सामाजिकता

सामाजिकता12%

सामाजिकता लेखक:
: मौलाना सैय्यद एजाज़ हुसैन मूसावी
कैटिगिरी: परिवार व समाज

सामाजिकता
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सामाजिकता

सामाजिकता

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.


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जुदाई तौबा के स्वीकार होने का कारण

इस्लाम के फ़ायदेमंद क़ानूनों में से एक कानून ख़ुदा के दुश्मनों के साथ जेहाद करना है जो धर्म की रक्षा , देश और देश वासियों की सुरक्षा और बच्चों , औरतों , और मर्दों की हिफाज़त के लिये वाजिब (अनिवार्य) होता है।

ख़ुदा वन्दे आलम ने दुश्मनों के साथ जेहाद करने वालों को , जेहाद में सुस्ती करने वालों के मुकाबले में बहुत ज़्यादा पुन्य देने के साथ उन पर प्रधानता प्रदान की है।

فضل اللہ المجاھدین علی القاعدین اجرا عظیما “( ۱ ) ۔

फज़लुल्लाहो अल मुजाहेदीन अला अलकाऐदीन अजरन अज़ीमा।

और मुजाहेदीन को (बिना किसी कारण के जंग पर न जाने वाले लोग) बैठे रहने वालों के मुकाबले में अज्रे अज़ीम (महान पुन्य) अता किया है।

अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम ने अपनी उम्र के आखिरी लम्हों में जेहाद के महत्व और दुनिया व आखेरत में जेहाद के फ़ायदों को बयान करते हुऐ अपनी औलाद और तमाम मोमिनीन को क्यामत तक के लिये वसीयत फरमाईः

” اللہ اللہ فی الجھاد باموالکم و انفسکم و السنتکم “( ۲ ) ۔

अल्लाह अल्लाह फिलजेहादे बेअमवालेकुम व अन्फोसेकुम व अलसेनतेकुम।

अपने माल , जान और ज़बानों के जेहाद में सिर्फ ख़ुदा को मद्दे नज़र रखो।

इस वाजिब हुक्म और इस्लाम के इस महान क़ानून को नज़र में रखते हुऐ मोमिनीन , पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के मार्ग दर्शन में दुश्मन से जंग करने के लिये तबूक की तरफ़ रवाना हुए , लेकिन मुनाफ़ेक़ीन का एक गिरोह और तीन मोमिन कअब बिन मालिक , मरारत बिन रबीअ और बेलाल बिन उमइया ने पैगम्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के साथ दुश्मन से जंग करने से इंकार किया।

उन तीनों मोमीनों की ख़िलाफ वर्ज़ी कअब बिन मालिक की ज़बान से बयान करते हैः

कअब बिन मालिक कहता है किः जिस समय पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम तबूक की तरफ़ रवाना हुए , मुझ में जेहाद करने की सारी शर्तें पाई जाती थीं। घर और जंग का सारा ख़र्च मेरे पास मौजूद था , मैंने सोचा कि तबूक जाने के लिये परसों को रवाना हो जाऊँगा और लश्करे इस्लाम से मिल जाऊँगा लेकिन मैंने सुस्ती से काम लिया और मदीने में रह गया और ख़ुद को जेहाद के अज़ीम लाभ से वंचित कर लिया।

इन्हीं दिनों में बेलाल बिन उमइया और मरारत बिन रबीअ जिन्होंने मेरी तरह पैगम्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के साथ जंग में न जाने की ख़िलाफ वर्ज़ी की थी , से मुलाकात की , हम तीनों रोज़ाना सुबह को बाज़ार जाते थे और ख़रीदने बेचने का कोई मुआमला भी अन्जाम नहीं देते थे , और एक दूसरे से जंग पर जाने का वादा करते थे , लेकिन वादा वफा नहीं करते थे।

रोज़ाना इसी तरह वक्त गुज़रता रहा , यहाँ तक कि पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के मदीने वापस आने की खुशख़बरी सुनी हम अपने काम से लज्जित थे।

रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के स्वागत के लिये गये और आपको सही व सालिम वापस आने की मुबारकबाद दी और आप को सलाम किया , पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम ने हमारे सलाम का जवाब नहीं दिया और हमारी तरफ़ से रुख मोड़ लिया , हमने इस्लाम के मुजाहेदीन को सलाम किया , उन्होंने ने भी पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम की पैरवी करते हुऐ हमारे सलाम का जवाब नहीं दिया।

यह ख़बर हमारे घर में हमारी बीवियों को भी मालूम हो गई , उन्होंने भी हमसे संबंध तोड़ लिया और हमसे बात नहीं की।

मस्जिद गये तो किसी ने हमसे सलाम कलाम नहीं किया , हमारी बीवियों पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के पास गईं और कहाः हमने सुना है कि आप हमारे शौहरों से नाराज़ हैं , क्या हम उनसे जुदा हो जायें , आपने फरमायाः जुदा न हों लेकिन उनको अपने पास न आने दो।

जब हमने इतनी बड़ी घटना अपनी ज़िन्दगी में देखी और अपने लिये अपमान की भावना देखी तो अपने आपसे कहाः मदीना हमारे रहने की जगह नहीं है , पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम , मोमिनीन और हमारे घर वाले हमसे बात नहीं करते और हमसे संबंध तोड़ लिया है , लिहाज़ा हम मदीने के नज़दीक उस पहाड़ पर चले जाते हैं और वहीं ज़िन्दगी बसर करते हैं या तो पैगम्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम हमारी ग़लती को क्षमा कर देंगे या हम वहीं पर मर जायेगे।

तीनों उस पहाड़ पर चले गये और रोज़ा रखते थे उनके घर वाले उनके लिये खाना लाते और उनके सामने रख देते लेकिन उनसे कोई कलाम न करते , इसी तरह बहुत समय गुज़र गया , वह दिन रात रोते थे और ख़ुदा से क्षमा की दुआ करते थे , लेकिन उनकी तौबा स्वीकार होने की कोई ख़बर नहीं आती थी।

कअब ने अपने उन दोनों दोस्तों से जिन्होंने उसको जंग पर जाने से मना किया था , कहाः ख़ुदा , पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम , मोमिनीन और हमारे घर वाले हमसे नाराज़ हैं और हमसे बात नहीं करते और हमारी तौबा भी कबूल नहीं होती इसकी वजह यह है कि हम एक दूसरे से इस तरह नाराज़ नहीं हुए हैं जिस तरह ख़ुदा , पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम और मोमिनीन हमसे नाराज़ हैं।

इस बुनियाद पर आधी रात को एक दूसरे से जुदा हो गये और कसम खाई कि एक दूसरे से उस वक्त तक बात नहीं करेंगे जब तक हमारी तौबा कबूल नहीं हो जाती या हमें मौत नहीं आ जाती , तीन रात दिन इसी तरह गुज़र गये , तीसरी रात जिस वक़्त पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम उम्मे सलमा के घर तशरीफ फऱमा थे , यह आयत नाज़िल हुई।

وَ عَلَی الثَّلاثَةِ الَّذینَ خُلِّفُوا حَتَّی إِذا ضاقَتْ عَلَیْہِمُ الْاٴَرْضُ بِما رَحُبَتْ وَ ضاقَتْ عَلَیْہِمْ اٴَنْفُسُہُمْ وَ ظَنُّوا اٴَنْ لا مَلْجَاٴَ مِنَ اللَّہِ إِلاَّ إِلَیْہِ ثُمَّ تابَ عَلَیْہِمْ لِیَتُوبُوا إِنَّ اللَّہَ ہُوَ التَّوَّابُ الرَّحیمُ “( ۲ ) ۔

व अला अस्सलासते अल्लज़ीन खुल्लेफू हत्ता ईज़ा ज़ाकत अलैहिम अलअर्ज़ो बेमा रहोबत व ज़ाकत अलैहिम अन्फोसहुम व ज़न्नू अन ला मल्जँ मिनल्लाहे इल्ला इलैह सुम्म तॉब अलैहिम लेयतूबू इन्न लिल्लाहे होव अत्तव्वाबुर्रहिम।

और अल्लाह ने उन तीनों पर भी रहम किया जो जेहाद से पीछे रह गये यहाँ तक कि जब ज़मीन अपने फैलाव समेत उन पर तंग हो गई और उनकी जान पर बन गई और उन्होंने यह समझ लिया कि अब अल्लाह के अलावा कोई पनाहगाह नहीं है तो अल्लाह ने उनकी तरफ तवज्जोह फरमाई कि वह तौबा कर लें इस लिये कि वह बड़ा तौबा कबूल करने वाला और मेहरबान (दयालु) है।

सामाजिकता के बेहतरीन नमूने

ख़ुदा के लिये सब्र करना

अबू तलहा , रसूले ख़ुदा सल्ललाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के सहाबी हैं , उनकी एक बीवी थीं जिनका नाम उम्मे सलीम था , उन दोनों मियाँ बीवी का एक बेटा था जिसको वह दोनों बहुत चाहते थे , विशेष तौर पर अबू तलहा अपने बेटे से बहुत ज़्यादा मुहब्बत करते थे , बेटा बीमार हो गया और उसकी बीमारी इतनी ज़्यादा हो गई कि उम्मे सलीम समझ गईं कि अब उनका बेटा ज़िन्दा नहीं बचेगा।

उम्मे सलीम ने यह सोचते हुए की उनका शौहर , बेटे के मरने की वजह से बेताब न हो , उसको बहाने से पैगम्बरे अकरम सल्ललाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के पास भेज दिया , कुछ देर के बाद उस बच्चे का इन्तेकाल हो गया।

उम्मे सलीम ने बच्चे के जनाज़े को एक कपड़े में लपेट कर एक कमरे में छुपा दिया , और सारे घर वालों से कहा कि किसी को हक नहीं है कि वह अबू तलहा को बेटे की मौत से बाख़बर करे , उसके बाद उसने खाना तैयार किया और खुद भी साफ सुथरी होकर खुशबू लगा कर तैयार हो गई , कुछ घन्टों के बाद अबू तलहा आये तो घर की हालत को बदला हुआ पाया और पूछा की बच्चा कहाँ है ?

