अबु मोहम्मद हज़रत इमाम हसन (अ.स.)

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अबु मोहम्मद हज़रत इमाम हसन (अ.स.) लेखक:
कैटिगिरी: इमाम हसन (अ)

अबु मोहम्मद हज़रत इमाम हसन (अ.स.)

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: मौलाना नजमुल हसन करारवी
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अबु मोहम्मद हज़रत इमाम हसन (अ.स.)
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अबु मोहम्मद हज़रत इमाम हसन (अ.स.)

अबु मोहम्मद हज़रत इमाम हसन (अ.स.)

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

अहदे अमीरल मोमेनीन (अ.स.) में इमाम हसन (अ.स.) की इस्लामी खि़दमात

तवारीख़ में है कि जब हज़रत अली (अ.स.) को पच्चीस बरस की ख़ाना नशीनी के बाद मुसलमानों ने ख़लीफ़ाए ज़ाहिरी की हैसियत से तसलीम किया और उसके बाद जमल , सिफ़्फ़ीन और नहरवान की लड़ाईयां हुईं तो हर एक जेहाद में इमाम हसन (अ.स.) अपने वालिदे बुज़ुर्गवार के साथ साथ ही नहीं रहे बल्कि बाज़ मौक़ों पर जंग में आपने कारहाय नुमायां भी किये। सैरूल सहाबा और रौज़ातुल पृष्ठ में है कि जंगे सिफ़्फ़ीन के सिलसिले में जब अबू मूसा अशअरी की रेशा दवानियां उरयां हो चुकीं तो अमीरल मोमेनीन (अ.स.) ने इमाम हसन (अ.स.) और अम्मारे यासीर को कूफ़ा रवाना फ़रमाया। आपने जामए कूफ़ा में अबू मूसा के अफ़सून को अपनी तक़रीर के तिरयाक़ से बे असर बना दिया और लोगों को हज़रत अली (अ.स.) के साथ जाने पर आमादा किया। अख़बार अल तवाल की रवायत की बिना पर नौ हज़ार छः सौ पचास (9650) का लशकर तय्यार हो गया।

मुवर्रेख़ीन का बयान है कि जंगे जमल के बाद जब आयशा मदीने जाने पर आमादा न हुईं तो हज़रत अली (अ.स.) ने इमामे हसन (अ.स.) को भेजा और उन्होंने समझा बुझा कर मदीने रवाना किया चुनान्चे वह इस सई मम्दूह में कामयाब हो गये। बाज़ तारीखो में है कि इमाम हसन (अ.स.) जंगे जमल व सिफ़्फ़ीन में अलमदारे लशकर थे और आपने मोहायदए तहकीम पर दस्तख़त फ़रमाये थे और जंगे जमल व सिफ़्फ़ीन और नहरवान में भी सई बलीग़ की थी। फ़ौजी कामों के अलावा आपके सिपुर्द सरकारी मेहमान ख़ाने का इन्तेज़ाम और शाही मेहमानों की मदारात का काम भी था। आप मुक़दमात के फ़ैसले भी करते थे और बैतुल माल की निगरानी भी फ़रमाते थे।

हज़रत अली (अ.स.) की शहादत और इमाम हसन (अ.स.) की बैयत

मवर्रेख़ीन का बयान है कि इमाम हसन (अ.स.) के वालिदे बुज़ुर्गवार हज़रत अली (अ.स.) के सरे मुबारक पर बा मक़ामे मस्जिदे कूफ़ा 19 रमज़ान , 40 हिजरी बा वक़्ते सुबह अमीरे माविया की साज़िश से अब्दुल रहमान इब्ने मुल्जिम मुरादी ने ज़हर में बुझी हुई तलवार लगाई। जिसके सदमे से आपने 21 रमज़ानुल मुबारक 40 हिजरी बा वक़्ते सुबह शहादत पाई। इस वक़्त इमाम हसन (अ.स.) की उम्र 38 साल 6 यौम की थी। हज़रत अली (अ.स.) की तदफ़ीन व तकफ़ीन के बाद अब्दुल्लाह अब्ने अब्बास की तहरीक से बक़ौल इब्ने असीर क़ैस इब्ने सआद इबादा अन्सारी ने इमामे हसन (अ.स.) की बैयत की और उनके बाद तमाम हाज़ेरीन ने बैयत कर ली जिनकी तादाद 40,000 (चालीस हज़ार) थी। यह वाके़या 21 रमज़ान 40 हिजरी यौमे जुमा का है। किफ़ाएतुल अस्र अल्लामा मजलिसी में है कि इस वक़्त आपने एक फ़सीह व बलीग़ ख़ुतबा पढ़ा। जिसमें आपने हम्दो सना के बाद 12 इमामों की खि़लाफ़त का ज़िक्र फ़रमाया और इसकी वज़ाहत की कि आं हज़रत (स अ व व ) ने फ़रमाया है कि हम में हर एक या तलवार के घाट उतरेगा या ज़हरे दग़ा से शहीद होगा। इसके बाद आपने ईराक़ , ईरान , ख़ुरासान , हिजाज़ और यमन व बसरा वग़ैरा के अम्माल की तरफ़ तवज्जो की और अब्दुल्ला इब्ने अब्बास को बसरा का हाकिम मुक़र्रर फ़रमाया। माविया को ज्योही ख़बर पहुँची तो बसरे के हाकिम इब्ने अब्बास मुक़र्रर कर दिये गये हैं तो उसने दो जासूस रवाना किये , एक क़बीलए हमीर , कूफ़े की तरफ़ और दूसरा क़बीलए क़ीन का बसरे की तरफ़। इसका मक़सद यह था कि लोग इमाम हसन (अ.स.) से मुनहरिफ़ हो कर मेरी तरफ़ आ जायें लेकिन वह दोनों जासूस गिरफ़्तार कर लिये गये और उन्हें बाद में क़त्ल कर दिया गया।

हक़ीक़त है कि जब ऐनाने हुकुमत इमाम हसन (अ.स.) के हाथों में आई तो ज़माना बड़ा पुर आशोब था। हज़रत अली (अ.स.) जिनकी शुजाअत की धाक सारे अरब में बैठी हुई थी दुनियां से कूच कर चुके थे। उनकी दफ़ातन शहादत ने सोये हुये फ़ितनों को बेदार कर दिया था और सारी ममलकत में साज़िशों की खिचड़ी पक रही थी। ख़ुद कूफ़े में अशअस इब्ने क़ैस , उमर बिने हरीस , शीस इब्ने रबई वग़ैरा खुल्लम खुल्ला बर सरे अनाद और आमादए फ़साद नज़र आते थे। माविया ने जा बजा जासूस मुक़र्रर कर दिये थे जो मुसलमानों में फूट डलवाते और हज़रत के लश्कर में इख़्तेलाफ़ो इफ़तेराक़ का बीज बोते थे। उसने कूफ़े के बडे़ बड़े सरदारों से साज़िशी मुलाक़ातें कीं और बड़ी बड़ी रिश्वतें दे कर उन्हें तोड़ लिया। बेहारूल अनवार में एल्लश्शराए के हवाले से मन्क़ूल है कि माविया ने उमर बिने हरीस , अशअस बिने क़ैस , हजर इब्नुल हजर शीश इब्ने रबई के पास अलाहेदा अलाहेदा यह पैग़ाम भेजा कि जिस तरह हो सके हसन इब्ने अली को क़त्ल करा दो , जो मनचला यह काम कर गुज़रेगा उसे दो लाख दिरहम नग़द इनाम दूँगा और फ़ौज की सरदारी अता करूगां और अपनी किसी लड़की से शादी कर दूंगा। यह इनाम हासिल करने के लिये लोग शबो रोज़ मौक़े की तलाश में रहने लगे। हज़रत को इत्तेला मिली तो आपने कपड़ों के नीचे ज़िरह पहनना शुरू कर दी। यहां तक की नमाज़े जमाअत पढ़ाने के लिये बाहर निकलते तो ज़िरह पहन कर निकलते थे। माविया ने एक तरफ़ तो ख़ुफ़िया तोड़ जोड़ किये , दूसरी तरफ़ एक बड़ा लशकर ईराक़ पर एक बड़ा हमला करने के लिये भेज दिया। जब हमला आवर लश्कर हुदूदे ईराक़ में दूर तक आगे बढ़ आया तो हज़रत ने अपने लशकर को हरकत करने का हुक्म दिया। हजर इब्ने अदी को थोड़ी सी फ़ौज के साथ आगे बढ़ने के लिये फ़रमाया। आपके लश्कर में भीड़ भाड़ तो ख़ासी नज़र आने लगी थी मगर सरदार जो सिपाहीयों को लडा़ते हैं कुछ तो माविया के हाथ बिक चुके थे , कुछ आफ़ियत पोशी में मसरूफ़ थे। हज़रत अली (अ.स.) की शहादत ने दोस्तों के हौसले पस्त कर दिये थे और दुशमनों को जुरअतो हिकमत दिला दी थी।

