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वहाबियत इतिहास के दर्पण मे कैटिगिरी: इतिहासिक कथाऐ

वहाबियत इतिहास के दर्पण मे

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

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वहाबियत इतिहास के दर्पण मे

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यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

वहाबियत , वास्तविकता और इतिहास- 4

जिन विषयों के बारे में वह्हाबियों ने अत्यधिक हो हल्ला मचाया है उनमें से एक ईश्वर के प्रिय बंदों से तवस्सुल या अपने कार्यों के लिए उनके माध्यम से ईश्वर से सिफ़ारिश करवाना है। सलफ़ी , तवस्सुल को एकेश्वरवाद के विरुद्ध बताते हैं और उनका कहना है कि ऐसा करने वाला अनेकेश्वरवादी है। अलबत्ता यह भी इस कट्टरपंथी मत की वैचारिक पथभ्रष्टताओं में से एक है क्योंकि क़ुरआने मजीद की आयतों और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के कथनों का तनिक भी ज्ञान रखने वाला हर समझदार व्यक्ति जानता है कि तवस्सुल न केवल यह कि एकेश्वरवाद से विरोधाभास नहीं रखता बल्कि यह अन्नय ईश्वर से निकट होने का माध्यम है और इसी कारण मुसलमान पैग़म्बरे इस्लाम और ईश्वर के अन्य प्रिय बंदों से तवस्सुल करते हैं ताकि कृपाशील उनके महान स्थान के वास्ते से उन पर कृपा दृष्टि डाले और उनकी प्रार्थनाओं को स्वीकार करे।

हर मुसलमान जानता है कि ईश्वर अनन्य है और वही विश्व की सभी वस्तुओं का स्रोत और हर घटना का मूल आधार है। इसी प्रकार ब्रह्मांड की समस्त वस्तुएं केवल ईश्वर की इच्छा और अनुमति से ही प्रभाव स्वीकार करती हैं। क़ुरआने मजीद ने अपनी रोचक शैली में बड़े ही सुंदर ढंग से इस बात को बयान किया है। सूरए अनफ़ाल की सत्रहवीं आयत में वह पैग़म्बरे इस्लाम को संबोधित करते हुए कहता हैः याद कीजिए उस समय को जब आपने (युद्ध में) तीर चलाया , तो वस्तुतः आपने नहीं बल्कि ईश्वर ने तीर चलाया। इस आयत में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम द्वारा तीर चलाए जाने का मुख्य कारक ईश्वर को बताया गया है। अर्थात तीर पैग़म्बर ने भी चलाया और ईश्वर ने। यह आयत सभी को यह बताना चाहती है कि हर कार्य का मुख्य कारक ईश्वर है और सभी बातें व घटनाएं उसी की इच्छा से होती हैं तथा इस आयत में पैग़म्बर उस कार्य अर्थात तीर चलाने का माध्यम हैं।

उदाहरण स्वरूप मनुष्य क़लम द्वारा कोई बात लिखे तो क़लम इस बात का माध्यम होता है कि मनुष्य उसके द्वारा लिखने का काम करे। अब प्रश्न यह है कि क्या लिखने के समय मनुष्य और क़लम दोनों का रुतबा और स्थान एक ही है ? खेद के साथ कहना पड़ता है कि वह्हाबी मत के लोग तवस्सुल के संबंध में भी शेफ़ाअत की ही भांति भ्रांति व पथभ्रष्टता का शिकार हो गए हैं और माध्यम व अनन्य ईश्वर को एक ही समझ बैठे हैं। इसी आधार पर उन्होंने मुसलमानों को काफ़िर एवं अनेकेश्वरवादी बताया है जबकि तवस्सुल , पैग़म्बरों को ईश्वर का समकक्ष बताने नहीं अपित पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम जैसे पवित्र लोगों को अनन्य ईश्वर के समक्ष अपनी प्रार्थनाओं की स्वीकृति के लिए माध्यम बनाने को कहते हैं।

ईश्वर का सामिप्य , बंदगी के मार्ग में मनुष्य के लिए सबसे उच्च एवं सम्मानीय दर्जा है। क़ुरआने मजीद ने सूरए माएदा की 35वीं आयत में स्पष्ट रूप से कहा है कि माध्यम व साधन के बिना ईश्वर का सामिप्य प्राप्त नहीं किया जा सकता है। वह कहता है। हे ईमान वालो! ईश्वर (के आदेश के विरोध) से डरो और (उससे सामिप्य के लिए) साधन जुटाओ तथा उसके मार्ग में जेहाद करते रहो कि शायद तुम्हें मोक्ष प्राप्त हो जाए। इस आयत में , जिसके संबोधन के पात्र ईमान वाले हैं , मोक्ष व कल्याण के लिए तीन विशेष आदेश दिए गए हैं। ये तीन आदेश हैं , ईश्वर से भय , ईश्वर से सामिप्य के लिए साधन जुटाना और ईश्वर के मार्ग में जेहाद करना। अब प्रश्न यह है कि इस आयत में साधन से तात्पर्य क्या है ? इस आयत में साधन का अर्थ अत्यंत व्यापक है किंतु हर स्थिति में कोई वस्तु या व्यक्ति होना चाहिए जो प्रेम व उत्साह के साथ ईश्वर से सामिप्य का कारण बने। ईश्वर तथा उसके पैग़म्बर पर ईमान , जेहाद तथा नमाज़ , ज़कात , रोज़ा व हज जैसी उपासनाएं तथा दान दक्षिणा व परिजनों से मेल-जोल जैसी बातें भी ईश्वर से सामिप्य का कारण हो सकती हैं। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम , उनके उत्तराधिकारियों तथा ईश्वर के प्रिय बंदों से तवस्सुल भी इन्हीं उपासनाओं की भांति है और क़ुरआने मजीद की आयतों के अनुसार वह भी ईश्वर से सामिप्य का कारण बनता है।

