अली का नाम और खुलक़े हसन लेकर मौहम्मद का
नक़ी दुनिया में आये , दीन है महवे , सना ख्वानी
सितारा औज पर है , दसवीं मन्जि़ल का इमामत का
तक़ी के घर में नाजि़ल हो रहा है नूरे यज़दानी
(साबिर थरयानी कराची)
आज दसवां नाएबे ख़ैरूल बशर पैदा हुआ
हैं लक़ब हादी , नक़ी , जिसके अली है जिसका नाम
रहबरे दीने ख़ुदा हैं , यह मौहम्मद का पिसर
इतरते अतहार में चौथा अली आली मक़ाम
वालैदेन
हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) पैग़म्बरे इस्लाम मौहम्मद (स अ व व ) के दसवें जानशीन और हमारे दसवें इमाम और सिलसिला ए मासूमीन की बारवीं कड़ी हैं। आपके वालिदे माजिद हज़रत इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स.) थे और वालदा माजदा जनाबे समाना ख़ातून थीं। आप अपने आबाओ अजदाद की तरह इमाम मनसूस , मासूम ए आलम , ज़माना और अफज़ल काएनात थे। आप इल्म सख़ावत तहारते नफ़स , बुलन्दी ए किरदार और जुमला सिफ़ात हसना में अपने वालिद माजिद की जीती जागती तस्वीर थे।
आपकी वालेदा के मुताअल्लिक़ उलमा ने लिखा है कि आप सैय्यदा उम्मुल फ़ज़ल के नाम से मशहूर थीं।
इमाम अली नक़ी (अ.स.) की विलादते बासआदत
आप ब तारीख़ 5, रज्जबुल मुरज्जब 214 हिजरी बरोज़ सेह शम्बा बामुक़ाम मदीना ए मुनव्वरा मुतावल्लिद हुए। नुरूल अबसार सफ़ा 149, दम ए साकेबा सफ़ा 120, शेख़ मुफ़ीद का कहना है कि मदीने के क़रीब एक क़रिया है जिसका नाम सरया है , आप वहां पैदा हुए।
इस्मे गिरामी ,
कुन्नीयत और अलक़ाब
आपका इस्मे गिरामी अली आपके वालिदे माजिद इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स.) ने रखा इसे यूं समझना चाहिये कि सरवरे काएनात (स अ व व ) ने जो अपने बारह जानशीन अपनी ज़ाहेरी हयात के ज़माने में मोअयन फ़रमाये थे। उनमें से एक आपकी ज़ाते गिरामी भी थी। आपके वालिदे माजिद ने उसी मोअयन नाम से मौसूम कर दिया। अल्लामा तबरसी लिखते हैं कि चौदह मासूमीन (अ.स.) के असमा नाम लौहे महफ़ूज़ में लिखे हुए हैं। सरवरे काएनात स. ने उसी के मुताबिक़ सब के नाम मुअयन फ़रमाये हैं और हर एक के वालिद ने उसी की रौशनी में अपने फ़रज़न्द को मौसूम किया है। अल्लामा अल वरा सफ़ा 225, किताब कशफुल ग़म्मा सफ़ा 4 में है कि आं हज़रत ने सब के नाम हज़रत आयशा को लिखवा दिये थे। आपकी कुन्नियत अबुल हसन थी। आपके अलक़ाब बहुत ज़्यादा हैं। जिनमें नक़ी , नासेह , मोतावक्किल , मुर्तुज़ा और असकरी ज़्यादा मशहूर हैं।
आपके अहदे हयात और बादशाहाने वक़्त
आप जब 214, हिजरी में पैदा हुए तो उस वक़्त बादशहाने वक़्त मामून रशीद अब्बासी था। 218 ई 0 में मामून रशीद ने इन्तेक़ाल किया और मोतासिम ख़लीफ़ा हुआ अबुल फि़दा 227, हिजरी मे वासिक़ इब्ने मोतासिम ख़लीफ़ा बनाया गया अबुल फि़दा 232 हिजरी वासिक़ का इन्तेक़ाल हुआ और मुतावक्किल अब्बासी ख़लीफ़ा मुक़र्रर किया गया। अबुल फि़दा फि़र 247 हिजरी में मुग़तसिर बिन मुतावक्किल और 248 हिजरी में मुस्तईन और 252 हिजरी में ज़ुबेर इब्ने मुतावक्किल अलमकनी व ‘‘मोताज़बिल्लाह अलत तरतीब ख़लीफ़ा बनाए गए। अबुल फि़दा दमतुस् साकेबा 254 हिजरी में मोताज़ के ज़हर देने से इमाम नक़ी (अ.स.) शहीद हुए।
हज़रत इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स.) का सफ़रे बग़दाद और हज़रत इमाम नक़ी (अ.स.) की वली अहदी
मामून रशीद के इन्तेक़ाल के बाद जब मोतासिम बिल्लाह ख़लीफ़ा हुआ तो उसने भी अपने अबाई किरदार को सराहा और ख़ानदानी रवये का इत्तेबा किया। उसके दिल में भी आले मौहम्मद की तरफ़ से वही जज़बात उभरे जो उसके आबाओ अजदाद के दिलों में उभर चुके थे , उसने भी चाहा कि आले मौहम्मद स. की कोई फ़र्द ज़मीन पर बाक़ी न रहे। चुनाचे उसने तख़्त नशीं हाते ही हज़रत इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स.) को मदीने से बग़दाद तलब कर के नज़र बन्द कर दिया। इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स.) जो अपने आबाओ अजदाद की तरह क़यामत तक के हालात से वाकि़फ़ थे। मदीने से चलते वक़्त अपने फ़रज़न्द को अपना जां नशीन मुक़र्रर कर दिया और वह तमाम तबर्रूकात जो इमाम के पास हुआ करते हैं आपने इमाम नक़ी (अ.स.) के सिपुर्द कर दिए। मदीने मुनव्वरा से रवाना हो कर आप 9 मोहर्रमुल हराम 220 हिजरी को वारिदे बग़दाद हुए। बग़दाद मे आपको एक साल भी न गुज़रा था कि मोतसिम अब्बासी ने आपको ब तारीख़ 29 जि़क़ाद 220 हिजरी मे ज़हर से शहीद कर दिया।
उसूल काफ़ी में है कि जब इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स.) को पहली बार मदीने से बग़दाद तलब किया गया तो रावीये ख़बर इस्माइल बिन महरान ने आपकी खि़दमत में हाजि़र हो कर कहाः मौला। आपको बुलाने वाला दुश्मने आले मौहम्मद है। कहीं ऐसा न हो कि हम बे इमाम हों जायें। आपने फ़रमाया कि हमको इल्म है तुम घबराओ नहीं इस सफ़र में ऐसा न होगा।
