पहला भाग
इमामत व ख़िलाफ़त क्या है ?
ईशदूत सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम के उत्तराधिकारी या जानशीन की अनिवार्यता या आवश्यकता ?
इस शीर्षक का आरम्भ हम इस प्रश्न से करेगें कि क्या अल्लाह के नबी सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम के बाद उनके लिये किसी उत्तराधिकारी या नायब का होना आवश्यक या ज़रुरी है या नही ?
इसका उत्तर हम इस प्रकार देगें:
पूरी इस्लामी उम्मत पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम के बाद उनके उत्तराधिकारी के आवश्यक व ज़रूरी होने पर एकमत है। यह चीज़ शिया व सुन्नी के बहुत से उलमा व बुद्धिजीवियों के कथन से ज़ाहिर होती है बल्कि यह कहना चाहिये कि स्पष्ट होती है। उदाहरण के तौर पर हाफ़िज़ बिन हज़्म अंदुलुसी अपनी किताब अल फ़ेसल फ़िल अहवाए वल मेलले वन नहल में लिखते हैं:
اتفق جمیع فرق اھل السنۃ و جمیع فرق الشیعۃ و جمیع المرجئۃ و جمیع الخوارج علی وجوب الامامۃ۔
अहले सुन्नत के तमाम समुदाय , शियों के तमाम फ़िरक़े , सारे मुरजेया और ख़वारिज के सारे फ़िरक़े उत्तराधिकारी के आवश्यक व ज़रूरी होने के बारे में एकमत रखते हैं।
अत इस बारे में कोई भिन्नता नही है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम के बाद उनका उत्तराधिकारी होना चाहिये।
इमामत या ख़िलाफ़त क्या है ?
शिया व सुन्नी उलमा व बुद्धिजीवियों ने इमामत व ख़िलाफ़त की तारीफ़ इस तरह से की है:
الامامۃ ھی الرئاسۃ العامۃ فی جمیع امور الدین والدنیا نیابۃ عن رسول اللہ صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم ۔
इमामत , अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम के उत्तराधिकारी के लिये
दीन और दुनिया के तमाम कामों में एक जन प्रभुत्व या जन सत्ता का नाम है।
शिया व सुन्नी उलमा ने इमामत व ख़िलाफ़त को इस तरह से बयान किया है। इस लिहाज़ से इमाम व ख़लीफ़ा ख़ुदा के रसूल (स) का नायब व जानशीन है और तमाम कामों में लोगों के ऊपर उसके आदेश का पालन करना अनिवार्य है।
अत: इमामत की वह तारीफ़ जिसे सब मानते हैं और जिस में किसी को इख़्तिलाफ़ नही है वह यह है कि इमाम व ख़लीफ़ा को ईशदूत का उत्तराधिकारी होना चाहिये और इमामत का पद पैग़म्बर (स) के उत्तराधिकारी का पद है जिसके ज़रिये से उस रिक्त स्थान की पूर्ति की जा सके और इमाम व ख़लीफ़ा नबी (स) के कामों के जनता के लिये अंजाम दे सके , बस फ़र्क़ यह है कि वह उत्तराधिकारी व नायब , नबी नही है।
इमामत और शिया दृष्टिकोण
उस तारीफ़ को ध्यान में रखते हुए जो (इमाम) व (इमामत) के लिये की गई है। शिया इसना अशरी इस तारीफ़ की सारी बातों पर अमल करते हुए उन्हे अपने अक़ीदे का हिस्सा शुमार करते हैं जबकि सक़ीफ़ा विचारधारा के मानने वाले और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम के स्वर्गवास के बाद पेश आने वाली घटनाओं को बहाना बनाने वाले इस तारीफ़ को स्वीकार करने के बावजूद मानने से इंकार करते हैं।
शिया कहते हैं: उस तारीफ़ की बुनियाद पर जो इमामत के लिये की गई है। उसके अनुसार जो कुछ ईशदूत के लिये साबित है , निसंदेह इमाम व ख़लीफ़ा के लिये भी वह साबित होना चाहिये सिवाय नबी के पद के। इस का नतीजा यह होगा कि इमाम व ख़लीफ़ा में भी नबी सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम की तरह विलायते तकवीनी व तशरीई होनी चाहिये।
