वहाबियत और उसकी असलियत
مَن قَتَلَ نَفْسًا بِغَيْرِ نَفْسٍ أَوْ فَسَادٍ فِي الأَرْضِ فَكَأَنَّمَا قَتَلَ النَّاسَ جَمِيعًا وَمَنْ أَحْيَاهَا فَكَأَنَّمَا أَحْيَا النَّاسَ جَمِيعًا
मायदा- 32
कुरआन कहता है कि अगर कोई किसी को जुर्म किये बिना क़त्ल कर दे तो ऐसा ही है से इसने सभी को क़त्ल कर दिया हो और अगर कोई ज़िन्दा करदे तो ऐसा ही है जैसे उसने सभी को ज़िन्दा कर दिया।
ईरान में इस्लामी क्रान्ति के सफल होने के बाद इस्लाम के दुश्मन इसको ख़त्म करने के लिऐ जमा हो गये ताकि इस्लाम को मिटा दों इसके लिऐ उन्होंने ईरान को भी निशाना बनाया क्योंकि यह क्रान्ति ईरान में आई थी। इसके लिऐ पहला काम तो ये किया की ईरान के विरूध जंग छेड़ दी दूसरा काम ये किया कि ईरान को आतंकवाद का गढ़ बता कर क्षेत्र में ख़ौफ पैदा कर दिया। जिससे लोग इस क्रान्ति से दूर रहें परन्तु ऐसा हो न सका और दुश्मन को इसमें सफलता न मिल सकी।
दुश्मन को जब इसमें सफलता न मिल सकी तो उसने मुसलमानो को कमज़ोर करने के लिऐ मुसलमानो में फूट डाल कर एक दूसरे से अलग कर दिया , अब एक मुसलमान को दूसरे की ख़बर नही है वो किस हालत में है , एक देश को दूसरे की ख़बर नही है वो किन कठिनाईयों का सामना कर रहा है जबकि हज़रत मुहम्मद (स) की हदीस है आप फरमाते हैः
من سمع مسلما ینادی یا للمسلمین فلم یجبه فلیس بمسلم
अगर कोई मुसलमान किसी दूसरे मुसलमान भाई की आवाज़ सुने कि वो उसको सहायता के लिऐ बुला रहा है और वो उसकी सहायता न करे तो वो मुसलमान नही है।
इस हदीस में तो मुसलमान आया है कि अगर एक मुस लमान सहायता के लिए बुलाये और वो उसकी सहायता न करे तो वो मुसलमान नही है। दूसरी हदीस में तो ये है कि अगर बुलाने वाला मुसलमान न भी हो तब भी अगर एक मुसलमान उसकी सहायता न करे तब भी वो मुसलमान नही है। हज़रत मुहम्मद (स) फरमाते हैः
من سمع رجلاً ینادی یا للمسلمین فلم یجبه فلیس بمسلم
इस हदीस से ये बात समझ में आती है कि मुसलमान वही है जो दूसरो कि सहायता करता है , यहीं से ये बात भी समझ में आती है कि मुसलमान किसी को नुक़सान नही पहुँचाता , अब अगर कोई किसी को नुक़सान पहुँचाकर ये समझता रहे कि वो मुसलमान है तो ये ग़लत है , इस हदीस के आधार पर वो मुसलमान नहीं हो सकता।
यहीं से ये बात भी समझ में आती है कि कोई भी मुसलमान आतंकवादी नहीं होता , अगर कोई आतंक फैला रहा हो वो कुछ भी हो मुसलमान नही है , वो इस्लाम और मुसलमानो को बदनाम करना चाहता है। आतंकवाद का इस्लाम से कोई लेना देना नहीं है , आज जो लोग मुसलमानों को आतंकवादी कह रहे हैं उन्हें इस्लाम के बारे में पढ़ना चाहिये फिर फैसला करें कि कौन आतंकवादी है।
मुसलमानों ने कभी भी कोई युध आरम्भ नहीं किया , संसार में जितने भी युध हुऐ हैं चाहे किसी भी युध को लेंलें उससे इस्लाम और मुसलमानों का कोई सम्बन्ध नहीं है , फिर भी मुसलमानों को बदनाम किया जा रहा है , जबकि वो लोग जो एक दूसरे पर चढ़ाई करके हज़ारो और लाखों लोगों का सामूहिक नरसंहार कर देते हैं उन्हें कोई कुछ नही कहता , विनाशकारी हथियार बनाने वालों को कोई कुछ नहीं कहता , मुसलमानों को एक जुट हो कर इसका सामना करना होगा।
अगर मुसलमान एक जुट हो जाऐ तो इस बदनामी से निपटा जा सकता है परन्तु आज मुसलमान फूट का शिकार होकर आपस में लड़ रहे हैं , एक दूसरे को काफिर कह रहे हैं , एक दूसरे को क़त्ल कर रहे हैं , मुसलमान , अपने मुसलमान भाई का सिर काट कर ख़ुश हो रहा है , जबकि इस्लाम ये नही सिखाता , हदीस तो ये कहती है कि अगर कोई मुसलमान किसी दूसरे मुसलमान भाई को सहायता के लिऐ बुला रहा है तो हर मुसलमान का कर्तव्य है कि उसकी सहायता करे अगर उसकी सहायता न करे तो वो मुसलमान कहलाने का हक़दार नही है।
आज फिलिस्तीन से ले कर सिरिया , यमन , ईराक़ अफग़ानिस्तान , पाकिस्तान.... .............में मुसलमान , मुसलमान से लड़ रहा है और यह नहीं समझ रहे कि ये दुश्मन की चाल है , दुश्मन यही तो चाहता है कि हम आपस ही में लड़ते रहे और वो अपना काम आराम से करते रहें।
इस्लाम के दुश्मनों ने जब देखा कि जब मुसलमान आपस में लड़ रहे हैं तो उन्होंने भी इससे लाभ उठाया और हथियारों की सप्लाई आरम्भ कर दी , जिससे उन्हें आर्थिक लाभ भी हुआ और मुसलमान भी कमज़ोर होते रहे , अगर मुसलमानों की अब भी आँख नही खुली तो भविष्य में भी कमज़ोर होते रहेंगे।
इस्लाम के दुश्मनों ने इस्लाम को मिटाने के लिऐ अलग अलग तरीकों नये नये हमले किये उन्होंने इस्लामी कानून को बदलना आरम्भ कर दिया जिससे इस्लाम का चेहरा बदला जा सके जैसे कि जिहाद का अर्थ ही बदल डाला , इस कार्य में कुछ अनपढ़ मुसलमानों ने उन का साथ भी दिया जिससे उनका कार्य और भी आसान हो गया , तालिबान , अलक़ायदा और आज के समय में वहाबियत इसका उदाहरण हैं जिन्होंने उनका काम और भी आसान कर दिया। इन लोगों ने इस्लाम का मुखौटा लगा कर इस्लाम को नुक़सान पहुँचाया है , आज इस्लामी देशो में क्या कुछ नहीं हो रहा , आज फिलिस्तीन , मिस्र , सिरिया , यमन , ईराक़ अफग़ानिस्तान और पाकिस्तान इसी का शिकार हैं।
पहले तो यह था कि हम केवल सुनते थे कि इन्होंने वहाँ पर ऐसा कर दिया , वहाँ पर ऐसा कर दिया , इनके फत्वे भी बड़े अजीब ग़रीब होते हैं , परन्तु आज हम देख भी रहे हैं , बात फत्वों की नहीं है आज इन पर अमल भी किया जा रहा है , सिरिया में पाक सहाबा का मज़ार उड़ा दिया गया
