हज़रत आयशा की तारीख़ी हैसियत

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हज़रत आयशा की तारीख़ी हैसियत लेखक:
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हज़रत आयशा की तारीख़ी हैसियत

हज़रत आयशा की तारीख़ी हैसियत

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.


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उस्मान बिन हुनैफ़ की रिहाई

हकीम बिन जबला और उनके साथियों को मौत के घाट उतारने के बाद तल्हा वग़ैरह ने चाहा कि उस्मान बिन हुनैफ़ का भी ख़ात्मा कर दें। उस्मान ने उनके इरादों और चेहरों को भांप लिया। उन्होंने कहा कि अगर तुम लोगों ने मुझे क़त्ल कर दिया तो याद रखो , मेरा भाई सहल इब्ने हुनैफ़ इस वक़्त मदीने का हाकिम है , वो मेरे ख़ून के बदले में तुम्हारे ख़ानदान भर को क़त्ल कर देगा। तल्हा वग़ैरह ने जब ये बात सुनी तो उन्हें अपने अज़ीज़ों , रिश्तेदारों और घर वालों की जानों के लिए ख़तरा महसूस हुआ और इसी ख़तरे के पेशे नज़र उन्होंने उस्मान को छोड़ दिया और वो जान बचा कर बसरा से निकल खड़े हुए और किसी न किसी तरह मक़ामे ज़ीक़ार में अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली (अ.स) की ख़िदमत में पहुंच गयें आपने जब उस्मान की हालते ज़ार देखी तो रोने लगे और जब उस्मान ने बसरा के हालात और असहाबे जमल के मज़ालिम की दास्तान सुनाई तो आपका चेहरा ग़ैज़ो ग़ज़ब से सुर्ख़ हो गया।

बसरा में शाहेलाफ़ता की आमद

उस्मान बिन हुनैफ़ ने जो हालात अमीरूल मोमिनीन से बताए उन्हें सुनने के बाद बसरा की तरफ़ आपकी रवानगी नागुज़ीर हो गयी थी। चुनान्चे आपने उसी वक़्त लशकर की सफ़ बन्दी की मैमना और मैयसरा को तरतीब दिया और बीस हज़ार का लश्कर लेकर इस शान से रवाना हुए कि सत्तर बदरी सहाबा और चार सौ बैअते रिज़वान में शरीक होने वाले असहाबे पैग़म्बर (स.अ.व.व) आपके हमरकाब थे।

देखने वालों का बयान है कि जब ये सिपाह बसरा के क़रीब पहुंची तो सब से पहले अन्सार का एक दस्ता नमूदार हुआ जिसका परचम अबू अय्यूबे अन्सारी के हाथ में था। उसके बाद एक हज़ार सवारों का एक दस्ता आया जिसके सिपहसालार ख़जीमा बिन साबिते अन्सारी थे। फिर एक दस्ता और नज़र आया जिसका अलम क़तावह इब्ने रबई उठाये हुए थे। फिर एक हज़ार बूढ़ों और जवानों का जमगठा दिखाई दिया जिनकी पेशानियों पर सज्दों के निशान चमक रहे थे , चेहरे पर ख़शीयते इलाही की नक़ाबे पड़ी हुई थी , ऐसा मालूम होता था गोया जलाले किबरिया के सामने मौक़िफ़े हिसाब में खड़े हैं उनका सिपहसालार सर पर अम्मामा बांधे , सफ़ेद लिबास में मलबूस और घोड़े पर सवार बआवाज़े बलन्द क़ुर्आने मजीद की तिलावत करता जा रहा था , ये हज़रत अम्मारे यासिर थे। फिर एक अज़ीम दस्ता दिखाई दिया जिसका अलम क़ैस इब्ने सअद इब्ने उब्बादह के हाथ में था। फिर एक बड़ा दस्ता नज़र आया जिसका क़ाइद सियाह अम्मामा बांधे सफ़ेद लिबास पहने और खुश जमाल ऐसा कि निगाहें उसके चेहरे के गिर्द मसरूफ़े तवाफ़ थीं , फिर चन्द दस्ते गुज़रने के बाद एक अम्बोहे क़सीर नज़र आया जिसमें रंगारंग के फरैरे लहरा रहे थे और नैज़ों की वो कसरत थी कि एक दूसरे में गुथे जा रहे थे और बलन्दो बाला अलम इम्तियाज़ी शान लिये था उसके पीछे जलालतो अज़मत के पहरों में एक सवार दिखाई दिया , जिसके बाज़ू भरे हुए और निगाहे ज़मीन पर गड़ी हुई थीं और हैबत व वक़ार का ये आलम था कि कोई नज़र उठाकर देख न सकता था ये असदउल्लाहुलग़ालिब अली इब्ने अबी तालिब (अ.स) थे जिनके दायें बायें रसूलल्लाह के नवासे इमामे हसन और इमामे हुसैन (अ.स) (स.अ.व.व) थे और आगे आगे मोहम्मद बिन हनफ़िया फ़त्हों ज़फ़र का परचम बलन्द किये हुए आहिस्ता आहिस्ता क़दम उठा रहे थे , पीछे जवानाने बनी हाशिम , असहाबे बद्र और अब्दुल्लाह इब्ने जाफ़र थे।

जब लशकर शुमाली बसरा के मक़ाम ज़ादिया पर पहुंचा तो शहे लाफ़ता घोड़े से उतर पड़े , आपने चार रक्अत नमाज़ पढ़ी और मुनाजात के लिए सजदे में सर रख दिया। सर उठाया तो ज़मीन आंसुओं से तर थी और ज़बान पर अलफ़ाज़ थे कि ऐ अर्शो फ़र्श के परवरदिगार ! ये बसरा है इसकी भलाई से हमारा दामन भर और इसके शर से अपनी पनाह में रख।

आपने इस मक़ाम से मुख़तलिफ़ क़ासिदों के ज़रिये चन्द ख़ुतूत आयशा तल्हा और ज़ुबैर के पास रवाना किये जिसमें उन्हें हर्बों पैकार और ख़ाना जंगी से बाज़ रहने की हिदायत की थी , लेकिन उन लोगों की समझ में कुछ न आया , अपनी ज़िद पर अड़े रहे और समझाने बुझाने के बावजूद राहे रास्त पर न आये।

मैदाने जमल

फ़िर मक़ामे ज़ाबिया से आगे बढ़ कर आप मैदाने जमल में उतर पड़े जहां तीस हज़ार का मुखालिफ़ लशकर ठाठें मार रहा था। चुनान्चे आपकी फ़ौज ने भी लशकरे ग़नीम के बिलमुक़ाबिल पड़ाव डाल दिया और जब तमाम फ़ौजी अपनी अपनी जगह बैठ गये तो आपने अपनी सिपाह को ये हिदायत देते हुए फ़रमायाः-

जब तक दुश्मन की तरफ़ से इब्तिदा न हो तुम में से कोई आगे न बढ़े , और जब तक उस तरफ़ से हमला न हो तुम में से कोई वार न करे। किसी भागने वाले का पीछा न किया जाऐ , किसी ज़ख़्मी को क़त्ल न किया जाऐ , किसी के हाथ पैर न काटे जायें किसी की लाश की बेहुर्मती न की जाऐ , किसी साहेबे तौक़ीर को बेइज़्ज़त न की जाऐ और किसी औरत को ग़ज़न्द न पहुंचाया जाऐ।

जब ये हिदायत दे चुके तो ग़ैर मुसल्लह हालत में घोड़े पर सवार हुए और सफ़ों से बाहर निकल कर ज़ुबैर को ललकारा कि वो कहां है ? पहले तो वो हिचकिचाया और कुछ सोचता रहा , फिर ज़ेरह बकतर और आलाते हर्बोज़र्ब से आरास्ता हो कर सहमा हुआ हज़रत के क़रीब आया तो आपने फ़रमाया कि ऐ ज़ुबैर ! तुम लोगों का इरादा क्या है ? आख़िर बसरा में ये उधम चौकड़ी क्यों मचा रखी है ? ज़ुबैर ने मुर्दा आवाज़ में जवाब दिया , ख़ूने उस्मान के क़िसास की ख़ातिर।

आपने फ़रमायाः-

हैरत है कि तुम लोग मुझ से खूने उस्मान का क़िसास चाहते हो , हालां कि तुम ही लोगों ने उन्हें क़त्ल किया। ख़ुदा उन लोगों पर मौत को मुसल्लत करे जो उस्मान पर सख़्ती और तशद्दुद को रवा रखे हुए थे। ( 1)

फिर फ़रमायाः-

ऐ ज़ुबैर ! मैं तुम्हें ख़ुदा का वास्ता दे कर पूछता हूं कि क्या तुम ने रसूलल्लाह (स.अ.व.व) को ये फ़रमाते नहीं सुना किः-

तुम मुझसे जंग करोगे और मेरे हक़ में ज़ालिम होगे। ( 2)

ज़ुबैर ने कहाः बेशक रसूलल्लाह (स.अ.व.व) ने ये फ़रमाया था इतने में ज़ुबैर की नज़र अम्मारे यासिर पर पड़ी जो अमीरूल मोमिनीन के लशकर में मौजूद थे और जिनके बारे में पैग़म्बर (स.अ.व.व) ने इरशाद फ़रमाया था कि , ऐ अम्मार ! तुम्हे बाग़ी गिरोह क़त्ल करेगा। यहीं से ज़ुबैर ने जंग से दस्तबर्दार होने का फ़ैसला किया और अमीरूल मोमिनीन से कहा कि अब मैं आप से जंग नहीं करूंगा। चुनान्चे वो मुरझाए हुए चेहरे और थके हुए क़दमों के साथ हज़रत आयशा के पास आया और कहा कि इस जंग में न मेरी अक़्ल काम करती है न मेरी बसीरत मेरा साथ देती है लिहाज़ा मैं अली के ख़िलाफ़ जंग में हिस्सा नहीं लूंगा। आयशा ने कहाः कैसी उखड़ी उखड़ी बातें करते हो , ये आख़िर तुम्हें हो क्या गया है ? ऐसा मालूम होता है कि तुम फ़रज़न्दाने अब्दुल मुत्तलिब की चमकती हुई तलवारों लहराते हुए फ़रहरों और मौत को मंडलाते हुए देख कर खौफ़ज़दा हो गये हो ?

आयशा ने ज़ुबैर को लाख तसल्ली दी मगर वो नहीं माने और मैदान छोड़ कर चल खड़े हुए और बसरा से सात फ़रसख के फ़ासले पर वादिए सबाअ में अमर इब्ने जरमूज़ के हाथों मारे गये। ( 3)

इस तरह अमीरूल मोमिनीन के क़ौल की तस्दीक़ हो गयी कि ख़ुदा उन लोगों पर मौत को मुसल्लत कर दे जो उस्मान पर सख़्ती और तशद्दुद को रवा रखे हुए थे।

ज़ुबैर के मरने के बाद आयशा के लशकर की कमान तन्हा तल्हा के हाथों में रह गयी।

ज़ुबैर का ये इक़दाम बजाऐ ख़ुद एक सुबूत है कि उन्होंने अपने साबिक़ा मौक़िफ़ को ग़लत समझा क्यों कि पहला मौक़िफ़ सही हो तो दूसरा इक़दाम सही नहीं हो सकता और अगर ये दूसरा इक़दाम दुरूस्त था तो पहला लामुहाला ग़लत होगा। ये नहीं हो सकता कि अली से जंग करना भी सही हो और उनके मुक़ाबले में जंग न करना भी सही हो। ज़ुबैर के इस इक़दाम ने ये भी साबित कर दिया कि इनकी तरह आयशा और तल्हा का मौक़िफ़ भी ग़लत था।

इतमामे हुज्जत

ज़ुबैर के बाद अमीरूल मोमिनीन ने चाहा कि तल्हा पर भी हुज्जत तमाम कर दी जाए , चुनान्चे उन्हें मुख़ातिब कर के आपने फ़रमायाः-

ऐ तल्हा ! तुम रसूलल्लाह (स.अ.व.व) की ज़ौजा को जंगो क़िताल के लिये लाये हो लेकिन अपनी बीवी को घर में छोड़ आये हो , क्या तुम ने मेरी बैअत नहीं की थी। ( 4)

जब तल्हा ने कोई जवाब न दिया और आपकी हुज्जत तमाम हो चुकी तो आप अपने लशकर में वापस आये और क़ुर्आन हाथों में ले कर फ़रमायाः-

तुम में कौन वो मुजाहिद है जो ये क़ुर्आन ले कर दुश्मनों की सफ़ में जाये और उन्हें इस किताबे ख़ुदा पर अमल पैरा होने की इजाज़त दे और इस मुसहफ़ का वास्ता दे कर उन्हें इस फ़ितना अंगेज़ी से मना करे मगर ये समझ लें कि वो मौत के मुंह में जा रहा है।

(इस किताब को आप “अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क ” पर पढ़ रहे है।)

कूफ़े का एक हक़ शिनास नौजवान मुस्लिम इब्ने अब्दुल्लाहे मुजाशई खड़ा हुआ और उसने कहा , या अमीरूल मोमिनीन ! इस ख़िदमत पर आप मुझे मामूर फ़रमायें। आपने दुआ ए ख़ैर दी और क़ुर्आन उसके हवाले किया। उसने क़ुर्आन को बोसा दिया और उसे हाथों पर बलन्द किये हुए दुश्मनों की तरफ़ रवाना हुआ और उन्हें सहीफ़ा ए इलाही पर अमल करने की दावत दी नीज़ उसका वास्ता दे कर फ़ितना अंगेज़ी से मना किया मगर उसकी आवाज़ सदा बसहरा साबित हुई और किसी ने कोई तवज्जो नहीं दी। इतने में हज़रत आयशा के ग़ुलाम ने आगे बढ़कर उस पर तलवार से हमला किया और उसके दोनों हाथ काट दिये। उसने क़ुर्आन को सीने से लगाया मगर दुश्मनों की तरफ़ से इतने तीर बरसाये गये कि क़ुर्आन छलनी छलनी हो गया और उसके साथ ही मुस्लिम मुशाजई की शहादत भी वाक़े हो गयी। अमीरूल मोमिनीन ने जब ये इस्लाम सोज़ मन्ज़र देखा तो आपने फ़रमायाः-