इस्माईल का बयान है कि जब दोबारा आपको मोतासिम ने बुलाया तो फिर मैं हाजि़र हो कर अर्ज़ परदाज़ हुआ कि मौला यह सफ़र कैसा रहेगा ? इस सवाल का जवाब आपने आसुओें के तार से दिया और ब चश्में नम कहा कि ऐ इस्माईल मेरे बाद अली नक़ी को अपना इमाम जानना और सब्र ज़ब्त से काम लेना।
इमाम अली नक़ी (अ.स.) का इल्मे लदुन्नी
बचपन का एक वाकि़या
यह हमारे मुसल्लेमात से है कि हमारे अइम्मा को इल्मे लदुन्नी होता है। यह खुदा की बारगाह से इल्म व हिकमत ले कर कामिल और मुकम्मिल दुनियां में तशरीफ़ लाते हैं। उन्हे किसी से इल्म हासिल करने की ज़रूरत नहीं होती है और उन्होने किसी दुनियां वाले के सामने ज़ानु ए अदब तक नहीं फ़रमाया ज़ाती इल्म व हिकमत के अलावा मज़ीद शरफ़े कमाल की तहसील अपने आबाओ अजदाद से करते रहे , यही वजह है कि इन्तेहाई कमसिनी में भी यह दुनियां के बड़े बड़े आलिमों को इल्मी शिकस्त देने में हमेशा कामियाब रहे और जब किसी ने फ़रद से माकूफ़ समझा तो ज़लील हो कर रह गया , फिर सरे ख़म तसलीम करने पर मजबूर हो गया।
अल्लामा मसूदी का बयान है कि हज़रत इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स.) की वफ़ात के बाद इमाम अली नक़ी (अ.स.) जिनकी उस वक़्त उमर 6- 7 साल की थी मदीने में मरजए ख़लाएक़ बन गए थे , यह देख क रवह लोग जो आले मौहम्मद से दिली दुश्मनी रखते थे यह सोचने पर मजबूर हो गये कि किसी तरह इनकी मरकजि़यत को ख़त्म कर दिया जाए और कोई ऐसा मोअल्लिम इनके साथ लगा दिया जो उन्हें तालीम भी दे और इनकी अपने उसूल पर तरबीयत करने के साथ उनके पास लोगों के पहुंचने का सद्दे बाब करें। यह लोग इसी ख्याल में थे उमर बिन फ़जऱ् रहजी फ़राग़ते हज के बाद मदीना पहुंचा लोगों ने उस से अरज़ किया , बिल आखि़र हुकूमत के दबाव से ऐसा इन्तेज़ाम हो गया कि हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) को तालीम देने के लिए ईराक़ का सब से बड़ा आलम , आबिद अब्दुल्लाह जुनीदी माकूल मुशाहेरा पर लगाया गया यह जुनीदी आले मौहम्मद स. की दुशमनी में ख़ास शोहरत रखता था। अलग़रज़ जुनीदी के पास हुकूमत ने इमाम अली नक़ी (अ.स.) को रख दिया और जुनीदी को ख़ास तौर पर इस अमर की हिदायत कर दी कि उनके पास रवाफि़ज़ न पहुंचने पाएं। जुनीदी ने आपको क़सर सरबा में अपने पास रखा। होता यह था कि जब रात होती थी तो दरवाज़ा बन्द कर दिया जाता था और दिन में भी शियों को मिलने की इजाज़त न थी। इसी तरह आपके मानने वालों का सिलसिला मुनक़ता हो गया और आपका फ़ैज़े जारी बन्द हो गया लोग आपकी जि़यारत और आपसे इस्तेफ़ादे से महरूम हो गये। रावी का बयान है कि मैने एक दिन जुनीदी से कहा , ग़ुलाम हाशमी का क्या हाल है ? उसने निहायत बुरी सूरत बना कर कहा , उन्हें ग़ुलाम हाशमी न कहो , वह रईसे हाशमी हैं। खुदा की क़सम वह इस कमसिनी में मुझ से कहीं ज़्यादा इल्म रखते हैं। सुनो मैं अपनी पूरी कोशिश के बाद जब अदब का कोई बाब उनके सामने पेश करता हूँ तो वह उसके मुताल्लिक़ ऐसे अबवाब खोल देते हैं कि मैं हैरान रह जाता हूं। लोग समझ रहे हैं कि मैं उन्हें तालीम दे रहा हूं लेकिन खुदा की क़सम मैं उनसे तालीम हासिल कर रहा हूं। मेरे बस में यह नहीं कि मैं उन्हें पढ़ा सकूं। खुदा की क़सम वह हाफि़ज़े क़ुरआन ही नहीं वह उसकी तावील व तन्ज़ील को भी जानते हैं और मुख़तसर यह कि वह ज़मीन पर बसने वालों में सब से बेहतर और काएनात में सब से अफ़ज़ल हैं।
हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) के करामात और आपका इल्मे बातिन
इमाम अली नक़ी (अ.स.) तक़रीबन 29 साल मदीना मुनव्वरा क़याम पज़ीर रहे। आपने इस मुद्दते उमर में कई बादशाहों का ज़माना देखा। तक़रीबन हर एक ने आपकी तरफ़ रूख़ करने से ऐहतिराज़ किया। यही वजह है कि आप उमूरे इमामत को अन्जाम देने में कामयाब रहे। आप चूंकि अपने आबाओ अजदाद की तरह इल्मे बातिन और इल्मे ग़ैब भी रखते थे। इसी लिए आप अपने मानने वालों को होने वाले वाकि़यात से बा ख़बर फ़रमा दिया करते थे और कोशिश फ़रमाते थे कि मक़दूरात के अलावा कोई गज़न्द न पहुंचने पाए इस सिलसिले में आपके करामात बे शुमार हैं जिनमें से हम इस मक़ाम पर किताब कशफ़ुल ग़ुम्मा से चन्द करामात तहरीर करते हैं।
1. मौहम्मद इब्ने फरज रहजी का बयान है कि हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) ने मुझे तहरीर फ़रमाया कि तुम अपने तमाम उमूर व मामलात को रास्त और निज़ामे ख़ाना को दुरूस्त कर लो और अपने असलहों को सम्भाल लो। मैंने उनके हुक्म के बामोजिब तमाम दुरूस्त कर लिया लेकिन यह न समझ सका यह हुक्म आपने क्यों दिया लेकिन चन्द दिनी के बाद मिस्र की पुलिस मेरे यहां आई और मुझे गिरफतार कर के ले गई और मेरे पास जो कुछ था। सब ले लिया और मुझे क़ैद खाने में बन्द कर दिया। मैं आठ साल इस क़ैद खाने में पडा रहा। एक दिन इमाम (अ.स.) का खत पहुंचा , जिसमें मरक़ूम था कि ऐ मौहम्मद बिन फ़जऱ् , तुम उस रास्ते की तरफ़ न जाना जो मग़रिब की तरफ़ वाक़े है। ख़त पाते ही मेरी हैरानी की कोई हद न रही। मै सोचता रहा कि मैं तो क़ैद खाने में हूं मेरा तो उधर जाना मुम्किन ही नहीं फिर इमाम ने क्यों यह कुछ तहरीर फ़रमाया ? आपके ख़त आने को अभी दो चार ही दिन गुज़रे थे कि मेरी रेहाई का हुक्म आ गया और मैं उनके हुक्म के मुताबिक उस तरफ नही गया कि जिसको आपने मना किया था। क़ैद ख़ाने से रेहाई के बाद मैने इमाम (अ.स.) को लिखा कि हुज़ूर मैं क़ैद से छूट कर घर आ गया हूं। अब आप खुदा से दुआ फ़रमाऐं कि मेरा माल मग़सूबा वापस करा दें। आपने उसके जवाब में तहरीर फ़रमाया कि अन्क़रीब तुम्हारा सारा माल तुम्हें वापस मिल जाएगा चुनांचे ऐसा ही हुआ।
