर में आये हैं तो इन्हे पनाह दो और अगर ख़ूने उस्मान के इन्तिक़ाम की ग़रज़ से आये हैं तो हम में कोई उस्मान का क़ातिल नहीं है लिहाज़ा उन्हें वापस जाने पर मजबूर होना ही पड़ेगा।

इसके बाद जाया इब्ने क़तादा ने हिम्मत की और आगे बढ़ कर आयशा से कहाः-

ऐ उम्मुल मोमिनीन ! आपका इस मलऊन ऊंट पर बैठ कर हथियारों का निशाना बनने के लिए उठ खड़ा होना क़त्ले उस्मान से कहीं ज़्यादह मुसीबत ख़ेज़ है। ख़ुदा की तरफ़ से आपके लिए हिजाब व एहतिराम का हुक्म था जिसका दामन रक़द आप ही ने चाक कर डाला। जो शख़्स आप से जंग कर सकता है वो आपको क़त्ल करने में भी दरेग़ नहीं करेगा। अगर आप अपनी मर्ज़ी से आयी हैं तो बेहतर है कि वापस चली जाइये और अगर घेर कर लायी हैं तो लाने वालों के ख़िलाफ़ हम से मदद तलब कीजिए।

हज़रत आयशा ने ज़ारिया की इन बातों का कोई जवाब नहीं दिया क्यों कि उस वक़्त आपकी सारी तवज्जोह अपनी क़ुव्वतों ताक़त को बढ़ाने और लोगों को अपना हम ख़्याल बनाने के नुक़ते पर मर्क़ूज़ थी और उनके पेशे नज़र ये मरहला था कि अहले बसरा को किसी तदबीर से ये यक़ीन दिलायें कि क़त्ले उस्मान हज़रत अली के इशारे पर हुआ है और चन्द शोरिश पसन्दों के बल पर उन्होंने मसनदे ख़िलाफ़त पर क़ब्ज़ा कर लिया है , न राय आम्मा उनकी ताईद के हक़ में है और न उन्हें असहाबे शूरा का तआव्वुन हासिल है ग़रज़ कि आयशा , तल्हा और ज़ुबैर ने इस क़िस्म के ग़लत तास्सुरात देने के लिए मौजूदा मजमें को ख़िताब किया जिसका नतीजा ये हुआ कि हाज़ेरीन दो गिरोहों में बंट गये। एक गिरोह आयशा तल्हा और ज़ुबैर की हिमायत पर उतर आया और दूसरा गिरोह उस्मान बिन हुनैफ़ का हमनवा बन गया और बाहम तक़रार होने लगीं फिर क्या था कि एक दूसरे पर जूते चले पत्थर बरसे , और घर घर में फूट पड़ गयी और भाई भाई में तफ़र्क़ा पैदा हो गया। बसरा में ये हज़रत आयशा के क़दमों की पहली बरकत थी।

