अबुल हसन हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.)

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अबुल हसन हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) लेखक:
कैटिगिरी: इमाम रज़ा (अ)

अबुल हसन हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.)

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: मौलाना नजमुल हसन करारवी
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अबुल हसन हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.)

अबुल हसन हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.)

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

बतौर ज़ादे सफ़र उसवा ए हुसैन लिए

चला है सुए ख़ुरासान कारवाने रज़ा (अ.स.)

मुशाबेहत है बहुत करबला व मशहद में

वो आज़माइशे सब्र और ये इम्तेहाने रज़ा (अ.स.)

साबिर थरयानी ‘‘ कराची ’’

अरब से आप क्या आए कि , ईमान की बहार आई

अजम ने पाई इज़्ज़त मरकज़े , अहले विला हो कर

बहुत मुश्ताक़ थे अहले अजम , नूरे रिसालत के

ज़मीने तूस का चमका सितारा नक़्शा पा हो कर

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) रसूले करीम हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) के आठवें जां नशीन , मुसलमानो के आठवें इमाम और सिलसिला ए असमत की दसवीं कड़ी थे। आपके वालिदे माजिद इमाम मुसिए काज़िम (अ.स.) थे और वालेदा माजेदा उम्मुल बनीन उर्फ़ नजमा थीं। जनाबे नजमा के मुताअल्लिक़ उलमा का बयान है कि आपका शुमार अशरफ़े अजम में था और आप अक़ल व दियानीयत के लेहाज़ से अफ़ज़ल अन्साँ थीं। हमीदा ख़ातून यानी इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) की वालदा का कहना है कि मैंने उम्मुल बनीन से बेहतर किसी औरत को नहीं पाया।

अली बिन मीसम कहते हैं कि हमीदा ख़ातून को रसूले ख़ुदा (स.अ.) ने ख़्वाब में हुक्म दिया था कि उम्मुल बनीन की शादी इमाम मुसिए काज़िम (अ.स.) से करो ‘‘ क्यों कि सैलदसनहा ख़ैरा हल अर्ज़ ’’ इन से अनक़रीब एक ऐसा फ़रज़न्द पैदा होने वाला है जो मादरे गेती की आग़ोश में बसने वालों में सब से बेहतर होगा।(आलामुल वुरा पृष्ठ 182)

अल्लामा मोहम्मद रज़ा लिखते हैं कि जनाबे उम्मुल बनीन हुस्नो जमाल ज़ोहदो तक़वा में अपनी आप नज़ीर थीं।(जन्नातुल ख़ुलूद पृष्ठ 31)

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) अपने आबाओ अजदाद की तरह इमाम मन्सूस ‘‘मासूम’’ आलमें ज़माना और अफ़ज़ले काएनात थे। अल्लामा इब्ने हजर मक्की तहरीर फ़रमाते हैं कि आप तमाम लोगों में जलीलुल क़दर और अज़ीम उल मरतबत थे।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 122)

अल्लामा अब्दुरहमान जामी लिखते हैं कि आप की बातें पुर अज़ हिकमत और आपका अमल दरूस्त और आपका किरदार महफ़ूज़ अनल ख़ता था। आप इल्म हिकमत से भरपूर थे। रूए ज़मीन पर आपकी मिसाल व नज़ीर न थी।(शवाहेदुन नबूअत पृष्ठ 197 प्रकाशित लखनऊ 1904 ई 0)

अल्लामा अबीद उल्लाह लिखते हैं कि इब्राहीम बिन अब्बास का कहना है कि मैंने इन से बड़ा आलम देखा ही नहीं।( अरजहुल मतालिब पृष्ठ 255)

अल्लामा शहीर लिखते हैं कि आप अशरफ़ुल मख़लूके ज़माना थे।(हबीब अल सैर) आपको इल्मे माकान और मायकून आबाव अजदाद से विरासतन पहुँचा था।(वसीलतुन नजात पृष्ठ 377) आप हर ज़बान और हर लुग़त में फ़सीह और दाना तरीन मरदुम थे और जो शख़्स जिस ज़बान में बातें करता था उसको उसी ज़बान में जवाब देते थे।(रौज़तुल अहबाब) अल्लामा मोहम्मद बिन तल्हा शाफ़ेई लिखते हैं कि आप बारह इमामों में के तीसरे अली हैं। आपका ईमान हद से बढ़ा हुआ था। आपकी शान इन्तेहां को पहुँची हुई थी। आपका कसरे फ़ज़ीलत निहायत बलन्द था और आपके इमकानाते करम निहायत वसी थे। आपके मद्दगार बे शुमार और आपके शरफ़ व इमामत निहायत रौशन थे इसी वजह से ख़लीफ़ा ए वक़्त मामून रशीद ने आपको अपने दिल में जगह दी , अपनी हुकूमत में शरीक क़रार दिया। ख़लीफ़ा ए हुकूमत बनाया और अपनी लड़की की शादी आपके साथ कर दी। आपके मनाक़िब व सिफ़ात निहायत बलन्द , आपके मकारम और आपके इख़्लाक़ निहायत अज़ीम थे। बस मुख़्तसर यह कि सिफ़ाते हसना की जो मंज़िले थीं उनसे आपका दरजा बलन्द था।(मतालेबुल सूऊल पृष्ठ 252)

पादरी लेनेन एडवर्ड सील डी 0 डी 0 लिखता है कि इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) ने अली बिन मूसा (अ.स.) को अपना वारिस इस लिये क़रार दिया कि वह उनको सब से ज़्यादा मन्सूबे इमामत का अलह समझते थे।(अशना अशरया , पृष्ठ 46 प्रकाशित लाहौर 1925 ई 0)

हज़रत इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) फ़रमाते हैं कि मेरा यह फ़रज़न्द ‘‘ यतर मई फ़िल जाफ़र ला यनजू फ़ीहे इल्ला नबी अव वसी ’’ मेरे साथ जाफ़र जामए को देखता और उसे समझता है जिसे नबी और वसी के अलावा कोई देख नहीं सकता।(जन्नातुल ख़ुलूद पृष्ठ 31) रजाल कशी व दमए साकेबा पृष्ठ 35 व मसन्द इमाम रज़ा (अ.स.) के पृष्ठ 2 में है कि आप आलिम अहले ज़माना और कसीर उल सोम अल इबादत थे।