2. एक दिन इमाम अली नक़ी (अ.स.) और अली बिन हसीब नामी शख़्स दोनों साथ ही रास्ता चल रहे थे। अली बिन हसीब आपसे चन्द गाम आगे बढ़ कर बोले , आप भी क़दम बढ़ा कर जल्द आजाएं हज़रत ने फ़रमाया कि ऐ इब्ने हसीब तुम्हें पहले जाना है। तुम जाओ इस वाकि़ए के चार दिन बाद इब्ने हसीब फ़ौत हो गए।
3. एक शख़्स मौहम्मद बिन फ़ज़ल बग़दादी नामी का बयान है कि मैंने हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) को लिखा कि मेरे पास एक दुकान है मैं उसे बेचना चाहता हूं आपने उसका जवाब न दिया। जवाब न मिलने पर मुझे अफ़सोस हुआ। लेकिन जब मैं बग़दाद वापस पहुंचा तो वह आग लग जाने की वजह से जल चुकी थी।
4. एक शख्स अबू अय्यूब नामी ने इमाम (अ.स.) को लिखा कि मेरी ज़ौजा हामेला है , आप दुआ फ़रमाएं कि लड़का पैदा हो। आप ने फ़रमाया इन्शा अल्लाह उसके लड़का ही पैदा होगा और जब पैदा हो तो उसका नाम मौहम्मद रखना। चुनांचे लड़का ही पैदा हुआ , और उसका नाम मौहम्मद ही पैदा रखा गया।
5. यहिया बिन ज़करिया का बयान है कि मैंने इमाम अली नक़ी (अ.स.) को लिखा कि मेरी बीवी हामेला है आप दुआ फ़रमाऐ कि लड़का पैदा हो। आपने जवाब में तहरीर फ़रमाया कि बाज़ लड़कियां लड़कों से बेहतर होती हैं , चुनांचे लड़की पैदा हुई।
6. अबू हाशिम का बयान है कि मैं 227 हिजरी में एक दिन हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की खि़दमत में हाजि़र था कि किसी ने आकर कहा कि तुर्को की फ़ौज गुज़र रही है। इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया कि ऐ अबू हाशिम चलो इन से मुलाक़ात करें। मैं हज़रत के हमराह हो कर लश्करियों तक पहुचा। हज़रत ने एक ग़ुलाम तुर्की से इसकी ज़बान में गुफ़्तगू शुरू फ़रमाई और देर तक बातें करते रहे। उस तुर्की सिपाही ने आपके क़दमों का बोसा दिया। मैंने उस से पूछा कि वह कौन सी चीज़ है जिसने तुझे इमाम का गिरवीदा बना दिया ? उसने कहाः इमाम ने मुझे उस नाम से पुकारा जिसका जानने वाला मेरे बाप के अलावा कोई न था।
7. तिहत्तर ज़बानों की तालीमः
अबू हाशिम कहते हैं कि मैं एक दिन हज़रत की खि़दमत में हाजि़र हुआ तो आपने मुझ से हिन्दी ज़बान में गुफ़तगू की जिसका मैं जवाब न दे सका , तो आपने फ़रमाया कि मैं अभी अभी तुम्हें तमाम ज़बानों का जानने वाला बनाए देता हूं। यह कह कर आपने एक संग रेज़ा उठाया और उसे अपने मुहं में रख लिया उसके बाद उस संग रेज़े को मुझे देते हुए फ़रमाया कि इसे चुसो। मैने मुँह में रख कर उसे अच्छी तरह चूसा , उसका नतीजा यह हुआ कि मैं तेहत्तर ज़बानों का आलिम बन गया। जिनमें हिन्दी भी शामिल थी। इसके बाद से फिर मुझे किसी ज़बान के समझने और बोलने में दिक़्कत न हुई। पेज न. 122 से 125
8. इमाम अली नक़ी (अ.स.) के हाथों में रेत का सोने मे बदल जाना
आइम्माए ताहेरीन के उलील अम्र होने पर क़ुरान मजीद की नस सरीह मौजूद है। इनके हाथों और ज़बान में खुदा वन्दे आलम ने यह ताक़त दी है कि वह जो कहे हो जाए , जो इरादा करें उसकी तकमील हो जाए। अबू हाशिम का बयान है कि एक दिन मैनें इमाम अली नक़ी (अ.स.) की खिदमत में अपनी तंग दस्ती की शिकायत की। आपने फ़रमाया बड़ी मामूली बात है तुम्हारी तक्लीफ़ दूर हो जाएगी। उसके बाद आपने रमल यानी रेत की एके मुठ्ठी ज़मीन से उठा कर मेरे दामन में ड़ाल दी और फ़रमाया इसे ग़ौर से देखो और इसे फ़रोख्त कर के काम निकालो।
अबू हाशिम कहते हैं कि ख़ुदा की क़सम जब मैने उसे देखा तो वह बेहतरीन सोना था , मैंने उसे बाज़ार ले जा कर फ़रोख्त कर दिया।
9. इमाम अली नक़ी (अ.स.) और इस्मे आज़म
हज़रत सुक़्क़तुल इस्लाम अल्लामा क़ुलैनी उसूले काफ़ी में लिखते हैं कि इमाम अली नक़ी (अ.स.) ने फ़रमाया , इस्म अल्लाहुल आज़म 73 हुरूफ़ में इनमें से सिर्फ़ एक हरफ़ आसिफ़ बरखि़या वसी सुलेमान को दिया गया था जिसके ज़रिए से उन्होंने चश्मे ज़दन में मुल्के सबा के तख्ते बिलक़ीस मंगवा लिया था और इस मंगवाने में यह हुआ था कि ज़मीन सिमट कर तख्त को क़रीब ले आई थी , ऐ नौफ़ली रावी ख़ुदा वन्दे आलम ने हमें इस्मे आज़म के 72 हुरूफ़ दिये हैं और अपने लिये सिर्फ़ एक हरफ़ महफ़ूज़ रखा है जो इल्मे ग़ैब से मुताअल्लिक़ है।
मसूदी का कहना है कि इसके बाद इमाम ने फ़रमाया कि ख़ुदा वन्दे आलम ने अपनी क़ुदरत और अपने इज़्ने इल्म से हमें वह चीज़े अता कि हैं जो हैरत अंगेज़ और ताज्जुब ख़ैज़ हैं। मतलब यह है कि इमाम जो चाहें कर सकते हैं। उनके लिए कोई रूकावट नहीं हो सकती।
