अबुल हसन हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.)

अबुल हसन हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.)33%

अबुल हसन हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) लेखक:
कैटिगिरी: इमाम रज़ा (अ)

अबुल हसन हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.)
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अबुल हसन हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.)

अबुल हसन हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.)

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.


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हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) का इल्मी कमाल

मुवर्रेख़ीन का बयान है कि आले मोहम्मद (स.अ.) के इस सिलसिले में हर फ़र्द हज़रते अहदियत की तरफ़ से बलन्द तरीन इल्म के दरजे पर क़रार दिया गया था जिसे दोस्त और दुश्मन सब को मानना पड़ता था। यह और बात है कि किसी को इल्मी फ़यूज़ फैलाने का ज़माने ने कम मौक़ा दिया और किसी को ज़्यादा। चुनान्चे इन हज़रात में से इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के बाद अगर किसी को सब से ज़्यादा मौक़ा हासिल हुआ तो वह हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) हैं। जब आप इमामत के मन्सब पर नहीं पहुँचे थे उस वक़्त हज़रत इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) अपने तमाम फ़रज़न्दों और ख़ानदान के लोगों को नसीहत फ़रमाते थे कि तुम्हारे भाई अली रज़ा आलिमे आले मोहम्मद है। अपने दीनी मसाएल को इन से दरयाफ़्त कर लिया करो और जो कुछ कहें उसे याद रखो और फिर हज़रत इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) की वफ़ात के बाद जब आप मदीने में थे और रौज़ा ए रसूल (स.अ.) पर तशरीफ़ फ़रमा थे तो उल्माए इस्लाम मुश्किल मसाएल में आपकी तरफ़ रूजू करते थे।

मोहम्मद बिन ईसा यक़तैनी का बयान है कि मैंने इन तहरीरी मसाएल जो हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) से पूछने गये थे और आपने इनका जवाब तहरीर फ़रमाया। इकट्ठा किया तो अठ्ठारा हज़ार की तादाद में थे। साहबे लुमतुल रज़ा तहरीर करते हैं कि हज़राते आइम्मा ए ताहेरीन (अ.स.) के ख़ुसूसियात में यह अमर तमाम तारीख़ी मुशाहिद और नीज़ हदीस व सैर के असानीद से साबित है। बावजूद एक अहले दुनियां को आप हज़रात की तक़लीद और मुताबेअत फ़ील अहकाम का बहुत कम शरफ़ हासिल था मगर बई हमा तमाम ज़माना व हर ख़वेश व बेगाना आप हज़रात को तमाम उलूमे इलाही और इसरारे इलाही का गन्जीना समझता था और मोहद्दे सीन व मुफ़स्सेरीन और तमाम उलमा फ़ज़लन आपके मुक़ाबले का दावा रखते थे। वह भी इल्मी मुबाहस व मजालिस में आँ हज़रत के आगे ज़ानुए अदब तै करते थे और इल्मी मसाएल को हल करने की ज़रूरतों के वक़्त हज़रत अमीरल मोमेनीन (अ.स.) से ले कर इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) तक इस्तफ़ादे किए वह सब किताबों में मौजूद हैं।

जाबिर बिन अब्दुल्लाह अन्सारी और हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़र (अ.स.) की खि़दमत में समअ हदीस के वाक़ेआत तमाम हदीस की किताब में महफ़ूज़ हैं। इसी तरह अबुल तुफ़ैल अमिरी और सईद बिन जैर आख़्री सहाबा की तफ़सीली हालात जो उन बुज़ुर्गों के हाल में पाए जाते हैं वह सैरो तवारीख़ में मज़कूर व मशहूर हैं सहाबा के बाद ताबईन और तबेए ताबईन और उन लोगों की फ़ैज़याबी की भी यही हालत है।

शअबी , ज़हरी इब्ने क़तीबह , सुफ़यान , सौरी इब्ने शीबा , अब्दुर्रहमान , अकरमा , हसन बसरी वग़ैरा वग़ैरा यह सब के सब जो उस वक़्त इस्लामी दुनियां में दीनयात के पेशवा और मुक़द्दस समझे जाते थे इन्हीं बुज़ुर्गों के चश्माए फ़ैज़ के जुरआ नोश और उन्हीं हज़रात के मुतीय व हलक़ा बगोश थे।

जनाबे इमामे रज़ा (अ.स.) को इत्तेफ़ाक़े हसना से अपने इल्मो फ़ज़ल के इज़हार के ज़्यादा मौक़े पेश आये क्यों कि मामून अब्बासी के पास जब तक दारूल हुकूमत मर्व तशरीफ़ फ़रमा रहे बड़े बड़े उलमा व फ़ुज़ला मुख़तलिफ़ उलूम में आपकी इस्तेदाद और फ़ज़ीलत का अन्दाज़ा कराया गया और कुछ इस्लामी उलमा व फ़ुज़ला पर मौकूफ़ नहीं था बल्कि उलमा ए यहूदो नसारा से भी आपका मुक़ाबला कराया गया। मगर इन तमाम मनाज़िरो व मुबाहेसो में इन तमाम लोगों पर आपकी फ़ज़ीलत व फ़ौक़ियत ज़ाहिर हुई। ख़ुद मामून भी ख़ुलफ़ा ए अब्बासीया में सब से ज़्यादा आलम व अफ़क़ह था बा वजूद इसके उलूम तबर्हुरफ़ी का लौहा मानता था चारो नाचार इसका ऐतराफ़ और इक़रार पर इक़रार करता था। चुनान्चे अल्लामा इब्ने हजर मक्की सवाएक़े मोहर्रेक़ा में लिखते हैं कि आप जलालत क़दर इज़्ज़त व शराफ़त में मारूफ़ व मज़कूर हैं। इसी वजह से मामून आपको बमुनज़िला अपनी रूह व जान जानता था। उसने अपनी दुख़्तर का निकाह आँ हज़रत (अ.स.) से किया और मुल्क व विलायत में अपना शरीक गरदाना। मामून बराबर उलमा , अदयान व फ़ुक़हाय शरीअत को जनाबे इमाम रज़ा (अ.स.) के मुक़ाबले में बुलाता और मनाज़रा कराता। मगर आप हमेशा उन लोगों पर ग़ालिब आते थे और ख़ुद इरशाद फ़रमाते थे कि मैं मदीने में रौज़ा ए हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.) में बैठता , वहां के उलमाए कसीर किसी इल्मी मसाएल में आजिज़ आते तो बिल इत्तेफ़ाक़ मेरी तरफ़ रूजू करते। जवाब हाय शाफ़ी दे कर इनकी तसल्ली व तस्कीन कर देता। अबासलत हरवी इब्ने सालेह कहते हैं कि हज़रत इमाम अली बिन मूसा रज़ा (अ.स.) से ज़्यादा कोई आलम मेरी नज़र से नहीं गुज़रा और मुझ पर मौकू़फ़ नहीं जो कोई आपकी ज़ियारत से मुशर्रफ़ होगा वह मेरी तरह आपकी इल्मियत की शहादत देगा।