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की विलादत ब सआदत

उलेमा व मुवर्रेख़ीन का बयान है कि आप बा तारीख़ 11 ज़ीक़ादा 153 हिजरी यौमे पंज शम्बा बमक़ाम मदीना ए मुनव्वरा पैदा हुए हैं। (आलामुल वुरा , पृष्ठ 182 जिलाउल उयून पृष्ठ 280 रौज़तुल पृष्ठ जिल्द 3 पृष्ठ 13, अनवारूल नोमानिया पृष्ठ 127) आपकी विलादत के मुताअल्लिक़ अल्लामा मजलिसी और अल्लामा मोहम्मद पारसा तहरीर फ़रमाते हैं कि जनाबे उम्मुल बनीन का कहना है कि जब तक इमाम अली रज़ा (अ.स.) मेरे बत्न में रहे मुझे हमल की गरानियां क़तअन महसूस नहीं हुई। मैं ख़्वाब में अक्सर तसबीह व तहलील और तमजीद व तहमीद की आवाज़े सुना करती थी। जब इमाम रज़ा (अ.स.) पैदा हुए तो आपने ज़मीन पर तशरीफ़ लाते ही दोनों हाथ ज़मीन पर टेक दिये और अपना सरे मुबारक आसमान की तरफ़ बलन्द कर दिया। आपके होंठ जुम्बीश करने लगे। ऐसा मालूम होता था कि जैसे आप ख़ुदा से कुछ बातें कर रहे हैं। इसी असना में इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) तशरीफ़ लाये और मुझसे इरशाद फ़रमाया कि तुम्हे ख़ुदा वन्दे आलम की इनायत व करामत मुबारक हो। फिर मैंने मौलूदे मसूद को आपकी आग़ोश में दे दिया। आपने उसके दाहिने कान में अज़ान और बायें कान में अक़ामत कही। इसके बाद आपने इरशाद किया कि ‘‘ बग़ीर ईं रा कि बक़िया ख़ुदा अस्त दर ज़मीनो हुज्जत ख़ुदा अस्त बाद अज़ मन ’’ इसे ले लो यह ज़मीन पर ख़ुदा की निशानी है और मेरे बाद हुज्जते अल्लाह के फ़राएज़ का ज़िम्मेदार है।

इब्ने बाबविया फ़रमाते हैं कि आप दीगर आइम्मा (अ.स.) की तरह मख़्तून और नाफ़ बुरिदा (यानी ख़त्ना हुये और नाफ़ कटे हुये) पैदा हुये।(नस्ल अल ख़ताब जिलाउल उयून पृष्ठ 269)

नाम ,कुन्नियत , अल्क़ाब

आपके वालिदे माजिद हज़रत इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) ने लौहे महफ़ूज़ के मुताबिक़ और तइय्युने रसूल (स.अ.) के मुवाफ़िक़ आपको इस्मे अली से मौसूम फ़रमाया। आप आले मोहम्मद (स.अ.) में के तीसरे ‘‘ अली ’’ हैं। (आलामुल वुरा पृष्ठ 225 व मतालेबुल सूऊल पृष्ठ 282) आपकी कुन्नीयत ‘‘अबुल हसन’’ थी और आपके अलक़ाब साबिर , ज़की , वली , रज़ी , वसी थे। ‘‘ वशहरहा अल रज़ा ’’ और मशहूर तरीन लक़ब रज़ा था। (नूरूल अबसार पृष्ठ 128 व तज़किरा ए ख़वासुल उम्मता पृष्ठ 198)

लक़ब रज़ा की वजह

अल्लामा तबरेसी तहरीर फ़रमाते हैं कि आप को रज़ा इस लिये कहते हैं कि आसमानों ज़मीन में ख़ुदा वन्दे आलम , रसूले अकरम (स.अ.) और आइम्मा ए ताहेरीन (अ.स.) और तमाम मुख़ालेफ़ीन व मुवाफ़ेक़ीन आप से राज़ी थे। (आलमुल वुरा पृष्ठ 182)

अल्लामा मजलिसी तहरीर फ़रमाते हैं कि बज़नती ने हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) से लोगों की अफ़वाह का हवाला देते हुये कहा कि आपके वालिदे माजिद को लक़ब रज़ा मामून रशीद ने मुलक़्क़ब किया था। आपने फ़रमाया हरगिज़ नहीं। यह लक़ब ख़ुदा व रसूल (स.अ.) की ख़ुशनूदी का जलवा बरदार है और सच बात यह है कि आप से मुवाफ़िक़ व मुख़ा लिफ़ दोनों राज़ी और ख़ुशनूद थे।(जिलाउल उयून पृष्ठ 269 व रौज़तुल पृष्ठ जिल्द 3 पृष्ठ 12)

आपकी तरबियत

आपकी नशोनुमा और तरबियत अपने वालिदे बुज़ुर्गवार हज़रत इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) के ज़ेरे साया हुई और इसी मुक़द्दस माहौल में बचपना और जवानी की मुताअद्दिद मंज़िलें तय हुईं और 30 से 35 बरस की उम्र पूरी हुई। अगरचे आख़री चन्द साल इस मुद्दत के वह थे। जब इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) ईराक़ में क़ैदे ज़ुल्म की सख़्तियां बरदाश्त कर रहे थे , मगर उससे पहले 24 या 25 बरस आपको बराबर अपने पदरे बुज़ुर्गवार के साथ रहने का मौक़ा मिला।

बादशाहाने वक़्त

आपने अपनी ज़िन्दगी की पहली मंज़िल से ताबा अहदे वफ़ात बहुत से बादशाहों के दौर देखे। आप 153 ई 0 में अहदे मन्सूर दवानक़ी पैदा हुए। (तारीख़े ख़मीस) 158 हिजरी में मेहदी अब्बासी , 169 हिजरी में हादी अब्बासी , 170 हिजरी में हारून रशीद अब्बासी , 194 हिजरी में अमीन अब्बासी , 198 हिजरी में मामून रशीद अब्बासी अलत तरतीब ख़लीफ़ा ए वक़्त होते रहे।(इब्नुल वरदी , हबीब अल सियर , अबुल फ़िदा)

आपने हर एक का दौर बा चश्में खुद देखा और आप पदरे बुज़ुर्गवार नीज़ दीगर औलादे अली (अ.स.) व फ़ात्मा (स.अ.) के साथ जो कुछ होता रहा उसे आप मुलाहेज़ा फ़रमाते रहे यहां तक कि 230 हिजरी में आप दुनियां से रूख़सत हो गये और आपको ज़हर दे कर शहीद कर दिया।

जानशीनी

आपके पदरे बुज़ुर्गवार हज़रत इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) को मालूम था कि हुकूमते वक़्त जिसकी बाग डोर उस वक़्त हारून रशीद अब्बासी के हाथों में थी। आपको आज़ादी की सांस न लेने देगी और ऐसे हालात पेश आ जायेंगे कि आपकी उम्र के आखि़री हिस्से और दुनियां को छोड़ने के मौक़े पर दोस्ताने अहले बैत का आपसे मिलना या बाद के लिये रहनुमा का दरयाफ़्त करना गै़र मुमकिन हो जायेगा इस लिये आपने उन्हें आज़ादी के दिनों और सुकून के अवक़ात में जब कि आप मदीने में थे , पैरवाने अहले बैत को अपने बाद होने वाले इमाम से रूशेनास कराने की ज़रूरत महसूस फ़रमाई। चुनान्चे औलादे फ़ात्मा (स.अ.) में से 17 आदमी जो मुम्ताज़ हैसियत रखते थे उन्हें जमा फ़रमा कर अपने फ़रज़न्द हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) की वसी होने और जांनशीनी का ऐलान फ़रमा दिया और एक वसियत नामा तहरीरन भी मुकम्मल फ़रमा दिया जिस पर मदीने के मोअज़्जे़ज़ीन में से आठ आदमियों की गवाही लिखी गई। यह अहतेमाम दूसरे आइम्मा के यहां नज़र नहीं आया सिर्फ़ उन ख़ुसूसी हालात की बिना पर जिन से दूसरे आइम्मा अपनी वफ़ात के मौक़े पर दो चार नहीं होने वाले थे।