ईराक़ में धार्मिक स्थलों को बम से उड़ाया गया , एक मुसलमान अल्लाहो अकबर कह कर दूसरे मुसलमान का सिर काट रहा है , उसका सीना चाक करके उसका कलेजा चबा रहा है जैसे कि हुज़ूर (स) के चचा हज़रत हमज़ा का कलेजा चबाया गया था।
क्या ऐसे लोग मुसलमान हो सकते हैं ? कभी नहीं , इनके कार्यों को देख कर हर व्यक्ति दाँतों में उगंली दबा लेगा , ये लोग इन्सान नहीं हैं।
अजीब बात यह है कि यह लोग अपना ख़ौफलाक चेहरा स्वयँ दूसरों को सामने पेश कर रहे हैं अपने अमानवीय कार्यों के वीडियो क्लिप स्वयँ ही इन्टरनेट पर डाल रहे हैं जो की अगर कोई दूसरा व्यक्ति यह कार्य करना चाहता तो अरबो डालर ख़र्च करके भी नहीं कर सकता था जो इन्होंने स्वयँ कर दिया।
शायद इनके ऐसे कार्यों को देख कर ही इमाम ख़ुमैनी ने कहा था कि हम अमेरिका और सद्दाम को तो माफ कर सकते हैं आले सऊद को नहीं , जबकि सद्दाम ने ईरान पर हमला किया था और अमेरिका ने उसको हथियार दिये थे और ईरान के एक जहाज़ को बम से उड़ा कर 250 से अधिक लोगों को मार दिया था , फिर भी इनको माफ किया जा सकता है तो आले सऊद को क्यों नही ? वो इसलिऐ कि इन्होंने इस्लाम के क़ानूनों को अपने पैरों से रौंध डाला है , हज में हाजियों को क़त्ल कर डाला जहाँ पर एक चींटी को मारने की भी आज्ञा नहीं है।
ऐसे कार्यों को जब कोई दूसरा देखेगा तो इस्लाम से नफरत करने लगेगा यह लोग कार्य ही ऐसे कर रहे हैं اللہ اکبر और لا الھ الا اللہ कह कर मुसलमान का सिर काट रहे हैं , यह क्लिप जब कोई दूसरा देखेगा तो इस्लाम से नफरत करेगा , मुसलमानों को आतंकवादी हा कहेगा।
जब इस्राईल ने देखा कि उसका नील से फरात तक का सपना चकनाचूर हो गया तो उसने मुसलमानों को आपस में लड़ा दिया , वहाबियों के द्वारा सिरिया और मिस्र में नाअमनी फैला दी , इसी से पता चलता है कि वहाबियों का लिंक किससे है , किसने इनको पाला है।
बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि वो लोग जो अपने आप को इस्लाम का धर्म प्रचारक कहते हैं और न जाने कितना पैसा इस्लाम के प्रचार पर ख़र्च करते हैं वही लोग इस्लाम को सबसे अधिक नुक़सान पहुँचा रहे हैं , यही लोग ऐकेश्वरवाद की जगह बहुईश्वर वाद लोगो तक पहुँचा रहे हैं , सहाबा का अपमान भी यही लोग कर रहे हैं , सिरिया और मिस्र में यह लोग क्या कुछ नही कर रहे जबकि वहाँ पर कुछ नही करना चाहिये था , फिलिस्तीन के लिऐ कुछ नहीं किया जबकि वहाँ पर कुछ न कुछ अवश्य करना चाहिये था।
इनके सामने एक एक मुसलमान को खड़ा होना चाहिऐ बात शियों तक सिमित नही यह लोग सहाबा का अपमान कर रहे हैं अगर इनको ना रोका गया तो कल जो भी इनकी बात नहीं मानेगा उसको क़त्ल कर देंगे , यह लोग पैसों के लिऐ काम करते हैं।
रिवायतों में है कि जब सुफयानी आयेगा तो वो शियों को क़त्ल करने के लिऐ इनाम रखेगा कि जो कोई भी एक शिया का सिर काट कर लायेगा उसको इनाम दिया जायेगा , इसमें पहले तो शिया ही मारे जायेंगे परन्तु बाद में दूसरे लोग भी नही बच पायेंगे पैसों के लिऐ उनका सिर काटा जायेगा और कहा यह जायेगा कि यह भी शिया थे जो तक़इय्या कर रहे थे , इनका बस चले तो यह लोग हुज़ुर (स) का मज़ार भी तोड़ डालें क्योंकि यह लोग हुज़ुर (स) के मज़ार की ज़ियारत करने को शिर्क समझते हैं , उसको चूमने को शिर्क समझते हैं , वहाँ मन्नत माँगने को शिर्क समझते हैं।
मिस्र में इन्होंने हसन शहाता को शहीद कर दिया जबकि हसन शहाता एक सच्चे मुसलमान ही नही बल्कि आप मिस्र के अल-अज़हर विश्वविद्दालय के बड़े विद्धानो में से थे , उन पर 2000 से अधिक लोगों ने हमला करके शहीद कर दिया , आपके शव का भी अपमान किया गया उसको रस्सी में बाँध कर गलियों में खींचा गया , इसको देख कर करबला याद आ जाती है , करबला में भी यही कुछ हुआ था वहाँ पर भी लाशों का अपमान किया गया था वहाँ पर एक नही बल्कि 72 शव थे जिनका अपमान किया गया था।
सिरिया में " हलब " शहर के उत्तरी उपनगर में शिया आबादी वाले दो गांव "नबल" और " अल-ज़हरा " पर इन्होंने हमला करके घेर लिया है , नबल और अल-ज़हरा लगभग 10 महीनों से आतंकवादियों के घेरे में हैं और इस घेरे के चालू रहने से वहाँ के नागरिकों के लिऐ इस क्षेत्र में जीवन व्यतीत करना कठिन हो गया है क्योंकि इन दोनों गावों में दवा और खाद्द सामग्री का नामोनिशान तक नही है , वहाँ के लोग खाने और पानी के लिऐ तरस रहे हैं , यह मानव त्रासदी नही तो और क्या है।
यह लोग एक बच्चे के हाथ में तलवार देकर कहते हैं कि इसका सिर काट दे , यह बच्चा आगे चल कर एक क्रूर व्यक्ति के सिवा ।।क्या बन सकता है
एक 3 या 4 वर्ष के बच्चे के सामने उसके माता पिता को मार देते हैं उस बच्चे का क्या होगा
यह लोग ना बच्चों पर रहम खाते हैं ना बड़ों पर , ना औरतों पर रहम खाते हैं ना किसी और पर , इन्होंने एक 3 वर्ष के बच्चे को फाँसी पर चढ़ा दिया ,एक बच्चे को दज्जाल कह कर मार डाला , यह लोग सिरिया में हुज़ुर (स) की नवासी हज़रत ज़ैनब (स) के मज़ार को उड़ाने की धमकी दे चुके हैं।
इन सब चीज़ों को देखते हुए हर व्यक्ति इनसे नफरत करने लगा है , इन्होंने जिहादे निकाह के नाम पर स्त्रीयों का शोषण किया और अभी तक हो भी रहा है , इन्होंने जिहादे निकाह के नाम पर विश्व के सारे आवारा स्त्री पुरूष सिरिया में जमा कर दिये है।
यही कारण है कि ट्यूनीशिया की कुछ स्त्रीयों ने जब इनके इन करतूतों को देखा कि यह लोग किस प्रकार स्त्रीयों का शोषण कर रहे हैं तो उन्होंने स्त्रीयों की एक फोर्स बनाई जो नंगी रहती हैं जो हर प्रकार से इस्लाम धर्म का अपमान करती है ??????
