अबुल हसन हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.)

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अबुल हसन हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) लेखक:
कैटिगिरी: इमाम काज़िम (अ)

अबुल हसन हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.)

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: मौलाना नजमुल हसन करारवी
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अबुल हसन हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.)

अबुल हसन हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.)

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

काजि़मे आले मोहम्मद के तहम्मुल पर न जा

हाकिमे ज़ालिम यह जाने हैदरो ज़हरा हैं देख

दौलतो हशमत के नशे में ना इतना सर उठा

ऐ बनी अब्बास के फि़रऔन यह मूसा हैं देख

(साबिर थरयानी ‘‘कराची ’’)

मख़ज़ने जुम्ला फ़ुनून आपका क़ल्बे रौशन

मादने जुम्ला उलूम , आईनए प्रकाशित सलीम

आस्ताने दरे हज़रत का अगर देख ले औज

सूरते चखऱ् पये बोसा , झुके अरर्शे अज़ीम

हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ स . )

पैग़म्बरे इस्लाम रसूले करीम हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स अ व व ) के सातवें जांनशीन , हमारे सातवें इमाम और सिलसिलाए अस्मत की नवीं कड़ी हैं। आपके वालिद माजिद हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) थे और आपकी वालदा माजदा जनाबे हमीदा ख़ातून जो बरबर या इन्दलिस की रहने वाली थीं। आपके मुताअल्लिक़ हज़रत इमामे बाक़र (अ.स.) ने इरशाद फ़रमाया है कि आप दुनिया में हमीदा और आख़ेरत में महमूदा हैं।

(शवाहिद अल नबूवत पृष्ठ 186 )

अल्लामा मोहम्मद रज़ा लिखते हैं कि आप साहेबे जमाल कमाल और निहायत दियानत दार थीं।

(जेनातुल ख़ुलूद पृष्ठ 29 )

अल्लामा मजलिसी का कहना है कि वह हर निसवानी आलाईश से पाक थीं।

(जिलाउल उयून पृष्ठ 270 )

अल्लामा शहर आशोब लिखते हैं कि जनाबे हमीदा के वालिद माजिद साएद बसरी थे। हमीदा ख़ातून की कुन्नियत लोलो (मोती) थी।

(मनाकि़ब जिल्द 5 पृष्ठ 76 )

हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) अपने आबाओ अजदाद की तरह इमाम मन्सूस आलमे ज़माना अफ़ज़ले काएनात थे। आप जुमला सिफ़ात हसना से भर पूर थे , आप दुनिया की तमाम ज़बाने जानते और इल्में ग़ैब से आगाह थे। आपके मुताअल्लिक़ इब्ने हजर मक्की लिखते हैं कि हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के इल्म , मारेफ़त कमाल और अफ़ज़लीयत में वारिस व जांनशीन थे। आप दुनिया के आबिदों में से सब से बड़े इबादत गुज़ार सब से बड़े आलिम और सब से बड़े सख़ी थे।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 121 ) और इब्ने तल्हा शाफ़ेई लिखते हैं कि आप बहुत बड़ी इज़्ज़त व क़द्र के मालिक इमाम और इन्तेहाई शान व शौकत के मुजतहिद थे। आपका इजतेहाद में नज़ीर न था। आप इबादत व ताअत में मशहूर ज़माना और करामत में मशहूरे कायनात थे। उन चीज़ों में आपकी कोई मिसाल न मिलती थी। आप सारी रात रूकु व सुजूद और क़याम व क़यूद में गुज़ारते और सारा दिन सदक़ा और रोज़े में बसर करते थे।

(मतालेबुस सुऊल 308 )

अल्लामा शिब्ली लिखते हैं कि आप बहुत बड़ी क़द्र व मंजि़लत के दुनिया में मुन्फ़रिद इमाम और ज़बर दस्त हुज्जते ख़ुदा थे। नमाज़ों की वजह से हमेशा सारी रात जागते थे और दिन भर रोज़ा रखते थे।(अनवारूल अख़्बार पृष्ठ 134 )

अल्लामा इब्ने सबाग़ मालिकी लिखते हैं कि आप अपने ज़माने के लोगों में सब से ज़्यादा आबिद और सब से ज़्यादा इल्म वाले और सब से ज़्यादा सख़ी और बुज़ुर्ग नफ़्स थे।(फ़ुसूल मोहम्मद व अरजहुल मतालिब पृष्ठ 451 )

अल्लामा हुसैन वाएज़ काशफ़ी लिखते हैं कि आप आबिद तरीन अहले ज़माना और करीम तरीन अहले आलिम थे। आपके फ़ज़ाएल व करामात बे शुमार हैं।(रौज़तुल शोहदा पृष्ठ 432 )

किताब रौज़तुल अहबाब में है कि आप व रूए क़द्र मंजि़लत बुज़ुर्ग तरीन अहले आलिम थे और अपने पदरे बुज़ुर्गवार की नस के मुताबिक़ उनके बाद वली अमरे इमामत हुये।

आपकी विलादत ब सआदत

हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) बतारीख़ 7 सफ़रूल मुज़फ़्फ़र 128 हिजरी मुताबिक़ 10 नवम्बर 745 ई0 यौमे शम्बा ब मुक़ाम अबवा जो मक्का व मदीने के बीच वाक़े है पैदा हुए।

(अनवारे नोमानिया पृष्ठ 126 व आलामुल वरा पृष्ठ 171 व जिलाउल उयून पृष्ठ 269 व शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 192 रौज़तुल शौहदा पृष्ठ 436 )

