पैग़म्बरे
इस्लाम
हज़रत
मोहम्मद
मुस्तफ़ा (स.अ.व.व.)
के
मुख़्तसर
ख़ानदानी
हालात
पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स अ व व ) हज़रत इब्राहीम (स अ व व ) की नस्ल से थे। हज़रत इब्राहीम अहवाज़ , बाबुल या ईराक़ के एक क़रये कोसा में तूफ़ाने नूह से 1081 साल बाद पैदा हुए। जब आपकी उम्र 86 साल की हुई तो आपके यहां जनाबे हाजरा से हज़रे इस्माईल पैदा हुए और 90 साल की उम्रें जनाबे सारा से हज़रते इस्हाक़ पैदा हुए। हज़रत इब्राहीम (अ.स.) ने दोनों बीवीयों को एक जगह रखना मुनासिब न समझ कर सारा को मैय इस्हाक़ शाम में छोड़ा और हाजरा को इस्माईल के साथ हिजाज़ के शहर मक्का में ख़ुदा के हुक्म से पहुँचा आये। इस्हाक़ (अ.स.) की शादी शाम में और इस्माईल (अ.स.) की मक्का में क़बीलाए जुरहुम की एक लड़की से हुई। इस तरह इस्हाक़ (अ.स.) की नस्ल शाम में और इस्माईल (अ.स.) की नस्ल मक्का में बढ़ी। जब हज़रते इब्राहीम (अ.स.) की उम्र 100 साल की हुई और जनाबे हाजरा का इन्तेक़ाल भी हो गया तो आप मक्का तशरीफ़ लाये और इस्माईल (अ.स.) की मदद से ख़ाना ए काबा की तामीर की। मुवर्रेख़ीन का कहना है कि यह तामीर हिजरते नबवी से 2793 साल पहले हुई थी। उन्होंने एक ख़्वाब के हवाले से बहुक्मे ख़ुदा अपने बेटे (इस्माईल) को ज़िबह करना चाहा था जिसके बदले में ख़ुदा ने दुम्बा (भेड़) भेज कर फ़रमाया कि तुम ने अपना ख़्वाब सच कर दिखाया। इब्राहीम सुनो ! हम ने तुम्हारे फ़िदये (इस्माईल) को ज़बहे अज़ीम इमामे हुसैन (अ.स.) से बदल दिया है। मुवर्रेख़ीन का कहना है कि यह वाक़िया हज़रत आदम (अ.स.) के दुनिया में आने के 3435 साल बाद का है। इसके बाद चन्द बातों में आपका इम्तेहान लिया गया जिसमें कामयाबी के बाद आपको दरजाए इमामत पर फ़ाएज़ किया गया। आपने ख़्वाहिश की कि यह ओहदा मेरी नस्ल से मुस्तक़र कर दिया जाय। इरशाद हुआ बेहतर है लेकिन तुम्हारी नस्ल में जो ज़ालिम होंगे वह इस्से महरूम रहेंगे। आपका लक़ब ख़लील अल्लाह था और आप उलुल अज़्म पैग़म्बर थे। आप साहबे शरीयत थे और ख़ुदा की बारगाह में आपका यह दरजा था कि ख़ातेमुल अम्बिया (स अ व व ) को आपकी शरीयत के बाक़ी रखते का हुक्म दिया गया। आपने 175 साल की उम्र में इन्तेक़ाल फ़रमाया और मक़ामे कु़द्स (ख़लील अर रहमान) में दफ़्न किये गये। वफ़ात से पहले आप ने अपना जानशीद हज़रते इस्माईल (अ.स.) को क़रार दिया। अंग्रेज़ इतिहासकारों का कहना है कि हज़रते इस्माईल का जन्म जनाबे मसीह से 1911 साल पहले हुआ था।
हज़रत इस्माईल (अ.स.) के यह ख़ास इमतेआज़ात हैं कि उन्हीं कि वजह से मक्का आबाद हुआ। चाह ज़मज़म बरामद हुआ। हज्जे काबा की इबादत की शुरूआत हुई। 10 ज़िलहिज को ईदे क़ुरबान की सुन्नत जारी हुई। आप का इन्तेक़ाल 137 साल की आयु में हुआ और आप हिजरे इस्माईल मक्का के क़रीब दफ़्न हुए। आपने बारह बेटे छोड़े। आपकी वफ़ात के बाद ख़ाना ए काबा की निगरानी व दीगर खि़दमात आपके पुत्र ही करते रहे। इनके पुत्रों में क़ेदार को विशेष हैसियत हासिल थी ग़रज़ कि अवलादे हज़रत इस्माईल (अ.