वहाबियत इतिहास के दर्पण मे

वहाबियत इतिहास के दर्पण मे42%

वहाबियत इतिहास के दर्पण मे कैटिगिरी: इतिहासिक कथाऐ

वहाबियत इतिहास के दर्पण मे
  • प्रारंभ
  • पिछला
  • 7 /
  • अगला
  • अंत
  •  
  • डाउनलोड HTML
  • डाउनलोड Word
  • डाउनलोड PDF
  • विज़िट्स: 10077 / डाउनलोड: 4181
आकार आकार आकार
वहाबियत इतिहास के दर्पण मे

वहाबियत इतिहास के दर्पण मे

हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.


1

2

3

वहाबियत , वास्तविकता और इतिहास- 7

जैसा कि हमने पिछले कार्यक्रम में उल्लेख किया कि ईश्वर के बारे में वहाबियों का यह विश्वास कि ईश्वर भौतिक विशेषताओं का स्वामी है , क़ुराने मजीद और पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पवित्र कथनों एवं सामान्यबोध के प्रतिकूल है , कहा जा सकता है कि यह धारणा केवल इब्ने तैमिया और उसके शिष्यों एवं अनुयाईयों की मानसिक उपज है। इब्ने तैमिया के इन्हीं पथभ्रष्ट विचारों के कारण सुन्नी विद्वानों ने उसका कड़ा विरोध किया और उसे जेल में डाल दिया गया। इब्ने तैमिया अपने पथभ्रष्ट विचारों पर अटल रहा यहां तक कि जेल में उसकी मौत हो गई और कदापि उसे सत्यता की प्राप्ति नहीं हुई। एकेश्वरवाद के बारे में वहाबियों के विश्वासों से संबंधित कार्यक्रम की एक अन्य कड़ी लेकर आपकी सेवा में उपस्थित हैं। इब्ने तैमिया ने मिन्हाज अलसुन्नाह एवं अल अक़ीदतुल हमुविय्या नामक पुस्तकों में एकेश्वरवाद से संबंधित अपने दृष्टिकोण का उल्लेख किया है। उसका मानना है कि ईश्वर की विशेषताओं में से एक दौड़ना है। उसका विश्वास है कि ईश्वर अपने सच्चे बंदों की ओर दौड़ता है ताकि उनके निकट आ जाये। इब्ने तैमिया अपनी दावे को सिद्ध करने हेतु पैग़म्बरे इस्लाम (स) की हदीस प्रस्तुत करता है किः ईश्वर कहता है कि यदि मेरा कोई बंदा एक बालिश्त मेरे निकट आयेगा तो मैं आधा मीटर उसके निकट जाऊंगा और यदि कोई आधा मीटर मेरी ओर बढ़ता है तो मैं एक मीटर से भी अधिक उसकी ओर बढ़ूंगा। और अगर कोई धीरे धीरे चलकर मेरे पास आयेगा तो मैं दौड़कर उसकी ओर जाऊंगा।

अपने बंदो की ओर ईश्वर के दौड़ने को इब्ने तैमिया ठीक शारीरिक रूप से दौड़ना समझता है , जबकि वह हदीस के वास्तविक अर्थ से अनभिज्ञ है। वास्तव में इस हदीस में ईश्वर के अपने बंदों से हार्दिक एवं आध्यात्मिक रूप से निकट होने की ओर संकेत किया गया है और इस महत्वपूर्ण बिंदु का उल्लेख है कि जो बंदे ईश्वर से संपर्क करते हैं और उससे सहायता मांगते हैं ईश्वर उनकी प्रार्थना सुनता है और उनकी सहायता करता है। अतः जो भी कोई अधिक उपासना एवं प्रार्थना करेगा ईश्वर उस पर और भी अधिक कृपा करेगा।

इब्ने तैमिया द्वारा इस मूल्यवान हदीस का यह अर्थ निकालने से पता चलता है कि वह और उसके अनुयाई वहाबी ईश्वर को मनुष्यों के समान समझते हैं , इस लिए कि दौड़ना शरीर से विशेष है और शरीर की विशेषताओं में से है। सऊदी अरब के मुफ़्तियों की सर्वोच्च परिषद भी ईश्वर के दौड़ने को सही मानती है। सऊदी अरब के एक वरिष्ठ मुफ़्ती एक प्रश्न के उत्तर में फ़तवा देते हुए कहते हैं ईश्वर के चेहरे , हाथ , आंखें , पिंडली और उंगलियों के बारे में क़ुरान और हदीस में वर्णन है और इस पर सुन्नियों का विश्वास है... तथा पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने ईश्वर के अनुरूप उसकी इन विशेषताओं को सिद्ध किया है। यद्यपि वहाबी सदैव अपनी ग़लत बातों को पैग़म्बरे इस्लाम की हदीसों और यहां तक कि क़ुरान की आयतों से जोड़ देते हैं , जब कि कहीं भी क़ुरान में और पैग़म्बरे इस्लाम की प्रामाणिक हदीसों में ईश्वर के दौड़ने की ओर संकेत नहीं किया गया है बल्कि इस्लामी ग्रंथों में ईश्वर को मानव विशेषताओं से मुक्त माना गया है।

दयालू परमात्मा ने क़ुराने मजीद को एक ऐसी पुस्तक के रूप में भेजा है कि जो स्वयं उसकी ओर हमारा मार्गदर्शन करे ताकि विभिन्न विचारों एवं दृष्टिकोणों और जीवन के भंवर एवं भूल भुलय्यों में रास्ता न भटक जायें। हम यहां आपका ध्यान क़ुरान मजीद की आयतों की ओर आकर्षित करना चाहते हैं ताकि ईश्वर से भय रखने वालों की ओर ईश्वर के दौड़ने से पैग़म्बरे इस्लाम (स) का वास्तविक तात्पर्य समझ में आ जाये। क़ुरान के अन्कबूत सूरे की 69वीं आयत में ईश्वर कहता है किः और वे कि जो हमारे मार्ग में श्रद्धा से प्रयास करेंगे निश्चिंत ही हम उन्हें अपने मार्ग की ओर मार्गदर्शित करेंगे , और ईश्वर भलाई करने वालों के साथ है। ईश्वर अपनी राह में प्रयास करने वालों को इस प्रकार प्रतिफल प्रदान करता है और उन पर अपनी विशेष कृपा करता है और वास्तव में पैग़म्बरे इस्लाम (स) की हदीस में ईश्वर का अपने नेक बंदो की ओर दौड़ने से यही तात्पर्य है। क़ुरान में इस प्रकार की आयतें कि ईश्वर अपने बंदों को सही रास्ता दिखाता है अधिक हैं किन्तु न यह कि दौड़कर या किसी मानव गतिविधि द्वारा , इस लिए कि उसे इस प्रकार की गतिविधियों की आवश्यकता नहीं है।

इब्ने तैमिया का विश्वास है कि ईश्वर को देखा जा सकता है। इस संदर्भ में उसका कहना है कि हर वह वस्तु जिसका अस्तित्व जितना संपूर्ण होता है उतनी ही देखने के लिए उपयुक्त होती है , और चूंकि ईश्वर समस्त जीवों में सबसे संपूर्ण है इस लिए सबसे अधिक नज़र आने के लिए उपयुक्त भी है परिणामस्वरूप ईश्वर दिखाई दिया जाना चाहिए। (मिन्हाज अल सुन्नाह ,1-217)

ईश्वर को देखने के विषय में वहाबियों ने सभी सीमाएं लांघ कर ऐसा दृष्टिकोण अपनाया है कि हर बुद्धिमान व्यक्ति आश्चर्यचकित रह जाता है। इब्ने तैमिया का मानना है कि प्रलय के दिन ईश्वर भेस बदलकर लोगों के सामने आयेगा और अपना परिचय देगा और कहेगा कि मैं तुम्हारा ईश्वर हूं। परन्तु लोग उत्तर में कहेंगे हम तुझे नहीं पहचानते और तेरे मुक़बले में अपने ईश्वर की शरण चाहते हैं। यदि हमारा ईश्वर आ जाये तो हम उसे पहचान लेंगे। फिर ईश्वर अपने असली रूप में उनके सामने आता है और अपना परिचय देता है। तो वे लोग कहते हैं कि हां , तू हमारा ईश्वर है उसके बाद यह लोग ईश्वर के साथ स्वर्ग की ओर चले जाते हैं। (मजमू अल फ़तावा , 6-492)

क्या वहाबियों ने अपनी इन बातों से ईश्वर पर ऐसे कामों का आरोप नहीं लगाया है कि जिन्हें अंजाम देने से एक बुद्धिमान व्यक्ति भी बचता है ? वास्तव में उन्होंने ईश्वर को मज़ाक़ बना लिया है। दूसरा प्रश्न यह कि क्या लोगों ने दुनिया में पहले कभी ईश्वर को देखा है कि जो प्रलय के दिन उसे उसके असली रूप में पहचान जायेंगे ? क्या आपमें से किसी ने ईश्वर को देखा है या किसी ऐसे व्यक्ति को जानते हो कि जिसने ईश्वर को देखा हो ?

संभवतः क़ुरान की जिस आयत में स्पष्ट रूप से ईश्वर के दिखाई पड़ने को असंभव बताया गया है वह सूरए अनाम की एक सौ छटी आयत है जिसमें ईश्वर कहता हैः आंखें उसे नहीं देखतीं किन्तु वह समस्त आंखों को देखता है और वह समस्त अनुकंपाओं का दाता एवं हर चीज़ का जानने वाला है।

दूसरी आयत कि जिसमें भौतिक रूप से ईश्वर के दिखाई पड़ने की संभावना से इंकार किया गया है सूरए आराफ़ की 143वीं आयत है जिसमें ईश्वर कहता है कि जब मूसा निर्धारित स्थान पर आये और उनके पालनहार ने उनसे बात की तो उन्होंने कहा , हे पालनहार , तू मुझे अपना दर्शन करा ताकि मैं तुझे देख सकूं , (ईश्वर ने) कहा , तुम मुझे कदापि नहीं देख सकते।

इन दो आयतों से पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है कि इब्ने तैमिया की धारणा के विपरीत ईश्वर को कभी नहीं देखा जा सकता।

इब्ने तैमिया और दूसरे वहाबियों ने ईश्वर के संबंध में और भी ऐसी बातें कहीं हैं जिन पर एक उचटती हुई दृष्टि डालते हैं। उनका कहना है कि ईश्वर मच्छर पर बैठकर सवारी करता है , ईश्वर एक ऐसा युवा है कि जिसके घुंगराले बाल हैं , ईश्वर की आंखे आ जाती हैं और फ़रिश्ते उसकी देखभाल के लिए जाते हैं , ईश्वर पैग़म्बर से हाथ मिलाता है , ईश्वर के जूते सोने के हैं , ईश्वर की कमर , बाज़ू , और उंगलियां हैं , उसे आश्चर्य होता है और वह हंसता है इत्यादि...

इस प्रकार के अंधविश्वासों का हम पहले ही उत्तर दे चुके हैं कि ईश्वर की मानव सहित किसी भी चीज़ से तुलना नहीं की जा सकती और उसका शरीर नहीं है। पुनः क़ुरान की सहायता लेते हैं। सरए अन्कबूत की 68वीं आयत में ईश्वर उन लोगों को नास्तिक कहता है जो उस पर झूटे और अनेकेश्वरवादी आरोप लगाते हैं। वह कहता है कि उससे बड़ा अत्याचारी कौन है कि जो ईश्वर पर झूटा आरोप लगाये या उस पर सत्यता के उजागर हो जाने के बाद उसे झुटला दे ? क्या नास्तिकों का स्थान नर्क में नहीं है ?

नहजुल बलाग़ा में हज़रत अली (अ) का दार्शनिक कथन है कि क़ुरान में एकेश्वरवाद के बारे में आया है कोई भी वस्तु उसके समान नहीं है , अतः किसी भी चीज़ को ईश्वर के समरूप समझना मिथ्या एवं भ्रम है , और जिस किसी ने भी ईश्वर को किसी चीज़ के समान समझा उसने लक्ष्य को गुम कर दिया , यदि इस प्रकार ईश्वर का गुणगान किया कि जिसका परिणाम समरूपता हो तो वास्तव में उसने प्राणी का वर्णन किया न कि स्वयं उसकाष इस लिए कि वह किसी भी चीज़ के समान नहीं है , इस लिए जिस किसी ने ईश्वर को किसी चीज़ के सदृश्य जाना तो उसने ईश्वर की अनुभूति प्राप्ति के मार्ग को छोड़ दिया और लक्ष्य को गुम कर दिया , और जो कोई ईश्वर की ओर इशारा करे या उसे अपने मन में सोचे तो वास्तव में उसने उसे नहीं पहचाना।

सुन्नियों के प्रसिद्ध विद्वान ग़ज़ाली का कहना है कि यदि कोई यह सोचे कि ईश्वर का शरीर है कि जो अनेक अंगो से मिलकर बना है तो वह बुत परस्त है , इस लिए कि हर शरीर प्राणी और सृजित है और हर काल के धार्मिक गुरूओं एवं विद्वानों की आम राय में प्राणी की उपासना नास्तिकता एवं बुत परस्ती है। (अल जामुल अवाम अन इल्मिल कलाम ,209) अहले सुन्नत के एक दूसरे वरिष्ठ धर्म गुरू क़ुरतबी कि जिनका 671 हिजरी क़मरी में निधन हुआ उन लोगों के बारे में कि जो ईश्वर के शरीर पर विश्वास रखते हैं कहते हैं कि सही बात यह कि जो यह मानते हैं कि ईश्वर का शरीर है वे नास्तिक हैं। इस लिए कि उन लोगों में और बुत परस्तों में कोई अंतर नहीं है।

अनेक मुसलमान विद्वानों एवं इतिहासकारों का मानना है कि इब्ने तैमिया सहित कुछ मुसलमान ईश्वर के शरीर होने के संबंध में यहूदियों से प्रभावित हैं। शहरिस्तानी अपनी पुस्तक मिलल व नहल में लिखते हैं कि बहुत से यहूदी कि जो इस्लाम की ओर आकृषित हुए उन्होंने ईश्वर के शरीर से संबंधित अनेक हदीस गढ़ीं और उन्हें इस्लामी रंग दे दिया , ईश्वर के शरीर से संबंधित समस्त हदीसों का स्रोत तोरा है। प्रसिद्ध इतिहासकार इब्ने ख़लदून का भी कहना है कि इस्लाम के प्रारंभिक काल के मुसलमान पढ़े लिखे नहीं थे तथा ब्रह्माण्ड की सृष्टि और जीवन के दर्शन के बारे में यहूदी एवं ईसाइ धर्मगुरूओं से प्रश्न करते थे। इब्ने ख़लदून का मानना है कि हदीस की कुछ प्रमाणित पुस्तकों में भी ऐसी हदीसों की संख्या कम नहीं है कि जिन्हें यहूदियों ने गढ़ा है या उनकी सहायता से गढ़ा गया है।