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) और हुरूफ़े तहज्जी

बज़ाहिर ऐसा मालूम होता है कि हुरूफ़े तहजी यानी (अलीफ़ , बे , जीम , दाल) वग़ैरा की कोई हैसियत नहीं लेकिन जब उसक हैसियत अरबाबे अस्मत से दरयाफ़्त की जाती है तो मालूम होता है कि यह हुरूफ़ जिन से क़ुरआन मजीद जैसी ऐजाज़ी किताब मुरत्तब की गई है और जिस पर काएनात के इफ़हाम व तफ़हीम का दारो मदार है यह अपने दामन में बेशुमार सेफ़ात रखते हैं और खुदा वन्दे आलम ने उन्हीं हुरूफ़ को अपनी मारफ़त का ज़रिया बनाया है और हर हर्फ़ में ख़ास चीज़ पिन्हा रखती है। हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) से हुरूफ़े तहज्जी दरयाफ़्त किया गया आपने बा हवाला बाबे मदीनतुल उलूम हज़रत अली (अ.स.) इरशाद फ़रमाते हैं कि ‘‘ अलिफ़ ’’ से आला अल्लाह , ख़ुदा की नेअमतें , ‘‘ बे ’’ से बहा उल्लाह , ख़ुदा की खुबीयाँ , बहजतुल्लाह ख़ुदा मोमिन से ख़ुश होना। ‘‘ ते ’’ से तमामुल अमर बक़ाएमे आले मोहम्मद दुनियां का ख़ात्मा इमाम मेहदी (अ.स.) के अहद ममें होगा। ‘‘ से ’’ से सवाब अल मोमेनीन अली अमालेहुम सालेहता मोमेनीन को अच्छे आमाल का भर पूर सवाब मिलेगा। ‘‘ जीम ’’ से जमाल अल्लाह , अल्लाह का जमाल व जलाल अल्लाह , अल्लाह का जलाल , ‘‘ हे ’’ से हिल्मुल्लाह अन अलमज़नबीन। गुनाहगार से अल्लाह का हुक्म। ‘‘ ख़े ’’ से खमोल ज़िक्र अहलुल मासी इन्दुल्लाह ‘‘ ख़ुदा ’’ का गुनाह गारों के गुनाहों से बुलवा देना। ‘‘ दाल ’’ से दीन अल्लाह , अल्लाह का दीन इस्लाम। ‘‘ जीम ’’ ज़ुल्जलाल , अल्लाह का साहबे जमाल होना। ‘‘ रे ’’ से अल्लाह का रऊफ़ुर रहीम होना। ‘‘ जे़ ’’ से ज़लाज़िले अलक़यामता , क़यामत के दिन अज़ीम ज़लज़ले। ‘‘ सीन ’’ से सेना अल्लाह। अल्लाह की अच्छाईयां और बयान। ‘‘ शीन ’’ से शा अल्लाह माशा अल्लाह। जो ख़ुदा चाहे वही होगा। ‘‘ स्वाद ’’ से सादिक़ुल वाद , अल्लाह का वादा सच्चा और लोगों को सच बोलना चाहिए। ‘‘ ज़वाद ’’ से ज़लमिन ख़ालिफ़ मोहम्मद (स.अ.) व आले मोहम्मद (अ.स.)। वह जो शख़्स गुम्राह है जो मोहम्मद (स.अ.) आले मोहम्मद (अ.स.) का मुख़ालिफ़ है। ‘‘ तो ’’ से तूबाअल मोमेनीन , के लिये जन्नत की मुबारक बाद। ‘‘ ज़ो ’’ से ज़न अलमोमेनीन बिल्लाह ख़ैर। मोमिन को ख़ुदा के साथ अच्छा ज़न रखना चाहिये। ‘‘ ऐन ’’ से इल्म यानी ख़ुदा अलमे मुतलक़ है और इल्म इंसान के लिये बेहतरीन ज़ेवर है। ‘‘ ग़ैन ’’ से अलग़नी , ख़ुदा सब से मुसतग़नी है और ग़नी को ग़रीबों पर ख़र्च करना चाहिये। ‘‘ फ़े ’’ से फ़ैज़ मन अफ़वाज़ अन्नार , लोग अगर गुनाह करेंगे तो फ़ौज दर फ़ौज जहन्नुम में जायेंगे। ‘‘ क़ाफ़ ’’ से कु़रआन यह अल्लाह की भेजी हुई किताब है जो हिदायत से पुर है। ‘‘ क़ाफ़ ’’ से अल क़ाफ़ी ख़ुदा बन्दों के लिये काफ़ी ह। ‘‘ लाम ’’ से लग़वो अल काफ़ेरीन फ़ी इफ़तराहुम एल्ल लाहे अलविज़्ब , ख़ुदा पर झूठे इल्ज़ाम देना यह काफ़िरों का काम नेहायत लग़ो है। ‘‘ मीम ’’ से मलकूुल ला हुल यौम ला मालेक ग़ैरहू , एक दिन सिर्फ़ अल्लाह की हुकूमत होगी और कोई भी ज़िन्दा न होगा और न इसके सिवा कोई मालिक होगा , इस दिन ख़ुदा फ़रमायेगा , लेमन उल मुलके अल यौम , आज के दिन किसकी हुकूमत है तो अरवाहे आइम्मा यह जवाब देगें। अल्लाह अल वाहिद अलक़हार , आज सिर्फ़ ख़ुदाए वाहिद क़हार की हुकूमत है। ‘‘ नून ’’ से नवाल अल्लाह अल मोमेनीन व निकाला बिल काफ़ेरीन। मोमेनीन पर ख़ुदा का करम और काफ़िरों पर उसका अज़ाब मोहित होगा। ‘‘ वाव ’’ से वैल लमन असी अल्लाह , वैल और तबाही है इस के लिये जो ख़ुदा की ना फ़रमानी करे। ‘‘ हे ’’ से हान इल लल्लाह मन असह जो ख़ुदा का गुनाह करता है वह उसकी तौहीन करता है। ‘‘ ला ’’ से ला इलाहा इल्लल्लाह , यह वह कलमाए इख़्लास है जो उसे खुलूस व इक़्तेदार और शराएत के साथ ज़बान पर जारी करे वह ज़रूर जन्नत में जाऐगा। ‘‘ ये ’’ से यदुल्लाह अल्लाह का हाथ जो मख़लूक़ात को रोजी़ पहुँचाता है मुराद है।

फिर आपने फ़रमाया कि इन्हीं हुरूफ़ पर मुश्तमिल क़ुरआन मजीद नाज़िल हुआ है और नज़ूल चूंकि ख़ुदा की तरफ़ से था इस लिये दावा कर दिया गया कि जो किताब हम ने हुरूफ़ व अलफ़ाज़ में भेजी है। इसका जवाब जिन व इन्स सब मिल कर भी नहीं दे सकते।(दमए साकेबा जिल्द 3 पृष्ठ 61)

इमाम रज़ा (अ.स.) और वक़्ते निकाह

सक़तुल इस्लाम हज़रत क़ुलैनी किताब उसूले काफ़ी में तहरीर फ़रमाते हैं कि हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) से दरयाफ़्त किया गया कि तजवीज़ व निकाह किस वक़्त होना चाहिये ? आपने इरशाद फ़रमाया कि निकाह रात को सुन्नत है इस लिये कि रात लज़्ज़त और सुकून के लिये बनाई गई है और औरतें मर्दों के लिये लुत्फ़ व लज़्ज़त और सुकून का मरकज़ है।(मुनाक़िब जिल्द 1 पृष्ठ 91 ब हवाला काफ़ी)

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) के बाज़ मरवीयात व इरशादात

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) से बुशामर अहादीस मरवी हैं जिनमें से बाज़ यह हैं।