मुवर्रेख़ीन का बयान है कि माविया 60,000 (साठ हज़ार) की फ़ौज ले कर मक़ामे मकसन में जा उतरा , जो बग़दाद से दस फ़रसख़ तकरीत की जानिब अवाना के क़रीब वाक़े है। इमाम हसन (अ.स.) को जब माविया की पेश क़दमी का इल्म हुआ तो आपने भी एक बड़े लशकर के साथ कूच कर दिया और कूफ़े से साबात में जा पहुँचे और बारह हज़ार की फ़ौज क़ैस इब्ने साअद की मातहती में माविया की पेश क़दमी रोकने के लिये रवाना कर दिया फिर साबात से रवाना होते वक़्त आपने एक ख़ुतबा पढ़ा जिसमें आपने फ़रमाया कि , ‘‘ लोगों तुमने इस शर्त पर मुझ से बैयत की है कि सुलह और जंग दोनों ही हालातों में मेरा साथ दोगे। मैं ख़ुदा की क़सम खा कर कहता हूँ कि मुझे किसी शख़्स से बुग़ज व अदावत नहीं है , मेरे दिल में किसी को सताने का ख़्याल नहीं है। मैं सुलह को जंग से और मोहब्बत को अदावत से कहीं बेहतर समझता हूं।

लोगों ने हज़रत के इस खि़ताब का मतलब यह समझा कि हज़रत इमाम हसन (अ.स.) अमीरे माविया से सुलह करते की तरफ़ माएल हैं और खि़लाफ़त से दस्त बरदारी करने का इरादा दिल में रखते हैं। इसी दौरान में माविया ने इमाम हसन (अ.स.) के लशकर की कसरत से मुतास्सिर हो कर यह मशवेरा अमरे आस कुछ लोगों को इमाम हसन (अ.स.) के लशकर में और कुछ को क़ैस इब्ने साअद के लशकर में भेज कर एक दूसरे के खि़लाफ़ प्रोपेगन्डा करा दिया। इमाम हसन (अ.स.) के लशकर वाले साज़िशयों ने क़ैस के मुताअल्लिक़ यह शोहरत देनी शुरू की कि उसने माविया से सुलह कर ली है और क़ैस बिने साअद के लशकर में जो साज़िशी घुसे हुए थे उन्होंने तमाम लशकरयों में चर्चा कर दिया कि इमाम हसन (अ.स.) ने माविया से सुलह कर ली है। इमाम हसन (अ.स.) के दोनों लशकरों में इस ग़ल्त अफ़वा हके फैल जाने से बग़ावत और बद गुमानी के जज़बात उभर निकले। इमाम हसन (अ.स.) के लश्कर का वह उन्सर जिसे पहले ही से शुबह था कि माएल ब सुलह हैं यह कहने लगा कि इमाम हसन (अ.स.) भी अपने बाप हज़रत अली (अ.स.) की तरह काफ़िर हो गये हैं। बिल आखि़र फ़ौजी आपके ख़ैमे पर टूट पड़े आपका कुल असबाब लूट लिया। आपके नीचे से मुसल्ला तक खींच लिया। दोशे मुबारक पर से रिदा भी उतार ली और बाज़ नुमाया क़िस्म के अफ़राद ने इमाम हसन (अ.स.) को माविया के हवाले कर देने का प्लान तय्यार किया। आखि़र कार आप इन बद बख़्तों से मदाएन के गर्वनर साअद या सईद की तरफ़ रवाना हो गये। रास्ते में एक ख़वारजी ने जिसका नाम बा रवायतुल अख़बारूल तवाल पृष्ठ 393 , जराह बिने क़ैसा था , आपकी रान पर कमी गाह से एक ऐसा ख़न्जर लगाया जिसने हड्डी तक महफ़ूज़ न रहने दी। आपने मदाएन में मुक़ीम रह कर इलाज कराया और अच्छे हो गये। तारीख़े कामिल जिल्द 3 , पृष्ठ 161 , तारीख़े आइम्मा पृष्ठ 333 , फ़तेहुलबारी।

माविया ने मौक़ा ग़नीमत जान कर 20,000 (बीस हज़ार) का लश्कर अब्दुल्लाह इब्ने अमिर की क़यादत व मातहती में मदाएन भेज दिया। इमाम हसन (अ.स.) उससे लड़ने के लिये निकलने ही वाले थे कि उसने आम शोहरत कर दी कि माविया बहुत बड़ा लश्कर ले कर आ रहा है। मैं इमाम हसन (अ.स.) और उनके लश्कर से दरख़्वास्त करता हूं कि मुफ़त में जान न दें और सुलह कर लें। इस दावते सुलह और पैग़ामे ख़ौफ़ से लोगों के दिल बैठ गये , हिम्मते पस्त हो गईं और इमाम हसन (अ.स.) की फ़ौज भागने के लिये रास्ता ढूंढने लगी।

सुलह

मुवर्रिख़ , मआसिर अल्लामा अली नक़ी लिखते हैं कि अमीरे शाम को हज़रते इमाम हसन (अ.स.) की फ़ौज की हालत और लोगों की बेवफ़ाई का हाल मालूम हो चुका था इस लिये वह समझते थे कि इमाम हसन (अ.स.) के लिये जंग मुम्किन नहीं है मगर इसके साथ यह भी यक़ीन रखते थे कि हज़रत इमाम हसन (अ.स.) कितने ही बेबस और बेकस हों मगर अली (अ.स.) व फ़ात्मा (स अ व व ) के बेटे और पैग़म्बरे इस्लाम के नवासे हैं इस लिये वह ऐसे शराएत पर हरगिज़ सुलह न करेंगे जो हक़ परस्ती के खि़लाफ़ हों और जिनसे बातिल की हिमायत होती हो। इसको नज़र में रखते हुए उन्होंने एक तरफ़ तो आपके साथियों अब्दुल्लाह इब्ने आमिर के ज़रिये पैग़ाम दिलवाया कि अपनी जान के पीछे न पड़ो और ख़ूंरेज़ी न होनें दों इस सिलसिले में कुछ लोगों को रिशवतें भी दी गई और कुछ बुज़दिलों को अपनी तादाद की ज़्यादती से ख़ौफ़ ज़दा किया गया और दूसरी तरफ़ हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) के पास पैग़ाम भेजा कि आप जिन शराएत पर कहें उन्हीं शराएत पर सुलह के लिये तय्यार हूं।