उनके इस कार्य का उत्तरदायी कौन होगा
सिरिया में फौज के हाथों पकड़ा गया एक आतंकी कहता है कि हमें एक शिया का सिर काटने के लिऐ 700 डालर दिये जाते थे।
इन सब बातों को देखते हुऐ हर मुसलमान का कर्तव्य है कि वो इनके विरूध आवाज़ उठायेः
आतंकवादियो के विरूध
उलटे सीधे फतवे देने वाले मुफतियों के विरूध
जो इन आतंकवादियो की सहायता कर रहे हैं उनके विरूध
अन्त में हम इमामे ज़माना के ज़ूहुर के लिऐ अल्लाह से दुआ और प्रार्थना करते हैं कि आपका ज़ूहुर शीघ्र हो जाऐ जिससे सभी लोग चैन की साँस ले सकें।
वहाबियत और मक़बरों का निर्माण
पैग़म्बरों , ईश्वरीय दूतों और महान हस्तियों की क़ब्रों पर मज़ार एवं मस्जिद का निर्माण वह कार्य है जिसके बारे में वहाबी कहते हैं कि यह चीज़ धर्म में नहीं है और इसके संबंध में वे अकारण ही संवेदनशीलता दिखाते हैं। यह बात सबसे पहले वहाबियत की बुनियाद रखने वाले इब्ने तैय्मिया और उसके पश्चात उसके शिष्य इब्ने क़य्यम जौज़ी ने कही। उन्होंने क़ब्रों के ऊपर इमारत निर्माण करने को हराम और उसके ध्वस्त करने को अनिवार्य होने का फतवा दिया। इब्ने क़ैय्यम अपनी किताब " “ज़ादुल माअद फी हुदा ख़ैरिल एबाद" ” में लिखता है क़ब्रों के ऊपर जिस इमारत का निर्माण किया गया है उसका ध्वस्त करना अनिवार्य है और इस कार्य में एक दिन भी विलंब नहीं किया जाना चाहिये। इस आधार पर मोहम्मद इब्ने अब्दुल वह्हाब द्वारा भ्रष्ठ वहाबी पंथ की बुनियाद रखे जाने और सऊद परिवार द्वारा उसके समर्थन के बाद पवित्र स्थलों व स्थानों पर भारी पैमाने पर आक्रमण किये गये और वहाबियों ने महत्वपूर्ण इस्लामी स्थलों को ध्वस्त करना आरंभ कर दिया। वर्ष १३४४ हिजरी क़मरी अर्थात १९२६ में वहाबियों द्वारा पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों और साथियों की क़ब्रों के ऊपर बने मज़ारों को ध्वस्त किये जाने को सबसे अधिक दुस्साहसी कार्य समझा जाता है जबकि वहाबी और उनके विद्वान आज तक अपने इस अमानवीय कृत्य का कोई तार्किक व धार्मिक कारण पेश नहीं कर सके हैं।
इस्लाम धर्म की निशानियों की सुरक्षा और उनका सम्मान महान ईश्वर की सिफारिश है। पवित्र क़ुरआन के सूरये हज की ३२वीं आयत में महान ईश्वर ने ईश्वरीय चिन्हों की सुरक्षा के लिए मुसलमानों का आह्वान किया है। इस संबंध में महान ईश्वर कहता है ” जो भी ईश्वर की निशानियों व चिन्हों को महत्व दे तो यह कार्य दिलों में ईश्वरीय भय होने का सूचक है ” जिस तरह से सफा , मरवा , मशअर , मिना और हज के समस्त संस्कारों को ईश्वरीय निशानियां बताया गया है उसी तरह पैग़म्बरों और महान हस्तियों की क़ब्रों का सम्मान भी ईश्वरीय धर्म इस्लाम के आदेशों का पालन है और यह कार्य महान ईश्वर से सामिप्य प्राप्त करने के परिप्रेक्ष्य में है। क्योंकि पैग़म्बरे इस्लाम और दूसरे पैग़म्बर व ईश्वरीय दूत ज़मीन पर महान व सर्वसमर्थ ईश्ववर की सबसे बड़ी निशानी थे और इन महान हस्तियों के प्रति आदरभाव एवं उनकी प्रतिष्ठा का एक तरीक़ा उनकी क़ब्रों की सुरक्षा है। दूसरी ओर पैग़म्बरों और महान हस्तियों की क़ब्रों की सुरक्षा एवं उसका सम्मान , इस्लाम धर्म के प्रति मुसलमानों के प्रेम , लगाव और इसी तरह इन महान हस्तियों द्वारा उठाये गये कष्टों के प्रति आभार व्यक्त करने का सूचक है। पवित्र क़ुरआन ने भी इस कार्य को अच्छा बताया है और समस्त मुसलमानों को आदेश दिया है कि वे न केवल पैग़म्बरे इस्लाम बल्कि उनके पवित्र परिजनों से भी प्रेम करें। पवित्र क़ुरआन के सूरये शूरा में महान ईश्वर कहता है" ” हे पैग़म्बर कह दो कि मैंने जो ईश्वरीय आदेश तुम लोगों तक पहुंचाया है उसके बदले में मैं अपने निकट संबंधियों से प्रेम करने के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहता ” "
अब यहां पर पूछा जाना चाहिये कि क्या पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों की रचनाओं , उनके जीवन स्थलों और उनकी क़ब्रों की सुरक्षा उनके प्रति सम्मान नहीं है ?