वहाबियत , वास्तविकता और इतिहास- 8

शेफ़ाअत अर्थात सिफ़ारिश के शब्द से सभी पूर्णरूप से अवगत हैं। जब भी अपराध , पाप और एक व्यक्ति की निंदा की बात होती है और कोई व्यक्ति मध्यस्थ बनता है ताकि उसे दंड से मुक्ति दिलाए तो कहते हैं कि अमुक व्यक्ति ने उसके लिए सिफ़ारिश की।

शेफ़ाअत का अर्थ होता है किसी व्यक्ति को होने वाली हानि को दूर करने के लिए मध्यस्थ बनना और उसके हितों की पूर्ति करना है। धार्मिक दृष्टि में शेफ़ाअत का अर्थ यह है कि ईश्वर के निकट बंदों में से एक मनुष्य के लिए पापों की क्षमा याचना करता है और ईश्वर से वितनी करता है कि अमुक व्यक्ति के पापों को क्षमा कर दे या उसके प्रकोप को कम कर दे। अन्य इस्लामी समुदायों और वहाबी पंथ के मध्य पाये जाने वाले मतभेदों में से शेफ़ाअत भी का मुद्दा है। अलबत्ता वहाबी भी मूल सिद्धांत के रूप में एक प्रकार की शेफ़ाअत को स्वीकार करते हैं किन्तु उनका मानना है कि शेफ़ाअत प्रलय के दिन से विशेष है कि शेफ़ाअत करने वाले मुसलमानों के पापों के संबंध में शेफ़ाअत करेंगे और शेफ़ाअत के संबंध में पैग़म्बरे इस्लाम का सबसे अधिक भाग होगा। वहाबियों की मूल बातें यह हैं कि किसी भी मुसलमानों को इस संसार में पैग़म्बरे इस्लाम और ईश्वर के निकट बंदों से शेफ़ाअत मांगने का कोई अधिकार नहीं है। जबकि पैग़म्बरे इस्लाम और ईश्वर के अन्य निकटवर्ती बंदों से शेफ़ाअत , पैग़म्बरे इस्लाम के काल से अब तक मुसलमानों के मध्य प्रचलित रही है। मुसलमानों के किसी भी बुद्धिजीवी और धर्मगुरू ने भी योग्य बंदो से शेफ़ाअत की बात का खंडन नहीं किया है किन्तु आठवीं हिजरी क़मरी के आरंभ में इब्ने तैमिया और उसके बाद मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब नज्दी ने ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य से शेफ़ाअत को वर्जित घोषित कर दिया और इस दृष्टिकोण के विरोधियों को काफ़िर और अनेकेश्वरवादी बताया।

इन दोनों का मानना था कि पैग़म्बर , फ़रिश्ते और ईश्वर के निकटवर्ती बंदे जिस शेफ़ाअत के स्वामी हैं उसका संसार से कोई लेना देना नहीं है बल्कि उन्हें केवल प्रलय में शेफ़ाअत का अधिकार प्राप्त है। इस आधार पर यदि कोई बंदा इस संसार में अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के उद्देश्य से अपने और ईश्वर के मध्य मध्यस्थ बनाए और उनकी शेफ़ाअत पर नज़र रखे हुए हो तो उसका यह कार्य अनेकेश्वरवाद में गिना जाता है और वह ईश्वर के अतिरिक्त किसी और का बंदा समझा जाता है। हर बंदे को प्रत्यक्ष रूप से केवल ईश्वर से आस लगाना चाहिए और कहे कि ईश्वर मुझे उन लोगों में शुमार कर जिनकी मुहम्मद (स) शेफ़ाअत करें। यह न कहो कि मुहम्मद , ईश्वर के निकट मेरी शेफ़ाअत कीजिए।

सलफ़ियों और मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के अनुयायियों ने शेफ़ाअत के विषय पर बहुत अधिक हंगामा मचाया है और अब तक शेफ़ाअत के विषय पर आतंक मचाते चले आ रहे हैं और शेफ़ाअत के मानने वालों के विरुद्ध बहुत उटपटांग बातें करते हैं।

सलफ़ियों ने ईश्वर के निकटवर्ती बंदों से शेफ़ाअत न करने पर कुछ तर्क पेश किए हैं। पहला यह है कि वे इस काम को अनेकेश्वरवाद समझते हैं क्योंकि उनका मानना है कि शेफ़ाअत मांगना , वास्तव में शेफ़ाअत करने वाले की उपासना है। अर्थात मनुष्य शेफ़ाअत की विनती करके मानो ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य से सहायता मांग रहा है और दूसरे को ईश्वर का समकक्ष ठहराता है।

वहाबी पंथ के संस्थापक मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब ने अपनी पुस्तक कश्फ़ुश्शुबहात में अनेकेश्वरवाद की चर्चा में दावा किया है कि शेफ़ाअत और तवस्सुल अर्थात किसी को मध्यस्थ बनाना अनेकेश्वरवाद का भाग है और इसीलिए वे बहुत से मुसलमानों को अनेकेश्वरवादी कहते हैं।

वास्तव में इस पंथ का दृष्टिकोण इस्लाम धर्म में प्रचलित दृष्टिकोणों से पूर्ण रूप से भिन्न है। सौभाग्य की बात यह है कि हम आपको यह बताएं कि शेफ़ाअत के विषय में वहाबी भ्रांतियों का शिकार हैं। इन भ्रांतियों के उत्तर में यह कहना चाहिए कि किसी भी व्यक्ति से शेफ़ाअत की विनती को उसी समय अनकेश्वरवाद में गिना जाता है जब शेफ़ाअत करने वाले को ईश्वर , सृष्टि का रचयिता और लोक परलोक का स्वामी कहा जाए किन्तु वास्तव में ईश्वर के निकट बंदो से शेफ़ाअत की इच्छा अनेकेश्वरवाद नहीं है बल्कि शेफ़ाअत मांगने वाले शेफ़ाअत करने वाले को ईश्वर का निकटवर्ती बंदा जानते हैं जो न तो कदापि ईश्वर है और न ही ईश्वरीय काम करता है बल्कि चूंकि वे ईश्वर के निकटवर्ती थे इसीलिए उनमें शेफ़ाअत की योग्यता पैदा हो गयी। दूसरी ओर इस्लामी शिक्षाओं में आया है कि शेफ़ाअत करने वाले केवल ईश्वर की अनुमति की परिधि में ही पापियों और एकेश्वरवादियों की शेफ़ाअत कर सकते हैं और ईश्वर से उनके पापों को क्षमा करने का अह्वान करते हैं।

पवित्र क़ुरआन की आयतों के दृष्टिगत हमें यह पता चलता है कि पैग़म्बरे इस्लाम और अन्य सच्चे लोगों से शफ़ाअत मांगना वास्तव में ईश्वरीय क्षमायाचना के लिए दुआ है। ईश्वर के निकट पैग़म्बरे इस्लाम और ईश्वरीय बंदों के निकट और उच्च स्थान के दृष्टिगत मुसलमान उनसे चाहते हैं कि वे उनके लिए दुआएं करें क्योंकि उनका मानना है कि ईश्वर अपने पैग़म्बर और निकटवर्ती बंदों की दुआओं को रद्द नहीं करता और उनकी दुआओं को अवश्य स्वीकार करता है और उनके माध्यम से पापियों के पाप को क्षमा कर देता है।

पवित्र क़ुरआन गवाही देता है कि लोगों के संबंध में पैग़म्बरे इस्लाम की क्षमा याचना पूर्ण रूप से प्रभावी और लाभदायक है। सूरए मुहम्मद की आयत क्रमांक 19 में आया है कि अपने पापों और ईमान वालों के लिए क्षमा याचना करो। इसी प्रकार सूरए तौबा की आयत संख्या 103 में आया है कि उनके लिए दुआएं करो , आपकी दुआएं उनकी शांति का स्रोत हैं।

जब लोगों के लिए पैग़म्बरे इस्लाम की दुआएं इतनी लाभदायक हैं तो इस बात में क्या समस्या है कि उनसे अपने लिए दुआएं करने की विनती की जाए। दूसरी ओर दुआ करना शेफ़ाअत के अतिरिक्त क्या कोई और वस्तु है ?

हदीस की किताबों में भी शेफ़ाअत शब्द का प्रयोग दुआ के अर्थ में बहुत अधिक किया गया है। यहां तक कि सुन्नी समुदाय की प्रसिद्ध पुस्तक सही बुख़ारी के लेखक ने अपनी पुस्तक में शेफ़ाअत शब्द से लाभ उठाया है। सही बुख़ारी सुन्नी समुदाय की सबसे मान्यता प्राप्त पुस्तकों में से एक है जिसके लेखक इमाम मुहम्मद बुख़ारी हैं। उन्होंने अपनी पुस्तक के दो अध्यायों में लिखा कि पैग़म्बर और ईश्वर के निकटवर्ती बंदो से दुआ करने को शेफ़ाअत कहा जाता है। वे लिखते हैं कि जब भी लोगों ने इमाम से शेफ़ाअत की कि वे उनके लिए ईश्वर से वर्षा की मांग करें तो उन्हें उनकी मांग को रद्द नहीं करना चाहिए। इस आधार पर सुन्नी समुदाय के धर्म गुरू भी ईश्वर के अतिरिक्त अन्य लोगों से शेफ़ाअत को वैध समझते हैं।

एक अन्य स्पष्ट साक्ष्य जो इस बात का चिन्ह है कि शिफ़ाअत का अर्थ दुआ है , इब्ने अब्बास के हवाले से पैग़म्बरे इस्लाम का कथन है। इस कथन में आया है कि जब भी कोई मुसलमान मरता है और उसके जनाज़े पर चालीस लोग जिन्होंने अनेकेश्वरवाद नहीं किया , नमाज़ पढ़ें तो ईश्वर उसके संबंध में उनकी शिफ़ाअत को स्वीकार करता है।

मुर्दे के संबंध में चालीस लोगों की शिफ़ाअत इसके अतिरिक्त कुछ और नहीं है कि उसके जनाज़े पर नमाज़ पढ़ने के समय उसके लिए ईश्वर से क्षमा याचना करें। इस आधार पर यदि शिफ़ाअत की प्रवृत्ति दुआ करना है तो इस दुआ की मांग करने को अनेकेश्वरवाद क्यों समझा जाता है ?

शिफ़ाअत के विषय को रद्द करने में वहाबी कठमुल्लाओं का एक और तर्क यह है कि अनेकेश्वरवादियों के अनेकेश्वरवाद का कारण , मूर्तियों से शिफ़ाअत की विनती करना है और पवित्र क़ुरआन में भी इस विषय का वर्णन किया गया है। सूरए यूनुस की आयत संख्या 18 में आया है कि और यह लोग ईश्वर को छोड़कर उनकी उपासना करते हैं जो न हानि पहुंचा सकते हैं और न लाभ और यह लोग कहते हैं कि यह ईश्वर के यहां हमारी सिफ़ारिश करने वाले हैं। इस आधार पर पैग़म्बरे इस्लाम और ईश्वर के निकटवर्ती बंदों से हर प्रकार की शिफ़ाअत मांगना , अनेकेश्वरवादियों के मूर्ति से शिफ़ाअत की विनती के भांति है।

वहाबियों की इस आस्था के उत्तर में यह कहना चाहिए कि इन दोनों शिफ़ाअतों में ज़मीन आसमान का अंतर है। अनेकेश्वरवादी , मूर्तियों को अपना ईश्वर समझते हैं इसीलिए वे उनसे शिफ़ाअत की विनती करते हैं जबकि एक मुसलमान व्यक्ति , ईश्वर के निकटवर्ती बंदे के रूप में ईश्वर के निकट व सच्चे बंदों से दुआ और उनसे शिफ़ाअत की विनती करता है।

मुसलमानों का मानना है कि पैग़म्बरे इस्लाम , शालीन मोमीनों और ईश्वर के निकटवर्ती बंदों और शहीदों के लिए शिफ़ाअत के स्थान की पुष्टि हो गयी है। कितना अच्छा है कि मनुष्य चाहे लोक में या परलोक में ईश्वर के निकट बंदों और उसके पैग़म्बर को ईश्वर के समक्ष अपना शिफ़ाअत करने वाला बनाए।

वहाबियत , वास्तविकता और इतिहास- 9

इस्लाम धर्म में शिफ़ाअत ईश्वर की ओर से मनुष्यों पर एक विभूती बतायी गयी है। जिन लोगों ने उपासना के बंधन को नहीं तोड़ा है और अनेकेश्वरवाद का शिकार नहीं हुए हैं , ईश्वर के निकटवर्ती बंदों की शिफ़ाअत उनके लिए आशा की किरण है जो निराशा को उनके दिलों से दूर करती है और ईश्वरीय दया की ओर उनके दिलों को प्रेरित व उत्साहित करती है किन्तु शिफ़ाअत के विषय में विदित रूप से इस्लाम की ओढ़नी ओढ़े कुछ संप्रदायों की भ्रांतियां वह विषय है जिसकी समीक्षा करना अतिआवश्यक है। पिछले कार्यक्रम में शिफ़ाअत के विषय को नकारने के संबंध में वहाबियों की ओर से प्रस्तुत किए गये कुछ तर्कों को पेश किया और सुन्नी समुदाय की मान्यता प्राप्त पुस्तकों से प्रमाण और क़ुरआनी तर्कों को पेश करके इन भ्रांतियों का ठोस उत्तर दिया। इस कार्यक्रम में भी हम आपको यह बताएंगे कि किन तर्कों के कारण वहाबी शिफ़ाअत के विषय का विरोध करते हैं और उसका तर्कसंगत उत्तर आपके सामने पेश करेंगे। कृपया हमारे साथ रहिए।

वहाबियों का यह मानना है कि पवित्र क़ुरआन के स्पष्ट आदेशानुसार दुआ के समय ईश्वर के अतिरिक्त किसी और से दुआ नहीं करनी चाहिए और ईश्वर के अतिरिक्त किसी और से शिफ़ाअत की मांग करना वास्तव में ईश्वर के अलावा किसी और से अपनी मांगें मांगना है। वहाबी अपनी इस बात के लिए सूरए जिन्न की आयत संख्या 18 की ओर संकेत करते हैं जिसमें आया है कि ईश्वर के अतिरिक्त किसी और से न मांगो। इसी प्रकार सूरए ग़ाफ़िर की आयत संख्या 60 में आया है कि मुझसे दुआ करो मैं स्वीकार करूंगा।