1. बच्चों के लिये माँ के दूध से बेहतर कोई दूध नहीं। 2. सिरका बेहतरीन सालन है , जिसके घर में सिरका होगा वह मोहताज न होगा। 3. हर अनार में एक दाना जन्नत का होता है। 4. मुनक़्क़ा सफ़रे को दुरूस्त करता है , बलग़म को दूर करता है , पठ्ठो को मज़बूत करता है , नफ़्स को पाकीज़ा बनाता और रंजो ग़म दूर करता है। 5. शहद में शिफ़ा है , अगर कोई शहद हदिया करे तो वापस न करो। 6. गुलाब जन्नत के फूलों का सरदार है। 7. बनफ़शे का तेल सर में लगाना चाहिये इसकी तासीर गर्मियों में सर्द और सर्दियों में गर्म हेती है। 8. जो ज़ैतुन का तेल सर में लगाए या खाए उसके पास चालीस दिन तक शैतान न आयेगा। 9. सेलाए रहम और पड़ोसियों के साथ अच्छा सुलूक करने से माल में ज़्यादती होती है। 10. अपने बच्चों को ख़तना सातवें दिन करा दिया करो इससे सेहत ठीक होती है और जिस्म पर गोश्त चढ़ता है। 11. जुमे के दिन रोज़ा रखना 10 दस रोज़ों के बराबर है। 12. जो किसी औरत का महर न दे या मज़दूर की उजरत रोके या किसी को फ़रोख़्त कर दे वह बख़्शा न जायेगा। 13. क़ुरआन पढ़ने , शहद खाने और दुध पीने से हाफ़ेज़ा बढ़ता है। 14. गोश्त खाने से शिफ़ा होती है और मर्ज़ दूर होता है। 15. खाने की इब्तेदा नमक से करनी चाहिये क्यों कि इस से सत्तर बीमारियों से हिफ़ाज़त होती है जिनमें जुज़ाम भी है। 16. जो दुनियां में ज़्यादा खायेगा क़यामत में भूखा रहेगा। 17. मसूर , 70 सत्तर अम्बिया की पसन्दीदा खुराक है इस से दिल नरम होता है और आंसू बनते हैं। 18. जो चालीस दिन गोश्त न खायेगा बद इख़्लाक़ हो जायेगा। 19. खाना ठंडा कर के खाना चाहिये। 20. खाना प्याले के किनारे से खाना चाहिये। 21. तूले उम्र के लिये अच्छा खाना , अच्छी जूती पहन्ना और क़र्ज़ से बचना , कसरते जिमा से परहेज़ करना मुफ़ीद है। 22. अच्छे इख़्लाक़ वाला पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) के साथ क़यामत में होगा। 23. जन्नत में मुत्तक़ी और हुस्ने खुल्क़ वालों की और जहन्नम में पेटू , ज़िना कारों की कसरत होगी। 24. इमाम हुसैन (अ.स.) के क़ातिल बख़्शे न जायेंगे। उनका बदला खुदा खुद लेगा। 25. हसन व हुसैन (अ.स.) जवानाने जन्नत के सरदार हैं और उनके पदरे बुज़ुर्गवार दोनों से बेहतर हैं। 26. अहले बैत (अ.स.) की मिसाल सफ़ीना ए नूह जैसी है , नजात वही पायेगा जो इस पर सवार होगा। 27. हज़रत फ़ात्मा (स.अ.) साक़े अर्श पकड़ कर क़यामत के दिन वाक़िये करबला का फ़ैसला चाहेंगी। उस दिन उनके हाथ में इमाम हुसैन (अ.स.) का ख़ून भरा लिबास होगा। 28. ख़ुदा से रोज़ी सदक़ा दे कर मांगो। 29. सब से पहले जन्नत में वह शोहदा और अयाल दार जायेंगे जो परहेज़गार होंगे और सब से पहले जहन्नम में न इंसाफ़ हाकिम और मालदार जायेंगे। (मसनद इमाम रज़ा (अ.स.) प्रकाशित मिस्र 1341 हिजरी) 30. हर मोमिन का कोई न कोई पड़ोसी अज़ियत का बाएस ज़रूर होगा। 31. बालों की सफ़ेदी का सर के अगले हिस्से से शुरू होना सलामती और इक़बाल मन्दी की दलील है और रूख़्सारों , दाढ़ी के अतराफ़ से शुरू होना सख़ावत की अलामत है और गेसूओं से शुरू होना शुजाअत का निशान है और गुद्दी से शुरू होना नहूसत है। 32. क़ज़ा व क़द्र के बारे में आपने फ़ज़ील बिन सुहैल के जवाब में फ़रमाया कि इंसान न बिल्कुल मजबूर है और न बिल्कुल आज़ाद है।(नूरूल अबसार पृष्ठ 140)

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) और मजलिसे शोहदाऐ करबला

अल्लामा मजलिसी बेहारूल अनवार में तहरीर फ़रमाते हैं कि शायरे आले मोहम्मद (स.अ.) देबले ख़ेज़ाई का बयान है कि एक मरतबा आशूर के दिन मैं हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर हुआ तो देखा कि आप असहाब के हल्क़े में इन्तेहाई ग़मगीन व हज़ीं बैठे हुये हैं। मुझे हाज़िर होते देख कर फ़रमाया , आओ , आओ हम तुम्हारा इन्तेज़ार कर रहे हैं। मैं क़रीब पहुँचा तो आपने अपने पहलू में जगह दे कर फ़रमाया कि ऐ देबल चूंकि आज यौमे आशूरा है और यह दिन हमारे लिये इन्तेहाई रंजो ग़म का दिन है लेहाज़ा तुम मेरे जद्दे मज़लूम हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) के मरसिए से मुताअल्लिक़ कुछ शेर पढ़ो। ऐ देबल जो शख़्स हमारी मुसीबत पर रोये या रूलाय उसका अज्र ख़ुदा पर वाजिब है। ऐ देबल जिस शख़्स की आंख हमारे जद्दे नामदार हज़रत सय्यदुश शोहदा हुसैन (अ.स.) के ग़म में रोयेगा खुदा उसके गुनाह बख़्श देगा। यह फ़रमा कर इमाम (अ.स.) ने अपनी जगह से उठ कर परदा खींचा और मुख़द्देराते असमत को बुला कर उसमें बिठा दिया। फिर आप मेरी तरफ़ मुख़ातिब हो कर फ़रमाने लगे। हां देबल ! अब मेरे जद्दे अमजद का मरसिया शुरू करो। देबल कहते हैं कि मेरा दिल भर आया और मेरी आंखों से आंसू जारी थे और आले मोहम्मद (अ.स.) में रोने का कोहरामे अज़ीम बरपा था।

साहेबे दारूल मसाएब तहरीर फ़रमाते हैं कि देबल का मरसिया सुन कर मासूमाए क़ुम जनाबे फ़ात्मा हमशीरा हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) इस क़द्र रोईं कि आपको ग़श आ गया।

इस इजतेमाई तरीक़े से ज़िक्रे हुसैनी को मजलिस कहते हैं। इसका सिलसिला अहदे इमाम रज़ा (अ.स.) में मदीने से शुरू हो कर मर्व तक जारी रहा।

अल्लामा अली नक़ी लिखते हैं कि अब इमाम रज़ा (अ.स.) को तबलीग़े हक़ के लिये नामे हुसैन (अ.स.) की इशाअत के काम को तरक़्क़ी देने का भी पूरा मौक़ा हासिल हो गया जिसकी बुनियाद उसके पहले हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़र (अ.स.) और इमाम ज़ाफ़रे सादिक़ (अ.स.) क़ायम कर चुके थे मगर वह ज़माना ऐसा था कि जब इमाम की खि़दमत में वही लोग हाज़िर होते थे जो बा हैसियत इमाम या बा हैसियत आलिमे दीन आपके साथ अक़ीदत रखते थे , और अब इमाम रज़ा (अ.स.) तो इमामे रूहानी भी हैं और वली अहदे सलतनत भी , इस लिये आपके दरबार में हाज़िर होने वालों का दायरा वसी है। ‘‘ मर्वका ’’ वह मक़ाम है जो ईरान से तक़रीबन वसत वाक़े है। हर तरफ़ के लोग यहां आते हैं और यहां यह आालम कि इधर मोहर्रम का चान्द निकला और आंखों से आंसू जारी हो गये। दूसरों को भी तरग़ीब व तहरीस की जाने लगी कि आले मोहम्मद (स.अ.) के मसाएब को याद करो और असराते ग़म को ज़ाहिर करो। यह भी इरशाद होने लगा कि जो इस मजलिस में बैठे जहां हमारी बाते ज़िन्दा की जाती हैं उसका दिल मुर्दा न होगा , उस दिन कि जब सब के दिल मुर्दा होंगे। तज़किराए इमाम हुसैन (अ.स.) के लिये जो मजमा हो उसका नाम इसलाही तौर पर ‘‘ मजलिस ’’ इसी इमाम रज़ा (अ.स.) की हदीस से माख़ूज़ है। आपने अमली तौर पर भी खुद मजलिसें करना शुरू कर दीं। जिनमें कभी खुद ज़ाकिर हुए और दूसरे सामेईन जैसे रियान इब्ने शबीब की हाज़री के मौक़े पर आपने मसाएबे इमाम हुसैन (अ.स.) बयान फ़रमाये और कभी अब्दुल्लाह बिन साबित या देबले खेज़ाई ऐसे किसी शायर के हाज़री के मौक़े पर उस शायर को हुक्म हुआ कि तुम ज़िक्रे इमाम हुसैन (अ.स.) में अशआर पढ़ो , वह ज़ाकिर हुआ और हज़रत सामेईन में दाखि़ल हुए।

1. किताब अल काफ़ी जिल्द 7 पृष्ठ 7 में है कि इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने एक दिन सय्यद हिमयरी को हुक्म दिया कि मरसिया पढ़ो। उन्होंने मरसिया पढ़ा। इमाम खुद भी बे हद रोय और पसे परदा मुख़दे्देरात (औरतों) ने भी बे पनाह गिराया किया।

ख़लीफ़ा मामून रशीद अब्बासी और हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.)