यहां यह जानना रोचक होगा कि पवित्र क़ुरआन में भी न केवल इन निशानियों की सुरक्षा की सिफारिश की गयी है बल्कि पवित्र क़ुरआन ने क़ब्रों के ऊपर इमारतों के निर्माण को वैध भी बताया है। इस बात को "असहाबे कहफ़" की एतिहासिक घटना में भी देखा जा सकता है। जब असहाबे कहफ तीन सौ वर्षों के बाद नींद से जागे और उसके कुछ समय के पश्चात वे मर गये तो दूसरे लोग आपस में बात कर रहे थे कि उनकी क़ब्र के ऊपर इमारत का निर्माण किया जाये या नहीं। उनमें से कुछ लोगों ने कहा कि इन लोगों के सम्मान के लिए उनकी कब्रों के ऊपर इमारत का निर्माण करना आवश्यक है जबकि कुछ दूसरे कह रहे थे कि उनकी क़ब्रों पर मस्जिद का निर्माण किया जाना चाहिये ताकि उनकी याद बाक़ी रहे। इस विषय का वर्णन पवित्र क़ुरआन के सूरये कहफ की २१वीं आयत में भी आया है जो इस बात का सूचक है कि ब्रह्मांड के रचयिता को भले लोगों की क़ब्रों के ऊपर इमारत के निर्माण से कोई विरोध नहीं है क्योंकि यदि यह विषय सही नहीं होता तो निश्चित रूप से इसका वर्णन पवित्र कुरआन में होता। जैसाकि महान ईश्वर ने ईसाईयों और यहूदियों सहित पिछली कुछ जातियों के व्यवहार को नकारा और उसे सही नहीं बताया है।
उदाहरण स्वरूप महान ईश्वर पवित्र कुरआन के सूरये हदीद की २७वीं आयत में कहता ” है" जिस सन्यास को ईसाईयों ने उत्पन्न किया था हमने उसे अनिवार्य नहीं किया था यदि अनिवार्य किया था तो केवल ईश्वर की प्रसन्नता के लिए परंतु उन्होंने उसका वैसा निर्वाह नहीं किया जैसा निर्वाह करना चाहिये था" यदि ईश्वर महान हस्तियों एवं अपने दूतों की क़ब्रों पर इमारत या मस्जिद बनाये जाने का विरोधी होता तो निश्चित रूप से वह इस विषय का इंकार पवित्र क़ुरआन में करता और इसे अप्रिय कार्य घोषित करता।
अच्छे व भले लोगों की क़ब्रों पर इमारत या मज़ार का निर्माण प्राचीन समय से मुसलमानों से मध्य प्रचलित रहा है और उसके चिन्हों को समस्त इस्लामी क्षेत्रों में देखा जा सकता है। शीया मुसलमानों ने पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों की क़ब्रों पर रौज़ों एवं ज़रीह अर्थात विशेष प्रकार की जाली का निर्माण किया। सुन्नी मुसलमानों ने भी शहीदों और अपनी सम्मानीय हस्तियों की क़ब्रों पर गुंम्बद का निर्माण करवाया तथा उनके दर्शन के लिए जाते हैं। सीरिया के दमिश्क नगर में जनाबे ज़ैनब सलामुल्लाह का पवित्र रौज़ा , मिस्र में वह रौज़ा जहां हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के पावन सिर को दफ्न किया गया है , इराक के बग़दाद नगर में अबु हनीफा और अब्दुल क़ादिर गीलानी का मज़ार , समरकन्द में सुन्नी मुसलमानों की प्रसिद्ध पुस्तक ” सही बुखारी के लेखक मोहम्मद बिन इस्माईल का मज़ार और महान हस्तियों की समाधियों के ऊपर बहुत सारी मस्जिदें व इमारतें इसके कुछ नमूने हैं। महान हस्तियों और धार्मिक विद्वानों की समाधियों के पास पवित्र स्थलों एवं मस्जिदोंका निर्माण इस्लामी मूल्यों की सुरक्षा एवं उनके प्रति मुसलमानों के कटिबद्ध रहने का सूचक है। मुसलमान/ विशेषकर पैग़म्बरे इस्लाम , ईश्वरीय दूतों और महान हस्तियों की क़ब्रों के दर्शन को महान ईश्वर से सामिप्य प्राप्त करने का एक मार्ग समझते हैं और इस दिशा में वे प्रयास करते हैं। इस मध्य पथभ्रष्ठ और रूढ़िवादी विचार रखने वाला केवल वहाबी पंथ है जो दूसरे समस्त मुसलमानों से विरोध और इस्लामी क्षेत्रों में पवित्र स्थलों व स्थानों को ध्वस्त करने का प्रयास करता है। पैग़म्बरे इस्लाम के सुपुत्र हज़रत इब्राहीम की क़ब्र और उस मस्जिद को ध्वस्त कर देना , जिसे पैग़म्बरे इस्लाम के चाचा हज़रत हमज़ा की क़ब्र पर बनाया गया है , वे कार्य हैं जो महान हस्तियों की क़ब्रों पर बनाई गयी इमारतों के प्रति वहाबियों की उपेक्षा और उनके अपमान व दुस्साहस के सूचक हैं। वहाबिया ने अपने इन कार्यों से करोड़ों मुसलमानों की आस्थाओं को आघात पहुंचाया है और अपने घृणित कार्यों के औचित्य में कमज़ोर रवायतों व कथनों का सहारा लेते और उनकी ओर संकते हैं। मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के अनुयाईयों ने न केवल इन पवित्र स्थलों को ध्वस्त किया है बल्कि इससे भी आगे बढ़कर कहा है कि जो लोग महान हस्तियों की क़ब्रों की ज़ियारत करते हैं और उनकी क़ब्रों पर इमारत का निर्माण करते हैं वे काफिर व अनेकेश्वरवादी हैं। अलबत्ता इस पथभ्रष्ठ सम्प्रदाय से , जिसके पास कोई तर्कसम्मत प्रमाण नहीं है , इस प्रकार के कार्य व विश्वास अपेक्षा से परे नहीं हैं। इस पथभ्रष्ठ सम्प्रदाय के विश्वासों का बहुत सतही होना , रूढ़िवाद और पक्षपात इसकी स्पष्ट विशेषताओं में से हैं और इस पथभ्रष्ठ सम्प्रदाय के विचारों में बुद्धि , सोच विचार और तर्क का कोई स्थान नहीं है।
मुसलमानों के लिए पैग़म्बरों , ईश्वरीय दूतों और महान हस्तियों की क़ब्रों की सुरक्षा न केवल सम्मानीय है बल्कि मुसलमानों के लिए उन घरों व स्थानों की सुरक्षा और उनका सम्मान विशेष महत्व रखता है जिसमें पैग़म्बरे इस्लाम और दूसरी महान हस्तियां रही हैं। महान ईश्वर ने भी पवित्र क़ुरआन में सबका आह्वान किया है कि उन स्थानों की सुरक्षा की जाये जिसमें उसका गुणगान किया गया हो और मुसलमान इन स्थानों का सम्मान करें। तो मस्जिदों और पैग़म्बरों के घरों की भांति पैग़म्बरे इस्लाम , हज़रत अली अलैहिस्सलाम , हज़रत फातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा और उनके निकट संबंधियों के मकान भी प्रतिष्ठित हैं क्योंकि ये वे घर हैं जहां ईश्वर के भले बंदों की उपासना एवं दुआ की आध्यात्मिक एवं मधुर ध्वनि गूंजी थी और ये वे स्थान हैं जहां फरिश्ते आवा-जाही करते थे। दूसरी ओर इन मूल्यवान धरोहरों की रक्षा से धर्म इस्लाम की विशुद्धता में वृद्धि होती है। यदि इन इमारतों और यादगार चीज़ों की अच्छी तरह देखभाव व सुरक्षा की जाये तो मुसलमान खुले मन बड़े गर्व से विश्व वासियों से कह सकते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम ने मनुष्यों के मार्गदर्शन के लिए अनगिनत कठिनाइयां उठाई हैं। उन्होंने इसी साधारण और छोटे से घर में जीवन बिताया है , यही घर उनकी उपासना एवं दुआ का स्थल है परंतु बड़े खेद व दुःख के साथ कहना पड़ता है कि इन मूल्यवान अवशेषों व धरोहरों को वहाबियों ने ध्वस्त करके उनकी प्रतिष्ठा को बर्बाद कर दिया। यह ऐसी स्थिति में है कि इस पथभ्रष्ठ सम्प्रदाय के अस्तित्व में आने से पहले मुसलमानों ने पैग़म्बरे इस्लाम और दूसरे ईश्वरीय दूतों व महान हस्तियों की यादों की सुरक्षा के लिए बहुत प्रयास किया व कष्ट कष्ट किया था।