अब इन लोगों से जंग के जवाज़ में कोई शुब्ह नहीं। ( 5)

मुस्लिम मुशाजई की इस मुजाहिदाना सरफ़रोशी के बाद हज़रत अम्मारे यासिर दुश्मन की सफ़ों के क़रीब आये और उनसे तल्ख़ लहजे में मुख़ातिब हो कर फ़रमायाः-

तुम ने अपनी औरतों को घरों के अन्दर पर्दे में बिठा रखा है और रसूलल्लाह (स.अ.व.व) की बीवी को नेज़ों , भालों और तलवारों के सामने ले आये हो हालां कि तुम्हे बख़ूबी मालूम है कि उस्मान के क़ातिल कौन थे और उनके क़त्ल की ज़िम्मेदारी किन लोगों पर आएद होती है। ( 6)

हज़रत अम्मार अभी इतने ही कह पाये थे कि तीरों की बौछारों ने उन्हें पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। पलटकर अमीरूल मोमिनीन की ख़िदमत में आये और कहा मौला ! अब किस बात का इन्तिज़ार है ये कमबख़्त जंग के अलावा कुछ सुनना ही नहीं चाहते।

अमीरूल मोमिनीन के सब्रो सुकूत और सुल्ह पसन्दाना रविश से दुश्मनों के हौसले ऐसे बढ़े थे कि उन्होंने आपके लशकर पर तीरों की बारिश कर दी जिससे मुतअद्दिद जांबाज़ सिपाहियों के सीने छलनी हो गये और ज़ख्मों से निहाल हो कर लोग ज़मीन पर गिरने लगे।

इस असना में एक शख़्स को उठाकर हज़रत के सामने लाया गया जो तीरों की बदौलत जां बहक़ तस्लीम हो चुका था। फिर एक दूसरे शख़्स को लाया गया वो भी तीरों का शिकार हो कर शहीद हो चुका था।

अमीरूल मोमिनीन ने ये कैफ़ियत देखी तो पेशानी पर बल पड़ आये आपने तेवरों को बदला और फ़रमायाः-

इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजेऊन। अब हर तरफ़ हुज्जत तमाम हो चुकी सुलह के आसार ख़त्म हो चुके और दुशमन की तरफ़ से जंग की इब्तिदा हो चुकी। ( 7)

1. तबरीः- जिल्द 3 पेज न. 520

2. तारीख़े इस्लाम ज़हबीः- जिल्द 2 पेज न. 151

3. तबरीः- जिल्द 5 पेज न. 199, इब्ने असाकरः- जिल्द 5 पेज न. 364, कामिलः- जिल्द 3 पेज न. 94- 95

4. असदुलग़ाबाः- जिल्द 2 पेज न. 185

5. तबरीः- जिल्द 3 पेज न. 522

6. याक़ूबीः- जिल्द 3 पेज न. 117

7. कामिलः- जिल्द 3 पेज न. 117

मोहम्मद इब्ने हनफ़िया का हमला

मुख़ालिफ़ीन की तरफ़ से पहल हो चुकी थी और अमीरूल मोमिनीन के लिये मैंदान में उतरे बग़ैर कोई चारा न था चुनांचे आप अज़्मों इस्तिक़लाल के साथ उठ खड़े हुए। पैग़म्बरे इस्लाम की ज़ेरह ज़ेबेतन की सर पर सियाह अम्मामा बांधा , ज़ुल्फ़िक़ार हाथ में ली , मैंमने पर मालिके अशतर और मैसरे पर अम्मारे यासिर को मामूर किया और फ़रमायाः-

मेरे बेटे मोहम्मद को बुलाओ वो हाज़िर हुए तो रसूलल्लाह (स.अ.व.व) का अलम उक़ाब उनके सिपुर्द कर के फ़रमाया बेटा ! आगे बढ़ो और लशकरे ग़नीम पर हमला करो। मोहम्मद ने सर झुकाया और अलम ले कर मैदान की तरफ़ बढ़े मगर तीर इस कसरत से आ रहे थे कि उनके लिए आगे बढ़ना दुशवार हो गया और वो ठिठक कर खड़े हो गये। हज़रत ने जब ये देखा तो पुकारा मोहम्म्द आगे क्यों नहीं बढ़ते ? कहा बाबा ! तीरों की बौछार में आगे बढ़ने का कोई रास्ता भी तो हो , बस तवक्क़ुफ़ फ़रमाइये कि तीरों का ज़ोर कुछ कम हो जाए। फ़रमाया नहीं तीरों और सेनानों के अन्दर घुस कर हमला करो। इब्ने हनफ़ीया कुछ और आगे बढ़े। मगर तीर अन्दाज़ों ने इस तरह घेर डाला कि क़दम रोक लेना पड़े। ये देख कर अमीरूल मोमिनीन का चेहरा सुर्ख़ हो गया , पेशानी पर ग़ैज़ की शिकने उभर आयीं और आगे बढ़ कर तलवार का दस्ता मोहम्मद की पुश्त पर मारा और अलम उनके हाथ से ले लिया। फिर आस्तीनों को चढ़ा कर इस तरह हमला किया कि एक सिरे से दूसरे सिरे तक दुश्मनों की फ़ौज में तहलका मच गया। जिस सफ़ की तरफ़ मुड़े वही सफ़ ख़ाली थी और जिधर का रूख़ किया लाशे तड़पने लगीं और सर घोड़ों के सुमों से टकरा कर लुढ़कते नज़र आने लगे। जब सफ़ों को तहोबाला कर के फिर अपने मरक़ज़ की तरफ़ पलट कर आये इब्ने हनफ़ीया से फ़रमाया , देखों बेटा , ऐसे जंग की जाती है। ये कह कर फिर अलम उनके हवाले किया और कहा , अब आगे बढ़ो , इब्ने हनफ़िया दुश्मनों पर टूट पड़े। दुश्मन भी नैज़े हिलाते , बरछियां तौलते हुए सामने आये मगर शेर दिल बाप के बेटे ने परे के परे उलट दिये , मैदाने कारज़ार को लालहज़ार बना दिया और कुश्तों के ढेर लगा दिये।

तल्हा की हलाकत

इस हंगामा ए दरोगीर में मरवान बिन हकम , तल्हा की ताक में था किसी सूरत से इन्हें क़त्ल कर के ख़ूने उस्मान का बदला चुका लिया जाए क्यों कि वो जानता था कि तल्हा और ज़ुबैर ही उस्मान के क़ातिल हैं और पूरी ज़िम्मेदारी इन्हीं के सर आइद होती है। इस इन्तिक़ामी जज़्बे के अलावा तल्हा को ठिकाने लगाने में मरवान का एक सियासी मक़सद भी था , और वो ये कि मरवान समझ रहा था कि जब तक ये ज़िन्दा है ख़िलाफ़त बनी उमय्या की तरफ़ मुन्तक़िल नहीं हो सकती।

ज़ुबैर चूंकि मैंदान छोड़ चुके थे इस लिए मरवान उनके बारे में मजबूर था , अलबत्ता उसने तल्हा को मौत के घाट उतारने का मौक़ा ढ़ूंढ निकाला , और जंग की उस गर्म बाज़ारी में उसने अपने ग़ुलाम की आड़ ले कर वो ज़हर आलूद तीर उन पर चलाया जो उनकी पिडली को चीरता हुआ घोड़े के शिकम में दर आया। घोड़ा ज़ख़्मी होने के बाद भाग खड़ा हुआ और एक ख़राबे में जा रुका , जहां तल्हा ने दम तोड़ दिया इब्ने सअद का कहना है किः-

जमल के दिन मरवान बिन हकम ने तल्हा के कि जो आयशा के पहलू में खड़े थे , तीर मारा जो उनकी पिंडली में लगा फिर मरवान ने कहा , ख़ुदा की क़सम अब मुझे उस्मान के क़ातिल की तलाश नहीं रह गयी। ( 1)

अल्लामा अब्दुल बर , याकूबी , इब्ने असाकार , इब्ने असीर और हजरे मक्की वग़ैरह का कहना है कि अकाबिर उलमा के दर्मियान इस अम्र में इख़तिलाफ़ नहीं है कि मरवान ही ने जमल में तल्हा को क़त्ल किया था , हालांकि क़ातिल और मक़्तूल दोनों एक ही जमाअत से ताल्लुक़ रखते थे। मदाइनी ने रवायत की है कि जब तल्हा ज़ख़्मी हो कर मैदान से फ़रार हुए तो किसी महफ़ूज़ जगह की तलाश में थे जहां वो पनाह ले सकें। चुनान्चे हज़रत अली का जो भी सिपाही उधर से गुज़रता उससे वो कहते कि मैं तल्हा हूं , ख़ुदा के लिए मुझे कोई पनाह दे दे। फिर वो मर गये और रेगिस्तान की ज़मीन उन्हें निगल गयी। ( 2)

ऊंट के मुहाफ़िज़

हज़रत अली के मुक़ाबले में जंग से ज़ुबैर की दस्त बरदारी या तल्हा के क़त्ल हो जाने से असहाबे जमल के इरादों , हौसलों और वलवलों में कोई फ़र्क़ न आया। वो लोग उसी हिम्मत , इस्तिक़लाल और जोशो ख़रोश के साथ जान देने के लिए मैदान में डटे रहे और जमे रहे। इसका सबब ये था कि उनकी नज़रों में जंग का मरकज़ी किरदार आयशा और सिर्फ़ आयशा थीं और उन्हीं से उनकी तमाम तर अक़ीदतें वाबस्ता थीं। इन्तिहा ये है कि वो लोग हज़रत आयशा के ऊंट की मेगनियां उठा कर उन्हें तोड़ते और सूंघ कर कहते कि ये हमारी मादरे गिरामी के ऊंट की मेंगनियां है इनसे मुश्को अम्बर की ख़ुशबू आती है। ( 3)

हज़रत आयशा के लशकर का अलम ख़ुद उनका मलऊन ऊंट था इस लिए अस्हाबे जमल की नज़रों में उसका वही मरतबा था जो अलम का होता है। वो लोग हमावक़्त उसके चारों तरफ़ हिसार बांधे खड़े रहते थे और जिस तरह लशकर के अलम की हिफ़ाज़त की जाती है उसी तरह उस ऊंट की हिफ़ाज़त करते थे। यहां तक कि उसकी मेहार थाम कर क़त्ल हो जाना अपने लिए सबबे इफ़तिख़ार और ज़रिया ए नजात समझते थे।

मेहार थामने वालों के हाथ कटते , सीने छलनी होते और सर तनों से जुदा हो जाते मगर उनके अज़्मों सबात में कोई फ़र्क़ न आता। हज़रत आयशा मेहारकशों को ख़ून में नहाता देखतीं तो उनकी हौसला अफ़ज़ाई करतीं। इस हिम्मत अफ़ज़ाई के नतीजे में जब भी कोई मौत से हम किनार होता तो उसकी जगह फ़ौरन कोई दूसरा आ खड़ा होता और मेहार अपने हाथों में ले लेता। उन में से ज़्यादातर बनी ज़ब्बह , बनी नाज़िया और कुरैश के लोग होते थे , जो अपनी बारी पर मेहार थामने का शरफ़ हासिल करते , रजज़िया अशआर पढ़ते और फ़ना के घाट उतर जाते।

मेहार थामने वालों के नाम से तारीख़ बख़ूबी वाक़िफ़ है उन में क़अब इब्ने सौर , अब्दुर रहमान बिन उताब और अमर बिन बतरी वग़ैरा के नाम ख़ास तौर से क़ाबिले ज़िक्र है।

क़अब इब्ने सौर लड़ाई में शरीक नहीं होना चाहते थे। इब्ने सअद ने रवायत की है कि जब तल्हा , ज़ुबैर और आयशा वारिदे बसरा हुए तो ये एक कोठरी में घुस गये और उसका दरवाज़ा चिनवा दिया सिर्फ़ एक सुराख़ बाक़ी रखा जिससे खाना पानी लेते थे। ये सिर्फ़ इस लिए था कि फ़ितने से किनाराकश रहे। हज़रत आयशा से कहा गया कि अगर क़अब आप के साथ हो गये तो पूरा क़बीला ए अज़्द आपके साथ हो जायेगा। हज़रत आयशा एक खच्चर पर सवार हो कर उसके पास गयीं , उसे आवाज़ दी मगर उसने कोई जवाब न दिया। हज़रत आयशा ने कहा , क़अब क्या मैं तुम्हारी मां नहीं हूं ? अब क़अब गुफ़्तुगू करने पर मजबूर हो गये और उम्मुल मोमिनीन उसे मैंदाने हर्बो ज़र्ब में ख़ींच लायीं। इसकी वजह से बनी अज़्द भी आपके हमराही हमनवा हो गये। क़अब बरोज़े जमल , मैदाने जंग में क़ुर्आन गले में हेमाएल किए एक हाथ से और दूसरे हाथ से मेहार पकड़े खड़ा था कि एक नामालूम सम्त से सनसनाता हुआ तीर आया जिसने उसे वहीं पर ठंडा कर दिया।