उम्मे सलीम ने कहाः बच्चे को आराम मिल गया है , अबू तलहा को भूख लगी हुई थी उसने खाना मांगा , उम्मे सलीम ने खाना लगाया , दोनों ने खाना खाया और हम बिस्तर हुए , अबू तलहा को सुकून मिला तो उम्मे सलीम ने कहाः मैं तुमसे एक बात पूछना चाहती हूँ , उन्होंने कहाः सवाल करो , अगर मैं तुम्हें यह खबर दूँ कि हमारे पास एक अमानत थी और हमने उस अमानत को उसके मालिक के हवाले कर दिया तो तुम नाराज़ होगे , अबू तलहा ने कहाः नहीं मैं हरगिज़ नाराज़ नहीं हूँगा , लोगों की अमानत को वापस करना चाहिये , उम्मे सलीम ने कहाः सुब्हानल्लाह , ख़ुदा वन्दे आलम ने हमारे बेटे को हमें अमानत दिया था और अब उसने वह अमानत हमसे वापस ले ली है।

अबू तलहा को अपनी बीवी के इस बयान पर बहुत तअज्जुब हुआ और कहाः ख़ुदा की क़सम मुझे तुमसे ज़्यादा अपने बेटे के ग़म में साबिर होना चाहिये , वह अपनी जगह से उठे , गुस्ल किया और दो रकअत नमाज़ पढ़ी , फिर रसूले ख़ुदा सल्ललाहो अलैहे व आलेही वसल्लम की ख़िदमत में जाकर पूरा वाक़या शुरू से सुनाया , रसूले ख़ुदा सल्ललाहो अलैहे व आलेही वसल्लम ने फ़रमायाः ख़ुदावन्दे आलम आज तुम्हे बरकतों से नज़दीक करे और तुम्हे पाक व पाकीज़ा नस्ल अता करे , मैं खुदा का शुक्र अदा करता हूँ कि उसने मेरी उम्मत में भी बनी इसराईल की साबेरा की तरह किसी को क़रार दिया है।

इंसानीयत की मेराज

अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस्सलाम एक ऐसे महान व्यक्तित्व के मालिक हैं जिनमें समस्त इंसानी विशेषताएं इकठ्ठा हो गई हैं , आप का कुतर्क , रंग भूमि पर आधारित है और जैसे आपने उसमें अपना सारा जीवन गुज़ारा है , आप की आत्मा ऐसी है जो जंग के समस्त दावों के भलि भाति जानती है , दूसरे दृष्टिकोण से भी हज़रत अली अलैहिस सलाम की ज़िन्दगी को देखते हैं तो आपको एक ऐसा आरिफ़ (अंतरयामी) पाते हैं कि मानो आप ख़ुदा से राज़ो नियाज़ के अलावा किसी और चीज़ के आशिक नही हैं।

नमूने के तौर पर नहजुल बलागा की दो पंक्तियों की तरफ़ ईशारा करेंगें ताकि इस्लाम की मन्तिक (कुतर्क) से ज़्यादा पहचान हो सके।

सिफ़्फ़ीन में हज़रत अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस्सलाम का मुआविया से पहला मुक़ाबिला इस तरह होता है कि मोआविया का लश्कर एक तरफ़ से आता है और हज़रत अली अलैहिस्सलाम का लश्कर दूसरी तरफ से वारिद होता है दोनों लश्कर फ़ुरात के किनारे एक दूसरे से नज़दीक होते हैं , मुआविया हुक्म देता है कि उसके लश्कर वाले आगे बढ़े और हज़रत अली अलैहिस्सलाम और आपके फ़ौजियों वहां के पहुँचने से पहले फ़ुरात पर कब्ज़ा कर लें और उन पर पानी के बंद कर दें , मुआविया की फ़ौज के सिपाही बहुत खुश होते हैं और कहते हैः हमने बेहतरीन दावे से फ़ायदा उठाया है , क्योंकि हज़रत अली अलैहिस्सलाम के लश्कर को पानी नहीं मिलेगा तो मजबूर होकर फ़रार करेंगे।

अमीरुल मोमनीन अली अलैहिस्सलाम ने फरमायाः पहले एक उनसे बात करो और बातचीत के ज़रिये इस मुश्किल को हल करो , जो गिरह हाथों से खुल सकती हो उसे दांतों से क्यों खोलते हो , जहाँ तक संभव हो ऐसा काम न करो कि मुसलमानों के दो गिरोहों में जंग और ख़ून बहे।

मुआविया को पैग़ाम दिया कि अभी हम उस जगह तक नहीं पहुँचे और तूने पानी बंद कर दिया , मुआविया ने एक सभा बुलाई और यह मसअला उनके सामने रखा और कहा कि तुम्हारा क्या मशवरा है , उनके लिये पानी को बंद रखें या आज़ाद कर दें , कुछ ने कहाः पानी को आज़ाद कर दिया जाये और कुछ ने कहा नहीं।

अमरे आस ने कहाः पानी को आज़ाद छोड़ दें क्योंकि अगर आज़ाद नहीं छोड़ेंगे तो वह ज़बरदस्ती हमसे छीन लेंगें और हमारी इज़्ज़त मिट्टी में मिल जायेगी , दूसरों ने कहाः नहीं हम पानी पर अपना कब्ज़ा रखेंगे और वह हमसे पानी नहीं छीन सकते , आख़िरकार उन्होंने घाट से अपना कब्ज़ा नहीं हटाया , और अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस्सलाम को जंग करने पर मजबूर कर दिया , उसके बाद आपने अपने लश्कर के सामने जंग से पहले देने वाला एक खुत्बा इरशाद फ़रमायाः जो हज़ारों तबल , हज़ारों फौजी हरबों से ज़्यादा प्रभाव डालने वाला था आपने बुलन्द आवाज़ में फरमायाः

ऐ लोगों , यह लोग आये हैं और मुआविया ने अपने गिर्द गुमराह लोगों का एक गिरोह जमा किया है , उन्होंने तुम पर पानी बंद कर दिया है , जानते हो उन्होंने क्या किया , तुम्हारे ऊपर पानी बंद कर दिया है , ऐ लोगों , तुम्हें मालूम है कि तुम्हें क्या करना है , दो रास्तों में से एक रास्ते का चुनाव करो , मेरे साथी मेरे पास आये कि प्यासे हैं और पानी नहीं है , हमें सैराब होने के लिये पानी चाहिये , तुम पहले अपनी तलवारों को उन ज़ालिमों के खून से सैराब करो तभी तुम सैराब हो सकते हो।

इमाम अलैहिस्सलाम ने मौत और ज़िन्दगी की व्याख्या में जंग के मौक़े वाला ख़ुतबा इरशाद फरमाया किः जिसने दिलों में उथल पुथल मचा दी और वह जुमला यह हैः ऐ लोगों , हयात का क्या मतलब , ज़िन्दगी का क्या मतलब , और मरने का क्या मतलब है , ज़िन्दगी यानी ज़मीन पर रास्ता चलना और खाना पीना , मौत यानी मिट्टी के नीचे दफ़्न हो जाना , नहीं , न यह ज़िन्दगी है और न वह मौत है।

” فالموت فی حیاتکم مقھورین والحیاة فی موتکم قاھرین “( ۱ ) ۔

फल्मौत फि हयातेकुम मक्हूरीन वलहयातो फि मौतेकुम काहेरीन।

ज़िन्दगी यह है कि मर जाओ और सफ़ल रहो , मौत यह है कि ज़िन्दा रहो और असफ़ल रहो।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम की फ़ौज आपके इस खुतबे से ऐसी प्रभावित हुई कि सबने दुश्मन पर हमला किया और उसको फुरात से कई किलो मीटर पीछे ढकेल दिया , दरिया का घाट उससे छीन लिया और दरिया के तमाम घाटों को बंद कर दिया , मुआविया और उसके लश्कर के पास पानी नहीं रहा , उसने अनुरोध के साथ एक खत लिखा , हज़रत अली अलैहिस्सलाम के असहाब ने कहाः असंभव है कि हम उन पर पानी को आज़ाद करें , हमने यह काम नहीं किया है बल्कि हमने यह काम तुमसे सीखा है , लेकिन हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अपने असहाब से फ़रमायाः हम कभी भी ऐसा काम नहीं करेंगे , यह बहुत ग़लत काम है , मैदाने जंग में दुश्मन से जंग ज़रुर करेंगे लेकिन हरगिज़ इस तरह की कामयाबी हासिल नहीं करेंगे , इस तरह की पाबंदियों से सफ़ल होना मेरी और एक बाईज़्ज़त मुसलमान की शान नहीं है।

प्रगति और कमाल तक पहुचने के लिये इल्म हासिल करना

स्वर्गिय आयतुल्लाह नजफी कौचानी ने अपनी किताब (सियाहते शर्क़ (पूर्वी दुनिया की सैर) में लिखा है किः

समस्त धार्मिक छात्रों को पहले अपने अध्यात्म की पवित्रता के लिये प्रयत्न करना चाहिये और अगर कोई अभी बचपन की उम्र है और उसका बातिन अपवित्र और मैला नहीं हुआ है तो उसको इस बात का ख़्याल रखना चाहिये कि उसका बातिन (अध्यात्म) नजिस न हो , अत: पहले मरहले में इल्म व अमल और अख़्लाक से आरास्ता होना चाहिये उसके बाद गंभीरता से इल्म की वास्तविकता को हासिल करने का प्रयत्न करना चाहिये।

मुल्ला सदरा ने इल्म को माल व मुक़ाम के लिये हासिल नहीं किया उनका मानना था कि धार्मिक छात्रों को माल व अवसर की फ़िक्र नहीं करनी चाहिये , सिर्फ इस इतना माल हासिल करे जिसकी उसको ज़रुरत है , सदरुल मोतअल्लेहीन कहते थेः जो भी इल्म को माल व मुक़ाम के लिये हासिल करे वह बहुत खतरनाक इंसान है उससे दूरी इख़्तेयार करनी चाहिये , वह अपनी कक्षा में (फ़ारसी के प्रसिद्ध कवी मोलवी) के इन शेरों को पढ़ा करते थे।

बद गोहर रा इल्मो फ़न आमूख्तन

दादने तीग़ अस्त दस्ते राहे ज़न

तीग़ दादन दर कफे ज़न्गी मस्त

बेह के आयद इल्मे नाक़िस रा बेदस्त

इल्मो मालो मन्सबो जाहो कुरआन

फितना आरद दर कफे बद गोहरान

चून क़लम दर दस्त ग़द्दारी फोताद

ला जरम मन्सूर बर्दारी फोताद।

मुल्ला सदरा ने जब मीर दामाद के पहले दर्स में शिरकत की तो दर्स खत्म होने के बाद मीर दामाद उनको अपने साथ एक जगह ले गये और कहाः ऐ मोहम्मद , मैंने आज कहा है कि जो भी हिक्मत हासिल करना चाहता है उसको पहले अमली हिकमत को तलाश करना चाहिये और अब तुमसे कहता हूँ कि पहले मरहले में हिकमते अमली दो चीज़ें हैं:

एक यह कि दीने इस्लाम के तमाम वाजेबात को अंजाम दो , और दूसरे यह कि हर उस चीज़ से बचो जिसको नफ़्स अपनी खुशी के लिये चुनता है।

बोध (हिकमत) हासिल करने वाले के लिये दूसरा तरीक़ा यह है कि वह अपने नफ़्स को इच्छाओं की पूर्ती से बचाये , जो भी नफ़्से अम्मारा (बुरी इच्छाओ) का आज्ञाकारी होकर हिकमत (बोध) हासिल करे , वह एक दिन बे घर्म हो जाऐगा और सेराते मुस्तकीम (सीधे रास्ते) से उसका ईमान मुन्हरिफ़ (भ्रष्ट) हो जायेगा।