क़ुरआने मजीद की कुछ आयतों में कहा गया है कि पैग़म्बर भी ईश्वर के बंदों पर कृपा करते हैं। सूरए तौबा की 59वीं आयत में कहा गया है। और यदि जो कुछ ईश्वर और उसके पैग़म्बर ने उन्हें प्रदान किया है उस पर वे प्रसन्न रहते और कहते कि ईश्वर हमारे लिए काफ़ी है , ईश्वर और उसके पैग़म्बर शीघ्र ही अपनी कृपा से हमें प्रदान करेंगे और हम ईश्वर की ओर से आशावान हैं (तो निश्चित रूप से यह उनके लिए बेहतर होता)। जब स्वयं क़ुरआन ने पैग़म्बर को प्रदान करने वाला बताया है तो फिर हम उनसे सहायता क्यों न चाहें और उनके उच्च स्थान को ईश्वर के समक्ष माध्यम क्यों न बनाएं ? यही कारण है कि दयालु व कृपालु ईश्वर सूरए निसा की 64वीं आयत में मुसलमानों को पैग़म्बरे इस्लाम से सिफ़ारिश करवाने और उन्हें माध्यम बनाने हेतु प्रोत्साहित करता है। इस आयत में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को संबोधित करते हुए कहा गया हैः और जब उन्होंने अपने आप पर अत्याचार किया और ईश्वरीय आदेश की अवज्ञा की थी तो यदि वे आपके पास आते और ईश्वर से क्षमा याचना करते और पैग़म्बर भी उन्हें क्षमा करने की सिफ़ारिश करते तो निसंदेह वे ईश्वर को बड़ा तौबा स्वीकार करने वाला और दयावान पाते।

वह्हाबी मत के लोगों ने तवस्सुल का इन्कार करने के लिए क़ुरआने मजीद की कुछ आयतों को प्रमाण में प्रस्तुत किया है। उदाहरण स्वरूप वे सूरए फ़ातिर की 14वीं आयत को प्रस्तुत करते हैं जिसमें कहा गया हैः (हे पैग़म्बर!) यदि आप उन्हें पुकारें तो वे आपकी पुकार नहीं सुनेंगे और यदि वे सुनें भी तो आपकी बात स्वीकार नहीं करेंगे और प्रलय के दिन वे आपके समकक्ष ठहराने (और उपासना) का इन्कार कर देंगे। और (जानकार ईश्वर की) भांति कोई भी आपको (तथ्यों से) सूचित नहीं करता। सूरए फ़ातिर में मूर्तियों की पूजा करने वालों को संबोधित करती हुई कई आयतें हैं और यह आयत भी उन्हें मूर्तियों की पूजा से रोकती है क्योंकि मूर्तियां न तो अपनी उपासना करने वालों की प्रार्थनाएं सुन सकती हैं और यदि सुन भी सकतीं तो उन्हें पूरा करने का उनमें सामर्थ्य नहीं है और न ही संसार में उनका तनिक भी कोई स्वामित्व है किंतु कुछ अतिवादी वह्हाबियों ने तवस्सुल व शेफ़ाअत के माध्यम से पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम तथा ईश्वर के अन्य प्रिय बंदों से मुसलमानों के संपर्क को समाप्त करने के लिए इस आयत और इसी प्रकार की अन्य आयतों का सहारा लिया है और कहा है कि ईश्वर को छोड़ कर पैग़म्बरों सहित वे सभी लोग , जिन्हें तुम पकारते हो , तुम्हारी बात नहीं सुनते हैं और यदि सुन भी लें तो उसे पूरा नहीं कर सकते। या इसी प्रकार सूरै आराफ़ की आयत क्रमांक 197 में कहा गया हैः और जिन्हें तुम ईश्वर के स्थान पर पुकारते हो वे न तो तुम्हारी सहायता कर सकते हैं और न ही अपनी रक्षा कर सकते हैं। वह्हाबी इसी प्रकार की अन्य आयतें प्रस्तुत करके पैग़म्बरों और इमामों से हर प्रकार के तवस्सुल का इन्कार कर देते हैं और इसे एकेश्वरवाद के विपरीत बताते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि इन आयतों से पहले और बाद वाली आयतों पर एक साधारण सी दृष्टि डाल कर भी इस वास्तविकता को समझा जा सकता है कि इन आयतों का तात्पर्य मूर्तियां हैं क्योंकि इन सभी आयों में उन पत्थरों और लकड़ियों की बात की गई है जिन्हें ईश्वर का समकक्ष ठहराया गया था और उन्हें ईश्वर की शक्ति के मुक़ाबले में प्रस्तुत किया गया था।