अल्लामा मजलिसी तहरीर फ़रमाते हैं कि पैदा होते ही आपने हाथों को ज़मीन पर टेक कर आसमान की तरफ़ रूख़ किया और कलमाए शहादतैन ज़बान पर जारी फ़रमाया। आपने यह अमल बिलकुल उसी तरह किया जिस तरह हज़रत रसूले ख़ुदा स. ने विलादत के बाद किया था। आपके दाहिने बाज़ू पर ‘‘ कलमाए तम्मत कल्मता रब्बेका सदक़ा व अदलन ’’ लिखा हुआ था। आप इल्मे अव्वलीन व आख़ेरीन से बहरावर मुतावल्लिद हुए थे। आपकी विलादत से हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) को बे हद मसर्रत हुई थी आपने मदीना जा कर अहले मदीना को दावते ताअम दी थी।(जिलाउल उयून पृष्ठ 270 ) आप दीगर आइम्मा की तरह मख़तून और नाफ़ बुरीदा मुतावल्लिद हुये थे।

इस्मे गिरामी कुन्नियत , अल्क़ाब

आपके वालिदे माजिद हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने ख़ुदा वन्दे आलम के मुअय्यन कर्दा नाम मूसा से मौसूम किया। अल्लामा मोहम्मद रज़ा लिखते हैं कि मूसा क़ब्ती लफ़्ज़ है और ‘‘ मू ’’ और ‘‘ सी ’’ से मुरक्कब है। मू के मानी पानी आर सी के मानी दरख़्त है। इस नाम से सब से पहले हज़रत कलीम अल्लाह मौसूम किये गये थे और इसकी वजह यह थी कि ख़ौफ़े फि़रऔन से मादरे मूसा ने आपको उस सन्दूक़ में रख कर दरिया में बहाया था जो ‘‘हबीब नजार ’’ का बनाया हुआ था और बाद में ताबूते सकीना क़रार पाया तो वह सन्दूक बह कर फि़रऔन और जबाने आसिया तक पानी के ज़रिये से उन दरख़्तों से टकराता हुआ जो ख़ास बाग़ में थे पहुँचा था लेहाज़ा पानी और दरख़्त के सबब से उनका नाम मूसा क़रार पाया था।(जन्नातुल ख़ुलूद पृष्ठ 29 ) आपकी कुन्नियत अबुल हसन , अबू इब्राहीम , अबु अली , अबु अब्दुल्लाह थी और आपके अल्क़ाब काजि़म , अब्दे सालेह , नफ़्से ज़किया , साबिर , अमीन , बाबुल हवाएज वग़ैरह थे। शोहरते आम्मा काजि़म को है और उसकी वजह यह है कि आप बद सुलूक के साथ एहसान करते और सताने वाले को माफ़ फ़रमाते और ग़ुस्से को पी जाते थे। बड़े हलीम बुर्दबार और अपने पर ज़ुल्म करने वाले को माफ़ कर दिया करते थे।

(मतालेबुस सुऊल पृष्ठ 273, शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 192, रौज़तुल शोहदा पृष्ठ 432, तारीख़े ख़मीस जिल्द 2 पृष्ठ 32 )

लक़्ब बाबुल हवाएज की वजह

अल्लामा इब्ने तल्हा शाफ़ेई लिखते हैं कि कसरते इबादत की वजह से अब्दे सालेह और ख़ुदा से हाजत तलब करने के ज़रिये होने की वजह से आपको बाबुल हवाएज कहा जाता है। कोई भी हाजत हो जब आपके वास्ते से तलब की जाती थी तो ज़रूर पूरी होती थी। मुलाहेज़ा हो।(मतालेबुल सुऊल पृष्ठ 278, सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 131 ) फ़ाजि़ल माअसर अल्लामा अली हैदर रक़म तराज़ हैं कि हज़रत का लक़ब बाबे क़ज़ा अल हवाएज यानी हाजतें पूरी हाने का दरवाज़ा भी था। हज़रत की जि़न्दगी में तो हाजतें आपके तवस्सुल से पूरी होती ही थीं शहादत के बाद भी यह सिलसिला जारी ही रहा और अब भी है। (अख़बार पायनियर इलाहाबाद मोअर्रेख़ा 10 अगस्त 1928 ई0 में ज़ेरे उन्वान इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के रौज़े पर एक अन्धे को बीनाई मिल गई। ख़बर शाया हुई है जिसका तरजुमा यह है कि हाल ही में रौज़ा ए काज़मैन शरीफ़ पर जो शहर बग़दाद से बाहर है एक मोजेज़ा ज़ाहिर हुआ है कि एक अन्धा और बूढ़ा सैय्यद निहायत मुफ़लिसी की हालत में रौज़े शरीफ़ के अन्दर दाखि़ल हुआ और जैसे ही उसने इमाम मूसी ए काजि़म (अ.स.) की रौज़े की ज़रीहे अक़दस को हाथ से मस किया वह फ़ौरन चिल्लाता हुआ बाहर की तरफ़ दौड़ा मुझे बीनाई मिल गई मैं देखने लगा हूँ इस पर लोगों का बड़ा हुजूम जमा हो गया और अकसर लोग इसके कपड़े तबर्रूक के तौर पर छीन झपट कर ले गए। इसको तीन दफ़ा कपड़े पहनाए गये और हर दफ़ा वह कपड़े टुकड़े हो गये। आखि़र रौज़ाए शरीफ़ के ख़ुद्दाम ने इस ख़्याल से कि कहीं इस बूढ़े सैय्यद के जिस्म को नुक़सान न पहुँचे इसको उसके घर पहुँचा दिया। इसका बयान है कि मैं बग़दाद के अस्पताल में अपनी आँख का इलाज करा रहा था बिल आखि़र सब डाँक्टरों ने यह कह कर मुझे अस्पताल से निकाल दिया कि तेरा मजऱ् ला इलाज हो गया है अब इसका इलाज ना मुम्किन है। तब मैं मायूस हो कर रौज़ा ए अक़दस इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) पर आया यहां आपके वसीले से ख़ुदा से दुआ की ‘‘ बारे इलाहा तुझे इसी इमाम मदफ़ून का वास्ता मुझे अज़सरे नव बीनाई अता कर दे। यह कह कर जैसे ही मैंने रौज़े की ज़री को मस किया मेरी आँख़ों के सामने रौशनी नमूदान हुई और आवाज़ आई जा तुझे फिर से रौशनी दे दी गई ’’ इस आवाज़ के साथ ही मैं हर चीज़ को देखने लगा।(अख़बार इन्क़ेलाब लाहौर , अख़बार अहले हदीस अमरतसर मोवर्रिख़ा 24 अगस्त 1928 0 )