इमाम मूसाए काज़िम (अ.स.) की वफ़ात और इमाम रज़ा (अ.स.) के दौरे इमामत का आग़ाज़

183 हिजरी में हज़रत इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) ने क़ैद ख़ाना ए हारून रशीद में अपनी उम्र का एक बहुत बड़ा हिस्सा गुज़ार कर दरजा ए शहादत हासिल फ़रमाया। आपकी वफ़ात के वक़्त इमाम रज़ा (अ.स.) की उम्र मेरी तहक़ीक़ के मुताबिक़ तीस साल की थी। वालिदे बुज़ुर्गवार की शहादत के बाद इमामत की ज़िम्मेदारियां आपकी तरफ़ मुन्तक़िल हो गई। यह वह वक़्त था कि बग़दाद में हारून रशीद तख़्ते खि़लाफ़त पर मुतमक्किन था और बनी फ़ात्मा के लिये हालात बहुत ही ना साज़गार थे।

हारूनी फ़ौज और ख़ाना ए इमाम रज़ा (अ.स.)

हज़रत इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) के बाद दस बरस हारून रशीद का दौर रहा। यक़ीनन वह इमामे रज़ा (अ.स.) के वजूद को भी दुनियां में इसी तरह बरदाश्त नहीं कर सकता था जिसके तरह उसके पहले आपके वालिदे बुज़ुर्गवार का रहना उसने गवारा नहीं किया। मगर यह तो इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) के साथ जो तवील मुद्दत तक तशद्दुद और ज़ुल्म होता रहा और जिसके नतीजे में क़ैद खा़ने के ही अन्दर आप दुनिया से रूख़सत हो गये। इस से हुकूमते वक़्त की आम बदनामी हो गयी थी और या वाक़ेई ज़ालिम की बद सुलूक़ियों का एहसास और ज़मीर की तरफ़ से मलामत की कैफ़ियत थी जिसकी वजह से खुल्लम खुल्ला इमाम रज़ा (अ.स.) के खि़लाफ़ कोई कारवाई की थी लेकिन वक़्त से पहले उसने इमाम रज़ा (अ.स.) को सताने में कोई दक़ीक़ा अन्जाम नहीं दिया।

हज़रत के अहदे इमामत संभालते ही हारून रशीद ने आपका घर लुटवा दिया और औरतों के ज़ेवरात और अच्छे कपड़े तक उतरवा लिये थे।

तारीख़े इस्लाम मे है कि हारून रशीद ने इस हवाले और बहाने से कि मोहम्मद बिन जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने उसकी हुकूमत व खि़लाफ़त से इन्कार कर दिया है। एक अज़ीम फ़ौज ईसा जलोदी की मातहती में मदीना ए मुनव्वरा भेज कर हुक्म दिया कि अली व फ़ात्मा की तमाम औलाद को बिल्कुल ही तबाह व बरबाद कर दिया जाए , उनके घरों में आग लगा दी जाए , उनके सामान लूट लिये जायें और उन्हें इस दरजा मफ़लूज व मफ़लूक कर दिया जाऐ कि फिर उनमे किसी क़िस्म के हौसले के उभरने का सवाल ही पैदा न हो सके और मोहम्मद बिन जाफ़र को गिरफ़्तार कर के क़त्ल कर दिया जाय। ईसा जलोदी ने मदीने पहुँच कर तामीले हुक्म की कोशिश की और मुम्किन तरीक़े से बनी फ़ात्मा को तबाह व बरबाद किया। हज़रत मोहम्मद बिन जाफ़र (अ.स.) ने भर पूर मुक़ाबला किया लेकिन आखि़र में गिरफ़्तार हो कर हारून रशीद के पास पहुँचा दिये गये। ईसा जलूदी सादात किराम को लूट कर हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) के दौलत कदे पर पहुँचा और उसने ख़्वाहिश की कि वह हस्बे हुक्म हारून रशीद , ख़ाना ए इमाम में दाखि़ल हो कर अपने हाथों से औरतों के ज़ेवरात और कपड़े उतारे। इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया यह नहीं हो सकता , मैं खुद तुम्हें सारा सामान दिये देता हूँ । पहले तो वह उस पर राज़ी न हुआ लेकिन बाद में कहने लगा कि अच्छा आप ही उतार लाइये। आप महल सरा में तशरीफ़ ले गये और आपने तमाम ज़ेवरात और सारे कपड़े एक सतर पोश चादर के अलावा ला कर दे दिये और उसी के साथ साथ असासुल बैत नक़दो जिन्स यहां तक कि बच्चों के कान के बुन्दे सब कुछ उसके हवाले कर दिया। वह मलऊन ज़ेवरात ले कर बग़दाद रवाना हो गया। यह वाक़िया आपके आगा़ज़े इमामत का है। अल्लामा मजलिसी बेहारूल अनवार में लिखते हैं कि मोहम्मद बिन जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के वाक़ए से इमाम अली रज़ा (अ.स.) को ताअल्लुक़ न था। वह अकसर अपना चचा मोहम्मद को ख़ामोशी की हिदायत और सब्र की तलक़ीन फ़रमाया करते थे। अबुल फ़र्ज असफ़हानी मुक़ातिल तालिबैन में लिखते हैं कि मोहम्मद बिन जाफ़र निहायत मुत्तक़ी और परहेज़गार शख़्स थे। किसी नासिबी ने दस्ती कुतबा लिख कर मदीने की दीवारों पर चस्पा कर दिया था जिसमें हज़रत अली (अ.स.) और जनाबे फ़ात्मा (स.अ.) के मुताअल्लिक़ ना साज़ अल्फ़ाज़ थे। यही आप के खु़रूज का सबब बना। आपकी बैअत लफ़्ज़े अमीरल मोमेनीन से की गई। आप जब नमाज़ को निकलते थे तो आपके साथ दो सौ सुलहा ब अत्तक़िया हुआ करते थे। अल्लामा शिब्लिन्जी लिखते हैं कि इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) की वफ़ात के बाद सफ़वान बिने यहिया ने इमाम अली रज़ा (अ.स.) से कहा कि मौला हम आपके बारे में हारून रशीद से बहुत ख़ाएफ़ हैं हमें डर है कि यह कहीं आपके साथ वही सुलूक न करे जो आपके वालिद के साथ कर चुका है। हज़रत ने इरशाद फ़रमाया कि यह तो अपनी सी करेगा लेकिन मुझ पर कामयाब न हो सकेगा चुनान्चे ऐसा ही हुआ और हालात ने उसे कुछ इस दरजा आखि़र में मजबूर कर दिया था कि वह कुछ भी न कर सका कि यहां तक कि जब ख़ालिद बिने यहिया बर मक्की ने उस से कहा कि इमामे रज़ा (अ.स.) अपने बाप की तरह अम्रे इमामत का ऐलान करते और अपने को इमामे ज़माना कहते हैं तो उसने जवाब दिया कि हम जो उनके साथ कर चुके हैं वही हमारे लिये काफ़ी है। अब तू चाहता है कि इन हम सब के सब को क़त्ल कर डालें अब मैं ऐसा नहीं करूँगा।