कौन है जो यह न जानता हो कि पैग़म्बर और ईश्वर के प्रिय बंदे ईश्वर के मार्ग में शहीद होने वाले उन लोगों की भांति हैं जिनके बारे में क़ुरआन स्पष्ट रूप से कहता है कि वे जीवित हैं। दूसरी ओर इस बात में भी कोई संदेह नहीं है कि इन पवित्र हस्तियों से तवस्सुल का अर्थ यह नहीं है कि हम इन्हें ईश्वर के मुक़ाबले में स्वाधीन शक्ति का स्वामी समझते हैं बल्कि लक्ष्य है कि उनके सम्मान और स्थान के माध्यम से ईश्वर से सहायता चाहें और ईश्वर की दृष्टि में उनकी जो महानता है उसके द्वारा ईश्वर से यह चाहें कि वह हमारी प्रार्थना को स्वीकार कर ले और यह बात एकेश्वरवाद और ईश्वर की बंदगी से तनिक भी विरोधाभास नहीं रखती बल्कि यही एकेश्वरवाद है। इस आधार पर जैसा कि क़ुरआने मजीद ने सूरए बक़रह की आयत क्रमांक 255 में सिफ़ारिश के संबंध में स्पष्ट रूप से कहा है कि कोई भी ईश्वर की अनुमति और आदेश के बिना सिफ़ारिश नहीं कर सकता , ठीक उसी प्रकार उनसे तवस्सुल भी इसी माध्यम से होता है और ईश्वर की अनुमति के बिना नहीं हो सकता। यही कारण है कि ईश्वर अपने पैग़म्बर के माध्यम से एक कथन में कहता है कि जान लो कि जिस किसी की कोई समस्या है और वह उसे दूर करना तथा कोई लाभ प्राप्त करना चाहता है या किसी अत्यंत जटिल व हानिकारक घटना में ग्रस्त हो गया है और चाहता है कि वह समाप्त हो जाए तो उसे चाहिए कि मुझे मुहम्मद व उनके पवित्र परिजनों के माध्यम से पुकारे ताकि मैं उसकी प्रार्थनाओं को उत्तम ढंग से स्वीकार करूं।

यही कारण है कि हम पैग़म्बरे इस्लाम के काल के वरिष्ठ मुसलमानों तथा अन्य धार्मिक नेताओं की जीवनी में देखते हैं कि वे समस्याओं के समय पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की क़ब्र पर जाते , उनसे तवस्सुल करते तथा उनकी पवित्र आत्मा के माध्यम से ईश्वर से सहायता चाहते थे। इस संबंध में बहुत सी हदीसें हैं जिन्हें शीया और सुन्नी दोनों की विश्वस्त किताबों में देखा जा सकता है। इब्ने हजरे मक्की ने अपनी किताब सवाएक़े मुहरिक़ा में प्रख्यात सुन्नी धर्मगुरू इमाम शाफ़ेई के हवाले से लिखा कि वे पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों की प्रशंसा में कविजाएं लिख कर उनसे तवस्सुल करते थे और कहते थे कि पैग़म्बर के परिजन मेरे माध्यम हैं , वे ईश्वर से सामिप्य के लिए मेरा साधन हैं , मुझे आशा है कि प्रलय के दिन उन्हीं के कारण मेरा कर्मपत्र मेरे सीधे हाथ में दिया जाएगा और मुझे मोक्ष प्राप्त होगा।

तवस्सुल की एक अन्य घटना पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की पत्नी हज़रत आएशा से संबंधित है। अबुल जोज़ा के हवाले से दारमी ने अपनी पुस्तक सहीह में लिखा कि एक वर्ष मदीना नगर में भारी अकाल पड़ा। हज़रत आएशा ने लोगों से कहा कि वे अकाल की समाप्ति के लिए पैग़म्बरे इस्लाम से तवस्सुल करें। उन्होंने ऐसा ही किया और फिर जम कर वर्ष हुई तथा अकाल समाप्त हो गया। सुन्नी मुसलमानों की सबसे विश्वस्त किताब सहीह बुख़ारी में वर्णित है कि दूसरे ख़लीफ़ा उमर ने अकाल व सूखे के समय पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के चाचा अब्बास से तवस्सुल किया और कहा कि प्रभुवर! जब भी हम अकाल में ग्रस्त होते थे तो पैग़म्बरे इस्लाम से तवस्सुल किया करते थे और वर्षा होने लगती थी अब मैं तुझे उनके चाचा अब्बास का वास्ता देता हूं ताकि तू वर्षा को भेज दे। बुख़ारी ने लिखा है कि इसके बाद वर्षा होने लगी। सुन्नियों के एक बड़े धर्मगुरू आलूसी ने क़ुरआने मजीद की व्याख्या में लिखी गई अपनी किताब में तवस्सुल के संबंध में बड़ी संख्या में हदीसों का वर्णन किया है। वे इन हदीसों की लम्बी व्याख्या और तवस्सुल से संबंधित हदीसों के बारे में कड़ा रुख़ अपनाने के बाद अंत में कहते हैं कि इन सारी बातों के बावजूद मेरी दृष्टि में ईश्वर के निकट पैग़म्बरे इस्लाम से तवस्सुल में किसी प्रकार की कोई रुकावट नहीं है , चाहे उनके जीवन में हो अथवा मृत्यु के पश्चात। इसके बाद आलूसी ने यह भी लिखा है कि ईश्वर को पैग़म्बर के अतिरिक्त भी किसी अन्य का वास्ता देने में कोई रुकावट नहीं है किंतु उसकी शर्त यह है कि वह वास्तव में ईश्वर के निकट उच्च स्थान रखता हो।