अल्लामा इब्ने शहर आशोब लिखते हैं कि ख़तीब बग़दादी ने अपनी तारीख़ में लिखा है कि जब मुझे कोई मुश्किल दरपेश होती है मैं इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के रौज़े पर चला जाता हूँ और उनकी क़ब्र पर दोआ करता हूँ मेरी मुश्किल हल हो जाती है।(मनाक़िब जिल्द 3 पृष्ठ 125 प्रकाशित मुल्तान)

बादशाहाने वक़्त

आप 128 हिजरी में मरवान अल हमार उमवी के अहद में पैदा हुए। इसके बाद 132 हिजरी में पृष्ठ अब्बासी ख़लीफ़ा हुआ(अबुल फि़दा) 136 हिजरी में मन्सूर दवानीक़ी अब्बासी ख़लीफ़ा बना(अबुल फि़दा) 158 हिजरी में महदी बिन मालिके सलतनत हुआ।(हबीब अल सियर 169 हिजरी में हादी अब्बासी की बैैअत की गई। (इब्ने अलवरी) 170 में हारून रशीद अब्बासी इब्ने महदी ख़लीफ़ा ए वक़्त हुआ (अबुल फि़दा) 183 हिजरी में हारून के ज़हर देने से इमाम (अ.स.) ब हालते मज़लूमी क़ैदख़ाने में शहीद हुए।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा अख़बार अल ख़ुलफ़ा इब्ने राई)

नशोनुमा और तरबीअत

अल्लामा अली नक़ी लिखते हैं कि आपकी उमर के बीस बरस अपने वालिदे बुज़ुर्गवार हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के साए तरबीयत में गुज़रे एक तरफ़ ख़ुदा के दिए हुए फि़तरी कमाल के जौहर दूसरी तरफ़ इस बाप की तरबियत जिसने पैग़म्बर के बताए हुए मकारेमुल अख़्लाक़ की याद को भूली हुई दुनियाँ में ऐसा ताज़ा कर दिया कि उन्हें एक तरह से अपना बना लिया और जिसकी बिना पर मिल्लते जाफ़री नाम हो गया। इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) ने बचपना और जवानी का काफ़ी हिस्सा इसी मुक़द्दस आगोश में गुज़ारा यहाँ तक कि तमाम दुनिया के सामने आपके ज़ाती कमालात व फ़ज़ाएल रौशन हो गए और इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) ने अपना जां नशीन मुक़र्रर फ़रमा दिया। बावजूदे कि आपके बड़े भाई भी मौजूद थे मगर ख़ुदा की तरफ़ का मन्सब मीरास का तरका नहीं है बल्कि जा़ती कमालात को ढुंढता है। सिलसिलाए मासूमीन में इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) में बजाए फ़रज़न्दे अकबर के इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) की तरफ़ इमामत का मुन्तकि़ल होना इसका सुबूत है कि मियारे इमामत में नसबी विरासत को मद्दे नज़र नहीं रखा गया है।

(सवानेह मूसा काजि़म पृष्ठ 4 )

आपके बचपन के बाज़ वाक़ेआत

यह मुसल्लेमात से है कि नबी और इमाम तमाम सलाहियतों से भर पूर मोतवल्लिद होते हैं। जब हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) की उमर तीन साल की थी एक शख़्स जिसका नाम सफ़वान जम्माल था हज़रत इमाम जाफ़र सादिक (अ.स.) की खि़दमत में हाजि़र हो कर मुस्तफ़सिर हुआ कि मौला , आपके बाद इमामत के फ़राएज़ कौन अदा करेगा आपने इरशाद फ़रमाया ऐ सफ़वान ! तुम इसी जगह बैठो और देखते जाओ जो ऐसा बच्चा मेरे घर से निकले जिसकी हर बात मारफ़ते ख़ुदा से पुर हो और आम बच्चों की तरह लहो लआब न करता हो , समझ लेना कि ऐनाने इमामत इसी के लिये सज़ावार है। इतने में इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) बकरी का एक बच्चा लिये हुए बरामद हुए और बाहर आ कर इससे कहने लगेः अपने ख़ुदा का सजदा कर। यह देख कर इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने उसे सीने से लगा लिया।(तज़किरतुल मासूमीन पृष्ठ 192 )

सफ़वान कहता है यह देख कर मैं ने इमाम मूसा (अ.स.) से कहा साहब जा़दे ! इस बच्चे को कहिए की मर जाए। आप ने इरशाद फ़रमाया कि वाए हो तुम पर , क्या मौत व हयात मेरे ही इख़्तेयार में है।(बेहारूल अनवार जिल्द 11 पृष्ठ 266 )