उदाहरण स्वरूप पैग़म्बरे इस्लाम की जीवनी से संबंधित पुस्तक के अतिरिक्त अंगूठी , जूता , दातून , तलवार और कवच जैसी पैग़म्बरे इस्लाम की व्यक्तिगत वस्तुओं यहां तक कि उस कुएं को भी सुरक्षित रखा गया था जिसमें से पैग़म्बरे इस्लाम ने पानी पिया था परंतु खेद की बात है कि इनमें से कुछ ही चीज़ें बाक़ी हैं। वहाबियों द्वारा इस्लामी इतिहास की महत्वपूर्ण चीज़ों को नष्ट करना वास्तव में पुरातत्व अवशेषों को मिटाना है जबकि समस्त राष्ट्र और धर्म विभिन्न व प्राचीन मूल्यों को सुरक्षित रखे हुए हैं और उसे वे अपनी प्राचीन संस्कृति का भाग बताते हैं। वहाबी , सोचे बिना और केवल अपनी भ्रांतियों के आधार पर मूल्यवान इस्लामी मूल्यों व धरोहरों को नष्ट कर रहे हैं। यह ऐसी स्थिति में है जब अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनों के आधार पर इस प्रकार की मूल्यवान इमारतों को युद्ध की स्थिति में भी नष्ट करना वैध व सही नहीं है। यहां रोचक बिन्दु यह है कि जहां भ्रष्ठ वहाबी संप्रदाय ने पैग़म्बरे इस्लाम , उनके निकट संबंधियों , साथियों तथा दूसरी मूल्यवान वस्तुओं को नष्ट कर दिया है वहीं यह धर्मभ्रष्ठ संप्रदाय इस्लाम और मुसलमानों के शत्रुओं के ख़ैबर नाम के दुर्ग को पवित्र नगर मदीना के पास यह कह कर रक्षा कर रहा है कि यह एक एतिहासिक धरोहर है।
वहाबियत और शिफ़ाअत
इस्लाम धर्म में शिफ़ाअत ईश्वर की ओर से मनुष्यों पर एक विभूती बतायी गयी है। जिन लोगों ने उपासना के बंधन को नहीं तोड़ा है और अनेकेश्वरवाद का शिकार नहीं हुए हैं , ईश्वर के निकटवर्ती बंदों की शिफ़ाअत उनके लिए आशा की किरण है जो निराशा को उनके दिलों से दूर करती है और ईश्वरीय दया की ओर उनके दिलों को प्रेरित व उत्साहित करती है किन्तु शिफ़ाअत के विषय में विदित रूप से इस्लाम की ओढ़नी ओढ़े कुछ संप्रदायों की भ्रांतियां वह विषय है जिसकी समीक्षा करना अतिआवश्यक है।
पिछले कार्यक्रम में शिफ़ाअत के विषय को नकारने के संबंध में वहाबियों की ओर से प्रस्तुत किए गये कुछ तर्कों को पेश किया और सुन्नी समुदाय की मान्यता प्राप्त पुस्तकों से प्रमाण और क़ुरआनी तर्कों को पेश करके इन भ्रांतियों का ठोस उत्तर दिया। इस कार्यक्रम में भी हम आपको यह बताएंगे कि किन तर्कों के कारण वहाबी शिफ़ाअत के विषय का विरोध करते हैं और उसका तर्कसंगत उत्तर आपके सामने पेश करेंगे। कृपया हमारे साथ रहिए।
वहाबियों का यह मानना है कि पवित्र क़ुरआन के स्पष्ट आदेशानुसार दुआ के समय ईश्वर के अतिरिक्त किसी और से दुआ नहीं करनी चाहिए और ईश्वर के अतिरिक्त किसी और से शिफ़ाअत की मांग करना वास्तव में ईश्वर के अलावा किसी और से अपनी मांगें मांगना है। वहाबी अपनी इस बात के लिए सूरए जिन्न की आयत संख्या 18 की ओर संकेत करते हैं जिसमें आया है कि ईश्वर के अतिरिक्त किसी और से न मांगो। इसी प्रकार सूरए ग़ाफ़िर की आयत संख्या 60 में आया है कि मुझसे दुआ करो मैं स्वीकार करूंगा।
सूरए जिन्न की अट्ठारहवीं आयत में पवित्र क़ुरआन मुसलमानों से मांग करता है कि ईश्वर के अतिरिक्त किसी और से न मांगो , इस प्रकार से उसने ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य की उपासना के विषय को प्रस्तुत किया है क्योंकि ईश्वर के अतिरिक्त किसी और की उपासना और उसके लिए सजदा और रूकअ करना , अनकेश्वरवाद है और इस कार्य को अंजाम देने वाला अनेकेश्वरवादी होगा किन्तु यहां पर यह बात स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि ईश्वर के निकटवर्ती बंदों से शिफ़ाअत की इच्छा , उनकी उपासना के अर्थ में नहीं है बल्कि जो भी शिफ़ाअत की इच्छा रखता है उसे यह पूर्ण रूप से ज्ञात होता है कि केवल ईश्वर की अनुमति से ही शिफ़ाअत संभव है। इस प्रकार के लोग ईश्वर के निकटवर्ती लोगों और सच्चे , निष्ठावान और मोमिन बंदों को मध्यस्थ बनाते हैं ताकि वे ईश्वर के निकट उसके लिए दुआ करें क्योंकि ईश्वर अपने पैग़म्बरों और निकटवर्ती बंदों की दुआओं को कभी भी रद्द नहीं करता।
यदि कोई व्यक्ति ईश्वरीय दूतों से यह चाहे कि वे उसके लिए दुआ करें ताकि ईश्वर उसके पापों को क्षमा कर दे या उसके मन की इच्छा को पूरा कर दे तो उसने कभी भी ईश्वरीय दूतों को ईश्वर के समान नहीं समझा बल्कि केवल उसने उन्हें मध्यस्थ बनाया है। इस्लाम धर्म के प्रसिद्ध विद्वान और पवित्र क़ुरआन के व्याख्याकार अल्लामा तबातबाई इस आस्था के संबंध में कहते हैं कि इमाम से अपनी मांगों का मांगना उसी समय अनेकेश्वरवाद समझा जाएगा जब दुआ मांगने वाला इमाम को ईश्वर की भांति प्रभावी और अपार शक्ति का स्वामी समझे किन्तु उसे यह ज्ञात है कि समस्त चीज़ें ईश्वर के हाथ में है और केवल वही प्रभावी है , इमाम को केवल मध्यस्था या माध्यम समझता है , तो इसमें अनेकेश्वरवाद की कोई बात ही नहीं है।