वहाबियत , वास्तविकता और इतिहास- 5

वहाबियत की आधारशिला रखने वाले इब्ने तैमिया ने अपने पूरे जीवन में बहुत सी किताबें लिखीं और अपनी आस्थाओं का अपनी रचनाओं में उल्लेख किया है। उन्होंने ऐसे अनेक फ़त्वे दिए जो उनसे पहले के किसी भी मुसलमान धर्मगुरु ने नहीं दिए थे विशेष रूप से ईश्वर के बारे में। वह्हाबियों का मानना है कि ईश्वर वैसा ही है जैसा कि क़ुरआन की कुछ आयतों में उल्लेख है हालांकि ऐसी आयतों की क़ुरआन की दूसरी आयतें व्याख्या करती हैं और पैग़म्बरे इस्लाम व उनके पवित्र परिजनों के कथनों से भी ऐसी आयतों की तार्कपूर्ण व्याख्या की गयी है। किन्तु इब्ने तैमिया और दूसरे सलफ़ी क़ुरआन की आयतों की विवेचना व स्पष्टीकरण से दूर रहे और इस प्रकार ईश्वर के अंग तथा उसके लिए सीमा को मानने लगे।

इब्ने तैमिया और उनके प्रसिद्ध शिष्य इब्ने क़य्यिम जौज़ी ने अपनी किताबों में इस बिन्दु पर बल दिया है कि ईश्वर सृष्टि की रचना करने से पूर्व ऐसे घने बादलों के बीच में था कि जिसके ऊपर और न ही नीचे हवा थी , संसार में कोई भी वस्तु मौजूद नहीं थी और ईश्वर का अर्श अर्थात ईश्वर की परम सत्ता का प्रतीक विशेष स्थान पानी के ऊपर था।

इस बात में ही विरोधाभास मौजूद है। क्योंकि एक ओर यह कहा जा रहा है कि ईश्वर इससे पहले कि किसी चीज़ को पैदा करता , घने बादलों के बीच में था जबकि बादल स्वयं ईश्वर की रचना है। इसलिए यह कैसे माना जा सकता है कि रचना अर्थात बादल रचनाकार से पहले सृष्टि में मौजूद रहा है ? क्या इस्लामी शिक्षाओं से अवगत एक मुसलमान इस बात को मानेगा कि महान ईश्वर को ऐसे अस्तित्व की संज्ञा दी जाए जो ऐसा बेबस हो कि घने बादलों में घिरा हो और बादल उस परम व अनन्य अस्तित्व का परिवेष्टन किए हो ? इस्लाम के अनुसार कोई भी वस्तु ईश्वर पर वर्चस्व नहीं जमा सकती क्योंकि क़ुरआनी आयतों के अनुसार ईश्वर का हर वस्तु पर प्रभुत्व है और पूरी सृष्टि उसके नियंत्रण में है। इब्ने तैमिया के विचारों का इस्लामी शिक्षाओं से विरोधाभास पूर्णतः स्पष्ट है।

वह्हाबियों की आस्थाओं में एक आस्था यह भी है कि ईश्वर किसी विशेष दिशा व स्थान में है। वह्हाबियों का मानना है कि ईश्वर का शरीर होने के अतिरिक्त उसकी व्यवहारिक विशेषता भी है और शारीरिक तथा बाह्य दृष्टि से भी आसमानों के ऊपर है। इबने तैमिया ने अपनी किताब मिन्हाजुस्सुन्नह में इस विषय का इस प्रकार उल्लेख किया हैः हवा , ज़मीन के ऊपर है , बादल हवा के ऊपर है , आकाश , बादलों व धरती के ऊपर हैं और ईश्वर की सत्ता का प्रतीक अर्श आकाशों के ऊपर है और ईश्वर इन सबके ऊपर है। इसी प्रकार वे पूर्वाग्रह के साथ कहते हैः जो लोग यह मानते हैं कि ईश्वर दिखाई देगा किन्तु ईश्वर के लिए दिशा को सही नहीं मानते उनकी बात बुद्धि की दृष्टि से अस्वीकार्य है।

प्रश्न यह उठता है कि इब्ने तैमिया का यह दृष्टिकोण क्या पवित्र क़ुरआन के सूरए बक़रा की आयत क्रमांक पंद्रह से स्पष्ट रूप से विरोध नहीं रखता कि जिसमें ईश्वर कह रहा हैः पूरब पश्चिम ईश्वर का है तो जिस ओर चेहरा घुमाओगे ईश्वर वहां है। ईश्वर हर चीज़ पर छाया हुया व सर्वज्ञ है। और इसी प्रकार सूरए हदीद की आयत क्रमांक चार में ईश्वर कह रहा हैः जहां भी हो वह तुम्हारे साथ है।

अब सूरए सजदा की इस आयत पर ध्यान दीजिएः और फिर उसका संचालन अपने हाथ में लिया और उससे हटकर न तो कोई तुम्हारा संरक्षक है और न ही उसके मुक़ाबले में कोई सिफ़ारिश करने वाला है।

सूरए हदीद की आयत क्रमांक 4 में ईश्वर कह रहा हैः फिर सृष्टि का संचालन संभाला और जो कुछ ज़मीन में प्रविष्ट होता है वह उसे जानता है।

और अब सूरए ताहा की आयत क्रमांक 5 पर ध्यान दीजिएः वही दयावान जिसके पास पूरी सृष्टि की सत्ता है।