अल्लामा मजलिसी लिखते हैं कि इमाम अबू हनीफ़ा एक दिन इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) से मसाएले दीनीया दरियाफ़्त करने के लिये हसबे दस्तूर हाजि़र हुए। इत्तेफ़ाक़न आप आराम फ़रमा रहे थे। मौसूफ़ इस इन्तेज़ार में बैठ गये कि आप बेदार हों तो अर्ज मुद्दआ करूं। इतने में इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) जिनकी उम्र उस वक़्त पाँच साल की थी बरामद हुए। इमाम अबू हनीफ़ा ने उन्हें सलाम कर के कहा , ऐ साहब ज़ादे बताओ कि इन्सान फ़ाएल मुख़्तार है या इनके फ़ेल का ख़ुदा फ़ाएल है ? यह सुन कर आप ज़मीन पर दो ज़ानू बैठ गये और फ़रमाने लगे , सुनो ! बन्दों के अफ़आल तीन हालतों से ख़ाली नहीं , या इनके अफ़आल का फ़ाएल सिर्फ़ ख़ुदा है या सिर्फ़ बन्दा है या दोनों की शिरकत से अफ़आल वाक़े होते हैं अगर पहली सूरत है तो ख़ुदा को बन्दे पर अज़ाब का हक़ नहीं , अगर तीसरी सूरत है तो भी यह इन्साफ़ के खि़लाफ़ है कि बन्दे को सज़ा दे और अपने को बचा ले क्यो कि इरतेक़ाब दोनों की शिरकत से हुआ है। अब ला मोहाला दूसरी सूरत होगी वह यह की बन्दा ख़ुदा फ़ाएल हो और इरतिक़ाबे क़बीह पर ख़ुदा उसे सज़ा दे।

(बिहारूल अनवार जिल्द 11 पृष्ठ 185 )

इमाम अबू हनीफ़ा कहते हैं कि मैं ने उस साहब ज़ादे को इस तरह नमाज़ पढ़ते हुए देख कर कि उनके सामने से लोग बराबर गुज़र रहे थे इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) से अर्ज़ किया कि आप के साहब ज़ादे मूसा काजि़म नमाज़ पढ़ रहे थे और लोग उनके सामने से गुज़र रहे थे। हज़रत ने इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) को आवाज़ दी , वह हाजि़र हुए , आपने फ़रमाया बेटा ! अबू हनीफ़ा क्या कहते हैं उनका कहना है कि तुम नमाज़ पढ़ रहे थे और लोग तुम्हारे सामने से गुज़र रहे थे। इमामे मूसा काजि़म (अ.स.) ने अर्ज कि बाबा जान लोगों के गुज़रने से नमाज़ पर क्या असर पड़ता है वह हमारे और ख़ुदा के दरमियान हाएल तो नहीं हुए थे क्यों कि वह तो रगे जान से भी ज़्यादा क़रीब है। यह सुन कर आपने उन्हें गले से लगा लिया और फ़रमाया कि इस बच्चे को असरारे शरीअत अता हो चुके हैं।

(मनाक़िब जिल्द 5 पृष्ठ 69 )

एक दिन अब्दुल्लाह इब्ने मुस्लिम और अबू हनीफ़ा दोनो वारिदे मदीना हुए। अब्दुल्लाह ने कहा चलो इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) से मुलाक़ात करें और उनसे कुछ इस्तेफ़ादा करें। यह दोनों हज़रत के दरे दौलत पर हाजि़र हुए। यहाँ पहुँच कर देखा कि हज़रत के मानने वालों की भीड़ लगी हुई है। इतने में इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के बजाए इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) बरामद हुए। लोगो ने सरो क़द ताज़ीम की , अगरचे आप उस वक़्त बहुत ही कम सिन थे लेकिन आपने उलूम के दरिया बहाना शुरू किये। अब्दुल्लाह वग़ैरा ने जो आपसे कुछ दूरी पर थे आपके क़रीब जाते हुए आपकी इज़्ज़त व मंजि़लत का आपस में तज़किरा किया। आखि़र में इमाम अबू हनीफ़ा ने कहा कि चलो मैं उन्हें उनके शियों के सामने रूसवा और ज़लील करता हूँ। मैं उनसे ऐसा सवाल करूगां कि यह जवाब न दे सकेंगे। अब्दुल्लाह ने कहा , यह तुम्हारा ख़्याले ख़ाम है वह फ़रज़न्दे रसूल स. हैं। अल ग़रज़ दोनों हाजि़रे खि़दमत हुए इमाम अबू हनीफ़ा ने इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) से पूछा साहब ज़ादे यह तो बताओ कि अगर तुम्हारे शहर में कोई मुसाफि़र आ जाए और उसे क़ज़ाए हाजत करनी हो तो क्या करे और उसके लिये कौन सी जगह मुनासिब होगी ? हज़रत ने बरजस्ता फ़रमाया ! मुसाफि़र को चाहिये कि मकानों की दीवारों के पीछे छुपे , हमसायों की निगाहों से बचे , नहरों के किनारों से परहेज़ करे जिन मुक़ामात पर दरख़्तों के फल गिरते हों उस जगह से परहेज़ करे। मकानों के सहन से अलहदा , शाहराहो और रास्तों से अलग मस्जिदों को छोड़ कर , ना कि़बले की जानिब मुह करे ना पीठ फिर अपने कपड़ों को बचा कर जहाँ चाहे रफ़ये हाजत करे। यह सुन कर इमाम अबू हनीफ़ा हैरान रह गये और अब्दुल्लाह कहने लगे कि मैं न कहता था कि यह फ़रज़न्दे रसूल स. हैं इन्हें बचपन ही में हर कि़स्म का इल्म हुआ करता है।