इसके बाद ऊंट की मेहार अब्दुर रहमान बिन उताब ने मांगीं और ये रजज़ पढ़ाः-

मैं फ़रज़न्दे उताब हूं , मेरी तलवार की काट मुम्किन नहीं। इतने में किसी सम्त से तलवार पड़ी और वो मौत के घाट उतर गया। फिर क़ुरैश के सत्तर आदमियों ने उस मनहूस ऊंट की मेहार थामी और सब के सब क़त्ल कर दिये गये। तबरी का कहना है कि जो भी मेहार हाथ में लेता उसका हाथ काट लिया जाता या मौत के घाट उतार दिया जाता। ( 4)

फिर बनी नाज़िया आगे बढ़े और सब के सब क़त्ल कर दिये गये।

फिर अरब के मशहूर शमशीन ज़न अमर इब्ने यसरी ने मेहार पकड़ी। अमीरूल मोमिनीन की तरफ़ से हिन्द इब्ने अमर उस पर हमला आवर हुए। उसने ऊंट की नकेल अपने बेटे के हाथ में थमा दी और हिन्द से मुक़ाबला होने लगा , आख़िरकार इब्ने असीर ग़ालिब रहा और हिन्द उसके हाथ से मारे गये। उसके बाद उसने अमीरूल मोमिनीन की फ़ौज के दो जवानों को और क़त्ल किया। आख़िरकार ये अम्मारे यासिर के हाथों क़त्ल हुआ। उसके बाद उसका बेटा और भाई भी मारा गया। तबरी का बयान है कि अमरे यासिर जंग के दौरान रजाज़िया अशआर पढ़ पढ़ के अपनी क़ौम को बराबर उभारता और बरअंगेख़्ता करता रहा यहां तक कि उसने पूरे क़बीला ए बनी जब्बा और बनी अज़्द को मरवा दिया। हज़रत आयशा का बयान है कि जब तक बनू जब्बा की आवाज़ें न थमीं मेरे ऊंट की गरदन सीधी रही। मुख़तलिफ़ मोवर्रेख़ीन का कहना है कि बनी ज़ब्बा और बनी अज़्द वालों ने ऊंट के चारों तरफ़ इन्सानी चहारदीवारी खड़ी कर दी थी। अमरे यासिर के बाद ऊंट की नकेल अमर इब्ने अशरफ़ के हाथों में आयी और हारिस से उनका मुक़ाबला हुआ। दोनों ज़ख़्मी हो कर गिरे और अमर की तलवार ने हारिस का और हारिस की तलवार ने अमर का काम तमाम कर दिया। अमर बिन अशरफ़ के साथ उसके घर के तेरह अफ़राद भी मक़तूल हुए। ( 5)

ग़रज़ की आयशा के ऊंट की मेहार दस्त ब दस्त गर्दिश करती रही और लोग मौत के घाट उतरते रहे। आख़िर में जब जुमुर इब्ने हारिस के हाथों में मेहार आयी तो घमासान की जंग शुरू हो चुकी थी।

1. तबक़ातः- जिल्द 3 पेज न. 222

2. तबरीः- जिल्द 5 पेज न. 204, याक़ूबीः- जिल्द 2 पेज न. 158, मुसतदरकः- जिल्द 2 पेज न. 271, इब्ने असाकरः- जिल्द 7 पेज न. 84, इस्तेयाबः- पेज न. 207- 208, असाबाः- जिल्द 2 पेज न. 222, अकदुल फ़रीदः- जिल्द 4 पेज न. 321

3. तबरीः- जिल्द 5 पेज न. 412, कामिलः- जिल्द 3 पेज न. 97

4. तबरीः- जिल्द 4 पेज न. 204

5. तबरीः- जिल्द 5 पेज न. 211- 212

अमर इब्ने अहलबे ज़ब्बी का वाक़िआ

बनी ज़ब्बा की पस्त किरदारी और दीन से बेख़बरी का अन्दाज़ा उस वाक़िए से होता है जिसे मदाएनी ने बयान किया है। वो कहते हैं कि मैंने बसरा में एक शख़्स को देखा जिसका एक कान कटा हुआ था। मैंने सबब पूछा , उसने जवाब दिया , मैं जमल के मैदान में कुश्तों का मन्ज़र देख रहा था कि मैंने एक ज़ख़्मी को देखा जो कभी सर उठाता था कभी ज़मीन पर दे मारता था। मैं क़रीब गया तो उसकी ज़बान पर दो शेर थे जिनका मफ़हूम ये थाः-

1. हमारी मां ने हमे मौत के गहरे पानी में धकेल दिया और हम ने भी उस वक़्त तक पलटने का नाम नहीं लिया जब तक सेराब न हो गये।

2. हम ने शोमिये क़िस्मत से बनी तमीम की इताअत कर ली हालांकि उनके मर्द ग़ुलाम और उनकी औरतें कनीज़े हैं।

वो शख़्स आयशा , तल्हा और ज़ुबैर पर तन्ज़ कर रहा था।

मैंने उससे कहाः अल्लाह को याद करो और कलमा पढ़ो ये शेर पढ़ने का वक़्त नहीं है। ये कहना था कि उसने मुझे ग़ुस्से की नज़रों से देखा और एक मोटी सी गाली दी और मुझ से कहा कि मैं कलमा पढ़ूं और आख़री वक़्त में डर जाऊं और बेसबरी का मुज़ाहिरा करूं। ये सुनकर मुझे बड़ी हैरत हुई और मज़ीद कुछ कहना सुनना मुनासिब न समझा और पलटने का इरादा किया। जब उसने मुझे पलटते हुए देखा तो कहने लगा , अच्छा ठहरो , तुम्हारी ख़ातिर इसे पढ़ लेता हूं लेकिन मुझे सिखा दो , मैं उसे कलमा पढ़ाने के लिए क़रीब हुआ तो उसने कहा और क़रीब आओ , मैं क़रीब गया तो उसने मेरा कान अपने दांतों से दबा लिया और उस वक़्त तक न छोड़ा जब तक कि उसे जड़ से काट न लिया। मैंने सोचा इस मरने वाले पर क्या हाथ उठाऊं , उसे लअन तअन करता हुआ चलने लगा तो उसने कहा एक बात और सुनते जाओ। मैंने कहा सुना दो कि दिल में कोई हसरत न रह जाये। उसने कहा जब अपनी मां के पास जाना और वो पूछे की कान किसने काटा तो उससे कहना अमर इब्ने अहलबे ज़ब्बी ने। जो एक ऐसी औरत के चक्कर में आ गया था जो उम्मुल मोमिनीन बनना चाहती थी।

घमासान की जंग

मारका ए कारज़ार पूरी तरह गर्म हो चुका था , मैदाने जमल में हर तरफ़ ख़ून की बारिश हो रही थी। हज़रत अली जांबाज़ मुजाहिदीन सफ़ों पे सफ़ें उलट रहे थे और मुख़ालिफ़ीन बद हवासी के आलम में इधर से उधर भाग रहे थे। जब हज़रत आयशा ने ये ख़ूनी मन्ज़र देखा तो उन पर भी मायूसी के दौरे पड़ने लगे। चुनान्चे उन्होंने कुछ कंकरियां तलब कीं और हौदज से अमीरूल मोमिनीन के लशकर की तरफ़ ये कह कर फेंकी कि इनके चेहरे सियाह हो जायें ये हरबा था उस मोजिज़ाना अमल का जो जंगे हुनैन में रसूलल्लाह (स.अ.व.व) से ज़ुहूर पिज़ीर हुआ था। मगर वहां पैग़म्बर (स.अ.व.व) का अमल कुफ़्फ़ार के मुक़ाबले में वहीए इलाही के मातहत था और यहां मुक़ाबले में अमीरूल मोमिनीन , असहाबे बद्र मुम्ताज़ सहाबा और ज़ाते इलाही पर भरोसा रखने वाले सच्चे मुसलमान थे। आयशा के इस अमल का क्या असर हो सकता था ? किसी ने तवज्जो भी न की , बल्कि बिगड़े दिल मुसलमान ने मामूली तग़य्युर के साथ ये आयत पढ़ीः-

तुम ने ये कंकरिया नहीं फेंकी बल्कि अल्लाह ने फेंकी हैं। ( 1)

बहरहाल अमीरूल मोमिनीन ने मालिके अशतर को मैमने पर और हाशिम बिन अलबा को मैसरे पर हमला आवर होने का हुक्म दिया , और ये दोनों अपने दस्तों के साथ इतनी शिद्दत से हमला आवर हुए कि मैमने के क़दम उखड़ गये और हज़रत आयशा का मैसरा अपनी जगह से हटकर क़ल्बे लशकर से जा मिला। मैमने का सरदार हेलाल इब्ने वाक़ीअ मालिके अशतर की तलवार से क़त्ल हुआ तो लशकरी भाग भाग कर आयशा के इर्द गिर्द पनाह लेने पर मजबूर हो गये। चुनान्चे ऊंट के चारों तरफ़ लड़ाई शुरू हो गयी। बनी नज़्द और बनी नाज़िया ऊंट के गिर्द घेरा डाले उसकी हिफ़ाज़त कर रहे थे और तीरों और तलवारों के वार अपने सीनों पर रोक रहे थे , बक़ौले जमख़शरी , सरों पर तलवारों के पड़ने की ऐसी आवाज़े आती थीं जैसे कपड़े धोने पर चोट पड़ने की आवाज़ आती है। ( 2)

अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली इब्ने अबी तालिब अलैहिस्सलाम ने जब ये देखा कि जंग अभी फ़ैसला कुन मरहले में दाख़िल नहीं हुई तो आपने बज़ाते ख़ुद मैदान में उतरने का फ़ैसला किया और मोहम्मदे हनफ़िया , इमामे हसन (अ.स) और इमामे हुसैन (अ.स) के हमराह अन्सारों मुहाजिरीन का दस्ता लेकर उठ खड़े हुए। पहले तो आपने एक नज़र में मैदाने कारज़ार का जाएज़ा लिया , फिर मोहम्मद से कहा , बढ़ो और सफ़ों को चीरते हुए उस मुक़ाम तक पहुंचों जहां आयशा का ऊंट खड़ा है। मोहम्मद आगे बढ़े ही थे कि चारों तरफ़ से तीरों की बरसात होने लगी। ये देख कर हज़रत ख़ुद आगे बढ़े और शेर की तरह दुश्मन की सफ़ों पर टूट पड़े। ज़ुल्फ़िक़ार की बिजलियां कौदंने लगीं और लाशों के अम्बार लगने लगे। मोतज़ेली का कहना है , आपने इस तरह हमला किया जिस तरह भूंखा शेर भेड़ बकरियों पर हमला करता है। जब अफ़वाज़े मुख़ालिफ़ की तमाम सफ़े दरहमों बरहम हो गयीं तो आप फिर अपने मरक़ज़ की तरफ़ पलट आये , चन्द लम्हें तवक़्क़ुफ़ किया और फिर दोबारा हमले के इरादे से उठ खड़े हुए। मोहम्मद बिन हनफ़िया , अम्मारे यासिर , अदि इब्ने हातिम वग़ैरह ने अर्ज़ किया कि या अमीरूल मोमिनीन ! अब आप ठहरिये हम मैदान में जाते हैं मगर आप ने कोई जवाब न दिया चेहरा ग़ैज़ो ग़ज़ब से तिलमिला रहा था , आंखों से शरारे निकल रहे थे और सीने से शेर के ग़ुर्राने की सी अवाज़े आ रहीं थी। अब किस में हिम्मत थी जो बिफ़रे हुए शेर से कुछ कहता , लिहाज़ा सब ख़ामोश रहें। इमामे हसन और इमामे हुसैन अलैहिस सलाम ने इजाज़त चाही। आपने फ़रमाया अभी नहीं और फिर दुश्मनों की तरफ़ झपट पड़े और सफ़ों के अन्दर घुस कर ऐसी तलवार चलाई कि मैदान लाशों से पट गया और लड़ते लड़ते आपकी तलवार भी टेड़ी हो गयी। फिर आप अपनी सफ़ की तरफ़ आये और घोड़े से उतर कर तलवार सीधी की। जब आपके आवानों अन्सार ने देखा कि फिर आपका इरादा मैदान की तरफ़ जाने का है तो उन लोगों ने क़सम दी और मज़ीद हमला आवर होने से मना किया कि अगर आप पर आंच आ गयी तो दीन पर बन आएगी और इस्लाम का शिराज़ा बिखर जाएगा।

अमीरूल मोमिनीन ने उन लोगों की बात मान ली।

साहिबे ज़ुल्फ़िक़ार के दो ही पुरज़ोर हमलों से असहाबे जमल के हौंसले पस्त हो चुके थे और उन पर शिकस्त के आसार जारी हो चुके थे मगर मैदान छोड़ना उनके लिए उस वक़्त तक नामुम्किन था जब तक आयशा का ऊंट उनके दरमियान खड़ा था। उसकी भी कैफ़ियत ऐसी थी कि उसके झोल और उम्मुल मोमिनीन के कजावे में तीर इस तरह पेवस्त थे जिस तरह साही के बदन में कांटे होते हैं और वो इस ख़ूनी हंगामें की ताब न ला कर इस तरह घूम रहा था जैसे चक्की घूमती है।

अमीरूल मोमिनीन ने सोचा जब तक ऊंट मैदान में खड़ा है जंग का ख़ात्मा नहीं हो सकता क्यों कि अहले बसरा किसी को ऊंट के पास फटकने नहीं देते थे चुनान्चे हज़रत ने उसे मैदान से हटाने का इरादा किया और क़बीला ए नख़अ और महदान के जवां मर्दों को ले कर आगे बढ़े। ज़ुल्फ़िक़ार चमकीस परे टूटे और आप अपने हमराहियों समेत ऊंट के पास पहुंच गये। फिर एक शख़्स (बज़ीर इब्ने दलजा ए नजई) को हुक्म दिया कि ऊंट की कोंचें काट दो , उसने ऊंट की पिछली टांगों पर तलवार चलायी। एक मुहीब आवाज़ फ़ज़ा में गूंजी और ऊंट पहलू के बल ज़मीन पर ढ़ेर हो गया। ऊंट का गिरना था कि मेहार कशों के सारे हौसले ख़ाक में मिल गये। एक आम भगदड़ मच गयी और आयशा के सिपाही इस तरह भागे जैसे तेज़ आंधी में टिड्डियां भाग ली हों। किसी को किसी का होश न था। लाशों और कराहते हुए ज़ख़्मियों को कुचलते रौंदते लोग जिधर समझ में आ रहा था मुंह उठाये भाग रहे थे। मुख़्तसर ये कि सारा मैदान ख़ाली हो गया।