मोहम्मद ज़करीया ए राज़ी (प्रसिद्ध मुसलमान हकीम) इस्लामी चिकित्सा शास्त्र के छात्रों की विशेषता का उल्लेख करते हुए कहते हैः

अनिवार्य (वाजिब) है की चिकित्सा शास्त्र का छात्र इस शास्त्र को माल जमा करने के लिये हासिल न करे बल्कि उसको ध्यान रखना चाहिये कि ख़ुदा के नज़दीक सबसे करीबी बन्दे वही हैं जो विद्धान और न्याय प्रिय होने के साथ लोगों पर बहुत ज़्यादा मेहरबान (दयालु) हैं।

मुल्ला सदरा की कक्षा में शिरकत करने के लिये ईरान के तमाम शहरों से छात्र शीराज़ शहर जाते थे , मुल्ला सदरा अपने शागिर्दों को चार शर्तों पर अमल करने की प्रतिज्ञा के साथ स्वीकार करते थे जिनका वर्णन नीचे किया जा रहा हैं:

1- पैसा कमाने के लिये इस शास्त्र को हासिल न करें , केवल उतना माल हासिल करें जितने की उसको ज़रुरत हो।

2- पद और अवसर हासिल करने के लिये इस शास्त्र को हासिल न करें।

3- पाप और गुनाह न करें।

4- तक़लीद न करे (यानी बिना विचार किये आँख बंद करके हर एक की बेजा बात न मानें)।

अगर शागिर्द इन चार शर्तों को तसलीम करके उन पर अमल करता था तो मुल्ला सदरा उसको कबूल करते थे कि वह उनके मदरसे में इल्म हासिल करे और शागिर्दों के पास बैठे वर्ना उससे कहते थे कि इस मदरसे से चला जाये और किसी दूसरी जगह इल्म हासिल करे।

मुल्ला सदरा कहते थेः असंभव है कि कोई माल की तलाश में हो और इल्म हासिल करले क्यों कि माल हासिल करना और ज्ञान हासिल करना दो विभिन्न और विपरित चीज़ें हैं जो एक दूसरे के नज़दीक नहीं हो सकतीं।

जो भी तूल (लम्बाई) में बढ़ेगा उसकी चौड़ाई और मोटाई कम हो जायेगी इसी अनुमान की बुनियाद पर जो भी माल को हासिल करना चाहेगा अगरचे वह दौलतमंद हो सकता है लेकिन यक़ीनी तौर पर इल्म हासिल नहीं कर सकता और जो मालदार अपने को ज्ञानी ज़ाहिर करता हैं वह दिखावे और बनावट से काम लेता हैं।

मिरज़ा जवाद मलेकी एक संपूर्ण अंतरयामी और भक्ती में लीन विद्धान

बा अमल विद्धान , संपूर्ण अध्यात्मिक , आबिद व ज़ाहिद , क़ुरआने करीम की आयात से हक़ीक़ी तरबीयत पाने वाले मिर्ज़ा जवाद आक़ा मलेकी का शुमार जमालुस सालेकीन , कत्बुल आरेफ़ीन और साहिबे नफ़्से क़ुदसिया आखुन्द मुल्ला हुसैन क़ुली हम्दानी के शागिर्दों में होता है।

आपने बहुत सालों तक आले मोहम्मद (अलैहिमुस सलाम) के शीयों के गढ़ क़ुम शहर में , अहले बैत अलैहिमुस्सलाम के शागिर्दों को पढ़ाते और प्रशिक्षण देते रहे , रजब , शाबान और रमज़ान के मुबारत महीनों हमेशा रोज़े रखते थे , रातों में तहज्जुद (नमाज़े शब) इबादत और अल्लाह के दरबार में रोया गिड़गिड़ाया करते थे , मदरस ए फ़ैज़ीया में धर्म शास्त्र के छात्रों को पाठ पढ़ाया करते थे , मदरस ए फैज़ीया के रुहानी और मलकूती केन्द्र के दरो दीवार को वह दुखद आवाज़ , आंसू भरी आँखें और रोने व गिड़गिड़ाने की आवाज़ अभी तक याद है जो अपने तमाम वुजूद से बेनज़ीर इख़्लास के साथ कहते थे:

” اللھم ارزقنی التجافی عن دار الغرور والانابة الی دار الخلود والاستعداد للموت قبل حلول الفوت “( ۱ ) ۔

अल्ला हुम्म अर्ज़ुकनी अल्त जाफी अन दारील गुरुरे वअल इनाबते इला दारील खूलूदे वल इस्ते अदादे लिल मौते कबोल होलील फौते।

आप के फजायल व करामतें बहुत ज़्यादा हैं उन सबको इस किताब में बयान करने की गुंजाईश नहीं है , आप के अख़्लाक़ , ज़ोहद , तक़वा , ईश्क और इरफ़ान के बारे में आपके शागिर्दों ने बहुत से वाक़ेयात बयान किये हैं और उनको ख़ुदा की बारगाह में गिरया व ज़ारी करने वालों की सफे अव्वल में शुमार किया है।

किताब गंजीन ए दानिशंदान के लेखक कहते हैः आयतुल्लाह हाज सय्यद जअफर शाहरुदी जो कि इन स्वर्गीय के खास शागिर्द थे , ने मेरे सामने उनका एक वाक़ेया नक्ल किया कि मैंने शाहरूद में ख्वाब में देखा कि इमामे ज़माना (अज्जलल्लाहो तआला फरजहूश शरीफ) एक जमाअत के साथ सहरा में तशरीफ़ फरमा हैं , जैसे कि नमाज़े जमाअत को लिये खड़े हैं नज़दीक गया ताकि उनके बेमिसाल चेहरे की ज़्यारत करूँ , और आपके हाथ को चूम सकूं , मैंने देखा की उनके बराबर में एक शैख खड़े हुए हैं जिनके चेहरे से जमाल और बुज़ुर्गवारी ज़ाहिर हो रही है , जब मैं बेदार हुआ तो उन शैख के बारे में सोचने लगा कि वह कौन थे जो हमारे इमामे ज़माना से इस कदर नज़दीक थे , उनको तलाश करने के लिये मशहद गया लेकिन उनको तलाश न कर सका , तेहरान आया लेकिन वह वहाँ भी नहीं मिले , फिर मैं क़ुम आया और उनको मदरस ए फैज़ीया के एक हुजरे में पढ़ाते हुए देखा , मैंने पूछा यह कौन हैं , कहाः हाज मिर्ज़ा जवाद आका ए मलेकी तबरेज़ी हैं।

मैं उनकी सेवा में गया , उन्होंने बहुत ज़्यादा मेहरबानी से फ़रमायाः कब आये हो , जैसे वह मुझे पहले से जानते और पहचानते हैं और मेरे ख़्वाब के वाकये को जानते हैं , लिहाज़ा मैंने उनकी हमराही और शागिर्दी इख़्तेयार कर ली और उनको ऐसा ही पाया जैसा ख्वाब में देखा था।

ग्यारहवीं ज़िल हिज्जा 1342 हिजरी क़मरी की रात को सहर के समय ख़्वाबो बेदारी के आलम में देखा की आसमान के दरीचे मेरे लिये खुल गये है और तमाम पर्दे ऊठा लिये गये हैं यहाँ तक की मैं आलमे मलकूत की गहराईयों को देख कर रहा हूँ , मैंने देखा की हाज मिर्ज़ा जवाद आक़ा खड़े हुए हैं और कुनूत के लिये हाथ बुलन्द करके मुनाजात और गिरया व ज़ारी में मशगूल हैं , मैंने ख़ुदा वन्दे आलम की बारगाह में उनके मुक़ाम को देखकर तअज्जुब किया , अचानक घर के दरवाज़े पर खटखटाने की आवाज़ सुनी , मैं तेज़ी से ऊठा और दरवाज़े को खोला , मैंने देखा की मेरे एक दोस्त हैं , उन्होंने कहाः आक़ा के घर चलो , मैंने कहा ख़ैर तो है , उसने कहा मैं आपको ताज़ीयत पेश करता हूँ , आक़ा का इन्तेक़ाल हो गया है।

इरफ़ान व अध्यात्म की बुलंदियों को तय करने वाले आयतुल्लाह काज़ी

इस भाग में ऐसे नूरानी चेहरे का ज़िक्र करेंगे जो अपने ज़माने में बहुत ही अद्धितीय व्यक्तित्व के मालिक थे और क्या बेहतर होगा कि आपके गुणों और विशेषताओं को आपके प्रशिक्षित शागिर्द यानी महान भाष्यकार , अद्धितीय अध्यात्मिक , अल्लामा तबातबाई (आलल्लाहो मुक़ामहू) की ज़बान से बयान करें , उस मलकूती और इलाही शख्स ने फरमायाः

इस सिलसिले में जो भी हमारे पास है वह स्वर्गीय काज़ी का दिया हुआ है , जो कुछ हमने उनकी ज़िन्दगी में उनसे हासिल किया , और जो तरीका हमने अपनाया है वह भी स्वर्गीय काज़ी से लिया है।

अज़ रहगुज़र खाक़ सरे कुए शुमा बूद

बर नाफ़े की दर दस्ते नसीम सहर उफ़ताद।

स्वर्गीय काज़ी अपने शागिर्दों को शरई मेअयारों के अनुसार बातनी (अध्यात्मिक) आमाल के आदाब की रिआयत , नमाज़ों में हुज़ूरे कल्ब और अफ़आल में इख़्लास की दावत देते थे और उनको गैबी देव वाणी स्वीकार करने के लिये तैयार करते थे।

मस्जिदे कूफा और मस्जिदे सहला में उनका एक कमरा था जिसमें रात का एक भाग अकेले में गुज़ारा करते थे , और अपने शागिर्दों को भी नसीहत करते थे कि रात को मस्जिदे कूफा और मस्जिदे सहला में इबादत में बसर करें।

आपने हुक्म दिया था कि अगर नमाज़ के दरमियान या कुरआने करीम की तिलावत करते वक्त या ज़िक्रो फिक्र के दौरान कोई हालत पेश आये या कोई जमाल नज़र आये या आलमे ग़ैब के कुछ दृश्य दिखाई देने लगें तो उसकी तरफ़ तवज्जो न करो और अपने अमल में मशग़ूल रहो।