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) के वालिदे माजिद हज़रत इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) को 183 हिजरी में हारून रशीद अब्बासी ज़हर से शहीद कराने के बाद 193 हिजरी में फ़ौत हो गया। इसके मरने के बाद जमादील सानी 193 हिजरी में इसका बेटा अमीन ख़लीफ़ा हुआ। हारून चुंकि अपने बेटों में सलतनत तक़सीम कर चुका था और उसके उसूल मोअय्यन कर चुका था इस लिये एक के बजाय दो हुक्मरानें रशीदी हुदूदे सलतनत पर हुक्मरानी करने लगे। अमीन चुंकि निहायत ही लग़ों आदमी था इस लिये उसने अपने उसअते इख़्तेयार की वजह से मामून पर जबरो ताअद्दी शुरू कर दी बिल आखि़र दोनों भाईयों में जंग हुई और अमीन चार साल आठ माह सलतनत करने के बाद 23 मोहर्रम हराम 198 हिजरी में क़त्ल कर दिया गया।

अमीन के क़त्ल के बाद भी मामून चार साल तक मर्व में रहा। सलतनत का कारोबार तो फ़ज़ल बिन सुहेल के सुपुर्द कर रखा था और खुद आलमों फ़ाज़िलों से जो उसके दरबार में भरे रहते थे फ़लसफ़ी मुबाहिसों में मसरूफ़ रहता था। ईराक़ में फ़ज़ल का भाई , हसन बिन सुहेल गर्वनर बनाया गया था। अबूहज़ीरह में नसर बिन नशिस्त अक़ील ने बग़ावत की और वह पांच साल तक शाही फ़ौजों का मुक़ाबला करता रहा। ईराक़ में बद्दू , लुच्चों , बदमाशों को बुलाकर हसन बिन सुहेल के खि़लाफ़ अलमे बग़ावत बुलन्द कर दिया। यह हालत देख कर हज़रत अली (अ.स.) और हज़रत जाफ़र तैय्यार के बाज़ बुलन्द नज़र नौनिहालों ने शायद यह ख़्याल किया कि इनके हुकू़क़ वापस मिलने का वक़्त आ गया है। चुंनाचे जमादिल सानी 199 हिजरी मुताबिक़ 814 ई 0 में अबू अब्दुल्लाह बिन इब्राहीम बिन इस्माईल बिन इब्राहीम अल मारूफ़ बा तबा बिन हसन अली बिन अबी तालिब अलवी ने जो मज़हब ज़ैदिया रखते थे कूफ़े में ख़रूज किया और लोगों को आले रसूल की बैअत और मुताबेअत की दावत दी। इनकी मद्द पर बनी शैबान का मुअजि़्ज़ज़ सरदार अबुल सरयासरी बिय मन्सूर शैबानी जो हर समह के फ़ौजी सरदारों में से था उठ खड़ा हुआ उन्होंने अपनी मुत्तफ़ेक़ा अफ़वाज से हसन की फ़ौज को कूफ़े के बाहर शिकस्त दे कर तमाम जुनूबी ईराक़ पर क़ब्ज़ा कर लिया।

फ़तेह के दूसरे दिन मोहम्मद बिन इब्राहीम मर्गे मफ़ाजात से फ़ौत हो गये। अबू असराया ने इनकी जगह मोहम्मद निब ज़ैद शहीद को अमीर बना लिया। हसन ने फिर फ़ौज भेजी। अबुल सराया ने उसे भी मार कर फ़ना कर दिया। इसी दौरान अलवी हर चार जानिब से अबुल सरया की मद्द को जमा जो गए और जा बजा शहरों में फैल गये और अबुल सरया ने कूफ़े में इमाम रज़ा (अ.स.) के नाम दिरहम व दीनार ‘‘ मस्कूक ’’ कराए और बसरा वस्ता , मदाएन की तरफ़ फ़ौज रवाना की और ईराक़ के बहुत से शहरो क़रिए फ़तह कर लिये। अलवीयों की क़ूवत व शौकत बहुत बढ़ गई। उन्होंने अब्बासीयो के घर जो कूफ़े में थे फूंक दिये और जो अब्बासी मिला उसे क़त्ल कर डाला। इसके बाद मौसमे हज आया तो अबू असराया ने हुसैन बिन हसन इब्ने इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) को जिन्हें अफ़तस कहते हैं मक्का का गर्वनर मुक़र्रर किया और इब्राहीम बिन मूसा काज़िम को यमन का आमिल बनाया और फ़ारस पर इस्माईल बिन मूसा काफ़िम को गर्वनर किया और मदायन की तरफ़ मोहम्मद बिन सुलैमान बिन दाऊद हसन मुसन्ना को रवाना किया और हुक्म दिया कि जानिबे शरक़ी से बग़दाद पर हमला करें। इस तरह अबुल सरया की सलतनत बहुत वसी हो गई।

फ़ज़ल बिने सहल ने हरसमा को अबू सराया की सरकोबी के लिये रवाना किया और अबूल सराया नहरवान के क़रीब शिकस्त खा कर मारा गया और मोहम्मद बिने मोहम्मद बिने जै़द मामून के पास मर्व भेज दिये गये। अबू सराया का दौरा दौरा कुल दस माह रहा। अबू सराया के क़त्ल हो जाने के बाद हिजाज़ में लोेगों ने मोहम्मद बिने जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) को अमीरल मोमेनीन बनाया। अफतस ने भी उनकी बैअत कर ली और यमन में इब्राहीम बिने मूसिए काज़िम (अ.स.) ने सर उठाया। इसी तरह ईरान की सरहद से यमन तक तमाम मुल्क में ख़ाना जंगी फैल गई। अबुल सराया के क़त्ल के बाद हरसमा मग़रिब के हालात बयान करने को बादशाह की खि़दमत में मर्व हाज़िर हुआ क्यों कि वज़ीर इन तमाम हालात को बादशाह से मख़फ़ी रखता था। हालात बयान कर के वह बादशाह के पास से वापस आ रहा था कि वज़ीर ने रास्ते में उसे क़त्ल करा दिया। यह वाक़ेया 200 हिजरी का है। हरसूमा के क़त्ल की ख़बर सुन कर बग़दाद के सिपाहीयों ने जो उसे दोस्त रखते थे बग़दादियों में बग़ावत कर के हसन बिने सहल को निकाल दिया और मन्सूर बिन मेहदी को अपना गर्वनर बना लिया।

मामून को बाग़ियों की कसरत और अलवियों की तलबे खि़लाफ़त में उठने की ख़बर पहुँची तो घबरा गया और उसने यही मसलहत देखी कि इमाम अली रज़ा (अ.स.) को वली अहद बना ले। चुनान्चे उनको मदीने से बुला कर 2 रमज़ान 201 हिजरी मुताबिक़ 816 ई 0 को बवजूद उनके सख़्त इंकार के अपना वली अहद बना लिया। उनसे अपनी बेटी उम्मे हबीबा की शादी कर दी। उनका नाम दिरहमों दीनार में मस्कूक कराया। शाही वर्दी से अब्बसीयों का सियाह रंग दूर कर के बनी फ़ात्मा का सब्ज़ रंग इख़्तियार किया।(तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 पृष्ठ 61) इस वाक़िए तफ़सील कसीर किताबों में मौजूद है। हम मुख़सर अलफ़ाज़ में तहरीर करते हैं।