फिर शाहे लाफ़ता के हुक्म पर मोहम्मद बिन अबीबकर और अम्मारे यासिर ने ऊंट के तसमें काटे और हौदज को ज़मीन पर उतार कर रख दिया। उसके बाद आपने फ़रमाया कि इस ऊंट को मार कर जला दिया जाये और इसकी राख हवा में मुनतशिर कर दी जाये। चुनान्चे वो ऊंट मार कर जलाया गया और उसकी राख हवा में उड़ा दी गयी तो आपने फ़रमायाः-

इस चौपाये पर ख़ुदा की लानत ये बनी इस्राईल के गोसाले से कितना मुशाबेह है। ( 3)

अमीरूल मोमिनीन (अ.स) का रहमो करम

फिर अमीरूल मोमिनीन ने मोहम्मद इब्ने अबीबकर से कहा कि आयशा के लिए एक ख़ैमा नस्ब करो और उनसे उनकी ख़ैरियत मालूम करो कि उन्हें कोई गज़न्द तो नहीं पहुंचा। मोहम्मद ने ख़ैमा नस्ब किया फिर हौदज के पास आये और पर्दे में मुंह डाला। आयशा ने कहा तुम कौन हो ? मोहम्मद ने कहा , आपका सब से ज़्यादा नापसन्दीदा रिश्तेदार। आयशा ने पूछा , ख़ुसअमिया के फ़रज़न्द ? कहा हां। आयशा ने कहा कि उस मअबूद का शुक्र है जिसने तुम्हें महफ़ूज रखा।

मसऊदी ने मुरव्वेजुज़ ज़हब में तहरीर किया है कि मोहम्मद ने कहा आपका सब से ज़्यादा नापसन्दीदा रिश्तेदार और आपका नापसन्दीदा भाई हूं। अमीरूल मोमिनीन ने पूछा है आपको कोई गज़न्द तो नहीं पहुंचा ?

आयशा ने कहाः सिर्फ़ एक तीर लगा था और कोई तकलीफ़ नही है।

फिर अमीरूल मोमिनीन ख़ुद तशरीफ़ लाये आपने लकड़ी से हौदज को एक टहोका दिया और फ़रमायाः-

क्यों हुमैरा ? क्या रसूलल्लाह (स.अ.व.व) ने तुम्हें यही हुक्म दिया था ? क्या तुम्हें इस अम्र की ताक़ीद नहीं की गयी थी कि घर में बैठी रहना ? ख़ुदा की क़सम उन लोगों ने तुम्हारे साथ इन्साफ़ नहीं किया जिन्हों ने अपनी बीवियों की तो हिफ़ाज़त की और तुम्हें मैदान में ले आये।

हज़रत आयशा ने कहा , अब आप फ़त्हेयाब हो चुके हैं मुझ पर रहम फ़रमाइये। ( 4)

लड़ाई ख़त्म हो जाने के बाद अम्मारे यासिर ने हज़रत आयशा से कहा , उम्मुल मोमिनीन ! आपका तर्ज़े अमल पैग़म्बर (स.अ.व.व) के तर्ज़े अमल से कितना अलग है। आयशा ने कहा , बख़ुदा मैं हमेशा तुम्हें हक़गो (सच्चा) समझती रही। उस पर अम्मार ने कहा , ख़ुदा का शुक्र है जिसने आपकी ज़बान से ये बात कह ला दी। ( 5)

तारीख़े कामिल जिल्द न. 5 पेज न. 130 पर ये रवायत भी है कि अम्मारे यासिर ने हज़रत आयशा को जब उम्मुल मोमिनीन कह कर मुख़ातिब किया तो आपने फ़रमाया मैं तुम्हारी मां नहीं हूं। उस पर अम्मार ने कहा , आप मां तो हैं , ख़्वाह मानें या न मानें।

आम माफ़ी

जंग के ख़ात्मे के बाद हज़रत अली (अ.स) के मुनादी ने ऐलान किया कि किसी ज़ख़्मी को न मारा जाये , किसी भागते हुए का पीछा न किया जाये , जो हथियार डाल दे वो अमान में है और जो घर का दरवाज़ा बन्द कर ले उसे भी अमान हासिल है।

कन्ज़ुल आमाल में इसके बाद ये इज़ाफ़ा मिलता है कि अमीरूल मोमिनीन ने फ़रमायाः-

कोई शर्मगाह हलाल न समझी जायें , कोई माल मुबाह न तसव्वुर किया जाये। मैदाने जंग में जो जुरूफ़ हाथ लगें उन पर क़ब्ज़ा कर लो बाक़ी सब कुछ मक़तूलीन के वोरसा का है। जो ग़ुलाम लशकर से निकल गया हो उसे तलाश न करो। जितने हथियार हाथ आयें वो सब तुम्हारे हैं उम्मे वलद पर तुम्हारा कोई दस्तरस नहीं है। मीरास उसी तरह तक़सीम होगी जिस तरह ख़ुदा का हुक्म है जिस औरत का शौहर इस जंग में मारा गया है उसे लाज़िम है कि चार माह दस दिन इद्दह में रहें।

इस मौक़े पर कुछ इन्तिहा पसन्दों ने नुक़्ताचीनी की और कहाः-

आप उन्हें क़त्ल करना हमारे लिए जाइज़ क़रार देते हैं लेकिन उनकी औरतों को हमारे ऊपर मुबाह क्यों नहीं करते ? अमीरूल मोमिनीन ने फ़रमाया , अहले क़िब्ला के साथ ऐसा ही बरताव किया जाना चाहिए।

अमीरूल मोमिनीन के इस जवाब पर कुछ लोग नाराज़ हो गये और हंगामा आराई पर उतर आये तो आपने फ़रमायाः-

अच्छा अगर तुम नहीं मानते तो सब से पहले आयशा के लिये क़ुंर्आ- अंदाज़ी करो क्यों कि इस झगड़े की बुनियाद और जड़ वही है। जिसके नाम कुंर्आ निकले आयशा को उसके हवाले कर दों।

ये सुनना था कि सब के होश उड़ गये। सब ने माज़रत की और कहा हम ख़ुदा से तौबा और इस्तिग़फ़ार करते हैं। ( 6)

हज़रत आयशी की वापसी

अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली (अ.स) ने इब्ने अब्बास को इस अम्र पर मामूर फ़रमाया कि वो हज़रत आयशा से कहें कि अब उनका यहां न कोई काम है और न मदीने से ज़्यादा अर्से तक बाहर रहना मुनासिब है लिहाज़ा वो वापस जाने की तैय्यारियां मुकम्मल करें।

अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास का बयान है कि मैं हज़रत अली का पैग़ाम ले कर आयशा के पास गया , मुलाक़ात की इजाज़त चाही उन्होंने इनकार किया तो मैं घर के अन्दर घुस गया और एक बोरिये का टुकड़ा ले कर उस पर बैठ गया। इस पर आयशा ने कहा तुम कैसे आदमी हो कि बग़ैर इजाज़त अन्दर चले आए और बग़ैर पूछे बैठ गये। एक रवायत में है कि आयशा ने कहाः-

तुम ने सुन्नते रसूल (स.अ.व.व) की दोहरी मुख़ालिफ़त की , अव्वल ये कि बग़ैर इजाज़त हमारे घर में दाख़िल हुए और दूसरे ये कि बगैर इजाज़त हमारे फ़र्श पर बैठ गये।

इब्ने अब्बास ने कहा ख़ुदा की क़सम ये सुन्नत की तालीम हम ने आपको दी हैं ये आपका घर हर्गिज़ नहीं है। आपका घर तो वो है जिस में अल्लाह और रसूल ने आपको बैठे रहने कहा हुक्म दिया है। मगर आपने हुक्म की कोई पाबन्दी नहीं की। इस वक़्त मैं अमीरूल मोमिनीन का पैग़ाम ले कर आया हूं कि आप मदीने की तैयारीयां कीजिए।

आयशा ने कहा , ख़ुदा रहम करे अमीरूल मोमिनीन पर वो उमर इब्ने ख़त्ताब थे। उस पर इब्ने अब्बास ने कहा , होंगे ! ये अमीरूल मेमिनीन , हज़रत अली इब्ने अबी तालिब (अ.स) हैं।

आयशा ने कहा , मैं नहीं मानती।

इब्ने अब्बास ने कहाः कब तक नहीं मानेंगी , आपका हाल तो ये है कि आप न कोई हुक्म देती हैं न मना करतीं हैं। न लेती हैं न देती हैं। इस पर आयशा रोने लगीं और बोली मैं ख़ुद ही बहुत जल्द ये शहर छोड़ना चाहती हूं जिस शहर में तुम लोग रहो उससे ज़्यादा क़ाबिले नफ़रत कोई शहर मेरे लिए नहीं है।

अल्लामा इब्ने अबदर्बा का कहना है कि आयशा की वापसी पर हज़रत अली (अ.स) ने बड़ा एहतिमाम किया , तमाम ज़रूरियात की चीज़ें उनके साथ कीं और चालीस या सत्तर औरतें भी उनके साथ कीं जो मदीने तक उनके साथ गयीं।

तबरी लिखते हैं कि हज़रत अली ने उन्हें जब मदीने रवाना किया तो तमाम ज़रूरियात के साथ औऱतों की एक जमाअत भी साथ और बारह दिरहम भी बैतुलमान से मरहमत फ़रमाये।

मसऊदी का बयान है कि हज़रत अली ने आयशा के भाई अब्दुर रहमान बिन अबी बक्र और बीस औरतों व उन्तीस मर्दों को आयशा के साथ मदीने रवाना किया जो क़बीला ए अब्दुल क़ैस और क़बीला ए हमदान से थे।

जंगे जमल के नताइज

जंगे जमल माहे जमादी उस्सानी 36 हिजरी नवम्बर 656 ईस्वी में वाक़े हुई। मुवर्रेख़ीन ने इस जंग के हौलनाक व इबरतनाक नताइज पर भी रौशनी डाली हैं मक़तूलीन के बारे में मुख़तलिफ़ रवायते हैं। याक़ूबी का बयान है कि मजमूई तौर पर इस जंग में तीस हज़ार से ज़्यादा अफ़राद क़त्ल हुए। ( 7)

(इस किताब को आप “अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क ” पर पढ़ रहे है।)

अल्लामा इब्ने अबदरबान ने अक़दुल फ़रीद में तहरीर फ़रमाया है कि हज़रत आयशा के बीस हज़ार और हज़रत अली की तरफ़ से पांच सौ अफ़राद क़त्ल हुए। ( 8)

इब्ने आसम का कहना है कि हज़रत अली की फ़ौज के एक हज़ार सात सौ और आयशा की फ़ौज के नौ हज़ार आदमी मक़तूल हुए और तबरी की बाज़ रवायतों से ये तादाद छः हज़ार मालूम होती है। मगर मुख़तलिफ़ मुसददिक़ा रवायत का ख़ुलासा ये है कि उम्मुल मोमिनी आयशा के तीस हज़ार के लशकर में से बीस हज़ार और हज़रत अली की फ़ौज में एक हज़ार सत्तर अफ़राद मक़तूल हुए।

तबरी वग़ैरह ने असहाबे जमल से रवायत की है कि उनका कहना हैः-

जंग के दिन हम लोगों ने दौरान तीर चलाये और जब वो ख़त्म हो गये तो नैज़ा बाज़ी की यहां तक की वो हमारे और अलवी लशकरियों के सीनों में इस तरह गुथ गये थे कि उन नैज़ों पर से लशकर गुज़र सकता था। ( 9)

अबदरबा ने बाज़ लोगों का बयान नक़्ल किया है कि जब मैं धोबियों के मोहल्ले से गुज़रा और कपड़ों को तख़्तों पर पटख़ने की आवाज़ सुनीं तो मुझे जमल की वो तलवारें याद आ गयीं जो लोगों के सरों पर पड़ रहीं थी। ( 10)

इस जंग में कितने हाथ कटे , कितनी आंखे फ़ूटीं इसका तसव्वुर नहीं किया जा सकता।

बहरहाल इस जंग का ज़ाहिरी सिलसिला आयशा की शिकस्त और हज़रत अली की फ़त्ह पर ख़त्म हुआ लेकिन अगर ग़ौरों फ़िक्र की निगाहों से देखा जाये तो ये जंगी तसलसुल मुद्दतों क़ायम रहा और इस जंग से जंगे सिफ़्फ़ीन और जंगे सिफ़्फ़ीन से जंगे नहरवान ने जन्म लिया और नहरवान के बाद क़त्लों ग़ारतगरी का यही सिलसिला बनी अब्बास के दौर तक क़ायम रहा।

अगर उम्मुल मोमिनीन आयशा तल्हा और ज़ुबैर मैदाने जमल में न उतरते तो माविया हज़रत अली के मुक़ाबले में फ़ौजकशी की जसारत न करता। उसे ये बहाना मिल गया कि वो भी इन्तिक़ामे ख़ूने उस्मान पर अपनी ख़िलाफ़त को मूरूसी बनाने के लिए हज़रत अली से जंग छेड़ दे जिसका रास्ता हज़रत आयशा की निस्वानी और नाक़िस हिकमते अमली ने हमवार किया था। माविया का ये ख़्याल था कि उम्मुल मोमिनीन क़बीला ए बनी तैम की फ़र्द हो कर क़िसासे ख़ूने उस्मान के लिए हज़रत अली के मुक़ाबले में खड़ी हो सकती है तो वो क्यों नहीं खड़े हो सकते जबकि वो उस्मान के हमक़बीला और अज़ीज़ भी हैं।