इमाम हसन (अ.स.) यक़ीनन अपने साथियों की ग़द्दारी देखते हुए जंग करना मुनासिब न समझते थे लेकिन इसी के साथ साथ यह ज़रूर पेशे नज़र था कि ऐसी सूरत पैदा हो कि बातिल की तक़वियत का धब्बा मेरे दामन पर न आने पाये। इस ज़माने को हुकूमत व इक़तेदार की हवस तो कभी थी ही नहीं उन्हें तो मतलब इससे था कि मख़लूक़े ख़ुदा की बेहतरी हो और हुदूदे इलाही का इजरा हो। अब अमीरे माविया ने जो आप से मुंह मांगे शरायत पर सुलह करने के लिये आमदगी ज़ाहिर की तो अब मुसालेहत से इन्कार करना शख़्सी इक़तेदार की ख़्वाहिश के अलावा और कुछ नहीं क़रार पा सकता था और यह की अमीरे शाम सुलह की शरायत पर अमल न करेंगे। बात की बात थी जब तक सुलह न होती यह अंजाम सामने कहां से आ सकता था और हुज्जतें तमाम क्यों कर हो सकती थीं फिर भी आख़री जवाब देने से क़ब्ल आपने साथ वालों को जमा कर लिया और तक़रीर फ़रमाई।

आगाह रहो कि तुम में वह खूं रेज़ लडा़ईयां हो चुकि हैं जिनमें बहुत लोग क़त्ल हुए कुछ मक़तूल सिफ़्फ़ीन में हुए जिनके लिये आज तक रो रहे हो और कुछ मक़तूल नहरवान के जिनका मुआवेज़ा तलब कर रहे हो। अब अगर तुम मौत पर राज़ी हो तो हम इस पैग़ामे सुलह को क़बूल न करें और उनसे अल्लाह के भरोसे पर तलवारों से फ़ैसला करें और अगर ज़िन्दगी को अज़ीज़ रखते हो तो हम उसको क़बूल कर लें और तुम्हारी मरज़ी पर अमल करें। जवाम मे लोगों ने हर तरफ़ से पुकारना शुरू किया कि हम ज़िन्दगी चाहते हैं। आप सुलह कर लिजिये। इसी का नतीजा था कि आपने सुलह के शरायत मुरत्तब कर के मआद के पास रवाना किये।(तरजुमा इब्ने ख़ल्दून)

शराएते सुलह

इस सुलह नामे के शराएत हसबे ज़ैल थे

1. यह कि माविया हुकूमते इस्लाम में , किताबे ख़ुदा और सुन्नते रसूल (स अ व व ) पर अमल करेगे।

2. यह कि माविया को अपने बाद किसी को ख़लीफ़ा नामजद करने का हक़ न होगा।

3. यह कि शाम व ईराक़ व हिजाज़ व यमन सब जगह के लोगों के लिये अमान होगी।

4. यह कि हज़रत अली (अ.स.) के असहाब और शिया जहां भी हैं उनके जान व माल और नामूस और औलाद महफ़ूज़ रहेंगे।

5. यह कि माविया हसन इब्ने अली (अ.स.) और उनके भाई हुसैन इब्ने अली (अ.स.) ख़ानदाने रसूल (स अ व व ) में से किसी को भी कोई नुक़सान या हलाक करने की कोशिश न करेगे और न ख़ुफ़िया तौर पर और न ऐलानियां और उनमें से किसी को किसी जगह धमकाया और डराया न जायेगा।

6. यह कि जनाबे अमीरल मोमेनीन (अ.स.) की शान में कलमाते नाज़ेबा जो अब तक मस्जिदे जामा और कु़नूते नमाज़ में इस्तेमाल होते रहे हैं वह तर्क कर दिये जायें आखि़री शर्त की मंज़ूरी में माविया को उज़्र हुआ तो यह तय पाया कि कम अज़ कम जिस मौक़े पर इमाम हसन (अ.स.) मौजूद हों , उस जगह ऐसा न किया जाये। यह मुआहेदा रबीउल अव्वल या जमादिउल अव्वल 41 हिजरी को अमल में आया।

सुलह नामे पर दस्तख़त

25 रबीउल अव्वल को कूफ़े के क़रीब मुक़ामे अम्बारे में फ़रीक़ैन का इज्तेमा हुआ और सुलह नामे पर दोनों के दस्तख़त हुए और गवाहियां सब्त हुईं।(निहायतुल अरब फ़ी मारेफ़तुन निसाब अल अरब पृष्ठ 80 ) इसके बाद माविया ने अपने लिये आम बैयत का ऐलान कर दिया और साल का नाम सुन्नतुल जमाअत रखा फिर इमाम हसन (अ.स.) को ख़ुतबा देने पर मजबूर किया। आप मिम्बर पर तशरीफ़ ले गये और इरशाद फ़रमाया , ‘‘ ऐ लोगों ख़ुदाए तआला ने हम में से अव्वल के ज़रिए से तुम्हारी हिदायत की और आखि़र के ज़रिये से तुम्हें खूं रेज़ी से बचाया। माविया ने इस अम्र में मुझसे झगड़ा किया जिसका मैं इस से ज़्यादा मुस्तहक़ हूं लेकिन मैंने लोगों की खूं रेज़ी की निसबत इस अम्र का तर्क कर देना बेहतर समझा। तुम रंज व मलाल न करों कि मैंने हुकूमत इसके न अहद को दे दी , और उसके हक़ को जाय नाहक़ पर रखा मेरी नियत इस मामले में सिर्फ़ उम्मत की भलाई है। यहां तक फ़रमाने पाय थे कि माविया ने कहा बस ऐ हज़रत ज़्यादा फ़रमाने की ज़रूरत नहीं है।(तारीख़े ख़मीस जिल्द 2 पृष्ठ 325 )

तकमीले सुलह के बाद इमाम हसन (अ.स.) ने सब्र व इस्तेक़लाल व नफ़्स की बलन्दी के साथ उन तमाम नाख़ुशगवार हालात के बरदाश्त किया और मोहायदे पर सख़्ती से क़ायम रहे , मगर इधर यह हुआ कि अमीरे शाम ने जंग के ख़त्म होते ही और सियासी इक़तेदार के मज़बूत होते ही ईराक़ में दाखि़ल हो कर नख़ीले में जिसे कूफ़े की सरहद समझना चाहिये क़याम किया और जुमे के ख़ुत्बे के बाद ऐलान किया कि मेरा मक़सद जंग से यह न था कि तुम लोग नमाज़ पढ़ने लगो , रोज़े रखने लगो , हज करो या ज़कात अदा करो , यह सब तुम तो करते ही हो मेरा मक़सद तो यह था कि मेरी हुकूमत तुम पर मुसल्लम हो जाय और यह मेरा मक़सद हसन (अ.स.) के उस मुहायदे के बाद पूरा हो गया और बावजूद तुम लोगो की नगवारी के मैं कामयाब हो गया। रह गये वह शरायत जो मैंने हसन (अ.स.) के साथ किये हैं वह सब मेरे पैरों के नीचे हैं। इनका पूरा करना या न करना मेरे हाथ की बात है। यह सुन कर मजमे में एक सन्नाटा छा गया , मगर अब किस में दम था कि उसके खि़लाफ़ ज़बान खोलता।