इमाम में विलायते तकवीनी होती है इस मअना में कि वह अल्लाह तआला की आज्ञा व अता से इस संसार में होने वाले कामों को अपने हाथ में ले सकता है , उसे अपने ऐतेबार से चला सकता है। यह शक्ति व अधिकार उसे ईश्वर को ओर से प्राप्त होता है जिसके बाद वह जो चाहे कर सकता है।
इमाम में विलायते तशरीई होती है इस का मतलब यह है कि दीन व दुनिया के तमाम मामले में जैसा कि इमाम की तारीफ़ में बयान हो चुका है , वह सारे लोगों को अम्र (आदेश) व नही (मनाही) का हक़ रखता है और किसी को यह हक़ नही है कि वह उसके आदेश का पालन न करे।
निसंदेह अहले सुन्नत उलमा के दरमियान ऐसे लोग जो इल्मे इरफ़ान की ओर झुकाव या दिलचस्बी रखते हैं और तसव्वुफ़ की तरफ़ मायल हैं , वह हमारे इमामों (अलैहिमुस सलाम) के लिये विलायते तकवीनी के मरतबे को मानते हैं , क्यों कि वह लोग इस मरतबे को अल्लाह के तमाम वलीयों के लिये साबित मानते हैं और हमारे इमामों को बावजूद इसके कि इमाम नही मानते हैं फिर भी उन्हे अल्लाह के बड़े वलीयों में शुमार करते हैं।
तीसरा मरतबा जो शिया अपने इमामो (अलैहिमुस सलाम) के लिये मानते हैं , वह शासन व हुकूमत व अल्लाह के क़ानूनों और उसके आदेशों को जारी करना है। शासन व हुकूमत , इमामत के विभागों में से एक विभाग है , ऐसा नही है कि इमामत व हुकूमत किसी एक वास्तविकता का नाम है और इन दोनो को एक समान समझना कोरी ग़लती है।
हुकूमत , इमामत के कामों में से एक काम है जो संभव है कभी उसके हाथ में हो या उसे मिल जाये। जैसे अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम और इमाम हसन अलैहिस सलाम की हुकूमत। कभी हो सकता है कि ऐसा न हो जैसे दूसरे तमाम इमामों अलैहिमुस सलाम का ज़माना , जो अपने समय के अत्याचारी और ज़ालिम शासनों की जेलों में रहे या उनके शिकंजे का शिकार रहे और या जैसे हमारा ज़माना जिस में इमाम अलैहिस सलाम परद ए ग़ैबत में हैं और ज़ाहिरी तौर पर इमाम अलैहिस सलाम के हाथ में हुकूमत व अधिकार नही है हालांकि इसके बावजूद उनकी इमामत व ख़िलाफ़त सुरक्षित है।
इमामत व धार्मिक सिद्धात
इस से पहले इशारा किया जा गया कि शिया इमामत के मसले में अहले सुन्नत से बहुत ज़्यादा इख़्तिलाफ़ रखते हैं , उनमें से एक इख़्तिलाफ़ यह है कि क्या इमामत उसूले दीन में से है या फ़ुरू ए दीन में से ?
शिया अक़ीदे के अनुसार इमामत उसूले दीन में से है। इस बात को साबित करने के लिये जो चंद दलीलें पेश की जा सकती हैं उनमें से सबसे आसान यह हैं:
1. इसमें कोई शक नही है कि इमामत की बहस , नबी (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के उत्तराधिकारी की बहस है और इमामत के लिये जो तारीफ़ बयान की गई है उससे स्पष्ट तौर पर बिना किसी संदेह के इस मअना को समझा जा सकता है , क्यों कि तारीफ़ में आया है कि इमामत , अल्लाह के रसूल (स) के उत्तराधिकारी का मसला है और इस वाक्या का मतलब भी है जैसा कि बयान किया गया।
अत इमामत के बारे में बहस नबूवत के सिलसिले की कड़ी है। जैसे कि मासूम होने की बहस और हर वह बहस जो नबूवत के सिलसिले की कड़ी हो और उस पर अक़ीदा रखना अनिवार्य हो , उसका शुमार उसूले दीन में होगा।
2. दूसरी दलील यह है कि इमामत धार्मिक सिद्धातों के आधार में से एक है , प्रसिद्ध हदीस है जिस में पैग़म्बरे इस्लाम (स) से ज़िक्र हुआ है। आप (स) ने फ़रमाया:
من مات و لم یعرف امام زمانہ مات میتۃ جاھلیۃ۔
जो भी मर जाये और अपने ज़माने के इमाम का न पहचानता हो तो उसकी मौत जाहिलियत की मौत है।
शिया व अहले सुन्नत उलमा ने इस हदीस को अपनी किताबों में रसूले ख़ुदा (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) से नक़्ल किया है।