सूरए जिन्न की अट्ठारहवीं आयत में पवित्र क़ुरआन मुसलमानों से मांग करता है कि ईश्वर के अतिरिक्त किसी और से न मांगो , इस प्रकार से उसने ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य की उपासना के विषय को प्रस्तुत किया है क्योंकि ईश्वर के अतिरिक्त किसी और की उपासना और उसके लिए सजदा और रूकअ करना , अनकेश्वरवाद है और इस कार्य को अंजाम देने वाला अनेकेश्वरवादी होगा किन्तु यहां पर यह बात स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि ईश्वर के निकटवर्ती बंदों से शिफ़ाअत की इच्छा , उनकी उपासना के अर्थ में नहीं है बल्कि जो भी शिफ़ाअत की इच्छा रखता है उसे यह पूर्ण रूप से ज्ञात होता है कि केवल ईश्वर की अनुमति से ही शिफ़ाअत संभव है। इस प्रकार के लोग ईश्वर के निकटवर्ती लोगों और सच्चे , निष्ठावान और मोमिन बंदों को मध्यस्थ बनाते हैं ताकि वे ईश्वर के निकट उसके लिए दुआ करें क्योंकि ईश्वर अपने पैग़म्बरों और निकटवर्ती बंदों की दुआओं को कभी भी रद्द नहीं करता।

यदि कोई व्यक्ति ईश्वरीय दूतों से यह चाहे कि वे उसके लिए दुआ करें ताकि ईश्वर उसके पापों को क्षमा कर दे या उसके मन की इच्छा को पूरा कर दे तो उसने कभी भी ईश्वरीय दूतों को ईश्वर के समान नहीं समझा बल्कि केवल उसने उन्हें मध्यस्थ बनाया है। इस्लाम धर्म के प्रसिद्ध विद्वान और पवित्र क़ुरआन के व्याख्याकार अल्लामा तबातबाई इस आस्था के संबंध में कहते हैं कि इमाम से अपनी मांगों का मांगना उसी समय अनेकेश्वरवाद समझा जाएगा जब दुआ मांगने वाला इमाम को ईश्वर की भांति प्रभावी और अपार शक्ति का स्वामी समझे किन्तु उसे यह ज्ञात है कि समस्त चीज़ें ईश्वर के हाथ में है और केवल वही प्रभावी है , इमाम को केवल मध्यस्था या माध्यम समझता है , तो इसमें अनेकेश्वरवाद की कोई बात ही नहीं है।

अब्दुल वह्हाब की ओर से इस्लाम के नाम पर फैलायी गयीं भ्रष्ट आस्थाएं , इस्लाम धर्म की मान्यता प्राप्त हदीसों , कथनों और शिक्षाओं से बहुत ही सरलता से अपमानित और खंडित हो जाती हैं। वास्तविकता यह है कि मुहम्मद इब्ने अब्दुलवह्हाब और इसी प्रकार इब्ने तैमिया उपासना की गहराई को समझ ही नहीं सके हैं। उन्होंने यह समझा या यह दिखाने का प्रयास किया कि ईश्वर के सच्चे और शिष्टाचारी बंदों से शिफ़ाअत की मांग करना , उनकी उपासना के अर्थ में है। उन्हें ज्ञात ही नहीं है कि मूल उपासना , ईश्वर के समक्ष पूर्ण रूप से विनम्र और नतमस्तक होना है और शालीन व योग्य लोगों के सम्मान और उनसे विनम्रभाव से दुआ करने की गणना उपासना में नहीं होती। विशेषकर यदि यह लोग ईश्वरीय दूत और पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजन हों , जो स्वयं ईश्वर की उपासना और आज्ञापालन के आदर्श हैं।

वहाबियों ने शिफ़ाअत की रद्द में जो तर्क प्रस्तुत किए हैं उनमें से एक यह है कि उनका मानना है कि शिफ़ाअत का अधिकार केवल ईश्वर को है और उसके अतिरिक्त किसी को भी इस प्रकार का अधिकार प्राप्त नहीं है। उन्होंने अपने दावे की पुष्टि के लिए पवित्र क़ुरआन के सूरए ज़ुमर की आयत संख्या 43 और 44 को पेश किया जिसमें आया है कि क्या उन लोगों ने ईश्वर को छोड़कर सिफ़ारिश करने वाले चुन लिए हैं तो आप उनसे कह दीजिए कि ऐसा क्यों है , चाहे इन लोगों के बस में कुछ न भी हो और किसी प्रकार की बुद्धि न रखते हों ? आप कह दीजिए कि शिफ़ाअत का पूरा अधिकार अल्लाह के हाथों में है , उसी के पास धरती और आकाश का सारा प्रभुत्व है और इस के बाद तुम भी उसी की ओर पलटाए जाओगे।

इस आयत का यह तात्पर्य नहीं है कि आप कहें कि केवल और केवल ईश्वर ही शिफ़ाअत करता है और किसी को शिफ़ाअत करने का अधिकार नहीं है क्योंकि इस बात में कोई संदेह नहीं है कि सैद्धांतिक रूप से ईश्वर कभी भी किसी की किसी के निकट सिफ़ारिश नहीं करता , ईश्वर इन सब चीज़ों से महान और बड़ा है। बुद्धि भी इस विषय को स्वीकार नहीं करती कि हम यह कहें कि ईश्वर अमुक व्यक्ति का मध्यस्थ बना कि उसके पाप क्षमा कर दिए गये क्योंकि इसके तुरंत बाद मन में यह प्रश्न उठता है कि ईश्वर किसके निकट मध्यस्थ बना ? इस आयत में चर्चा का बिन्दु यह है कि ईश्वर स्वामी और स़िफ़ारिश स्वीकार करने वाला है और वह जिसमें भी योग्यता और शालीनता देखता है उसे इस बात की अनुमति देता है कि अमुक व्यक्ति की सिफ़ारिश करे। इस स्थिति में इस आयत का वहाबियों के दावों से दूर दूर का भी संबंध नहीं है क्योंकि इस आयत में उन लोगों और उन वस्तुओं के बारे में बात हो रही है जिनमें बुद्धि या सोचने की शक्ति नहीं है जबकि ईश्वरीय दूत और ईश्वर के निकटवर्ती बंदे इस दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ हैं।

पैग़म्बरे इस्लाम (स) के काल से अब तक मसलमान केवल ईश्वर को ही शिफ़ाअत का स्वामी और उसे स्वीकार करने वाला समझते थे न उनके उतराधिकारियों और उनके निकटवर्ती साथियों को। मुसलमानों का यह मानना था कि शिफ़ाअत वही कर सकता है जिसे ईश्वर ने अनुमति दी हो और पवित्र क़ुरआन की आयतों और हदीसों में भी यह मिलता है कि ईश्वर ने पैग़म्बर को शिफ़ाअत करने की अनुमति दी है। इस प्रकार से पैग़म्बरे इस्लाम (स) से शिफ़ाअत की अनुमति पाने वाले के रूप में शिफ़ाअत की गुहार लगाते हैं।

तिरमीज़ी और बुख़ारी जैसे सुन्नी समुदाय के दिग्गज धर्मगुरूओं ने अपनी हदीसों की किताबों में कभी भी शिफ़ाअत को अनेकेश्वरवाद नहीं कहा। सोनने तिरमीज़ी सुन्नी मुसलमानों के निकट हदीस की एक मान्यता प्राप्त और सुन्नी समुदाय के स्रोत सहाये सित्ता में शामिल एक पुस्तक है जिसको मुहम्मद तिरमीज़ी ने लिखा था। मुहम्मद तिरमीज़ी इस पुस्तक में शिफ़ाअत के बारे में अनस बिन मालिक के हवाले से लिखते हैं कि मैंने पैग़म्बरे इस्लाम (स) से कहा कि प्रलय के दिन मेरी शिफ़ाअत करें , उन्होंने स्वीकार कर लिया और कहा कि मैं यह काम करूंगा। मैंने पैग़म्बरे इस्लाम से कहा कि मैं आपको कहां ढूंढूगा ? तो उन्होंने कहा कि सेरात के पुल के पास।

अनस ने पूरे विश्वास के साथ पैग़म्बरे इस्लाम से अपनी शिफ़ाअत करने को कहा और पैग़म्बरे इस्लाम ने भी उन्हें इसका वचन दिया। यदि अनस को यह ज्ञात होता कि शिफ़ाअत अनेकेश्वरवाद है तो वह कभी भी पैग़म्बरे इस्लाम से शिफ़ाअत के लिए न कहते और पैग़म्बरे इस्लाम कभी भी उनको शिफ़ाअत का वचन न देते।

पैग़म्बरे इस्लाम के अन्य साथी जिन्होंने उनसे शिफ़ाअत की इच्छा प्रकट की सवाद बिना आज़िब हैं। उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम की प्रशंसा में शेर कहे और शेर में ही उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम से शिफ़ाअत की मांग की। उनके शेर का अनुवाद हैः हे पैग़म्बर प्रलय के दिन मेरी शिफ़ाअत करने वाले बनें , जिस दिन किसी अन्य की शिफ़ाअत खजूर की गुठली के चीरे की मात्रा में भी सवाद बिन आज़िब के काम नहीं आएगी।

सलफ़ी मत के वैचारिक गुरू इस प्रकार की हदीसों की ओर संकेत नहीं करते और उसकी व्याख्या नहीं करते जैसे सूरए निसा की 64वीं आयत , जिसमें शिफ़ाअत के विषय को स्पष्ट शब्दों में पेश किया गया है। इस आयत में हम पढ़ते हैं कि और हमने किसी पैग़म्बर को भी नहीं भेजा किन्तु केवल इसलिए कि ईश्वरीय आदेश से उसका अनुसरण किया जाए और काश जब उन लोगों ने अपनी आत्मा पर अत्याचार किया था तो आप उनके पास आते और स्वयं भी अपने पापों के लिए क्षमा करते और पैग़म्बर भी उनके लिए पापों की क्षमा करते तो यह ईश्वर को बड़ा ही तौबा स्वीकार करने वाला और दयालु पाते।

इस आयत में ईश्वर स्पष्ट शब्दों में बंदो के पापों को क्षमा करने के लिए अपने पैग़म्बर को माध्यम व मध्यस्थ बताता है। सुन्नी समुदाय के बड़े धर्मगुरू फ़रूद्दीन राज़ी अपनी पुस्तक तफ़सीरे कश्शाफ़ में इस संबंध में लिखते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम ने उनके लिए क्षमा याचना की। इसका उद्देश्य पैग़म्बरे इस्लाम के स्थान को श्रेष्ठ करना है। यह इस अर्थ में है कि वे लोग उस व्यक्ति के पास आए जो श्रेष्ठ स्थान पर असीन और ईश्वर का दूत है। अनदेखे संसार की वास्तविकता उस पर ईश्वरीय आदेश वहि द्वारा उतरती हैं और ईश्वर के बंदों के बीच ईश्वर का प्रतिनिधि है क्योंकि वह उस श्रेष्ठ स्थान का स्वामी है जिसमें उनकी शिफ़ाअत रद्द नहीं होगी।

जबकि ईश्वर ने स्वयं ही स्पष्ट रूप से यह अधिकार अपने पैग़म्बर को दिया है फिर वहाबी क्यों इसे रद्द करते हैं ? यहां पर उचित है कि इबने तैमिया की वह बात भी सुना जाए जिसमें वह कहता है कि ईश्वर ने अपने निकटवर्ती बंदों को शिफ़ाअत का अधिकार दिया है किन्तु हमें इसकी मांग से रोका है। यह औचित्य इस बात का सूचक है कि शिफ़ाअत के विषय में सलफ़ी बंद गली में पहुंच गये हैं क्योंकि ईश्वर ने सूरए निसा की 64वीं आयत में अपने बंदों से कहा है कि वह पैग़म्बर से शिफ़ाअत की मांग करें। इस बात के अतिरिक्त क्या यह संभव है कि ईश्वर किसी को किसी वस्तु का अधिकार दे और उसके प्रयोग से उसे रोक दे ? इस बात में ही स्पष्ट रूप से विरोधाभास है ? यदि ईश्वर ने यह अधिकार अपने निकटवर्ती बंदों को दिया है तो यह इस अर्थ में है कि दूसरे इस अधिकार से लाभान्वित हों , न यह कि इसकी मांग ही न करें। यहां पर एक कहने को दिल चाह रहा है कि सलफ़ियों की हर बातों व तर्कों में सदैव बहुत अधिक विरोधाभास पाया जाता है जो इस बात की निशानी है कि इस पथभ्रष्ट संप्रदाय का तर्क बहुत ही कमज़ोर है।

वहाबियत , वास्तविकता और इतिहास- 10

इस्लाम धर्म में शिफ़ाअत ईश्वर की ओर से मनुष्यों पर एक विभूती बतायी गयी है। जिन लोगों ने उपासना के बंधन को नहीं तोड़ा है और अनेकेश्वरवाद का शिकार नहीं हुए हैं , ईश्वर के निकटवर्ती बंदों की शिफ़ाअत उनके लिए आशा की किरण है जो निराशा को उनके दिलों से दूर करती है और ईश्वरीय दया की ओर उनके दिलों को प्रेरित व उत्साहित करती है किन्तु शिफ़ाअत के विषय में विदित रूप से इस्लाम की ओढ़नी ओढ़े कुछ संप्रदायों की भ्रांतियां वह विषय है जिसकी समीक्षा करना अतिआवश्यक है। पिछले कार्यक्रम में शिफ़ाअत के विषय को नकारने के संबंध में वहाबियों की ओर से प्रस्तुत किए गये कुछ तर्कों को पेश किया और सुन्नी समुदाय की मान्यता प्राप्त पुस्तकों से प्रमाण और क़ुरआनी तर्कों को पेश करके इन भ्रांतियों का ठोस उत्तर दिया। इस कार्यक्रम में भी हम आपको यह बताएंगे कि किन तर्कों के कारण वहाबी शिफ़ाअत के विषय का विरोध करते हैं और उसका तर्कसंगत उत्तर आपके सामने पेश करेंगे। कृपया हमारे साथ रहिए।

वहाबियों का यह मानना है कि पवित्र क़ुरआन के स्पष्ट आदेशानुसार दुआ के समय ईश्वर के अतिरिक्त किसी और से दुआ नहीं करनी चाहिए और ईश्वर के अतिरिक्त किसी और से शिफ़ाअत की मांग करना वास्तव में ईश्वर के अलावा किसी और से अपनी मांगें मांगना है। वहाबी अपनी इस बात के लिए सूरए जिन्न की आयत संख्या 18 की ओर संकेत करते हैं जिसमें आया है कि ईश्वर के अतिरिक्त किसी और से न मांगो। इसी प्रकार सूरए ग़ाफ़िर की आयत संख्या 60 में आया है कि मुझसे दुआ करो मैं स्वीकार करूंगा।