यही वो मज़बूत सियासी हीला था जिसे माविया ने जंग के जवाज़ में पेश किया और क़िसासे ख़ूने उस्मान के नाम पर लोगों को भड़का कर जंगे सिफ़्फ़ीन बरपा की। उन्होंने पहले अपने इलाक़ाई इक़तिदार का तहफ़्फ़ुज़ किया फिर ख़लीफ़ातुल मुस्लिमीन बन बैठे।

जंगे जमल और जंगे सिफ़्फ़ीन ही के नतीजे में ख़वारिज फ़िर्क़े का वुजूद अमल में आया जिस ने नहरवान में हज़रत अली पर ख़ुरूज किया और आगे चल कर यही ख़वारिज जुम्ला सलातीने मुम्लिकत के लिए दर्दे सर बने। हर हुकूमत से बरसरे पैकार हुए। क़त्लो ग़ारतगरी उनका शेवह था , राहज़नी और डकैती को वाजिब समझते थे और जावजा छापे मार कर अम्नों अमान को दरहमों बरहम किया करते थें।

ख़वारिज अपने अलावा तमाम मुसलमानों को काफ़िर समझते थे।

उनका नज़रिया था कि हज़रत आयशा , तल्हा और ज़ुबैर हज़रत अली से लड़ने के बाद काफ़िर हो गये , अली उस दिन हक़ पर थे लेकिन तहकीम के बाद (मआज़ल्लाह) वो भी हक़ पर नहीं रहे। ( 11)

इन जंगों का फ़ितरी और लाज़मी नतीजा ये भी होना था कि मुसलमान मुख़तलिफ़ फ़िर्क़ों में तक़सीम हो जाये , चुनान्चे यही हुआ कि कुछ अलवी हो गये , कुछ उस्मानी और कुछ खवारिज नीज़ इसी क़िस्म के और फ़िर्क़े जो एक दूसरे के दुश्मन हो गये और एतिक़ादी जंग शुरू हो गयी।

अबू बकर व उमर का दौरे हुकूमत और आयशा

रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के अहद में हज़रत आयशा की पूरी ज़िन्दगी खेलकूद , हंगामा आराई , धमा चौकड़ी , नफ़रतो अदावत , रश्को हसद इख़तेलाफ़ और लड़ाई झगड़े में गुज़री जिसकी वजह से रसूल को भी बाज़ मवाक़े पर सख़्त अज़ीयतों और दुशवारियों में मुब्तिला होना पड़ा।

रसूलल्लाह (स.अ.व.व) की शहादत के बाद आपकी मनचली तबीअत क़दरे सन्जीदगी की तरफ़ माएल हुई। अबू बकर का ज़माना आपकी ज़िन्दगी और शख़्सियत साज़ी का बेहतरीन ज़माना था। बाप की हुकूमत का सुकूनों आराम मयस्सर था , ख़ुशहाली और कामरानी आपके क़दमों में थी , सियाह-सफ़ेद का इख़्तियार हासिल था , गोया आप मलका ए वक़्त थीं और कुल सल्तनत आप ही की थी।

इब्ने सअद का कहना है कि अहदे अबू बकरो उमर में हज़रत आयशा फ़तवे दिया करती थीं और अकाबेरीने सहाबा उनसे पैग़म्बर के अहकामात मालूम किया करते थे। ( 1)

अबू बकर के बाद उमर के दौरे हुकूमत में भी आपको वही अज़मतों मन्ज़ेलत मयस्सर रही। ख़लीफ़ा ए वक़्त ने तमाम अज़्वाजे रसूल का सालाना वज़ीफ़ा दस हज़ार मुक़र्रर किया था लेकिन आपकी ख़ुसूसी मुराआत के तहत बारह हज़ार मिलते थे। ( 2)

(ज़ुक़वान) ग़ुलामे आयशा का बयान है कि एक मरतबा ईराक़ से उमर के पास एक सन्दूक भेजा गया जो बेशक़ीमत जवाहरात से भरा हुआ था , उमर ने लोगों से दर्याफ़्त किया कि अगर तुम लोग कहो तो मैं ये सन्दूक आयशा को दे दूं क्यों कि वह रसूल की चहीती हैं , सब ने मन्ज़ूर कर लिया और उमर ने वो सन्दूक आयशा को नज़्र कर दिया। ( 3)

हज़रत आयशा की क़द्रो मन्ज़िलत का अन्दाज़ा इस वाक़ेए से होता है कि 23 हिजरी में उमर आख़िरी हज के लिये तैय्यार हुए तो ज़ैनब और सौदा के अलावा दीगर उम्माहातुल मोमिनीन के साथ आयशा ने भी हज की ख़्वाहिश की जिसे उमर ने ब सरो चश्म मन्ज़ूर ही नहीं किया बल्कि ये हुक्म भी दिया कि सामाने सफ़र के साथ उम्मुल मोमिनीन के लिए ख़ुसूसी इन्तिज़ामात भी किये जायें और जुम्ला आसाइशें भी मुहय्यां की जायें।

चुनांचे अमारियां आरास्ता की गयीं और उन पर सब्ज़ रंग के ख़ुशनुमा पर्दे डाले गये। उस्मान बिन उफ़्फ़ान और अब्दुर रहमान बिन औफ़ ऊंटों की सारबरानी पर मुक़र्रर हुए और उम्मुल मोमिनीन इस शानो शौकत और जाहो जलाल के साथ दीगर अज़्वाज के हमराह हज के लिए रवाना हुईं कि उनके नाक़े के आगे उस्मान थे जो चीख़ चीख़ कर ये आवाज़ देते जाते थे कि...... होशियार........ ख़बरदार...... इधर को कोई रूख़ न करे और न नज़र उठा कर देखने की कोशिश करे अज़्वाजे पैग़म्बर के साथ उम्मुल मोमिनीन महवे सफ़र हैं। अब्दुर रहमान बिन औफ़ काफ़िले के पीछे चल रहे थे और उनकी भी वही हालत थी जो उस्मान की थी। ( 4)

उम्मुल मोमिनीन ज़ैनब और सौदा ने इस सफ़र में आयशा का साथ इस लिये नहीं दिया कि उनका कहना था कि अब ऊंट की पीठ हमें हरकत नहीं दे सकती। रसूले ख़ुदा के साथ हमने हज भी कर लिया और उमरा भी , अब हमारे लिये ख़ुदा का हुक्म यही है कि हम घर में बैठे।

ग़रज़ की हज़रत आयशा ख़ुसूसी तवज्जो और इनायात का अज़ीम मरकज़ थीं। ख़लीफ़ा ए सानी के दौर में उन्हें जो मरतबा हासिल हुआ वो किसी को भी नसीब न हो सका। आयशा भी उमर का पूरी तरह एहतिराम करती थीं और उन दोनों के क़ौलो अमल में बड़ी हद तक यकसानियत भी थी। बुख़ारी , बैअते उस्मान के वाक़ेआत में और इब्ने सअद ने तबक़ात में एक तवील रवायत नक़ल की है जिससे दोनों के ख़्यालात की हम आहंगी का पता चलता है , इस रवायत को नज़र अन्दाज़ कर देना ही मेरे ख़्याल से मुनासिब है।

अल्लामा इब्ने अबदरबा ने अक़्दे फ़रीद में मिम्बराने शूरा की ज़बानी उमर की गुफ़्तुगू नक़ल की है जिसका खुलासा ये है कि उमर की वसीयत ये थी कि मेरे बाद तुम लोग आयशा के हुजरे में ही ख़लीफ़ा का इन्तिख़ाब करना चुनान्चे उमर की तदफ़ीन हो चुकी तो मिक़दाद बिन अस्वद ने आयशा की मर्ज़ी से अरकाने शूरा को उनके घर में इकट्ठा किया , अमरे आस और मुगीरा बिन शैबा भी दरवाज़े पर आकर बैठ गये लेकिन सअद ने उन्हें पत्थर मार कर भगा दिया और कहा कि कल तुम दोनों भी अपने आप को मिम्बराने शूरा में शुमार करने लगोगे और लोगों से कहोगे कि हम भी शूरा में मौजूद थे। ( 5)

उमर ने अपनी ज़िन्दगी के आख़िरी लम्हों तक आयशा का पासो लिहाज़ किया और इम्तियाज़ी और तरजीही सुलूक़ को बदस्तूर रवा रखा और उन्हें इस क़ुव्वतो ताक़त का मालिक बना दिया कि बाद में वो हर हुकूमत से टकरायी और उसे लिए दर्दे सर बन गयी।

उमर अगर एक तरफ़ हज़रत आयशा की ज़ात से वालिहाना अक़ीदतों मुहब्बत रखते थे तो दूसरी तरफ़ अपने मौकिफ़ में इन्तिहाई सख़्त भी थे जिसका अन्दाज़ा उल्लामा मुहिबउद्दीन तबरी की इस रवायत से होता है। वो तहरीर फ़रमाते हैः-

जब अबू बकर का इन्तिक़ाल हो गया तो आयशा ने ग़म में सफ़े मातम बिछाई और गिरया ओ मातम का एहतिमाम किया। उमर को जब ये ख़बर मालूम हुई तो वो कुछ हमराहियों के साथ आ धमके और दरवाज़े पर खड़े हो कर अपनी गरजदार आवाज़ में गिरयाओ मातम से मना करने लगे मगर जब आयशा और दूसरी औरतें रोने से बाज़ न आयीं तो उमर ने हिशाम बिन ख़ालिद को हुक्म दिया कि घर में घुस जाओ और रोने वालियों को ज़बरदस्ती घसीट लाओ। हिशाम घर में अन्दर घुस गया और आयशा की बहन उम्मे फ़रवा को ख़ींचता हुआ बाहर ले आया। उमर ने रोने के जुर्म में उम्मे फ़रवा को इतने दुर्रे मारे कि वो लहू लुहान हो गयीं।

बज़ाहिर उम्मे फ़रवा और आयशा का जुर्म एक था मगर उमर ने उम्मे फ़रवा को जदोकोब करने के बाद आयशा को छोड़ दिया , शायद इस लिये कि उनकी हुकूमत आयशा की मरहूमे मिन्नत थी।

उमर के इस इक़दाम पर आयशा जितनी भी फ़ख़्र करें कम है क्यों कि उमर ने उनका वो पासो लिहाज़ किया जो रसूल के बाद उनकी कुदसी सिफ़ात बेटी फातेमा ज़हारा (स.अ.) का भी नहीं किया।

तबरी की इस रवायत से ये भी पता चल गया कि ग़मे हुसैन (अ.स) में गिरयाओ मातम के ख़िलाफ़ बिदअत के फ़तवे इसी उमरी सीरत पर अलक का शाख़साना है।

1. तबक़ातः- जिल्द 8 पेज न. 375

2. मुसतदरक हाकिम ज़िक्रे आयशा फ़िस सहाबियात व किताबुल ख़िराजः- 25

3. तबक़ात इब्ने सअदः- जिल्द 8, पेज न. 208- 209

4. तबक़ातः- जिल्द 8 पेज न. 208- 209

5. अब्दुल फ़रीदः- जिल्द 4 पेज न. 275

उस्मान का दौरे हुकूमत और आयशा

ख़िलाफ़ते उस्मानियां के इब्तिदाई छः बरसों में हज़रत आयशा उस्मान की सरगर्म हिमायती रहीं और क़दम क़दम पर उनकी इताअत करती रहीं। उसके बाद दोनों के दर्मियान इख़तिलाफ़ पैदा हो गया। इस इख़तिलाफ़ की वजह यह बताई जाती है कि , उमर ने तमाम अज़्वाजे पैग़म्बर (स.अ.व.व) का सालाना वज़ीफ़ा 10 हज़ार मुक़र्रर किया था और आयशा को बारह हज़ार देते थे। उस्मान ने दो दो हज़ार कम करे उनका वज़ीफ़ा भी दीगर अज़्वाज के मसावी कर दिया।

रफ़्ता रफ़्ता इसी मुख़ालिफ़त ने ख़तरनाक सूरत इख़तियार कर ली और आयशा खुल कर उस्मान से मुक़ाबले के लिये मैदान में उतर आयीं। उन्होंने मुसलमानों को वरग़लाया , भड़काया और आमादा ए पैकार किया और फ़तवा दिया कि उस्मान काफ़िर हो गया है इस नअसल को क़त्ल कर दो।

जब मुसलमान उस्मान के ख़िलाफ़ पूरी तरह मुशतइल और बरगश्ता हो गये और हालात इन्तिहाई नाज़ुक मोड़ पर आ गये तो आप मदीना छोड़ कर हज के बहाने से मक्के रवाना हो गयीं। आपके जाते ही आपके हिमायती तल्हा ज़ुबैर वग़ैरह की मदद से आम मुसलमानों को आमादा कर के हुकूमते उस्मान का तख़्ता पलट दिया और उस्मान बड़ी बेदर्दी से मौत के घाट उतार दिये गये।

बलाज़री का कहना है किः-

हज़रत आयशा की वो पहली ज़ात है जिसने उस्मान की मुख़ालिफ़त में आवाज़ बलन्द की , उनके मुख़ालिफ़ीन के लिये जाए पनाह बनीं और उनसे आमादा ए पैकार लोगों की क़ियादत की। उस वक़्त पूरी ममलेकते इस्लामिया में हज़रत अबू बकर के ख़ानदान से बढ़ कर उस्मान का दुश्मन न था। ( 1)