अल्लामा अली नक़ी लिखते हैं कि फिर भी हारून रशीद का अहलेबैते रसूल (स.अ.) से शदीद इख़्तिलाफ़ और सादात के साथ जो बरताव अब तक रहा था उसकी बिना आम तौर से अम्माले हुकूमत या आम अफ़राद भी जिन्हें हुकूमत को राज़ी रखने की ख़्वाहिश थी अहलेबैत के साथ कोई अच्छा रवय्या रखने पर तैय्यार नहीं सकते थे और न इमाम के पास लोग इस्तफ़ादा के लिये जा सकते थे न हज़रत को सच्चे इस्लामी अहकाम की इशाअत के मवाक़े हासिल थे।

हारून का आखि़री ज़माना अपने दोनों बेटों , अमीन और मामून की बाहिमी रक़ाबतों से बहुत बे लुत्फ़ी में गुज़रा , अमीन पहली बीवी से था जो ख़ानदान शाही से मन्सूर दुवानक़ी की पोती थी और इस लिये अरब सरदार सब उसके तरफ़दार थे और मामून एक अजमी कनीज़ के पेट से था और इस लिये दरबार का अजमी तबक़ा उस से मोहब्बत रखता था। दोनों की आपस की रस्सा कशी हारून के लिये सोहाने रूह बनी हुई थी , उसने अपने ख़्याल में उसका तसफ़िया ममलेकत की तक़सीम के साथ यूं कर दिया कि दारूल सलतनत बग़दाद और उसके चारों तरफ़ के अरबी हिस्से जैसे शाम , मिस्र , हिजाज़ , यमन वग़ैरह मोहम्मद अमीन के नाम किये और मशरिक़ी मुमालिक जैसे ईरान , ख़ुरासान , तुरकिस्तान वग़ैरह मामून के लिये मुक़र्रर किये मगर यह तसफ़ीया तो उस वक़्त कारगार हो सकता था जब दोनों फ़रीक़ ‘‘ जियो और जीने दो ’’ के उसूल पर अमल करते होते लेकिन जहां इक़्तेदार की हवस कारफ़रमा हो वहां बनी अब्बास में एक घर के अन्दर दो भाई अगर एक दूसरे के मददे मुक़ाबिल हांे तो क्यों न एक दूसरे के खि़लाफ़ जारहाना कारवाही करने पर तैयार नज़र आये और क्यों उन ताक़तों में बाहिमी तसादुम हो जब कि उनमें से कोई इस हमदर्दी और असार और ख़ल्क़े ख़ुदा की खै़र ख़्वाही का भी हामिल नहीं है। जिसे बनी फ़ात्मा अपने पेशे नज़र रख कर अपने वाक़ई हुकू़क़ से चश्म पोशी कर लिया करते थे। इसी का नतीजा था कि इधर हारून की आंख बन्द हुई और उधर भाईयों में ख़ाना जंगी के शोले भड़क उठे। आखि़र चार बरस की मुसलसल कशमकश और तवील ख़ूं रेज़ी बाद मामून को कामयाबी हुई और उसका भाई अमीन मोहर्रम सन् 198 हिजरी में तलवार के घाट उतार दिया गया और मामून की खि़लाफ़त तमाम बनी अब्बास के हुदूदे सलतनत पर क़ायम हो गयी।

यह सच है कि हारून रशीद के अय्यामे सलतनत में आप की इमामत के दस साल गुज़ारे इस ज़माने मे ईसा जलूदी ताख़्त के बाद फिर उसने आपके मुआमलात की तरफ़ बिल्कुल सुकूत और ख़ामोशी इख़्तियार कर ली उसकी दो वजहे मालूम होती हैं। अव्वल तो यह कि इस दस साला ज़िन्दगी के इब्तिदाई अय्याम में वह आले बरामका के इस्तीसाल राफ़ि बिने लैस इब्ने तयार के ग़द्र और फ़साद के इन्सिदाद में जो समर कन्द के इलाक़े से नमूदार हो कर मा वराउन नहर और हुदूदे अरब तक फैल चुका था ऐसा हमा वक़्त और हमादम उलझा कि फिर उसको इन उमूर की तरफ़ तवज्जोह करने की ज़रा भी फ़ुरसत न मिली। दूसरे यह कि अपनी दस साला मुद्दत के आखि़री अय्याम में यह अपने बेटों में मुल्क तक़सीम कर देने के बाद खुद ऐसा कमज़ोर और मजबूर हो गया था कि कोई काम अपने इख़्तियार से नहीं कर सकता था। नाम का बादशाह बना बैठा हुआ अपनी ज़िन्दगी के दिन निहायत उसरत और तंगी की हालतों में काट रहा था। उसके सबूत के लिये वाक़िया ज़ैल मुलाहेज़ा फ़रमायें। सबाह तिबरी का बयान है कि हारून जब ख़ुरासान जाने लगा तो मैं नहरवान तक उसकी मुशायत को गया रास्ते में उसने बयान किया कि ऐ सबाह तुम अब इसके बाद फिर मुझे ज़िन्दा न पाओगे। मैंने कहा अमीरल मोमेनीन ऐसा ख़्याल न करें आप इन्शाअल्लाह सही ओ सालिम इस सफ़र से वापिस आयेंगे। यह सुन कर उसने कहा कि शायद तुझको मेरा हाल मालूम नहीं है। आ मैं दिखा दूं फिर मुझे रास्ता काट कर एक सिम्त दरख़्त के नीचे ले गया और वहां से अपने ख़वासों को हटा कर अपने बदन का कपड़ा उठा कर मुझे दिखाया , तो एक परचाए रेशम शिकम पर लपेटा हुआ था और उससे सारा बदन कसा हुआ था। यह दिखा कर मुझ से कहा कि मैं मुद्दत से बीमार हूँ तमाम बदन में दर्द उठता है मगर किसी से अपना हाल कह नहीं सकता तुम्हारे पास भी यह राज़ अमानत रहे। मेरे बेटों में से हर एक का गुमाशता मेरे ऊपर मुक़र्रर है। मामून की तरफ़ से मसरूर , अमीन की जानिब से बख़तीशू। यह लोग मेरी सांस तक गिनते रहते हैं और उन्हें चाहते हैं कि मैं एक रोज़ भी ज़िन्दा रहूं अगर तुम को यक़ीन न हो तो देखो मैं तुम्हारे सामने घोड़ा सवार होने को मांगता हूँ , ऐसा टट्टू मेरे लिये लायेंगे जिस पर सवार हो कर मैं और ज़्यादा बिमार हो जाऊँ। यह कह कर घोड़ा तलब किया। वाक़ई ऐसा लाग़र अड़यल टट्टू हाज़िर किया। उस पर हारून बे चूं चरां सवार हो गया और मुझको वहां से रूख़सत कर के जरजान का रास्ता पकड़ लिया।