सूरए जिन्न की अट्ठारहवीं आयत में पवित्र क़ुरआन मुसलमानों से मांग करता है कि ईश्वर के अतिरिक्त किसी और से न मांगो , इस प्रकार से उसने ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य की उपासना के विषय को प्रस्तुत किया है क्योंकि ईश्वर के अतिरिक्त किसी और की उपासना और उसके लिए सजदा और रूकअ करना , अनकेश्वरवाद है और इस कार्य को अंजाम देने वाला अनेकेश्वरवादी होगा किन्तु यहां पर यह बात स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि ईश्वर के निकटवर्ती बंदों से शिफ़ाअत की इच्छा , उनकी उपासना के अर्थ में नहीं है बल्कि जो भी शिफ़ाअत की इच्छा रखता है उसे यह पूर्ण रूप से ज्ञात होता है कि केवल ईश्वर की अनुमति से ही शिफ़ाअत संभव है। इस प्रकार के लोग ईश्वर के निकटवर्ती लोगों और सच्चे , निष्ठावान और मोमिन बंदों को मध्यस्थ बनाते हैं ताकि वे ईश्वर के निकट उसके लिए दुआ करें क्योंकि ईश्वर अपने पैग़म्बरों और निकटवर्ती बंदों की दुआओं को कभी भी रद्द नहीं करता।

यदि कोई व्यक्ति ईश्वरीय दूतों से यह चाहे कि वे उसके लिए दुआ करें ताकि ईश्वर उसके पापों को क्षमा कर दे या उसके मन की इच्छा को पूरा कर दे तो उसने कभी भी ईश्वरीय दूतों को ईश्वर के समान नहीं समझा बल्कि केवल उसने उन्हें मध्यस्थ बनाया है। इस्लाम धर्म के प्रसिद्ध विद्वान और पवित्र क़ुरआन के व्याख्याकार अल्लामा तबातबाई इस आस्था के संबंध में कहते हैं कि इमाम से अपनी मांगों का मांगना उसी समय अनेकेश्वरवाद समझा जाएगा जब दुआ मांगने वाला इमाम को ईश्वर की भांति प्रभावी और अपार शक्ति का स्वामी समझे किन्तु उसे यह ज्ञात है कि समस्त चीज़ें ईश्वर के हाथ में है और केवल वही प्रभावी है , इमाम को केवल मध्यस्था या माध्यम समझता है , तो इसमें अनेकेश्वरवाद की कोई बात ही नहीं है।

अब्दुल वह्हाब की ओर से इस्लाम के नाम पर फैलायी गयीं भ्रष्ट आस्थाएं , इस्लाम धर्म की मान्यता प्राप्त हदीसों , कथनों और शिक्षाओं से बहुत ही सरलता से अपमानित और खंडित हो जाती हैं। वास्तविकता यह है कि मुहम्मद इब्ने अब्दुलवह्हाब और इसी प्रकार इब्ने तैमिया उपासना की गहराई को समझ ही नहीं सके हैं। उन्होंने यह समझा या यह दिखाने का प्रयास किया कि ईश्वर के सच्चे और शिष्टाचारी बंदों से शिफ़ाअत की मांग करना , उनकी उपासना के अर्थ में है। उन्हें ज्ञात ही नहीं है कि मूल उपासना , ईश्वर के समक्ष पूर्ण रूप से विनम्र और नतमस्तक होना है और शालीन व योग्य लोगों के सम्मान और उनसे विनम्रभाव से दुआ करने की गणना उपासना में नहीं होती। विशेषकर यदि यह लोग ईश्वरीय दूत और पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजन हों , जो स्वयं ईश्वर की उपासना और आज्ञापालन के आदर्श हैं।

वहाबियों ने शिफ़ाअत की रद्द में जो तर्क प्रस्तुत किए हैं उनमें से एक यह है कि उनका मानना है कि शिफ़ाअत का अधिकार केवल ईश्वर को है और उसके अतिरिक्त किसी को भी इस प्रकार का अधिकार प्राप्त नहीं है। उन्होंने अपने दावे की पुष्टि के लिए पवित्र क़ुरआन के सूरए ज़ुमर की आयत संख्या 43 और 44 को पेश किया जिसमें आया है कि क्या उन लोगों ने ईश्वर को छोड़कर सिफ़ारिश करने वाले चुन लिए हैं तो आप उनसे कह दीजिए कि ऐसा क्यों है , चाहे इन लोगों के बस में कुछ न भी हो और किसी प्रकार की बुद्धि न रखते हों ? आप कह दीजिए कि शिफ़ाअत का पूरा अधिकार अल्लाह के हाथों में है , उसी के पास धरती और आकाश का सारा प्रभुत्व है और इस के बाद तुम भी उसी की ओर पलटाए जाओगे।

इस आयत का यह तात्पर्य नहीं है कि आप कहें कि केवल और केवल ईश्वर ही शिफ़ाअत करता है और किसी को शिफ़ाअत करने का अधिकार नहीं है क्योंकि इस बात में कोई संदेह नहीं है कि सैद्धांतिक रूप से ईश्वर कभी भी किसी की किसी के निकट सिफ़ारिश नहीं करता , ईश्वर इन सब चीज़ों से महान और बड़ा है। बुद्धि भी इस विषय को स्वीकार नहीं करती कि हम यह कहें कि ईश्वर अमुक व्यक्ति का मध्यस्थ बना कि उसके पाप क्षमा कर दिए गये क्योंकि इसके तुरंत बाद मन में यह प्रश्न उठता है कि ईश्वर किसके निकट मध्यस्थ बना ? इस आयत में चर्चा का बिन्दु यह है कि ईश्वर स्वामी और स़िफ़ारिश स्वीकार करने वाला है और वह जिसमें भी योग्यता और शालीनता देखता है उसे इस बात की अनुमति देता है कि अमुक व्यक्ति की सिफ़ारिश करे। इस स्थिति में इस आयत का वहाबियों के दावों से दूर दूर का भी संबंध नहीं है क्योंकि इस आयत में उन लोगों और उन वस्तुओं के बारे में बात हो रही है जिनमें बुद्धि या सोचने की शक्ति नहीं है जबकि ईश्वरीय दूत और ईश्वर के निकटवर्ती बंदे इस दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ हैं।

पैग़म्बरे इस्लाम (स) के काल से अब तक मसलमान केवल ईश्वर को ही शिफ़ाअत का स्वामी और उसे स्वीकार करने वाला समझते थे न उनके उतराधिकारियों और उनके निकटवर्ती साथियों को। मुसलमानों का यह मानना था कि शिफ़ाअत वही कर सकता है जिसे ईश्वर ने अनुमति दी हो और पवित्र क़ुरआन की आयतों और हदीसों में भी यह मिलता है कि ईश्वर ने पैग़म्बर को शिफ़ाअत करने की अनुमति दी है। इस प्रकार से पैग़म्बरे इस्लाम (स) से शिफ़ाअत की अनुमति पाने वाले के रूप में शिफ़ाअत की गुहार लगाते हैं।

तिरमीज़ी और बुख़ारी जैसे सुन्नी समुदाय के दिग्गज धर्मगुरूओं ने अपनी हदीसों की किताबों में कभी भी शिफ़ाअत को अनेकेश्वरवाद नहीं कहा। सोनने तिरमीज़ी सुन्नी मुसलमानों के निकट हदीस की एक मान्यता प्राप्त और सुन्नी समुदाय के स्रोत सहाये सित्ता में शामिल एक पुस्तक है जिसको मुहम्मद तिरमीज़ी ने लिखा था। मुहम्मद तिरमीज़ी इस पुस्तक में शिफ़ाअत के बारे में अनस बिन मालिक के हवाले से लिखते हैं कि मैंने पैग़म्बरे इस्लाम (स) से कहा कि प्रलय के दिन मेरी शिफ़ाअत करें , उन्होंने स्वीकार कर लिया और कहा कि मैं यह काम करूंगा। मैंने पैग़म्बरे इस्लाम से कहा कि मैं आपको कहां ढूंढूगा ? तो उन्होंने कहा कि सेरात के पुल के पास।

अनस ने पूरे विश्वास के साथ पैग़म्बरे इस्लाम से अपनी शिफ़ाअत करने को कहा और पैग़म्बरे इस्लाम ने भी उन्हें इसका वचन दिया। यदि अनस को यह ज्ञात होता कि शिफ़ाअत अनेकेश्वरवाद है तो वह कभी भी पैग़म्बरे इस्लाम से शिफ़ाअत के लिए न कहते और पैग़म्बरे इस्लाम कभी भी उनको शिफ़ाअत का वचन न देते।

पैग़म्बरे इस्लाम के अन्य साथी जिन्होंने उनसे शिफ़ाअत की इच्छा प्रकट की सवाद बिना आज़िब हैं। उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम की प्रशंसा में शेर कहे और शेर में ही उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम से शिफ़ाअत की मांग की। उनके शेर का अनुवाद हैः हे पैग़म्बर प्रलय के दिन मेरी शिफ़ाअत करने वाले बनें , जिस दिन किसी अन्य की शिफ़ाअत खजूर की गुठली के चीरे की मात्रा में भी सवाद बिन आज़िब के काम नहीं आएगी।

सलफ़ी मत के वैचारिक गुरू इस प्रकार की हदीसों की ओर संकेत नहीं करते और उसकी व्याख्या नहीं करते जैसे सूरए निसा की 64वीं आयत , जिसमें शिफ़ाअत के विषय को स्पष्ट शब्दों में पेश किया गया है। इस आयत में हम पढ़ते हैं कि और हमने किसी पैग़म्बर को भी नहीं भेजा किन्तु केवल इसलिए कि ईश्वरीय आदेश से उसका अनुसरण किया जाए और काश जब उन लोगों ने अपनी आत्मा पर अत्याचार किया था तो आप उनके पास आते और स्वयं भी अपने पापों के लिए क्षमा करते और पैग़म्बर भी उनके लिए पापों की क्षमा करते तो यह ईश्वर को बड़ा ही तौबा स्वीकार करने वाला और दयालु पाते।

इस आयत में ईश्वर स्पष्ट शब्दों में बंदो के पापों को क्षमा करने के लिए अपने पैग़म्बर को माध्यम व मध्यस्थ बताता है। सुन्नी समुदाय के बड़े धर्मगुरू फ़रूद्दीन राज़ी अपनी पुस्तक तफ़सीरे कश्शाफ़ में इस संबंध में लिखते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम ने उनके लिए क्षमा याचना की। इसका उद्देश्य पैग़म्बरे इस्लाम के स्थान को श्रेष्ठ करना है। यह इस अर्थ में है कि वे लोग उस व्यक्ति के पास आए जो श्रेष्ठ स्थान पर असीन और ईश्वर का दूत है। अनदेखे संसार की वास्तविकता उस पर ईश्वरीय आदेश वहि द्वारा उतरती हैं और ईश्वर के बंदों के बीच ईश्वर का प्रतिनिधि है क्योंकि वह उस श्रेष्ठ स्थान का स्वामी है जिसमें उनकी शिफ़ाअत रद्द नहीं होगी।

जबकि ईश्वर ने स्वयं ही स्पष्ट रूप से यह अधिकार अपने पैग़म्बर को दिया है फिर वहाबी क्यों इसे रद्द करते हैं ? यहां पर उचित है कि इबने तैमिया की वह बात भी सुना जाए जिसमें वह कहता है कि ईश्वर ने अपने निकटवर्ती बंदों को शिफ़ाअत का अधिकार दिया है किन्तु हमें इसकी मांग से रोका है। यह औचित्य इस बात का सूचक है कि शिफ़ाअत के विषय में सलफ़ी बंद गली में पहुंच गये हैं क्योंकि ईश्वर ने सूरए निसा की 64वीं आयत में अपने बंदों से कहा है कि वह पैग़म्बर से शिफ़ाअत की मांग करें। इस बात के अतिरिक्त क्या यह संभव है कि ईश्वर किसी को किसी वस्तु का अधिकार दे और उसके प्रयोग से उसे रोक दे ? इस बात में ही स्पष्ट रूप से विरोधाभास है ? यदि ईश्वर ने यह अधिकार अपने निकटवर्ती बंदों को दिया है तो यह इस अर्थ में है कि दूसरे इस अधिकार से लाभान्वित हों , न यह कि इसकी मांग ही न करें। यहां पर एक कहने को दिल चाह रहा है कि सलफ़ियों की हर बातों व तर्कों में सदैव बहुत अधिक विरोधाभास पाया जाता है जो इस बात की निशानी है कि इस पथभ्रष्ट संप्रदाय का तर्क बहुत ही कमज़ोर है।