मामून रशीद की मजलिसे मुशाविरत

हालात से मुतासिर हो कर मामून रशीद ने एक मजलिसे मुशाविरत तलब की जिसमें उलमा , फ़ुज़ला , जुमआ और उमरा सभी को मदऊ किया। जब सब जमा हो गए तो असल राज़ दिल में रखते हुए उनसे यह कहा कि चूंकि शहरे ख़ुरासान में हमारी तरफ़ से कोई हाकिम नहीं है और इमाम रज़ा (अ.स.) से ज़्यादा लाएक़ कोई नहीं है इस लिये हम चाहते हैं कि इमाम रज़ा (अ.स.) को बुला कर वहां की ज़िम्मेदारी उनके सुपुर्द कर दें। मामून का मक़सद तो यह था कि उनको ख़लीफ़ा बना कर अलवियों की बग़ावत और उनकी चाबुक दस्ती को रोक दे लेकिन यह बात उसने मजलिसे मुशाविरत में ज़ाहिर नहीं कि बल्कि मुल्की ज़रूरत का हवाला दे कर उन्हें ख़ुरासान का हाकिम बनाना ज़ाहिर किया और लोगों ने तो इस पर जो भी राय दी हो लेकिन हसन बिने सहल और वज़ीरे आज़म फ़ज़ल बिने सहल इस पर राज़ी न हुए और यह कहा कि इस तरह खि़लाफ़त बनी अब्बास से आले मोहम्मद (अ.स.) की तरफ़ मुन्तक़िल हो जायेगी। मामून ने कहा मैंने जो कुछ सोचा है वह यही है और उस पर अमल करूंगा यह सुन कर वह लोग ख़ामोश हो गए। इतने में हज़रत अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) के एक मोअजि़्ज़ज़ सहाबी , सुलेमान बिने इब्राहीम बिने मोहम्मद बिने दाऊद बिने क़ासिम बिने हैबत बिने अब्दुल्लाह बिने हबीब बिने शैख़ान बिने अरक़म खड़े हो गए और कहने लगे ऐ मामून रशीद ‘‘ रास्त मी गोई इमामी तरसम कि तू हज़रते इमाम रज़ा हमाना कुनी कि कूफ़ियान बा हज़रते इमाम हुसैन करदन्द ’’ तू सच कहता है लेकिन मैं डरता हूँ कि तू कहीं इनके साथ वही सुलूक न करे जो कूफ़ियों ने इमाम हुसैन (अ.स.) के साथ किया है। मामून रशीद ने कहा , ऐ सुलेमान ! तुम यह क्या सोच रहे हो ऐसा हरगिज़ नहीं हो सकता मैं उनकी अज़मत से वाक़िफ़ हूँ जो उन्हें सताएगा क़यामत में हज़रते रसूले करीम (स.अ.) हज़रते अली हकीम (अ.स.) को क्यों कर मुंह दिखाएगा तुम मुतमईन रहो इन्शा अल्लाह इनका एक बाल बीका न होगा। यह कह कर बा रवाएते अबू मख़नफ़ मामून रशीद ने क़ुराने मजीद पर हाथ रखा और क़सम खा कर कहा मैं हरगिज़ औलादे पैग़म्बर पर कोई ज़ुल्म न करूंगा। इसके बाद सुलेमान ने तमाम लोगों को कसम दे कर बैअत ले ली फिर उन्होंने एक बैअत नामा तैयार किया और उस पर अहले ख़ुरासान के दस्तख़त लिये। दस्तख़त करने वालों की तादाद चालीस हज़ार थी। बैअत नामा तैय्यार होने के बाद मामून रशीद ने सुलैमान को बैअत नामा समेत मदीने भेज दिया। सुलेमान क़ता मराहिल व तै मनाज़िल करते हुए मदीने मुनव्वरा पहुँचे और हज़रते इमाम रज़ा (अ.स.) से मुलाक़ात की। उनकी खि़दमत में मामून का पैग़ाम पहुँचाया और मजलिसे मशाविरत के सारे वाक़ियात बयान किये और बैअत नामा हज़रत की खि़दमत में पेश किया। हज़रत ने ज्यों ही उसको खोला और उसका सर नामा देखा सरे मुबारक हिला कर फ़रमाया कि यह मेरे लिये किसी तरह मुफ़ीद नहीं है। इस वक़्त आप आब दीदा थे। फिर आपने फ़रमाया कि मुझे जद्दे नाम दार ने ख़्वाब में नतीजा व अवाक़िब से आग़ाह कर दिया है। सुलैमान ने कहा मौला यह तो ख़ुशी का मौक़ा है। आप इस दर्जा परेशान क्यों हैं ? इरशाद फ़रमाया कि मैं इस दावत में अपनी मौत देख रहा हूँ। उन्होंने कहा मौला मैंने सब से बैअत ले ली है। कहा दुरूस्त है , लेकिन जद्दे नाम दार ने जो फ़रमाया है वह ग़लत नहीं हो सकता। मैं मामून के हाथों शहीद किया जाऊंगा।

बिल आखि़र आप पर कुछ दबाव पड़ा कि आप मर्व ख़ुरासान के लिये आज़िम हो गए। जब आप के अज़ीज़ों और वतन वालों को आपकी रवानगी का हाल मालूम हुआ बेपनाह रोए।

ग़रज़ कि आप रवाना हो गए। रास्ते में एक चश्मा ए आब के किनारे चन्द आहुओं को देखा कि वह बैठे हुए हैं , जब उनकी नज़रे हज़रत पर पड़ी सब दौड़ पड़े और ब चश्मे तर कहने लगे कि हुज़ूर ख़ुरासान न जायें कि दुश्मन बा लिबासे दोस्ती आपकी ताक में है और मलकुल मौत इस्तेग़बाल के लिये तैय्यार है। हज़रत ने फ़रमाया कि अगर मौत आनी है तो हर हाल में आयेगी। (कन्जु़ल अन्साब अबू मख़नफ़ 807 प्रकाशित बम्बई 1302 हिजरी)

एक रवायत में है कि मामून रशीद ने अपनी ग़रज़ के लिये जब हज़रत को ख़लीफ़ा ए वक़्त बनाने के लिये लिखा तो आपने इनकार कर दिया। फिर उसने तहरीर किया कि आप मेरी वली अहदी को क़ुबूल कीजिए। आपने इसे भी इन्कार कर दिया। जब वह आपकी तरफ़ से मायूस हो गया तो उसने 300 अफ़राद पर मुश्तमिल फ़ौज भेज दी और हुक्म दे दिया कि वह जिस हालत में हो और जहां हो उनको गिरफ़्तार कर के लाया जाए और उन्हें इतनी मोहलत न दी जाए कि वह किसी से मिल सकें। चुनान्चे फ़ौज ग़ालेबन फ़ज़ल बिने सहल वज़ीरे आज़म की क़यादत में मदीने पहुँची और इमाम (अ.स.) मस्जिद से गिरफ़्तार कर के मर्व ख़ुरासान के लिये रवाना हो गये। इतना मौक़ा न दिया कि इमाम (अ.स.) अपने अहलो अयाल से रूख़सत हो लेते।