वह्हाबियों ने इन आयतों के विदित रूप के आधार पर ईश्वर की सत्ता के प्रतीक के लिए विशेष रूप व आकार को गढ़ लिया है कि जिसे सुन कर हंसी आती है। वह्हाबियों का मानना है कि ईश्वर का भार बहुत अधिक है और वह अर्श पर बैठा है। इब्ने तैमिया ने कि जिसका सलफ़ी अनुसरण करते हैं , अनेक किताबों में लिखा है कि ईश्वर अपने आकार की तुलना में अर्श के हर ओर से अपनी चार अंगुली से अधिक बड़ा है। इब्ने तैमिया कहते हैः पवित्र ईश्वर अर्श के ऊपर है और उसका अर्श गुंबद जैसा है जो आकाशों के ऊपर स्थित है और अर्श ईश्वर के अधिक भारी होने के कारण ऊंट की काठी की भांति चरमराता है जो चरमराहट भारी सवार के कारण होती है।

इब्ने क़य्यिम जौज़ी ने जो इब्ने तैमिया के शिष्य व उनके विचारों के प्रचारक तथा मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के पौत्र भी हैं , अपनी किताबों में ईश्वर का इस प्रकार उल्लेख किया है कि सुनने वाले को उसके बचपन की कलपनाएं याद आ जाती हैं। वे कहते हैः ईश्वर का अर्श कि जिसकी मोटाई दो आकाशों के बीच की दूरी जितनी है , आठ ऐसे पहाड़ी बकरों की पीठ पर टिका हुआ है कि जिनके पैर के नाख़ुन से घुटने तक की दूरी भी दो आकाशों के बीच की दूरी के बराबर है। ये पहाड़ी बकरे एक समुद्र के ऊपर खड़े हैं कि जिसकी गहराई दो आकाशों के बीच की दूरी के बराबर है और समुद्र सातवें आकाश पर स्थित है। ये बातें ऐसी स्थिति में हैं कि न तो पवित्र क़ुरआन की आयतें , न पैग़म्बरे इस्लाम और न ही उनके सदाचारी साथियों ने इस प्रकार की निराधार व अतार्किक विशेषताओं का उल्लेख किया है बल्कि उनका तो मानना है कि ईश्वर कैसा है इसका उल्लेख करना भी असंभव है।

हर चीज़ से ईश्वर के आवश्यकतामुक्त होने की आस्था धर्म व पवित्र क़ुरआन की महत्वपूर्ण शिक्षाओं में है और पवित्र क़ुरआन की अनेक आयतों में इस विषय पर चर्चा की गयी है। जैसा कि पवित्र क़ुरआन के सूरए बक़रा की आयत क्रमांक 263 में ईश्वर कह रहा हैः ईश्वर आवश्यकतामुक्त और सहनशील है। इसी प्रकार सूरए बक़रा की आयत क्रमांक 267 में हम पढ़ते हैः ईश्वर आवश्यकतामुक्त है और सारी प्रशंसा उसी से विशेष है।

पवित्र क़ुरआन की इन आयतों में इस प्रकार के अर्थ को केवल चिंतन मनन द्वारा ही समझा जा सकता है। पवित्र क़ुरआन मानव समाज को निरंतर तर्क का निमंत्रण देता है और दावा करने वालों से कह रहा है कि यदि उनके पास अपनी बात की सत्यता का कोई तर्क है तो उसे बयान करे।

उदाहरण स्वरूप तर्क की दृष्टि से यह कैसे माना जा सकता है कि ईश्वर आठ पहाड़ी बकरों पर सवार है। क्योंकि यदि ईश्वर वास्तव में आठ बकरों पर सवार होगा तो उसे उनकी आवश्यकता होगी। जबकि अनन्य ईश्वर पवित्र है इस त्रुटि से कि उसे किसी चीज़ की आवश्यकता पड़े। इसी प्रकार इस भ्रष्ट विचार के आधार पर कि ईश्वर का अर्श आठ बकरों पर है , यह निष्कर्ष निकलेगा कि ये आठ बकरे भी जब से ईश्वर है और जब तक रहेगा , मौजूद रहेंगी। जबकि ईश्वर सूरए हदीद की चौथी आयत में स्वयं को हर चीज़ से पहले और हर चीज़ के बाद बाक़ी रहने वाला अस्तित्व कह रहा है और सलफ़ियों के आठ बकरों सहित दूसरी कहानियों से संबंधित किसी बात का उल्लेख नहीं है। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहै अलैहे व आलेही व सल्लम ईश्वर की विशेषता के संबंध में कहते हैः तू हर चीज़ से पहले था और तुझसे पहले कोई वस्तु नहीं थी और तू सबके बाद भी है।