जवाब-ए-शिकवा

दिल से जो बात निकलती है असर रखती है

पर नहीं ताक़त-ए-परवाज़ मगर रखती है

क़ुदसी-उल-अस्ल है रिफ़अत पे नज़र रखती है

ख़ाक से उठती है गर्दूं पे गुज़र रखती है

इश्क़ था फ़ित्नागर ओ सरकश ओ चालाक मिरा

आसमाँ चीर गया नाला-ए-बेबाक मिरा

पीर-ए-गर्दूं ने कहा सुन के कहीं है कोई

बोले सय्यारे सर-ए-अर्श-ए-बरीं है कोई

चाँद कहता था नहीं अहल-ए-ज़मीं है कोई

कहकशाँ कहती थी पोशीदा यहीं है कोई

कुछ जो समझा मिरे शिकवे को तो रिज़वाँ समझा

मुझ को जन्नत से निकाला हुआ इंसाँ समझा

थी फ़रिश्तों को भी हैरत कि ये आवाज़ है क्या

अर्श वालों पे भी खुलता नहीं ये राज़ है क्या

ता-सर-ए-अर्श भी इंसाँ की तग-ओ-ताज़ है क्या

आ गई ख़ाक की चुटकी को भी परवाज़ है क्या

ग़ाफ़िल आदाब से सुक्कान-ए-ज़मीं कैसे हैं

शोख़ ओ गुस्ताख़ ये पस्ती के मकीं कैसे हैं

इस क़दर शोख़ कि अल्लाह से भी बरहम है

था जो मस्जूद-ए-मलाइक ये वही आदम है

आलिम-ए-कैफ़ है दाना-ए-रुमूज़-ए-कम है

हाँ मगर इज्ज़ के असरार से ना-महरम है

नाज़ है ताक़त-ए-गुफ़्तार पे इंसानों को

बात करने का सलीक़ा नहीं नादानों को

आई आवाज़ ग़म-अंगेज़ है अफ़्साना तिरा

अश्क-ए-बेताब से लबरेज़ है पैमाना तिरा

आसमाँ-गीर हुआ नारा-ए-मस्ताना तिरा

किस क़दर शोख़-ज़बाँ है दिल-ए-दीवाना तिरा

शुक्र शिकवे को किया हुस्न-ए-अदा से तू ने

हम-सुख़न कर दिया बंदों को ख़ुदा से तू ने

हम तो माइल-ब-करम हैं कोई साइल ही नहीं

राह दिखलाएँ किसे रह-रव-ए-मंज़िल ही नहीं

तर्बियत आम तो है जौहर-ए-क़ाबिल ही नहीं

जिस से तामीर हो आदम की ये वो गिल ही नहीं

कोई क़ाबिल हो तो हम शान-ए-कई देते हैं

ढूँडने वालों को दुनिया भी नई देते हैं

हाथ बे-ज़ोर हैं इल्हाद से दिल ख़ूगर हैं

उम्मती बाइस-ए-रुस्वाई-ए-पैग़म्बर हैं

बुत-शिकन उठ गए बाक़ी जो रहे बुत-गर हैं

था ब्राहीम पिदर और पिसर आज़र हैं

बादा-आशाम नए बादा नया ख़ुम भी नए

हरम-ए-काबा नया बुत भी नए तुम भी नए

वो भी दिन थे कि यही माया-ए-रानाई था

नाज़िश-ए-मौसम-ए-गुल लाला-ए-सहराई था

जो मुसलमान था अल्लाह का सौदाई था

कभी महबूब तुम्हारा यही हरजाई था

किसी यकजाई से अब अहद-ए-ग़ुलामी कर लो

मिल्लत-ए-अहमद-ए-मुर्सिल को मक़ामी कर लो

किस क़दर तुम पे गिराँ सुब्ह की बेदारी है

हम से कब प्यार है हाँ नींद तुम्हें प्यारी है

तब-ए-आज़ाद पे क़ैद-ए-रमज़ाँ भारी है

तुम्हीं कह दो यही आईन-ए-वफ़ादारी है

क़ौम मज़हब से है मज़हब जो नहीं तुम भी नहीं

जज़्ब-ए-बाहम जो नहीं महफ़िल-ए-अंजुम भी नहीं

जिन को आता नहीं दुनिया में कोई फ़न तुम हो

नहीं जिस क़ौम को परवा-ए-नशेमन तुम हो

बिजलियाँ जिस में हों आसूदा वो ख़िर्मन तुम हो

बेच खाते हैं जो अस्लाफ़ के मदफ़न तुम हो

हो निको नाम जो क़ब्रों की तिजारत कर के

क्या न बेचोगे जो मिल जाएँ सनम पत्थर के

सफ़्हा-ए-दहर से बातिल को मिटाया किस ने

नौ-ए-इंसाँ को ग़ुलामी से छुड़ाया किस ने

मेरे काबे को जबीनों से बसाया किस ने

मेरे क़ुरआन को सीनों से लगाया किस ने

थे तो आबा वो तुम्हारे ही मगर तुम क्या हो

हाथ पर हाथ धरे मुंतज़िर-ए-फ़र्दा हो

क्या कहा बहर-ए-मुसलमाँ है फ़क़त वादा-ए-हूर

शिकवा बेजा भी करे कोई तो लाज़िम है शुऊर

अदल है फ़ातिर-ए-हस्ती का अज़ल से दस्तूर

मुस्लिम आईं हुआ काफ़िर तो मिले हूर ओ क़ुसूर

तुम में हूरों का कोई चाहने वाला ही नहीं

जल्वा-ए-तूर तो मौजूद है मूसा ही नहीं

मंफ़अत एक है इस क़ौम का नुक़सान भी एक

एक ही सब का नबी दीन भी ईमान भी एक

हरम-ए-पाक भी अल्लाह भी क़ुरआन भी एक

कुछ बड़ी बात थी होते जो मुसलमान भी एक

फ़िरक़ा-बंदी है कहीं और कहीं ज़ातें हैं

क्या ज़माने में पनपने की यही बातें हैं

कौन है तारिक-ए-आईन-ए-रसूल-ए-मुख़्तार

मस्लहत वक़्त की है किस के अमल का मेआर

किस की आँखों में समाया है शिआर-ए-अग़्यार

हो गई किस की निगह तर्ज़-ए-सलफ़ से बे-ज़ार

क़ल्ब में सोज़ नहीं रूह में एहसास नहीं

कुछ भी पैग़ाम-ए-मोहम्मद का तुम्हें पास नहीं

जा के होते हैं मसाजिद में सफ़-आरा तो ग़रीब

ज़हमत-ए-रोज़ा जो करते हैं गवारा तो ग़रीब

नाम लेता है अगर कोई हमारा तो ग़रीब

पर्दा रखता है अगर कोई तुम्हारा तो ग़रीब

उमरा नश्शा-ए-दौलत में हैं ग़ाफ़िल हम से

ज़िंदा है मिल्लत-ए-बैज़ा ग़ुरबा के दम से

वाइज़-ए-क़ौम की वो पुख़्ता-ख़याली न रही

बर्क़-ए-तबई न रही शोला-मक़ाली न रही

रह गई रस्म-ए-अज़ाँ रूह-ए-बिलाली न रही

फ़ल्सफ़ा रह गया तल्क़ीन-ए-ग़ज़ाली न रही

मस्जिदें मर्सियाँ-ख़्वाँ हैं कि नमाज़ी न रहे

यानी वो साहिब-ए-औसाफ़-ए-हिजाज़ी न रहे

शोर है हो गए दुनिया से मुसलमाँ नाबूद

हम ये कहते हैं कि थे भी कहीं मुस्लिम मौजूद

वज़्अ में तुम हो नसारा तो तमद्दुन में हुनूद

ये मुसलमाँ हैं जिन्हें देख के शरमाएँ यहूद

यूँ तो सय्यद भी हो मिर्ज़ा भी हो अफ़्ग़ान भी हो

तुम सभी कुछ हो बताओ तो मुसलमान भी हो

दम-ए-तक़रीर थी मुस्लिम की सदाक़त बेबाक

अदल उस का था क़वी लौस-ए-मराआत से पाक

शजर-ए-फ़ितरत-ए-मुस्लिम था हया से नमनाक

था शुजाअत में वो इक हस्ती-ए-फ़ोक़-उल-इदराक

ख़ुद-गुदाज़ी नम-ए-कैफ़ियत-ए-सहबा-यश बूद

ख़ाली-अज़-ख़ेश शुदन सूरत-ए-मीना-यश बूद

हर मुसलमाँ रग-ए-बातिल के लिए नश्तर था

उस के आईना-ए-हस्ती में अमल जौहर था

जो भरोसा था उसे क़ुव्वत-ए-बाज़ू पर था

है तुम्हें मौत का डर उस को ख़ुदा का डर था

बाप का इल्म न बेटे को अगर अज़बर हो

फिर पिसर क़ाबिल-ए-मीरास-ए-पिदर क्यूँकर हो

हर कोई मस्त-ए-मय-ए-ज़ौक़-ए-तन-आसानी है

तुम मुसलमाँ हो ये अंदाज़-ए-मुसलमानी है

हैदरी फ़क़्र है ने दौलत-ए-उस्मानी है

तुम को अस्लाफ़ से क्या निस्बत-ए-रूहानी है

वो ज़माने में मुअज़्ज़िज़ थे मुसलमाँ हो कर

और तुम ख़्वार हुए तारिक-ए-क़ुरआँ हो कर

तुम हो आपस में ग़ज़बनाक वो आपस में रहीम

तुम ख़ता-कार ओ ख़ता-बीं वो ख़ता-पोश ओ करीम

चाहते सब हैं कि हों औज-ए-सुरय्या पे मुक़ीम

पहले वैसा कोई पैदा तो करे क़ल्ब-ए-सलीम

तख़्त-ए-फ़ग़्फ़ूर भी उन का था सरीर-ए-कए भी

यूँ ही बातें हैं कि तुम में वो हमियत है भी

ख़ुद-कुशी शेवा तुम्हारा वो ग़यूर ओ ख़ुद्दार

तुम उख़ुव्वत से गुरेज़ाँ वो उख़ुव्वत पे निसार

तुम हो गुफ़्तार सरापा वो सरापा किरदार

तुम तरसते हो कली को वो गुलिस्ताँ ब-कनार

अब तलक याद है क़ौमों को हिकायत उन की

नक़्श है सफ़्हा-ए-हस्ती पे सदाक़त उन की

मिस्ल-ए-अंजुम उफ़ुक़-ए-क़ौम पे रौशन भी हुए

बुत-ए-हिन्दी की मोहब्बत में बिरहमन भी हुए

शौक़-ए-परवाज़ में महजूर-ए-नशेमन भी हुए

बे-अमल थे ही जवाँ दीन से बद-ज़न भी हुए

इन को तहज़ीब ने हर बंद से आज़ाद किया

ला के काबे से सनम-ख़ाने में आबाद किया

क़ैस ज़हमत-कश-ए-तन्हाई-ए-सहरा न रहे

शहर की खाए हवा बादिया-पैमा न रहे

वो तो दीवाना है बस्ती में रहे या न रहे

ये ज़रूरी है हिजाब-ए-रुख़-ए-लैला न रहे

गिला-ए-ज़ौर न हो शिकवा-ए-बेदाद न हो

इश्क़ आज़ाद है क्यूँ हुस्न भी आज़ाद न हो

अहद-ए-नौ बर्क़ है आतिश-ज़न-ए-हर-ख़िर्मन है

ऐमन इस से कोई सहरा न कोई गुलशन है

इस नई आग का अक़्वाम-ए-कुहन ईंधन है

मिल्लत-ए-ख़त्म-ए-रसूल शोला-ब-पैराहन है

आज भी हो जो ब्राहीम का ईमाँ पैदा

आग कर सकती है अंदाज़-ए-गुलिस्ताँ पैदा

देख कर रंग-ए-चमन हो न परेशाँ माली

कौकब-ए-ग़ुंचा से शाख़ें हैं चमकने वाली

ख़स ओ ख़ाशाक से होता है गुलिस्ताँ ख़ाली

गुल-बर-अंदाज़ है ख़ून-ए-शोहदा की लाली

रंग गर्दूं का ज़रा देख तो उन्नाबी है

ये निकलते हुए सूरज की उफ़ुक़-ताबी है

उम्मतें गुलशन-ए-हस्ती में समर-चीदा भी हैं

और महरूम-ए-समर भी हैं ख़िज़ाँ-दीदा भी हैं

सैकड़ों नख़्ल हैं काहीदा भी बालीदा भी हैं

सैकड़ों बत्न-ए-चमन में अभी पोशीदा भी हैं

नख़्ल-ए-इस्लाम नमूना है बिरौ-मंदी का

फल है ये सैकड़ों सदियों की चमन-बंदी का

पाक है गर्द-ए-वतन से सर-ए-दामाँ तेरा

तू वो यूसुफ़ है कि हर मिस्र है कनआँ तेरा

क़ाफ़िला हो न सकेगा कभी वीराँ तेरा

ग़ैर यक-बाँग-ए-दारा कुछ नहीं सामाँ तेरा

नख़्ल-ए-शमा अस्ती ओ दर शोला दो-रेशा-ए-तू

आक़िबत-सोज़ बवद साया-ए-अँदेशा-ए-तू

तू न मिट जाएगा ईरान के मिट जाने से

नश्शा-ए-मय को तअल्लुक़ नहीं पैमाने से

है अयाँ यूरिश-ए-तातार के अफ़्साने से

पासबाँ मिल गए काबे को सनम-ख़ाने से

कश्ती-ए-हक़ का ज़माने में सहारा तू है

अस्र-ए-नौ-रात है धुँदला सा सितारा तू है

है जो हंगामा बपा यूरिश-ए-बुलग़ारी का

ग़ाफ़िलों के लिए पैग़ाम है बेदारी का

तू समझता है ये सामाँ है दिल-आज़ारी का

इम्तिहाँ है तिरे ईसार का ख़ुद्दारी का

क्यूँ हिरासाँ है सहिल-ए-फ़रस-ए-आदा से

नूर-ए-हक़ बुझ न सकेगा नफ़स-ए-आदा से

चश्म-ए-अक़्वाम से मख़्फ़ी है हक़ीक़त तेरी

है अभी महफ़िल-ए-हस्ती को ज़रूरत तेरी

ज़िंदा रखती है ज़माने को हरारत तेरी

कौकब-ए-क़िस्मत-ए-इम्काँ है ख़िलाफ़त तेरी

वक़्त-ए-फ़ुर्सत है कहाँ काम अभी बाक़ी है

नूर-ए-तौहीद का इत्माम अभी बाक़ी है

मिस्ल-ए-बू क़ैद है ग़ुंचे में परेशाँ हो जा

रख़्त-बर-दोश हवा-ए-चमनिस्ताँ हो जा

है तुनक-माया तू ज़र्रे से बयाबाँ हो जा

नग़्मा-ए-मौज है हंगामा-ए-तूफ़ाँ हो जा