शराएते सुलह का हशर

मुवर्रेख़ीन का इत्तेफ़ाक़ है कि अमीरे माविया जो मैदाने सियासत का खिलाड़ी और मकरो जौर की सलतनक का ताजदार था इमाम हसन (अ.स.) से वादा और मुहायदा के बाद ही सब से मुकर गया। ‘‘ वलमयफ़ लहु मावीयतालयाअ महाआहद अलैह ’’ तारीखे कामिल इब्ने असीर जिल्द 3 पृष्ठ 162 में है कि माविया ने किसी एक चीज़ की भी परवाह न की और किसी पर अमल न किया। इमाम अबुल हसन अली बिन मोहम्मद लिखते हैं कि जब माविया के लिये अमरे सलतनत उसतवार हो गया तो इस ने अपने हाकिमों को जो मुख़तलिफ़ शहरों और इलाकों़ में थे , यह फ़रमान भेजा कि अगर कोई शख़्स अबु तुराब और उसके अहले बैत की फ़ज़ीलत की रवायत करेगा तो मै उससे बरीउजि़्ज़म्मा हूं। जब यह ख़बर तमाम मुल्कों में फैल गई और लोगों को माविया का मंशा मालूम हो गया तो तमाम ख़तीबों ने मिम्बर पर से सब्बो शितम और मनक़सते अमीरल मोमेनीन पर ख़ुत्बा देना शुरू कर दिया। कूफ़े में ज़्याद इब्ने अबीहा जो कई बरस तक हज़रत अली (अ.स.) के अहद में उनके अलम में रह चुका था वह शीआने अली को अच्छी तरह से जानता था। मर्द , औरतों , जवानों और बूढ़ों से अच्छी तरह आगाह था इसे हर एक रहाईश और कोनों और गोशों में बसने वालों का पता था। इसे कूफ़े और बसरे दोनों का गर्वनर बना दिया गया था। इसके ज़ुल्म की हालत यह थी कि शियाने अली को क़त्ल करता और बाज़ों की आंखों को फोड़ देता और बाज़ों के हाथ पांव कटवा देता था। इस ज़ुल्में अज़ीम से सैकड़ों तबाह हो गये। हज़ारों जंगलों और पहाड़ों में जा छुपे। बसरे में आठ हज़ार आदमियों का क़त्ल वाक़े हुआ जिनमें बैयालिस हाफ़िज़ और क़ारीये क़ुरआन थे। इन पर मोहब्बते अली का जुर्म आयद किया गया था। हुक्म यह था कि अली (अ.स.) के बजाय उस्मान के फ़ज़ाएल बयान किये जायें और अली (अ.स.) के फ़ज़ाएल के मुताअल्लिक़ यह फ़रमान था कि एक फ़ज़ीलत के एवज़ दस दस मुनक़सत व मज़म्मत तसनीफ़ की जाए यह सब कुछ अमीरल मोमेनीन (अ.स.) से बदला लेने और यज़ीद के लिये ज़मीने खि़लाफ़त हमवार करने की ख़ातिर था।

कूफ़े से इमाम हसन (अ.स.) की मदीने को रवानगी सुलह के मराहिल तय होने के बाद इमामे हसन (अ.स.) अपने भाई इमाम हुसैन (अ.स.) और अब्दुल्लाह इब्ने जाफ़र और अपने अतफ़ाल व अयाल को ले कर मदीने की तरफ़ रवाना हो गये। तारीख़े इस्लाम मिस्टर ज़ाकिर हुसैन की जिल्द 1 पृष्ठ 34 में है कि जब आप कूफ़े से मदीना के लिये रवाना हुए तो माविया ने रास्ते में एक पैग़ाम भेजा और वह यह था कि आप ख़्वारिज से जंग करने के लिये तय्यार हो जायें क्यों कि उन्होंने मेरी बैयत होते ही फिर सर निकाला है। इमाम हसन (अ.स.) ने जवाब दिया कि अगर खूंरेज़ी मक़सूद होती तो मैं तुझ से क्यों सुलह करता। जस्टिस अमीर अली अपनी तारीख़े इस्लाम में लिखते हैं कि ख़्वारिज हज़रत अबू बक्र और हज़रत उमर को मानते और हज़रत अली (अ.स.) और उस्मान ग़नी को नहीं तसलीम करते थे और बनी उमय्या को मुरतिद कहते थे।

सुलह हसन (अ.स.) और उसकी वजह व असबाब

उस्ताज़ुल आलाम हज़रत अल्लामा सय्यद अदील अख़्तर आलल्लाहो मक़ामा(साबिक़ प्रिन्सपल मदरसातुल वाएज़ीन लखनऊ) अपनी किताबे तसकीन अल फ़तन फ़ी सुलह अल हसन के पृष्ठ 158 में तहरीर फ़रमाते हैं

इमामे हसन (अ.स.) की पालीसी बिल्कुल जैसा कि बार बार लिखा जा चुका है कुल अहले बैत की पालीसी एक और सिर्फ़ एक थी।(विरासत अल बैब पृष्ठ 249 ) वह यह कि हुक्मे खुदा और हुक्मे रसूल (स अ व व ) की पाबन्दी उन्हीं के एहकाम का इजरा चाहिए हैं। इस मतलब के लिये जो बरदाश्त करना पडे़ , मज़कूरा बाला हालात में इमाम हसन (अ.स.) के लिये सिवाए सुलह क्या चारा हो सकता था। इसको ख़ुद साहेबाने अक़ल समझ सकते हैं। किसी इस्तेदलाल की चन्दा ज़रूरत नहीं है। यहां पर अल्लामा इब्ने असीर की यह इबारत (जिसका तरजुमा दर्ज किया जाता है) का़बिले गौ़र है।

कहा गया है कि इमाम हसन (अ.स.) ने हुकूमत माविया को इस लिये सुर्पुद की जब माविया ने खि़लाफ़त हवाले करने के मुताअल्लिक़ आपको ख़त लिखा उस वक़्त आपने ख़ुत्बा पढ़ा और खुदा की हम्दो सना के बाद फ़रमाया कि देखो हम को शाम वालों से इस लिये नहीं दबना पड़ रहा है कि अपनी हक़ीक़त में कोई शक या निदामत है। बात तो फ़क़त यह है कि हम अहले शाम से सलामत और सब्र के साथ लड़ रहे थे , मगर अब सलामत में अदावत और सब्र मे फ़रियाद मख़्लूत कर दी गई है। जब तुम लोग सिफ़्फ़ीन को जा रहे थे उस वक़्त तुम्हारा दीन तुम्हारी दुनिया पर मुक़द्दम था लेकिन अब तुम एक से हो गये हो कि आज तुम्हारी दुनिया तुम्हारे दीन पर मुक़द्दम हो गई है। इस वक़्त तुम्हारे दोनों तरफ़ दो क़िस्म के मक़तूल हैं। एक सिफ़्फ़ीन के मक़तूल जिन पर रो रहे हो दूसरे नहरवान के मक़तूल जिनके ख़ून का बदला चा रहे हो। खुलासा यह कि जो बाक़ी है वह साथ छोड़ने वााला है और जो रो रहा है वह बदला लेना ही चाहता है। ख़ूब समझ लो कि माविया ने हम को जिस अम्र की दावत दी है न इसमें इज़्ज़त है और न इन्साफ़ लेहाज़ा अगर तुम लोग मौत पर आमादा हो तो हम इसकी दावत रद कर दें और हमारा इसका फ़ैसला खुदा के नज़दीक़ भी तलवार की बाढ़ से हो जाये और अगर तुम ज़िन्दगी चाहते हो तो जो इसने लिखा है मान लिया जाय और जो तुम्हारी मरज़ी है वैसा हो जाय। यह सुनना था कि हर तरफ़ से लोंगो ने चिल्लाना शुरू कर दिया , बक़ा लक़ा , सुलह सुलह। ’’(तारीख़े कामिल जिल्द 3 पृष्ठ 162 )