स्पष्ट है कि जाहिलियत की मौत का मतलब , क़ुफ़्र व नेफ़ाक़ की मौत है और हर वह चीज़ की जिहालत इंसान को कुफ़्र व नेफ़ाक़ तक ले जाये। निसंदेह उसका संबंध धर्म के मूल सिद्धातों से होना चाहिये , इस लिये कि फ़ुरू ए दीन के मसाइल का ना जानना कभी भी इंसान को कभी भी कुफ़्र व नेफ़ाक़ की हद नही पहुचाता।
निसंदेह अहले सुन्नत के बड़े और पढ़े लिखे उलमा में ऐसे अफ़राद भी हैं जिनकी तरफ़ यह निस्बत दी गई है कि वह इमामत को मूल सिद्धात (उसूले दीन) का हिस्सा मानते हैं। उदाहरण के तौर पर क़ाज़ी नासिरुद्दीन बैज़ावी का नाम लिया जा सकता है जिनका शुमार तफ़सीर व इल्मे कलाम में अहले सुन्नत के महान और प्रसिद्ध उलमा में होता है , वह इमामत को उसूले दीन में से मानते हैं।
लेकिन उनके अलावा अहले सुन्नत की अकसरियत शियों के मुक़ाबले में इस बात की क़ायल है कि इमामत फुरु ए दीन में से है। हालांकि कुछ लोग स्पष्ट तौर पर इस मसले पर अपना रुख़ ज़ाहिर नही करते हैं बल्कि कहते हैं: इमामत का फ़ुरु ए दीन में से होना अनसब है लेकिन इसके वाबजूद वह इस बात की कि इमामत मूल सिद्धात (उसूले दीन) में से होना चाहिये , साफ़ बयान नही करते हैं।
बहरहाल , चाहे इमामत उसूले दीन या मूल सिद्धातों के आधार में से एक हो। जैसा कि शिया कहते हैं , या फ़ुरू ए दीन में से हो जैसा कि अहले सुन्नत का अक़ीदा है , इस बात पर बहस होनी चाहिये कि इमाम या ख़लीफ़ा कौन है ता कि हम उसे पहचान सकें और उसकी पैरवी कर सकें , उसके आदेशों का पालन कर सकें और उसके ज़रिये मना की गई बातों को अंजाम न दें और उसकी बात और उसके अमल को महत्व दें , क्यों कि हम उसे अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) का नायब और ख़लीफ़ा मानते है।
एक ऐतराज़ का जवाब
क़ाबिले ज़िक्र बात है जैसा कि कभी सुनन में आता है कि कुछ लोग कहते हैं: इमामत पर चर्चा केवल एक इतिहासिक बहस है और आज के दौर में मुसलमानों को इस बात से मतलब नही रखना चाहिये , उन के पास इस से ज़्यादा आवश्यक व महत्वपूर्ण काम हैं जिनका किया जाना ज़्यादा ज़रूरी है न कि इंसान अपनी उम्र के क़ीमती दिनों को इस बहस में ख़र्च करे।
यह कैसी बकवास व बेबुनियाद बात है ?। यह भटके हुई विचाराधारा की बात है जिसे मंद बुद्धि और धार्मिक सिद्धातों से बे खबर लोग कह सकते हैं। कैसे यह संभव है कि एक तरफ़ तो इमामत का अक़ीदा रखना , उसकी इताअत व पैरवी करना , उसके हर छोड़े बड़े आदेश या बात पर सर झुकाना , इस्लामी जनता के तमाम लोगों पर वाजिब व अनिवार्य है और उसके आदेश का पालन न करना , उससे मुंह मोड़ना कुफ़्र व फ़िस्क़ (धर्म से निष्कासित हो जाना) शुमार होता है। जबकि उसकी पैरवी कारण बनती है कि इंसान संसार की पैदाइश के मक़सद और उसके लक्ष्य तक पहुच जाये और दूसरी तरफ़ इस बहस के बारे मे कहा जाये कि यह केवल एक इतिहासिक बहस है और इसका कोई फ़ायदा नही है ?।
इंसान के लिये सबसे महत्वपूर्ण चीज़ उसके धार्मिक सिद्धात और उसका अक़ीदा होता है। इमाम और इमामत की बहस बहुत से अमली आसार रखती है , इंसान चाहता है कि उसे पहचाने , क्यों कि उसका न पहचानना उसके ईमान पर सवाल खड़ा कर देता है। इस लिये वह चाहता है कि उसे पहचाने ता कि उससे मुहब्बत कर सके , क्योंकि एक हदीस में इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस सलाम ने फ़रमाया:
ھل الدین الا الحب والبغض۔
क्या धर्म दोस्ती व दुश्मनी के सिवा किसी और चीज़ का नाम है ?
