पहला भाग
इमाम की विशेषताएं
इमाम के लिये स्वीकार्य विशेषताएं
अहले सुन्नत धर्म गुरुओं ने अक़ायद व दीनीयात पर बहुत सी किताबें लिखी हैं जैसे: अल मवाक़िफ़ फ़ी इल्मिल कलाम , लेखक क़ाज़ी ऐजी , शरहुल मवाक़िफ़ , लेखक शरीफ़ जुरजानी , अत तजरीद पर लिखी गई क़ौशजी की शरह , शरहुल मक़ासिद , लेखक सअदुद्दीन तफ़तज़ानी , शरहुल अक़ायदिन नफ़सिया व अक़ायद की दूसरी महत्वपूर्ण किताबें।
उन सब ने इन किताबों में इमाम के सिलसिले में बहस की है और उसके लिये अलग से अध्याय बनाये हैं। इन किताबों के अध्यायों में कुछ इमाम के चुनाव के बारे में हैं कि इमाम का चुनाव जनता के हाथ में हैं और ईश्वर का इस चीज़ से कोई लेना देना नही है। यह दृष्टिकोण शिया इमामिया के दृष्टिकोण के विपरित है।
(आप इस किताब को अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क पर पढ़ रहे है।)
वह किताब के दूसरे भागों में इमाम में पाई जानी वाली कुछ शर्तों को अनिवार्य मानते हैं और कहते हैं: जिस किसी को जनता समाज की रहबरी के लिये चुनती है उन में इन सारी शर्तों का पाया जाना आवश्यक है ता कि वह इस महत्वपूर्ण कार्य के चुनाव के योग्य बन सके , उसके बाद वह उन शर्तों का वर्णन करते हैं और उसे दो भागों में बाटते हैं:
1. वह शर्तें जिन्हे सारे ओलमा स्वीकार करते हैं।
2. वह शर्ते जिन के बारे में ओलमा के दरमियान इख़्तिलाफ़ पाया जाया है।
इस लेख में उन शर्तों की जांच पड़ताल की जायेगी जो अहले सुन्नत इमाम की नियुक्ति के लिये बयान करते हैं। ता कि यह देखा जा सके कि वह आवश्यक विशेषताएँ ईशदूत सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम के बाद उनके उत्तराधिकारी के तौर पर किस के अंदर पाई जाती हैं।
अलबत्ता हम इस जांच पड़ताल में शियों के इमाम नियुक्त करने के तरीक़ों की अनदेखी करते हुए , अहले सुन्नत के तरीक़ों के अनुसार इस ख़ूबियों व विशेषताओं के बारे में वार्तालाप करेंगे और बहुत बारीकी से उनकी जांच पड़ताल करेंगे।
1. इल्म व ज्ञान
पहली शर्त जो अहले सुन्नत इमाम के लिये आवश्यक समझते हैं वह उसका इल्म व ज्ञान है , यानी इमाम को धर्म के सिद्धात व उसकी बारीकियों की पूर्ण रुप से जानकारी होनी चाहिये। इस तरह से कि वह इस धर्म की सत्यता व हक़्क़ानियत के लिये दलील व सबूत पेश कर सके। अगर धर्म विरोधियों को ओर से कोई शँका उत्पन्न की जाये तो उसकी अपनी वैचारिक शक्ति इतनी हद तक हो कि वह उनका मुक़बला कर सके और डट कर उन शँकाओं व आपत्तियों को हल कर सके , उनका निवारण कर सके।
2. बहादुरी व वीरता
दूसरी शर्त जो अहले सुन्नत इमाम की नियुक्ति के लिये अनिवार्य समझते हैं वह वीरता व बहादुरी है।
इमाम को इतना वीर व बहादुर होना चाहिये कि वह सारी जंगों में उपस्थित रहे और इस्लामी सेना को दुश्मन से जंग के लिये तैयार कर सके और दुश्मन के हमले के समय न केवल यह कि जंग के मैदान से हटे नही बल्कि अत्यधिक शक्ति के साथ उनके मुक़ाबले पर डटा रहे और धर्म के क़िले और मुसलमान सेनाओं की रक्षा कर सके।
3. न्याय व इंसाफ़
इमाम के लिये आवश्यक तीसरी शर्त न्याय व इंसाफ़ है। यानी इमाम को चाहिये कि वह जनता के साथ जीवन यापन के तरीक़े में न्याय व इंसाफ़ से काम ले। जहां पर मुसलमानों के बीच फ़ैसला करना हो , न्याय व इंसाफ़ के साथ फ़ैसला सुनाये , सरकारी ख़ज़ाने को जनता के बीच न्याय के साथ बाटे और अपने सारे नीजि कार्यों और उन कार्यों में जो मुसलमान जनता से संबंधित हैं , न्याय व इंसाफ़ का ख़्याल रखे।