कारेईन इंसाफ़ फ़रमाइये कि क्या अब भी इमाम हसन (अ.स.) के लिये यह राय है कि सुलह न करे। इन फ़ौजियों के बल बूते पर (अगर ऐसों को फ़ौज और उनकी क़ुव्वतों को बल बूता कहा जा सके) लड़ाई ज़ेबा है हर गिज़ नहीं। ऐसे हालात में सिर्फ़ यही चारा था कि सुलह कर के अपनी और इन तमाम लोगों की ज़िन्दगी को महफ़ूज़ रखें जो दीने रसूल (स अ व व ) का नाम लेवा और हक़ीक़ी पैरो औ पाबन्द थे। इसके अलावा पैग़म्बरे इस्लाम (स अ व व ) की पेशीन गोई भी सुलह की राह में मशाल का काम कर रही थी।(बुखा़री) अल्लामा मोहम्मद बाक़र लिखते हैं कि हज़रत को अगरचे माविया की वफ़ाए सुलह पर एतेमाद नहीं था लेकिन आपने हालात के पेशे नज़र चारो नाचार दावते सुलह मंज़ूर कर ली।(अद्दमतुस् साकेबा)

सुलह हसन (अ.स.) और जंगे हुसैन (अ.स.)

सुलह और जंग दो मुतज़ात मुताबइन लफ़्ज़ हैं। सुलह का लफ़ज़ कलामे अरब में उस वक़्त इस्तेमाल होता है जब फ़साद बाक़ी न रहे और मुसालेह उस क़रारदाद को कहते हैं जिससे नज़ा दूर हो जाय और साहेबाने सियासत के नज़दीक़ सुलह उसको कहते हैं जिसके बाद कुछ शराएत पर लड़ाई रोक दी जाय।(सवानेह इमाम हसन पृष्ठ 99 बा हवालाए मोअज्जिम अल तालिब पृष्ठ 555 ) और जंग उसे कहते हैं जिसके दामन में सुलह का इम्कान न हो। सुलह इम्काने जंग मफ़्कूद होने पर और जंग इमकाने सुलह के फ़क़दान पर होती है और इस इम्कान और अदम इमकान नीज़ मौक़े के समझने का हक़ साहबे मामेला को होता है। यही वजह है कि आं हज़रत (स अ व व ) ने मौक़े सुलह पर सुलह हुदैबिया किया और मौक़ाए जंग पर बेशुमार जेहाद किये और हज़रत अली (अ.स.) ने मौक़ाए सुलह में ख़ामोशी और गोशा नशीनी इख़्तेयार की और मौक़ाए जंग में जमल और सिफ़्फ़ीन का कारनामा पेश किया।

इमाम हसन (अ.स.) के लिये जंग मुम्किन न थी इस लिये उन्होंने सुलह की और इमाम हुसैन (अ.स.) के लिये सुलह मुम्किन न थी इस लिये उन्हेांने जंग की और अज़ रूए हदीस अपने मक़ाम पर दोनों अमल सहीह और मम्दूह हुये।اماما قام او قعودا यह दोनों इमाम हसन (अ.स.) और इमाम हुसैन (अ.स.) हर हाल में वाजिब अल इताअत हैं चाहे जंग करें या सुलह।(बेहार) यानी दोनों के हालात और सवालात में फ़र्क़ था। इमाम हसन (अ.स.) के पास उस वक़्त बिल्कुल मुईन व मददगार न थे। जब माविया ने ख़लऐ खि़लाफ़त का सवाल किया था नीज़ माविया का सवाल यह था कि खि़लाफ़त छोड़ दो या अपनी और अपने मानने वालों की तबाही व बरबादी बरदाश्त करो। इमाम हसन (अ.स.) ने हालात की रौशनी में खि़ल खि़लाफ़त को मुनासिब समझा और सुलह कर ली। आप इरशाद फ़रमाते थे ‘‘ फ़क़द तराकतोहू लम इरादतन ले इसलाहल उम्मता व हक़ देमाअल मुसलेमीन ’’ मैंने खि़लाफ़त जान बूझ कर इस लिये तर्क कर दी ताकि इस्लाह व सुकून हो सके और ख़ून न बहे।(कामिल व बेहार)

इमाम हुसैन (अ.स.) के पास बेहतरीन जां निसार जां बाज़ मौजूद थे और यज़ीद का सवाल यह था कि बैअत करो या सर दो।(तबरी रौज़तुल सफ़ा) इमाम हुसैन (अ.स.) ने हालात की रौशनी में सर देने को मुनासिब समझा और बैअत से इन्कार कर के जंग के लिये तैय्यार हो गये।

यक़ीन करना चाहिये कि अगर इमाम हसन (अ.स.) से भी बैअत का सवाल होता तो वह भी वहीं कुछ करते जो इमाम हुसैन (अ.स.) ने किया है। आपके मददगार होते या न होते , क्यों कि आले मोहम्मद (अ.स.) किसी ग़ैर की बैयत हरामे मुतलक़ समझते थे। अल्लामा जलाल हुसैनी मिसरी ने ‘‘अल हुसैन ’’ में बा हवालाए वाक़ेए हिर्रा लिखा है कि वाक़ेए करबला के बाद किसी हुकूमत ने आले मोहम्मद के किसी अहद में बैअत का सवाल नहीं किया।

बा हुक्मे हक़ कहीं सुलह कर लेते हैं दुश्मन से।

कहीं पर जंगे ख़ामोशी जवाबे संग होती है।।

जम़ाना यह सबक़ ले फ़ात्मा के दिल के टुकड़ों से।

कहां पर सुलह होती है कहां पर जंग होती है।।

इमाम हसन (अ.स.) पर कसरते अज़वाज का इल्ज़ाम

यह एक मुसल्लेमा हक़ीक़त है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स अ व व ) की जद्दो जेहद और अमीरल मोमेनीन (अ.स.) की सई व कोशिश से इसलाम दुनिया में फैला जो लोग इब्तेदाए बेसत में मुसलमान हुये और जिन्होंने हयाते पैग़म्बर तक इस्लाम क़ुबूल किया उनके मज़हबी इन्के़लाब में हज़रत अली (अ.स.) के दस्ते बाज़ू का बड़ा दखल है। उमवी और अब्बासी नस्लों में इस्लाम की दरामद और अली (अ.स.) की जेहादी क़ुव्वत रहीने मिन्नत है। ज़रूरत थी कि इन नस्लों के चश्मों चिराग़ जब आगे चल कर फ़रोग़ पाते तो अली (अ.स.) का क़सीदा पढ़ते , क्यों कि उन्हीं के सदक़े में उन्हें सिराते मुस्तक़ीम नसीब हुई थी लेकिन यह होता उसी वक़्त जब कि बा जबरो इक़राह इस्लाम क़बूल न किया होता। यहां हाल यह था ज़बान पर अल्लाह दिल में बागड़ बिल्ला यही वजह है कि नस्लों की हर फ़र्द ने फ़रोग़ पाते ही मोहम्मद मुस्तफ़ा (स अ व व ) और उनकी आले पाक की मुख़ालेफ़त अपना शेवा बना लिया था। अमीरे माविया जो बक़ौले मुवर्रेख़ीन इस्लाम व फ़िरंग , सियाना , बदनियत गुनाहों से बे परवाह , खुदा से बे खौ़फ़ था।(महाज़राते असफ़हानी , तारीख़े अमीर अली) को नहीं इक़तेदार हासिल हुआ। उसने आले मोहम्मद (अ.स.) को तबाह करने के लिये वह तमाम मसाएल मोहय्या किये जिनके बाद बानिये इस्लाम और उनकी आल की इज़्ज़त व आबरू , जान माल का तहफ़्फ़ुज़ ना मुमकिन सा हो गया। जंगे जमल व सिफ़्फ़ीन वग़ैरा इसकी चीरा दस्तियों से रूनूमां हुई। इमाम हसन (अ.स.) की सुलह इसी की ज़्यादतियों का नतीजा थीं मुवर्रेख़ीन का बयान है कि सुलह हसन (अ.स.) के बाद माविया मुसल्लेमुल सुबूत बादशाह बन गया। फिर इसने अपनी ताक़त के ज़ोर से मोहम्मद (स अ व व ) व आले मोहम्मद (अ.स.) के खि़लाफ़ हदीसों के गढ़ने और तारीख़ का धारा मोड़ने की मुहिम शुरू कर दी और मोहम्मद (स अ व व ) व आले मोहम्मद (अ.स.) को बदनाम करने में कोई दक़ीक़ा फ़रो गुशात नहीं किया। इस मौक़े पर चन्द चीज़ों की तरफ़ इशारा करता हूँ।