इमाम अली नक़ी (अ.स.) और साल के चार अहम रोज़े
10. शेख़ अबू जाफ़र तूसी किताब मिसबाह में लिखते हैं कि इस्हाक़ बिन अब्दुल्लाह अलवी अरीज़ी हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की खि़दमत में बा मुक़ाम सरय्या मदीना हाजि़र हुए। इमाम (अ.स.) ने उन्हें देख कर फ़रमाया , मैं जानता हूं कि तुम्हारे बाप और तुम्हारे चचा के दरमियान यह अमर ज़ेर बहस है कि साल के वह कौन से रोज़े है कि जिनका रखना बहुत ज़्यादा सवाब रखता है और तुम इसी के मुताल्लिक़ मुझ से सवाल करने आए हो। उसने कहा ऐ मौला बस यही बात है कि आपने फ़रमाया सुनो वह चार रोज़े हैं जिनके रखने की ताकीद है।
1. यौमे विलादत हज़रत पैग़म्बरे इस्लाम स. 17 रबीउल अव्वल।
2. यौमे बैसत व मेराज 27 रजबुल मुरज्जब।
3. यौमे दहवुल अर्ज़ यानी जिस दिन काबे के नीचे से ज़मीन बिछाई गई और सफ़ीना ए नूह कोह जूदी पर ठहरा जिसकी तारीख़ 25 ज़ीक़ाद है।
4. यानी यौमें अल ग़दीर जिस दिन हज़रत रसूले ख़ुदा स. ने हज़रत अली (अ.स.) को अपने जानशीन होने का ऐलान आम फ़रमाया जिसकी तारीख़ 18 जि़ल हिज है।
ऐ अरीज़ी जो इन दिनों में से किसी दिन भी रोज़ा रखे। उसके साठ और सत्तर साला गुनाह बख़शे जाते हैं।
इमाम अली नक़ी (अ.स.) और मुतावक्किल की तख़्त नशीनी
यह मानी हुई बात है कि मौहम्मद स. व आले मौहम्मद स. उन तमाम उमूर से वाकि़फ़ होते हैं जिनसे अवाम उस वक़्त तक ब खबर नहीं होते जब तक वह मन्ज़रे आम पर न आजायें। इमाम शिबलन्जी लिखते हैं कि वासिक़ का एक मुहं चढ़ा रफ़ीक़ अस्बाती एक दिन ईराक़ से मदीना मुनव्वरा पहुचां और वहां जा कर इमाम अली नक़ी (अ.स.) से मिला। आपने ख़ैर ख़ैरियत दरयाफ़त करने के बाद फ़रमाया कि वासिक़ बिल्लाह ख़लीफ़ा ए वक़्त का क्या हाल है ? उसने कहा मैनें उसे ब सलामत छोड़ा और वह बिल्कुल बख़ैरियत है , मैं उसका भेजा हुआ यहां आया हूं। आपने फ़रमाया लोग कहते हैं कि वह फ़ौत हो गया है। यह सुन कर अस्बाती ने सुकूत इख़्तेयार किया और समझा कि यह जो आपने फ़रमाया है , बइल्मे इमामत फ़रमाया है कि हो सकता है कि दुरूस्त हो। फिर आपने कहा अच्छा यह बताओ कि इब्ने अज़यात किस हाल में है ? उसने अर्ज़ कि वह वह भी अच्छा ख़ासा है। बिल्कुल ख़ैरियत से है। इस वक़्त उसी का तूती बोलती है और इसी का हुक्म चलता है। आपने इरशाद फ़रमायाः ऐ अस्बाती सुनों हुक्में ख़ुदा को कोई नहीं टाल सकता और क़लमे क़ुदरत को कोई नहीं रोक सकता। वासिक़ का इन्तेक़ाल हो गया है और मुतावक्किल तख़्त नशीने खि़लाफ़त हो गया है और इब्ने अज़यात क़त्ल कर दिया गया है। अस्बाती ने चौंक कर पूछाः या हज़रत यह सब कैसे हो गया है ? मैं तो सबको ख़ैरियत व आफि़यत में छोड़ कर आया हूं। आपने फ़रमाया तुम्हारे ईराक़ से निकलने के छः दिन बाद यह इन्क़ेलाब आया है। इसके बाद अस्बाती आप से रूख़सत हो कर शहर में किसी मुक़ाम पर जा ठहरा। चन्द दिनों के बाद मुतावक्किल का नामा बर मदीना पहुंचा तो बिल्कुल उन्हीं हालात का इन्केशाफ़ हुआ जिनकी ख़बर इमामे ज़माना दे चुके थे। नुरूल अबसार सफ़ा 149, प्रकाशित मिस्र मुवर्रिख़ अलवर्दी लिखते हैं कि यह वाकि़या 232 हिजरी का है तारीख़े इस्लाम मिस्टर ज़ाकिर हुसैन में है कि इब्ने अलज़्यारत वज़ीर था उसके क़त्ल होते ही मोतावक्किल ने अपना वज़ीर फतेह इब्ने ख़क़ान को बनाया जो बहुत ज़ेहीन व ज़की था।
हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) और सहीफ़ा ए कामेला की एक दुआ
हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) के एक सहाबी सबा बिन हमज़तुल क़ुम्मी ने एक को तहरीर किया कि मौला मुझे ख़लीफ़ा मोतासिम वज़ीर से बहुत दुख पहुंच रहा है , मुझे इसका भी अन्देशा है कि कहीं वह मेरी जान न ले ले। हज़रत ने इसके जवाब में तहरीर फ़रमाया कि घबराओ नही और दुआ ए सहीफ़ा ए कामेला यामन तहलो बेहा अक़दा अलमकाराहा अलख़ , पढ़ो मुसीबत से नजात पाओगे। यसआ बिन हमज़ा का बयान है कि मैनें इमाम के हस्बे अल हुक्म नमाज़ सुब्हा के बाद इस दुआ की तिलावत की जिसका पहले ही दिन यह नतीजा निकला कि वज़ीर ख़ुद मेरे पास आया मुझे अपने हमराह ले गया और लिबासे फ़ख़रा पहना कर मुझे बादशाह के पहलू में बिठा दिया।
हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) के आबाओ अजदाद की क़ब्रों के साथ मोतावकिल अब्बासी का सुलूक
हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) मदीने ही में थे कि जि़लहिज 222 हिजरी में अबू अल फ़ज़ल जाफ़र मुतावक्किल अब्बासी तख़्ते खि़लाफ़त पर मुतामक्किन होने के बाद इसने वह हरकतें शुरू कीं जिन्होने ज़ारे दमिश्क़ यज़ीद को भी शर्मा दिया।
मुवर्रिख़ निगार में मुतावक्किल अब्बासी को वही दर्जा हासिल है जो बनी उम्मया में यज़ीद को हासिल था। यह दोनों अपने ज़ाती किरदार के अलावा जो कुछ आले मौहम्मद स. के साथ करते रहे उससे तारीख़े इस्लाम सख़्त शर्मिन्दा है। मुतावक्किल के मुताल्लिक़ मुवर्रिख़ इब्ने असीर लिखता है कि यह अली बिन अबी तालिब (अ.स.) और उनके अहले बैत से सख्त बुग़ज़ रखता था।