अब्दुल वह्हाब की ओर से इस्लाम के नाम पर फैलायी गयीं भ्रष्ट आस्थाएं , इस्लाम धर्म की मान्यता प्राप्त हदीसों , कथनों और शिक्षाओं से बहुत ही सरलता से अपमानित और खंडित हो जाती हैं। वास्तविकता यह है कि मुहम्मद इब्ने अब्दुल वह्हाब और इसी प्रकार इब्ने तैमिया उपासना की गहराई को समझ ही नहीं सके हैं। उन्होंने यह समझा या यह दिखाने का प्रयास किया कि ईश्वर के सच्चे और शिष्टाचारी बंदों से शिफ़ाअत की मांग करना , उनकी उपासना के अर्थ में है। उन्हें ज्ञात ही नहीं है कि मूल उपासना , ईश्वर के समक्ष पूर्ण रूप से विनम्र और नतमस्तक होना है और शालीन व योग्य लोगों के सम्मान और उनसे विनम्रभाव से दुआ करने की गणना उपासना में नहीं होती। विशेषकर यदि यह लोग ईश्वरीय दूत और पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजन हों , जो स्वयं ईश्वर की उपासना और आज्ञापालन के आदर्श हैं।
वहाबियों ने शिफ़ाअत की रद्द में जो तर्क प्रस्तुत किए हैं उनमें से एक यह है कि उनका मानना है कि शिफ़ाअत का अधिकार केवल ईश्वर को है और उसके अतिरिक्त किसी को भी इस प्रकार का अधिकार प्राप्त नहीं है। उन्होंने अपने दावे की पुष्टि के लिए पवित्र क़ुरआन के सूरए ज़ुमर की आयत संख्या 43 और 44 को पेश किया जिसमें आया है कि क्या उन लोगों ने ईश्वर को छोड़कर सिफ़ारिश करने वाले चुन लिए हैं तो आप उनसे कह दीजिए कि ऐसा क्यों है , चाहे इन लोगों के बस में कुछ न भी हो और किसी प्रकार की बुद्धि न रखते हों ? आप कह दीजिए कि शिफ़ाअत का पूरा अधिकार अल्लाह के हाथों में है , उसी के पास धरती और आकाश का सारा प्रभुत्व है और इस के बाद तुम भी उसी की ओर पलटाए जाओगे।
इस आयत का यह तात्पर्य नहीं है कि आप कहें कि केवल और केवल ईश्वर ही शिफ़ाअत करता है और किसी को शिफ़ाअत करने का अधिकार नहीं है क्योंकि इस बात में कोई संदेह नहीं है कि सैद्धांतिक रूप से ईश्वर कभी भी किसी की किसी के निकट सिफ़ारिश नहीं करता , ईश्वर इन सब चीज़ों से महान और बड़ा है। बुद्धि भी इस विषय को स्वीकार नहीं करती कि हम यह कहें कि ईश्वर अमुक व्यक्ति का मध्यस्थ बना कि उसके पाप क्षमा कर दिए गये क्योंकि इसके तुरंत बाद मन में यह प्रश्न उठता है कि ईश्वर किसके निकट मध्यस्थ बना ? इस आयत में चर्चा का बिन्दु यह है कि ईश्वर स्वामी और स़िफ़ारिश स्वीकार करने वाला है और वह जिसमें भी योग्यता और शालीनता देखता है उसे इस बात की अनुमति देता है कि अमुक व्यक्ति की सिफ़ारिश करे। इस स्थिति में इस आयत का वहाबियों के दावों से दूर दूर का भी संबंध नहीं है क्योंकि इस आयत में उन लोगों और उन वस्तुओं के बारे में बात हो रही है जिनमें बुद्धि या सोचने की शक्ति नहीं है जबकि ईश्वरीय दूत और ईश्वर के निकटवर्ती बंदे इस दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ हैं।
पैग़म्बरे इस्लाम (स) के काल से अब तक मसलमान केवल ईश्वर को ही शिफ़ाअत का स्वामी और उसे स्वीकार करने वाला समझते थे न उनके उतराधिकारियों और उनके निकटवर्ती साथियों को। मुसलमानों का यह मानना था कि शिफ़ाअत वही कर सकता है जिसे ईश्वर ने अनुमति दी हो और पवित्र क़ुरआन की आयतों और हदीसों में भी यह मिलता है कि ईश्वर ने पैग़म्बर को शिफ़ाअत करने की अनुमति दी है। इस प्रकार से पैग़म्बरे इस्लाम (स) से शिफ़ाअत की अनुमति पाने वाले के रूप में शिफ़ाअत की गुहार लगाते हैं।
तिरमीज़ी और बुख़ारी जैसे सुन्नी समुदाय के दिग्गज धर्मगुरूओं ने अपनी हदीसों की किताबों में कभी भी शिफ़ाअत को अनेकेश्वरवाद नहीं कहा। सोनने तिरमीज़ी सुन्नी मुसलमानों के निकट हदीस की एक मान्यता प्राप्त और सुन्नी समुदाय के स्रोत सहाये सित्ता में शामिल एक पुस्तक है जिसको मुहम्मद तिरमीज़ी ने लिखा था। मुहम्मद तिरमीज़ी इस पुस्तक में शिफ़ाअत के बारे में अनस बिन मालिक के हवाले से लिखते हैं कि मैंने पैग़म्बरे इस्लाम (स) से कहा कि प्रलय के दिन मेरी शिफ़ाअत करें , उन्होंने स्वीकार कर लिया और कहा कि मैं यह काम करूंगा। मैंने पैग़म्बरे इस्लाम से कहा कि मैं आपको कहां ढूंढूगा ? तो उन्होंने कहा कि सेरात के पुल के पास।
अनस ने पूरे विश्वास के साथ पैग़म्बरे इस्लाम से अपनी शिफ़ाअत करने को कहा और पैग़म्बरे इस्लाम ने भी उन्हें इसका वचन दिया। यदि अनस को यह ज्ञात होता कि शिफ़ाअत अनेकेश्वरवाद है तो वह कभी भी पैग़म्बरे इस्लाम से शिफ़ाअत के लिए न कहते और पैग़म्बरे इस्लाम कभी भी उनको शिफ़ाअत का वचन न देते।
पैग़म्बरे इस्लाम के अन्य साथी जिन्होंने उनसे शिफ़ाअत की इच्छा प्रकट की सवाद बिना आज़िब हैं। उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम की प्रशंसा में शेर कहे और शेर में ही उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम से शिफ़ाअत की मांग की। उनके शेर का अनुवाद हैः हे पैग़म्बर प्रलय के दिन मेरी शिफ़ाअत करने वाले बनें , जिस दिन किसी अन्य की शिफ़ाअत खजूर की गुठली के चीरे की मात्रा में भी सवाद बिन आज़िब के काम नहीं आएगी।
सलफ़ी मत के वैचारिक गुरू इस प्रकार की हदीसों की ओर संकेत नहीं करते और उसकी व्याख्या नहीं करते जैसे सूरए निसा की 64वीं आयत , जिसमें शिफ़ाअत के विषय को स्पष्ट शब्दों में पेश किया गया है। इस आयत में हम पढ़ते हैं कि और हमने किसी पैग़म्बर को भी नहीं भेजा किन्तु केवल इसलिए कि ईश्वरीय आदेश से उसका अनुसरण किया जाए और काश जब उन लोगों ने अपनी आत्मा पर अत्याचार किया था तो आप उनके पास आते और स्वयं भी अपने पापों के लिए क्षमा करते और पैग़म्बर भी उनके लिए पापों की क्षमा करते तो यह ईश्वर को बड़ा ही तौबा स्वीकार करने वाला और दयालु पाते।
इस आयत में ईश्वर स्पष्ट शब्दों में बंदो के पापों को क्षमा करने के लिए अपने पैग़म्बर को माध्यम व मध्यस्थ बताता है। सुन्नी समुदाय के बड़े धर्मगुरू फ़रूद्दीन राज़ी अपनी पुस्तक तफ़सीरे कश्शाफ़ में इस संबंध में लिखते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम ने उनके लिए क्षमा याचना की। इसका उद्देश्य पैग़म्बरे इस्लाम के स्थान को श्रेष्ठ करना है। यह इस अर्थ में है कि वे लोग उस व्यक्ति के पास आए जो श्रेष्ठ स्थान पर असीन और ईश्वर का दूत है। अनदेखे संसार की वास्तविकता उस पर ईश्वरीय आदेश वहि द्वारा उतरती हैं और ईश्वर के बंदों के बीच ईश्वर का प्रतिनिधि है क्योंकि वह उस श्रेष्ठ स्थान का स्वामी है जिसमें उनकी शिफ़ाअत रद्द नहीं होगी।