स.) मक्का मोअज़्ज़ाम में बढ़ती और नशोनुमा पाती रही यहां तक कि तीसरी सदी में एक शख़्स फ़हर नामी पैदा हुआ जो इन्तेहाई बा कमाल था। इस फ़हर की नस्ल से पैग़म्बरे इस्लाम पैदा हुए। अल्लामा तरीही का कहना है कि इसी फ़हर या इसके दादा नज़र बिन कनाना को क़ुरैश कहा जाता है क्यो कि बहरिल हिन्द से उसने एक बहुत बड़ी मछली शिकार की थी जिसको क़ुरैश कहा जाता था और उसे ला कर मक्का मे रख दिया था जिसे लोग देखने के लिये दूर दूर से आते थे। लफ़्ज़े फ़हर इब्रानी है और इसके मानी पत्थर के हैं और क़ुरैश के मानी क़दीम अरबी में सौदागर के हैं।
क़ुसई
पांचवीं सदी इसवी में एक बुज़ुर्ग फ़हर की नस्ल से गुज़रे हैं जिनका नाम क़ुसई था। शिबली नोमानी का कहना है कि उन्हीं क़ुसई को क़ुरैश कहते हैं लेकिन मेरे नज़दीक़ ये ग़लत है क़ुसई का असली नाम ज़ैद और कुन्नियत अबुल मुग़ैरा थी। उनके बाप का नाम कलाब और मां का नाम फातेमा बिन्ते असद और बीबी का नाम आतका बिन्दे ख़ालिख़ बिन लैक था। यह निहायत ही नामवर , बुलन्द हौसला , जवां मर्द , अज़ीमुश्शान बुज़ुर्ग थे। उन्होंने ज़बरदस्त इज़्ज़त व इख़तेदार हासिल किया था यह नेक चलन बा मुरव्वत , सख़ी व दिलेर थे। इनके विचार पवित्र और बेलौस थे। इनके एख़लाक़ बुलन्द , शाइस्ता और मोहज़्ज़ब थे। इनकी एक बीबी हबी बिन्ते ख़लील ख़ेज़ाईं थीं। यह ख़लील बनु ख़ज़आ का सरदार था। इसने मरने के समय ख़ाना ए काबा की तौलीयत हबी के हवाले कर देना चाही , इसने अपनी कमज़ोरी के हवाले से इन्कार कर दिया फिर उसने अपने एक रिश्तेदार अबू ग़बशान ख़ेज़ाई के सुपुर्द की। उसने इस अहम खि़दमत को क़ुसई के हाथो बेच दिया। इस तरह क़ुसई इब्ने क़लाब इस अज़ीम शरफ़ के भी मालिक बन गए। उन्होंने ख़ाना ए काबा की मरम्मत कराई और बरामदा बनवाया। रिफ़ाहे आम के सिलसिले में अनगिनत खि़दमते कीं। मक्का में कुवां खुदवाया जिसका नाम अजूल था। क़ुसई का देहान्त 480 ई 0 में हुआ। मरने के बाद उन्हें मुक़ामे हजून में दफ़्न किया गया और उनकी क़ब्र ज़्यारत गाह बन गई। क़ुसई अगरचे नबी या इमाम न थे लेकिन हामिले नूरे मोहम्मदी (स अ व व ) थे। यही वजह है कि आसमाने फ़ज़ीलत के आफ़ताब बन गये।
अब्दे
मनाफ़
क़ुसई के छः बेटे थे जिन में अब्दुलदार सब से बड़ा और अब्दुल मुनाफ़ सब से लाएक़ था। उन्होंने मरते समय बड़े बेटे को तमाम मनासिब सिपुर्द किये लेकिन अब्दे मनाफ़ ने अपनी लेआक़त की वजह से सब में शिरकत हासिल कर ली। यह क़ुरैश के मुस्सलेमुससबूत सरदार बन गये। अब्दे मनाफ़ का असली नाम मुग़ैरा और कुन्नियत अबू अब्दे शम्स थी और माँ का नाम हबी बिन्ते ख़लील था। उन्होंने आमका बिन्ते मरह सलेमह बिन हलाल से शादी की। उन्हें हुसनों जमाल की वजह से क़मर कहा जाता था। दियारे बकरी का कहना है कि अब्दे मनाफ़ को मुग़ैरा कहते थे। वह तक़वा व सिलाए रहम की तलक़ीन किया करते थे। बाप और बेटे एक ही अक़ीदे पर थे और उन्होंने कभी बुत परस्ती नहीं की। यह भी अपने बाप क़ुसई की तरह मनाक़िब बेहद और फ़ज़ाएले बेशुमार के मालिक और नूरे मोहम्मदी के हामिल थे। उन्होंने मुल्के शाम के मक़ाम ग़ज़वे में इन्तेक़ाल किया।