इंसान चाहता है कि इमाम को पहचाने ता कि अमल के मौक़े पर उसकी पैरवी कर सके , इस लिये कि वह इंसान है और इंसान को अल्लाह की तरफ़ से कुछ ज़िम्मेदारियां दी गई हैं उसे जानवरों की तरह स्वतंत्र नही छोड़ दिया गया है और चूंकि इमामत का पद , पैग़म्बरे इस्लाम (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के उत्तराधिकारी का पद है , लिहाज़ा इमाम ही वह है जो इंसान के लिये उसकी निजी , ज़ाती और समाजी ज़िन्दगी और अल्लाह की बंदगी के लिये उसके कंधे पर ज़िम्मेदारियां डाल सकता है।
इस लिये इंसान को चाहिये कि वह इमाम को पहचाने और इस पद का दावा करने वाले के बारे में रिसर्च करे ता कि उसकी पैरवी कर सके और मक़ामे बंदगी में जो ज़िम्मेदारी उसे सौंपी गई है वह इमाम उसे उस मंज़िल तक पहुचा सके।
क्या इन सब बातों के बाद भी यह गुंजाइश रह जाती है कि कोई इस महत्वपूर्ण बहस को केवल एक इतिहासिक और बेकार या फ़ुज़ूल बहस कह सके ?
हां , सृष्टि के लक्ष्य और उस तक पहुचाने वाले कारणों से ग़ाफ़िल और बेख़बर लोगों को हक़ पहुचता है कि वह इस बहस को बेकार और बेफ़ायदा बयान करें। लेकिन पवित्र क़ुरआन का पालन करने वाले , उससे शिक्षा प्राप्त करने वाले और ईशदूत (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के सृष्टि के लक्ष्य के बारे में पहुच हासिल करने वाले कथनों पर अमल करने वालों के लिये इमामत और उसके मुतअल्लिक़ बहसे और इमाम के महान पद के बारे में बहस से बढ़ कर कोई और बहस नही हो सकती है।
एकता इमामत के साये में
शायद यह कहा जाये कि इमामत के बारे में बहस से मुसलमानों की एकता व इत्तेहाद को नुक़सान पहुच सकता है इस लिये इस बहस में नही पड़ना चाहिये।
हमने इस बारे में विभिन्न अवसरों पर तफ़सील से चर्चा की है। उन सब उत्तरों के दृष्टिकोण का सारांश यहां पर पेश कर रहा हूं:
इमामत के बारे में बहस करने से न सिर्फ़ यह कि इस्लामी एकता और मुसलमानों के आपसी भाईचारे पर इसका कोई नकारात्मक प्रभाव नही पड़ेगा बल्कि इससे क़ुरआन व हदीस व अक़्ली दलीलों , बेहतरीन , बल्कि एकता जैसे अति महत्वपूर्ण व क़ीमती लक्ष्य की प्राप्ती के लिये भी इमामत व ख़िलाफ़त और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के उत्तराधिकारी के पद और उसकी गरिमा को स्पष्ट और वाज़ेह करना है।
बहस यह है कि एकता से हमारी मुराद क्या है ? और यह कैसे संभव हो सकती है ?
समकालीन उलमा में से कुछ एकता की स्थापना के लिये इस तरह से राय पेश करते हैं कि शिया व अहले सुन्नत को चाहिये कि वह तफ़सीर (क़ुरआन की व्याख्या) व हदीस व फ़िक़ह की सारी किताबों को एक दूसरे के साथ , एक दूसरे की मदद से फिर से लिखना जाये। इसलिये कि इख्तेलाफ़ व भिन्नता की जड़ शिया व अहले सुन्नत की किताबों में बातिल व असत्य की भरमार , झूठ के पुलिंदे व अफ़सानवी व गढ़ी हुई बातें हैं। उनकी ग़लत चीज़ों की पहचान और उनकी कांट छांट से वास्तविकता को अलग करके , धर्म का वास्तिवक चेहरा सामने आ सकता है जो ज़ाहिर है कि सबकी सहमति का का पात्र बन सकता है। इसलिये कि सत्य के साथ किसी का इख़्तेलाफ़ या झगड़ा नही हो सकता। नतीजा यह होगा कि सारे झगड़ समाप्त हो जायेंगे।
इस सुझाव के आरम्भिक उत्तर में निम्नलिखित प्रश्न पैदा हो सकते हैं:
1. जो लोग शिया व अहले सुन्नत की किताबों की छानबीन करना चाहते हैं वह कौन लोग होंगे और उनका ताअल्लुक़ किस गिरोह से होगा ?