बहरहाल हारूर रशीद की यही मजबूरीयां थीं जिन्होंने उसको हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) के मुख़ालिफ़ाना उमूर की तरफ़ मुतवज्जेह नहीं होने दिया वरना उसे फ़ुरसत होती और वह अपनी क़दीम जी़ इख़्तियारी की हालतों पर क़ायम रहता तो इस सिलसिले की ग़ारत गरी व बरबादी को कभी भूलने वाला नहीं था मगर उस वक़्त क्या कर सकता था अपने ही दस्तो पा अपने ही इख़्तेयार में नहीं थे। बहरहाल हारून रशीद इसी ज़ीकुन नफ़्स मजबूरी नादारी और बेइख़्तेयारी की ग़ैर मुतहमिल मुसीबतों में ख़ुरासान पहुँच कर शुरू 193 हि. में मर गया।

इन दोनों भाइयों अमीन और मामून के मुतअल्लिक़ मुवर्रिख़ीन का कहना है कि मामून तो फिर भी सूझ बूझ और अच्छे कैरेक्टर का आदमी था लेकिन अमीन अय्याश , ला उबाली और कमज़ोर तबीयत का था। सलतनत के तमाम हिस्सों में बाज़ीगर , मसख़रे और नुजूमी जोतिशी बुलवाये। निहायत ख़ूबसूरत तवाएफ़ और निहायत कामिल गाने वालियों और ख़्वाजा सराओं को बड़ी बड़ी रक़में ख़र्च करके और नाटक की एक महफ़िल मिस्ल इन्द्र सभ के तरतीब दी। यह थियेटर अपने ज़र्क़ बर्क़ सामानों से परियों का अख़ाड़ा मालूम होता था। स्यूती ने इब्ने जरीर से नक़्ल किया है कि अमीन अपनी बीबियों को छोड़ कर ख़स्सियों से लवात करता था।(तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 पृष्ठ 60)

इमाम अली रज़ा (अ.स.) का हज और हारून रशीद अब्बासी

ज़माना ए हारून रशीद में हज़रत इमामे अली रज़ा (अ.स.) हज के लिये मक्के मुअज़्ज़मा तशरीफ़ ले गये। उसी साल हारून रशीद भी हज के लिये आया हुआ था। ख़ाना ए काबा में दाखि़ले के बाद इमाम अली रज़ा (अ.स.) एक दरवाज़े से और हारून रशीद दूसरे दरवाज़े से निकले । इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया कि यह दूसरे दरवाज़े से निकलने वाला जो हम से दूर जा रहा है , अनक़रीब तूस में दोनों एक जगह होंगे। एक रिवायत में है कि यहया बिने ख़ालिद बर मक्की को इमाम (अ.स.) ने मक्के में देखा कि वह रूमाल से गर्द की वजह से मुहं बन्द किये हुए जा रहा है। आप ने फ़रमाया कि उसे पता भी नहीं कि उसके साथ इमसाल क्या होने वाला है। यह अनक़रीब तबाही की मन्ज़िल में पहुँचा दिया जायेगा। चुनान्चे ऐसा ही हुआ।

रावी मुसाफ़िर का बयान है कि हज के मौक़े पर इमाम (अ.स.) ने हारून रशीद को देख कर अपने दोनों हाथों की अंगुलियां मिलाते हुए फ़रमाया कि मैं और यह इसी तरह एक हो जायेंगे। वह कहता है कि मैंने इस इरशाद का मतलब उस वक़्त समझा जब आपकी शहादत वाक़े हुई और दोनों एक मक़बरे में दफ़्न हुए। मूसा बिने इमरान का कहना है कि इसी साल हारून रशीद मदीने मुनव्वरा पहुँचा और इमाम (अ.स.) ने उसे खुत्बा देते हुए देख कर फ़रमाया कि अनक़रीब मैं और हारून एक ही मक़बरे में दफ़्न किये जायेंगे।(नूरूल अबसार पृष्ठ 144)

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) का मुजद्दिदे मज़हबे इमामिया होना

अहादीस में हर सौ साल के बाद एक मुजद्दे इस्लाम के नुमूदो शुहूद का निशान मिलता है। यह ज़ाहिर है कि जो इस्लाम का मुजद्द होगा उसके तमाम मानने वाले उसी के मसलक पर गामज़न और उसी के उसूलो फ़ुरू के सराहने वाले होंगे और मुजद्द को जो बुनियादी मज़हब होगा उसके मानने वालों का भी वही मज़हब होगा। हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) जो क़तई तौर पर फ़रज़न्दे रसूले इस्लाम (स.अ.) थे वह उसी मसलक पर गामज़न थे। जिस मसलक की बुनियाद पैग़म्बरे इस्लाम और अली (अ.स.) ख़ैरूल अनाम का वुजूद ज़ी जूद था। यह मुसल्लेमात से है कि आले मोहम्मद (अ.स.) पैग़म्बर (अ.स.) के नक़्शे क़दम पर चलते थे और उन्हीं के ख़ुदाई मन्शा और बुनियादी मक़सद की तबलीग़ फ़रमाया करते थे यानी आले मोहम्मद (अ.स.) का मसलक वही था जो मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) का मसलक था। अल्लामा इब्ने असीर जज़री अपनी किताब जामिउल उसूल में लिखते हैं कि हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) तीसरी सदी हिजरी में और सुक़्क़तुल इस्लाम अल्लामा क़ुलैनी चैथी सदी हिजरी में मज़हबे इमामिया के मुजद्दे थे। अल्लामा क़ौनवी और मुल्ला मुबीन ने उसी को दूसरी सदी के हवाले से तहरीर फ़रमाया है।(वसीलतुन निजात पृष्ठ 376 व शरह जामे सग़ीर)

मुहद्दिस देहलवी शाह अब्दुल अज़ीज़ इब्ने असीर का कौल नक़ल करते हुए लिखते हैं कि इब्ने असीर जज़री साहबे जामिउल उसूल के हज़रत इमामे अली बिने मूसा रिज़ा (अ.स.) मुजद्दे मज़हबे इमामिया दरक़रन सालिस गुफ़्ता अस्त। इब्ने असीर जज़री साहबे जामिउल उसूल ने हज़रत इमामे रज़ा (अ.स.) को तीसरी सदी में मज़हबे इमामिया का मुजद्द होना ज़ाहिरो वाज़िह फ़रमाया है। (तोहफ़ा ए असना अशरया कीद 85 पृष्ठ 83) बाज़ उलेमाए अहले सुन्नत ने आप को दूसरी सदी का और बाज़ ने तीसरी सदी का मुजद्द बतलाया है। मेरे नज़दीक दोनों दुरूस्त हैं क्यों कि दूसरी सदी में इमामे रज़ा (अ.स.) की विलादत और तीसरी सदी के आग़ाज़ में आपकी शहादत हुई है।