उस्मान बिन हुनैफ़ की दुर्गत

तल्हा , ज़ुबैर और आयशा की चाल बाज़ियों और मक्कारियों की बदौलत फ़रेब में मुबतिला हो कर अहले बसरा की अकसरियत उनके साथ हो गयी तो उन्हें ये फ़िक्र लाहक़ हुई कि अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली वारिदे बसरा होने से पहले ही बैतुल माल और शहर के नज़्मों नसक़ को अपने क़ब्ज़े में ले लिया जाए। चुनान्चे उन्होंने शहर की तरफ़ रूख़ किया। बसरा के हाकिम उस्मान बिन हुनैफ़ आसानी से शहर उनके हवाले करने को तैय्यार न थे , उन्होंने तमाम रास्तों की नाका बन्दी कर के जहां तक मुम्किन हो सका हिफ़ाज़ती इक़दामात किये। यहां तक कि हमला आवर जिस रास्ते से बढ़ने की कोशिश करते उस्मान बिन हुनैफ़ के साथी आहिनी दीवार बन कर खड़े हो जाते और उन्हें आगे बढ़ने से रोक देते। लेकिन हज़ारों के रेले को कब तक रोका जा सकता था जब कि उस्मान की तरफ़ से हर महाज़ पर चन्द गिनती के लोग मामूर थे जिनमें न मुसल्लह अफ़वाज़ से मुक़ाबले की ताक़त थी और न ही मुक़ाबले में कामयाबी की उम्मीद। जब उस्मान बिन हुनैफ़ ने देखा कि शहर उनके दस्तबर्द से महफ़ूज़ नहीं रखा जा सकता तो वो एक फ़ौजी दस्ता ले कर तल्हा व ज़ुबैर के पास आए और उनसे कहा कि तुम लोग क्या चाहते हो और ये शोरिशो हंगामा क्यों ? कहा , हम ख़ूने उस्मान का क़िसास चाहते हैं। उस्मान ने कहा कि क़िसास लेने का ये कोई तरीक़ा नहीं है , ये क्यों नहीं कहते कि हम ख़िलाफ़त के लिये लड़ रहे हैं। तल्हा ने कहा , अगर ऐसा हो भी तो हम से ज़्यादा अली ख़िलाफ़त के अहल नहीं है। ग़रज़ की दोनों तरफ़ से बात बढ़ने लगी और नौबत ये आयी कि फ़रीक़ैन ने तलवारे सौंत लीं और झड़प शुरू हो गयी। जब दोनों तरफ़ से अच्छे ख़ासे लोग मारे जा चुके तो आयशा ने लड़ाई रूकवा दी और दोनों के दरमियान ये मुआहिदा हो गया की अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली इब्ने अली तालिब (अ.स) तशरीफ़ लाये उस वक़्त तक फ़रीक़ैन खामोश रहें और हुकूमत के इन्तिज़ामी उमूर अपनी जगह बदस्तूर बरक़रार रहे। लेकिन इस मुआहिदे को अभी दो दिन ही गुज़रे थे कि एक सर्द व तारीक रात में आयशा के आदमियों ने उस्मान पर शबखून मारा और उन्हें गिरफ़्तार कर के उनकी दाढ़ी , सर , भौं और पलकों का एक एक बाल उखेड़ लिया। जैसा कि इब्ने असीर लिखते हैः-

अभी दो , तीन दिन ही गुज़रे होंगे कि उन्होंने बैतुर रिज़्क़ के नज़दीक उस्मान पर हमला कर दिया , और उन्हें गिरफ़्तार कर के चाहा कि उन्हें क़त्ल कर दें मगर इस ख़्याल से कि कहीं अन्सार बिफ़र न जायें के लोग डर गये मगर उनके सर दाढ़ी , भौ , और पलकों के बालों को उखेड़ कर उन्हें क़ैद कर दिया। ( 1)

ज़ाहिर है कि जब हाकिमे बसरा उस्मान क़ैद हो गये तो उनके बारे में उम्मुल मोमिनीन का मशवरह भी ज़रूरी था। चुनान्चे तल्हा व ज़ुबैर ने ख़लीफ़ा उस्मान के फ़रज़न्द अबान के ज़रिये आयशा से मालूम कराया कि उस्मान बिन हुनैफ़ को क़ैद रखा जाये या क़त्ल कर दिया जाये। हज़रत आयशा ने फ़ौरन हुक्म सादिर कर दिया कि उन्हें क़त्ल कर दो।

एक औरत ने जब ये सुना तो चीख़ कर आयशा से कहाः-

क्या ग़ज़ब कर रही हो , उस्मान रसूल (स.अ.व.व) का सहाबी और तुम्हारे बाप अबू बकर का दोस्त है। आयशा ने कहा अच्छा ? तो फ़िर अबान को बुलाओ।

अबान पलट कर आया तो आयशा ने दूसरा हुक्म सादिर फ़रमाया कि उन्हें क़त्ल न करो बल्कि क़ैद रहने दो।

अबान ने ये दूसरा हुक्म सुना तो कहने लगा , अगर मुझे मालूम होता कि आप इस मक़सद से बुला रही हैं तो मैं पलट कर ही न आता। ( 2)

जंगे जमले असग़र

उम्मुल मोमिनीन हज़रत आयशा के हुक्म से उस्मान बिन हुनैफ की जान तो बच गयी मगर उनके साथियों में से चालीस आदमी बेजुर्मो ख़ता क़त्ल कर दिये गये इस कुश्तो ख़ून के बाद आयशा के लशकरियों ने बैतुल माल पर धावा बोल दिया और उसके पचास मुहाफ़िज़ों को भेड़ों और बकरियों की तरह ज़िब्ह कर डाला।