2. सत्य का असत्य से और बातिल का हक़ से पहचान का मेयार क्या होगा ?
3. क्या अहले सुन्नत इस पर सहमत हैं कि वह अपनी उन किताबों से , जिन्हे वह शुरु से अंत तक सही मानते हैं और उन्हे वहयी की तरह मानते हैं , (जैसे उनकी छ: सही किताबें या कम से कम सही बुख़ारी व सही मुस्लिम) और उनकी सारी बुनियादी बातें और उनके अक़ायद उन्ही किताबों से लिये गये हैं , हाथ खींच लें और उन्हे फिर से लिखें ?
कुछ दूसरे लोग यह राय देते हैं कि दोनों समुदाय की संमिलित व मुश्तरक चीज़ों को लिया जाये।
इस के उत्तर में हम कहेंगे: वह समन्वित व मुशतरक बातें या चीज़ें क्या हैं ?
क्या इससे मुराद तौहीद का अक़ीदा रखना और ईश्वर को एक मानना है ?
इस जगह पर सबसे पहला झगड़ा अल्लाह तआला की विशेषताओं पर होता है कि क्या ईश्वर जिस्म रखता है ?
अहले सुन्नत अबू बक्र के लिये जिस मंज़िलत व मरतबे के क़ायल हैं वह किसी और के लिये क़ायल नही है , वह कहते हैं: अल्लाह उनके लिये विशेष तौर पर अपना जलवा प्रकट करेगा वह उसे उस तरह देखेंगे जैसा कि वह है।
हालांकि वह लोग ख़ुद इस हदीस की सनद के बारे में शक करते हैं , लेकिन इस बात को जानना चाहिये कि इस तरह की फ़ुज़ूल हदीस की गढ़ने वाले कौन लोग हैं ? इस तरह के लोगों को जानने और पहचानने का क्या मेयार है ?
उन समन्वित व मुशतरक चीज़ों में से एक यही इमामत का मसला है , इस लिये कम से कम अहले सुन्नत को यह मानना चाहिये कि इमामत व ईशदूत के वास्तविक उत्तराधिकारी के बारे में बहस व उस पर शोध करना भी उन मुशतरक व संमिलित बहसों में से एक है और यह इस्लामी एकता पर आधारित है तो क्यों हम उसे अनेकता व भेद का कारण समझते हैं ?
हां , कुछ लोग इमामत के बारे में बहस को अनावश्यक समझते हैं और इस विचार के साथ हमें इस्लामी एकता व भाई चारे की दावत देते हैं और यह ठीक उस समय की बात है जब उनका एक समूह शियों को मुसलमान भी नही समझता है।
हां , वह लोग ईश्वर के लिये जिस्म मानने वाले मुजस्समा समुदाय , मुरजेया समुदाय और ख़्वारिज समुदाय को मुसलमान मानते हैं लेकिन हमें , वह न सिर्फ़ यह कि हमारे इस्लाम में शक करते हो बल्कि वह सिरे से हमें मुसलमान ही नही मानते हैं।
अभी कुछ अरसा पहले सऊदी अरब में मसअलुत तक़रीब बैना अहलिस सुन्नते वश शिया नामी एक किताब लिखी गई है , इसके लेखक के इस किताब के लेखन की वजह से डिग्री भी दी गई है।
इस किताब के लेखक ने अस्ल बहस लिखने के बाद एक मतलब को इस तरह से लिखा है:
हमारे (अहले सुन्नत) और शियों के दरमियान एकता व इत्तेहाद का कोई रास्ता नही है मगर यह कि शिया मुसलमान हो जायें और जब तक वह मुसलमान नही होगें। एकता व इत्तेहाद का कोई मतलब नही बनता।
जबकि हम उनके बारे में ऐसा कुछ नही कहते बल्कि हमारा मानना है: आओ , अल्लाह की किताब और उसके नबी (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) की सही व क़तई सुन्नत , जिसका ख़ुद वह ऐतेराफ़ हैं , पर अमल करो। हमने हदीसे सक़लैन की सनद व दलालत की बहस में इस बात को तफ़सील से बयान किया है।