दमेरी का कहना है कि मोतावक्किल हज़रत अली (अ.स.) से बुग़ज़ शदीद रखता था और उनकी मनक़सत किया करता था। तारीख़ अबुल फि़दा में है कि मुतावक्किल ने शायर इब्ने सक़ीयत को इस जुर्म कि उसने मुतावक्किल के इस सवाल के जवाब में मेरे बेटे मोताज़ और मोइद बेहतर हैं या अली (अ.स.) के बेटे हसन (अ.स.) हुसैन (अ.स.) यह कहा था कि तेरे बेटों को मैं हसनैन के ग़ुलाम क़म्बर के बराबर भी नहीं समझता। मोतावक्किल ने उनकी ज़बान गुद्दी से खिचवा ली थी , मोतावक्किल की जि़न्दगी का एक बदतरीन और सियाह ज़माना आले मौहम्मद स. की क़ब्रों को मिसमार करना है। इसके आम हालात यह हैं कि यह बड़ा ज़ालिम दाएम उल ख़ुम्र और अय्याश बादशह था। इसकी चार हज़ार कनीज़ें थीं। इन सब से मुजामेअत कर चुका था। इसके दरबार में हज़ल और मसख़्रा पन बहुत होता था , जो तमसखुर में बढ़ कर होता वही इसका ज़्यादा क़रीब होता था। वह महफि़ले बज़म में मुसाहेबों और नदीमों के साथ तकलीफ़ और ख़ुश तबइयां करता था , कभी मजलिस में शेर को छुड़ा देता था , कभी किसी की आस्तीन में सांप छोड़ देता था , जब वह काटता तो तरयाक़ से मदावा करता कभी मटकों मे बिच्छू भरवा कर उन्हें मजलिस में तुड़वा देता था , वह मजलिस में फैल जाते किसी को हरकत करने का यारा न होता। उसने एक फ़रमान की रू से मज़हब मोताजि़ला को खिलाफ़े हुकूमत क़रार दिया था। मोताजि़लयों को सरकारी ओहदों से माज़ूल कर दिया था। अली (अ.स.) और औलादे अली (अ.स.) से दुश्मनी रखता था।
स्यूती लिखता है कि मुतावक्किल नासबी था। अली (अ.स.) और औलादे नबी स. का दुश्मन था। साहबे गुलज़ार शाही लिखते हैं कि इसके वक़्त में सादात बेचारे मुसीबत के मारे जिला वतन हो गये। करबला के रौज़े जो उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ ने बनवाये थे और उन रोज़ों के गिर्द के मकानात उसने मिसमार करवा दिये और लोगों को जि़यारत से मना किया। साहबे हबीब अस सियर लिखते हैं कि 236 हिजरी में मुतावक्किल ने हुक्म दिया कि कोई मज़ारे हैदरे करार और उनकी औलाद की ज़्यारत को न जाया करें और हुक्म दिया कि इमाम हुसैन (अ.स.) और शोहदाए करबला के रौज़े को हमवार कर के उन पर ज़राअत के लिये पानी छोड़ दें और तारीख़ गुज़ीदा और तारीख़े कामिल में है कि मुतावक्किल ने हुक्म दिया कि इमाम हुसैन (अ.स.) के मज़ार और उसके गिर्द के मकानात वगै़रह मुन्हदिम कर के वहां ज़राअत की जाए और लोगों को उस मक़ाम तक जाने की मुमानीयत कर के यह मुनादी करा दी कि जो शख़्स वहां दिखाई देगा वह क़ैद किया जायेगा। तवारीख़ में है कि हर चन्द फ़रमा बरों ने कोशिश की मगर पानी इमाम और तमाम शोहदा ए इतरते ताहेरा की क़ब्रों पर जारी न हुआ जिस से खि़लक़त को सख़्त हैरत हुई और उस वक़्त से और इसी सबब से उस मशहदे मुक़द्दस को हायर कहने लगे। मुतावक्किल की इस हरकत से मुसलमानों को सख़्त सदमा हुआ। अहले बग़दाद ने मस्जिदों और घरों की दिवारों पर उसे गालियां लिखी और हुजूमें अशआर कहे। इस बनी फ़ातेमा से बागे़ फि़दक भी छीन लिया था। ग़ैर मुस्लिमों को ओहदों से बरतरफ़ कर दिया था। नसारा को हुक्म दिया कि गले में जि़न्नार न बांधें , घोड़े पर सवार न हों , बल्कि गधे और खच्चर पर सवार हों और रक़ाबे काठ की रखें। 234 हिजरी में उसने तमाम मोहद्देसीन को सामर्रा में जमा किया और इनाम व इकराम दे कर हुक्म दिया कि सिफ़ात व रोयत व ख़ल्क़े क़ुरआन के मुताअल्लिक़ हदीसे बयान करें। चुनाचे इसी लिये अबू बर्क इब्ने शीबा को जामा मस्जिद रसाफ़ा में और उनके भाई उसमान को जामा मन्सूर में मुक़र्रर किया। इन दोनों के वाज़ में हर रोज़ क़रीब हज़ार आदमी जमा होते थे। सियूती लिखता है कि मोतावक्किल वह पहला ख़लीफ़ा है जिसने शाफ़ेई मज़हब इख़्तेयार किया। मोतावक्किल के ज़माने में बड़ी बड़ी आफ़तें नाजि़ल हुईं। बहुत से इलाक़ों मे ज़लज़ले आए , ज़मीनें दस गईं , आग लगीं , आसमान से हौलनाक अवाज़ें सुनाई दीं। बादे समूम से बहुत से आदमीं और जानवर हलाक हुए। आसमान से मिसले टिडडियों के तारे टूटे। दस दस रतल के पत्थर आसमान से बरसे।
मक़ामे ज़खार मे है कि मुतावक्किल चुंकि हज़रत अली (अ.स.) से दुश्मनी रखता था इसका मुस्तकि़ल रवय्या यह था कि वह ऐसे लोगों को अपने पास रखता था जो अमीरूल मोमिनीन से बुग़्ज़ व अनाद रखते थे और उनकी तौहीन में बसर्रत महसूस करते थे। जैसे इब्ने जहम शायर , उमर बिन फर्जरहजी अबू अलहज़ इब्ने अतरजा , अबू अल अबर यह लोग मोतावक्किल को हमेशा औलादे अली के क़त्ल की तरफ़ मोतावज्जा करते थे और इससे कहते थे कि अगर तूने उन्हें बाक़ी रहने दिया तो यह एक न एक दिन तेरी सलतनत पर क़ब्ज़ा कर लेगें। इन लोगों के हर वक़्त उभारने का नतीजा यह हुआ कि दिल में आले मौहम्मद स. की दुश्मनी पूरी तरह क़ाएम हो गई। वह चुंकि गाने वाली औरतों का शायक़ था लेहाज़ा उसने शराब पीने के बाद एक ऐसी औरत को तलब किया जिससे वह बहुत ज़्यादा मानूस था। लोगों ने कहा कि दूसरी औरतें हाजि़र हैं इनसे काम निकाला जाए वह आ जाएगी। चुनान्चे ऐसा ही हुआ। जब वह थोड़ी देर बाद पहुंची तो बादशाह ने पूछा कि कहां गई थीं ? उसने कहा मैं हज करने गई थी। मोतावक्किल ने कहा माहे शाबान में कौन हज करता है। सच बता ? इसने जवाब दियाः इमाम हुसैन (अ.