(बिहार , मनाक़िब व एहतिजाज)

अल्लामा मजलिसी तहरीर फ़रमाते हैं कि एक दिन हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) मकान में तशरीफ़ फ़रमा थे इतने में आपके नूरे नज़र इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) कहीं बाहर से वापस आए। इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने फ़रमाया , बेटे ज़रा इस मिसरे पर मिसरा लगाओ। ‘‘तन्नहाक अन अलक़बीह वल अमस्तोदा ’’ आपने फ़ौरन मिसरा लगाया। ‘‘ वमन औलियतन हसना फ़ज़दहा ’’ बुरी बातों से दूर रहो और उनका इरादा भी न करो। जिसके साथ भलाई करो भर पूर करो। फिर फ़रमाया इस पर मिसरा लगाओ। ‘‘ सतलक़ी मिन अदूका कुल कैद ’’ आपने मिसरा लगाया ‘‘ अज़ाका वल अदो फला तकदा ’’ तरजुमा 1. तुमहारा दुश्मन हर कि़स्म का मकरो फ़रेब करेगा , 2. जब दुश्मन मकरो फ़रेब करे तब भी उसे बुराई के क़रीब नहीं जाना चाहिये।

(बिहारूल अनवार जिल्द 11 पृष्ठ 36 )

हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) की इमामत

148 हिजरी में इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की शहादत हुई। उस वक़्त से हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) बाज़ाते ख़ुद फ़राएज़े इमामत के जि़म्मेदार हुए। उस वक़्त सलतनते अब्बासिया के तख़्त पर मन्सूर दवानकी़ बादशाह था। यह वही ज़ालिम बादशाह था जिसको हाथों ला तादाद सादात मजा़लिम का निशाना बन चुके थे। तलवार के घाट उतारे गये , दीवारों में चुनवाये गये या क़ैद रखे गये थे। ख़ुद इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के खि़लाफ़ तरह तरह की साजि़शें की जा चुकी थीं और मुख़तलिफ़ सूरतों से तकलीफ़ें पहुँचाई गई थीं। यहाँ तक कि मन्सूर ही का भेजा हुआ ज़हर था जिससे आप दुनिया से से रूख़सत हुए थे। इन हालात में आपको अपने जानशीन के मुताअल्लिक़ यह क़तई अन्देशा था कि हुकूमते वक़्त उसे जि़न्दा न रहने देगी। इस लिए आपने आख़री वक़्त एक एख़्लाक़ी बोझ हुकूमत के कांधो पर रख देने के लिये यह सूरत एखि़्तयार फ़रमाई कि अपनी जायदाद और घर बार के इन्तेज़ामात के लिये पाँच शख़्सों की एक जमाअत मुक़र्रर फ़रमाई। जिसमें पहला शख़्स खुद ख़लिफ़ाए वक़्त मन्सूर अब्बासी था। इसके अलावा मोहम्मद बिन सुलैमान हाकिमे मदीना और अब्दुल्लाह अफ़ताह जो इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के सिन में बड़े भाई थे और हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) और उनकी वालेदा मुअज़्ज़मा हमीदा ख़ातून।

इमाम (अ.स.) का अन्देशा बिल्कुल सही था और आप का तहफ़्फ़ुज़ भी कामयाब साबित हुआ। चुनान्चे जब हज़रत की वफ़ात की इत्तेला मन्सूर को पहुँची तो उसने पहले तो सियासी मसलेहत से इज़हारे रंज किया। तीन मरतबा ‘‘ इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजेऊन ’’ कहा और कहा अब भला जाफ़र का मिस्ल कौन है ? इसके बाद हाकिमे मदीना को लिखा कि अगर जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने किसी शख़्स को अपना वसी मुक़र्रर किया हो तो उसका सर क़लम कर दो। हाकिमे मदीना ने जवाब में लिखा कि उन्होंने तो पाँच वसी मुक़र्रर किये हैं जिनमें से पहले आप खुद हैं। यह जवाब सुन कर मन्सूर देर तक ख़ामोश रहा और सोचने के बाद कहने लगा कि इस सूरत में तो यह लोग क़त्ल नहीं किये जा सकते। इस के बाद दस बरस मन्सूर जि़न्दा रहा लेकिन इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) से कोई ताअररूज न किया और आप मज़हबी फ़राएज़े इमामत की अन्जाम देही में अमनो सुकून के साथ मसरूफ़ रहे। यह भी था कि इस ज़माने में मन्सूर शहरे बग़दाद की तामीर में मसरूफ़ था। जिससे 157 हिजरी यानी अपनी मौत से सिर्फ़ एक साल पहले फ़राग़त हुई। इस लिये वह इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के मुताअल्लिक़ किसी ईज़ा रसानी की तरफ़ मुतावज्जेह नहीं हुआ। मगर इस अहद से क़ब्ल वह सादात कुशी मे कमाल दिखा चुका था।

अल्लामा मक़रेज़ी लिखते हैं कि मन्सूर के ज़माने में बे इन्तेहा सादात शहीद किये गये हैं और जो बचे हैं वह वतन भाग गये हैं। इन्हीं तारीकीने वतन में हाशिम बिन इब्राहीम बिन इस्माईल अल दीबाज बिन इब्राहीम उमर बिनुल हसने मुसन्ना इब्ने इमाम हसन (अ.स.) भी थे। जिन्होने मुल्तान के इलाको में से ख़ान में सुकूनत इख़्तेयार कर ली थी।

(अल निज़ा व अल तख़ासम पृष्ठ 74 प्रकाशित मिस्र)