समस्त अहले सुन्नत ओलमा ने अपनी किताबों में इमाम के लिये इन तीन शर्तों का वर्णन किया है और उनके दृष्टिकोणों के अनुसार जनता के माध्यम से चुनाव होने वाले प्रत्याशी में इन विशेषताओं का पाया जाना आवश्यक है।
अहले सुन्नत ओलमा के दृष्टिकोणों के कुछ उदाहरण
अहले सुन्नत ओलमा के दृष्टिकोणों की जानकारी हासिल करने के लिये हम यहां पर कुछ नमूनों के बयान कर रहे हैं। किताब अल मवाक़िफ़ फ़ी इल्मिल कलाम व शरहुल मवाक़िफ़ में , जो अहले सुन्नत की अक़ायद की सबसे महत्वपूर्ण किताबों में से है , इस तरह से मिलता है:
दूसरा भाग
इमामत की शर्तें
समस्त ओलमा का मानना है कि जनता की इमामत व सर परस्ती के लिये ऐसा व्यक्ति योग्यता रखता है जो धर्म के सिद्धातों , उसूल व फ़ुरू में इज्तेहाद के दर्जे पर पहुच चुका हो और मुजतहिद हो ता कि वह दीन के मसाइल व कार्यों को बयान कर सके और धर्म पर होने वाली आपत्तियों के मुक़ाबले में डट सके और दलील व सबूत के साथ उसका उत्तर दे सके और अपने धर्म की रक्षा कर सके।
इमाम उन इख़्तेलाफ़ी मसलों व कार्यों के हल करने में , जिनमें उसके पास शिकायतें आती हैं , ऐसी शक्ति रखता हो कि उन्हे अपने एक फ़तवे या आदेश से नतीजे तक पहुचा दे और समाज की व्यवस्था को अपनी मुठ्ठी में ले ले। इस लिये कि इमामत का सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य यही मसला है कि जिसमें सबसे पहली श्रेणी में धार्मिक अक़ीदे की अपनी इल्मी शक्ती से रक्षा करना है और शंकाओं को हल करने के लिये उसके पास पर्याप्त दलीलें होनी चाहियें और दूसरे मरहले में मुसलमान के दरमियान पाई जाने वाली आपसी दुश्मनी व इख़्तेलाफ़ का अपनी सूझ बूझ से अंत करना है और फ़ैसले के समय उनके बीच न्याय व इंसाफ़ का ख़्याल रखे। यह वह शर्तें कि जिन के बिना इमामत कभी भी सम्पूर्ण नही हो सकती है।
अत: इन बातों के मद्दे नज़र इमाम के अंदर दो शर्त पाई जानी चाहिये:
1. इल्म
2. बहादुरी
अलबत्ता दूसरी जगहों पर जैसे किताबुल मवाक़िफ़ व शरहुल मवाक़िफ़ में इस तरह से बयान हुआ है:
मशहूर व प्रसिद्ध कथन के मुक़ाबले में कुछ का कहना है कि इन सारी विशेषताओं का पाया जाना आवश्यक नही है क्यों कि आज के दौर में कोई ऐसा नही है जिस में यह सारी ख़ूबियां पाई जाती हों।
क़ाबिले ग़ौर बात यह है कि यह किताबें सातवीं व आठवी हिजरी शताब्दी में लिखी गई हैं। उस ज़माने में जो लोग शासन कर रहे थे उनमें से किसी में यह सारी विशेषताएं नही पाई जाती थीं। इस लिये अहले सुन्नत इमाम के चुनाव व नियुक्ति में इन शर्तों का आवश्यक न मानें और जाहिल व डरपोक यहां तक कि पापी व ग़लत अक़ीदा रखने वाले लोगों की इमामत का क़ायल समझने लगें तो जैसा कि पहले भी इशारा किया जा चुका है कि वह इमाम में पाई जाने वाली तीसरी शर्त न्याय व इंसाफ़ शुमार करते हैं। किताब अल मवाक़िफ़ के लेखक इस बारे में लिखते हैं:
हां , आवश्यक है कि इमाम न्यायप्रिय हो ता कि जनता पर अत्याचार न करे , इस लिये कि निसंदेह फ़ासिक़ व अधर्म इंसान कभी जनता की दौलत को अपने ज़ाती लक्ष्यों में ख़र्च कर सकता है और अपने इस काम से दूसरे के हक़ पर डाका डाल सकता है अत: इमाम में इन विशेषताओं के होने के बारे में सर्व सम्मती पाई जाती है।