हज़रत उस्मान से आयशा के इख़तिलाफ़ का सबब उनके वज़ीफ़े में तख़फ़ीफ़ के अलावा वो ज़ियादतियां मज़ालिम और तशद्दुद भी थे जिन्हें उस्मान और उनके आमिलों ने आम मुसलमानों पर रवा रखे थे और जिनकी वजह से मुसलमानों और असहाबे पैग़म्बर (स.अ.व.व) में ग़मों ग़ुस्सा और बरहमी की लहर पैदा हो चुकी थी। तल्हा और ज़ुबैर की वो मिली भगत भी थी जिसके ज़रिये वो लोग हुकूमतो अमारत के ख़्वाहां थे और जिसकी हक़ीक़ी तस्वीर जंगे जमल के मौक़े पर उभर कर सामने आयीं।

इस दलील के तमाम हालात और वाक़ेआत को हम अपनी किताब अल ख़ुलफ़ा हिस्सा दोम में मुफ़स्सल तौर पर तहरीर कर चुके हैं मुनासिब होगा कि कारेईने किराम उस किताब का मुतालिआ फ़रमायें।

क़त्ले उस्मान पर आयशा के ख़िलाफ़ सहाबा की गवाहियां

(माख़ज़ अज़ अल ख़ुलफ़ा)

(हिस्सा दोम)

मुग़ीरा एक दिन आयशा के पास आया तो उन्होंने उस से फ़रमाया कि ऐ अबू अब्दुल्लाह ! काश तुम जंगे जमल में देखते कि तीर किस तरह मेरे हौदज को तोड़ कर निकल रहे थे। मुग़ीरह ने कहा काश उन तीरों में से कोई तीर आपका ख़ात्मा कर देता। आयशा ने फ़रमाया , आख़िर क्यों ? मुग़ीरह ने कहा तुम्हारे क़त्ल से उस सइए क़त्ल का कफ़्फ़ारह हो जाता जो उस्मान के लिये आपने की है। ( 2)

सअद इब्ने अबी विक़ास

सअद से एक शख़्स ने पूछा कि उस्मान का क़ातिल कौन है ? उन्होंने कहा , उस तलवार से क़त्ल हुए जो आयशा ने खींची थी। ( 3)

इब्ने कलाब

हिसारे उस्मान के वक़्त आयशा मक्के चली गयी थी और जब उस्मान क़त्ल हो गये तो मक्के से फिर मदीने की तरफ़ पलटीं। सर्फ़ के मक़ाम पर इब्ने कलाब से मुलाक़ात हुई , पूछा , क्या ख़बर है ? कहा उस्मान क़त्ल कर दिये गये। ये सुन कर आयशा फिर मक्के की तरफ़ पलटीं और फ़रमाया उस्मान बे गुनाह क़त्ल हुए।

इब्ने कलाब ने कहा , आप ही ने उस्मान का क़त्ल चाहा आप ही वो हैं कि जिसने ये फ़तवा दिया कि नअसल को क़त्ल कर डालों क्यों कि ये काफ़िर हो गया है। ( 4)

अम्मार बिन यासिर

उस्मान के क़त्ल होने पर आयशा ने शोर मचाया कि उस्मान बे गुनाह क़त्ल हुए। उस पर अम्मार ने कहा , कल तुम उनके क़त्ल के लिये लोगों को भड़काती थीं और आज शोर मचाती हो। ( 5)

हज़रत आयशा का इक़रार

जब अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली (अ.स) के बैअत की ख़बर आयशा को मिली तो वो उस वक़्त मदीने में नहीं थी। उनसे कहा गया कि उस्मान क़त्ल हो गये और अली के हाथ पर बैअत हो गयी। ये सुन कर आयशा ने कहा , मुझे परवाह नहीं , अगर ज़मीनों आसमान मुझ पर फट पड़ें। ख़ुदा की क़सम उस्मान बेगुनाह क़त्ल हुए और अब मैं उनके ख़ून का इन्तिक़ाम लूंगी। उस पर उबैद ने कहा , ऐ उम्मुल मोमिनीन ! सबसे पहले जिसने उस्मान पर तअन की और लोगों को उनके क़त्ल पर उभारा वो आप थीं और आप ही ने कहा कि इस नअस्ल को क़त्ल कर डालो क्यों कि ये काफ़िर हो गया है। आयशा ने कहा , हां ख़ुदा की क़सम मैंने ये ज़रूर कहा और किया , मगर दूसरा क़ौल पहले क़ौल से बेहतर है। उबैद ने कहा , हमारे नज़दीक क़ातिल वो है जिसने क़त्ल का हुक्म दिया। ( 6)

अमरए आस

इब्ने क़ैबा ने अपनी किताब अल इमामत वल सियासत में तहरीर किया है कि जिस वक़्त उस्मान क़त्ल हुए अमरए आस फ़िलिस्तीन में था। उसे ख़बर मालूम हुई तो उसने सअद इब्ने अबी विक़ास को ख़त लिख कर पूछा कि उस्मान को किसने क़त्ल किया। जवाब में सअद ने लिखा , कि उस तलवार से उस्मान क़त्ल हुए जो आयशा ने तैय्यार की थी और तल्हा ने उस पर सैक़ल की थी। ( 7)

ये वो तारिख़ी शवाहिद हैं जो इस सरबस्ता राज़ पर पड़े हुए पर्दे को चाक कर देते हैं कि उस्मान का अस्ल क़ातिल कौन है ? अब सवाल ये है कि अगर आयशा ने उस्मान के क़त्ल का हुक्म दिया और इस हुक्म के अमल दर आमद पर मुसलमानों को हमवार किया तो फिर उस्मान के क़त्ल हो जाने के बाद उन्होंने ख़ूने उस्मान के क़िसास का नारा क्यों बलन्द किया जिसके नतीजे में जंगे जमल के नाम से एक हौलनाक हादसा रूनुमा हुआ। इसका जवाब यह है कि सियासी नुक़्ता ए नज़र से आयशा के लिए इससे बेहतर कोई सूरत नहीं थी कि मुसलमानों को फ़रेब में मुब्तिला कर के अपने दामन से क़त्ले उस्मान के धब्बों को साफ़ कर लें।

दूसरे ये कि वो दुश्मनी और अदावत जो हज़रत अली (अ.स) की तरफ़ से आपके दिल में थी उसके इन्तिक़ाम के लिये भी ज़रूरी था कि वो इस मौक़े से फ़ायदा उठाते हुए मैदाने कारज़ार गर्म कर दें। अगर जंग में ये कामयाब हो जातीं तो उनकी सारी दिली मुरादें पूरी हो जातीं यानी हज़रत अली (अ.स) भी क़त्ल हो जाते और हुकूमत की बागडोर भी उनके हाथों में आ जाती।

क्यों कि आयशा , तल्हा , ज़ुबैर और माविया इन चारों में हर एक ये चाहता था कि वो इक़्तिदार का मालिक बने। हज़रत आयशा की सियासत ये भी कि अगर मैं किसी वजह से इक़्तिदार की मालिक न बन सकूं तो मेरी बहन का लड़का अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर इस मनसब पर फ़ाइज़ हो। यही वजह थी कि उस्मान के क़त्ल में उन्होंने अपना पूरा सियासी ज़ोर सर्फ़ कर दिया।

1. अल निसाबुल अशरफ़ः- जिल्द 5, पेज न. 68

2. अक़दुल फ़रीदः- जिल्द 2, पेज न. 190

3. अल इमामत वल सियासतः-पेज न. 49, अक़दुल फ़रीदः- जिल्द 3 पेज न. 188

4. अक़दुल फ़रीदः- जिल्द 3 पेज न. 187

5. तारीख़े कामिलः- जिल्द 3, पेज न. 80

6. कामिलः- जिल्द 3 पेज न 80, तबरीः- जिल्द 3, पेज न. 173

7. अल इमामत वल सियासतः- पेज न. 54

अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली (अ.स) के ख़िलाफ़ आयशा का मौक़फ़

एक मुहक़्क़िक़ की जुस्तुजू हज़रत अली इब्ने अली तालिब अलैहिस्सलाम के ख़िलाफ़ आयशा के मौक़फ़ में अहले बैत से दुश्मनी और अदावत के अलावा और कुछ नहीं पाती ये भी एक मोज़िजा है कि आले रसूल (स.अ.) ख़ुसूसन हज़रत अली (अ.स) से आयशा की दुश्मनी और अदावत को तारीख़ ने क़यामत तक के लिए महफ़ूज़ कर लिया है। चुनान्चे बुख़ारी का बयान है कि हज़रत अली से आयशा का बुग़्ज़ो हसद इस नुक़्ताए उरूज पर था कि वो अमीरूल मोमिनीन का नाम लेना भी गवाराह नहीं करती थीं। ( 1)

अल्लामा एहसान उल्लाह गोरखपुरी ने अपनी तारीख़े इस्लाम में तहरीर किया है कि अली और फातेमा (स.अ) से आयशा का रश्को हसद मुख़तलिफ़ वाक़ेआत से गुज़र कर नफ़रत की हदों तक पहुंच गया था। ( 2)

इमाम अहमद बिन हम्बल का कहना है कि एक रोज़ अबू बकर रसूल अल्लाह की ख़िदमत में हाज़िर हुए और बारयाबी की इजाज़त चाही लेकिन घर में दाख़िल होने से क़ब्ल उन्होंने आयशा की आवाज़ सुनी जो चीख़ चीख़ कर बुलन्द आवाज़ में पैग़म्बर (स.अ.व.व) से कह रहीं थी कि ख़ुदा की क़सम आप अली को मुझसे और मेरे बाप से ज़्यादा चाहते हैं। ( 3)

इब्ने अबुल हदीदे मोअतज़ेली का बयान है कि एक दिन रसूल अल्लाह (स.अ.व.व) हज़रत अली (अ.स) के हमराह गुफ़्तुगू करते हुए जा रहे थे , आयशा उनके पीछे पीछे चल रही थीं , अचानक मोअज़्ज़मा की रग भड़क गयी और वो रसूल अल्लाह और अली के दरमियान हायल होते हुए कहने लगीं कि बस बहुत हो चुकी अब ख़त्म करो इस गुफ़्तुगू को आयशा की इस नाशाइस्ता हरकत पर रसूले अकरम बेहद ग़ज़बनाक हुए। ( 4)

मसरूफ से एक रिवायत है कि मैं उम्मुल मोमिनीन आयशा की ख़िदमत में हाज़िर था और उनसे मसरूफ़े गुफ़्तुगू था कि इतने में आयशा ने अब्दुर रहमान के नाम से अपने एक हब्शी ग़ुलाम को आवाज़ दी वो आकर खड़ा हो गया। आयशा ने मुझ से फ़रमाया कि मसरूफ़ तुम्हे मालूम है कि इस ग़ुलाम का नाम अब्दुर रहमान क्यों रखा ? मैं ग़ौर ही कर रहा था कि फिर फ़रमाया कि चूंकि अब्दुर रहमान इब्ने मुलजिम अली क़ा क़ातिल था इस लिये ये नाम मुझे बहुत अज़ीज़ है और मैं इस नाम से इन्तिहाई मोहब्बत करती हूं।

इस वाक़ेए को अल्लामा शेख़ मुफ़ीद (र) ने अपनी किताब अल जमल में तहरीर फ़रमाया है और उस में शेख़ अबू जाफ़रे तूसी (र) ने अपनी किताब अशशाफ़ी जिल्द 4 स. 158 पर नक़्ल किया है।

गुजश्ता सफ़हात में हम अहलेबैत से आयशा की अदावत के नाम से तहरीर कर चुके हैं कि हज़रत अली की शहादत पर आयशा ने शुक्र का सज्दा किया मसर्रतों शादमानी का इज़हार फ़रमाया और तरबिया अशआर पढ़े।

आप हसनैन अलैहेमुस्सलाम से पर्दा करती थीं और जब इमाम हसन (अ.स) की शहादत वाक़ेए हुए तो उनके जनाज़े को रसूल (स.अ.व.व) के रौज़े में दफ़्न नहीं होने दिया हद ये है कि ख़ुद खच्चर पर सवार हो कर निकल पड़ी और इमाम के जनाज़े पर इतने तीर बरसाये कि सत्तर तीर जसदे अतहर में पेवस्त हो गये।

(इस किताब को आप “अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क ” पर पढ़ रहे है।)

ये वो तारीख़ी हक़ाएक़ हैं जिन से इन्कार की कोई गुन्जाइश नहीं है।

क़त्ले उस्मान के बाद जब ख़िलाफ़त हज़रत अली की तरफ़ मुनतक़िल हुई तो आप मक्के से मदीने की तरफ़ वापस आ रही थीं , रास्ते में मालूम हुआ कि अली की बैअत हो गई तो फ़रमाने लगीं कि मुझे आसमान का फट पड़ना गवारा है मगर अली का ख़लीफ़ा होना गवारा नहीं। फिर आप क़िसासे ख़ूने उस्मान का सहारा ले कर उठ खड़ी हुई , लशकर जमा किया जिसके नतीजे में एक ऐसी ख़ूंरेज़ हौलनाक और तबाह कुन जंग हुई जो तारीख़ में जंगे जमल के नाम से याद की जाती है।

1. सहीह बुख़ारीः- जिल्द 1 पेज न. 162, जिल्द 5 पेज न. 140

2. तारीख़े इस्लामः- पेज न. 258

3. मसनद अहमद बिन हम्बलः- जिल्द 4 पेज न. 275

4. शरह नहजुल बलाग़ाः- जिल्द 9 पेज न. 195

जंगे जमल की तैयारियां और उसका पस मंज़र

दुनिया की ख़ूनी जंगों में जंगे जमल वो हौलनाक और हलाकत ख़ेज़ जंग है जो ख़िलाफ़ते अली के इब्तिदाई दौर में क़िसासे ख़ूने उस्मान के नाम से लड़ी गयी।