अल्लामा तबातबाई फरमाते हैं कि एक रोज़ मैं मस्जिदे कूफा में बैठा हुआ ज़िक्र में मशगूल था , उस समय जन्नत की एक हूर मेरी दाहिनी तरफ़ से , हाथ में जन्नत की शराब का एक जाम लिये हुए मेरी तरफ आई और खुद को मेरे सामने पेश किया , जैसे ही मैंने उसकी तरफ़ तवज्जो करनी चाही , फौरन मुझे उस्ताद की बात याद आ गई , लिहाज़ा मैंने आँखें बंद कर लीं और कोई तवज्जो नहीं की , वह हूर खड़ी हुई और मेरे बायें तरफ़ से आई और उस जाम को मेरे सामने पेश किया , मैंनं फिर कोई तवज्जो नहीं की और अपना रुख मोड़ लिया , वह दुखी हुई और चली गई , मैं जब भी उस मंज़र को याद करता हूँ तो उस हूर के नाराज़ होने से प्रभावित होता हूँ।

स्वर्गीय काज़ी का शुमार बुज़ुर्ग मुजतहेदीन में होता था , वह फिक़ह की किताबें भी पढ़ाया करते थे।

रमज़ान के मुबारक महीने की बीस तारीख तक रात में तालीम और उन्स व मोहब्बत के जलसे रखते थे , रात के चार घन्टे गुज़रने के बाद शागिर्द आपकी सेवा में जाते थे और दो घन्टे तक मजलिस चलती रहती थी लेकिन बीस तारीख के बाद मजलिस की छुट्टी हो जाती थी और स्वर्गीय काज़ी रमज़ान के आखिर तक गायब रहते थे , उनके शागिर्द जहाँ भी आपको तलाश करते। नजफे अशरफ़ , मस्जिदे कूफा , मस्जिदे सहला या करबला में , कहीं भी आप का कोई असर नहीं मिलता , स्वर्गीय काज़ी का यह तरीक़ा आपकी रेहलत तक बाकी रहा।

आम तौर से दस या बीस दिन तक अपने घर तशरीफ़ फरमा होते और आपके दोस्त व अहबाब आपके पास आते , मुज़ाकेरात और दर्सो बहस में शामिल होते लेकिन एक दम से कुछ दिनों के लिये ग़ायब हो जाते और उनके घर वालों को भी खबर न होती।

एक रिवायत में है कि इमामे ज़माना (अज्ज लल्लाहो तआला फरजहुश शरीफ) का ज़हूर होगा तो आप अपनी दावत का आगाज़ मक्का से करेंगे , इस तरह कि रुक्न व मक़ाम के दरमियान काबे की तरफ़ पीठ करके ऐलान करेंगे और आपके तीन सौ तेरह ख़ास असहाब आपके पास जमाँ होंगे।

हमारे उस्ताद स्वर्गीय काज़ी फरमाते हैः ऐसी हालत में इमाम अलैहिस्सलाम उनसे एक बात कहेंगे जिससे तमाम असहाब पूरी दुनिया में फैल जायेंगे , क्योंकि उन सबको तईयुल अर्ज़ की करामत हासिल है , समस्त संसार में तलाश व जुस्तजू करेंगे और समझ जायेंगे कि पूरी दुनिया में आपके अलावा किसी को वेलायते मुतलका हासिल नहीं है और आपके अलावा कोई भी इसरारे इलाही , क्याम , और ज़हूर , के लिये नहीं भेजा गया है , उसके बाद सब मक्का वापस आजाऐंगे और अपने आपको इमाम के सामने पेश करेंगे और आप की बैअत करेंगे।

स्वर्गीय काज़ी फरमाते हैः मैं जानता हूँ कि इमाम उन सबसे क्या कहेंगे और वह सब अलग अलग होकर फैल हो जायेंगे।

अल्लामा तबातबाई फरमाते हैः मैं और मेरी बीवी , स्वर्गीय हाज मिर्ज़ा अली आक़ा ए काज़ी के नज़दीकी रिश्तेदार थे , नजफ़े अशरफ़ में सिलए रहम (रिश्तोंदारों के यहां जाना) के लिये वह हमारे घर तशरीफ लाते थे।

हमें ख़ुदावन्दे आलम ने कई मरतबा औलाद अता की लेकिन वह बचपने ही में इन्तेकाल कर जाते थे , एक रोज़ स्वर्गीय काज़ी हमारे घर तशरीफ लाये , उस समय मेरी बीवी गर्भ से थीं और मुझे इसका इल्म नहीं था , ख़ुदा हाफ़िज़ी के समय उन्होंने मेरी बीवी से कहाः मेरे चचा की बेटी इस बार ख़ुदा वन्दे आलम जो तुम्हें बेटा अता करेगा वह जीवित रहेगा , उसका नाम अब्दुल बाकी है , मैं स्वर्गीय काज़ी की बात सुन कर खुश हो गया , ख़ुदावन्दे आलम ने हमें बेटा अता किया और पहले बच्चों के विपरित वह ज़िन्दा रहा और उसको कोइ मुशकिल पेश नहीं आई हमने उसका नाम अब्दुल बाकी रखा।

आत्मा की महानता व स्वतंत्रता

मिर्ज़ा शिराज़ी ने तम्बाकू के हराम होने का फ़तवा देकर ईरान में ईंग्लैण्ड की ताकत को खत्म कर दिया था , शियों के दरमियान मर्जईयत का महत्व व अज़मत , फ़तवे की ताक़त और मर्जईयत पर लोगों के ईमान को पश्चिमी दुनिया के सामने पेश किया , जब मिर्ज़ा शिराज़ी का इन्तेकाल हुआ तो शियों की मर्जईयत और सर परस्ती को स्वीकार करने के लिये आयतुल्लाह सय्यद मोहम्मद फेशारकी की तरफ़ आये , मिर्ज़ा ए शिराज़ी के बाद मोहम्मद फेशारकी का शुमार बड़े ज्ञानियों में होता था , लेकिन उन्होंने अपने पास आने वालों से फरमायाः

मैं शियों की मर्जईयत , प्रभुत्व और दीनी हुकूमत के लायक़ नहीं हूँ , क्योंकि दीनी हुकूमत , मर्जईयत और प्रभुत्व के लिये इल्मे फिक़ह के अलावा दूसरी चीज़ों की भी ज़रुरत है जैसे राजनिती की समस्या की जानकारी और समस्त कार्यों में अधिक विचार से काम लेना वगैरह , मैं शक व शंका से ग्रस्त हूँ , अगर मैं दीनी मर्जईयत और प्रभुत्व को स्वीकार कर लूं तो दीनी कार्यों और शिईयत की व्यवस्था तबाह व बर्बाद हो जाऐगी , मेरे लिये पढ़ाने के अलावा कोई और काम जायज़ नहीं है।

इस तरह हवा व हवस से आज़ाद यह शख्स लोगों को मिर्ज़ा मोहम्मद तकी शिराज़ी की तरफ मोराजेआ करने की दावत देता है।

हौज़ ए इल्मिया क़ुम के संस्थापक आयतुल्लाहिल उज़मा अब्दुल करीम हायरी फरमाते हैं कि मैंने अपने उस्ताद आयतुल्लाह फेशारकी से सुना है कि आपने फरमायाः जब मिर्ज़ा ए शिराज़ी का स्वर्गवास हुआ तो मैं घर गया और जैसे अपने दिल में खुशी का एहसास किया , बहुत सोचने और विचार करने के बाद भी इस खुशी का कारण समझ में नही आया , मिर्ज़ा ए शिराज़ी का इन्तेक़ाल हो गया और वह मेरे उस्ताद और प्रशिक्षक थे , स्वर्गीय मिर्ज़ा इल्म व तक़वा और ज़कावत के लेहाज़ से अदुभुत व्यक्तित्व के मालिक थे।

मैं बहुत देर तक सोचता रहा कि खराबी कहाँ है , यह खुशी किस चीज़ की वजह से है , आख़िरकार इस नतीजे पर पहुँचा कि शायद यह खुशी इस वजह से है कि अब मैं मरजए तक़लीद हो जाऊँगा और शियों की सर परस्ती मेरे कन्धों पर आजायेगी , मैं अपनी जगह से उठा और अमीरुल मोमेनिन अलैहिस्सलाम के रौज़े में गया और आपसे प्रार्थना की कि इस ख़तरे को मुझसे दूर करें , गोया मैं ऐहसास करता हूँ कि मुझे मरजईयत की तमन्ना है।

आयतुल्लाह फेशारकी सुबह तक हरम में रहे और सुबह के वक्त जब जनाज़े में शामिल होने के लिये आये तो उनकी आँखों से मालूम हो रहा था कि वह सुबह तक गिर्या व ज़ारी में मशग़ूल रहे है , बहरहाल उन्होंने रुहानी कोशिश की ताकि मरजईयत और प्रभुत्व उनके घर से किसी दूसरी जगह मुन्तक़िल हो जाये।

जी हाँ ख़ुदा के बन्दे और कुरआन के तरबीयत शुदा इस तरह अपनी रक्षा करते हैं कि मरजईयत और प्रभुत्व तक पहुँच जाते हैं लेकिन फिर भी उसको स्वीकार नहीं करते।

ऐ काश ऐसा संभव होता कि ख़ुदा के शुद्धहृदय बन्दों की आज़ादी और कुरआनी प्रशिक्षण के सूचक इन वास्तविकताओं को दुनिया के पक्षपात का दम भरने वाले नेताओं विशेषकर पश्चिमी नेताओं व राजनितिज्ञयों तक पहुँचाते ताकि वह यह जान लेते कि सही तरबीयत कुरआने करीम के अलावा कहीं और मुम्किन नहीं हैं , और उस पर अमल करते।

अद्ल व इंसाफ के बिना वास्तविक जीवन से आनन्दित होना संभव नही है , जानवरों वाला सदव्यवहार और निरंतर अत्याचार , क़ुरआनी शिक्षा व तालीमात पर अमल किये बग़ैर हमारी ज़िन्दगी की फ़ज़ा से नहीं निकल सकते।

आज ईक्किसवीं शताब्दी इंसान (पूर्बी या पश्चिमी) ने इस आयत।

آیت ” وما اوتیتم من العلم الا قلیلا “( ۱

वमा उवतितुम मिनल इल्म इल्ला क़लीला।

का संबोध्य होने के बावुजूद भी इल्म व फ़न के ज़रीये से एक हद तक तो अपने तालीम याफ़ता होने की मुश्किल को तो हल कर लिया है लेकिन (इंसान होने) के बारे में वह अभी तक दलदल में फँसा हुआ है , लिहाज़ा आज की टेकनॉलोजी और संस्कृति व सभ्यता ने तालीम याफ़ता होने की मुश्किल को तो हल कर लिया है लेकिन आदमी होने के असंभवता को अभी तक हल नहीं कर पाई है।

इंसान समस्त गुणों का संकलन है

कुरआने मजीद के सच्चे प्रशिक्षित , अदुभुत और महान इंसानों में से एक आख़ून्द मुल्ला अब्बास तुरबती हैं।

विद्धवान शोधकर्ता स्वर्गीय राशिद जो आपके पुत्र हैं अपने पिता के बारे में इस तरह लिखते हैं:

आपने दुनिया को छोड़ दिया था और हमेशा ख़ुदा की याद में रहते थे , हर काम ख़ुदा के लिये अंजाम देते थे , ख़ुदा व रसूल और क़यामत पर दृढ़ ईमान रखते थे , यही कारण था कि दिन रात धार्मिक अहकाम की पाबन्दी और अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभाने में कभी भी ग़फलत नहीं बरतते थे , वह अपनी उम्र का एक लम्हा भी बेकरा नहीं होने देते थे।

आपने अपनी उम्र में वाजिब (अनिवार्य) और मुस्तहब (सुन्नत) तमाम इबादतों को अंजाम दिया और कभी भी किसी बड़े और छोटे गुनाह को अंजाम नहीं दिया , यहाँ तक कि गुनाह करने का विचार भी कभी मन में नही आया।

साल के अधिकतर दिनों में रोज़ा रखते थे और संभवत केवल एक वक्त खाना खाते थे और बग़ैर सहरी के रोज़ा रखते थे।

वाजिब नमाज़ों को उनके तमाम आदाब और शरायत के साथ अंजाम देने के अलावा मुस्तहब नमाज़ें पढ़ने का जब भी वक्त मिल जाता था , चाहे वह मजलिस में मिम्बर पर जाने से पहले हो या दस्तर ख़्वान लगने से पहले , उसी वक्त पढ़ते थे , इन तमाम नमाज़ों को रोज़ाना की पांच समय की नमाज़ ज़ोहर , अस्र , मग़रिब , ईशाँ , और सुबह की तरह पढ़ते थे।

अपने स्वर्गीय माँ बाप , भाई बहन , चचा फुफी और दूसरे रिश्तेदारों के लिये भी नमाज़ें पढ़ते थे , किसी के साथ बात नहीं करते थे , यहाँ तक कि रास्ता चलते हुए भी नमाज़ पढ़ते थे , और सजदा करने के बजाय सजदगाह को पेशानी पर रखते थे , इसी वजह से हर वक्त पाक व पवित्र रहते थे।

साल के दिनों में जितने भी मुस्तहब आमाल और दुआयें वर्णित हुई हैं उन सबको अंजाम देते थे , अपने बालिग होने से मरते दम तक रात को सहर के वक्त तक जागते रहते थे और नमाज़े शब को उसके तमाम आदाब और शरायत के साथ पढ़ते थे , अपने मरने से दो या तीन दिन पहले तक एक रात भी नमाज़े शब को नहीं छोड़ा।

वह ख़ुदा के खौफ से बहुत ज़्यादा रोया करते थे , और ख़ानदाने रिसालत से बहुत ज़्यादा मुहब्बत करते थे , जब भी पैगम्बरे अकरम सल्ललाहो अलैहे व आलेही वसल्लम या किसी इमाम अलैहिस्सलाम का नाम उनकी ज़बान पर जारी होता था , तो आपकी आँखों से अश्क जारी हो जाते थे , मिम्बर पर धर्मोंपदेश देते हुए और नसीहत करते हुए या इमामों के सलायब बयान करते हुऐ सुनने वालों से पहले खुद रोया करते थे।

चूँकि आप बहुत ज़्यादा सतर्कता बरतते थे इसलिये अकसर व अधिकतर धर्मोंपदेश व नसीहत या दीनी मसायल या अहलेबैत (अलैहिमुस्सलाम) के मसायब का ज़िक्र करते वक्त सबको प्रमाणित किताबों से ही पढ़ते थे।

आबिदों और ज़ाहिदों की जीवनियों में आपकी रुचि बहुत ज़्यादा थी यहाँ तक कि अकसर आप कहते थेः कुछ लोग ऐसे थे जो गर्मियों में पानी को धूप में रखते थे ताकि गर्म हो जाये और फिर उस पानी को पीते थे ताकि वह लज़्ज़ते दुनिया से ठण्डे पानी की बहुत कम मिक़दार का भी प्रयोग न कर सकें।

बेमिसाल ज़ोहद व तक़वा

स्वर्गीय राशिद लिखते हैं कि मैं हुसैन अली राशिद कि जिसने इन वाक़ेयात को लिखा है , और मेरा एक भाई दोनों धार्मिक शास्त्र के छात्र थे , हमारे पिता आख़ून्द मुल्ला अब्बास ने अपनी उम्र में एक वक्त भी हमें अपने पास आने वाले धार्मिक पैसों , जैसे सहमे इमाम , ख़ुम्स , रद्दे मज़ालिम और कफ्फारात में से कुछ नहीं दिया , यही नहीं बल्कि उन्होंने हमें इस तरह डराया और तरबीयत की थी कि हम समझते थे कि अगर हमने इन पैसों को हाथ लगाया तो गोया यह हमें साँप या बिच्छू की तरह काट लेंगे।

मैं जवान था और मशहद में इल्म हासिल कर रहा था , गर्मियों की छुट्टियों में अपने देहात (तुर्बत) गया , मग़रिब का वक़्त नज़दीक था और मेरी माँ को खुले हुऐ पैसों की ज़रुरत थी , उस ज़माने में जो पैसा चलता था उसके खुले पैसे लेना चाहती थीं , उन्होंने मेरे पिता से कहाः इन पाँच रियाल को (सहमे इमाम और खुम्स के) पैसों में से चेंज कर दें , मेरे पिता ने कहाः मैं इन पैसों में से नहीं दे सकता , बच्चे को दुकान पर भेज दो और वहाँ से फुटकर करा लो फिर मैंने दूकान पर ले जाकर उनको चेंज किया।

स्वर्गीय आख़ून्द मुल्ला अब्बास धार्मिक पैसें का अपने लिये उपयोग नहीं करते थे बल्कि अपने माल से भी ख़ुम्स व ज़कात अदा करते थे।

उनके पास एक खेती की ज़मीन थी जो उनको मीरास में मिली थी , वह गेहूँ की ज़कात को उसी वक्त बालियों से जुदा करने के बाद अदा कर देते थे और बाकी को घर ले आते थे और जिस वक्त वह खेती की ज़कात अदा करते थे वह रजब का महीना था या जिस साल के शुरु में ज़मीन की पैदावार उनको मिलती थी वह रजब का महीना था लिहाज़ा उन्होंने माहे रजब को अपना ख़ुम्स का साल करार दिया था जबकि ख़ुम्स का साल विशेष कर खेती के कामों में शम्सी (ईरानी कैलेंडर अनुसार) साल होना चाहिये , क़मरी नहीं , बहरहाल पूरे साल में रजब के शुरु में जो कुछ हमारे घर में होता था उसका पाँचवाँ हिस्सा अलग करते थे , आटे और गेहूँ से लेकर पकी हुई रोटी तक , मिर्चें , घी , चीनी , हल्दी वगैरह सब चीज़ों का ख़ुम्स निकालते थे और उसके हक़दार तक पहुँचाते थे।

जिस वक़्त उनके वालिद का स्वगर्वास हुआ तो उनके वारिस सिर्फ वह थे और एक उनकी बहन जो हमारी फूफी थीं , उन्होंने हमारी फूफी से कहाः जो कुछ तुम्हें चाहिये उसको अपने हिस्से के तौर पर ले लो और उन्होंने भी अपनी मर्ज़ी से अपना हिस्सा ले लिया।

उसके बाद जो भी मेरे पिता के हिस्से में बाकी बचा , पैसा , गाय , भेड़ और गेहूँ आदि सबको रद्दे मज़ालिम , खुम्स और ज़कात के हिसाब से अपने पिता की तरफ़ से बांट दिया , क्योंकि वह कहते थे कि मालूम नहीं है कि मेरे पिता धार्मिक अनिवार्य माल को पूरी तरह से अदा करते थे या नहीं , और सिर्फ़ खेती की ज़मीन को बाकी रखा जिसमें से आधा हमारी मां के मेहर का हिस्सा था , और उस ज़मीन से हमें इतना ही गेंहू मिलता था जिससे हमारा साल भर का खर्च पूरा हो जाता था।

दूसरा काम जो अंजाम दिया वह यह है कि उन्होंने एक बार सोचा कि उनके ख़ुम्स का साल रजब के महीने में होता है जबकि खेती का साल शम्सी (ईरानी साल) होता है , और कभी कभी रजब के शुरु में ख़रीफ़ की फस्ल होती थी जिसमें गेहूँ की घास हरी होती थी लेकिन अभी तक गेहूँ हमारे हाथों में नहीं आते थे और खुद उस हरी घास की क़ीमत होती थी , और उसका फायदा होता था , उन्होंने सोचा कि इसका ख़ुम्स देना चाहिये और उन्होंने नहीं दिया है लिहाज़ा इसी वजह से उस ज़माने (1345 हिजरी क़मरी) में तीन सौ तूमान ऐहतेयातन ख़ुम्स के उनवान से दे दिये जिसकी वजह से हमें ज़िन्दगी गुज़ारने में बहुत मुश्किल हुई और उस पैसे को अदा करने के बाद एक मुद्दत तक हम सख़्तियों की ज़िन्दगी गुज़ारते रहे।

इंसानी और ईश्वरीय मित्र की बुलंदी

इमाम मूसा बिन जाफ़र , इमाम अली बिन मूसा और इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिमुस सलाम के एक सहाबी थे जिनका नाम सफ़वान बिन यहया था। इमाम अली रज़ा के नज़दीक उनका मरतबा बहुत बुलंद था। दीन व दुनिया के उमूर में वह इमाम अली रज़ा अलैहिस सलाम और इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस सलाम के वकील थे।

वह अपनी ज़िन्दगी के तमाम मराहिल में मुतमईन थे। लोगों के दरमियान सबसे ज़्यादा इबादत करने वाले इंसान थे वह रोज़ाना एक सौ पचास रकअत नमाज़ पढ़ करते थे। इबादत और ज़ोहत में उनका मरतबा बहुत बुलंद था। धर्म में दृढ़ता और सब्र में अपनी मिसाल आप थे। वाक़ेफ़ीया सम्प्रदाय ने आपको बहुत सारा माल देने का प्रयत्न किया ता कि वह अपना फ़िरक़ा छोड़ कर उनके सम्प्रदाय को स्वीकार कर लें। लेकिन उन्होने क़बूल नही किया और अपने धर्म पर बाक़ी रहे।