अब्दे मनाफ़ के जीते जी तो कोई झगड़ा डठा नहीं इनके बाद उनकी अवलाद जिनमें हाशिम , मुत्तलिब अब्दे शम्स और नौफ़िल नुमाया हैसियत रखते थे उन्में यह जज़बा उभर पड़ा कि अब्दुलदार की औलाद से वह मनासिब ले लेने चाहिये जिनके वह अहल नहीं चुनान्चे इन लोगों ने बनी अब्दुलदार से मनासिब की वापसी या तकसीम का सवाल किया उन्होने इन्कार कर दिया। इसके बाद जंग का मैदान हमवार हो गया। बिल आख़िर इस बात पर सुलह हो गई कि रेफ़ायदा सक़ाया की क़यादत बनी अब्दे मुनाफ़ में है और लवा बरदारी का मनसब बनी अब्दुलदार के पास रहे और दारूल नदवा की सदारत मुश्तरका हो।
हाशिम
आप का नाम अम्र कुन्नियत अबू नाफ़ला थी। आपके वालिद अब्दे मनाफ़ और वालेदा आतका बिनते मरह अल सलमिया थी। आपको उलू मरतबा की वजह से अम्र अलअला भी कहते थे। आप और अब्दुल शम्स दोनों इस तरह जुडवाँ पैदा हुए थे के इनके पाँव का पन्जा अब्दुल शम्स की पेशानी से चिपका हुआ था जिसे तलवार के ज़रिये अलाहेदा किया गया और बेइन्तेहा ख़ून बहा जिस की ताबीर नुजूमियों ने बाहमी खूंरेज़ जंग से की जो बिल्कुल सही उतरी और दोनो ख़ानदानों के दरमियान हमेशा जंग मुतावरिस रही। जिसका एख़तेताम 133 हिजरी में हुआ। बनी अब्बास (हाशमी) और बनी उमय्या (शम्सी) में ऐसी ख़ूंरेज़ जंग हुई जिसने बनी उमय्या की क़ुव्वत व ताक़त और बुलन्दीए इक़बाल का चिराग़ हमेशा के लिये गुल कर दिया। आप फ़ितरतन सैर चश्म और फ़य्याज़ थे। दौलत मन्दी में भी बड़ी हैसियत के मालिक थे हुजाज की खि़दमत आप की ज़िन्दगी का कारनामा था। मुवर्रेख़ीन का कहना है कि आप को हाशिम इस लिये कहते हैं कि आपने एक शदीद क़हत के मौक़े पर अपनी ज़ाती दौलत से शाम जा कर बहुत काफ़ी केक ख़रीदे थे और उसे ला कर तक़सीम करते हुए कहा कि इसे शोरबा में तोड़ कर खा जाओ। हाशिम के मानी तोड़ने के हैं लेहाज़ा हाशिम कहे जाने लगे। आप ने अपनी शादी अपने ख़ानदान की एक लड़की से की जिससे हज़रत असद पैदा हुए। दूसरी शादी ख़ज़रजियों के एक मश्हूर क़बीले बनी अदी इब्ने नजार यसरब (मदीना) की नजीबुत तरफ़ैन दुख़्तर से की। उसी के बतन से एक बा वेक़ार लड़का पैदा हुआ जो आगे चल कर अब्दुल मुत्तलिब शेबत उल हम्द से पुकारा गया। अब्दुल मुत्तलिब अभी दूध ही पीते थे कि जनाबे हाशिम का इन्तेक़ाल हो गया। आपकी औलाद के मुतअल्लिक़ हज़रत जिबराईल का कहना है कि मैंने मशरिक़ो मग़रिब को छान कर देखा है कि मोहम्मद मुस्तफ़ा (स अ व व ) से बेहतर कोई नहीं है और बनी हाशिम से बेहतर कोई ख़ानदान नहीं है। जनाबे हाशिम ने 510 ई 0 में बामक़ाम ग़ज़वाए शाम में इन्तेक़ाल फ़रमाया।
जनाबे
असद
आप हज़रते हाशिम के बड़े बेटे थे , आपकी विलादत 497 ई 0 से क़ब्ल हुई थी। आप में इन्सानी हमदर्दी बहद्दे कमाल पहुँची हुई थी। फ़ख़रूद्दीन राज़ी का बयान है कि जनाबे असद ने एक दिन एक दोस्त को सख़्त भूखा पा कर (जो बनी खज़दम से था) अपनी वालेदा से कहा कि इसके लिये खाने का बन्दोबस्त करो , उन्होंने पनीर और आटा वग़ैरा काफ़ी मिक़दार में इसके घर भिजवा कर उसे सुकून बख़्शा फिर इस वा़के़ए से मुताअस्सिर हो कर जनाबे हाशिम ने अहले मक्का को जमा किया और इनमें तिजारत का जज़बा व शौक़ पैदा किया। असद के मानी शेर के हैं। इब्ने ख़ालविया का यह कहना है कि शेर के पांच सौ नाम हैं जिनमें एक असद भी है। शेर भूख और प्यास पर साबिर होता है। अल्लामा तरीही का कहना है कि शेर की अवलाद कम होती है शायद यही वजह थी कि हज़रते असद के अवलाद कम थी बल्कि अवलादे ज़कूर मफ़क़ूद और ग़ालेबन सिर्फ़ फातेमा बिन्ते असद ही थीं जो बाद में हज़रत अली (अ.स.) वालेदा गिरामी क़रार पायीं।