उसके बाद इस तरह से लिखते हैं:
यहां पर कुछ दूसरी विशेषताएं भी बयान हुई हैं लेकिन यह कि वह इमामत की शर्तों में से हैं या नहीं ओलमा के दरमियान इस बारे में इख़्तिलाफ़ पाया जाता है।
इस दृष्टिकोण की अक़्ली जांच पड़ताल
हम अहले सुन्नत से उनके इस दृष्टिकोण के बारे में बहस करते हुए कहते हैं कि अक़्ली ऐतेबार से इमाम के अंदर इन तीन शर्तों को होना चाहिये। दूसरी तरफ़ यह फ़र्ज़ कर लेते हैं इमाम का चुनाव व नियुक्ति जनता की राय व उनके समर्थन से होना चाहिये तो इस लिहाज़ हमारा उनसे इख़्तिलाफ़ सिर्फ़ इमाम के बारे में रह जाता है कि अल्लाह के नबी सल्लल्लाहो अलैहे व आलिह व सल्लम के बाद इमाम कौन है , इसलिये कि हमारा मानना है कि आप (स) के बाद हज़रत अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम उनके उत्तराधिकारी व इमाम हैं जब कि उनका अक़ीदा है कि अबू बक्र इमाम हैं।
अब बहस इस बात पर है कि वह विशेषताएं जिन्हे सारे अहले सुन्नत मानते हैं कि वह इमाम में होना चाहिये और कहते हैं कि जनता को चाहिये कि वह किसी ऐसे का चयन करे जिस में यह तीनों शर्तें पाई जाती हों तो क्या यह तीनों विशेषताएं अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम में नही पाई जाती थीं या यह ख़ूबियां केवल अबू बक्र से विशेष थीं व उन तक सीमित थीं ?
अलबत्ता हम यहां पर किताब व सुन्नत से हट कर बहस करेंगे , इस लिये कि पवित्र क़ुरआन व पैग़म्बरे इस्लाम (स) की सुन्नत व दूसरी दलीलें अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम की इमामत व ख़िलाफ़त को बयान और उसे साबित करती हैं।
अक़्ल कहती है: किसी गिरोह का नेता व उसका मार्गदर्शक और ईशदूत (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम) के उत्तराधिकारी में यह सारी ख़ूबियां पाई जानी चाहिये। हम भी अहले सुन्नत की तरह इन सारी विशेषताओं को इमाम के लिये अनिवार्य मानते हैं , हालांकि हम इमाम के मासूम व निष्पाप होने को मानते हैं जो न्याय प्रिय व इंसाफ़वर होने से ज़्यादा श्रेष्ठ है , लेकिन वह सारी विशेषताएं जिन्हे वह स्वीकार करते हैं , उसी से बहस करेंगे और अपने तरीक़े को नज़र अंदाज़ करेंगे।
अब हमारा कहना है कि अगर यह ख़ूबियां जिन्हे अहले सुन्नत मानते हैं , अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम में पाई जाती हों तो वह इमाम व ख़लीफ़ा होंगे और अगर किसी दूसरे इंसान में पाई जाती हों तो वह भी इस इमामत व ख़िलाफ़त के योग्य होगा और अगर यह विशेषताएं दोनों व्यक्तियों में पाई जाती हों तो हम जांच करेंगें कि उन दोनों में से किस में यह विशेषताएं उत्तम श्रेष्ठता के साथ पाई जाती है उसी को उत्तराधिकारी व इमाम व ख़लीफ़ा चुनेंगे और उसे दूसरे पर प्राथमिकता देंगे। इसके अलावा दूसरी सूरत में उस का चुनाव नही करेंगे जो दोनो में से बेहतर है और उस बेहतर को किनारे कर देंगे और जो बेहतर व श्रेष्ठ नही है उसे चुन लेगें। यह चीज़ अक़्ल के ऐतेबार से ग़लत व अनुचित होगी। जब कि पवित्र क़ुरआन में इस बारे में इरशाद हो रहा है:
क्या वह जो हक़ व सत्य की ओर मार्ग दर्शन करता है पैरवी व अनुसरण के लिये श्रेष्ठ है या वह जो पथभ्रष्ट है और जिसे ख़ुद मार्ग दर्शन की आवश्यकता हो ?