मामून की तलबी से क़ब्ल इमाम (अ.स.) की रौज़ा ए रसूल पर फ़रयाद

अबू मख़नफ़ बिने लूत बिने यहया ख़ज़ाई का बयान है कि हज़रते इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) की शहादत के बाद 15 मोहर्रमुल हराम शबे यक शम्बा को हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) ने रौज़ा ए रसूले ख़ुदा (स.अ.) पर हाज़री दी। वहां मशग़ूले इबादत थे कि आंख लग गई , ख़्वाब में देखा कि हज़रत रसूले करीम (स.अ.) बा लिबासे स्याह तशरीफ़ लाये हैं और सख़्त परेशान हैं। इमाम (अ.स.) ने सलाम किया हुज़र ने जवाबे सलाम दे कर फ़रमाया , ऐ फ़रज़न्द ! मैं और अली (अ.स.) , फ़ात्मा (स.अ.) हसन (अ.स.) , हुसैन (अ.स.) सब तुम्हारे ग़म में नाला व गिरया हैं और हम ही नहीं फ़रज़न्द ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) व मोहम्मद बाक़र (अ.स.) , जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) और तुम्हारे पदर मूसिए काज़िम (अ.स.) सब ग़मगीन और रंजीदा हैं। ऐ फ़रज़न्द ! अन्क़रीब मामून रशीद तुम को ज़हर से शहीद कर देगा। यह देख कर आपकी आंख खुल गई और आप ज़ार ज़ार रोने लगे। फिर रौज़ा ए मुबारक से बाहर आए। एक जमाअत ने आपसे मुलाक़ात की और आपको परेशान देख कर पूछा कि मौला इज़तिराब की वजह क्या है ? फ़रमाया , अभी अभी जद्दे नाम दार ने मेरी शहादत की ख़बर दी है। अबुल सलत दुश्मन मुझे शहीद करना चाहते हैं और मैं खुदा पर पूरा भरोसा करता हूँ जो मरज़िए माबूद हो वही मेरी मरज़ी है इस ख़्वाब के थोड़े अर्से के बाद मामून रशीद का लशकर मदीने पहुँच गया और इमाम (अ.स.) को अपनी सियासी ग़रज़ पूरी करने के लिये वहां से दारूल खि़लाफ़त ‘‘ मर्व ’’ में ले आया।(कन्ज़ुल अन्साब पृष्ठ 86)

इमाम रज़ा (अ.स.) की मदीने से मर्व में तलबी

अल्लामा शिब्लन्जी लिखते है कि हालात की रौशनी में मामून ने अपने मुक़ाम पर यह क़तई फ़ैसला और अज़म बिल जज़म कर लेने के बाद कि इमाम रज़ा (अ.स.) को वली अहले खि़लाफ़त बनायेगा। अपने वज़ीरे आज़म फ़ज़ल बिन सहल को बुला कर भेजा और उससे कहा कि हमारी राए है कि हम इमाम रज़ा (अ.स.) को वली अहद सुपुर्द कर दे तुम भी इस पर सोच विचार करो और अपने भाई हसन बिन सहल से मशविरा करो। इन दोनों ने आपस में दबादलाए ख़यालात करने के बाद मामून की बारगाह में हाज़री दी। उनका मक़सद था कि मामून ऐसा न करे वरना खि़लाफ़त आले अब्बास से आले मोहम्मद (अ.स.) में चली जायेगी। उन लोगों ने अगर चे खुल कर मुख़ालफ़त न की लेकिन दबे लफ़्ज़ों में नाराज़गी का इज़हार किया। मामून ने कहा मेरा फ़ैसला अटल है और मैं तुम दोनों को हुक्म देता हूँ कि तुम मदीने जा कर इमाम रज़ा (अ.स.) को अपने हमराह लाओ। (हुक्मे हाकिम मर्गे मफ़ाजात) आखि़र कार यह दोनों इमाम रज़ा (अ.स.) की खि़दमत में मक़ामे मदीने मुनव्वरा हाज़िर हुए और उन्होंने बादशाह का पैग़ाम पहुँचाया। हज़रते इमाम अली रज़ा (अ.स.) ने इस अर्ज़ दाश्त को मुस्तरद कर दिया और फ़रमाया कि इस अम्र के लिये अपने को पेश करने के लिये माज़ूह हूँ लेकिन चूंकि बादशाह का हुक्म था कि उन्हें ज़रूर लाओ इस लिये उन दोनों ने बे इन्तेहा इसरार किया और आपके साथ उस वक़्त तक लगे रहे जब तक आपने मशरूत तौर पर वादा नहीं कर लिया।(नूरूल अबसार पृष्ठ 41)

इमाम रज़ा (अ.स.) की मदीने से रवानगी

तारीख़ अबुल फ़िदा में है कि जब अमीन क़त्ल हुआ तो मामून सलतनते अब्बासिया का मुस्तक़िल बादशाह बन गया। यह ज़ाहिर है कि अमीन के क़त्ल होने के बाद सलतनत मामून के पाए नाम हो गई मगर यह पहले कहा जा चुका है कि अमीन नाननहाल की तरफ़ से अरबीउन नस्ल था और मामून अजमिउन नस्ल था। अमीन के क़त्ल होने से ईराक़ की अरब का़ैम और अरकाने सलतनत के दिल मामून की तरफ़ से साफ़ नहीं हो सकते थे बल्कि वह ग़मो ग़स्से की कैफ़ीयत महसूस करते थे दूसरी तरफ़ खुद बनी अब्बास में से एक बडी़ जमाअत जो अमीन की तरफ़ दार थी इससे भी मामून को हर तरह का ख़तरा लगा हुआ था। औलादे फ़ात्मा (स.अ.) में से बहुत से लोग जो वक़्त्न फ़वक़्तन बनी अब्बास के मुक़ाबिल ख़ड़े होते रहते थे वह ख़्वाह क़त्ल कर दिये गये हों या जिला वतन किये गए हों या क़ैद रखे गए हों उनके मुआफ़िक़ एक जमाअत थी जो अगर चे हुकूमत का कुछ बिगाड़ न सकती थी मगर दिल ही दिल में हुकूमते बनी अब्बास से बेज़ार ज़रूर थी। ईरान में अबू मुस्लिम ख़ुरासानी ने बनी उमय्या के खि़लाफ़ जो इश्तेआल पैदा किया वह इन मज़ालिम को याद दिला कर जो बनी उमय्या के हाथों हज़रते इमाम हुसैन (अ.स.) और दूसरे बनी फ़ात्मा (स.अ.) के साथ किये गये थे। इस से ईरान में इस ख़ानदान के साथ हमदर्दी का पैदा होना फ़ितरी था। दरमियान में बनी अब्बास ने इससे ग़लत फ़ायदा उठाया मगर इतनी मुद्दत में कुछ ना कुछ ईरानियों की आंखें भी खुल गई होगीं कि उनसे कहा गया था क्या और इक़्तेदार किन लोगों ने हासिल कर लिया है। मुम्किन है कि ईरानी क़ौम के इन रूझानात का चर्चा मामून के कानो तक भी पहुँचा हो। अब जिस वक़्त की अमीन के क़त्ल के बाद वह अरब क़ौम पर और बनी अब्बास के ख़ानदान पर भरोसा नहीं कर सकता था और उसे हर वक़्त इस हल्क़े से बग़ावत का अन्देशा था तो उसे इसी सियासी मस्लहत इसी में मालूम हुई। अरब के खि़लाफ़ अजम और बनी अब्बास के खि़लाफ़ बनी फ़ात्मा को अपना बनाया जाए और चुंकि तरज़े अमल में ख़ुलूस समझा नहीं जा सकता और वह आम तबाए पर असर नहीं डाल सकता। अगर यह नुमाया हो जाए कि वह सीयासी मसलहतों की बिना पर है इस लिये ज़रूरत हुई कि मामून मज़हबी हैसियत से अपनी शियत नवाज़ी और विलाए अहले बैत के चर्चे अवाम में फैलाए और वह यह दिखलाए कि वह इन्तेहाई नेक नीयती पर क़ाएम है। ‘‘ अब हक़ बा हक़दार रसीद के मकूले को सच्चा बनाना चाहता है।’’