हज़रत इमामे अली रज़ा (अ.स.) के अख़्लाक़ व आदात और शमाएल व ख़साएल

आपके इख़्लाक़ो आदात और शमाएल ओ ख़साएल का लिखना इस लिये दुश्वार है कि वह बेशुमार हैं। ‘‘ मुश्ते नमूना अज़ ख़ुरदारे ’’ यह है बहवाले अल्लामा शिबलिन्जी इब्राहीम बिने अब्बास तहरीर फ़रमाते हैं कि हज़रत इमामे अली रज़ा (अ.स.) ने कभी किसी शख़्स के साथ गुफ़्तुगू करने में सख़्ती नहीं की और किसी बात को क़ता नहीं फ़रमाया। आपके मकारिमो आदात से था कि जब बात करने वाला अपनी बात ख़त्म कर लेता तब अपनी तरफ़ से आग़ाज़े कलाम फ़रमाते। किसी की हाजत रवाई और काम निकालने में हत्तल मक़दूर दरेग़ न फ़रमाते। कभी अपने हमनशीं के सामने पांव फ़ैला कर न बैठते और न अहले महफ़िल के रू ब रू तकिया लगा कर बैठते थे। कभी अपने ग़ुलामों को गाली न दी और चीज़ों का क्या ज़िक्र। मैंने कभी आपको थूकते और नाक साफ़ करते नहीं देखा। आप क़ह क़हा लगा कर हरगिज़ नहीं हंसते थे। ख़न्दा ज़नी के मौक़े पर आप तबस्सुम फ़रमाया करते थे। मुहासिने इख़्लाक़ और तवाज़ो व इन्केसारी की यह हालत थी कि दस्तरख़्वान पर साइस और दरबान तक को अपने साथ बिठा लेते । रातों को बहुत कम सोते और अक्सर रातों को शाम से सुबह तक शब्बेदारी करते थे और अक्सर औक़ात रोज़े से होते थे मगर तो आपसे कभी क़ज़ा नहीं हुए। इरशाद फ़रमाते थे कि हर माह में कम अज़ कम तीन रोज़े रख लेना ऐसा है जैसे कोई हमेशा रोज़े से रहे। आप कसरत से ख़ैरात किया करते थे और अकसर रात के तारीक परदे में इस इसतिहबाब को अदा फ़रमाया करते थे। मौसमे गर्मा में आपका फ़र्श जिस पर आप बैठ कर फ़तवा देते या मसाएल बयान किया करते बोरिया होता था और सरमा में कम्बल आपका यही तर्ज़े उस वक्त़ भी रहा जब आप वली अहदी हुकूमत थे। आपका लिबास घर में मोटा और ख़शन होता था और रफ़ए तान के लिये बाहर आप अच्छा लिबास पहनते थे। एक मरतबा किसी ने आप से कहा हुज़ूर इतना उम्दा लिबास क्यों इस्तेमाल फ़रमाते हैं ? आपने अन्दर का पैराहन दिखा कर फ़रमाया अच्छा लिबास दुनिया वालों के लिये और कम्बल का पैराहन ख़ुदा के लिये है। अल्लामा मौसूफ़ तहरीर फ़रमाते हैं कि एक मरतबा आप हम्माम में तशरीफ़ रखते थे कि एक शख़्स जुन्दी नामी आ गया और उसने भी नहाना शुरू किया। दौराने ग़ुस्ल में उसने इमामे रज़ा (अ.स.) से कहा कि मेरे जिस्म पर पानी डालिये आपने पानी डालना शुरू किया। इतने में एक शख़्स ने कहा ऐ जुन्दी ! फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.) से खि़दमत ले रहा है , अरे यह इमामे रज़ा (अ.स.) हैं। यह सुनना था कि वह पैरों पर गिर पड़ा और माफ़ी मांगने लगा।(नूरूल अबसार पृष्ठ 38 व पृष्ठ 39)

एक मर्दे बलख़ी नाक़िल है कि मैं हज़रत के साथ एक सफ़र में था एक मक़ाम पर दस्तरख़्वान बिछा तो आपने तमाम ग़ुलामों को जिनमे हब्शी भी शामील थे , बुला कर बिठा लिया मैंने अर्ज़ किया मौला इन्हें अलाहिदा बिठाये तो क्या हर्ज़ है आपने फ़रमाया कि सब का रब एक है और मां बाप आदम ओ हव्वा भी एक हैं और जज़ा और सज़ा आमाल पर मौसूफ़ है , तो फिर तफ़रीक़ क्या। आपके एक ख़ादिम यासिर का कहना है कि आपका यह ताकीदी हुक्म था कि मेरे आने पर कोई ख़ादिम खाना खाने की हालत में मेरी ताज़ीम को न उठे। मुअम्मर बिने ख़लाद का बयान है कि जब भी दस्रख़्वान बिछता आप हर खाने में से एक एक लुक़मा निकाल लेते थे और उसे मिसकीनों और यतीमों को भेज दिया करते थे। शेख़ सुदूक़ तहरीर फ़रमाते हैं कि आपने एक सवाल का जवाब देते हुए फ़रमाया कि बुज़ुर्गी तक़वा से है जो मुसझे ज़्यादा मुत्तक़ी है वह मुझ से बेहतर है। एक शख़्स ने आपसे दरख़्वास्त की कि आप मुझे अपनी हैसियत के मुताबिक़ कुछ माल दुनियां से दीजिए। आपने फ़रमाया यह मुश्किल है। फिर उसने अर्ज़ की अच्छा मेरी हैसियत के मुताबिक़ इनायत कीजिये , फ़रमाया यह मुम्किन है। चुनान्चे आप ने उसे दो सौ अशरफ़ी इनायत फ़रमा दी। एक मरतबा नवीं ज़िलहिज्जा यौमे अर्फ़ा आपने राहे खु़दा में सारा घर लुटा दिया। यह देख कर फ़ज़्ल बिने सुहैल वज़ीरे मामून ने कहा , हज़रत यह तो ग़रामत यानी अपने आप को नुक़सान पहुँचाना है। आपने फ़रमाया यह ग़रामत नहीं ग़नीमत है मैं इसके इवज़ में खु़दा से नेकी और हसना लूंगा। आपके ख़ादिम यासिर का बयान है कि हम एक दिन मेवा खा रहे थे और खाने में ऐसा करते थे कि एक फल से कुछ खाते और कुछ फेंक देते थे हमारे इस अमल को आपने देख लिया और फ़रमाया नेमते ख़ुदा को ज़ाया न करो , ठीक से खाओ और जो बच जाए उसे किसी मोहताज को दे दो। आप फ़रमाया करते थे कि मज़दूर की मज़दूरी पहले तै करना चाहिये क्यों कि चुकाई हुई उजरत से ज़्यादा जो कुछ दिया जायेगा पाने वाला उसको इनाम समझेगा।