जनाबे
अब्दुल
मुत्तलिब
आप हज़रत हाशिम के नेहायत जलीलउल क़द्र साहबज़ादे थे। 497 ई 0 में पैदा हुए वालिद का इन्तेक़ाल बचपने में ही हो चुका था। परवरिश के फ़राएज़ आपके चचा मुत्तलिब के कनारे आतफ़त में अदा हुए और ख़ुश क़िस्मती से आखि़र में अरब के सब से बड़े सरदार क़रार पाए। आपके वालिद ही की तरह आपकी वालेदा भी (जिनका नाम सलमा था) शराफ़त व अज़मत में इन्तेहाई बुलन्दी की मालिक थीं। इब्ने हाशिम का कहना है कि वह वेक़ारे ख़ानदानी की वजह से अपने निकाह को इस शर्त से मशरूत करती थीं कि तौलीद के मौक़े पर अपने मैके में रहूगीं। जनाबे अब्दुल मुत्तलिब का एक नाम शेबातुल हम्द भी था क्यों कि आप की विलादत के वक़्त आपके सर पर सफ़ेद बाल थे और शेब सफ़ेद सर को कहते हैं। हम्द से उसे मुज़ाफ़ इस लिये किया कि आगे चल कर बे इन्तेहा मम्दूह होने की इनमें अलामतें देखी जा रही थीं। आप सिने शऊर तक पहुँचते ही जनाबे हाशिम की तरह नामवर और मशहूर हो गये। आपने अपने आबाओ अजदाद की तरह अपने ऊपर शराब हराम कर रखी थी और ग़ारे हिरा में बैठ कर इबादत करते थे। आपका दस्तर ख़्वान इतना वसी था कि इन्सानों के अलावा परिन्दों को भी खाना खिलाया जाता था। मुसीबत ज़दों की इमदाद और अपाहिजों की ख़बर गीरी इनका ख़ास शेवा था। आप ने बाज़ ऐसे तरीक़े राएज किये जो बाद में मज़हबी नुक़ताए नज़र से इन्सानी ज़िन्दगी के उसूल बन गये। मसलत इफ़ाए नज़र निकाह मेहरम से इजतेनाब , दुख़्तर कशी की मुमानियत ख़मरो ज़िना की हुरमत और क़ितए यदे सारिक़ के अब्दुल मुत्तलिब का यह अज़ीम कारनामा है कि उन्होंने चाहे ज़मज़म को जो मरूर ज़माने से बन्द हो चुका था फिर ख़ुदवा कर जारी किया।
आपके अहद का एक अहम वाक़ेया काबा ए मोअज़्ज़मा पर लश्कर कशी है। मुवर्रेख़ीन का कहना है कि अबरहातुल अशरम का ईसाई बादशाह था। उसमें मज़हबी ताअस्सुब बेहद था। ख़ाना ए काबा की अज़मत व हुरमत देख कर आतिशे हसद से भड़क उठा और इसके वेक़ार को घटाने के लिये मक़ामे सनआ में एक अज़ीमुश्शान गिरजा बनवाया। मगर इसकी लोगों की नज़र में ख़ाना ए काबा वाली अज़मत न पैदा हो सकी तो इसने काबे को ढाने का फ़ैसला किया और असवद बिन मक़सूद हबशी की ज़ेरे सर करदगी में एक अज़ीम लशकर मक्के की तरफ़ रवाना कर दिया। क़ुरैश , कनाना , ख़ज़ाआ और हज़ील पहले तो लड़ने के लिये तैय्यार हुए लेकिन लशकर की कसरत देख कर हिम्मत हार बैठे और मक्के की पहाड़ियो में अहलो अयाल समेत जा छिपे। अल बत्ता अब्दुल मुत्तलिब अपने चन्द साथियों समेत ख़ाना ए काबा के दरवाज़े में जा खडे़ हुए और कहा ! मालिक यह तेरा घर है और सिर्फ़ तू ही बचाने वाला है। इसी दौरान में लशकर के सरदार ने मक्के वालों के खेत से मवेशी पकड़े जिनमें अब्दुल मुत्तलिब के 200 ऊँट भी थे। अलग़रज़ अबराहा ने हनाते हमीरी को मक्के वालों के पास भेजा और कहा के हम तुम से लड़ने नहीं आये हमारा इरादा सिर्फ़ काबा ढाने का