वास्तव में क्या वह व्यक्ति व इंसान जो ज्ञानी व पढ़ा लिखा हो , वह जनता के मार्ग दर्शन के लिये श्रेष्ठ हो सकता है या वह जो अज्ञानी व जाहिल व मंद बुद्धि हो ?
अगर यह फ़र्ज़ कर लिया जाये कि वह दोनों ही ज्ञानी व आलिम हैं तो क्या वह जो बड़ा ज्ञानी है उसे प्राथमिकता दी जानी चाहिये या नही ?
क्या वह जो न्याय प्रिय है , वह जनता पर शासन करने के ज़्यादा योग्य है या वह जो जनता पर अत्याचार व ज़ुल्म करता हो ?
जी हां , हमें इन प्रश्नों के उत्तर के लिये बुद्धि व बुद्धिमान लोगो की सहायता की आवश्यकता पड़ेगी , हम इसी सिलसिले में यहां पर बात करना चाहते है।
अहले सुन्नत कहते हैं कि इन विशेषताओं व ख़ूबियों को बारे में सारे धर्म गुरु व बुद्धिजीवि एक राय व एकमत हैं लेकिन इस बात में कि इमाम व उत्तराधिकारी व ख़लीफ़ा , हाशमी और क़ुरैशी , मासूम व निष्पाप व स्वतंत्र हो , इख़्तेलाफ़ पाया जाता है। जब कि वह लोग पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम से एक हदीस का उल्लेख करते हैं कि आपने फ़रमाया कि जो भी मुसलमानों पर विलायत रखता हो , उसकी पैरवी व अनुसरण , उसके आदेश का पालन करना अनिवार्य व आवश्यक है चाहे वह कोई दास व ग़ुलाम ही क्यों न हो।
निष्पाप व मासूम होने की विशेषता व ख़ूबी हो होना , शिया अक़ीदानुसार है जबकि दूसरे सम्प्रदाय इसे अनिवार्य नही मानते हैं और इस के अलावा दूसरी विशेषताओं के बारे में भी भिन्नता पाई जाती है , जैसा कि हमने बयान किया कि अहले सुन्नत केवल तीन विशेषताओं के ऊपर एक राय व एकमत हैं और वह ज्ञान , वीरता व न्याय है , अत: हम अपने शोध व रिसर्च को केन्द्र केवल इन ही तीन विशेषताओं पर आधारित करेंगे।
अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस्सलाम की विशेषताएं
1. ज्ञान व इल्म
इससे पहले बयान किया गया कि पहली शर्त जिसे तमाम अहले सुन्नत इमाम के लिये आवश्यक व ज़रुरी समझते हैं वह ज्ञान व इल्म है।
हम इस भाग में अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम और अबू बक्र की सीरत व जीवनी और जो कुछ हज़रत अली अलैहिस सलाम व अबू बक्र के बारे में बयान किया गया है , का वर्णन करेंगे ता कि अली अलैहिस सलाम और अबू बक्र के इल्मी स्थान को स्पष्ट कर सकें और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम , उनके सहाबियों और मुस्लिम धर्म गुरुओं के हज़रत अली अलैहिस सलाम और अबू बक्र के बारे में व्यक्त की गई प्रतिक्रियाओं का वर्णन करेंगे।
अलबत्ता हम उन दोनों हज़रात के अपने बारे में कहे गये वाक्यों को हरगिज़ पेश नही करेंगें कि अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम फ़रमाते हैं:
ईशदूत (स) ने हज़ार इल्मी नुक्तों को मेरे लिये बयान किया और उन में से हक एक नुक्ते और उनकी वास्तविकताओं से हज़ार दूसरी हक़ीक़तें स्पष्ट होती थीं।
इस लिये कि हमारा फ़र्ज़ यह है कि यह हदीस ख़ुद हज़रत अली अलैहिस सलाम से बयान हुई है। एक दूसरी हदीस में आया है कि हज़रत अली अलैहिस सलाम अकसर कहा करते थे:
इससे पहले कि मैं तुम्हारे दरमियान न रहूं मुझ से पूछ लो।