158 हिजरी के आखि़र में मन्सूर दवांक़ी दुनिया से रूख़सत हुआ और उसका बेटा मेहदी तख़्ते सलतन्त पर बैठा। शुरू में तो उसने भी इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के इज़्ज़तो एहतेराम के खि़लाफ़ कोई बरताव नहीं किया मगर चन्द साल बाद फिर वही बनी फ़ात्मा की मुख़ालेफ़त का जज़बा उभरा और 164 हिजरी में जब वह हज के नाम से हिजाज़ की तरफ़ गया तो इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) को अपने साथ मक्के से बग़दाद ले गया और कै़द कर दिया। एक साल तक हज़रत उसी क़ैद में रहे। फिर उसको अपनी ग़लती का एहसास हुआ और हज़रत को मदीने की तरफ़ वापसी का मौक़ा दिया गया।

मेहदी के बाद उसका भाई हादी 169 हिजरी में तख़्ते सलतन्त पर बैठा और फिर एक साल एक माह तक उसने सलतन्त की। उसके बाद हारून नशीद का ज़माना आया जिसमें इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) को आज़ादी की सांस लेना नसीब नहीं हुई।

(सवाने इमाम मूसा काजि़म पृष्ठ 5 )

अल्लामा तबरेसी तहरीर फ़रमाते हैं कि जब आप दरजाए इमामत पर फ़ाएज़ हुए उस वक़्त आपकी उम्र 20 साल की थी।

(आलामुलवुरा पृष्ठ 171 )

हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के बाज़ करामात

वाकि़याऐ शक़ीक़ बलख़ी

अल्लामा मोहम्मद बिन तलहा शाफ़ेई लिखते हैं कि आपके करामात ऐसे हैं कि इनको देख कर अक़्लें चकरा जाती हैं मिसाल के लिए मुलाहेज़ा हों 149 हिजरी में शक़ीक़ बलख़ी हज के लिये गये। इनका बयान है कि जब मुक़ामे क़ादसिया में पहुँचा तो देखा कि एक निहायत ख़ूब सूरत जवान जिनका रंग सांवला (गन्दुम गूं) था वह एक अज़ीम मजमे में तशरीफ़ फ़रमा हैं। जिस्म उनका ज़ईफ़ है वह अपने कपड़ों के ऊपर एक कम्बल डाले हुए हैं और पैरों में जूतियाँ पहने हुए हैं। थोड़ी देर बाद वह मजमें से हट कर एक अलाहेदा मक़ाम पर जा कर बैठ गए मैंने दिल में सोचा कि यह सूफ़ी हैं और लोगों पर ज़ादे राह के लिये बार बनाना चाहते हैं मैं अभी उसको ऐसी तम्बीह करूंगा कि यह भी याद करेगा , ग़जऱ् कि मैं इनके क़रीब गया। जैसे ही मैं उनके क़रीब पहुँचा , वह बोले ऐ , शक़ीक़ बदगुमानी मत किया करो यह अच्छा शेवा नहीं है। इसके बाद वह फ़ौरन उठ कर रवाना हो गये। मैंने ख़्याल किया कि यह मामला क्या है। उन्होंने मेरा नाम ले कर मुझे मुख़ातिब किया और मेरे दिल की बात जान ली। इस वाकि़ए से मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि हो न हों यह कोई अब्दे सालेह हैं। बस यही सोच कर मैं उनकी तलाश में निकला और उनका पीछा किया , ख़्याल था कि वह मिल जाएं , मैं उनसे कुछ सवालात करूं , लेकिन न मिल सके। इनके चले जाने के बाद हम लोग भी रवाना हो हुए। चलते चलते जब हम वादिए फि़जा़ में पहुँचे तो हमने देखा कि वही जवान सालेह यहां नमाज़ में मशग़ूल हैं और उनके आज़ा व जवारे बेद की मानिन्द काँप् रहे हैं और उनकी आँखों से आँसू जारी हैं। मैं यह सोच कर उनके क़रीब गया की अब उनसे माफ़ी तलब करूँगा। जब वह नमाज़ से फ़ारिग़ हुए तो बोले ऐ शक़ीक़ ख़ुदा का क़ौल है कि जो तौबा करता है मैं उसे बख़्श देता हूँ। इसके बाद फिर रवाना हो गये। अब मेरे दिल में आया कि यक़ीनन यह बन्दाए आबिद कोई अबदाल हैं , क्यों कि दो बारा यह मेरे इरादे से अपनी वाक़फि़यत ज़ाहिर कर चुका है। मैंने हर चन्द फिर उनसे मिल ने की सई की लेकिन वह न मिल सके। जब मैं मंजि़ले जबाला पर पहँुचा तो देखा कि वही जवान एक कुएं की जगत पर बैठे हुए हैं , उसके बाद उन्होंने एक कूज़ा निकाल कर कुएं से पानी लेना चाहा , नागाह उनके हाथ से कूज़ा छूट कर कुऐं में गिर गया , मैंने देखा कि कूज़ा गिरने के बाद उन्होंने आसमान की तरफ़ मुँह कर के बारगाहे अहदियत में कहा मेरे पालने वाले जब मैं प्यासा होता हूँ तू ही सेराब करता है और भूखा होता हूँ तो तू ही खाना देता है , खुदाया ! इस कूज़े के अलावा मेरे पास और कोई बरतन नहीं है , मेरे मालिक! मेरा कूज़ा पूर आब बरामद कर दे। उस जवान सालेह का यह कहना था कि कुऐ का पानी बुलन्द हुआ और ऊपर तक आ गया। आपने हाथ बढ़ा कर अपना कूज़ा पानी से भरा हुआ ले लिया और वज़ू फ़रमा कर चार रकअत नमाज़ पढ़ी। उसके बाद आपने रेत की एक मुठ्ठी उठाई और पानी में डाल कर खाना शुरू किया। यह देख कर मैं अज़्र परदाज़ हुआ। मुझे भी कुछ इनायत हो मैं भूखा हूँ। आपने वही कूज़ा मेरे हवाले कर दिया जिसमें रेत भरी थी। ख़ुदा की क़सम। जब मैंने उसमे से खाया तो उसे ऐसा लज़ीज़ सत्तू पाया जैसा मैंने खाया ही न था। फिर उस सत्तू में एक ख़ास बात यह थी कि जब तक सफ़र में रहा , भूखा नहीं हुआ। इसके बाद आप नज़रों से ग़ायब हो गये। जब मैं मक्का मोअज़्ज़मा पहुँचा तो मैंने देखा कि एक बालू (रेत) के टीले के किनारे मशग़ूले नमाज़ हैं और हालत आपकी यह है कि आपकी आँखों से आँसू जारी हैं और बदन पर ख़ुशू व ख़ुज़ू के आसार नुमाया हैं आप नमाज़ ही में मशग़ूल थे कि सुबह हो गई , आपने नमाज़े सुबह अदा फ़रमाई और उससे उठ कर तवाफ़ का इरादा किया , फिर सात बार तवाफ़ करने के बाद एक मक़ाम पर ठहरे। मैंने देखा कि आपके गिर्द बेशुमार हज़रात हैं और सब बेइन्तेहां ताज़ीम व तकरीम कर रहे हैं। मैं चुंकि एक ही सफ़र में करामात देख चुका था इस लिये मुझे बहुत ज़्यादा फि़क्र थी कि यह मालूम करूं कि यह बुज़ुर्ग कौन हैं ? चुनान्चे मैं उनके गिर्द जो लोग जमा थे उनके क़रीब गया और मैंने पूछा कि यह साहबे करामात कौन हैं , उन्होंने कहा कि यह फ़रज़न्दे रसूल हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) हैं , मैंने कहा बेशक ऐसे करामात जो मैंने देखे वह इसी घराने के लिये सज़ावार हैं।