1. पैग़म्बरे इस्लाम (स अ व व ) को मेराजे जिस्मानी नहीं हुई।(शरह शिफ़ा)

2. आप में जिन्सी हवस इस दर्जा थी कि शबो रोज़ अपनी ग्यारह बीवियों के पास जाते थे।(सम्त अल शमीम महिब , तबरी जिल्द 2, पृष्ठ 94 तबआ हलब)

3. आपके दिल पर अक्सर पर्दे पड़ जाया करते थे।(सही मुस्लिम व अबू दाऊद)

4. आपकी चार लड़कियां थीं।(तवारीख़े इस्लाम)

5. आप के बाप दादा काफ़िर थे और आखि़र वक़्त तक मुसलमान न हुये।

6. उस्मान ग़नी ज़ुन्नुररैन थे।

7. अबू तालिब बिल्कुल मुफ़लिस थे।

8. अली ने उस्मान को क़त्ल किया।

9. अली बहुत ज़बरदस्त डाकू थे।(मरऊजे अल ज़हब मसअवी)

10. अली व फ़ात्मा नमाज़े सुबह नहीं पढ़ते थे।(हयातुल औलिया , जिल्द 3 पृष्ठ 144 तबाअ मिस्र 1933 0 )

11. अली की बेटी उम्मे कुलसूम का अक़्द ख़लीफ़ाए दोयम से हुआ था।

12. अफ़सानए सकीना बिन्तुल हुसैन , इमाम हसन की कसरते अज़वाज और कसरते तलाक़ का अफ़साना भी ऐसी नस्ले बनी उमय्या ख़ुसूसन माविया की पैदावार है। खि़लाफ़त को छोड़ने के बवजूद वह इसके दस्ते ज़ुल्म से महफ़ूज़ नहीं रह सके। मुख़्तलिफ़ क़िस्म के इलज़ामात उन पर हज़बे आदत लगते रहे और फिर इन तमाम चीज़ों को तवारीख़ और अहादीस में जगह देने की सई करता रहा उसके बाद ज़रा सुकून हासिल करते ही किताब अल इख़्बारूल माज़ीयीन तदवीन कराई और इसमें उल्टी सीधी बातें लिखवा दीं।

उमवी अहद की तारीख़ के मुताअल्लिक़ मुसतशरक़ीने यूरोप की राय

अमेरीका का मशहूर मुवर्रिख़ फिल्पि के0 हिट्टी अपनी तसनीफ़(तारीख़े अरब) में लिखता है कि मुसलमान अरब के दो फ़िरक़ जब कभी कोई मज़हबी , सियासी या समाजी निज़ा होती थी तो हर एक फ़रीक़ अपनी ताईद में रसूल अल्लाह (स अ व व ) की हदीस पेश करता , ख़्वाह वह हदीसें सही हों या मौजूआ और झूठी , इस लिये अली (अ.स.) और अबू बक्र की सियासी मुख़ालेफ़त , अली (अ.स.) और माविया का झगड़ा , बनी अब्बास और बनी उमय्या की बाहमी अदावत वगै़रा मुताअद्िदद झूठी हदीसों के बनने के बाएस हुए। इसके अलावा उलमा की कसीर तादाद के लिये यह दौलत कमाने और रूप्या पैदा करने का ज़रिया बन गया।

प्रोफ़ेसर सिमेन किले कैम्बरेज यूनीवर्सिटी मतूफ़ी 1720 ई0 अपनी तारीख़ सारा सेनेज़ में लिखते हैः अरबो ने तारीख़ नवीसी का ग़लत तरीक़ा इख़्तेयार कर के हम को इस मसर्रत और फ़ायदे से महरूम कर दिया जो हम को इनकी लिखी हुई किताबों से हासिल हो सकता था। मुवर्रिख़ के फ़राएज़ और हुक़ूक़ क्या होते हैं उन्होंने कमा हक़्क़ा न समझा इस लिये इन फ़राएज़ और हुक़ूक़ को नज़र अन्दाज़ कर दिया। हमारे लिये इनकी लिखी हुई तारीखो का मुतालेआ करना और उनसे सही तारीख़ी वाक़ेयात का अख़़्ज़ करना बहुत मुश्किल हो गया।

यह इन तारीख़ी किताबो की बे एतेमादी और उनकी कोताहियों का आलम है जिनमें इमाम हसन (अ.स.) जैसे मुरताज़ इमाम की कसरते अज़वाज का अफ़साना मुरत्तब किया गया है।

जब हम कसरते अज़वाज और कसरते तलाक़ के अफ़साने पर ग़ौर करते हैं तो हमें साफ़ नज़र आता है कि ऐसा वाक़िया हरगिज़ नहीं हुआ क्यों कि अगर ऐसा होता तो इनत माम औरतों के नाम इल्मे रिजाल की तारीख़ की किताबों में ज़रूर होते। हमें कुतुबे रिजाल में जो नाम मिलते हैं उनकी इन्तेहा सिर्फ़ 9 तक होती है। यह हक़ीक़त है कि आपने वक़तन फ़ावक़तन इसी तरह नौ 9 बीवियां अपने अक़्द में रखीं। जिस तरह से रसूल अल्लाह (स अ व व ) की नौ 9 बीवियां थी। आपकी बीवियों के नाम यह हैं। 1. उम्मे फ़रवा , 2. खूला , 3. उम्मे बशीर , 4. सक़फ़िया , 5. रम्ला , 6. उम्मे इसहाक़ , 7. उम्मुल हसन , 8. बिन्ते उमराउल क़ैस , 9. जोदा बिन्ते अशअस।(सीरतुल हसन , अबसारूल ऐन)

एडर्वड गिबन मशहूर मारूफ़ तारीख़ तन्ज़ील व इनके़ताए सलतनते रोम में लिखते हैं।

यह हज़रात आले मोहम्मद (अ.स.) हालाते हर्ब , मालो ज़र सियासी न रखते थे , इस पर लोग इसकी इज़्ज़त , वक़अत और ताज़ीम करते थे। जो चीज़ हुक्मरान ख़ुलफ़ा के दिलों मे रश्क व हसद की आग भड़काती थी , इनके मज़ाराते मुक़द्देसा जो मदीने , फ़रात के किनारे और ख़ुरासान में मौजूद हैं। अब तक इन के शियों की ज़्यारत गाह हैं। इन बुज़ुर्गवारों पर हमेशा बग़ावत और ख़ाना जंगियों का इल्ज़ाम लगाया जाता था , हालां कि यह शाही ख़ानदान के औलिया अल्लाह , दुनिया को हमेशा हक़ीर समझते थे। मशियते इजे़दी के मुताबिक़ सरे तसलीम ख़म करते हुये और इन्सानों के मज़ालिम बरदाश्त करते हुये उन्होंने उमूरे दीनी तालीम व तलक़ीन में अपनी उमरें सर्फ़ कर दीं। यह समझने की बात है कि जो हज़रात दुनिया को हक़ीर समझते हों उनकी तरफ़ कसरते अज़वाज और कसरते तलाक़ का इन्तेसाब अफ़साने से ज़्यादा क्या वुक़अत हासिल कर सकता है।