और जबकि अबू बक्र ने अपनी सारी ज़िन्दगी में कभी भी इस तरह का जुमला अपनी ज़बान पर जारी नही किया है।
हालाकि हम दूसरे मक़ाम पर इस हदीस के बारे में जिसे अहले सुन्नत ने भी बयान किया है , बहस करेंगे लेकिन इस समय हम हज़रत अली अलैहिस सलाम व अबू बक्र के बारे में दूसरी के कथनों की जांच पड़ताल करेंगे ता कि उसके बाद हम इन दोनों में से उसका चुनाव कर सकें जो जनता की इमामत व ख़िलाफ़त के इस पद के लिये ज़्यादा योग्य हो।
ईशदूत (स) की दृष्टि में अली (अ) का इल्मी स्थान
1. नबी (स) के इल्म का दरवाज़ा
अब हम इमाम के लिये अनिवार्य पहली शर्त के बारे में बहस करेंगे कि हां इल्म व क़ुदरत विरोधियों से बहस करने और दलील व सबूत लाने के लिये पर्याप्त व काफ़ी है।
अब यह देखना होगा कि इमामत के लिये यह अति महत्वपूर्ण व बुनियादी शर्त किस के अंदर पाई जाती है और प्रतिक्रियाएं व हदीसें जो रसूल ख़ुदा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिह व सल्लम से हम तक पहुची हैं , इस श्रेष्ठता व फ़ज़ीलत को किस सहाबी के बारे में साबित करती हैं।
तमाम अहले सुन्नत धर्म गुरुओं ने अपनी किताबों में इस पवित्र हदीस को अल्लाह के रसूल (स) से ज़िक्र किया है कि आप (स) ने फ़रमाया:
(आप इस किताब को अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क पर पढ़ रहे है।)
मैं ज्ञान का शहर हूं और अली उसका दरवाज़ा।
हम उन तमाम ओलमा का नाम यहां पर बयान करेंगे जिन्होने अपनी किताबों में इस पाक हदीस का वर्णन किया है:
1. अब्दुर रज़्ज़ाक़ बिन हम्माम सनआनी।
2. यहया बिन मईन , वह हैं जो रेजाल शास्त्र और सनद में कीड़ा निकालने के माहिर माने जाते हैं लेकिन उसके बावजूद इस हदीस को रद्द नही कर सकें हैं और उसे सहीह मानते हैं।
3. अहमद बिन हंबल।
4. तिरमिज़ी (प्रसिद्ध किताब सहीह तिरमिज़ी के लेखक)।
5. अबू बक्र बज़्ज़ाज़।
6. मुहम्मद बिन जरीर तबरी।
7. तबरानी।
8. अबुश शैख़।
9. इब्ने सक़्क़ा वास्ती।
10. इब्ने शाहीन।
11. हाकिम नैशा पूरी।
12. इब्ने मरदवैह।
13. अबू नईम इस्फ़हानी।
14. मावरदी।
15. ख़तीबे बग़दादी।
16. इब्ने अब्दुर बर।
17. समआनी।
18. इब्ने असाकर।
19. इब्ने असीर जज़री।
20. इब्ने नज्जार।
21. जलालुद्दीन सुयूती।
22. क़सतलानी।
23. इब्ने हजरे मक्की।
24. मुत्तक़ी हिन्दी।
25. मुल्ला अली क़ारी।
26. मन्नावी।
27. ज़रक़ानी।
28. शाह वलीयुल्लाह देहलवी।
यह सब के सब और दूसरे ओलमा ने अपनी किताबों में इस हदीस को बयान किया है कि रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिह व सल्लम ने अली अलैहिस सलाम की शान में इस तरह से फ़रमाया:
मैं इल्म व ज्ञान का शहर हूं और अली उसका दरवाज़ा हैं।
अब जब कि यह श्रेष्ठता व फ़ज़ीलत हज़रत अली अलैहिस सलाम के लिये साबित हो गई तो यह सवाल पैदा होता है कि क्या पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिह व सल्लम ने अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम के अलावा किसी और के बारे में भी इस तरह की कोई बात कही है या नही ?