(मतालेबुल सुऊल पृष्ठ 279, नूरूल अबसार पृष्ठ 135 व शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 193 सवाहेक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 121, अरजहुल मतालिब पृष्ठ 452 )

मुवर्रिख़ ज़ाकिर हुसैन लिखते हैं कि शक़ीक़ इब्ने इब्राहीम बल्ख़ी का इन्तेक़ाल 190 हिजरी में हुआ था।(तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 पृष्ठ 59 )

इमाम शिबली लिखते हैं कि एक मरतबा ईसा मदाएनी हज के लिये गए और एक साल मक्का में रहने के बाद वह मदीना चले गये। इनका ख़्याल था कि वहां भी एक साल गुजा़रे गें , मदीना पहुँच कर उन्होंने जनाबे अबूज़र के मकान में क़याम किया। मदीने में ठहरने के बाद उन्होंने इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) वहां आना जाना शुरू किया। मदाईनी का बयान है कि एक शब को बारिश हो रही थी मैं उस वक़्त इमाम (अ.स.) की खि़दमत में हाजि़र था। थोड़ी देर के बाद आपने फ़रमाया कि ऐ ईसा तुम फ़ौरन अपने मकान चले जाओ क्यों कि तुम्हारा मकान तुम्हारे असासे पर गिर गया है और लोग सामान निकाल रहे हैं। यह सुन कर मैं फ़ौरन मकान की तरफ़ गया , देखा कि घर गिर चुका है और लोग मकान से सामान निकाल रहे हैं। दूसरे दिन जब हाजि़र हुआ तो इमाम (अ.स.) ने पूछा कि कोई चीज़ चोरी तो नहीं गई , मैंने अजऱ् कि एक तश्त नहीं मिलता जिसमें वज़ू किया करता था। आपने फ़रमाया वह चोरी नहीं गया बल्कि इन्हेदाम मकान से क़ब्ल तुम उसे बैतुल ख़ला में रख कर भूल गये हो , तुम जाओ और मालिक की लड़की से कहो वह ला देगी। चुनान्चे मैंने ऐसा ही किया और तश्त मिल गया।

(नूरूल अबसार पृष्ठ 135 )

अल्लामा जामी तहरीर फ़रमाते हैं कि एक शख़्स ने एक सहाबी के हमराह 100 दीनार हुजू़र मूसा काजि़म (अ.स.) की खि़दमत में बतौरे नज़र इरसाल किया वह उसे ले कर मदीना पहुँचा , यहाँ पहुँच कर उसने सोचा कि इमाम के हाथों में इसे जाना है लेहाज़ा पाक कर लेना चाहिये। वह कहता है कि मैंने इन दीनारों को जो अमानत थे शुमार किया 99 थे। मैंने उनमें अपनी तरफ़ से एक दीनार शामिल कर के 100 पूरा कर दिया। जब मैं हज़रत की खि़दमत में हाजि़र हुआ तो आपने फ़रमाया सब दीनार ज़मीन पर डाल दो। मैंने थोली खोल कर सब ज़मीन पर निकाल दिया। आपने मेरे बताए बग़ैर इसमे से मेरा वही दीनार जो मैंने मिलाया था निकाल कर मुझे दे दिया और फ़रमाया भेजने वाले ने अदद का लेहाज़ नहीं किया बल्कि वज़न का लेहाज़ किया है जो पूरा 99 होता है।