स.) की जि़यारत के लिये चन्द औरतों के हमराह चली गई थी। यह सुन कर मोतावक्किल बहुत ग़ज़ब नाक हुआ और उसे क़ैद करा दिया। इसका तमाम माल असबाब ज़ब्त कर लिया और लोगों को ज़ियारते करबला से रोक दिया और तीन रोज़ के बाद मनादी कर दी कि जो शख़्स हुसैन (अ.स.) की ज़्यारत को जायेगा क़ैद किया जायेगा और हर तरफ़ एक एक मील के फ़ासले से पहरे बिठा दिये कि जो शख़्स ज़्यारत को जाता हुआ पाया जाऐ फौरन क़ैद में भैज दिया जाए। फिर एक नौ मुस्लिम यहूदी जिसका नाम वैरिज था को हुक्म दिया कि करबला जा कर हुसैन (अ.स.) की क़ब्र का निशान मिटा दे और उस जगह को जुतवा कर वहां खेत बनवा दे और ज़रीह को किसी तरह फिकवा दे। हुक्म पाते ही नौ मुस्लिम यहूदी जिसे इस्लाम और इस्लाम के बानीयों का सही ताअर्रूफ़ भी न था तामील के लिया रवाना हो गया और वहां पहुंच कर दो सौ जरीब ज़मीन उसने जुत्वा डाली। जब क़ब्रे मुनव्वरा इमाम हुसैन (अ.स.) को जोतने के लिये आगे बढ़ा तो मुसलमानों ने तामीले हुक्म से इनकार कर दिया और कहा कि यह फ़रज़न्दे रसूल स. हैं और शहीद हैं। क़ुरान मजीद इन्हें जि़न्दा बताता है हम हरगजि़ ऐसी नाजायज़ हरकत नहीं कर सकते। यह सुन कर विरज ने यहूदियों से मदद ली , मगर कामयाब न हुआ। उसके बाद नहर काट कर क़ब्रे मुनव्वरा को ज़ेरे आब करना चाहा। पानी नहर में चल कर जब क़ब्र के क़रीब पहुंचा तो उस पर रवां न हुआ बल्कि इसके इर्द गिर्द जारी हो गया। क़ब्रे मुबराक ख़ुश्क ही रही। इस यहूदी ने बड़ी कोशिश की , लेकिन कामयाबी हासिल न कर सका। वह ज़मीन जहां तक पानी फैला हुआ था उसे हाएर कहते हैं। किताबे तस्वीरे अज़ा में ब हवाले किताब सराएर मरक़ूम है इस ज़मीन को हाएर इस सबब से कहते हैं कि लुग़ते अरब में हाएर के मानी ज़मीन पस्त के हैं। इस जगह बहता हुआ पानी पहुंच कर साकिन और हैरान हो जाता है क्योंकि बहने का रास्ता नहीं पाता।
शैख़ शहीद अलैहा रहमता का कहना है कि ज़माना ए मोतावक्किल में चुकि आपकी क़ब्र के निशान को मिटाने के लिये पानी जारी किया गया था और वहां पहुंच कर ब एजाज़े हुसैनी हैरान रह गया था और उस पर जारी नहीं हो सका इस लिये इस मुक़ाम को जिसमें पानी ठहरा हुआ था हाएर कहते हैं। स्यूती तारीख़ अल ख़ुलफ़ा में लिखता है कि यह वाकि़या इन्हेदामे क़ब्रे इमाम हुसैन (अ.स.) 236 हिजरी का है उसने हुक्म दिया था कि इमाम हुसैन (अ.स.) की क़ब्र ढा दी जाए और निशाने क़ब्र मिटा दिया जाए और उनके मज़ार के इर्द गिर्द जितने मकानात हैं उन्हें भी मिस्मार कर के उस मुक़ाम को एक सहरा की शक्ल दे दी जाए और वहां पर खेती की जाए और लागों को ज़ियारते इमाम हुसैन (अ.स.) से क़तअन रोक दिया। इसके बाद स्यूती लिखता है मुतावक्किल बड़ा नासबी था उसके इस फ़ेल से मुसलमानों में सख़्त हैजान पैदा हो गया और लागों ने उसकी हजो की और दीवारों पर इसके लिये गालियां लिखीं यही कुछ किताब हबीब उस सियर तारीख़े इस्लाम , तारीख़े कामिल , जिलाउल उयून , क़ुम क़ाम ज़खारे , अमाली शैख़ तूसी वग़ैरा में है।
अल्लामा स्यूती लिखते हैं कि इस मौक़े पर जिन बहुत से शायरो ने अशआर लिखे उनमे से एक शायर ने कई शेर कहें हैं जिनका तरजुमा यह है।
1. ख़ुदा की क़सम बनी उमय्या ने अपने नबी के नवासे को करबला में भूखा और प्यासा ज़ुल्मो जौर के साथ क़त्ल कर दिया।
2. तो बनी अब्बास जो रसूल के चचा की औलाद हैं उन्होंने भी उन पर ज़ुल्म में कमी नही की और उनकी क़ब्र खुदवा कर उसी कि़स्म के ज़ुल्म का इरतेक़ाब किया है।
3. बनी अब्बास को इस कि़स्म का सदमा था कि वह क़त्ले हुसैन (अ.स.) में शरीक न हो सके तो उन्होंने इस सदमें की आग को बुझाने के लिये हज़रत की हडडियों पर धावा बोल दिया।
अमाली शैख़ तूसी में है कि मुतावक्किल का फि़रस्तादा वह जब जि़यारत से मना करने के लिये करबला पहुंचा तो वहां के लोगों ने ज़्यारत न करने से साफ़ इन्कार कर दिया और कहा कि अगर मोतावक्किल सब को क़त्ल कर दे तब ही यह सिलसिला बन्द हो सकता है। उसने वापस जाकर मुतावक्किल से वाकि़या बयान किया तो 247 हिजरी तक के लिये ख़ामोश हो गया।