2. हिकमत के घर का दरवाज़ा
एक दूसरी बात जो पैग़म्बर अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम ने अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम के हक़ में कही है वह यह है कि
मैं हिकमत का घर हूं और अली उसका दरवाज़ा।
इस हदीस को भी अहले सुन्नत के बहुत से ओलमा ने बयान किया है जैसे:
1. अहमद बिन हंबल।
2. इमाम तिरमिज़ी।
3. मुहम्मद बिन जरीर तबरी।
4. हाकिमे नैशा पुरी।
5. इब्ने मरदवैह।
6. अबू नईम इस्फ़हानी।
7. ख़तीब तबरेज़ी।
8. अलाई।
9. फ़ीरोज़ा बादी।
10. इब्ने जज़री।
11. इब्ने हजरे असक़लानी।
12. जलालुद्दीने सुयूती।
13. क़सतलानी।
14. सालिही दमिश्क़ी।
15. इब्ने हजरे मक्की।
16. मुत्तक़ी हिन्दी।
17. मनावी।
18. ज़रक़ानी।
19. वयीयुल्लाह देहलवी व दूसरे धर्म गुरु।
इन सब ने रिवायत की है कि पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिह व सल्लम ने अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम के बारे में फ़रमाया:
मैं हिकमत का घर हूं और अली उसका दरवाज़ा।
पैग़म्बरे अकरम (स) की इन दोनो पवित्र हदीसों का वर्णन करने के बाद और इसके सही होने के बारे में अहले सुन्नत के सारे ओलमा के एकमत होने के बाद हम कहते हैं कि
अगर रसूले ख़ुदा (स) ने हज़रत अली अलैहिस सलाम की शान में इस तरह की बात कही है तो फिर इमामत व ख़िलाफ़त के पद के लिये कौन ज़्यादा योग्य है ?
क्या अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम में यह योग्यता होगी कि वह इस्लाम धर्म की सत्यता व उसके प्रमाणित करने और विरोधियों की आपत्तियों का उत्तर देने के लिये दलील व सबूत पेश कर सकें या ऐसे किसी इंसान में यह योग्यता होगी जिसके बारे में ऐसी कोई बात बयान नही हुई हो।
3. इख़्तेलाफ़ी बातों का बयान
एक दूसरी हदीस जो अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम की इल्मी हैसियत पर स्पष्ट दलालत करती है वह रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम की वह हदीस है जिस में आप ने फ़रमाया:
तुम मेरे बाद उम्मत में पेश आने वाले इख़्तेलाफ़ात को साफ़ व स्पष्ट करोगे।
इस हदीस के मद्दे नज़र , रसूले ख़ुदा (स) ने अली अलैहिस सलाम को उम्मत व जनता के सारे इख़्तेलाफ़ी मामलों का जज व शासक नियुक्त किया है। चाहे वह इख्तिलाफ़ दुनियावी कार्यों से संबंध रखता हो या उन विरोध के बारे में हो जो धर्म के बारे में पैदा हो रहे हों। उम्मत के इन सारे झगड़ों में जज और उनका समाधान करने वाले अली अलैहिस सलाम हैं।
इस हदीस को भी बहुत से अहले सुन्नत ओलमा ने ज़िक्र किया है जैसे:
1. हाकिमे नैशा पुरी , जो इस सही की सनद को सही मानते हैं।
2. इब्ने असाकर ने अपनी किताब तारीख़ो मदीनते दमिश्क़ में इसको बयान किया है।
3. दैलमी।
4. जलालुद्दीने सुयूती।
5. मुत्तक़ी हिन्दी।
6. मन्नावी।
ओलमा के एक दूसरे गिरोह ने भी इस हदीस की रिवायत की है और कहा है कि इस तरह की तरह हदीस रसूले ख़ुदा के किसी और सहाबी के बारे में बयान नही हुई है।
4. सुनने वाले कान
हदीस में आया है कि जिस समय यह पवित्र आयत ( ) और सुनने वाले कान उसे सुनते और समझते हैं , नाज़िल हुई , हमने देखा कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिह व सल्लम ने फ़रमाया:
निसंदेह अली ही वह सुनने वाला कान हैं।