हज़रत इमाम हसन (अ.स.) की शहादत

मुवर्रेखी़न का इत्तेफ़ाक़ है कि इमाम हसन (अ.स.) अगर सुलह के बाद मदीने में गोशा नशीन हुए थे लेकिन अमीरे माविया आपके दर पाए आज़ार रहे। उन्होंने बार बार कोशिश की किसी तरह इमाम हसन (अ.स.) इस दारे फ़ानी से मुल्के जावेदानी को रवाना हो जायें और इससे इनका मक़सद यज़ीद की खि़लाफ़त के लिये ज़मीन हमवार करना थी। चुनान्चे उसने आपको पांच बार ज़हर दिलवाया लेकिन अय्यामे हयात बाक़ी थे ज़िन्दगी ख़त्म न हो सकी। बिल आखि़र शाहे रोम से एक ज़बरदस्त क़िस्म का ज़हर मगंवा कर मोहम्मद इब्ने अशअस या मरवान के ज़रिये से जोदा बिन्ते अशअस के पास अमीरे माविया ने भेजा और कहला दिया कि जब इमाम हसन शहीद हो जायेंगे तब हम तुझे एक लाख दिरहम देंगे और तेरा अक़्द अपने बेटे यज़ीद के साथ कर देंगे। चुनान्चे इसने इमाम हसन (अ.स.) को ज़हर दे कर हलाक कर दिया।(तारीख़े मरऊजुल ज़हब मसूदी जिल्द 2 पृष्ठ 303 व मक़ातिल अल तालेबैन पृष्ठ 51, अबू अल फ़िदा जिल्द 1 पृष्ठ 183, रौज़तुल पृष्ठ जिल्द 3 पृष्ठ 7, हबीबुल सैर , जिल्द 2 पृष्ठ 18, तबरी पृष्ठ 604, इस्तेयाब जिल्द 1 पृष्ठ 144 )

मफ़स्सिरे क़ुरान साहिबे तफ़सीरे हुसैनी अल्लामा हुसैन वाएज़ काशफ़ी रक़म तराज़ हैं कि इमाम हसन (अ.स.) मुसालेह माविया के बाद मदीने में मुस्तक़िल तौर पर फ़रोकश हो गये थे। आपको इत्तेला मिली की बसरे में रहने वाले मुहिब्बाने अली (अ.स.) के ऊपर चन्द ऊबाशों ने शब ख़ूं मार कर इनके 38 आदमी हलाक कर दिये। इमाम हसन (अ.स.) इस ख़बर से मुतास्सिर हो कर बसरे की तरफ़ रवाना हो गये। आपके हमराह अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास भी थे। रास्ते में बा मुक़ामे मूसली साअद मूसली जो जनाबे मुख़्तार इब्ने अबी उबैदा सक़फ़ी के चचा थे वहां क़याम फ़रमाया। इसके बाद वहां से रवाना हो कर वह दमिश्क से वापसी पर जब आप मूसल पहुंचे तो बइसरारे शदीद एक दूसरे शख़्स के वहां मुक़ीम हुए और वह शाख़्स माविया के फ़रेब में आ चुका था और माल व दौलत की वजह से इमाम हसन (अ.स.) को ज़हर देने का वायदा कर चुका था। चुनान्चे दौराने क़याम में उसने तीन बार हज़रत को खाने में ज़हर दिया लेकिन आप बच गये। इमाम के महफ़ूज़ रह जाने से इस शख़्स ने माविया को ख़त लिखा कि तीन बार ज़हर दे चुका हूं मगर इमाम हसन हलाक नहीं हुए। यह मालूम कर के माविया ने ज़हरे हलाहल इरसाल किया और लिखा कि अगर इसका एक क़तरा भी दे सका तो यक़ीनन इमाम हसन हलाक हो जायेंगे। नामाबर ज़हर और ख़त लिये हुए आ रहा था कि रास्ते में एक दरख़्त के नीचे खाना खा कर लेट गया इसके पेट में ऐसा दर्द उठा कि वह बरदाश्त न कर सका नागाह एक भेड़िया बरामद हुआ और उसे ले कर रफ़ू चक्कर हो गया। इत्तेफ़ाक़न इमाम हसन (अ.स.) के एक मानने वाले का उस तरफ़ से गुज़र हुआ। उसने नाक़ा ख़त और ज़हर से भरी हुई बोतल हासिल कर ली और इमाम हसन (अ.स.) की खि़दमत में पेश किया। इमाम हसन (अ.स.) ने उसे मुलाहेज़ा फ़रमा कर जा नमाज़ के नीचे रख लिया। हाज़ेरीन ने वाक़ेया दरयाफ़्त किया। इमाम ने बताया। साअद मोसली ने मौक़ा पर वह ख़त जा नमाज़ के नीचे से निकाल लिया जो माविया की तरफ़ से इमाम के मेज़बान के नाम से भेजा गया था। ख़त पढ़ कर साद मोसली आग बबूला हो गया और मेज़बान से पूछा क्या मामेला है ? उसने ला इल्मी ज़ाहिर की मगर उसके उज़्र को बावर न किया गया उसको ज़दो क़ोब किया गया यहा तक कि वह हलाक हो गया। उसके बाद आप मदीने रवाना हो गये।