है। अब्दुल मुत्तलिब ने पैग़ाम का जवाब यह दिया कि हमें भी लड़ने से कोई ग़रज़ नहीं और इसके बाद अब्दुल मुत्तलिब ने अबराहा से मिलने की दरख़्वास्त की। उसने इजाज़त दी यह दाखि़ले दरबार हुए। अबराहा ने पुर तपाक ख़ैर मक़दम किया और इनके हमराह तख़्त से उतर कर फ़र्श पर बैठा। अब्दुल मुत्तलिब ने दौनाने गुफ्तुगू में अपने ऊँटों की रेहाई और वापसी का सवाल किया। उसने कहा तुम ने अपने आबाई मकान काबे के लिये कुछ नहीं कहा। उन्होंने जवाब दिया अना रब्बिल अब्ल वलिल बैत रब्बुन समीनाह मैं ऊँटों का मालिक हूँ अपने ऊँट मांगता हूँ जो काबे का मालिक है अपने घर को ख़ुद बचाऐगा। अब्दुल मुत्तलिब के ऊँट उन को मिल गये और वह वापस आ गये और क़ुरैश को पहाड़ियों पर भेज कर ख़ुद वहीं ठहर गये। ग़रज़ कि अबराहा अजी़मुश्शान लश्कर ले कर ख़ाना ए काबा की तरफ़ बढ़ा और जब इसकी दीवारे नज़र आने लगीं तो धावा बोल देने का हुक्म दिया। ख़ुदा का करना देखिए कि जैसे ही ग़ुस्ताख़ व बेबाक लशकर ने क़दम बढ़ाया मक्के के ग़रबी सिमत से ख़ुदा वन्दे आलम का हवाई लशकर अबा बील की सूरत में नमूदार हुआ। इन परिन्दों की चोंच और पन्जों में एक एक कंकरी थी। उन्होंने यह कंकरियां अबराहा के लशकर पर बरसाना शुरू कीं। छोटी छोटी कंकरयों ने बड़ी बड़ी गोलियों का काम कर के सारे लशकर का काम तमाम कर दिया। अबराहा जो महमूद नामी सुखऱ् हाथी पर सवार था ज़ख़्मी हो कर यमन की तरफ़ भागा लेकिन रास्ते ही में वासिले जहन्नम हो गया। यह वाक़ेया 570 ई 0 का है।
1.सना यमन का दारूल हुकूमत है। उसे क़दीम ज़माने में उज़ाली भी कहते थे। तमाम अरब में सब से उम्दा और ख़ूब सूरत शहर है। अदन से 260 मील के फ़ासले पर एक ज़रख़ेज़ वादी में वाक़े है इसकी आबो हवा मोतादिल और ख़ुश गवार है। इसके जुनूब मशरिक़ में तीन दिन की मसाफ़त पर शहर क़रीब है जिसको सबा भी कहते हैं सना के शुमाल मग़रिब में 60 फ़रसख़ पर सुरह है यहां का चमड़ा दूर दराज़ मुल्कों में तिजारत को जाता है। सना के मग़रिब में बहरे कुल्जुम से एक मन्ज़िल की मसाफ़त पर शहर ज़ुबैद वाक़े है जहां से तिजारत के वास्ते कहवा अतराफ़ में जाता है। ज़ुबैद से 4 मन्ज़िल और सना से 6 मन्ज़िल पर बैतुल फ़क़ीह वाक़े है। ज़ुबैद के शुमाल मशरिक़ में शहर मोहजिम है सना से 6 मन्ज़िल के फ़ासले पर ज़ुबैद के जुनूब में क़िला ए तज़ है। सना के शुमाल में 10 मन्ज़िल की मुसाफ़त पर नज़रान है।
चूकि अबराहा हाथी पर सवार था और अरबों ने इस से पहले हाथी न देखा था नीज़ इस लिये कि बड़े बड़े हाथियों को छोटे छोटे परिन्दों की नन्हीं नन्हीं कंकरियों से बा हुक्मे ख़ुदा तबाह कर के ख़ुदा के घर को बचा लिया इस लिये इस वाक़ये को हाथी की तरफ़ से मन्सूब किया गया और इसी से सने आमूल फ़ील कहा गया। मेंहदी का खि़जा़ब अब्दुल मुत्तलिब ने ईजाद किया है। इब्ने नदीम का कहना है कि आपके हाथ का लिखा हुआ एक ख़त मामून रशीद के कुतुब ख़ाने में मौजूद था। अल्लामा मजलिसी और मौलवी शिब्ली का कहना है कि आपने 82 साल की उम्र में वफ़ात पाई और मक़ामे हुज़ून में दफ़्न हुए। मेरे नज़दीक आपका सने वफ़ात 578 ईसवी है।
जनाबे
अब्दुल्लाह