तवारीख़ में है कि ख़लीफ़ा के हुक्म के मुताबिक़ अमीरे फ़ौज ने करबला वालों को ज़ियारते इमाम हुसैन (अ.स.) करने से रोकना चाहा तो उन लोगों ने फ़ौज से मरऊब होने के बजाए मुक़ाबले का प्रोग्राम बना लिया और अपनी जानों पर खेल कर अतराफ़ व जवानिब से दस हज़ार अफ़राद जमा कर लिये और सरकारी फ़ौज के बिल मुक़ाबिल आकर कहा कि अगर मुतावक्किल हम में से एक एक को क़त्ल कर डाले तब भी यह सिलसिला बन्द न होगा। हमारी औलादें हमारी नस्लें इस सुन्नते ज़्यारत को अदा करेगी। सुनों हमारे आबाओ अजदाद वही करते चले आए जो हम कर रहे हैं और हमारे अबनाये वाहेफ़ा वही करेंगे जो हम कर रहे हैं , बेहतर होगा कि तुम हमें बाज़ रखने की कोशिश न करो और मुतावक्किल से कह दो कि वह शराब के नशे में ऐसी हरकतें न करे और अपने फ़ैसले पर नज़र सानी कर के हुक्म वापस ले ले। अमीरे फ़ौज वापस गया और उसने सारी दास्तान मुतावक्किन के सामने दोहर दी। मुतावक्किल चुंकि उन दिनों सामरा की तमकील में मशग़ूल था। इसने मन्सूर दवानक़ी की तरह तक़रीबन दस साल ख़ामोश रहा। यानी मन्सूर दवानक़ी जो तामीरे बग़दाद की वजह से दस साल तक इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की तरफ़ मुतावज्जक न हो सका। मुतावक्किल भी सामरा की वजह से तक़रीबन इतनी ही मुद्दत के लिये ख़ामोश हो गया। इमाम शिबलन्जी लिखते हैं कि सामरा एक ज़बरदस्त शहर है जो दजला के मशरिक़ मे तकरीयत और बग़दाद के दरमियान वाक़े हैं इसकी बुनियाद 221 हि. में मोतासिम अब्बासी ने डाली थी और मुद्दतों इसकी तकमील का सिलसिला जारी रहा।
इमाम अली नक़ी (अ.स.) की मदीने से सामरा तलबी
हुकूमत की तरफ़ से इमाम अली नक़ी (अ.स.) की मदीने से सामरा में तलबी और रास्ते का अहम वाकि़या
मोतावक्किल 232 हिजरी में ख़लीफ़ा हुआ और उसने 236 हिजरी में इमाम हुसैन (अ.स.) की क़ब्र के साथ पहली बार बेअदबी की लेकिन उसमें पूरी कामयाबी न हासिल होने पर अपने फि़तरी बुग़ज़ की वजह से जो आले मौहम्मद स. के साथ था वह हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की तरफ़ मुतावज्जा हुआ। मुतावक्किल 243 हिजरी मे इमाम नक़ी (अ.स.) को सताने की तरफ़ मुतावज्जे हुआ और इसने हाकिमे मदीना अब्दुल्ला बिन मौहम्मद को ख़ुफि़या हुक्म दे कर भेजा कि फ़रज़न्दे रसूल इमाम अली नक़ी (अ.स.) को सताने में कोई दक़ीक़ा फ़रो गुज़ाश्त न करे। चुनान्चे इसने हुकूमत के मन्शा के मुताबिक़ पूरी तवज्जा और पूरे इन्हेमाक के साथ अपना काम शुरू कर दिया। ख़ुद जिस क़दर सता सका उसने सताया और आपके खि़लाफ़ रिकार्ड के लिये मोतावक्किल को शिकायत भेजनी शुरू की।
अल्लामा शिबलन्जी लिखते हैं कि इमाम अली नक़ी (अ.स.) को यह मालूम हो गया कि हाकिमे मदीना ने आपके खि़लाफ़ रेशा दवानाइयां शुरू कर दी हैं और इस सिलसिले में इसने मोतावक्किल को आपकी शिकायत भेजनी शुरू कर दी हैं तो आपने भी एक तफ़सीली ख़त लिखा जिसमें हाकिमें मदीना की बे एतिदाली और ज़ुल्म आफ़रीनी का ख़ास तौर से जि़क्र किया। मोतावक्किल ने आपका ख़त पढ़ कर आपको इसके जवाब में लिखा के आप हमारे पास चले आएं। इसमें हाकिमें मदीना के अमल की माज़ेरत भी थी , यानी जो कुछ वह कर रहा है अच्छा नहीं करता , हम इसकी तरफ़ से माज़ेरत ख्वाह हैं मतलब यह था कि इसी बहाने से उन्हें सामरा बुला लें। ख़त मे उसने इतना नरम लहजा इख़्तेयार किया था जो एक बादशाह की तरफ़ से नहीं हुआ करता , यह सब हीला साज़ी थी और ग़रज़ महज़ यह थी कि आप मदीना छोड़ कर सामरा पहुंच जायें।
अल्लामा मजलिसी तहरीर फ़रमाते हैं कि मुतावक्किल ने यह भी लिखा था कि मैं आपकी ख़ातिर से अब्दुल्ला इब्ने मौहम्मद को माजूल कर के इसकी जगह पर मौहम्मद बिन फ़ज़ल को मुक़र्रर कर रहा हूं।
अल्लामा अरबली लिखते हैं कि मुतावक्किल ने सिर्फ़ यही नही किया कि अली नक़ी (अ.स.) को ख़त लिखा हो कि आप सामरा चले आइये बल्कि इसने तीन सौ का लश्कर यहिया इब्ने हरसमा की क़यादत में मदीना भेज कर उन्हें बुलाना चाहा यहिया इब्ने हरसमा का बयान है कि मैं हुक्मे मुतावक्किल पा कर इमाम (अ.स.) को लाने के लिये ब इरादा मदीना मुनव्वरा रवाना हो गया , मेरे हमराह तीन सौ का लश्कर था और इसमें एक कातिब भी था जो इमामिया मज़हब रखता था। हम लोग अपने रास्ते पर जा रहे थे और इस कोशिश में थे कि किसी तरह जल्द से जल्द मदीना पहुंच कर इमाम (अ.स.) को ले आऐ और मुतावक्किल के सामने पेश करें। हमराह जो एक शिया कातिब था उससे एक लश्कर के अफ़सर से रास्ते भर मज़हबी मनाज़रा होता रहा। यहां तक कि हम लोग एक अज़ीमुश्शान वादी में पहुंचे , जिसके इर्द गिर्द मीलों कोई आबादी न थी और वह ऐसी जगह थी जहां से इन्सान का मुश्किल से गुज़र होता था बिल्कुल जंगल और खुश्क सहरा था। जब हमारा लश्कर वहां पहुंचा तो उस अफ़सर ने जिसका नाम शादी था और जो कातिब से मनाज़रा करता चला आ रहा था। कहने लगा ऐ कातिब तुम्हारे इमाम हज़रत अली (अ.स.) का यह क़ौल है कि दुनिया की कोई ऐसी वादी न होगी जिसमें क़ब्र न हो या अनक़रीब क़ब्र न बन जाए। कातिब ने कहा बेशक हमारे इमाम (अ.स.) ग़ालिब कुल्ले ग़ालिब का यही इरशाद है। इसने कहाः बताओ इस ज़मीन पर किस की क़ब्र है ? या किस की क़ब्र बन सकती है। तुम्हारे इमाम यूं ही की दिया करते हैं। इब्ने हरसमा का कहना है कि मैं चूंकि हश्वी ख़्याल का था लेहाज़ा जब यह बातें हमने सुनीं तो हम सब हंस पड़े और कातिब शर्मिन्दा हो गया। ग़रज़ कि लश्कर बढ़ता रहा और उसी दिन मदीना पहुंच गया। वारिदे मदीना होने के बाद मैंने मुतावक्किल का ख़त इमाम अली नक़ी (अ.स.) की खि़दमत में पेश किया। इमाम (अ.