क़ुव्वत-ए-इश्क़ से हर पस्त को बाला कर दे

दहर में इस्म-ए-मोहम्मद से उजाला कर दे

हो न ये फूल तो बुलबुल का तरन्नुम भी न हो

चमन-ए-दहर में कलियों का तबस्सुम भी न हो

ये न साक़ी हो तो फिर मय भी न हो ख़ुम भी न हो

बज़्म-ए-तौहीद भी दुनिया में न हो तुम भी न हो

ख़ेमा-ए-अफ़्लाक का इस्तादा इसी नाम से है

नब्ज़-ए-हस्ती तपिश-आमादा इसी नाम से है

दश्त में दामन-ए-कोहसार में मैदान में है

बहर में मौज की आग़ोश में तूफ़ान में है

चीन के शहर मराक़श के बयाबान में है

और पोशीदा मुसलमान के ईमान में है

चश्म-ए-अक़्वाम ये नज़्ज़ारा अबद तक देखे

रिफ़अत-ए-शान-ए-रफ़ाना-लका-ज़िक्र देखे

मर्दुम-ए-चश्म-ए-ज़मीं यानी वो काली दुनिया

वो तुम्हारे शोहदा पालने वाली दुनिया

गर्मी-ए-मेहर की परवरदा हिलाली दुनिया

इश्क़ वाले जिसे कहते हैं बिलाली दुनिया

तपिश-अंदोज़ है इस नाम से पारे की तरह

ग़ोता-ज़न नूर में है आँख के तारे की तरह

अक़्ल है तेरी सिपर इश्क़ है शमशीर तिरी

मिरे दरवेश ख़िलाफ़त है जहाँगीर तिरी

मा-सिवा-अल्लाह के लिए आग है तकबीर तिरी

तू मुसलमाँ हो तो तक़दीर है तदबीर तिरी

की मोहम्मद से वफ़ा तू ने तो हम तेरे हैं

ये जहाँ चीज़ है क्या लौह-ओ-क़लम तेरे हैं

जावेद के नाम

लंदन में उस के हाथ का लिखा हुआ पहला ख़त आने पर

दयार-ए-इश्क़ में अपना मक़ाम पैदा कर

नया ज़माना नए सुब्ह ओ शाम पैदा कर

ख़ुदा अगर दिल-ए-फ़ितरत-शनास दे तुझ को

सुकूत-ए-लाला-ओ-गुल से कलाम पैदा कर

उठा न शीशागरान-ए-फ़रंग के एहसाँ

सिफ़ाल-ए-हिन्द से मीना ओ जाम पैदा कर

मैं शाख़-ए-ताक हूँ मेरी ग़ज़ल है मेरा समर

मिरे समर से मय-ए-लाला-फ़ाम पैदा कर

मिरा तरीक़ अमीरी नहीं फ़क़ीरी है

ख़ुदी न बेच ग़रीबी में नाम पैदा कर

जिब्रईल ओ इबलीस

जिब्रईल

हम-दम-ए-दैरीना कैसा है जहान-ए-रंग-ओ-बू

इबलीस

सोज़-ओ-साज़ ओ दर्द ओ दाग़ ओ जुस्तुजू ओ आरज़ू

जिब्रईल

हर घड़ी अफ़्लाक पर रहती है तेरी गुफ़्तुगू

क्या नहीं मुमकिन कि तेरा चाक दामन हो रफ़ू

इबलीस

आह ऐ जिबरील तू वाक़िफ़ नहीं इस राज़ से

कर गया सरमस्त मुझ को टूट कर मेरा सुबू

अब यहाँ मेरी गुज़र मुमकिन नहीं मुमकिन नहीं

किस क़दर ख़ामोश है ये आलम-ए-बे-काख़-ओ-कू

जिस की नौमीदी से हो सोज़-ए-दरून-ए-काएनात

उस के हक़ में तक़्नतू अच्छा है या ला-तक़्नतू

जिब्रईल

खो दिए इंकार से तू ने मक़ामात-ए-बुलंद

चश्म-ए-यज़्दाँ में फ़रिश्तों की रही क्या आबरू

इबलीस

है मिरी जुरअत से मुश्त-ए-ख़ाक में ज़ौक़-ए-नुमू

मेरे फ़ित्ने जामा-ए-अक़्ल-ओ-ख़िरद का तार-ओ-पू

देखता है तू फ़क़त साहिल से रज़्म-ए-ख़ैर-ओ-शर

कौन तूफ़ाँ के तमांचे खा रहा है मैं कि तू

ख़िज़्र भी बे-दस्त-ओ-पा इल्यास भी बे-दस्त-ओ-पा

मेरे तूफ़ाँ यम-ब-यम दरिया-ब-दरिया जू-ब-जू

गर कभी ख़ल्वत मयस्सर हो तो पूछ अल्लाह से

क़िस्सा-ए-आदम को रंगीं कर गया किस का लहू

मैं खटकता हूँ दिल-ए-यज़्दाँ में काँटे की तरह

तू फ़क़त अल्लाह-हू अल्लाह-हू अल्लाह-हू

ज़ोहद और रिंदी

इक मौलवी साहब की सुनाता हूँ कहानी

तेज़ी नहीं मंज़ूर तबीअत की दिखानी

शोहरा था बहुत आप की सूफ़ी-मनुशी का

करते थे अदब उन का अआली ओ अदानी

कहते थे कि पिन्हाँ है तसव्वुफ़ में शरीअत

जिस तरह कि अल्फ़ाज़ में मुज़्मर हों मआनी

लबरेज़ मय-ए-ज़ोहद से थी दिल की सुराही

थी तह में कहीं दुर्द-ए-ख़याल-ए-हमा-दानी

करते थे बयाँ आप करामात का अपनी

मंज़ूर थी तादाद मुरीदों की बढ़ानी

मुद्दत से रहा करते थे हम-साए में मेरे

थी रिंद से ज़ाहिद की मुलाक़ात पुरानी

हज़रत ने मिरे एक शनासा से ये पूछा

'इक़बाल ' कि है क़ुमरी-ए-शमशाद-ए-मआनी

पाबंदी-ए-अहकाम-ए-शरीअत में है कैसा

गो शेर में है रश्क-ए-कलीम-ए-हमदानी

सुनता हूँ कि काफ़िर नहीं हिन्दू को समझता

है ऐसा अक़ीदा असर-ए-फ़लसफ़ा-दानी

है उस की तबीअत में तशय्यो भी ज़रा सा

तफ़्ज़ील - ए - अली हम ने सुनी उस की ज़बानी

समझा है कि है राग इबादात में दाख़िल

मक़्सूद है मज़हब की मगर ख़ाक उड़ानी

कुछ आर उसे हुस्न - फ़रामोशों से नहीं है

आदत ये हमारे शोरा की है पुरानी

गाना जो है शब को तो सहर को है तिलावत

इस रम्ज़ के अब तक न खुले हम पे मआनी

लेकिन ये सुना अपने मुरीदों से है मैं ने

बे - दाग़ है मानिंद - ए - सहर उस की जवानी

मज्मुआ - ए - अज़्दाद है 'इक़बाल ' नहीं है

दिल दफ़्तर - ए - हिकमत है तबीअत ख़फ़क़ानी

रिंदी से भी आगाह शरीअत से भी वाक़िफ़

पूछो जो तसव्वुफ़ की तो मंसूर का सानी

उस शख़्स की हम पर तो हक़ीक़त नहीं खुलती

होगा ये किसी और ही इस्लाम का बानी

अल - क़िस्सा बहुत तूल दिया वाज़ को अपने

ता - देर रही आप की ये नग़्ज़ - बयानी

इस शहर में जो बात हो उड़ जाती है सब में

मैं ने भी सुनी अपने अहिब्बा की ज़बानी

इक दिन जो सर - ए - राह मिले हज़रत - ए - ज़ाहिद

फिर छिड़ गई बातों में वही बात पुरानी

फ़रमाया शिकायत वो मोहब्बत के सबब थी

था फ़र्ज़ मिरा राह शरीअत की दिखानी

मैं ने ये कहा कोई गिला मुझ को नहीं है

ये आप का हक़ था ज़े - रह - ए - क़ुर्ब - ए - मकानी

ख़म है सर - ए - तस्लीम मिरा आप के आगे

पीरी है तवाज़ो के सबब मेरी जवानी

गर आप को मालूम नहीं मेरी हक़ीक़त

पैदा नहीं कुछ इस से क़ुसूर - ए - हमादानी

मैं ख़ुद भी नहीं अपनी हक़ीक़त का शनासा

गहरा है मिरे बहर - ए - ख़यालात का पानी

मुझ को भी तमन्ना है कि 'इक़बाल ' को देखूँ

की उस की जुदाई में बहुत अश्क - फ़िशानी

'इक़बाल ' भी 'इक़बाल ' से आगाह नहीं है

कुछ इस में तमस्ख़ुर नहीं वल्लाह नहीं है

ज़ौक़ ओ शौक़

क़ल्ब ओ नज़र की ज़िंदगी दश्त में सुब्ह का समाँ

चश्मा - ए - आफ़्ताब से नूर की नद्दियाँ रवाँ !

हुस्न - ए - अज़ल की है नुमूद चाक है पर्दा - ए - वजूद

दिल के लिए हज़ार सूद एक निगाह का ज़ियाँ !

सुर्ख़ ओ कबूद बदलियाँ छोड़ गया सहाब - ए - शब !

कोह - ए - इज़म को दे गया रंग - ब - रंग तैलिसाँ !

गर्द से पाक है हवा बर्ग - ए - नख़ील धुल गए

रेग - ए - नवाह - ए - काज़िमा नर्म है मिस्ल - ए - पर्नियाँ

आग बुझी हुई इधर , टूटी हुई तनाब उधर

क्या ख़बर इस मक़ाम से गुज़रे हैं कितने कारवाँ

आई सदा - ए - जिब्रईल तेरा मक़ाम है यही

एहल - ए - फ़िराक़ के लिए ऐश - ए - दवाम है यही

किस से कहूँ कि ज़हर है मेरे लिए मय - ए - हयात

कोहना है बज़्म - ए - कायनात ताज़ा हैं मेरे वारदात !

क्या नहीं और ग़ज़नवी कारगह - ए - हयात में

बैठे हैं कब से मुंतज़िर अहल - ए - हरम के सोमनात !

ज़िक्र - ए - अरब के सोज़ में ,फ़िक्र - ए - अजम के साज़ में

ने अरबी मुशाहिदात , ने अजमी तख़य्युलात

क़ाफ़िला - ए - हिजाज़ में एक हुसैन भी नहीं

गरचे है ताब - दार अभी गेसू - ए - दजला - ओ - फ़ुरात !

अक़्ल ओ दिल ओ निगाह का मुर्शिद - ए - अव्वलीं है इश्क़

इश्क़ न हो तो शर - ओ - दीं बुतकद - ए - तसव्वुरात !

सिदक़ - ए - ख़लील भी है इश्क़ सब्र - ए - हुसैन भी है इश्क़ !

म 'अरका - ए - वजूद में बद्र ओ हुनैन भी है इश्क़ !

अाया - ए - कायनात का म 'अनी - ए - देर - याब तू !

निकले तिरी तलाश में क़ाफ़िला - हा - ए - रंग - ओ - बू !

जलवतियान - ए - मदरसा कोर - निगाह ओ मुर्दा - ज़ाऐक़

जलवतियान - ए - मयकदा कम - तलब ओ तही - कदू !

मैं कि मिरी ग़ज़ल में है आतिश - ए - रफ़्ता का सुराग़

मेरी तमाम सरगुज़िश्त खोए हुओं की जुस्तुजू !

बाद - ए - सबा की मौज से नश - नुमा - ए - ख़ार - ओ - ख़स !

मेरे नफ़स की मौज से नश - ओ - नुमा - ए - आरज़ू !

ख़ून - ए - दिल ओ जिगर से है मेरी नवा की परवरिश

है रग - ए - साज़ में रवाँ साहिब - ए - साज़ का लहू !

फुर्सत - ए - कशमुकश में ईं दिल बे - क़रार रा

यक दो शिकन ज़्यादा कुन गेसू - ए - ताबदार रा

लौह भी तू , क़लम भी तू ,तेरा वजूद अल - किताब !

गुम्बद - ए - आबगीना - रंग तेरे मुहीत में हबाब !

आलम - ए - आब - ओ - ख़ाक में तेरे ज़ुहूर से फ़रोग़

ज़र्रा - ए - रेग को दिया तू ने तुलू - ए - आफ़्ताब !

शौकत - ए - संजर - ओ - सलीम तेरे जलाल की नुमूद !

फ़क़्र - ए - 'जुनेद '-ओ - 'बायज़ीद 'तेरा जमाल बे - नक़ाब !

शौक़ तिरा अगर न हो मेरी नमाज़ का इमाम

मेरा क़याम भी हिजाब ! मेरा सुजूद भी हिजाब !

तेरी निगाह - ए - नाज़ से दोनों मुराद पा गए

अक़्ल ,ग़याब ओ जुस्तुजू ! इश्क़ ,हुज़ूर ओ इज़्तिराब !

तीरा - ओ - तार है जहाँ गर्दिश - ए - आफ़ताब से !

तब - ए - ज़माना ताज़ा कर जल्वा - ए - बे - हिजाब से !

तेरी नज़र में हैं तमाम मेरे गुज़िश्ता रोज़ ओ शब

मुझ को ख़बर न थी कि है इल्म - ए - नख़ील बे - रुतब !

ताज़ा मिरे ज़मीर में म 'अर्क - ए - कुहन हुआ !

इश्क़ तमाम मुस्तफ़ा ! अक़्ल तमाम बू - लहब !

गाह ब - हीला मी - बरद ,गाह ब - ज़ोर मी - कशद

इश्क़ की इब्तिदा अजब इश्क़ की इंतिहा अजब !

आलम - ए - सोज़ - ओ - साज़ में वस्ल से बढ़ के है फ़िराक़

वस्ल में मर्ग - ए - आरज़ू ! हिज्र में ल़ज़्जत - ए - तलब !

एेन - ए - विसाल में मुझे हौसला - ए - नज़र न था

गरचे बहाना - जू रही मेरी निगाह - ए - बे - अदब !

गर्मी - ए - आरज़ू फ़िराक़ ! शोरिश - ए - हाव - ओ - हू फ़िराक़ !

मौज की जुस्तुजू फ़िराक़ ! क़तरे की आबरू फ़िराक़ !