इस तबाहकुन और ख़ुंरेज़ जंग के अफ़सोसनाक नताइज और इफ़तेराक़ बैनल मुस्लिमीन की तमामतर मुजरिमाना ज़िम्मेदारियां हज़रत आयशा , तल्हा और ज़ुबैर पर आइद होती है जो इन्तिक़ामे ख़ूने उस्मान की आड़ में अमीरूल मोमिनीन बनने का जज़्बा ले कर तलवारों के साथ उठ खड़े हुए थे। हालांकि यही लोग उस्मान की ज़िन्दगी में उनके सख़्त मुख़ालिफ़ रहे , यहां तक कि इन्ही की कोशिश से तीसरे ख़लीफ़ा बड़ी बेदर्दी के साथ मौत के घाट उतार दिये गये।

उस्मान के ख़िलाफ़ लोगों को भड़काने उकसाने और वरग़लाने में हज़रत आयशा का किरदार बहुत ही अहम है। वो इस अम्र से बख़ूबी वाक़िफ़ थीं कि रसूले अकरम (स.अ.व.व) से वालिहाना अक़ीदत की बिना पर मुसलमान हुज़ूरे (स.अ.व.व) के जिस्मे अतहर से मस होने वाले वाक़िआत और आसार की ज़ियारत को तरस रहे हैं लिहाज़ा इन्ही वाक़िआत का तवस्सुल उस्मानी हुकूमत का तख़ता पलट देने के लिये काफ़ी है। जब ये चीज़े मुसलमानों के सामने रखी जायेंगी तो वो जज़्बात से मग़लूब होकर बेक़ाबू हो जायेंगे और उनके दिलों में एक हैज़ानी कैफ़ियत पैदा हो जायेगी।

हज़रत आयशा का ये हर्बा , यक़ीनन असरदार तरीन हर्बा था। चुनान्चे उन्होंने सरकारे दो आलम की नअलैने मुबारक और पैराहने अक़दस का सहारा लिया और ये दोनों चीज़े मुसलमानों के सामने रख कर माइल ब फ़रयाद हुई कि अभी ये चीज़ें कोहना भी नहीं होने पायीं कि उस्मान ने आं हज़रत (स.अ.व.व) की शरीअत को एकदम बदल कर रख दिया। काश ! इस नअसल को कोई क़त्ल कर दे क्यों कि ये काफ़िर हो गया है।

हज़रत आयशा की ये सियासी तदबीर किसी तरह सऊदी पेट्रोल से कम न थी। इसने उस्मान के ख़िलाफ़ सुलगती हुई चिंगारी को शोला बना दिया। आवाम में ग़मों ग़ुस्से की आग भड़क उठी , और मुख़ालेफ़ीन के बिखरे हुए सैलाब ने क़सरे ख़िलाफ़त को चारों तरफ़ से घेर लिया। जब आपने देखा कि मुख़ालिफ़ीनो मोहासेरीन की गिरफ़्त मज़बूत हो चुकी है तो ज़ैद इब्ने साबित , मरवान बिन हकम और अब्दुर रहमान बिन उताब की मिन्नत समाजत के बवजूद उस्मान को मुहासरे में छोड़ कर हज के बहाने से मक्के रवाना हो गयीं। सफ़र के दौरान भी उस्मान के ख़िलाफ़ आपका तब्लीग़ी अमल जारी रहा। चुनान्चे मदीने से कुछ दूर निकल कर सलसल के मक़ाम पर जब आपकी मुलाक़ात इब्ने अब्बास से हुई जो अमीरे हज की हैसियत से मक्के जा रहे थे तो आपने उनसे भी फ़रमायाः-

ऐ इब्ने अब्बास ! ख़ुदा ने तुम्हे क़ुव्वते गोयाई अता की है तो लोगों को उस्मान की मदद से रोको और उनके बारे में उन्हें शको शुबहे में मुब्तिला करो रास्ता हमवार हो चुका है , मुख़ालिफ़ शहरों से लोग फ़ैसलाकुन अम्र के लिए मदीने में जमा हो चुके हैं। तल्हा ने बैतुल माल की कुंजियों पर क़ब्ज़ा कर लिया है अगर वो ख़लीफ़ा हो गये तो अपने इब्ने अम अबूबकर की सीरत पर अमल करेंगें। ( 1)

हज़रत आयशा की इस गुफ़्तुगू से ये अम्र पोशीदा नहीं रह जाता कि वो उस्मान के बाद तल्हा की ख़िलाफ़त का ख़्वाब देख रहीं थी और उनके ज़रिये इक़तिदार का रूख़ भी अपने ख़ानदान की तरफ़ मोड़ना चाहती थीं।

उस्मानी अहदे हुकूमत के इब्तिदाई छः सालों में हज़रत आयशा उस्मान की ख़ैरख़्वाह , हमनवा , तरफ़दार और मोईनों मददगार रहीं मगर उसके बाद मुख़ालिफ़ हो गयीं मुख़ालिफ़त की वजह ये बयान की जाती है कि हज़रत उमर ने अपने दौरे हुकूमत में अज़्वाजे रसूल का वज़ीफ़ा दस हज़ार मुक़र्रर किया था , लेकिन आयशा को तरजीही बुनियाद पर बारह हज़ार मिलता था।

उस्मान ने दो हज़ार कम करे उनका वज़ीफ़ा भी दीगर अज़्वाज के बराबर कर दिया था। जैसा कि याक़ूबी का कहना है किः-

हज़रत उस्मान और आयशा के दर्मियान मुख़ालिफ़त की वजह ये थी कि उस्मान ने उनका वज़ीफ़ा जो हज़रत उमर उन्हें दिया करते थे कम कर दिया। ( 2)

हज़रत उस्मान और उनके उम्माल की आमिराना रविश की वजह से सहाबा का एक गिरोह पहले ही से उस्मान का मुख़ालिफ़ था। मुस्तजाद ये कि आयशा की इश्तेआल अंगेज़ी ने उसे और हवा दी यहां तक कि उस मुख़ालिफ़त ने ज़ोर पकड़ लिया और लोग उस्मान के ख़िलाफ़ सरगर्मे अमल हो गये ख़ुसूसन तल्हा इब्ने उबैदुल्लाह और उनका क़बीला बनी तैम इस मुख़ालिफ़त में पेश पेश रहा जिसकी क़ाएद हज़रत आयशा थीं। उन लोगों ने क़त्ले उस्मान के असबाब फ़राहम करने में कोई कसर उठा नहीं रखी। बलाज़री रक़म तराज़ है किः-

तल्हा से बढ़ कर हज़रत उस्मान पर सख़्तगीर कोई नहीं था। ( 3)

तल्हा ने अपनी हिकमते अमली से मुहासेरीन में जोशो ख़रोश पैदा कर के उस्मान पर मुहासरे को मज़ीद तंग किया। उन पर पानी बन्द किया। रात के अन्धेरे में क़सरे ख़िलाफ़त पर तीरों की बारिश की और अब्दुर रहमान बिन अदबस को इस अम्र पर मजबूर किया कि वो उनके घर आने जाने वालों पर पाबन्दी आएद कर दें। चुनान्चे उस्मान को इन बातों का इल्म हुआ तो उन्होंने कहाः-

परवर दिगार मुझे तल्हा के शर से महफ़ूज़ रखे इसी ने लोगों को मेरे ख़िलाफ़ भड़काया है और मेरे गिर्द घेरा डलवा दिया। ( 4)

उस्मान के क़त्ल हो जाने के बाद तल्हा के रवय्ये में फ़र्क़ न आया। उनकी लाश पर पत्थर बरसाये और उन्हें जन्नतुल बक़ी में दफ़्न न होने दिया और यही हालत ज़ुबैर की भी थी कि वो मुहासेरीन के दर्मियान आयशा की इस बात को दोहराते रहते थे किः-

उस्मान को क़त्ल कर दो उसने तो तुम्हारे दीन ही को बदल दिया। ( 5)

यही वो लोग थे जिन्होंने क़त्ले उस्मान की बुनियाद रखी , और उनके ख़िलाफ़ ऐसी फ़ज़ा पैदा कर दी कि जिसके नतीजे में वो क़त्ल कर दिये गये। अगर उस्मान का क़त्ल वाक़ई जुर्म था तो ये लोग उस जुर्म से बरी हरग़िज़ नहीं क्यों कि क़ातिलों और मुजरिमों की मदद और पुश्त पनाही भी जुर्म है।

हज़रत आयशा को अपनी कामयाबी का यक़ीन था उनका बोया हुआ बीज फल ज़रूर देगा इस लिये वो क़त्ले उस्मान से बीस दिन पहले ही इस ख़्याल के तहत मदीने से खिसक लीं कि दुनिया उनको तमाम हंगामा आराइयों से बेताल्लुक़ तसव्वुर करे और जब उस्मान का काम तमाम हो जाये तो वो तल्हा या ज़ुबैर को बरसरे इक़्तिदार लाकर उस माली नुक़्सान की तलाफ़ी कर सके जो मौजूदा हुकूमत से उन्हें पहुंचा है। मगर वो अपने इस मक़सद में कामयाब न हो सकीं और उनकी अहम मौजूदगी में ही मुसलमानों ने हज़रत अली की ख़िलाफ़त का फ़ैसला कर लिया।

हज़रते उस्मान ने जो शूरा क़ायम किया था उसके रूक्न तल्हा और ज़ुबैर भी थे इस लिये उनका ज़हन भी ख़िलाफ़त के तसव्वुर से ख़ाली नहीं था , चुनान्चे क़त्ले उस्मान के सिलसिले की तमाम तर कोशिशें इसी मक़सद के हुसूल का नतीजा थीं मगर उन लोगों ने जब ये देखा कि लोग हज़रत अली की ख़िलाफ़त पर बज़िद हैं और उनके अलावा किसी की बैअत पर रज़ामन्द नहीं हैं तो उन लोगों ने भी राय आम्मा का रूख़ देख कर पेश क़दमी की और हज़रत अली की बैअत कर ली और दूसरे ही दिन ये मुतालिबा किया कि उन्हें कूफ़ा और बसरा की अमारत दे दी जाये। लेकिन हज़रत आली ने ये गवारा न किया कि उन इलाक़ों को जो हुकूमत के मुहासिल का सरचश्मा हैं उनकी बढ़ती हुई हिर्सो हवस की आमाजगाह बनने दें। चुनान्चे आपने ये कह कर इन्कार कर दिया की मैं तुम्हारे मामलात में जो बेहतर होगा वो करूगां , फ़िलहाल तुम दोनों का मेरे पास ही मरकज़ में रहना ज़्यादा बेहतर है।

तल्हा और ज़ुबैर समझ रहे थे कि कूफ़ा और बसरा में उनके असरात हैं और उन्हीं की आवाज़ पर वहां के लोग उस्मानी हुकूमत में इन्क़िलाब बरपा करने की ग़रज़ से जमा हुए थे इस लिये अमीरूल मोमिनीन उन असरो रूसूख़ से मुतास्सिर हो कर उन्हें कूफ़े और बसरे की हुकूमत का परवाना लिख देंगे। मगर मायूसी के अलावा उन्हें और कुछ हासिल न हुआ और उन्होंने समझ लिया कि अली (अ.स) के होते हुए उन्हें न तो मनमानी करने का मौक़ा फ़राहम होगा और न ही वो ख़ुसूसी मुराआत हासिल होंगी जो सबका हुकूमतों में हासिल थीं लिहाज़ा उन्होंने अपने मक़ासिद की तकमील के लिए ग़ैर आईनी ख़ुतूत पर सोचना शुरू किया और अपनी तवज्जो का रूख़ आयशा की नक़्लों हर्कत की तरफ़ मोड़ दिया ताकि उनके अज़ाइम की रौशनी में मुस्तक़बिल का प्रोगाम तरतीब दें।

हज़रत आयशा ये चाहती थीं कि उस्मान के क़त्ल के बाद , तल्हा को बरसरे इक़तिदार लायें और इस तरह ख़िलाफ़त को मुस्तक़िलन अपने क़बीले बनी तैम में मुन्तक़िल कर दें इस लिये की मक्के में क़याम के दौरान बलवाइयों की यूरिश का नतीजा मालूम करने के लिये बेचैन रहती थीं और हर आने जाने वाले से मदीने के हालात और उस्मान के अंजाम के बारे में मालूम करती रहती थीं। इसी अस्ना में मदीने से अख़ज़र नामी एक शख़्स मक्के आया। हज़रत आयशा ने उसे बुलवाकर पूछा कि मदीने की शोरिश अंगेज़ी का क्या नतीजा हुआ ? उसने कहा कि हज़रत उस्मान ने मिस्र के बलवाइयों को मौत के घाट उतार दिया है और शोरिशो हंगामें पर क़ाबू पा लिया है। इस ख़बर ने उनके सारे ख़्यालात का शीराज़ा दरहम बरहम कर दिया , उन्होंने तास्सुफ़ आमेज़ लहजे में कहाः-

इन्ना लिल्लाहे व इन्ना एलैहे राजेऊन ! क्या उन लोगों को उस्मान ने क़त्ल कर दिया जो अपना हक़ मांगने और ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ बलन्द करने की ग़रज़ से गये थे ? ख़ुदा की क़सम हम इस पर राज़ी नहीं हैं। ( 6)

अभी आयशा अफ़सुर्दगी की हालत में थी कि एक दूसरे शख़्स ने आकर ये इत्तिला दी कि अख़ज़र की बातें ग़लत हैं मिस्रियों में से कोई क़त्ल नहीं हुआ , वो खुले बन्दो मदीने में दनदनाते हुए फिर रहे हैं , अलबत्ता हज़रत उस्मान उन लोगों के हाथों मारे गये हैं। ये सुन कर उम्मुल मोमिनीन पर मसर्रतो शादमानी तारी हो गयी और उन्होंने मुस्कुराते हुए फ़रमायाः-