स.) उसे मुलाहेज़ा फ़रमा कर लश्कर पर नज़र डाली और समझ गये कि दाल में कुछ काला है। आपने फ़रमाया ऐ इब्ने हरसमा चलने को तैय्यार हूं लेकिन एक दो रोज़ की मोहलस ज़रूरी है। मैंने अर्ज़ कि हुज़ूर ख़ुशी से जब हुक्म हो फ़रमायें मैं हाजि़र हो जाऊं और रवानगी हो जाए। इब्ने हरसमा का बयान है कि इमाम (अ.स.) ने मेरे सामने मुलाज़ेमीन को से कहा कि दरज़ी को बुला दो और उससे कहो कि मुझे सामरा जाना है लेहाज़ा रास्ते के लिये गर्म कपड़े टोपियां जल्दी से तैय्यार कर दे। मैं वहां से रूख़सत हो कर अपने क़याम गाह पर पहुंचा और रास्ते भर यह सोचता रहा कि इमामीया कैसे बेवकूफ़ हैं कि एक शख़्स को इमाम मानते हैं जिसे माज़ा अल्लाह यह तक तमीज़ नहीं है कि यह गर्मी का ज़माना है या जाड़े का। इतनी शदीद गर्मी में जाड़े के कपड़े सिलवा रहे हैं और उसे हमराह ले जाना चाहते हैं। अलग़रज़ मैं दूसरे दिन इनकी खि़दमत में हाजि़र हुआ तो देखा कि जाड़े के बहुत से कपड़े सिले हुए रखे हैं और आप सामाने सफ़र दुरूस्त फ़रमा रहे हैं और आप अपने मुलाज़ेमीन से कहते जाते हैं देखो कुलाह बारानी और बरसाती वग़ैरा रहने न पाए। सब साथ मे बांध दो। इसके बाद मुझे कहा ऐ याहिया इब्ने हरसमा जाओ तुम भी अपना सामान दुरूस्त करो ताकि मुनासिब वक़्त में रवांगी हो जाए। मैं वहां से निहायत बद दिल वापस आया। दिल में सोचता था कि उन्हें क्या हो गया कि इस शदीद गर्मी के ज़माने में सर्दी और बरसात का सामान हमराह ले रहे हैं और मुझे भी हुक्म देते हैं कि तुम भी इस कि़स्म के सामान हमराह ले लो। मुख़्तसर यह कि सामाने सफ़र दुरूस्त हो गया और रवानगी हो गई। मेरा लश्कर इमाम (अ.स.) को घेरे में लिए हुए जा रहा था कि नागाह इसी वादी में जा पहुंचे , जिसके मुतअल्लिक़ कातिब इमामिया और अफ़सर शाही में यह गुफ़तगू हुई थी कि यहां पर किसकी क़ब्र है या होगी। इस वादी में पहुंचना था कि क़यामत आ गई , बादल गरजने लगे , बिजली चमकने लगी और दोपहर के वक़्त इस क़दर तारीकी छाई कि एक दूसरे को देख न सकता था , यहां तक कि बारिश शुरू हुई और ऐसी मुसलाधार बारिश हुई कि उमर भर न देखी थी इमाम (अ.स.) ने आसार के पैदा होते ही मुलाज़मीन को हुक्म दिया कि बरसाती और बारानी टोपीयां पहन लो और एक बरसाती याहिया इब्ने हरसमा और एक कातिब को दे दो। ग़रज़ कि खूब बारिश हुई हवा इतनी ठन्डी चली कि जान के लाले पड़ गए। जब बारिश थमी और और बादल छटे तो मैंने देखा कि अस्सी अफ़राद मेरी फ़ौज के हलाक हो गऐं हैं। इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया कि ऐ याहिया इब्ने हरसमा अपने मुर्दो को दफ़न करो और यह जान लो कि ख़ुदाए ताला हम चुनी पुरमी गिरवान्द बक़ा राज़ेक़बूर इस तरह ख़ुदा वन्दे आलम हर बुक़्क़ाए अर्ज़ को क़ब्रों से पुर करता है , इसी लिए मेरे जद नामदार हज़रत अली (अ.स.) ने इरशाद फ़रमाया है कि ज़मीन का काई टुकड़ा ऐसा न होगा जिसमें कब़्र न बनी हो। ‘‘यह सुन कर मैं अपने घोड़े से उतर पड़ा और इमाम (अ.स.) के क़रीब जा कर पा बोस हुआ और उनकी खि़दमत मे अर्ज़ की मौला मैं आज आपके सामने मुसलमान होता हुँ यह कह कर मैंने इस तरह कलमा पढ़ा अशअदो अन ला इलाहा इल्ल्लाह व अशअदो अन मौहम्मद अबदहू व इनकुम ख़ुलाफ़ा अला फ़ीअर हैना ’’ और यक़ीन कर लिया कि यही हज़रत ख़ुदा की ज़मीन पर ख़लीफ़ा हैं और दिल में सोचने लगा कि अगर इमाम (अ.स.) ने जाड़े और बरसात का सामान न लिया होता और अगर मुझे न दिया होता तो मेरा क्या हशर होता। फिर वहां से रवाना हो कर अस्कर पहुंचा और आपकी इमामत का क़ाएल रह कर जि़न्दा रहा और ताहयात आपके जद्दे नामदार का कलमा पढ़ता रहा।
अल्लामा जामी और अल्लामा शिब्लन्जी लिखते हैं कि दो सौ से ज़ाएद अफ़राद आपको अपने घेरे में लिये हुए सामरा पहुंचे। वहां आपके क़याम का कोई इन्तेज़ाम नहीं किया गया था और हुक्म था कि मुतावक्किल का कि इन्हें फ़क़ीरो के ठहराने की जगह उतारा जाए चुनान्चे आपको ख़नुल सालेआ में उतारा गया वह जगह बदतरीन थी वहां शुरफ़ा नही जाया करते थे। एक दिन सालेहा बिन सईद नामी एक शख़ जो आपके मानने वाले थे आपकी खि़दमत में हाजि़र हुए और कहने लगे मौला यह लोग आपकी क़दरो मन्जि़लत पर पर्दा डाल रहे हैं और नूरे ख़ुदा को छुपाने की किस क़दर कोशिश करते हैं कहा हुज़ूर की ज़ाते अक़दस और कहा यह क़याम गाह। हज़रत ने फ़रमायाः ऐ सालेह तुम दिल तंग न हो मैं उसकी इज़्ज़त अफ़ज़ाई का ख़्वाहां और उनकी करम गुस्तरी का जोया हूं , ख़ुदा वन्दे आलम ने आले मौहम्मद स. को जो दर्जा दिया है और जो मुक़ाम अता फ़रमाया है उसे कोई छीन नहीं सकता। ऐ सालेह बिन सईद मैं तुम्हे ख़ुश करने के लिये बताना चाहता हूं कि तुम मुझे इस मुक़ाम पर देख कर परेशान न हो ख़ुदा वन्दे आलम ने यहां भी मेरे लिये बेहिश्त जैसा बन्दो बस्त फ़रमाया है यह कह कर आपने उंगली से इशारा किया और सालेह की नज़र में बेहतरीन बाग़ बेहतरीन नहर वगै़रह नज़र आने लगीं। सालेह का बयान है कि यह देख कर मुझे क़दरे तसल्ली हो गई।