आप जनाबे अब्दुल मुत्तलिब के बेटे थे। कुन्नियत अबू अहमद थी आपकी वालिदा का नाम फातेमा था जो उमरे बिन साएद बिन उमर बिन मख़्जूम की साहब ज़ादी थी। आपके कई भाई थे जिनमें अबू तालिब को बड़ी अहमियत थी। जनाबे अब्दुल्लाह ही वह अज़ीमुल मर्तबत बुर्ज़ुग हैं जिनको हमारे नबीए करीम के वालिद होने का शरफ़ हासिल हुआ। आप नेहायत मतीन , संजीदा और शरीफ़ तबीयत के इन्सान थे और न सिर्फ़ जलालते निसबत बल्कि मुकारिमें इख़्लाक़ की वजह से तमाम जवानाने क़ुरैश में इम्तियाज़ की नज़रों से देखे जाते थे। मुहासिने आमल और शुमाएले मतबू में फ़र्द थे। हरकात मौजू और लुत्फ़े गुफ़तार में अपना नज़ीर न रखते थे। जनाबे अब्दुल मुत्तलिब आपको सब से ज़्यादा चाहते थे। एक दफ़ा ज़िक्र है कि अब्दुल मुत्तलिब ने यह नज़र मानी कि अगर ख़ुदा ने मुझे दस बेटे दिये तो मैं इन में से एक राहे ख़ुदा में क़ुर्बान कर दूंगा , और इसकी तकमील में अब्दुल्लाह को ज़ब्ह करने चले तो लोगों ने पकड़ लिया और कहा कि आप क़ुरबानी के लिये क़ुरा डालें। चुनान्चे बार बार अब्दुल्लाह के ज़ब्ह पर ही क़ुरा निकलता रहा। अब्दुल मुत्तलिब ने सख़्त इसरार के साथ उन्हें ज़ब्ह करना चाहा लेकिन ऊँटों की तादाद बढ़ा कर क़ुरे के लिये सौ तक ले गये बिल आखि़र तीन बार अब्दुल्लाह के मुक़ाबले में सौ ऊँटों पर क़ुरा निकला और अब्दुल्लाह ज़ब्ह से बच गये। उसके बाद आपकी शादी क़बीलाए ज़हरा में वहाब इब्ने अब्दे मनाफ़ की साहब ज़ादी (आमिना) से हो गयी।। शादी के वक़्त जनाबे अब्दुल्लाह की उम्र तक़रीबन 18 साल की थी। आप ने 28 साल की उम्र में इन्तेक़ाल फ़रमाया। मुवर्रेख़ीन का कहना है कि आप मक्के से बा सिलसिलाए तिजारत मदीना तशरीफ़ ले गये थे वहीं आप का इन्तेक़ाल हो गया और आप मक़ामे अब्वा में दफ़्न किये गये। आपने तरके में ऊँट , बकरियां और एक लौंड़ी छोड़ी जिसका नाम (बरकत) और उर्फ़ उम्मे ऐमन था।
हज़रत
अबुतालिब
आप हज़रते हाशिम के पोते , अब्दुल मुत्तलिब के बेटे और जनाबे अब्दुल्लाह के सगे भाई थे। आपका असली नाम इमरान था कुन्नियत अबू तालिब थी। आपकी मादरे गेरामी फातेमा बिन्ते अम्र मख़जूमी थीं। शम्सुल उलेमा नज़ीर अहमद का कहना है कि आप अब्दुल मुत्तलिब के अवलादे ज़कूर में सब से ज़्यादा बवक़ार और अक़्ल मन्द थे। अब्दुल मुत्तलिब के बाद पै़ग़म्बरे इस्लाम की परवरिश आपने शुरू की और ता हयात उनकी नुसरत व हिमायत करते रहे। मोल्वी शिब्ली का कहना है कि अबू तालिब का यह तरीक़ा ता जी़स्त रहा कि आं हज़रत (स अ व व ) को अपने साथ सुलाते थे और जहां जाते थे साथ ले जाते थे। कुफ़्फ़ारे क़ुरैश और अशरार यहूद से आपने आं हज़रत की हिफ़ाज़त की और उन्हें किसी क़िस्म का ग़ज़न्द नहीं पहुँचने दिया। मुवर्रिख़ इब्ने कसीर का कहना है कि सफ़रे शाम के मौक़े पर एक राहिब की नज़र आप पर पड़ी। उसने इन में बुर्ज़ुगी के आसार देखे और अबु तालिब से कहा कि उन्हें जल्द वापस वतन ले जाओ नहीं तो यहूद इन्हें क़त्ल कर डालेगें। अबू तालिब ने अपना सारा सामाने तिजारत बेच कर के वतन की राह ली। मुवर्रिख़ दयारे बकरी का कहना है कि हज़रत मोहम्मद (स अ व व ) जनाबे अबू तालिब की तहरीक से जनाबे ख़दीजा का माल बेचने के लिये शाम की तरफ़ ले जाया करते थे। कुछ दिनों मे ख़दीजा ने शादी की ख़्वाहिश की और निसबत ठहर गयी। जनाबे अबू तालिब ने आं हज़रत (स अ व व ) की तरफ़ से ख़ुत्बा ए निकाह पढ़ा अबू तालिब के ख़ुत्बे की शुरूआत इन लफ़्ज़ों मे है। (अल्हम्दो लिल्लाहिल लज़ी जाअल्ना मिन ज़ुर्रियते इब्राहीम) तमाम तारीफ़ें उस ख़ुदा के लिये हैं जिसने हमें ज़ुर्रियते इब्राहीम में क़रार दिया।