तराना- ए- मिल्ली

चीन - ओ - अरब हमारा हिन्दोस्ताँ हमारा

मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहाँ हमारा

तौहीद की अमानत सीनों में है हमारे

आसाँ नहीं मिटाना नाम - ओ - निशाँ हमारा

दुनिया के बुत - कदों में पहला वो घर ख़ुदा का

हम इस के पासबाँ हैं वो पासबाँ हमारा

तेग़ों के साए में हम पल कर जवाँ हुए हैं

ख़ंजर हिलाल का है क़ौमी निशाँ हमारा

मग़रिब की वादियों में गूँजी अज़ाँ हमारी

थमता न था किसी से सैल - ए - रवाँ हमारा

बातिल से दबने वाले ऐ आसमाँ नहीं हम

सौ बार कर चुका है तू इम्तिहाँ हमारा

ऐ गुलिस्तान - ए - उंदुलुस वो दिन हैं याद तुझ को

था तेरी डालियों में जब आशियाँ हमारा

ऐ मौज - ए - दजला तू भी पहचानती है हम को

अब तक है तेरा दरिया अफ़्साना - ख़्वाँ हमारा

ऐ अर्ज़ - ए - पाक तेरी हुर्मत पे कट मरे हम

है ख़ूँ तिरी रगों में अब तक रवाँ हमारा

सालार - ए - कारवाँ है मीर - ए - हिजाज़ अपना

इस नाम से है बाक़ी आराम - ए - जाँ हमारा

'इक़बाल 'का तराना बाँग - ए - दरा है गोया

होता है जादा - पैमा फिर कारवाँ हमारा

जवाब-ए-शिकवा

दिल से जो बात निकलती है असर रखती है

पर नहीं ताक़त-ए-परवाज़ मगर रखती है

क़ुदसी-उल-अस्ल है रिफ़अत पे नज़र रखती है

ख़ाक से उठती है गर्दूं पे गुज़र रखती है

इश्क़ था फ़ित्नागर ओ सरकश ओ चालाक मिरा

आसमाँ चीर गया नाला-ए-बेबाक मिरा

पीर-ए-गर्दूं ने कहा सुन के कहीं है कोई

बोले सय्यारे सर-ए-अर्श-ए-बरीं है कोई

चाँद कहता था नहीं अहल-ए-ज़मीं है कोई

कहकशाँ कहती थी पोशीदा यहीं है कोई

कुछ जो समझा मिरे शिकवे को तो रिज़वाँ समझा

मुझ को जन्नत से निकाला हुआ इंसाँ समझा

थी फ़रिश्तों को भी हैरत कि ये आवाज़ है क्या

अर्श वालों पे भी खुलता नहीं ये राज़ है क्या

ता-सर-ए-अर्श भी इंसाँ की तग-ओ-ताज़ है क्या

आ गई ख़ाक की चुटकी को भी परवाज़ है क्या

ग़ाफ़िल आदाब से सुक्कान-ए-ज़मीं कैसे हैं

शोख़ ओ गुस्ताख़ ये पस्ती के मकीं कैसे हैं

इस क़दर शोख़ कि अल्लाह से भी बरहम है

था जो मस्जूद-ए-मलाइक ये वही आदम है

आलिम-ए-कैफ़ है दाना-ए-रुमूज़-ए-कम है

हाँ मगर इज्ज़ के असरार से ना-महरम है

नाज़ है ताक़त-ए-गुफ़्तार पे इंसानों को

बात करने का सलीक़ा नहीं नादानों को

आई आवाज़ ग़म-अंगेज़ है अफ़्साना तिरा

अश्क-ए-बेताब से लबरेज़ है पैमाना तिरा

आसमाँ-गीर हुआ नारा-ए-मस्ताना तिरा

किस क़दर शोख़-ज़बाँ है दिल-ए-दीवाना तिरा

शुक्र शिकवे को किया हुस्न-ए-अदा से तू ने

हम-सुख़न कर दिया बंदों को ख़ुदा से तू ने

हम तो माइल-ब-करम हैं कोई साइल ही नहीं

राह दिखलाएँ किसे रह-रव-ए-मंज़िल ही नहीं

तर्बियत आम तो है जौहर-ए-क़ाबिल ही नहीं

जिस से तामीर हो आदम की ये वो गिल ही नहीं

कोई क़ाबिल हो तो हम शान-ए-कई देते हैं

ढूँडने वालों को दुनिया भी नई देते हैं

हाथ बे-ज़ोर हैं इल्हाद से दिल ख़ूगर हैं

उम्मती बाइस-ए-रुस्वाई-ए-पैग़म्बर हैं

बुत-शिकन उठ गए बाक़ी जो रहे बुत-गर हैं

था ब्राहीम पिदर और पिसर आज़र हैं

बादा-आशाम नए बादा नया ख़ुम भी नए

हरम-ए-काबा नया बुत भी नए तुम भी नए

वो भी दिन थे कि यही माया-ए-रानाई था

नाज़िश-ए-मौसम-ए-गुल लाला-ए-सहराई था

जो मुसलमान था अल्लाह का सौदाई था

कभी महबूब तुम्हारा यही हरजाई था

किसी यकजाई से अब अहद-ए-ग़ुलामी कर लो

मिल्लत-ए-अहमद-ए-मुर्सिल को मक़ामी कर लो

किस क़दर तुम पे गिराँ सुब्ह की बेदारी है

हम से कब प्यार है हाँ नींद तुम्हें प्यारी है

तब-ए-आज़ाद पे क़ैद-ए-रमज़ाँ भारी है

तुम्हीं कह दो यही आईन-ए-वफ़ादारी है

क़ौम मज़हब से है मज़हब जो नहीं तुम भी नहीं

जज़्ब-ए-बाहम जो नहीं महफ़िल-ए-अंजुम भी नहीं

जिन को आता नहीं दुनिया में कोई फ़न तुम हो

नहीं जिस क़ौम को परवा-ए-नशेमन तुम हो

बिजलियाँ जिस में हों आसूदा वो ख़िर्मन तुम हो

बेच खाते हैं जो अस्लाफ़ के मदफ़न तुम हो

हो निको नाम जो क़ब्रों की तिजारत कर के

क्या न बेचोगे जो मिल जाएँ सनम पत्थर के

सफ़्हा-ए-दहर से बातिल को मिटाया किस ने

नौ-ए-इंसाँ को ग़ुलामी से छुड़ाया किस ने

मेरे काबे को जबीनों से बसाया किस ने

मेरे क़ुरआन को सीनों से लगाया किस ने

थे तो आबा वो तुम्हारे ही मगर तुम क्या हो

हाथ पर हाथ धरे मुंतज़िर-ए-फ़र्दा हो

क्या कहा बहर-ए-मुसलमाँ है फ़क़त वादा-ए-हूर

शिकवा बेजा भी करे कोई तो लाज़िम है शुऊर

अदल है फ़ातिर-ए-हस्ती का अज़ल से दस्तूर

मुस्लिम आईं हुआ काफ़िर तो मिले हूर ओ क़ुसूर

तुम में हूरों का कोई चाहने वाला ही नहीं

जल्वा-ए-तूर तो मौजूद है मूसा ही नहीं

मंफ़अत एक है इस क़ौम का नुक़सान भी एक

एक ही सब का नबी दीन भी ईमान भी एक

हरम-ए-पाक भी अल्लाह भी क़ुरआन भी एक

कुछ बड़ी बात थी होते जो मुसलमान भी एक

फ़िरक़ा-बंदी है कहीं और कहीं ज़ातें हैं

क्या ज़माने में पनपने की यही बातें हैं

कौन है तारिक-ए-आईन-ए-रसूल-ए-मुख़्तार

मस्लहत वक़्त की है किस के अमल का मेआर

किस की आँखों में समाया है शिआर-ए-अग़्यार

हो गई किस की निगह तर्ज़-ए-सलफ़ से बे-ज़ार

क़ल्ब में सोज़ नहीं रूह में एहसास नहीं

कुछ भी पैग़ाम-ए-मोहम्मद का तुम्हें पास नहीं

जा के होते हैं मसाजिद में सफ़-आरा तो ग़रीब

ज़हमत-ए-रोज़ा जो करते हैं गवारा तो ग़रीब

नाम लेता है अगर कोई हमारा तो ग़रीब

पर्दा रखता है अगर कोई तुम्हारा तो ग़रीब

उमरा नश्शा-ए-दौलत में हैं ग़ाफ़िल हम से

ज़िंदा है मिल्लत-ए-बैज़ा ग़ुरबा के दम से

वाइज़-ए-क़ौम की वो पुख़्ता-ख़याली न रही

बर्क़-ए-तबई न रही शोला-मक़ाली न रही

रह गई रस्म-ए-अज़ाँ रूह-ए-बिलाली न रही

फ़ल्सफ़ा रह गया तल्क़ीन-ए-ग़ज़ाली न रही

मस्जिदें मर्सियाँ-ख़्वाँ हैं कि नमाज़ी न रहे

यानी वो साहिब-ए-औसाफ़-ए-हिजाज़ी न रहे

शोर है हो गए दुनिया से मुसलमाँ नाबूद

हम ये कहते हैं कि थे भी कहीं मुस्लिम मौजूद

वज़्अ में तुम हो नसारा तो तमद्दुन में हुनूद

ये मुसलमाँ हैं जिन्हें देख के शरमाएँ यहूद

यूँ तो सय्यद भी हो मिर्ज़ा भी हो अफ़्ग़ान भी हो

तुम सभी कुछ हो बताओ तो मुसलमान भी हो

दम-ए-तक़रीर थी मुस्लिम की सदाक़त बेबाक

अदल उस का था क़वी लौस-ए-मराआत से पाक

शजर-ए-फ़ितरत-ए-मुस्लिम था हया से नमनाक

था शुजाअत में वो इक हस्ती-ए-फ़ोक़-उल-इदराक

ख़ुद-गुदाज़ी नम-ए-कैफ़ियत-ए-सहबा-यश बूद

ख़ाली-अज़-ख़ेश शुदन सूरत-ए-मीना-यश बूद

हर मुसलमाँ रग-ए-बातिल के लिए नश्तर था

उस के आईना-ए-हस्ती में अमल जौहर था

जो भरोसा था उसे क़ुव्वत-ए-बाज़ू पर था

है तुम्हें मौत का डर उस को ख़ुदा का डर था

बाप का इल्म न बेटे को अगर अज़बर हो

फिर पिसर क़ाबिल-ए-मीरास-ए-पिदर क्यूँकर हो

हर कोई मस्त-ए-मय-ए-ज़ौक़-ए-तन-आसानी है

तुम मुसलमाँ हो ये अंदाज़-ए-मुसलमानी है

हैदरी फ़क़्र है ने दौलत-ए-उस्मानी है

तुम को अस्लाफ़ से क्या निस्बत-ए-रूहानी है

वो ज़माने में मुअज़्ज़िज़ थे मुसलमाँ हो कर

और तुम ख़्वार हुए तारिक-ए-क़ुरआँ हो कर

तुम हो आपस में ग़ज़बनाक वो आपस में रहीम

तुम ख़ता-कार ओ ख़ता-बीं वो ख़ता-पोश ओ करीम

चाहते सब हैं कि हों औज-ए-सुरय्या पे मुक़ीम

पहले वैसा कोई पैदा तो करे क़ल्ब-ए-सलीम

तख़्त-ए-फ़ग़्फ़ूर भी उन का था सरीर-ए-कए भी

यूँ ही बातें हैं कि तुम में वो हमियत है भी

ख़ुद-कुशी शेवा तुम्हारा वो ग़यूर ओ ख़ुद्दार

तुम उख़ुव्वत से गुरेज़ाँ वो उख़ुव्वत पे निसार

तुम हो गुफ़्तार सरापा वो सरापा किरदार

तुम तरसते हो कली को वो गुलिस्ताँ ब-कनार

अब तलक याद है क़ौमों को हिकायत उन की

नक़्श है सफ़्हा-ए-हस्ती पे सदाक़त उन की

मिस्ल-ए-अंजुम उफ़ुक़-ए-क़ौम पे रौशन भी हुए

बुत-ए-हिन्दी की मोहब्बत में बिरहमन भी हुए

शौक़-ए-परवाज़ में महजूर-ए-नशेमन भी हुए

बे-अमल थे ही जवाँ दीन से बद-ज़न भी हुए

इन को तहज़ीब ने हर बंद से आज़ाद किया

ला के काबे से सनम-ख़ाने में आबाद किया

क़ैस ज़हमत-कश-ए-तन्हाई-ए-सहरा न रहे

शहर की खाए हवा बादिया-पैमा न रहे

वो तो दीवाना है बस्ती में रहे या न रहे

ये ज़रूरी है हिजाब-ए-रुख़-ए-लैला न रहे

गिला-ए-ज़ौर न हो शिकवा-ए-बेदाद न हो

इश्क़ आज़ाद है क्यूँ हुस्न भी आज़ाद न हो

अहद-ए-नौ बर्क़ है आतिश-ज़न-ए-हर-ख़िर्मन है

ऐमन इस से कोई सहरा न कोई गुलशन है

इस नई आग का अक़्वाम-ए-कुहन ईंधन है

मिल्लत-ए-ख़त्म-ए-रसूल शोला-ब-पैराहन है

आज भी हो जो ब्राहीम का ईमाँ पैदा

आग कर सकती है अंदाज़-ए-गुलिस्ताँ पैदा

देख कर रंग-ए-चमन हो न परेशाँ माली

कौकब-ए-ग़ुंचा से शाख़ें हैं चमकने वाली

ख़स ओ ख़ाशाक से होता है गुलिस्ताँ ख़ाली

गुल-बर-अंदाज़ है ख़ून-ए-शोहदा की लाली

रंग गर्दूं का ज़रा देख तो उन्नाबी है

ये निकलते हुए सूरज की उफ़ुक़-ताबी है

उम्मतें गुलशन-ए-हस्ती में समर-चीदा भी हैं

और महरूम-ए-समर भी हैं ख़िज़ाँ-दीदा भी हैं

सैकड़ों नख़्ल हैं काहीदा भी बालीदा भी हैं

सैकड़ों बत्न-ए-चमन में अभी पोशीदा भी हैं

नख़्ल-ए-इस्लाम नमूना है बिरौ-मंदी का

फल है ये सैकड़ों सदियों की चमन-बंदी का

पाक है गर्द-ए-वतन से सर-ए-दामाँ तेरा

तू वो यूसुफ़ है कि हर मिस्र है कनआँ तेरा

क़ाफ़िला हो न सकेगा कभी वीराँ तेरा

ग़ैर यक-बाँग-ए-दारा कुछ नहीं सामाँ तेरा

नख़्ल-ए-शमा अस्ती ओ दर शोला दो-रेशा-ए-तू

आक़िबत-सोज़ बवद साया-ए-अँदेशा-ए-तू

तू न मिट जाएगा ईरान के मिट जाने से

नश्शा-ए-मय को तअल्लुक़ नहीं पैमाने से

है अयाँ यूरिश-ए-तातार के अफ़्साने से

पासबाँ मिल गए काबे को सनम-ख़ाने से

कश्ती-ए-हक़ का ज़माने में सहारा तू है

अस्र-ए-नौ-रात है धुँदला सा सितारा तू है

है जो हंगामा बपा यूरिश-ए-बुलग़ारी का

ग़ाफ़िलों के लिए पैग़ाम है बेदारी का

तू समझता है ये सामाँ है दिल-आज़ारी का

इम्तिहाँ है तिरे ईसार का ख़ुद्दारी का

क्यूँ हिरासाँ है सहिल-ए-फ़रस-ए-आदा से

नूर-ए-हक़ बुझ न सकेगा नफ़स-ए-आदा से

चश्म-ए-अक़्वाम से मख़्फ़ी है हक़ीक़त तेरी

है अभी महफ़िल-ए-हस्ती को ज़रूरत तेरी

ज़िंदा रखती है ज़माने को हरारत तेरी

कौकब-ए-क़िस्मत-ए-इम्काँ है ख़िलाफ़त तेरी

वक़्त-ए-फ़ुर्सत है कहाँ काम अभी बाक़ी है

नूर-ए-तौहीद का इत्माम अभी बाक़ी है

मिस्ल-ए-बू क़ैद है ग़ुंचे में परेशाँ हो जा

रख़्त-बर-दोश हवा-ए-चमनिस्ताँ हो जा

है तुनक-माया तू ज़र्रे से बयाबाँ हो जा

नग़्मा-ए-मौज है हंगामा-ए-तूफ़ाँ हो जा