अर्श पर ईश्वर के होने का अर्थ ईश्वर की सत्ता है जो पूरी सृष्टि पर छायी हुयी है और पूरे संसार का संचालन उसके हाथ में है। अर्श से तात्पर्य यह है कि ईश्वर का पूरी सृष्टि पर नियंत्रण है और हर वस्तु पर उसका शासन है जो अनन्य ईश्वर के अभिमान के अनुरूप है। इसलिए अर्श पर ईश्वर के होने का अर्थ सभी वस्तुओं चाहे आकाश में हों या ज़मीन में चाहे छोटी हों चाहे बड़ी चाहे महत्वपूर्ण और चाहे नगण्य हों सबका संचालन उसके हाथ में है। परिणामस्वरूप ईश्वर हर चीज़ का पालनहार और इस दृष्टि से वह अकेला है। रब्ब से अभिप्राय पालनहार और संचालक के सिवा कोई और अर्थ नहीं है किन्तु सलफ़ी ईश्वर के अर्श की जो विशेषता बयान करते हैं वह न केवल यह कि धार्मिक मानदंडों व बुद्धि से विरोधाभास रखता है बल्कि उसे बकवास के सिवा और कुछ नहीं कहा जा सकता। सलफ़ी इसी प्रकार ईश्वर के अर्श से ऐसे खंबे अभिप्राय लेते हैं कि यदि उनमें से एक न हो तो ईश्वर का अर्श ढह जाएगा और ईश्वर उससे ज़मीन पर गिर पड़ेगा। हज़रत अली अलैहिस्सलाम जिन्हें पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने ज्ञान के नगर का द्वार कहा है , ईश्वर के अर्श की व्याख्या इन शब्दों में करते हैः ईश्वर ने अर्श को अपनी सत्ता के प्रतीक के रूप में बनाया है न कि अपने लिए कोई स्थान।

वहाबियत , वास्तविकता और इतिहास- 6

वहाबी समुदाय का वैचारिक संस्थापक इब्ने तैमिया एकेश्वरवाद के संबंध में विभिन्न आस्था रखता है जो कभी तो मुसलमानों की आस्थाओं से भिन्न होती है और कभी विरोधाभास रखती है। ईश्वर के बारे में उसके विचारों में से एक उसने ईश्वर को धरती के अन्य जीवों की भांति चलता फिरता और गतिशील बताया है और उसका मानना है कि ईश्वर एक स्थान से दूसरे स्थान चलता रहता है। आसमान से उतरना और चढ़ना और आकाश पर चलना तथा विभिन्न प्रकार के सिहांसनों पर बैठना , अनन्य ईश्वर के बारे में इब्ने तैमिया की रोचक बातों में से है। इब्ने तैमिया मिनहाजुस्सुन्ना नामक पुस्तक में लिखता है कि ईश्वर हर रात में आकाश से ज़मीन पर उतरता है और अरफ़े की रात में धरती से बहुत निकट हो जाता है ताकि अपने बंदों की आवाज़ सुने और निकट से उसे स्वीकार करे। ईश्वर पहले आसमान पर आकर पुकारता है कि कोई है जो मुझे पुकारे और मैं उसकी दुआओं को स्वीकार करूं।

वहाबी समुदाय के आधार पर इसी प्रकार ईश्वर के लिए विभिन्न अवसरों पर भिन्न सिंहासनों व कुर्सियों को दृष्टिगत रखा गया है। मजमूउल फ़तावा नाम पुस्तक में इब्ने तैमिया के प्रसिद्ध शिष्य इब्ने क़ैय्यिम जौज़ी के हवाले से बयान हुआ है कि हर आसमान पर ईश्वर के लिए एक सिंहासन है , जब वह पहले आसमान पर उतरता है तो उस आसमान के विशेष सिंहासन पर बैठता है और कहता है कि है कोई प्रायश्चित करने वाला ताकि उसको मैं क्षमा करूं। वह सुबह तक वहां रहता है और सुबह के समय पहले आसमान के विशेष सिंहासन को छोड़ देता है , ऊपर जाता है और दूसरी कुर्सी पर बैठता है।

मोरक्को के प्रसिद्ध पर्यटक इब्ने बतूता अपने यात्रा वृतांत में इस संबंध में वहाबी धर्म गुरुओं की ओर से रोचक कथा बयान करते हैं , वे लिखते हैं कि मैंने दमिश्क़ की जामे मस्जिद में इब्ने तैमिया को देखा जो लोगों को उपदेश दे रहा था और कह रहा था कि ईश्वर पहले आसमान पर उतरता है , जैसा कि मैं अभी नीचे उतरूंगा , फिर वह मिंबर अर्थात भाषण देने के विशेष स्थान से एक सीढ़ी नीचे उतरा। इब्ने तैमिया की इस बात पर वहां उपस्थित मालिकी पंथ के प्रसिद्ध धर्मशास्त्री इब्ने ज़ोहरा ने कड़ा विरोध किया किन्तु कुछ साधारण लोग जो इब्ने तैमिया की बातों पर विश्वास कर चुके थे , मिंबर के नीचे से उठे और इब्ने ज़ोहरा की पिटाई करने लगे। उनको हंबली न्यायाधीश की ओर से भी डांट फटकार लगाई गयी किन्तु हंबली न्यायधीश का क्रियाकलाप दमिश्क़ के शाफ़ई और मालेकी न्यायधीशों और धर्मशास्त्रियों के कड़े विरोध का कारण बना। इस आधार पर इस विषय की सूचना शासक को दी गयी और उसने भी इब्ने तैमिया को जेल में डाल देने का आदेश जारी कर दिया।