बेशक अली वही सुनने वाला कान हैं जो चीज़ों को याद रखते हैं तो इसका मतलब हुआ कि अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम का पवित्र ह्दय ही वह ज़र्फ़ है जिस में ख़ुदा वंदे आलम की तरफ़ से चीज़ें नाज़िल होती हैं और आप (अ) ही वह हस्ती हैं जो संसार की सारी वास्तविकताओं को अपने दामन मे समेटे हुए हैं और रसूले ख़ुदा (स) के इल्म के हामिल व संरक्षक बनने बाले हैं। इस हदीस का निम्न लिखित किताबों में अध्धयन किया जा सकता है:
1. तफ़सीरे तबरी।
2. तफ़सीरे अल कश्शाफ़।
3. तफ़सीरे राज़ी।
4. तफ़सीरे दुर्रे मंसूर।
जलालुद्दीन सुयूती ने इसी किताब में इस हदीस को सईद बिन मंसूर , इब्ने जरीर , इब्ने मुन्ज़िर , इब्ने अबी हातिम , इब्ने मरदवैह , इब्ने असाकर , वाहिदी व इब्ने नज्जार से रिवायत किया है।
5. हिलयतुल औलिया।
6. मजमउज़ ज़वाइद व दूसरी किताबें।
5. बेहतरीन फ़ैसला करने वाले
रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम ने एक दूसरी हदीस में फ़रमाया:
जैसा कि किताब शरहुल मवाक़िफ़ के लेखक कहते हैं कि हमारी इमाम के प्रति आवश्यकता का कारण यह है कि सारे झगड़ों , इख़्तेलाफ़ात व समस्याओं में कोई होना चाहिये कि जिसके पास जनता अपनी शिकायत को ले कर जा सके और वह उनका समाधान कर सके और न्याय के साथ फ़ैसला सुनाये। इस हदीस में पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया:
न्याय व फ़ैसला करने में तुम में सब से बेहतर अली हैं।
इस तरह की हदीस अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम के अलावा रसूले ख़ुदा (स) के किसी भी सहाबी के बारे में बयान नही हुई है।
यह हदीस इन किताबों में आई है
1. सही बुख़ारी।
2. मुसनद अहमद बिन हंबल।
3. अल मुसतदरक अलल सहीहैन।
4. सोनने इब्ने माजा।
5. अत तबक़ातुल कुबरा।
6. अल इसतिआब।
7. अस सोननुल कुबरा।
8. मजमउज़ ज़वाइद।
9. हिलयतुल औलिया।
10. उस्दुल ग़ाबा।
11. अर रियाज़ुन नज़रा व दूसरी किताबें।
अब हमारा पाप क्या है अगर हम कहें कि इमामत व ख़िलाफ़त और जनता के मार्ग दर्शन की योग्यता व सलाहियत केवल अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम में पाई जाती है , यहां तक कि अगर इस कार्य को जनता के हवाले भी कर दिया जाये और वह इमामत व ख़िलाफ़त के लिये अपने नेता का चुनाव करना चाहें तो उन्हे भी अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम का चुनाव करना पड़ेगा। इस लिये कि वह उसूल व सिद्धात जो अहले सुन्नत अपने अक़ायद की किताबों में बयान किये हैं और इमाम में उन विशेषताओं के पाये जाने को आवश्यक व अनिवार्य माना है वह अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम के अलावा किसी भी मानव में नही पाई जाती हैं।
जो भी अब तक सारांश में बयान किया गया वह सब ईशदूत सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम की अमीरुल मोमिनीन की इल्मी श्रेष्ठता व मरतबे के बारे में हदीसें और कथन थे। इन कथनों से यह चीज़ स्पष्ट हो जाती है कि वह व्यक्ति जो इस पवित्र धर्म इस्लाम की रक्षा में दलील व सबूत पेश करने की योग्यता व सलाहियत रखता है और उसके बारे में उत्पन्न की जाने वाली शंकाओं का निवारण कर सकता है वह अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम हैं और वहीं हैं जिन्हे रसूले ख़ुदा (स) की तरफ़ से सारे इख़्तिलाफ़ात व झगड़ों के हल के लिये चयनित किया गया है और केवल वही हैं जिन में रसूले ख़ुदा (स) के बाद अपने इल्म व ज्ञान की शक्ति से इख़्तिलाफ़ व झगड़ों का हल निकाल सकते हैं।