आप व्यापार और कारोबार में अब्दुल्लाब बिन जुन्दब व अली बिन नोमान के साझी थे। किताबों में बयान हुआ है कि तीनों दोस्तों ने ख़ान ए काबा के पास वादा किया था कि हम में से किसी एक के स्वर्गवास के बाद ज़िन्दा रहने वाला दोस्त , मरने वाले तरफ़ से उसकी सारी नमाज़ें पढ़ेगा , उसके क़ज़ा रोज़े रखेगा और उसके माल की ज़कात देगा। उन दोनो दोस्तों का देहांत हो गया और सफ़वान दिन व रात में एक सौ पचास रकअत नमाज़ अपने लिये और तीन सौ रकअत नमाज़ अपने दोनो दोस्तों के लिये पढ़ते थे और तीन महीने रोज़े रखते थे , माहे मुबारक रमज़ान में अपने लिये और दूसरे दो माह में अपने दोनो दोस्तों के लिये और अपने पास से उनकी तरफ़ से ज़कात देते और जो भी अल्लाह की राह में ख़र्च करते उसमें से एक हिस्सा अपनी तरफ़ से और दो हिस्से अपने दोस्तों की तरफ़ से ख़र्च करते।

इश्क़ की राह में पाकदामनी

एक जवान जो इश्क़ की आग में जल रहा था लेकिन अपने आचरण और पाकदामनी को सुरक्षित रखने के कारणवश बहुत परेशान था। इस परेशानी से छुटकारा पाने के लिये हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस सलाम की ख़िदमत में आया , वह युवक अपने पड़ोसी की सुन्दर दासी पर मोहित हो गया था। उसके प्यार की कहानी यह है कि वह पहली नज़र में उसका दीवाना हो गया था , उसकी आंखों से नींद उड़ चुकी थी। उसने इमाम अलैहिस सलाम से अनुरोध किया कि उसको इस सख़्त मुश्किल से निजात दिलायें और कोई रास्ता इसे हल करने के लिये बतायें। आपने फ़रमाया: अब जब भी तुम्हारी नज़र उस दासी पर पड़े तो यह वाक्य कहना:

جملہ ” اسئل اللہ من فضلہ

ऐ अल्लाह मैं तेरा फ़ज़्ल चाहता हूं।

और हमेशा इसे दोहराते रहो और ईश्वर से इसके हल होने की प्रार्थना करते रहो।

उस जवान ने आपके आदेश पर अमल किया , अभी कुछ ही दिन हुए थे उस दासी का मालिक उस जवान से मिलने आया और कहा कि मुझे एक बहुत ही आवश्यक काम के लिये सफ़र पर जाना है मगर मैं इस दासी के कारण उस सफ़र को लेकर परेशान हूं। मैं उसे अपने साथ भी नही ले जा सकता हूं न ही उसे यहां अकेला छोड़ सकता हूं। अगर तुम उसे अपने घर में रख लो तो शान्ती से उस सफ़र पर जा सकता हूं क्यों कि मुझे तुम्हारे अलावा किसी दूसरे पर भरोसा नही है।

उस पाकदामन और नेक जवान की इच्छा भी यही थी कि वह उस दासी के मिलन तक पहुच जाये इसलिये उसे फ़ौरन पूरे मन व मर्ज़ी के साथ स्वीकार कर लेना चाहिये था मगर उसने इस बात को स्वीकार करने से इंकार कर दिया और कहा कि मेरे घर में कोई नही है जो तुम्हारी दासी की रक्षा कर सके और यह भी उचित नही है कि वह और मैं एक घर में अकेले रहें क्यों कि संभव है कि मेरे मन में पाप आ जाये और मैं ख़ुद पर क़ाबू न रख सकूं लिहाज़ा मैं तुमसे क्षमा चाहता हूं।

उस दासी के मालिक ने कहा: मैं उसे उचित क़ीमत पर तुम्हारे हाथ बेच देता हूं ता कि तुम हर तरह से उसके मालिक हो जाओ , इस शर्त के साथ कि तुम इस पैसे को अपने ऊपर ज़मानत के तौर पर रखो और जब मैं वापस आऊंगा तो दासी को इस पैसे के बदले मुझे वापस कर दोगे।

जवान ने इस सुझाव को स्वीकार कर लिया और वह उस दासी का साथ पा कर प्रसन्न जीवन व्यतीत करने लगा।

दासी के मालिक के वापस आने से कुछ दिन पहले उस काल के शासक को उस सुन्दर दासी के बारे में मालूम हो गया और उसने कहा कि जैसे भी जितने भी पैसे में संभव हो उसे ख़रीद लो। उन्होने कई गुना पैसे उस जवान को दे कर उसे ख़रीद लिया और अपने साथ ले गये।

जब मालिक वापस आया तो उसने पूरी कहानी उसे सुना दी और सारा पैसा उसके सामने रख दिया। उसने कहा: अब जबकि ऐसा वाक़ेया पेश आया है तो मैं सिर्फ़ उतना ही पैसा लूंगा जिसकी तुम ने ज़मानत ली थी और सारा पैसा उसको वापस कर दिया।

इस कथा में दीनदारी , पवित्रता और संयम की रक्षा के कारण , वह जवान ईश्वर की कृपा का पात्र बना और न सिर्फ़ यह कि वह उस दासी को जिससे वह प्रेम करता था , प्राप्त करने में सफ़ल रहा बल्कि बहुत सारा पैसा भी उसके हाथ लगा। जिससे उसका भविष्य अच्छा हो गया।

अच्छाईयों से इश्क़ की महानता

दारमिया एक बुद्धिमान , अध्यात्म व इस्लाम का ज्ञान रखने वाली नारी थी और अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली अलैहिस सलाम पर बहुत ज़्यादा ईमान रखती थी।

आपका घर जहून नामक जगह पर था , आप बहुत ज़्यादा दिलेर और निडर औरत थीं। अली अलैहिस सलाम की मुहब्बत आपके दिल में भरी हुई थी। वह हमेशा अली अलैहिस सलाम के न्याय और अल्लाह के रसूल के वास्तविक उत्तराधिकारी होने की बातें किया करती थीं। सिफ़्फ़ीन की जंग में अली अलैहिस सलाम के सिपाहियों को मुआविया , जो कि हक़ व सत्य का दुश्मन था , के ख़िलाफ़ बढ़काती थीं और जंग के लिये जोश दिलाने वाला भाषण दिया करती थीं।

मुआविया सिंहासन की गद्दी पर बैठने के बाद एक बार मक्का आया हुआ था। उसने दारमिया के बारे में पूछा कि वह ज़िन्दा है या मर गई। किसी ने कहा: ज़िन्दा है और सही व सालिम है। मुआविया ने कहा: दारमिया को हाज़िर किया जाये। दारमिया आयीं जैसे ही मुआविया की नज़र उन पर पड़ी कहने कहा: ऐ हाम की बेटी , (हाम हबशियों का पूर्वज है) तुम यहां किस लिये आई हो ?

दारमिया: तू मेरी बे इज़्ज़ती करना चाहता है। मैं बनी कनाना के क़बीले की हूं , हाम की औलाद नही। और मेरा नाम दारमिय ए जहूनिया है।

मुआविया: सच कहती हो , क्या तुम जानती हो कि मैंने तुम्हे क्यों बुलाया है ?

दारमिया: सुबहान अल्लाह मैं ग़ैब का ज्ञान नही रखती।

मुआविया: मैंने तूझे इस लिये बुलाया है ता कि तुझ से सवाल करूं कि तू अली को क्यों दोस्त रखती है और मुझ से दुश्मनी क्यों रखती है ? वह क्यों तुम्हे पसंद हैं और मैं क्यों नापसंद ? दारमिया ने कहा: मुझ से यह सवाल न करो।

मुआविया: यह संभव नही है तुम्हे इस का उत्तर देना ही पड़ेगा।

दारमिया: अब जबकि मैं मजबूर हूं तो इसकी वजब बयान करती हूं:

मैं अली अलैहिस सलाम को इस लिये दोस्त रखती हूं कि उन्होने जनता में न्याय व इंसाफ़ की बुनियाद डाली।

मैं अली अलैहिस सलाम को इस लिये दोस्त रखती हूं कि वह जनता को उसका हक़ देते थे और जनता का हक़ बाटने में न्याय और बराबरी से काम लेते थे।

लेकिन तुझसे इस लिये नफ़रत करती हूं कि तूने ऐसे इंसान से जंग की जो तुझ से बहुत ज़्यादा बुलंद और बेहतर था। वह ख़िलाफ़त व शासन के लिये तुझ से ज़्यादा बेहतर और लायक़ था। तूने उससे ना हक़ जंग की , तूने उनकी मुख़ालेफ़त की और उनके हक़ पर क़ब्ज़ा जमा लिया।

अली अलैहिस सलाम को इस लिये दोस्त रखती हूं कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम ने उनको विलायत व ख़िलाफ़त के लिये चुना था और सब उनको पसंद करते थे और समस्त मुसलमान उनका आदर करते थे।

तुझसे इस लिये घृणा करती हूं कि तूने ना हक़ लोगों का ख़ून बहाया और तूने ज़ुल्म व अत्याचार से फ़ैसला किया , अक़्ल से फ़ैसला नही किया , तूने अल्लाह के रसूल (स) के तरीक़े से न्याय नही किया बल्कि अपने हवा व हवस से फ़ैसले किये।

मैं अली अलैहिस सलाम को दोस्त रखती हूं और मरते दम तक उनके साथ हूं लेकिन तुझसे और तेरे कामों से बेज़ार हूं और जब तक ज़िन्दा हूं , तुझसे नफ़रत करती रहूंगी।

मुआविया: इसी वजह से तेरा पेट और छातियां मोटी हो गई है और कूल्हे फैल गये हैं ?

दारमिया: तूने जो सिफ़ते बयान की हैं वह सब तेरी मां में पाई जाती थीं क्यों कि मैंने ख़ुद सुना है कि तेरी मां हिन्द इन्ही सिफ़तों से अजनबी लोगों को लुभाती थी।

मुआविया ने जब यह देखा कि यह औरत वास्तविकता को बयान करने से नही डरती तो उनके साथ राजनितिक तरीक़े से पेश आने लगा और उनसे माफ़ी मागते हुए कहना लगा: मैं इन जुमलों से तुम्हारी बे इज़्ज़ती नही नही करना चाह रहा था बल्कि मैं तुम्हारी तारीफ़ कर रहा था। तारीफ़ करने के बाद सवाल किया कि क्या तूने ख़ुद अली को देखा है ?

दारमिया: हां ख़ुदा की क़सम मैंने उनको अपनी आंखों से देखा है।

मुआविया: तो उनको तूने कैसा पाया ?