वास्तव में इब्ने तैमिया ईश्वर के लिए चलने फिरने की बात को मानते हुए भौतिक जीवों की भांति ईश्वर को भी आवश्यकता रखने वाला समझता है जो अपने बंदों से संपर्क बनाने के लिए आसमान से उतरता और चढ़ता है। यह ऐसी स्थिति में है कि गति भौतिक संसार से विशेष होती है और सर्वसमर्थ ईश्वर को अपने बंदों की बातें सुनने और उनकी दुआओं को पूरा करने के लिए इधर उधर जाने और विभिन्न सिंहासनों पर बैठने की आवश्यकता नहीं होती। सूरए क़ाफ़ की आयत क्रमांक सोलह में बल दिया गया है कि ईश्वर बंदे की गर्दन की रग से भी निकट है और सूरए बक़रह की आयत क्रमांक 115 में कहा गया है कि और अल्लाह के लिए पूरब भी है और पश्चिम भी इसीलिए तुम जिधर भी रुख़ करोगे वहीं ईश्वर मौजूद है वह छाया हुआ भी है और ज्ञानी भी है। इस आधार पर यह परिणाम निकाला जा सकता है कि ईश्वर हर स्थान पर मौजूद है और उसे सुनने और हर कार्य के लिए इधर उधर जाने की आवश्यकता नहीं है। यह उपस्थिति सर्वसमर्थ ईश्वर की उसी शक्ति और ज्ञान से उत्पन्न हुई है जिसके बारे में पवित्र क़ुरआन ने बारम्बार बल दिया है। उदाहरण स्वरूप सूरए बक़रह की आयत क्रमांक 284 में आया है कि ईश्वर समस्त वस्तुओं पर सक्षम है। वास्तव में क्षमता और ज्ञान ईश्वर की प्रसिद्ध विशेषताओं में है जिसे पवित्र क़ुरआन में क़ादिर , आलिम , क़दीर व अलीम जैसे शब्दों के साथ बारम्बार प्रस्तुत किया गया है। इस दशा में इब्ने तैमिया से पूछना चाहिए कि क्या वास्तव में संसार का रचयिता भौतिक जीवों की भांति अपने बंदों से संपर्क बनाता है या यह संपर्क , बिना शब्द के मनुष्य के हृदय और आत्मा द्वारा होता है ?

इब्ने तैमिया ने अपने मन में ईश्वर के लिए एक सिंहासन या गद्दी की कल्पना कर ली है और उसका यहां तक मानना है कि पैग़म्बरे इस्लाम अपने रचयिता के बग़ल में एक कुर्सी पर विराजमान होंगे जबकि पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम अपनी समस्त शान और वैभव के बावजूद स्वयं को ईश्वर का एक निचले दर्जे का बंदा कहने पर गर्व करते हैं और पवित्र क़ुरआन भी सूरए कहफ़ की आयत क्रमांक 110 में पैग़म्बरे इस्लाम (स) को संबोधित करते हुए कहता है कि आप कह दीजिए के मैं तुम्हारे ही जैसा एक मनुष्य हुं किन्तु मेरी ओर ईश्वर का विशेष संदेश वहि आता है कि तुम्हारा ईश्वर एक अकेला है इसीलिए जो भी उससे भेंट की आशा लगाए हुए है उसे चाहिए कि भला कर्म करे और किसी को अपने ईश्वर की उपासना में भागीदार न बनाए।

इब्ने तैमिया और उसका शिष्य इब्ने क़ैय्यिम जौज़ी इन सब बातों से भी आगे बढ़ गये और उन्होंने अपनी पुस्तकों में ईश्वर को एक नरेश की भांति बताया। मजमूउल फ़तावा नामक पुस्तक में इनके हवाले से आया है कि परलोक के दिनों में शुक्रवार के दिन ईश्वर अपनी शक्ति के विशेष स्थान अर्थात अर्श से नीचे उतरेगा और सिंहासन पर बैठेगा। ईश्वर का सिंहासन प्रकाशमयी मिंबरों के बीच होगा और ईश्वरीय दूत इन मिंबरों पर बैठ हुए होंगे। सोने के बने सिंहासन इन मिंबरों को घेरे हुए होंगे और शहीद और ईश्वर के सच्चे बंदे इस पर बैठे हुए होंगे। ईश्वर बैठक के आयोजन और सभा में उपस्थित लोगों से विस्तृत बात चीत करके सिंहासन से उठेगा और बैठक को छोड़कर अपने विशेष स्थान अर्श की ओर ऊपर रवाना हो जाएगा।

यह बात रोचक है कि वहाबी इस प्रकार की अस्पष्ट और निराधार बातों को बिना किसी आयत या हदीस के प्रमाण के प्रस्तुत करते हैं और विदित रूप से केवल अपनी कल्पनाओं के ताने बाने बुनते रहते हैं। न तो पवित्र क़ुरआन में और न ही सहाए सित्ता जैसी सुन्नियों की मान्यता प्राप्त पुस्तकों में इस प्रकार की बातें प्रस्तुत की गयी हैं। इस बारे में केवल यह कहा जा सकता है कि ईश्वर के बारे में इस प्रकार की अवास्तविक बातें इब्ने तैमिया और उसके अनुयाइयों के मस्तिष्क की उपज है। उन्होंने ईश्वर को बंदों की भांति बताने और उसके लिए शरीर की बात मानकर ईश्वर के श्रेष्ठ व उच्च स्थान को घटा दिया है। सुन्नी समुदाय के प्रसिद्ध धर्मगुरू इब्ने जोहबुल का कहना है कि इब्ने तैमिया जिस प्रकार से दावा करता है कि यह बात ईश्वर , उसके दूतों और ईश्वरीय दूतों के साथियों ने कही है , जबकि उसकी कही हुई बातों को इनमें से किसी ने कदापि नहीं कही है।