इस सिलसिले में जनाबे शेख़ सद्दूक़ आलाल्लाहो मुक़ामा ने फ़रमाया है कि इसने अपनी नज़र की हिक़ायत भी शाया की कि जब अमीन का और मेरा मुक़ाबला था और बहुत नाज़ुक हालत थी और यह उसी वक़्त मेरे खि़लाफ़ सीसतान और किरमान में भी बग़ावत हो गई थी और ख़ुरासान में भी बेचैनी फैली हुई थी और फ़ौज की तरफ़ से भी इतमिनान न था और उस वक़्त दुश्वार माहोल में मैंने खुदा से इलतिजा की और मन्नत मानी कि अगर यह सब झगड़े ख़त्म हो जायें और मैं बामे खिलाफ़त तक पहुँचू तो उसको उसके असली हक़दार यानी औलादे फ़ात्मा मे से जो इसका अहल है उस तक पहुँचा दूंगा। इसी नज़र के बाद मेरे सब काम बनने लगे और आखि़र तमाम दुश्मनों पर फ़तेह हासिल हुई यक़ीनी यह वाक़िया मामून की तरफ़ से इस लिये बयान किया गयाा कि इसका तर्ज़े अमल खुलूसे नियत और हुस्ने नियत पर मुबनी समझा जाए। यूं तो अहले बैत (अ.स.) के खुले दुश्मन सख़्त से सख़्त थे वह भी इनकी हक़ीक़त और फ़ज़ीलत से वाक़िफ़ थे। मगर शीयत के मानी यह जानना तो नहीं है बल्कि मोहब्बत रखना और इताअत करना है और मामून के तरज़े अमल से यह ज़ाहिर है कि वह इस दावाए शीयत और मोहब्बते अहले बैत का ढिंढोरा पीटने के बावजूद खुद इमाम की इताअत नहीं करना चाहता था बल्कि इमाम को अपना मंशा के मुताबिक़ चलाने की कोशिश थी। वली अहद बनने के बारे में आपके इख़्तेआरात को बिल्कुल सलब कर दिया गया और आपको मजबूर बना दिया गया था। इससे ज़ाहिर है कि यह वली अहदी की तफ़वीज भी एक हाकिमाना तशद्द था जो उस वक़्त इमाम के साथ किया जा रहा था।

इमाम रज़ा (अ.स.) का वली अहदी को क़ुबूल करना बिल्कुल वैसा ही था जैसा हारून के हुक्म से इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) का जेल ख़ाने में चला जाना। इस लिये जब इमाम रज़ा (अ.स.) मदीने से ख़ुरासान की तरफ़ रवाना हो रहे थे तो आपके रंजो सदमा और इस्तेराब की कोई हद न थी। रौज़ा ए रसूल से रूख़सत के वक़्त आपका वही आलम था जो हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) का मदीने से रवानगी के वक़्त था। देखने वालों ने देखा कि आप बे ताबाना रौज़े के अन्दर जाते हैं और नालाओ आह के साथ उम्मत की शिकायत करते हैं। फिर बाहर निकल कर घर जाने का इरादा करते हैं और फिर दिल नहीं मानता फिर रौज़े से लिपट जाते हैं यही सूरत कई मरतबा हुई। रावी का बयान है कि मैं हज़रत के क़रीब गया तो फ़रमाया , ऐ महूल ! मैं अपने जद्दे अमजद के रौज़े से ब जब्र जुदा किया जा रहा हूँ , अब मुझको यहां आना नसीब न होगा।(सवानेह इमाम रज़ा (अ.स.) जिल्द 3 पृष्ठ 7)

महूल शैबानी का बयान है कि जब वह ना गवार वक़्त पहुँच गया कि हज़रते इमाम रज़ा (अ.स.) अपने जद्दे बुज़ुर्गवार के रौज़ा ए अक़दस से हमेशा के लिये विदा हुए तो मैंने देखा कि आप बेताबान अन्दर जाते और बा नालाओ आह बाहर आते हैं और दिल में उम्मत की शिकायत करते हैं या बाहर आ कर गिरया ओ बुका फ़रमाते हैं और फिर अन्दर चले जाते हैं। आपने चन्द बार ऐसे ही किया और मुझसे न रहा गया और मैंने हाज़िर हो कर अर्ज़ की मौला इज़्तेराब की क्या वजह है ? फ़रमाया , ऐ महूल ! मैं अपने नाना के रौज़े से जबरन जुदा किया जा रहा हूँ। मुझे इसके बाद अब यहां आना न नसीब होगा। मैं इसी मुसाफ़िरत और ग़रीबुल वतनी में क़त्ल कर दिया जााऊंगा और हारून रशीद के मक़बरे में मदफ़ून हूंगा। उसके बाद आप दौलत सरा में तशरीफ़ लाए और सब को जमा कर के फ़रमाया कि मैं तुम से हमेशा के लिये रूख़सत हो रहा हूँ। यह सुन कर घर में एक अज़ीम कोहराम बरबा हो गया और सब छोटे बड़े रोने लगे। आपने सब को तसल्ली दी और कुछ दीनार आइज़्ज़ा में तक़सीम कर के राहे सफ़र इख़्तेयार फ़रमाया। एक रवायत की बिना पर आप मदीने से रवाना हो कर मक्के मोअज़्ज़मा पहुँचे और वहां तवाफ़ कर के ख़ाना ए काबा को रूख़सत फ़रमाया।

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) का नेशा पूर में वरूदे मसऊद

रज़ब 200 हिजरी में हज़रत मदीनाए मुनव्वरा से मर्व ‘‘ ख़ुरासान ’’ की जानिब रवाना हो गये। अहलो अयाल और मुअल्लेक़ीन सब को मदीना मुनव्वरा ही में छोड़ा। उस वक़्त इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) की उम्र पांच बरस की थी। आप मदीने ही में रहे। मदीना से रवानगी के वक़्त कूफ़ा और कु़म की सीधी राह छोड़ कर बसरा और अहवाज़ का ग़ैर मुतअर्रिफ़ रास्ता इस ख़तरे के पेशे नज़र इख़्तेयार किया गया कि कहीं अक़ीदत मन्दाने इमाम मुज़ाहमत न करें। ग़रज़ कि क़तए मराहल और तै मनाज़िल करते हुए यह लोग नेशापुर के क़रीब पहुँचे।

मुवर्रेख़ीन लिखते हैं कि जब आपकी मुक़द्दस सवारी शहर नेशा पुर के क़रीब पहुँची तो जुमला उलमा व फ़ुज़ला शहर ने बैरून शहर हाज़िर हो कर आपकी रस्मे इस्तग़बाल अदा की। दाखि़ले शहर होते हुए तो तमाम खुर्द व बुज़ुर्ग शौक़े ज़्यारत में उमड़ आए। मरकबे आली जब मरबा शहर (चैक) में पहुँचा , तो हुजूमे ख़लाएक़ से ज़मीन पर तिल रखने की जगह न थी उस वक़्त इमाम रज़ा (अ.स.) क़ातिर नामी खच्चर पर सवार थे जिसका तमाम साज़ो सामान नुक़रई था , ख़च्चर पर अमारी थी और इस पर दोनों तरफ़ पर्दे पड़े हुए थे और ब रवाएते छतरी लगी हुई थी। उस वक़्त इमामुल मुहद्देसीन हाफ़िज़ अबू ज़रआ राज़ी और मोहम्मद बिन अस्लम तूसी आगे आगे और उनके पीछे अहले इल्म व हदीस की एक अज़ीम जमाअत हाज़िरे खि़दमत हुई और बई कलमात इमाम (अ.स.) को मुख़ातिब किया। ‘‘ ऐ जमीय सादात के सरदार , ऐ तमाम इमामों के इमाम और ऐ मरकज़े पाकीज़गी आपको रसूले अकरम का वास्ता , आप अपने अजदाद के सदक़े में अपने दीदार का मौक़ा दीजिए और कोई हदीस अपने जद्दे नाम दार की बयान फ़रमाईये ’’ यह कह कर मोहम्मद बिन राफ़े , अहमद बिन हारिस , यहिया बिन यहिया और इस्हाक़ इब्ने सहविया ने आपके क़ातिर की बाग थाम ली। उनकी इस्तदुआ सुन कर आप ने सवारी रोक दीए जाने के लिये इशारा फ़रमाया और इशारा किया कि हिजाब उठा दिए जाएं। फ़ौरन तामील की गई। हाज़ेरीन ने ज्यों ही वह नूरानी चेहरा अपने प्यारे रसूल के जिगर गोशे का देखा सीनों मे दिल बेताब हो गए। दो ज़ुल्फ़ें रूए अनवर पर मानिन्द गेसूए मुश्क बूए जनाबे रसूले खुदा (स.अ.) फूटी हुई थी। किसी को यारए ज़ब्त बाक़ी न रहा वह सब के सब बे अख़्तेयार धाड़े मार कर रोने लगे। बहुत ने अपने कपड़े फाड़ डा़ले कुछ ज़मीन पर गिर कर लोटने लगे बाज़ सवारी के गिर्द पेश घूमने और चक्कर लगाने लगे और मरक़बे अक़दस के ज़ीन व लजाम चूमने लगे और अमारी का बोसा देने लगे। आखि़र मरक़बे आली के क़दम चूमने के इश्तेआक में दर्राना बढ़े चले आते थे ग़रज़ कि अजीब तरह का वलवला था कि जमाले बा कमाल को देखने से किसी को सेरी नहीं हुई थी। टक टकी लगाए रूख़े अनवर की तरफ़ निगरां थे। यहां तक कि दो पहर हो गई और इनके मौजूद शौक़ व तमन्ना की पुर जोशियों में कोई कमी नहीं आई। इस वक़्त उलमा और फ़ुज़ला की जमाअत ने बा आवाज़े बुलन्द पुकार कर कहा कि ऐ मुसलमानों ! ज़रा ख़ामोश हो जाओ और फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.) के लिये आज़र न बनो इनकी इस्तेदुआ पर क़दरे शोर व ग़ुल थमा तो इमाम रज़ा (अ.स.) ने इरशाद फ़रमाया:-