चार सौ दीनार सुख्र पर अक़्द हुआ। अक़्द निकाह के बाद हज़रत अबू तालिब बहुत ही ख़ुश हुए। अल्लामा तरही का बा हवाला ए इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) कहना है कि अबू तालिब ईमान के ताहफ़्फ़ुज़ हैं असहाबे क़हफ़ के मानिन्द थे। शमशुल उलमा नज़ीर अहमद का कहना है कि अब्दुल मुत्तलिब और अबू तालिब दीने फ़ितरत को मज़बूती से पकड़े हुए थे। अल्लामा स्यूती का कहना है कि अन अबल नबी लम यकुन फ़ीहुम मुशरिक आँ हज़रत (स अ व व ) के आबाव अजदाद मे एक शख़्स भी मुशरिक नहीं था। क़ुरआन मजीद में है कि ऐ नबी हम ने तुम को सजदा करने वालों की पुशत में रखा। अबू तालिब के मुताअल्लिक़ शमशुल उलमा नज़ीर अहमद का कहना है कि वह दिल से पैग़म्बर को सच्चा पैग़म्बर और इस्लाम को ख़ुदाई दीन समझते थे। शमशुल उलमा शिब्ली का कहना है कि अबू तालिब मरते वक़्त भी कलमा पढ़ते रहे थे लेकिन बुख़ारी की एक ऐसी मुरसिल रवायत की बिना पर जिसमे मुसय्यब शामिल हैं उन्हें ग़ैर मुस्लिम कहा जाता है। जो क़ाबिले सेहत लाएक़े तसलीम नहीं है। ग़रज़ कि आपके मोमिन और मुसलमान होने पर मुन्सिफ़ मुवर्रेख़ीन का इत्तेफ़ाक़ है। अबू तालिब के दो शेर क़ाबिले मुलाहेज़ा हैं।
ودعوتني وزعمت انك ناصحي *** ولقد صدقت وكنت ثم امينا
ولقد علمت بان دين محمد *** من خير اديان البرية دينا
तरजुमा ऐ मोहम्मद (स अ व व ) ! तुम ने मुझे इस्लाम की तरफ़ दावत दी और मैं ख़ूब जानता हूँ कि तुम यक़ीनन सच्चे हो क्यों कि तुम इस अहदे नबूवत के इज़हार से क़ब्ल भी लोगों की नज़र में सच्चे रहे हो। मैं अच्छी तरह जाने हुए हूँ कि ऐ मोहम्मद ! तुम्हारा दीन दुनियां के तमाम अदयान से बेहतर है।
आपकी बीवी फातेमा बिन्ते असद थीं जो सन् 1 बेसत में ईमान लाईं और 4 हिजरी में बा मुक़ाम मदीना ए मुनव्वरा इन्तेक़ाल फ़रमा गईं और ख़ुद आप का इन्तेक़ाल 85 साल की उम्र में शव्वाल 10 बेसत में हुआ। आपके इन्तेक़ाल के साल को रसूल अल्लाह (स अ व व ) ने आमुल हुज़्न से मौसूम कर दिया था।
जनाबे
अब्बास
आप जनाबे अब्दुल मुत्तलिब के बेटे और पैग़म्बरे इस्लाम के चचा थे। आपकी वालेदा फ़तीला थीं। आप रसूले ख़ुदा (स अ व व ) से 2 या 3 साल बड़े थे। आपका क़द तवील और बदन ख़ूब सूरत था। आप हिजरत से क़ब्ल इस्लाम लाए थे। आप बड़े साएबुल राय थे। आपने फ़तहे मक्का और ग़ज़वा हुनैन में शिरकत की थी। आप के 10 बेटे और कई बेटियां थीं। आखि़र उम्र में नाबीना हो गये थे। आपने 77 साल की उम्र में बा तारीख़ 12 रजब 32 हिजरी बा मुक़ाम मदीनाए मुनव्वरा में इन्तेक़ाल फ़रमाया और जन्नतुल बक़ी में दफ़न किये गये। आपका मक़बरा खोद डाला गया है लेकिन निशाने क़ब्र अभी भी बाक़ी है। मोअल्लिफ़ ने 1972 ई 0 में बा मौक़ा हज उसे देखा है।
जनाबे
हमज़ा