एक शख़्स का कहना है कि मुझे अली बिन यक़तीन ने एक ख़त दे कर इमाम (अ.स.) की खि़दमत में भेजा। मैंने हज़रत की खि़दमत में पहुँच कर उनका ख़त दिया , उन्होंने उसे पढ़े बग़ैर आस्तीन से एक ख़त निकाल कर मुझे दे दिया और कहा कि उन्होंने जो कुछ लिखा है उसका यह जवाब है।

(शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 195 )

अबू बसीर का कहना है कि इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) दिल की बाते जानते थे और हर सवाल का जवाब रखते थे हर जानदार की ज़बान से वाकि़फ़ थे।

(रवाहल मुस्तफ़ा पृष्ठ 162 )

अबू हमज़ा बताऐनी का कहना है कि मैं एक मरतबा हज़रत के साथ हज को जा रहा था कि रास्ते में एक शेर बरामद हुआ , उसने आपके कान में कुछ कहा , आपने उसको उसी ज़बान में जवाब दिया और वह चला गया। हमारे सवाल के जवाब में आपने फ़रमाया कि उसने अपनी शेरनी की तकलीफ़ के लिये दुआ की ख़्वाहिश की , मैंने दुआ कर दी और वह वापस चला गया।

(तज़किरतुल मासूमीन पृष्ठ 193 )

अली बिन यक़तीन इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के ख़ास असहाब में से थे। 121 हिजरी में ब मुक़ाम कूफ़ा पैदा हुए और 182 हिजरी में ब मुक़ाम बग़दाद ब उम्र 57 साल फ़ौत हुए। उन्होंने कई किताबें भी लिखी हैं।

(रेजाल तूसी पृष्ठ 355 प्रकाशित नजफ़ अशरफ़)

ख़लीफ़ा मेंहदी अब्बासी और हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ स . )

मन्सूर दवानक़ी के बाद 157 हिजरी में मेंहदी अब्बासी ख़लीफ़ा ए वक़्त क़रार पाया। उसने अपनी जि़न्दगी में कुछ अच्छे काम भी किए हैं। उसने बहुत से मुलहिदों को ख़ाक में मिला दिया है। मानी जो फ़लसफ़ी था(मज़दक मुतवफ्फा चौथी सदी के शुरुआत से मख़लूत गुमराह कुन अक़ीदे की नशो नुमा करता था) को इसने क़त्ल करा दिया था। इसके अलावा वह आले मोहम्मद के साथ भी इसकी रविश मोतदिल थी लेकिन यह ऐतिदाल बहुत दिनों बाक़ी नहीं रहा और यह अपने आबाओ अजदाद के जादे पर बहुत थोड़े ही अर्से चल निकला और इस अम्र की कोशिश करने लगा कि आले मोहम्मद स. का कोई मोअज़जि़ज़ फ़र्द रहने न पाये बल्कि कोई ऐसा शख़्स भी महफ़ूज़ न रहे जो आले मोहम्मद स. को दोस्त रखता हो। तवारीख़ में है कि उसने याक़ूब इब्ने दाऊद को जो ज़ैदी मज़हब के थे अपना वज़ीरे आज़म बना कर रेफ़ाहे आम के तमाम काम इनसे लिए और यह मालूम होने के बाद कि यह दोस्तदारे आले मोहम्मद हैं उन्हे क़ैद कर दिया।

साहेबे हबीब उस सैर लिखते हैं कि याकू़ब हमेशा से दोस्त दाराने अहले बैत में से था। यहिया इब्ने जै़द और इब्राहीम बरादरे नफ़्से ज़किया के रफ़ीक़ों में से था। शहादते इब्राहीम के बाद मन्सूर ने उसे क़ैद कर लिया था। मेंहदी ने लाएक़ देख कर उसे वज़ीर बना लिया था।(तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 पृष्ठ 56 ) जब लोगों ने मेंहदी को बावर करा दिया कि यह आले मोहम्मद स. का ख़ास दिलदादा है तो उस ने उनसे कहा कि मैं तुम्हें एक बाग़ एक लौड़ीं और एक लाख दिरहम देता हूँ तुम क़ैद ख़ाने में जा कर फ़ुला अलवी को क़त्ल कर दो। उन्होंने सब कुछ लेने के बाद इस अलवी को इसके दो रफ़ीको समैत कै़द ख़ाने से रेहा कर दिया और उसे काफ़ी माल दे कर इससे कहा कि यहाँ से चले जाओ। चुनान्चे वह किसी तरफ़ चले गये। चन्द दिनों के बाद इस कनीज़ ने जो उन्हें मिली थी मेंहदी से बता दिया कि उन्होंने अलवी को क़त्ल करने के बजाए रेहा कर दिया और यही नहीं बल्कि तेरे दिये हुए माल से उसे नवाज़ा भी है। मेंहदी ने आपकी तलाशी ली और वाक़ेयात का पता भी लगाया वाक़ेया चूंकि सही था इस वजह से वह बेरहम हो गया और उसने उन्हें क़ैद का हुक्म दे दिया। याकू़ब क़ैद कर दिये गये और मुद्दतुल उमर क़ैद में रहे।

अल्लामा शाफ़ेई लिखते हैं कि याक़ूब को मेंहदी के हुक्म से उस कुऐं में क़ैद किया गया जिसमें रौशनी न जा सकती थी। जिसके नतीजे में वह बिल्कुल अन्धे हो गये। याक़ूब उसी क़ैद ख़ाने में पड़े रहे यहाँ तक कि हारून रशीद का ज़माना आया और उसने उन्हें रेहा कर के मक्का मोअज़्ज़मा भेज दिया जहाँ यह 187 हिजरी में इन्तेक़ाल फ़रमा गये। इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजेऊन।

(मरातुल जेनान जिल्द 1 पृष्ठ 419 प्रकाशित हैदराबाद दक्कन)