क़ुव्वत-ए-इश्क़ से हर पस्त को बाला कर दे

दहर में इस्म-ए-मोहम्मद से उजाला कर दे

हो न ये फूल तो बुलबुल का तरन्नुम भी न हो

चमन-ए-दहर में कलियों का तबस्सुम भी न हो

ये न साक़ी हो तो फिर मय भी न हो ख़ुम भी न हो

बज़्म-ए-तौहीद भी दुनिया में न हो तुम भी न हो

ख़ेमा-ए-अफ़्लाक का इस्तादा इसी नाम से है

नब्ज़-ए-हस्ती तपिश-आमादा इसी नाम से है

दश्त में दामन-ए-कोहसार में मैदान में है

बहर में मौज की आग़ोश में तूफ़ान में है

चीन के शहर मराक़श के बयाबान में है

और पोशीदा मुसलमान के ईमान में है

चश्म-ए-अक़्वाम ये नज़्ज़ारा अबद तक देखे

रिफ़अत-ए-शान-ए-रफ़ाना-लका-ज़िक्र देखे

मर्दुम-ए-चश्म-ए-ज़मीं यानी वो काली दुनिया

वो तुम्हारे शोहदा पालने वाली दुनिया

गर्मी-ए-मेहर की परवरदा हिलाली दुनिया

इश्क़ वाले जिसे कहते हैं बिलाली दुनिया

तपिश-अंदोज़ है इस नाम से पारे की तरह

ग़ोता-ज़न नूर में है आँख के तारे की तरह

अक़्ल है तेरी सिपर इश्क़ है शमशीर तिरी

मिरे दरवेश ख़िलाफ़त है जहाँगीर तिरी

मा-सिवा-अल्लाह के लिए आग है तकबीर तिरी

तू मुसलमाँ हो तो तक़दीर है तदबीर तिरी

की मोहम्मद से वफ़ा तू ने तो हम तेरे हैं

ये जहाँ चीज़ है क्या लौह-ओ-क़लम तेरे हैं

जावेद के नाम

लंदन में उस के हाथ का लिखा हुआ पहला ख़त आने पर

दयार-ए-इश्क़ में अपना मक़ाम पैदा कर

नया ज़माना नए सुब्ह ओ शाम पैदा कर

ख़ुदा अगर दिल-ए-फ़ितरत-शनास दे तुझ को

सुकूत-ए-लाला-ओ-गुल से कलाम पैदा कर

उठा न शीशागरान-ए-फ़रंग के एहसाँ

सिफ़ाल-ए-हिन्द से मीना ओ जाम पैदा कर

मैं शाख़-ए-ताक हूँ मेरी ग़ज़ल है मेरा समर

मिरे समर से मय-ए-लाला-फ़ाम पैदा कर

मिरा तरीक़ अमीरी नहीं फ़क़ीरी है

ख़ुदी न बेच ग़रीबी में नाम पैदा कर

जिब्रईल ओ इबलीस

जिब्रईल

हम-दम-ए-दैरीना कैसा है जहान-ए-रंग-ओ-बू

इबलीस

सोज़-ओ-साज़ ओ दर्द ओ दाग़ ओ जुस्तुजू ओ आरज़ू

जिब्रईल

हर घड़ी अफ़्लाक पर रहती है तेरी गुफ़्तुगू

क्या नहीं मुमकिन कि तेरा चाक दामन हो रफ़ू

इबलीस

आह ऐ जिबरील तू वाक़िफ़ नहीं इस राज़ से

कर गया सरमस्त मुझ को टूट कर मेरा सुबू

अब यहाँ मेरी गुज़र मुमकिन नहीं मुमकिन नहीं

किस क़दर ख़ामोश है ये आलम-ए-बे-काख़-ओ-कू

जिस की नौमीदी से हो सोज़-ए-दरून-ए-काएनात

उस के हक़ में तक़्नतू अच्छा है या ला-तक़्नतू

जिब्रईल

खो दिए इंकार से तू ने मक़ामात-ए-बुलंद

चश्म-ए-यज़्दाँ में फ़रिश्तों की रही क्या आबरू

इबलीस

है मिरी जुरअत से मुश्त-ए-ख़ाक में ज़ौक़-ए-नुमू

मेरे फ़ित्ने जामा-ए-अक़्ल-ओ-ख़िरद का तार-ओ-पू

देखता है तू फ़क़त साहिल से रज़्म-ए-ख़ैर-ओ-शर

कौन तूफ़ाँ के तमांचे खा रहा है मैं कि तू

ख़िज़्र भी बे-दस्त-ओ-पा इल्यास भी बे-दस्त-ओ-पा

मेरे तूफ़ाँ यम-ब-यम दरिया-ब-दरिया जू-ब-जू

गर कभी ख़ल्वत मयस्सर हो तो पूछ अल्लाह से

क़िस्सा-ए-आदम को रंगीं कर गया किस का लहू

मैं खटकता हूँ दिल-ए-यज़्दाँ में काँटे की तरह

तू फ़क़त अल्लाह-हू अल्लाह-हू अल्लाह-हू

ज़ोहद और रिंदी

इक मौलवी साहब की सुनाता हूँ कहानी

तेज़ी नहीं मंज़ूर तबीअत की दिखानी

शोहरा था बहुत आप की सूफ़ी-मनुशी का

करते थे अदब उन का अआली ओ अदानी

कहते थे कि पिन्हाँ है तसव्वुफ़ में शरीअत

जिस तरह कि अल्फ़ाज़ में मुज़्मर हों मआनी

लबरेज़ मय-ए-ज़ोहद से थी दिल की सुराही

थी तह में कहीं दुर्द-ए-ख़याल-ए-हमा-दानी

करते थे बयाँ आप करामात का अपनी

मंज़ूर थी तादाद मुरीदों की बढ़ानी

मुद्दत से रहा करते थे हम-साए में मेरे

थी रिंद से ज़ाहिद की मुलाक़ात पुरानी

हज़रत ने मिरे एक शनासा से ये पूछा

'इक़बाल ' कि है क़ुमरी-ए-शमशाद-ए-मआनी

पाबंदी-ए-अहकाम-ए-शरीअत में है कैसा

गो शेर में है रश्क-ए-कलीम-ए-हमदानी

सुनता हूँ कि काफ़िर नहीं हिन्दू को समझता

है ऐसा अक़ीदा असर-ए-फ़लसफ़ा-दानी

है उस की तबीअत में तशय्यो भी ज़रा सा

तफ़्ज़ील - ए - अली हम ने सुनी उस की ज़बानी

समझा है कि है राग इबादात में दाख़िल

मक़्सूद है मज़हब की मगर ख़ाक उड़ानी

कुछ आर उसे हुस्न - फ़रामोशों से नहीं है

आदत ये हमारे शोरा की है पुरानी

गाना जो है शब को तो सहर को है तिलावत

इस रम्ज़ के अब तक न खुले हम पे मआनी

लेकिन ये सुना अपने मुरीदों से है मैं ने

बे - दाग़ है मानिंद - ए - सहर उस की जवानी

मज्मुआ - ए - अज़्दाद है 'इक़बाल ' नहीं है

दिल दफ़्तर - ए - हिकमत है तबीअत ख़फ़क़ानी

रिंदी से भी आगाह शरीअत से भी वाक़िफ़

पूछो जो तसव्वुफ़ की तो मंसूर का सानी

उस शख़्स की हम पर तो हक़ीक़त नहीं खुलती

होगा ये किसी और ही इस्लाम का बानी

अल - क़िस्सा बहुत तूल दिया वाज़ को अपने

ता - देर रही आप की ये नग़्ज़ - बयानी

इस शहर में जो बात हो उड़ जाती है सब में

मैं ने भी सुनी अपने अहिब्बा की ज़बानी

इक दिन जो सर - ए - राह मिले हज़रत - ए - ज़ाहिद

फिर छिड़ गई बातों में वही बात पुरानी

फ़रमाया शिकायत वो मोहब्बत के सबब थी

था फ़र्ज़ मिरा राह शरीअत की दिखानी

मैं ने ये कहा कोई गिला मुझ को नहीं है

ये आप का हक़ था ज़े - रह - ए - क़ुर्ब - ए - मकानी

ख़म है सर - ए - तस्लीम मिरा आप के आगे

पीरी है तवाज़ो के सबब मेरी जवानी

गर आप को मालूम नहीं मेरी हक़ीक़त

पैदा नहीं कुछ इस से क़ुसूर - ए - हमादानी

मैं ख़ुद भी नहीं अपनी हक़ीक़त का शनासा

गहरा है मिरे बहर - ए - ख़यालात का पानी

मुझ को भी तमन्ना है कि 'इक़बाल ' को देखूँ

की उस की जुदाई में बहुत अश्क - फ़िशानी

'इक़बाल ' भी 'इक़बाल ' से आगाह नहीं है

कुछ इस में तमस्ख़ुर नहीं वल्लाह नहीं है

ज़ौक़ ओ शौक़

क़ल्ब ओ नज़र की ज़िंदगी दश्त में सुब्ह का समाँ

चश्मा - ए - आफ़्ताब से नूर की नद्दियाँ रवाँ !

हुस्न - ए - अज़ल की है नुमूद चाक है पर्दा - ए - वजूद

दिल के लिए हज़ार सूद एक निगाह का ज़ियाँ !

सुर्ख़ ओ कबूद बदलियाँ छोड़ गया सहाब - ए - शब !

कोह - ए - इज़म को दे गया रंग - ब - रंग तैलिसाँ !

गर्द से पाक है हवा बर्ग - ए - नख़ील धुल गए

रेग - ए - नवाह - ए - काज़िमा नर्म है मिस्ल - ए - पर्नियाँ

आग बुझी हुई इधर , टूटी हुई तनाब उधर

क्या ख़बर इस मक़ाम से गुज़रे हैं कितने कारवाँ

आई सदा - ए - जिब्रईल तेरा मक़ाम है यही

एहल - ए - फ़िराक़ के लिए ऐश - ए - दवाम है यही

किस से कहूँ कि ज़हर है मेरे लिए मय - ए - हयात

कोहना है बज़्म - ए - कायनात ताज़ा हैं मेरे वारदात !

क्या नहीं और ग़ज़नवी कारगह - ए - हयात में

बैठे हैं कब से मुंतज़िर अहल - ए - हरम के सोमनात !

ज़िक्र - ए - अरब के सोज़ में ,फ़िक्र - ए - अजम के साज़ में

ने अरबी मुशाहिदात , ने अजमी तख़य्युलात

क़ाफ़िला - ए - हिजाज़ में एक हुसैन भी नहीं

गरचे है ताब - दार अभी गेसू - ए - दजला - ओ - फ़ुरात !

अक़्ल ओ दिल ओ निगाह का मुर्शिद - ए - अव्वलीं है इश्क़

इश्क़ न हो तो शर - ओ - दीं बुतकद - ए - तसव्वुरात !

सिदक़ - ए - ख़लील भी है इश्क़ सब्र - ए - हुसैन भी है इश्क़ !

म 'अरका - ए - वजूद में बद्र ओ हुनैन भी है इश्क़ !

अाया - ए - कायनात का म 'अनी - ए - देर - याब तू !

निकले तिरी तलाश में क़ाफ़िला - हा - ए - रंग - ओ - बू !

जलवतियान - ए - मदरसा कोर - निगाह ओ मुर्दा - ज़ाऐक़

जलवतियान - ए - मयकदा कम - तलब ओ तही - कदू !

मैं कि मिरी ग़ज़ल में है आतिश - ए - रफ़्ता का सुराग़

मेरी तमाम सरगुज़िश्त खोए हुओं की जुस्तुजू !

बाद - ए - सबा की मौज से नश - नुमा - ए - ख़ार - ओ - ख़स !

मेरे नफ़स की मौज से नश - ओ - नुमा - ए - आरज़ू !

ख़ून - ए - दिल ओ जिगर से है मेरी नवा की परवरिश

है रग - ए - साज़ में रवाँ साहिब - ए - साज़ का लहू !

फुर्सत - ए - कशमुकश में ईं दिल बे - क़रार रा

यक दो शिकन ज़्यादा कुन गेसू - ए - ताबदार रा

लौह भी तू , क़लम भी तू ,तेरा वजूद अल - किताब !

गुम्बद - ए - आबगीना - रंग तेरे मुहीत में हबाब !

आलम - ए - आब - ओ - ख़ाक में तेरे ज़ुहूर से फ़रोग़

ज़र्रा - ए - रेग को दिया तू ने तुलू - ए - आफ़्ताब !

शौकत - ए - संजर - ओ - सलीम तेरे जलाल की नुमूद !

फ़क़्र - ए - 'जुनेद '-ओ - 'बायज़ीद 'तेरा जमाल बे - नक़ाब !

शौक़ तिरा अगर न हो मेरी नमाज़ का इमाम

मेरा क़याम भी हिजाब ! मेरा सुजूद भी हिजाब !

तेरी निगाह - ए - नाज़ से दोनों मुराद पा गए

अक़्ल ,ग़याब ओ जुस्तुजू ! इश्क़ ,हुज़ूर ओ इज़्तिराब !

तीरा - ओ - तार है जहाँ गर्दिश - ए - आफ़ताब से !

तब - ए - ज़माना ताज़ा कर जल्वा - ए - बे - हिजाब से !

तेरी नज़र में हैं तमाम मेरे गुज़िश्ता रोज़ ओ शब

मुझ को ख़बर न थी कि है इल्म - ए - नख़ील बे - रुतब !

ताज़ा मिरे ज़मीर में म 'अर्क - ए - कुहन हुआ !

इश्क़ तमाम मुस्तफ़ा ! अक़्ल तमाम बू - लहब !

गाह ब - हीला मी - बरद ,गाह ब - ज़ोर मी - कशद

इश्क़ की इब्तिदा अजब इश्क़ की इंतिहा अजब !

आलम - ए - सोज़ - ओ - साज़ में वस्ल से बढ़ के है फ़िराक़

वस्ल में मर्ग - ए - आरज़ू ! हिज्र में ल़ज़्जत - ए - तलब !

एेन - ए - विसाल में मुझे हौसला - ए - नज़र न था

गरचे बहाना - जू रही मेरी निगाह - ए - बे - अदब !

गर्मी - ए - आरज़ू फ़िराक़ ! शोरिश - ए - हाव - ओ - हू फ़िराक़ !

मौज की जुस्तुजू फ़िराक़ ! क़तरे की आबरू फ़िराक़ !

तराना- ए- मिल्ली

चीन - ओ - अरब हमारा हिन्दोस्ताँ हमारा

मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहाँ हमारा

तौहीद की अमानत सीनों में है हमारे

आसाँ नहीं मिटाना नाम - ओ - निशाँ हमारा

दुनिया के बुत - कदों में पहला वो घर ख़ुदा का

हम इस के पासबाँ हैं वो पासबाँ हमारा

तेग़ों के साए में हम पल कर जवाँ हुए हैं

ख़ंजर हिलाल का है क़ौमी निशाँ हमारा

मग़रिब की वादियों में गूँजी अज़ाँ हमारी

थमता न था किसी से सैल - ए - रवाँ हमारा

बातिल से दबने वाले ऐ आसमाँ नहीं हम

सौ बार कर चुका है तू इम्तिहाँ हमारा

ऐ गुलिस्तान - ए - उंदुलुस वो दिन हैं याद तुझ को

था तेरी डालियों में जब आशियाँ हमारा

ऐ मौज - ए - दजला तू भी पहचानती है हम को

अब तक है तेरा दरिया अफ़्साना - ख़्वाँ हमारा

ऐ अर्ज़ - ए - पाक तेरी हुर्मत पे कट मरे हम

है ख़ूँ तिरी रगों में अब तक रवाँ हमारा

सालार - ए - कारवाँ है मीर - ए - हिजाज़ अपना

इस नाम से है बाक़ी आराम - ए - जाँ हमारा

'इक़बाल 'का तराना बाँग - ए - दरा है गोया

होता है जादा - पैमा फिर कारवाँ हमारा


7