जबकि ईश्वर ने स्वयं ही स्पष्ट रूप से यह अधिकार अपने पैग़म्बर को दिया है फिर वहाबी क्यों इसे रद्द करते हैं ? यहां पर उचित है कि इबने तैमिया की वह बात भी सुना जाए जिसमें वह कहता है कि ईश्वर ने अपने निकटवर्ती बंदों को शिफ़ाअत का अधिकार दिया है किन्तु हमें इसकी मांग से रोका है। यह औचित्य इस बात का सूचक है कि शिफ़ाअत के विषय में सलफ़ी बंद गली में पहुंच गये हैं क्योंकि ईश्वर ने सूरए निसा की 64वीं आयत में अपने बंदों से कहा है कि वह पैग़म्बर से शिफ़ाअत की मांग करें। इस बात के अतिरिक्त क्या यह संभव है कि ईश्वर किसी को किसी वस्तु का अधिकार दे और उसके प्रयोग से उसे रोक दे ? इस बात में ही स्पष्ट रूप से विरोधाभास है ? यदि ईश्वर ने यह अधिकार अपने निकटवर्ती बंदों को दिया है तो यह इस अर्थ में है कि दूसरे इस अधिकार से लाभान्वित हों , न यह कि इसकी मांग ही न करें। यहां पर एक कहने को दिल चाह रहा है कि सलफ़ियों की हर बातों व तर्कों में सदैव बहुत अधिक विरोधाभास पाया जाता है जो इस बात की निशानी है कि इस पथभ्रष्ट संप्रदाय का तर्क बहुत ही कमज़ोर है।
वहाबियत या जंगलीपन
हिंसा और निर्दयता में प्रसिद्ध सऊद इब्ने अब्दुल अज़ीज़ ने मक्के पर क़ब्ज़ा करने के दौरान सुन्नी समुदाय के बहुत से विद्वानों को अकारण ही मार डाला और मक्के के बहुत से प्रसिद्ध व प्रतिष्ठित लोगों को बिना किसी आरोप के फांसी पर चढ़ा दिया। प्रत्येक मुसलमान को , जो अपनी धार्मिक आस्थाओं पर डटा रहता है , विभिन्न प्रकार की यातनाओं द्वारा डराया जाता है और नगर-नगर और गांव-गांव में पुकार लगाने वाले भेजे जाते थे और वे ढ़िढोंरा पीट पीट कर लोगों से कहते थे कि हे लोगो सऊद के धर्म में प्रविष्ट हो जाओ और उसकी व्यापक छत्रछाया में शरण प्राप्त करो।
उस्मानी शासन के नौसेना प्रशिक्षण केन्द्र के एक उच्च अधिकारी अय्यूब सबूरी लिखते हैं कि अब्दुल अज़ीज़ इब्ने सऊद ने वहाबी क़बीलों के सरदारों की उपस्थिति में अपने पहले भाषण में कहा कि हमें सभी नगरों और समस्त आबादियों पर क़ब्ज़ा करना चाहिए।
अपनी आस्थाओं और आदेशों को उन्हें सिखाना चाहिए। हम अपनी इच्छाओं को व्यवहारिक करने के लिए सुन्नी समुदाय के उन धर्मगुरूओं का ज़मीन से सफाया करने पर विवश हैं जो सुन्नते नबवी और शरीअते मुहम्मदी अर्थात पैग़म्बरे इस्लाम के चरित्र तथा मत का अनुसरण करने का दावा करते हैं , विशेषकर प्रसिद्ध व जाने माने धर्मगुरूओं को तो बिल्कुल नहीं छोड़ेंगे क्योकि जब तक वे जीवित हैं , हमारे अनुयायी प्रसन्न नहीं हो पाएंगे। इस प्रकार से सबसे पहले उन लोगों का सफाया करना चाहिए जो स्वयं को धर्मगुरू के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
सऊद इब्ने अब्दुल अज़ीज़ , मक्के का अतिग्रहण करने के बाद अरब उपमहाद्वीप के दूसरे महत्त्वपूर्ण नगरों पर क़ब्ज़े के प्रयास में रहा और इस बार उसने जद्दह पर आक्रमण किया।
इब्ने बुशर जो स्वयं वहाबी है , तारीख़े नज्दी नामक पुस्तक में लिखता है कि सऊद , बीस दिनों से अधिक समय तक मक्के में रहा और उसके बाद वह जद्दह पर क़ब्ज़े के लिए मक्के से निकला। उसने जद्दह का परिवेष्टन किया किन्तु जद्दह के शासक ने बहुत से वहाबियों को तोप से उड़ा दिया और उन्हें भागने पर विवश कर दिया। इस पराजय के बाद वहाबी मक्के नहीं लौटे बल्कि वे अपनी मुख्य धरती अर्थात नज्द चले गये क्योकि उन्होंने सुना था कि ईरान की सेना ने नज्द पर आक्रमण कर दिया है। यह स्थिति मक्के को वहाबियों के हाथों से छुड़ाने का सुनहरा अवसर थी। मक्के के शासक शरीफ़ ग़ालिब ने , जो वहाबियों के आक्रमण के बाद जद्दह भाग गया था , जद्दह के शासक के सहयोग से भारी संख्या में सैनिकों को मक्के भेजा। यह सैनिक तोप और गोलों से लैस थे और वहाबियों की छोटी सी सेना को पराजित करने और मक्के पर विजय प्राप्त करने में सफल रहे।
इसके बावजूद संसार के मुसलमानों के सबसे पवित्र स्थान मक्के पर क़ब्ज़े के लिए वहाबियों ने यथावत प्रयास जारी रखे।
वर्ष 1804 में सऊद के आदेशानुसार जो वहाबियों का सबसे शक्तिशाली शासक समझा जाता है , पवित्र नगर मक्के का पुनः परिवेष्टन कर लिया गया। उसने मक्केवासियों पर बहुत अत्याचार किया यहां तक कि बहुत से मक्कावासी भूख और अकाल के कारण काल के गाल में समा गये।
सऊद के आदेशानुसार , मक्के के समस्त मार्गों को बंद कर दिया गया और जितने भी लोगों ने मक्के में शरण ले रखी थी , सबकी हत्या कर दी गयी। इतिहास में आया है कि मक्के में बहुत से बच्चे मारे गये और मक्के की गलियों में उनके शव कई दिनों तक पड़े रहे।
मक्के के शासक शरीफ़ ग़ालिब ने जिसके पास वहाबियों से संधि करने के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग नहीं था , वर्ष 1805 में वहाबियों से संधि कर ली। इतिहासकारों ने इस संदर्भ में लिखा कि मक्के के शासक ने भय के मारे वहाबियों के आदेशों का पालन किया। मक्के पर उनके वर्चस्व के समय वह उनके साथ बहुत ही अच्छा व्यवहार करता रहा और उसने वहाबी धर्मगुरूओं को बहुत ही मूल्यवान उपहार दिए ताकि अपनी और मक्केवासियों की जान की रक्षा करे।
वहाबियों द्वारा मक्के के पुनः अतिग्रहण के बाद उन्होंने चार वर्षों तक इराक़ी तीर्थयात्रियों के लिए , वर्तमान सीरिया अर्थात शामवासियों के लिए तीन वर्षों तक और मिस्र वासियों के लिए दो वर्षों तक के लिए हज के आध्यात्मिक व मानवीय संस्कारों पर रोक लगा दी।