सूली का बयान है कि आप अक्सर ऊदे हिन्दी का बुख़ूर करते और मुश्क व गुलाब का पानी इस्तेमाल करते थे। इत्रयात का आपको बड़ा शौक़ था। नमाज़े सुबह अव्वल वक़्त पढ़ते उसके बाद सजदे में चले जाते थे और निहायत तूल देते थे फिर लोगों को नसीहत फ़रमाते।

सुलेमान बिन जाफ़र का कहना है कि आप अपने आबाओ अजदाद की तरह ख़ुरमें को बहुत पसन्द फ़रमाते थे। आप शबो रोज़ में एक हज़ार रकत नमाज़ पढ़ते थे। जब भी आप बिस्तर पर लेटते थे तो जब तक सो न जाते क़ुरआने मजीद के सूरे पढ़ा करते थे।

मूसा बिन सयार का बयान है कि आप अकसर अपने शियों की मय्यत में शिरकत फ़रमाते थे और कहा करते थे कि हर रोज़ शाम के वक़्त इमामे वक़्त के सामने आमाल पेश होते हैं , अगर कोई शिया गुनाहगार होता है तो इमाम उसके लिये असतग़फ़ार करते हैं।

अल्लामा तबरसी लिखते हैं कि आपके सामने जब भी कोई आता था आप पहचान लेते थे कि मोमिन है या मुनाफ़िक़। (आलामुल वुरा तोफ़ाए रिज़विया , कशफ़ुल ग़म्मा पृष्ठ 122)

अल्लामा मोहम्मद रज़ा लिखते हैं कि आप हर सवाल का जवाब क़ुराने मजीद से देते थे और रोज़आना एक क़ुरआन ख़त्म करते थे।(जन्नातुल ख़ुलूद पृष्ठ 31)

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) के बाज़ करामात

आपके क़ौलो फ़ेल से बेइन्तेहा करामत का ज़हूर हुआ है जिनमें से कुछ इस जगह लिखे जाते हैं अल्लामा मोमिन शिब्लन्जी रक़म तराज़ हैं।

1.एक दिन हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) ने अमीन और मामून पर नज़र डालते हुए फ़रमाया कि अन्क़रीब अमीन को मामून क़त्ल कर देगा , चुनान्चे ऐसा ही हुआ और अमीन अब्बासी 23 मोहर्रम 198 हिजरी को 4 साल 8 माह सलतनत करने के बाद मामून रशीद के हाथों क़त्ल हुआ।(तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 पृष्ठ 20 व नूरूल अबसार)

2. हुसैन बिन मूसा का बयान है कि हम लोग एक मक़ाम पर बैठे हुए बातें कर रहे थे कि इतने में जाफ़र बिन उमर अल अलवी का गुज़र हुआ इसकी शक्ल व शबाहत और हैसीयत व हालत देख कर आपस में बातें करने लगे। हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) ने फ़रमाया अन्क़रीब दौलत मन्द और रईस हो जायेगा और इसकी हालत यकसर तबदील हो जायेगी। चुनान्चे ऐसा ही हुआ और वह एक माह के अन्दर मदीने का गर्वनर हुआ।

3. जाफ़र बिन सालेह से आपने फ़रमाया तेरी बीवी को दो जुड़वाँ बच्चे होगें। एक का नाम अली और दूसरे का नाम उम्मे उमर रखना। जब इसके यहां विलादत हुई तो ऐसा ही हुआ। जाफ़र बिन सालेह ने अपनी माँ से कहा , इमाम अली रज़ा (अ.स.) ने यह उम्मे उमर क्या नाम तजवीज़ फ़रमाया है ? इसने कहा तेरी दादी का नाम उम्मे उमर था हज़रत ने इसी के नाम पर मौसूम फ़रमाया है।

4. आपने एक शख़्स की तरफ़ देख कर फ़रमाया उसे मेरे पास बुला लाओ। जब वह लाया गया तो आपना फ़रमाया कि तू वसीयत कर ले अमरे हतमी के लिये तैयार हो जा ‘‘फ़मात अर जअल बादा सलासता अय्याम ’’ इसे फ़रमाने के तीन दिन बाद उस शख़्स का इन्तेक़ाल हो गया।(नूरूल अबसार पृष्ठ 139)

5. अल्लामा अब्दुर्रहमान रक़म तराज़ हैं कि एक शख़्स ख़ुरासान के इरादे से निकला , उसे उसकी लड़की ने एक हाला दिया कि फ़रोख़्त कर के फ़ीरोज़ा लेते आना। वह कहता है कि जब मैं मक़ाम मर्द में पहुँचा तो इमाम रज़ा (अ.स.) के एक ख़ादिम ने मुझ से कहा कि एक दोस्त दार अहले बैत का इन्तेक़ाल हो गया है इसके कफ़न की ज़रूरत है तू अपना हाला मेरे हाथ फ़रोख़्त कर दे ताकि मैं उसे इसके कफ़न के लिये इस्तेमाल करूँ। इस मर्दे कूफ़ी ने कहा कि मेरे पास कोई हाला बराए फ़रोख़्त नहीं है। ख़ादिम ने इमाम रज़ा (अ.स.) से वाक़ेया बयान किया। इस से जा कर मेरा सलाम कह दे और उसे मेरा पैग़ाम पहुँचा कर कह तेरी लड़की ने जो हाला बराए ख़रीद फ़ीरोज़ा दिया है वह फ़रोख़्त कर दे। उसने बड़ा ताज्जुब किया और हाला निकाल कर उसके हाथ में फ़रोख़्त कर डाला। उस कूफ़ी का बयान है कि मैंने यह सोच कर की वह बड़े बा कमाल हैं इन से चन्द सवालात करना चाहा और इसी इरादे से इनके मकान पर गया लेकिन इतना इज़देहाम था कि दरे दौलत तक न पहुँच सका। दूर खड़ा सोच ही रहा था कि एक ग़ुलामने एक पर्चा ला कर दे दिया और कहा कि इमाम रजा़ (अ.स.) ने यह पर्चा इनायत फ़रमाते हुए कहा है कि तेरे सवाल के जवाबात इस में मरक़ूम हैं। ( चून निगाही करदम जवाबे मसाएले मन बूदे ) जब मैंने उसे देखा तो वाक़िएन मेरे सवालात के जवाबात थे।

6. रियान बिन सलत का बयान है कि मैं हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर हुआ। मेरे दिल मे यह था कि मैं हज़रत से अपने लिये जामे और उनसे वह दिरहम मागूँगा जिस पर आपका इस्म गिरामी कन्दा होगा। मेरे हाज़िर होते ही आपने अपने गु़लाम से फ़रमाया कि यह जामे और सिक्का चाहते हैं इन्हें दो जामे और मेरे नाम के तीस सिक्के दे दो।