वहाबियों की रोचक आस्थाओं में से एक यह है कि वे क़िब्ले को ईश्वर के शारीरिक रूप से उपस्थित होने का स्थान मानते हैं और उनका मानना है कि नमाज़ के समय ईश्वर हर नमाज़ियों के सामने खड़ा होता है और उनसे कहता है कि नमाज़ियों को क़िब्ले की ओर नहीं थूकना चाहिए क्योंकि ईश्वर उसके सामने खड़ा होता है और इस कार्य के कारण ईश्वर को परेशानी और कष्ट होती है। यहां पर यह बात कहना चाहिए कि क़िब्ले की ओर मुंह करके खड़े होना , समन्वय और नमाज़ के समय मोमिनों के ध्यान के उद्देश्य से है। न यह कि ईश्वर उस दिशा में मौजूद है। ईश्वर हर स्थान पर मौजूद है और हर वस्तु से अवगत है। पवित्र क़ुरआन ने भी बहुत सी आयतों में इस बात पर बल दिया है कि (व हुआ अला कुल्ले शैइन क़दीर) अर्थात वह समस्त वस्तुओं पर सक्षम है। एक असीमित और अनंत अस्तित्व , समस्त चीज़ों से अवगत है और उसके नियंत्रण में संसार की पूरी वस्तुएं हैं। यदि ईश्वर के लिए किसी विशेष स्थान को मान लिया जाए , इस बात के अतिरिक्त कि उसे समय और काल के लिए आवश्यकता रखने वाला बताएं तो हमने ईश्वर को एक स्थान और समय में सीमित कर दिया। दूसरी ओर वहाबी कठमुल्लाओं द्वारा ईश्वर को किसी विशेष स्थान और समय में सीमित करने का यह अर्थ होता है कि ईश्वर इस समय दूसरे स्थान पर मौजूद नहीं है और यह ईश्वर की क्षमता में कमी का चिन्ह है क्योंकि ईश्वर असीमित और अनंत अस्तित्व है जिसमें कोई भी कमी या अक्षमता नहीं पाई जाती।

इब्ने तैमिया ने ईश्वर के बारे में और भी बहुत सी बातें बयान की हैं और अपनी दुसाहसी बातों से उसने ईश्वर की शान को कम करने का भरसक प्रयास किया किन्तु ईश्वर इन जैसे तुच्छ लोगों की बातों से बहुत ही उच्च है। पवित्र क़ुरआन एक स्पष्ट गवाह है जो वास्तविकता को चिंतन मनन करने वालों और ज्ञानी लोगों के समक्ष स्पष्ट करता है। सूरए शूरा की आयत क्रमांक गयारह में आया है कि कोई भी वस्तु ईश्वर जैसी नहीं है। शीया मुसलमानों के प्रसिद्ध वरिष्ठ धर्मगुरू और पवित्र क़ुरआन के व्याख्याकार आयतुल्लाह मकारिम शीराज़ी इस आयत की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि वास्तविकता में यह बात ईश्वर की समस्त विशेषताओं को पहचानने का मुख्य आधार है कि जिस पर ध्यान दिए बिना ईश्वर की किसी भी विशेषता पर विश्वास नहीं किया जा सकता क्योंकि ईश्वर की खोज करने वालों के मार्ग में पड़ने वाली सबसे ख़तरनाक ढाल यही ईश्वर को बंदे जैसा बताने की ढाल है। इसी विषय के कारण लोग अनेकेश्वरवाद की खाई में गिर जाते हैं। दूसरे शब्दों में ईश्वर ऐसा अस्तित्व है जो हर दृष्टि से अनंत और असीमित है तथा उसके अतिरिक्त हर चीज़ की एक सीमा और एक अंत है। उदाहरण स्वरूप हमारे लिए बहुत से कार्य सरल हैं और कुछ कठिन , कुछ वस्तुएं हमसे निकट हैं तो कुछ दूर क्योंकि हमारा अस्तित्व सीमित है किन्तु उस अस्तित्व के लिए जो हर दृष्टि से असीमित है , सदैव बाक़ी व जारी रहने वाला है , सदैव से है और सदैव रहेगा , यह अर्थ कल्पना योग्य नहीं है।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने भी नहजुल बलाग़ा में विभिन्न स्थानों पर ईश्वर की विशेषताओं को बयान किया है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम की दृष्टि में ईश्वर की अनंत क्षमता , ऐसी है कि छोटे बड़े , भारी हल्के , शक्तिशाली और कमज़ोर समस्त जीव , सभी ईश्वर की सृष्टि और उसकी शक्ति के समक्ष समान हैं।

सुन्नी समुदाय के प्रसिद्ध धर्मगुरू इब्ने हजर मक्की अलफ़तावा अलहदीसा नामक पुस्तक में इब्ने तैमिया के बारे में लिखते हैं कि ईश्वर ने उसे अपमानित , पथभ्रष्ट , अंधा और बहरा कर दिया है और सुन्नी समुदाय के धर्मगुरूओं और हनफ़ी , मालिकी और शाफई पंथ के उसके समकालीन धर्मगुरूओं ने उसकी बातों और उसके विचार की भ्रष्टता को स्पष्ट रूप से बयान किया है , इब्ने तैमिया की बातें मूल्यों से रहित हैं और वह धर्म में नई बातें प्रविष्ट करने वाला , पथभ्रष्ट , पथभ्रष्ट करने वाला और असंतुलित व्यक्ति है। ईश्वर उसके साथ अपने न्याय के अनुसार व्यवहार करे और हमें उसकी आस्थाओं की बुराइयों और उसके संस्कारों व मार्गों से सुरक्षित रखे।