मक्के पर अतिग्रहण के बाद सऊद ने पवित्र नगर मदीने पर क़ब्ज़ा करने के बारे में सोचा और इस पवित्र नगर का भी परिवेष्टन कर लिया किन्तु वहाबियों की भ्रष्ट आस्थाओं व हिंसाओं से अवगत , मदीनावासियों ने उनके मुक़ाबले में कड़ा प्रतिरोध किया। अंततः वर्ष 1806 में पवित्र नगर पर क़ब्ज़ा कर लिया। वहाबियों ने पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही वसल्लम के रौज़े में मौजूद समस्त मूल्यवान चीज़ों को लूट लिया किन्तु समस्त मुसलमानों के विरोध के भय से रसूले इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम के पवित्र रौज़े को ध्वस्त न कर सके। वहाबियों ने चार पेटियों में भरे हीरे और मूल्यवान रत्नों से बनी विभिन्न प्रकार की चीज़ों को लूट लिया। इसी प्रकार मूल्यवान ज़मुर्रद से बने चार शमादान को जिनमें मोमबत्ती के बदले रात में चमकने वाले और प्रकाशमयी हीरे रखे जाते थे , चुरा लिया।
उन्होंने इसी प्रकार सौ तलवारों को भी चुरा लिया जिनका ग़ेलाफ़ शुद्ध सोने का बना हुआ था और जो याक़ूत और हीरे जैसे मूल्यवान पत्थरों से सुसज्जित थीं जिनका दस्ता ज़मुर्रद और ज़बरजद जैसे मूल्यवान पत्थरों का था। सऊद इब्ने अज़ीज़ ने मदीने पर क़ब्ज़ा करने के बाद समस्त मदीना वासियों को मस्जिदुन्नबी में एकत्रित किया और इस प्रकार से अपनी बातों को आरंभ किया। हे मदीनावासियों , आज हमने धर्म को तुम्हारे लिए परिपूर्ण कर दिया। तुम्हारे धर्म और क़ानून परिपूर्ण हो गये और तुम इस्लाम की विभूतियों से तृप्त हो गये , ईश्वर तुम से राज़ी व प्रसन्न हुआ , अब पूर्वजों के भ्रष्ट धर्मों को अपने से दूर कर दो और कभी भी उसे भलाई से न याद करो और पूर्वजों पर सलवात भेजने से बहुत बचो क्योंकि वे सबके सब अनेकेश्वरवादी विचारधरा अर्थात शिरक में मरे हैं।
सऊद ने अपनी सैन्य चढ़ाइयों में बहुत से लोगों का नरसंहार किया। उसकी और उस समय के वहाबी पंथ की भीषण हिंसाओं से अरब जनता और शासक भय से कांपते थे।
इस प्रकार से कि कोई मारे जाने के भय से हज या ज़ियारत के लिए मक्के और मदीने की यात्रा करने का साहस भी नहीं करता था। मक्के के शासक ने अपनी जान के भय से , सऊद की इच्छानुसार , मक्के और मदीने में पवित्र स्थलों और जन्नतुल बक़ीअ क़ब्रिस्तान को ध्वस्त करने का आदेश दिया। उसने हिजाज़ में वहाबी धर्म को औपचारिकता दी और जैसा कि वहाबी चाहते थे , अज़ान से पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम पर सलवात भेजने को हटा दिया। अरब शासकों और हेजाज़ के प्रतिष्ठित लोगों ने जो इस पथभ्रष्ट पंथ की आस्थाओं और ज़ोरज़बरदस्तियों को सहन करने का साहस नहीं रखते थे , सबसे उच्चाधिकारी अर्थात उस्मानी शासक को पत्र लिखकर वहाबियों की दिन प्रतिदिन बढ़ती हुई शक्ति के ख़तरों से सचेत किया। उन्होंने बल दिया कि वहाबी पंथ केवल सऊदी अरब तक ही सीमित नहीं रहेगा बल्कि इसका इरादा समस्त मुसलमानों पर वर्चस्व जमाना और पूरे उस्मानी शासन पर क़ब्ज़ा करना है।
हेजाज़ , यमन , मिस्र , फ़िलिस्तीन , सीरिया और इराक़ जैसी इस्लामी धरती पर शासन करने वाली उस्मानी सरकार ने मिस्र के शासक को वहाबियों से युद्ध करने का आदेश दिया।
यह वही समय था जब सऊद 66 वर्ष की आयु में दिरइये नामक स्थान पर कैंसर में ग्रस्त होकर मर गया और उसका अब्दुल्लाह नामक पुत्र उसकी जगह बैठा।
उस्मानी सरकार की ओज्ञ से लैस मिस्र का शासक मुहम्मद अली पाशा वहाबियों को विभिन्न युद्धों में पराजित करने में सफल रहा और उसने वहाबियों के चंगुल से मक्के , मदीने और ताएफ़ को स्वतंत्र करा दिया।
मिस्र के शासक ने इन युद्धों में वहाबियों के बहुत से कमान्डरों को गिरफ़्तार कर उस्मानी शासन की राजधानी इस्तांबोल भेज दिया। इस विजय के बाद मिस्र में जनता ने ख़ुशियां मनाई और विभिन्न समारोहों का आयोजन किया किन्तु वहाबियों की शैतानी अभी समाप्त नहीं हुई थी। मिस्र का शासक मुहम्मद अली पाशा ने समुद्री मार्ग से एक बार फिर अपनी सेना हेजाज़ भेजी। उसने मक्के को अपनी सैन्य छावनी बनाई और मक्के के शासक और उसके पुत्र को देश निकाला दे दिया और उनके माल को ज़ब्त कर लिया। उसके बाद वह मिस्र लौट आया और उसने अपनी ही जाति के इब्राहीम पाशा नामक व्यक्ति को लैस करके नज्द की ओर भेजा।
इब्राहीम पाशा ने वहाबियों के केन्द्र नज्द के दिरइये नगर का परिवेष्टन कर लिया। वहाबियों ने इब्राहीम पाशा के मुक़ाबले में कड़ा प्रतिरोध किया। तोप और गर्म हथियारों से लैस इब्राहीम पाशा ने दिरइये पर क़ब्ज़ा कर लिया और अब्दुल्लाह इब्ने सऊद को गिरफ़्तार कर लिया। अब्दुल्लाह इब्ने सऊद को उसके साथियों और निकटवर्तियों के साथ उस्मानी शासक के पास भेज दिया दिया गया। उस्मानी शासक ने अब्दुल्लाह और उसके साथियों को बाज़ारों और नगरों में फिराने के बाद उन्हें मृत्युदंड दे दिया। अब्दुल्लाह इब्ने सऊद के मारे जाने के बाद तत्कालीन शसक आले सऊद और उसके बहुत से साथियों ने विभिन्न इस्लामी जगहों पर समारोहों का आयोजन किया और बहुत ख़ुशियां मनाई।
इब्राहीम पाशा लगभग नौ महीने तक दिरइये नगर में रहा और उसके बाद उसने इस नगर को वासियों से ख़ाली कराने का आदेश दिया और उसके बाद नगर को बर्बाद कर दिया। इब्राहीम पाशा ने मुहम्मद इब्ने अब्दुलवह्हाब और आले सऊद की जाति और उसके बहुत से पौत्रों को मरवा दिया या देश निकाला दे दिया ताकि फिर इस ख़तरनाक पंथ का नाम लेने वाला कोई न रहे। उसके बाद नज्द और हेजाज़ में उस्मानी शासक की सफलताओं का श्रेय मिस्र के शासक मुहम्मद अली पाशा को जाता है। इस प्रकार से 1818 में वहाबियों का दमन हुआ और उसके लगभग एक शताब्दी तक वहाबियों का नाम लेने वाला कोई नहीं था।
सऊदी अरब में नज्द की धरती पर मिस्रियों की चढ़ाई का बहुत ही उल्लेखनीय परिणाम निकला था। अब्दुल अज़ीज़ और उसके पुत्र सऊद का विस्तृत देश बिखर गया और बहुत से वहाबी मारे गये। वहाबी पंथ का निमंत्रण और लोगों पर इस भ्रष्ट आस्था को थोपने का क्रम रूक गया और वहाबियों को लेकर लोगों के दिलों में जो भय था , वह समाप्त हो गया।