7. एक ताजिर को किरमान के रास्ते में डाकुओ ने पकड़ कर उसके मुहँ में इस दरजा बरफ़ भर दी कि उसकी ज़बान और उसका जबड़ा बेकार हो गया। उसने बहुत इलाज किया लेकिन कोई फ़ायदा न हुआ। एक दिन उसने सोचा कि मुझे इमाम रजा़ (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर हो कर इलाज की दरख़्वास्त करनी चाहिये। यह सोच कर वह रात में सो गया , ख़्वाब में देखा कि मैं इमाम रज़ा (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर हूँ। उन्होंने फ़रमाया कि कमूनी सआतर और नमक को पानी में भिगो कर तीन चार बार ग़रारा करो , इन्शा अल्लाह शिफ़ा हो जायेगी। जब मैं ख़्वाब से बेदार हो कर हाज़िरे खि़दमत हुआ तो हज़रत ने फ़रमाया तुम्हारा वही इलाज है जो मैंने तुम को ख़्वाब मे बतलाया है। वह कहता है कि मैंने अपना ख़्वाब उन से बयान नहीं किया था इसके बा वजूद आपने वही जवाब दिया।

अल्लामा अरबली लिखते हैं कि हज़रत जो दवा बताई थी उसके अज्जा़ यह हैं।1. ज़ीरा किरमानी 2. सआतर नमक (कशफ़ल ग़म्मा पृष्ठ 112)

8. अबु इस्माईल सिन्धी का बयान है कि मैं हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर हो कर अर्ज़ परदाज़ हुआ कि मौला मुझे अरबी ज़बान नहीं आती। आपने उसके लबों पर दस्ते मुबारक फेर कर उसे अरबी में गोया बना दिया।

9. एक हाजी ने आप से बहुत से सवाल किये , आपने सबका जवाब दे कर फ़रमाया कि वह सवाल तुम ने नहीं किया जो एहराम के लिबास से मुताअल्लिक़ था जिसमें तुम्हे शक है। उसने कहा हां मौला उसे भूल गया था। आपने फ़रमाय उस मख़सूस लिबास में एहराम दुरूस्त है।

10. आपने ख़ाके ज़मीन सूँघ कर अपनी क़ब्र की जगह बता दी।

11. एक शख़्स मोतमिद का बयान है कि मैं हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) के पास खड़ा था कि चिड़ियों का एक झुंड इमाम (अ.स.) के पास आके चीख़ने लगा। इमाम (अ.स.) ने मुझसे कहा जानते हो यह क्या कहता है। मैंने कहा कि खु़दा और रसूल (स.अ.) और फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.) ही इसे जान सकते हैं। आपने फ़रमाया इस झुंड का कहना यह है कि एक सांप आया हुआ है और वह मेरे बच्चों को खाना चाहता है। तुम जाओ और उसे तलाश कर के मार डालो। चुनान्चे मैं उस मक़ाम पर गया और सांप को मार डाला।(शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 199 से 201)

12. अल्लामा मोहम्मद रज़ा लिखते हैं कि एक मरतबा क़हत पड़ा , आपने दुआ की , एक अब्र नमूदार हुआ , लोग ख़ुश हो गये लेकिन आपने फ़रमाया कि यह टुकड़ा अब्र का फ़लां मक़ाम के लिये है। इसी तरह कई बार हुआ। आखि़र में आपने एक अब्र के टुकड़े के नमूदार होने पर फ़रमाया कि यह यहां बरसेगा। चुनान्चे ऐसा ही हुआ।(जन्नातुल ख़ुलूद पृष्ठ 31, उयून अख़्बारे रज़ा पृष्ठ 214)

13. अल्लामा तबरेसी तहरीर फ़रमाते हैं कि एक रोज़ आप अपनी ज़मींदारी पर तशरीफ़ ले गये। जाते वक़्त फ़रमाया कि मेरे हमराही को चाहिये कि बारिश का सामान ले ले। हसन बिन मूसा ने कहा कि हुज़ूर सख़्त गरमी है बारिश के तो आसार नहीं हैं। फ़रमाया बारिश ज़रूर होगी। चुनान्चे वहां पहुँचने के बाद ही बारिश का नुज़ूल शुरू हो गया और ख़ूब पानी बरसा।(आलामुल वुरा पृष्ठ 189)

हज़रत रसूले खु़दा (स.अ.) और जनाबे अली रज़ा (अ.स.) वाक़ए तमर सीहानी

14. अल्लामा इब्ने हजर मक्की , अल्लामा शिब्लन्जी , अल्लामा अब्दुल्लाह रक़म तराज़ हैं कि मोहम्मद बिन हबीब का बयान है कि मैंने ख़्वाब में हज़रत रसूल खुदा (स.अ.) को अपने शहर की उस मस्जिद में देखा जिसमें हाजी उतरते और नमाज़ वग़ैरा पढ़ा करते थे। मैंने हज़रत को सलाम किया और हज़रत के पास तबक़ देखा जिसमें निहायत उम्दा खजूरें रखी हुई थीं। मेरे सलाम पर हज़रत ने अट्ठारा दाने इस खजूर के मरहमत फ़रमाये। मैं इस ख़्वाब से बेदार हुआ तो समझा कि अब सिर्फ़ अट्ठराहा साल ज़िन्दा रहूँगा। इस ख़्वाब के बीस दिन के बाद हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) मदीने से तशरीफ़ लाये और इसी मस्जिद में उतरे जिसमें हज़रत रसूल (स.अ.) को मैंने ख़्वाब में देखा था। हज़रत के सामने एक तबक़ में देसी खजूरें रखी थीं। लोग हज़रत को सलाम करने के लिये दौड़े , मैं भी गया तो देखा कि हज़रत उसी जगह तशरीफ़ फ़रमा हैं जहां मैंने ख़्वाब में रसूले ख़ुदा (स.अ.) को तशरीफ़ फ़रमा देखा था। मैंने सलाम किया तो हज़रत ने जवाब दिया और अपने क़रीब बुला कर एक मुठ्ठी इस तबक़ की खजूरें मरहमत फ़रर्माईं मैंने गिनी तो वह भी अट्ठारा थीं। इसी क़द्र जितनी रसूले ख़ुदा (स.अ.) ने मुझे ख़्वाब मे दी थीं। मैंने अर्ज़ कि हुज़ूर और कुछ मरहमत हों तो फ़रमायें। आपने फ़रमाया ‘‘ लौ ज़ादेका रसूल अल्लाह लज़्दे नाक ’’ कि अगर रसूले ख़ुदा (स.अ.) तुम को ख़्वाब में इससे ज़्यादा दिये होते तो मैं भी ज़्यादा देता।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 122, नूरूल अबसार पृष्ठ 144, अरजहुल मतालिब पृष्ठ 454)