जब बसरा को एक मुम्ताज़ शख़्सियत हकीम इब्ने जबला को इस सफ़्फ़ाकी , ख़ूंरेज़ी और ज़ुल्मों तशद्दूद का हाल मालूम हुआ तो वो तड़प उठे और कहा कि अगर मैं इस मौक़े पर ख़ामोश बैठा रहा तो अपने परवरदिगार को क्या जवाब दूंगा ? चुनान्चे वो क़बीलाए बनी बकर और क़बीला ए अब्दुल क़ैस के तीन सौ आदमियों को ले कर बैतुर रिज़्क़ की तरफ़ बढ़े जहां अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर अपने आदमियों में लूट का गल्ला तक़सीम कर रहे थे। उसने हकीम को आते देखा तो आगे बढ़ कर पूछा कि तुम कैसे आये हो ? कहा इस ग़ल्ले की तक़सीम बन्द की जाये , उस्मान बिन हकीम को रिहा किया जाए और उन्हें उस वक़्त तक दारूल अमारा में रहने दिया जाये जब तक अमीरूल मोमिनीन यहां नहीं आ जाते। ख़ुदा की क़सम अगर मेरे पास यारों अन्सार होते तो मैं इस क़त्लो ग़ारतगरी का इन्तिक़ाम ज़रूर लेता जिसे तुम लोगों ने रवा रखा है।

इब्ने ज़ुबैर ने कहा , हम ने ख़ूने उस्मान का बदला लिया है।

हकीम ने कहाः-

जिन लोगों को तुम ने क़त्ल किया है वो उस्मान के क़ातिल थे ? तुम लोग कहरे ख़ुदा से क्यों नहीं डरते और क़त्लो ग़ारतगरी का सिलसिला आख़िर क्यों नहीं बन्द करते ? इस पर इब्ने ज़ुबैर ने हकीम को गालियां दीं और कहा , तुम लोग यूं ही चीख़ते चिल्लाते रहो हम वही करेंगे जो हमे करना है , अब रह गया उस्मान बिन हुनैफ़ की रिहाई का सवाल तो वो उसी वक़्त मुम्किन है जब वो अली की बैअत का तौक़ अपनी गर्दन से उतार कर हमारे साथ उनके मुक़ाबले में सफ़आरा हो जायें। हकीम ने जब ये सूरते हाल देखी तो कहने लगेः-

परवरदिगार ! गवाह रहना इन दोनों के ज़ुल्मों जौर पर तू हाकिमो आदिल है।

फिर अपने साथियों से कहाः-

मुझे इन लोगों से जंगो क़िताल के जवाज़ में कोई शुब्हा नहीं , जिसे शक हो वो वापस चला जायें। ( 3)

ये कह कर हकीम ने क़ब्ज़ा ए शमशीर पर हाथ रखा और मैंदान में उतर आये। हरीफ़ों की तलवारें भी नियामों से निकल पड़ीं और देखते ही देखते मैदाने कारज़ार गर्म होने लगा , जंग के शोले भड़कने लगे और तलवारों से तलवारें टकरा कर खून बरसाने लगीं।

हकीम पूरे जोशो ख़रोश के साथ मसरूफ़े पैकार थे कि अचानक एक शख़्स ने उनके पैर पर तलवार से ऐसा वार किया कि उनका पैर घुटने से कट कर अलग हो गया। हकीम ने अपना वही कटा हुआ पैर उठाया और पूरी क़ुव्वत से उस शख़्स पर इस तरह फ़ेंका कि वो लड़खड़ा कर ढेर हो गया। हकीम घुटनों के बल दौड़ते हुए मलऊन के पास पहुंचा और उसे इस तरह दबोंच कर उसके ऊपर बैठ गये कि जब तक उसका दम नहीं निकल गया , अलग न हुए।

हकीम बिन जबला ने बड़ी बाज़िगरी से जंग की मगर उनका मुख़तसर दस्ता हज़ारों शमशीर बकफ़ हरीफ़ों का मुक़ाबला कहां तक करता। आख़िरकार सब के सब मौत के घाट उतर गये। हकीम के भाई रअल इब्ने जबला और उनके बेटे अशरफ़ भी इस जंग में काम आये।

ये जंग तारीख़ में जंग जमले असग़र के नाम से मौसूम है जो 25 रबीउस्सानी 36 हिजरी में वाक़े हुई।

1. तारीख़े कामिलः- जिल्द 3 पेज न. 111

2. तबरीः- जिल्द 3 पेज न. 485

3. तबरीः- जिल्द 3 पेज न. 491