आप जनाबे अब्दुल मुत्तलिब के साहब ज़ादे और आँ हज़रत (स अ व व ) के चचा थे। आपकी वालदा का नाम हाला बिन्ते वाहब था जो कि जनाबे आमेना की चचा जा़द बहन थीं। आपने बेसत के छटे साल इस्लाम क़ुबूल किया था। आपने जंगे बद्र में शिरकत की थी और बड़े कारहाय नुमाया किये थे। आप जंगे ओहद में भी शरीक हुए और ज़बर दस्त नबरद आज़माई की। 31 काफ़िरों को क़त्ल करने के बाद आपका पांव फ़िसला और आप ज़मीन पर गिर पड़े। जिसकी वजह से पुश्त से ज़िरह हट गई और मौक़ा पर एक वैहशी नामी हब्शी ने तीर मार दिया और आप दिन बल्कि इसी वक़्त बा तरीख़ 5 शव्वाल 3 हिजरी शहीद हो गये। काफ़िरों ने आप को क़त्ल कर डाला और अमीरे माविया की माँ हिन्दा ने आपका जिगर निकाल कर चबा डाला। इसी लिये अमीरे माविया को अक़ल्लुत अक़बाद कहते हैं। आपकी उम्र 57 साल की थी नमाज़े जनाज़ा रसूले ख़ुदा (स अ व व ) ने पढ़ाई थी। तारीख़ का मशहूर वाक़िया है कि 40 हिजरी में जब अमीरे माविया ने नहर खुदवाई तो शोहदा ए ओहद की क़ब्रे खोदी गईं और इसी सिलसिले में एक तैश (बेलचा) जनाबे हमज़ा के पैर पर लगा जिससे ख़ूने ताज़ा जारी हो गया था।
हज़रत
अबू
तालिब
के
बेटे
इब्ने क़तीबा का कहना है कि हज़रत अबू तालिब के चार बेटे थे 1. तालिब , 2. अक़ील , 3. जाफ़र , 4. हज़रत अली (अ.स.) इनमें छोटाई बडा़ई दस साल की थी। दयारे बकरी का कहना है कि दो बहने भी थीं उम्मे हानी और जमाना। तालिब ने जंगे बद्र में मुसलमानों से न लड़ने के लिये अपने को समुन्द्र में गिरा कर डुबा दिया उनकी कोई औलाद नहीं थी। अक़ील आप 590 हिजरी में पैदा हुए थे। आपकी कुन्नियत अबू यज़ीद थी। हुदैबिया के मौक़े पर इस्लाम ज़ाहिर किया और आठ हिजरी में मदीना आ गये आपने जंगे मौतह में भी शिरकत की थी। आप ज़बर दस्त नस्साब थे। आप में अदाए क़रज़ के लिये माविया से मुलाक़ात की थी और बा रवाएते इब्ने क़तीबा तीन लाख अशरफ़ियां हासिल कर ली थीं। आप बड़े हाज़िर जवाब थे। आखि़री उम्र में आप ना बीना हो गये थें आप ने 96 साल की उम्र में 5 हिजरी मुताबिक़ 670 ई 0 में इन्तेक़ाल किया। जाफ़र आप सूरतो सीरत में रसूल अल्लाह (स अ व व ) से बहुत मुशाबेह थे आपने शुरू ही में ईमान जा़िहर किया था। आपने हिजरत हबशा और हिजरते मदीना दोनों में शिरकत की थी। आपको जमादिल अव्वल 8 हिजरी में जंगें मौता के लियेय भेजा गया। आपने अलम ले कर ज़बर दस्त जंग की। आप के दोनों हाथ कट गये। अलम दांतों से संभाला बिल आखि़र शहीद हो गये। आपके लिये आं हज़रत (स अ व व ) ने फ़रमाया है कि उन्हें इनके हाथों के एवज़ ख़ुदा ने जन्नत में ज़मुरदैन पर अता फ़रमाए हैं और आप फ़रिश्तों के साथ उड़ा करते हैं। आपके शहीद होते ही पैग़म्बरे इस्लाम और फातेमा ज़हरा (स अ व व ) असमा बिन्ते उमैस के पास अदाए ताज़ियत के लिये गये। आपने हुक्म दिया की जाफ़र के घर खाना भेजो। आपने 41 साल की उम्र में शहादत पाई। आपके जिस्म पर 90 जख़्म थे। आप ने आठ बेटे छोड़े। जिनकी माँ असमा बिन्ते उमैस थीं। यही अब्दुल्लाह बिन जाफ़र और मोहम्मद बिन जाफ़र ज़्यादा नुमाया थे। यही अब्दुल्लाह हज़रत जै़नब के और मोहम्मद हज़रत उम्मे कुलसूम बिन्ते फातेमा (स अ व व ) के शौहर थे। 4. हज़रत अली (अ. स.) थे।