दारमिया: मैंने उनको इस हालत में देखा है कि न तो शासन ने उनको धोखा दिया था और न ही उन नेमतों ने उनको ख़ुदा से ग़ाफ़िल किया था जिन पर तू तकिया किये हुए है।

मुआविया ने इशारा किया कि बस इतना काफ़ी है।

वह डर गया कि अगर इस शेर दिल ख़ातून से अली अलैहिस सलाम की अच्छाईयों और बड़ाईयों के बारे में कुछ देर तक और बयान किया तो जो कुछ सम्मान बचा है वह भी ख़त्म हो जायेगा और वह सबकी नज़रों में गिर जायेगा। इसी वजह से उनको ख़ामोश होने को कहा।

जब मुआविया ने उनको ख़ामोश होने का आदेश दिया तो दारमिया ने कहा:

ख़ुदा की सौगंध यह वह बातें हैं जो मेरे मरे हुए दिल को ज़िन्दा कर देती हैं और उनके ख़िलाफ़ होने वाले झूठे प्रचार को भंग कर देती हैं। यह बातें दिलों को इस तरह से रौशन और साफ़ कर देती हैं जैसे ज़ैतून का तेल बरतनो के ज़न्ग को साफ़ कर देता है।

मुआविया: तुम सच कहती हो और मैं तुम्हारी बातों को प्रमाणित करता हूं। अब यह बताओ कि क्या तुम्हे किसी चीज़ की आवश्यकता है ?

दारमिया: अगर मैं तुझ से कोई चीज़ मांगूं तो क्या तू मुझेगा अता करेगा ?

मुआविया: हां ,

दारमिया: मुझे लाल बालों वाले सौ ऊंट सारबान के साथ चाहिये।

मुआविया: सौ ऊंट का क्या करोगी ?

मैं चाहती हूं कि उनके दूध से छोटे बच्चों का पालन पोषण करूं और ख़ुद उनके ज़रिये बूढ़े और कमज़ोर लोगों की देख भाल कर सकूं।

मुआविया: अगर यह सब मैं तुम्हे दे दूं तो फिर अली बिन अबी तालिब की तरह मुझे दोस्त रखोगी ?

दारमिया ने कहा: नहीं , ख़ुदा की सौगंध , बल्कि उनसे कम भी नही तुम्हे दोस्त नही रख सकती।

मुआविया ने एक शेर पढ़ा और कहा कि देख यह मेरी बड़ाई है कि मैं तेरे गुनाहों को नज़र अंदाज़ करता हूं और तूझे बख़्शता हूं। अगर अली बिन अबी तालिब होते तो तुझे एक खोटा सिक्का भी न देते।

दारमिया ने कहा: बेशक अली अलैहिस सलाम यह काम न करते , यहां तक कि उन ऊटों को एक बाल भी न देते क्यों कि वह जनता के ख़ज़ाने को तेरी तरह से बर्बाद नही करते थे।

इस ख़ातून के इश्क़ को जो ऐसे बुलंद मरतबा इंसान से इश्क़ करती है जिस में तमाम कमालात व फ़ज़ाइल जमा हो गये हैं। पश्चिमी नारियों के इश्क़ से , जो बेहद ख़राब व घटिया रासस्ता चलते लोगों से इश्क़ करती हैं , तुलना करें ताकि आपको मालूम हो सके कि धर्म पालन और क़ुरआन के साथ संबंध और अधर्मी व हवा व हवस के संबंध रखने में कितना ज़्यादा अंतर पाया जाता है।

ज़ालिमों को मुंहतोड़ जवाब

अरवा बिन्ते अब्दुल मुत्तलिब बहुत बूढ़ी हो गई थीं इतनी कि कमर ख़म हो चुकी थी और लाठी के बिना आपके लिये संभव नही था। एक दिन मुआविया के दरबार में दाख़िल हुई और जैसे ही मुआविया ने आपको देखा कहा: स्वागत है आपका ऐ ख़ाला जान। कैसी हैं आप ?

अरवा ने कहा: अल्हम्दुलिल्लाह , मैं अच्छी हूं। लेकिन चूंकि तूने मेरे चचाज़ाद भाईयों को विरोध किया है और उनके हक़ को छीन लिया है और नाहक़ ख़ुद को मुसलमानों का ख़लीफ़ा कहता है इस बात का मुझे बहुत ग़ुस्सा है।

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम के स्वर्गवास के पश्चात क़बील ए बनी तैम , अदी और बनी उमय्या ने हमारे हक़ को हमसे छीन लिया है और हमें हमारे हक़ से वंचित कर दिया है। जबसे तुम शासन की गद्दी पर बैठे हो , हम जिसके ज़्यादा पात्र थे। हमें अलग थलक कर दिया है , मुझे इन सब का बहुत दुख है।

हमारी और तुम्हारी मिसाल क़िबतीयों और फ़िरऔन के मानने वालों की तरह है और अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम की मिसाल हज़रत मूसा के बाद हारून की तरह है।

इस बीच अम्र बिन आस , जो अपने ज़माने का प्रसिद्ध धुर्त व्यक्ति था , ने अरवा पर ऐतेराज़ किया और कहा: ऐ बूढ़ी औरत , चुप हो जा। मंद बुद्धि , भोली और वेवक़ूफ़ जैसे शब्दों का प्रयोग किया जो सब के सब उसके अत्यधिक क्रोध और अरवा की बुराई के सूचक थे।

लेकिन अरवा न सिर्फ़ यह कि चुप नही हुई और डरी नहीं बल्कि पहले से ज़्यादा दृढ़ता और निडरता के साथ बोलते हुए उस धुर्त का जवाब इस तरह से दिया:

ऐ हराम की औलाद , तू क्या कहता है ? इन बातों का तुझ से क्या संबंध है ? तेरी मां मक्के की नाज़ायज़ संबंध रखने वाली औरतों में से थी , सबसे इश्क़ और मुहब्बत के पैंग लड़ाती थीं और बहुत ही कम पैसे में उनके साथ शारीरिक संबंध बनाती थी और उन्हे ख़ुश करती थी। तू उसकी औलाद हो कर मुझ पर आपत्ति जता रहा है ?

तू वह है कि जब पैदा हुआ तो छ: लोग तेरा बाप होने के दावेदार थे और जब तेरी मां से पूछा गया तो उसने कहा कि इन सब ने मेरे साथ शारीरिक संबंध बनाये हैं लिहाज़ा यह जिस से सबसे ज़्यादा मिलता हो उसी का होगा। तेरी मां को मैने ख़ुद देखा है कि मेना के मैदान में उपस्तिथी के दिनों में हर घृणित और बुरे जवान के साथ मिलती थी और चूंकि तू आस बिन वायल से सबसे ज़्यादा मिलता था इस लिये तू उसकी औलाद हो गया और तूझे अम्र बिन आस कहा जाने लगा।

अभी अरवा अम्र बिन आस की असलियत बता ही रही थीं कि इतने में मरवान उनकी बात काट कर बीच में बोल पड़ा:

ऐ बुढ़िया , बेकार की बातें न कर , चुप हो जा। मंद बुद्धि , कैसी बातें कर रही है , अपने काम की बात कर। अरवा या बेहतर तरह से कहा जाये कि क़ुरआन की पाठशाला की शिष्य और इस्लाम के तालीमात की रौशनी में परवरिश पाने वाली , इस स्वतंत्र नारी , इस्लाम की गर्वता का प्रतीक , शक्तिशाली व पाक दामन औरत ने अपनी तलवार से ज़्यादा काटदार ज़बान का रुख उसकी तरफ़ मोड़ा और कहा: तू भी आस के इस बेटे की तरह बातें कर रह हैं , ऐ नीली आंखों वाले , ऐ लाल बालों वाले , ऐ नाटे क़द वाले बद शक्ल इंसान , ऐ बेढंगा शरीर और अनुचित अंगों वाले , तू हर लिहाज़ से हारिस बिन कंदा के ग़ुलाम ज़्यादा मिलता है न कि अपने बाप हकम से। इसलिये कि उसकी भी आंखें नीली थी , बाल लाल थे , क़द नाटा और शक्ल बुरी थी , तुझ से क्या मतलब है तू दूसरों के काम दख़ालत करता है और बेकार के काम करता है ?

मैंने तूझे पहचानती हूं तू अपने बाप से बिल्कुल भी नही मिलता जबकि तेरा बाप दावा करता है कि तू उसी की औलाद है , मैं तेरे बाप को भी पहचानती हूं जिसमें जिस जिस तरह की बातें पाई जाती थी वह तुझ में नही पाई जाती हैं या यह कि जो सिफ़ते उस में पाई जाती थी तुझ में नही पाई जाती हैं। लिहाज़ा मुझ पर ऐतेराज़ करने से पहले अपनी मां के पास जा और उससे जा कर पूछ के तेरा बाप कौन है ? तुझे मुझ से क्या मतलब है ?

फिर मुआविया की तरफ़ रुख़ किया और कहा: ऐ मुआविया , ईश्वर की सौगंध , तू कारण बना कि यह सब जनता के कामों के ठेकेदार बन जायें और इन में यह जुरअत पैदा हो गई है , तू और सिर्फ़ है जिसने इन के हाथ में बागडोर दी है जिससे इन में इतना साहस पैदा हो गया है कि यह मुझ से इस तरह से बातें कर रहे हैं।

मुआविया ने आदर पूर्वक उन्हे दिलासा दिया और कहा: ख़ुदा ने पहले के कामों को माफ़ कर दिया है अब अगर आपको किसी चीज़ की आवश्यकता है तो कहिये।

अरवा ने कहा: मुझे तेरी किसी चीज़ की आवश्यकता नही है। उसके बाद वहां से उठीं और दरबार से बाहर निकल गयीं।

मुआविया ने अम्र बिन आस और मरवान बिन हकम को संबोधित करते हुए कहा कि लानत हो तुम पर , तुम्हारी वजह से आज मुझे यह सारी बातें सुननी पड़ी। फिर उसने किसी को उनके पीछे भेजा ता कि उन्हे बुला कर लाये , उनके आने के बाद मुआविया ने कहा: अपनी आवश्यकता को मुझ से बयान करिये मैं उसे पूरा करना चाहता हूं।

अरवा ने कहा: मुझे छ: हज़ार दीनार की ज़रुरत है। मुआविया ने कहा: उन पैसों का क्या करना चाहती हो ?