मदीने में उस वक़्त मरवान बिन हकम वाली था उसे माविया का हुक्म था कि जिस सूरत से हो सके इमाम हसन (अ.स.) को हलाक कर दे। मरवान ने एक रूमी दल्लाला जिस का नाम अल्यसूनिया था , को तलब किया और उससे कहा कि तू जोदा बिन्ते अशअस के पास जा कर उसे मेरा यह पैग़ाम पहुँचा दे कि अगर तू इमाम हसन (अ.स.) को किसी सूरत से शहीद कर देगी तो तुझे माविया एक हज़ार दीनारे सुख्र और पचास खि़ल्अते मिस्री अता करेगा और अपने बेटे यज़ीद के साथ तेरा अक़्द कर देगा और उसके साथ साथ सौ दीनार नक़द भेज दिये। दल्लाला ने वायदा किया और जोदा के पास जा कर उस से वायदा ले लिया। इमाम हसन (अ.स.) उस वक़्त घर में न थे और बमुक़ामे अक़ीक़ गये हुए थे इस लिये दल्लाला को बात चीत का अच्छा ख़ासा मौक़ा मिल गया और जोदा को राज़ी करने में कामयाब हो गयी। अल ग़रज़ मरवान ने ज़हर भेजा और जोदा ने इमाम हसन (अ.स.) को शहद में मिला कर दे दिया। इमाम (अ.स.) उसे खाते ही बीमार हो गये और फ़ौरन रोज़ाए रसूल (स अ व व ) पर जा कर सेहत याब हुए। ज़हर तो आपने खा लिया लेकिन जोदा से बदगुमान भी हो गये। आपको शुब्हा हो गया जिसकी वजह से आपने उसके हाथ का खाना पीना भी छोड़ दिया और यह मामूल मुक़र्रर कर लिया कि हज़रते क़ासिम की मां या हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) के घर से खाना मंगवा कर खाने लगे। थोड़े अरसे बाद आप जोदा के घर तशरीफ़ ले गये उसने कहा मौला हवाली मदीना से बहुत उम्दा ख़ुरमें आये हैं हुक्म हो तो हाज़िर करूं आप चुंकि ख़ुरमे बहुत पसन्द करते थे। फ़रमाया ले आ। वह खुरमें जह़र आलूद ख़ुरमें ले कर आई और पहचाने हुए खुरमें छोड़ कर खुद साथ खाने लगी। इमाम ने एक तरफ़ से खाना शुरू किया और वह दाने खा गये जिनमे ज़हर था। उसके बाद इमाम हुसैन (अ.स.) के घर तशरीफ़ लाये और सारी रात तड़प कर बसर की। सुबह को रौज़ा ए रसूल (स अ व व ) पर जा कर दुआ मांगी और सेहतयाब हुए। इमाम हसन (अ.स.) ने बार बार इस क़िस्म की तकलीफ़ उठाने के बाद अपने भाइयों से तबदीलीए आबो हवा के लिये मूसल जाने का मशविरा किया और मूसल के लिये रवाना हो गये। आपके हमराह हज़रत अब्बास (अ.स.) और चन्द हवा ख़्वाहान भी गये। अभी वहां चन्द यौम न गुज़रे थे कि शाम से एक नाबीना भेज दिया गया और उसे एक ऐसा असा दिया गया जिसके नीचे लौहा लगा हुआ था जो ज़हर में बुझा हुआ था। उस नाबीना ने मूसल पहुँच कर इमाम हसन (अ.स.) के दोस्तदारान में से अपने को ज़ाहिर किया और मौक़ा पा कर उनके पैर में अपने असा की नोक चुभो दी। ज़हर जिस्म मे दौड़ गया और आप अलील हो गये। जर्राह इलाज के लिये बुलाया गया , उसने इलाज शुरू किया। नाबीना ज़ख़्म लगा कर रू पोश हो गया था। चौदह दिन के बाद जब पन्द्रहवे दिन वह निकल कर शाम की तरफ़ रवाना हुआ तो हज़रते अब्बास अलमदार (अ.स.) की नज़र उस पर जा पड़ी। आपने उससे असा छीन कर उस के सर पर इस ज़ोर से मारा कि सर शिग़ाफ़ता हो गया और वह अपने कैफ़रो किरदार को पहुँच गया। उसके बाद जनाबे मुख़्तार और उनके चचा साद मोसली ने उसकी लाश जला दी। चन्द दिनों बाद हज़रत इमाम हसन (अ.स.) मदीनाए मुनव्वरा वापस तशरीफ़ ले गये।

मदीनाए मुनव्वरा में आप अय्यामें हयात गुज़ार रहे थे कि अल सोनिया दल्लाला ने फिर मरवान के इशारे पर जोदा से सिलसिला जुम्बानी शुरू कर दी और ज़हरे हलाहल उसे दे कर इमाम हसन (अ.स.) का काम तमाम करने की ख़्वाहिश की। इमाम हसन (अ.स.) चूंकि उससे बदगुमान हो चुके थे इस लिये उसकी आमदो रफ़्त बन्द थी। उसने हर चन्द कोशिश की लेकिन मौक़ा न पा सकी। बिल आखि़र शबे 28 सफ़र 40 ई0 को वह उस जगह जा पहुँची जिस मक़ाम पर इमाम हसन (अ.स.) सो रहे थे। आपके क़रीब हज़रत ज़ैनब व उम्मे कुलसूम सो रही थीं और आपकी पाइंती कनीज़े महवे ख़्वाब थीं। जोदा उस पानी में ज़हरे हलाहल मिला कर ख़ामोशी से वापस आईं जो इमाम हसन (अ.स.) के सराहने रखा हुआ था। उसकी वापसी के थोड़ी देर बाद ही इमाम हसन (अ.स.) की आंख खुली , आपने जनाबे जै़नब को आवाज़ दी और कहा कि ऐ बहन मैंने अभी अभी अपने नाना , अपने पदरे बुज़ुर्गवार और अपनी मादरे गेरामी को ख़्वाब में देखा है। वह फ़रमाते थे कि ऐ हसन तुम कल रात हमारे पास होगे। उसके बाद आपने वज़ू के लिये पानी मांगा और ख़ुद अपना हाथ बढ़ा कर सराहने से पानी लिया और पी कर फ़रमाया कि ऐ बहन ज़ैनबایں چه آب بود از سر حلقم تا نافم پاره شد हाय यह कैसा पानी है जिसने मेरे हल्क़ से नाफ़ तक टुकड़े टुकड़े कर दिया है। उसके बाद इमाम हुसैन (अ.स.) को इत्तेला दी गई वह आये दोनों भाई बग़ल गीर हो कर महवे गिरया हो गये। उसके बाद इमाम हुसैन (अ.स.) ने चाहा कि एक कूज़ा पानी खुद पी कर इमाम हसन (अ.स.) के साथ नाना के पास पहुँचें। इमाम हसन (अ.स.) ने पानी के बरतन को ज़मीन पर पलट दिया वह चूर चूर हो गया। रावी का बयान है कि जिस ज़मीन पर पानी गिरा था वह उबलने लगी थी। अल ग़रज़ थोड़ी देर के बाद इमाम हसन (अ.स.) को ख़ून की क़ै आने लगी। आपके जिगर के सत्तर टुकड़े तख़्त में आ गये। आप ज़मीन पर तड़पने लगे। जब दिन चढ़ा तो आपने इमाम हुसैन (अ.स.) से पूछा कि मेरे चेहरे का रंग कैसा है ? कहा ‘‘ सब्ज़ ’’ है। आपने फ़रमाय कि हदीसे मेराज का यही मुक़तज़ा है। लोगों ने पूछा कि यह हदीसे मेराज क्या है ? फ़मरमाया कि शबे मेराज मेरे नाना ने आसमान पर दो क़स्र एक ज़मर्रूद को एक याक़ूत को देखा तो पूछा कि ऐ जिब्राईल यह दोनों क़स्र किस के लिये हैं ? उन्होंने अर्ज़ कि एह हसन के लिये और दूसरा हुसैन के लिये। पूछा दोनों के रंग में फ़र्क़ क्यो है ? कहा हसन ज़हर से शहीद होंगे और हुसैन तलवार से शहादत पायेंगे। यह कह कर आप हुसैन (अ.स.) से लिपट गये और दोनों भाई रोने लगे और आपके साथ दरो दीवार भी रोने लगे।

उसके बाद आपने जोदा से कहा अफ़सोस तूने बड़ी बे वफ़ाई की लेकिन याद रख तूने जिस मक़सद के लिये ऐसा किया है उसमें कामयाब न होगी। उसके बाद आपने हुसैन (अ.स.) और बहनों से कुछ वसीयतें कीं और आंखें बन्द फ़रमा ली। फिर थोड़ी देर के बाद आंख खोल कर फ़रमाया ऐ हुसैन मेरे बाल बच्चें तुम्हारे सुपुर्द हैं फिर आंख बन्द फ़रमा कर नाना की खि़दमत में पहुँच गये। इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलेहै राजेऊन

इमाम हसन (अ.स.) की शहादत के फ़ौरन बाद मरवान ने जोदा को अपने पास बुला कर दो औरतों और एक मर्द के साथ माविया के पास भेज दिया। माविया ने उसे हाथ पैर बंधवा कर दरियाए नील में यह कह कर डलवा दिया कि तूने जब इमाम हसन (अ.स.) के साथ वफ़ा न की तो यज़ीद के साथ क्या वफ़ा करेगी।(रौज़ातुल शोहदा पृष्ठ 220 ता 235 प्रकाशित बम्बई 1285 0 व ज़िकरूल अब्बास पृष्ठ 50 प्रकाशित लाहौर 1956 0 )