ख़ुदा उसे अपनी रहमत से दूर रखे , वो अपने करतूतों को पहुंच गया। ( 7)

इस ख़बर के बाद हज़रत आयशा के लिए मदीने जाना ज़रूरी हो गया ताकि तल्हा की ख़िलाफ़त का रास्ता हमवार करें और फ़िज़ा को उनके लिए अपने असरात से साज़गार बनायें।

चुनान्चे उन्होंने फ़ौरन सामाने सफ़र बांधा और मदीने की तरफ़ चल पड़ीं। लेकिन अभी मक्के से तक़रीबन 10 किलोमीटर का फ़ासला तय किया होगा कि सर्फ़ के मक़ाम पर उबैदुल्लाह इब्ने अबी सलमा से मुलाक़ात हुई। आपने उस्मान और मदीने के सियासी हालात के बारे में उस से दर्याफ़्त किया। उसने कहा हज़रत उस्मान क़त्ल कर दिये गये हैं पूछा , फिर क्या हुआ ? कहा ! मुसलमानों ने हज़रत अली की बैअत कर ली है। ये सुनते ही ज़मीन पैरो तले से ख़िसकने लगी और आसमान धुंवा बन कर उड़ता नज़र आने लगा। कानों को यक़ीन न आया तो फिर पूछा कि क्या वाक़ई अली की बैअत हो गयी है। भला उनसे ज़्यादा मसनदे ख़िलाफ़त का मुस्तहक़ और सज़ावार कौन था ? अब आयशा के लिये अपने जज़्बात पर क़ाबू रखना मुशकिल हो गया। तेवराकर गिरने ही वाली थीं कि बेसाख्ता उनकी ज़बान से निकलाः-

काश ये आसमान मुझ पर फट पड़े और मैं उसमें समा जांऊ। ( 8)

ग़रज़ कि मुअज़्ज़मा उल्टे पैरों मक्के की तरफ़ पलट पड़ी और रंजोग़म के स्टेज पर इन अलफ़ाज़ के साथ एक नया ड्रामा शुरू कर दियाः-

ख़ुदा की क़सम उस्मान मज़लूम मारे गये , मैं उनके ख़ून का इन्तिक़ाम ले कर रहूंगी। ( 9)

अब्दुल्लाह इब्ने अबी सलमा इस मुतज़ाद तर्ज़े अमल को देख कर हैरत और इस्तेजाब के दरिया में ग़र्क़ हो गया उसने आयशा से कहाः-

आप तो बार बार ये कहा करती थी कि इस नअस्ल को क़त्ल कर डालो ये काफ़िर हो गया है। ( 10)

अब ये तब्दीली कैसी ? कहाः-

हां ! पहले मैं यही कहा करती थी लेकिन अब ये मेरी राय पहली राय से ज़्यादा बेहतर है। हज़रत आयशा की इस बात से उबैद मुतमइन न हो सके। चुनान्चे उन्होंने कहा कि ऐ उम्मुल मोमिनीन ! ख़ुदा की क़सम ये इन्तिहाई बौदा उज़्र है। ( 11)

उसके बाद उबैद इब्ने अबी सल्मा ने हज़रत आयशा को मुख़ातिब कर के अरबी में कुछ शेर पढ़े , जिनका उर्दू तर्जमा हस्बे ज़ैल है।

1. आप ही ने पहल की आप ही ने मुख़ालिफ़त के तूफ़ान उठाये और अब आप अपना रंग बदल रही हैं।

2. आप ही ने ख़लीफ़ा के क़त्ल का हुक्म दिया और हम से कहा कि वो काफ़िर हो गया।

3. हमने माना की आपके हुक्म की तामील में ये क़त्ल हमारे हाथों से हुआ , मगर हमारे नज़्दीक अस्ल क़ातिल आप हैं जिस ने क़त्ल का हुक्म दिया।

4. (सब कुछ हो गया) मगर न आसमान हमारे ऊपर फट पड़ा और न चांद , सूरज को गहन लगा।

5. और लोगों ने उसकी बैअत कर ली जो क़ुव्वतों शिकोह से दुश्मनों को हकाने वाला है , तलवारों की धारों को क़रीब फ़टकने नहीं देता और गर्दन कशों के बल निकाल देता है।

उम्मुल मोमिनीन चूंकि जल्द अज़ जल्द मक्के पहुंच जाना चाहती थीं , इस लिये उन्होंने उबैद के अशआर पर कोई तवज्जो नहीं दी और आगे बढ़ गयीं। जब मक्के वापस पहुंची तो लोगों ने कहाः-

ऐ उम्मुल मोमिनीन ! अभी तो आप रवाना हुई थीं आख़िर पलट क्यों आयीं ? बोलीः-

उस्मान बेगुनाह मारे गये , मैं उनका ख़ून राएगां नहीं जाने दूंगी और उस वक़्त तक वापस नहीं जाऊंगी जब तक उनके ख़ून का इन्तिक़ाम नहीं ले लूंगी।

लोग उनकी साबेक़ा और मौजूदा रविश के तज़ाद पर सख़्त हैरान हो गये मगर कुछ कहने के बजाय ख़ामोश रहे। ग़रज़ कि आयशा ने उस्मान की मज़लूमियत का ढिडोंरा पीट पीट कर मक्के ही में हज़रत अली के ख़िलाफ़ एक मज़बूत महाज़ क़ायम कर लिया और जब तल्हा और ज़ुबैर को मालूम हुआ कि उनकी मादरे गिरामी मक्के में उस्मान की मज़लूमियत का प्रचार कर रही हैं और अली को उनके क़त्ल का ज़िम्मेदार ठहरा रही हैं तो उन्होंने अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर को चन्द ख़ुतूत के साथ चुपके से आयशा के पास मक्के रवाना किया और उस पर ज़ोर दिया कि वो क़िसासे ख़ूने उस्मान की तहरीक चलायें और जिस तरह मुम्किन हो मज़ीद लोगों को अली की बैअत से बाज़ रखें। इन पैग़ामात ने उनके इरादों को और मज़बूत किया और उन्होंने पूरे जोशो ख़रोश और ज़ोर शोर से क़िसासे उस्मान के नाम पर लोगों को दावत देना शुरू कर दी। चुनान्चे सब से पहले अब्दुल्लाह इब्ने आमिर ने जो उस्मान की तरफ़ से मक्के का गवर्नर था उनकी आवाज़ पर लब्बैक कही और सईद इब्ने आस और वलीद इब्ने उक़्बा भी उनके हमनवा बन गयें।

तल्हा और ज़ुबैर क़िसासे उस्मान की आड़ में हंगामा खड़ा कर के अपनी महरूमी और नाकामी का बदला लेना चाहते थें लेकिन मदीने की फ़ज़ा इस हंगामा आराई के लिए साज़गार न थी क्यों कि क़त्ले उस्मान के सिलसिले में अहले मदीना उनका किरदार देखे हुए थे। अलबत्ता मक्के में तहरीक कामियाब हो सकती थी क्यों कि उम्मुल मोमिनीन के अलावा साबिक़ा गवर्नरे मक्का मरवान बिन हकम और मदीने से निकल खड़े होने वाले दीगर बनी उमय्या वहां जमा हो गये थे। चुनान्चे उन दोनों (तल्हा ज़ुबैर) ने भी मक्का जाने का फ़ैसला किया और अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली (अ.स) से कहा कि हम लोग उमरा की नीयत से मक्के जाना चाहते हैं। लिहाज़ा हमें इजाज़त मरहमत फ़रमाये। अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली उनके तेवरों को फ़ौरन भांप गये कि ये लोग बैअत की जकड़ बन्दियों से निकल कर अपनी जोलानियों और शोरिशों का मरकज़ मक्के को बनाना चाहते हैं चुनान्चे आपने फ़रमायाः-

ख़ुदा की क़सम उनका इरादा उमरा का नहीं है कि ये लोग ग़द्दारी और फ़रेबदारी पर उतर आये हैं। ( 12)

अमीरूल मोमिनीन ने उन्हें समझाया कि तुम लोगों का मक्के जाना मुनासिब नहीं है मगर ये लोग बराबर इसरार करते रहे और अपनी ज़िद पर अड़े रहे बिल आख़िर हज़रत ने उन से दूबारा बैअत ले कर उन्हें मक्के जाने की इजाज़त दे दी और ये लोग भी मक्के पहुंच कर हज़रत आयशा की जमाअत के सरगर्म मिम्बर बन गये और बाक़ायदा क़िसास की मुहिम शुरू कर दी।

इस मुहिम को कामयाब बनाने के लिये सरमाये की ज़रूरत भी थी , उसका हल यूं निकल आया कि बसरा का माज़ूल हाकिम अब्दुल्लाह इब्ने आमिर बैतुलमाल की सारी पूंजी ले कर मक्के पहुंच गया और यमन से यअली इब्ने उमय्या छः लाख दिरहम और छः सौ ऊंट अपने साथ लाया और ये तमाम सरमाया जंगी इख़राजात के लिये महफ़ूज़ कर दिया गया।

अबुल फ़िदा ने तहरीर किया किः-

यअली तमाम पूंजी समेट कर निकल खड़ा हुआ और मक्के पहुंच कर आयशा तल्हा और ज़ुबैर के साथ हो गया और वो माल उनकी तहवील में दे दिया। ( 13)

अहले मक्का से भी सरमाया फ़राहम किया गया और माली एतबार से लोग मुतमइन हो गये। जंग तो बहरहाल एक तय शुदा अम्र थी मगर रज़्मगाह की तजवीज़ में फ़िक्रे लड़ी हुई थीं। चुनांचे हज़रत आयशा की रिहाइशगाह पर एक मीटिंग रखी गयी जिसमें सब लोग शरीक हुए। उम्मुल मोमिनीन की तजवीज़ थी कि मदीने पर हमला कर के उसे तराज़ो मिसमार किया जाये मगर कुछ लोगों ने इसकी मुख़ालिफ़त की और कहा कि अहले मदीना से जंग एक मुश्किल मरहला होगी लिहाज़ा किसी और मक़ाम को मरकज़ बनाना चाहिये। कुछ लोगों ने ये मशवरा भी दिया कि शाम को महाज़े जंग क़रार दिया जाये। इस पर इब्ने आमिन ने कहा कि माविया के होते हुए शाम में तुम्हारी ज़रूरत नहीं है। ( 14)

शाम को महाज़ क़रार देने ये शायद ये अम्र भी माने था कि माविया जिसने उस्मान का मातहत होते हुए भी उनकी मदद से गुरेज़ किया था , वो इन लोगों की मदद पर क्यों आमादा होता ? फिर जिसने हज़रत अली की ख़िलाफ़त को क़ुबूल न किया हो वो इन लोगों की कामयाबी के बाद तल्हा और ज़ुबैर की ख़िलाफ़त को क्यों कर तस्लीम करता ?

बेशक माविया इन लोगों का हमनवा था मगर उसी हद तक कि जिस हद तक हज़रत अली को इक़तिदार से हटाने का ताल्लुक़ हो।

आख़िरकार बड़ी रद्दोक़द और सोच विचार के बाद महाज़े जंग के लिए बसरा की सरज़मीन का इन्तिख़ाब अमल में आया। बसरा को महाज़े जंग बनाने में जहां ये मसलेहत कार फ़र्मा थी कि वहां उनके हमनवा कसरत से मौजूद थे जो जंग में उनका साथ देते वहां से फ़ायदा भी मद्देनज़र था कि हिजाज़ के एक तरफ़ शाम है जहां माविया की हुकूमत है और दूसरी तरफ़ इराक़ है। अगर इराक़ पर तसल्लुत क़ायम रह जायेगा जिसके बाद अमीरूल मोमिनीन की सिपाह को बआसानी ज़ेर करके इक़तिदार पर क़ब्ज़ा किया जा सकता है या इन दोनों ताक़तों के ज़ेरे असर उन्हें रखा जा सकता है लेकिन ये महज़ उन लोगों की ख़ाम ख़्याली थी क्यों कि साहेबे ज़ुल्फ़िक़ार से मुक़ाबिला उनके इमकान से क़तई बाहर था।

इन तमाम बातों से ये अन्दाज़ा भी होता है कि आयशा और उनके हमनवाओं के पेशेनज़र ख़ूने उस्मान का क़िसास था ही नहीं। अगर क़िसास मक़सूस होता तो ये लोग बसरा को महाज़े जंग बनाने के बजाय मदीने ही को अपनी तख़रीब कारियों की आमाजगाह बनाते जो हज़रत आय़शा की साबेक़ा जौलानियों का मसकन भी था और जहां उस्मानी हादसे के ज़िम्मेदार अफ़राद भी काफ़ी तादाद में मौजूद थे।

1. तबरीः- जिल्द 3 पेज न. 434

2. तारीख़े याक़ूबीः- जिल्द 2 पेज न. 132

3. अल निसाबुल अशरफ़ः- जिल्द 1 पेज न. 113

4. तबरीः- जिल्द 3 पेज न. 411

5. इब्ने अबिल हदीद मोअतज़ेलीः- जिल्द 2 पेज न. 404

6. तबरीः- जिल्द 3 पेज न. 468

7. शराह इब्ने अबिल हदीदः- जिल्द 2 पेज न. 77

8. तारीख़े कामिलः- जिल्द 3 पेज न. 105

9. तारीख़े कामिलः- जिल्द 3 पेज न. 105

10. कामिलः- जिल्द 3 पेज न. 105

11. अल इमामत वल सियासतः- जिल्द 1 पेज न. 52

12. तारीख़े याक़ूबीः- जिल्द 2 पेज न. 156

13. अबुल फ़िदाः- जिल्द 1 पेज न. 172

14. तबरीः- ज 3 पेज न. 434


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