अरवा ने कहा: दो हज़ार दीनार से एक नाला बनवाऊंगी जिससे क़बील ए बनी हारिस के ग़रीबों के लिये रोज़ी का ज़रीया पैदा हो सके। दो हज़ार दीनार से बनी हारिस के ग़रीब जवानों की शादियां करूंगी और बाक़ी दो हज़ार से दूसरे आवश्यक कार्यों को पूरा करूंगी।

मुआविया ने कहा: इन्हे छ: हज़ार दीनार दे दिया जाये। जिस समय अरवा दरबार से बाहर निकलना चाहती थीं , मुआविया ने कहा:

यह मैं था जिसने आपको छ: हज़ार दीनार देने का आदेश दे दिया। अगर मेरी जगह अली बिन अबी तालिब होते तो इसके बावुजूद कि वह आपके चचा के बेटे थे , आपको कुछ नही देते।

यह बात सुनते ही उनका चेहरा ग़ुस्से से लाल हो और रंग उड़ गया। बेहद ग़ुस्से की हालत में आपको रोना आ गया फिर मुआविया से कहा:

अली की बात करके तुमने अली की याद ताज़ा कर दी। तुमने मुझे अली उनके न्याय , उनकी बहादुरी..... की याद दिला दी।

उसके बाद अली अलैहिस सलाम की शान में एक तफ़्सीली क़सीदा पढ़ा , उन्हे सब पर फ़ज़ीलत दी और मुआविया को और ज़्यादा ज़लील व रुसवा करके वापस हो गयीं।

जन्नती आचरण और जन्नती घराना

नसीबा बिन्ते कअब उर्फ़ उम्मे अमारा ने अपने शौहर और अपने दो बच्चों के साथ जंगे ओहद में शिरकत की थी और उन्होंने खुद भी तलवार उठा कर पैगम्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम की राह में जेहाद किया था। कुरआने करीम , इस्लाम और मुसलमानों से दिफ़ा करती थी और कभी कभी तीर कमान उठा कर दुश्मन का मुकाबला करती थी और उनको पीछे हटने पर मजबूर करती थीं , इसी महान जँग में आप के कंधों और बदन पर बारह ज़ख्म लगे थे।

जवान लड़कियां और औरतें जब आपके बदन और सीने पर ज़ख्म देखती थीं तो मालूम करती थीं कि यह ज़ख्म कैसे लगे। उन्हीं में से एक ख़ातून उम्मे सअद बिन्ते सअद बिन रबीअ थी जो कहती हैः जंगे ओहद का अपना वाक़ेया मुझे सुनाओ:

उम्मे अमाराः उस दिन ज़ोहर के नज़दीक पानी की एक मश्क और ज़ख्मों पर बाँधने वाली पटटी उठा कर मैं मैदाने जँग में गई ता की ज़ख़्मियों को पानी पिलाऊँ और उनके ज़ख्मों पर पटटी बांधूँ , मुझे इस बात का ख्याल भी नहीं था की मैं अपने शौहर और अपने दो बेटों के साथ कंधे से कंधा मिला कर दुश्मन से जँग करूँगी , जैसे ही मैदान में दाख़िल हुई तो देखा की घमासान की जँग हो रही है और मुसलमान शिकस्त खा रहे हैं हर आदमी भाग रहा है , मैं तलवार चलाती हुई पैगम्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के नज़दीक पहुँच गई। उस दिन मैं तलवार भी चला रही थी और तीर कमान से तीर अंदाज़ी भी कर रही थी , और मैं ने इस क़दर जँग की कि मेरे कांधों पर यह ज़ख्म लगे हैं।

उम्मे सअदः मैंने खुद उन ज़ख्मों को देखा है जिन पर वरम मौजूद था , मैंने उनसे पूछा यह ज़ख्म किसने लगाये हैं तो उन्होंने कहाः जिस समय लोग पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम को छोड़ कर भाग गये तो इब्ने कमीया चिल्ला रहा थाः

मुहम्मद कहाँ हैं ? मुहम्मद कहाँ हैं ? वाय हो मुझ पर अगर मैं उनको कत्ल न करूँ।

मुसअब बिन उमैर और दूसरा गिरोह जिसके दरमियान मैं भी मौजूद थी। उसके सामने खडे हो गए और पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम का देफा करने लगे , इसी हमले में यह ज़ख्म मेरे बदन पर लगे हैं , मैंने भी उस पर कई वार किये लेकिन चूंकी वह खुदा का दुश्मन दो ज़िरह पहने हुऐ था मेरी तलवार का वार उस पर कोई असर नहीं करता था।

मैंने उससे पूछा तुम्हारे इस हाथ पर क्या हुआ है। उन्होंने कहाः जिस दिन यमामा में मुसलमानों ने काफ़िर अरबों से शिकस्त खाई , अंसार ने मुसलमानों से मदद माँगी , उनकी मदद के लिए जो अफ़राद गये उनमें से एक मैं भी थी , हज़ीकतुल मौत नामी जगह पर जँग हो रही थी और लगभग एक घन्टे तक जँग जारी रही। यहाँ तक की अबू दुजाना की वहीं पर शहादत हो गई और आख़िर कार मुसलमान कामयाब हो गये। इसी जगह जब मैं खुदा के दुश्मन मुसैयलमा का पीछा कर रही थी तो एक शख्स ने अचानक मुझ पर वार किया और मेरा हाथ कट गया।

उम्मे अमारा के बेटे अब्दुल्लाह बिन ज़ैद बिन आसीम ने बयान किया हैः मैं जंगे ओहद में जँग कर रहा था। जिस वक्त लोग पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के पास से फ़रार कर रहे थे। मैं खुद आपके पास पहुँचा , मेरी वालेदा भी पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम की तरफ़ से जँग कर रही थीं। जैसे ही पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम की नज़र मुझ पर पड़ी फरमायाः उम्मे अमारा के बेटे हो। मैंने कहा जी हाँ या रसूलल्लाह , आँ हज़रत ने कहाः फिर जँग क्यों नहीं करते। तीर अन्दाज़ी करो। मैंने एक तीर उठाया और पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के सामने एक मुशरिक को मारा जो उसके घोड़े की आख में लगा जिससे उसका घोड़ा बिदक गया और उसके साथ ज़मीन पर गिर गया। मैं फिर से उस पर हमला कर रहा था यहाँ तक की मैं ने पैगम्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम की तरफ़ देखा तो देखा कि आप मुस्कुरा रहे थे , जिससे ज़ाहिर था कि आप मेरी हिम्मत बढ़ा रहे थे , उसी वक्त दुश्मन के एक सिपाही ने मेरी मां के कंधों पर एक ज़र्ब लगाई जिससे वह ज़ख्मी हो गईं , पैगम्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम ने फरमायाः

तुम्हारी मां , तुम्हारी मां , उन्हे बचाओ , उनके ज़ख्म को बाँधो , तुम उस बा बरकत ख़ानदान के अफ़राद हो , तुम्हारी माँ का मरतबा फलाँ फलाँ से ज़्यादा है और तुम्हारे बाप का रुतबा फलाँ फलाँ के मक़ाम से ज़्यादा है खुदा वन्दे आलम तुम्हारे खानदान पर रहमत नाज़िल करे।

मेरी माँ ने कहाः या रसूलल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम , खुदा से दुआ करें कि वह हमें स्वर्ग में आपके साथ जगह इनायत करे। पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम ने उसी वक्त दुआ की और कहाः

अल्लाहुम्म अजअल हुम रफकाई फिल जन्नः

اللھم اجعلھم رفقائی فی الجنة “ ۔

जैसे ही मेरी माँ ने पैगम्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम की यह दुआ सुनी तो इस क़दर खुशहाल हुई जिसका अंदाज़ा नहीं किया जा सकता और कहाः

मुझ पर जो रन्जो मुसीबत नाज़िल हुई है अब मुझे उसकी कोई फिक्र और ग़म नहीं है।

पैग़म्बरे अकरम (स) उवैसे क़रनी का अध्यात्मिक जुड़ाव

ओवैस क़रनी ने पैगम्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम को नहीं देखा था लेकिन आपकी विशेषताएं और आपकी दावत को सुन कर फ़िदा हो गए थे और हिदायत को क़बूल करके जामे ईमान , कामिल इबादत और आरेफ़ाना अध्यात्म से जुड़ गये थे।

पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम ने उनके लिए जन्नत की गवाही दी और अपने असहाब से फरमायाः

तुम्हें अपनी उम्मत के ओवैस नामी शख़्स की बशारत देता हू यकीनन वह क़यामत में क़बील ए रबीया और मुज़िर के बराबर अफ़राद की शिफ़ाअत करेंगे:

पैगम्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम ने फरमायाः

” تفوح روائح الجنة من قبل القرون و اشوقاہ الیک یا اویس القرن “ ۔

तफुहो रवाऐहुल जन्नह मिन कब्लील करून व अशोकाहो इलैक या ओवैसे करन

यमन की तरफ़ से जन्नत की हवा चल रही है। ऐ ओवैस करनी मैं तुम्हारी ज़्यारत का कितना मुश्ताक हूं। पैगम्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम ने उनको नफ़सुर्रहमान और ख़ैरुत्ता बैईन के नाम से याद किया और कभी कभी यमन की तरफ़ उनकी खुशबू को सुँघते थे और फरमाते थेः

” انی لاشم روح الرحمن من طرف الیمن “ ۔

इन्नी ला अशुम्म रुहुर्रहमान मिन तरफल यमन.

मैं यमन की तरफ़ से नसीमे रहमानी सुँघ रहा हूँ।

ओवैसे क़रनी पैगम्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम की ज़्यारत के शौक़ में परेशान थे। अपनी मां से मदीने जाकर पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम की ज़्यारत की आज्ञा मांगी , उन्होने कहाः इस शर्त पर इजाज़त देती हूँ की आधे दिन से ज़्यादा मदीने में न रुकना , औवेस अपनी वालेदा की इजाज़त से मदीने आ गये। जब आँ हज़रत सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के घर पहुँचे तो आप घर पर तशरीफ नहीं रखते थे। आधे दिन वहाँ रुकने के बाद अपने महबूब की ज़्यारत किए बगैर यमन वापस आ गए। जिस वक़्त पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम घर तशरीफ लाऐ तो फ़रमायाः ये किस का नूर है जिसको मैं यहाँ देख रहा हूँ। सब ने कहाः एक ऊँट चराने वाला , जिसका नाम ओवैस था , यहाँ आया था और वापस चला गया , आपने फरमायाः वह इस नूर को हमारे घर में बतौरे हदिया छोड़ कर चले गये हैं।

ये क़िस्सा मशहूर है की जब जँगे ओहद में पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम की पेशानी ज़ख्मी हुई और दाँत शहीद हुए तो ओवैस क़रनी सहरा में ऊँटों को चरा रहे थे। वह भी पेशानी और दाँत के दर्द से आहो ज़ारी कर रहे थे।

जी हाँ मानवी मुआशेरत करने वालों और नूरानी चेहरे वालों की ज़िन्दगी में ज़ाहिरी तौर पर मौजूद होना ज़रुरी नहीं है। इंसान कोशिश और मुस्बत कार कर्दगी के ज़रीये औलिया ए हक़ की मानवी ख़िदमत में पहुँच सकता है और जब औवैसे क़रनी ने आं हज़रत सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्ल्म से अपना अध्यात्मिक संबंध बना लिया तो आपके वुजुद में बहुत ज़्यादा फ़ुयुज़ व बरकात जमा हो गये , कहा गया हैः

من جَدَّ وَجَدَ “ ۔

मन जद्दा वजद।

जो भी जिस चीज़ के लिए कोशिश करता है उसको हासिल कर लेता है।

पाठकों , ख़ुसूसन जवानों को जिनकी दुनिया भावनाओं और जज़्बात की दुनिया है। इस वाक्य की हक़ीक़त से आगाह करने के लिए तारीख़ में कोशिश करने वालों के कुछ वाक़ेयात की तरफ इशारा करेंगे।


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