“ हदसनी अबी मुसा काज़िम , अन अबीहा जाफ़र अल सादिक़ अन अबीह मोहम्मद अल बाक़र अन अबीह ज़ैन अल अबेदीन अन अबीह हुसैन अल शहीदे करबला अन अबीह अली अल मुर्तुज़ा क़ाला हदसनी जैबी व क़रता ऐनी रसूल अल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वालेही वसल्लम क़ाला हदसनी जिबराईल अलैहिस्सलाम क़ाला हदसनी रब्बुल इज़्ज़त सुबहानहा व ताला क़ाला ला इलाहा इल्लाह हस्सनी फ़मन क़ाला दख़ला हसनी वमन दखला हसना अमेना मन अज़ाबी ’’

तर्जुमा:- मेरे पदरे बुज़ुर्गवार हज़रत इमाम मुसिए काज़िम (अ.स.) ने मुझ से फ़रमाया और उनसे इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने और उनसे इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) ने उनसे इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ने और उनसे इमाम हुसैन (अ.स.) ने और उनसे हज़रत अली मुर्तुज़ा (अ.स.) ने और उन से हज़रत रसूले करीम जनाबे मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) ने और उनसे जनाबे जिब्राईले अमीन ने और उनसे खुदा वन्दे आलम ने इरशाद फ़रमाया कि ला इलाहा इल्लल्लाह मेरा क़िला है जो इसे ज़बान पर जारी करेगा मेरे क़िले में दाखि़ल हो जायेगा और जो मेरे क़िला ए रहमत में दाखि़ल होगा मेरे अज़ाब से महफ़ूज़ हो जायेगा। (मसनदे इमाम रज़ा (अ.स.) पृष्ठ 7 प्रकाशित मिस्र 1341 हिजरी)

यह फ़रमा कर आपने परदा खिंचवा दिया और चन्द क़दम बढ़ने के बाद फ़रमाया ‘‘ बा शरतहा व शरूतहा व अना मन शरूतहा ला इलाहा अल्लल्लाह ’’ कहने वाला नजात ज़रूर पायेगा लेकिन इसके कहने और नजात पाने में चन्द शर्तें हैं जिनमें से एक शर्त मैं भी हूं यानी अगर आले मोहम्मद (स.अ.) की मोहब्बत दिल में न होगी तो ला इलाहा इल्लल्लाह कहना काफ़ी न होगा। उलेमा ने ‘‘तारीख़े नेशापूर’’ के हवाले से लिखा है कि इस हदीस के लिखने में मफ़रूद दावातों के अलावा 24 हज़ार कममदान इस्तेमाल किये गये।

अहमद बिन हम्बल का कहना है कि यह हदीस जिन असनाद और जिन नामों के ज़रिए से बयान फ़रमाई गई है अगर इन्हीं नामों को पढ़ कर मजनून पर दम किया जाय तो ‘‘ ला फ़ाक़ मन जुनूना ’’ ज़रूर उसका जुनून जाता रहेगा और वह अच्छा हो जायेगा।

अल्लामा शिब्लन्जी नूरूल अबसार में बा हवाला ए अबूल क़ासिम तज़ीरी लिखते हैं कि सासाना के रहने वाले बाज़ रऊसा ने जब इस सिलसिला ए हदीस को सुना तो उसे सोने के पानी से लिखवा कर अपने पास रख लिया और मरते वक़्त वसीअत की कि उसे मेरे कफ़न में रख दिया जाए चुंकि ऐसा ही किया गया मरने के बाद उसने ख़्वाब में बताया कि ख़ुदा वन्दे आलम ने मुझे इन नामों की बरकत से बख़्श दिया है और मैं बहुत आराम की जगह पर हूँ।

मोअल्लिफ़ कहता है कि इसी फ़ाएदे के लिये शिया अपने कफ़न में जवाब नामा के तौर पर इन असमा को लिख कर रखते हैं। बाज़ किताबों में है कि नेशा पुर में आप से बहुत से करामात नमूदार हुए।

शहर ख़ुरासान में नुज़ूले इजलाल

अबुल सलत हरदी नाक़िल है कि असनाए सफ़र में जब आप ख़ुरासान पहुँचे तो दिन ढल चुका था आप फ़रीज़ाए ज़ौहर अदा करने के लिये सवारी से उतरे और आपने तजदीदे वज़ू के लिये पानी तलब फ़रमाया अर्ज़ की गई मौला इस वक़्त यहां पानी नहीं। यह सुन कर आपने एक ज़मीन पर पड़े हुए पत्थर के नीचे से चश्मा जारी फ़रमाया और वज़ू कर के नमाज़ अदा फ़रमाई। जनाब शेख़ सद्दूक़ रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं कि इस चश्मे का हनूज़ असर बाक़ी है।

शहर तूस में आप का नुज़ूलो वरूद

जब इस सफ़र में चलते चलते शहर तूस पहुँचे तो वहां देखा कि एक पहाड़ से लोग पत्थर तराश कर हंाडी वग़ैरा बनाते हैं। आप इस से टेक लगा कर खड़े हो गये और आपने उसे नरम होने की दुआ की। वहां के बाशिन्दों का कहना है कि पहाड़ का पत्थर बिल्कुल नरम हो गया और बड़ी आसानी से बर्तन बनने लगे।

क़रिया सना बाद में हज़रत का नुज़ूले करम

शहरे तूस से रवाना हो कर आप क़रिया सना बाद पहुँचे और आपने मोहल्ला नौख़ान में क़याम फ़रमाया और लिबास उतार कर धुलने को दे दिया। हमीद बिने क़ैबता का बयान है कि आपकी जेब में एक दोआ कनीज़ ने पाई। उसने मुझे दिखाई मैंने उसे हज़रत तक पहुँचाते हुए दरियाफ़्त किया कि इस दुआ का फ़ायदा क्या है ? फ़रमाया यह शरीरों के शर से हिफ़ाज़त का हिर्ज़ है। फिर आप कु़ब्बाए हारून में तशरीफ़ ले गए और आपने क़िबले की तरफ़ ख़त खैंच कर फ़रमाय कि मैं इस जगह दफ़्न किया जाऊँगा और यह जगह मेरी ज़्यारत गाह होगी। इसके बाद आपने नमाज़ अदा फ़रमाई और वहां से चलने का इरादा किया।

इमाम रज़ा (अ.स.) का दारूल खि़लाफ़ा मर्व में नुज़ूल

इमाम (अ.स.) तय मराहिल और के़तय मनाज़िल करने के बाद जब मर्व पहुँचे जिसे सिकन्दर ज़ुलकरनैन ने बारवाएते मोअज़्ज़मुल बलदान आबाद किया था और जो उस वक़्त दारूल सलतनत था , तो मामून ने चन्द रोज़ ज़ियाफ़तो तकरीम के मरासिम अदा करने के बाद क़ुबूले खि़लाफ़त का सवाल पेश किया। हज़रत ने उस से इसी तरह इनकार किया जिस तरह हज़रत अमीरल मोमेनीन (अ.स.) चौथे मौक़े पर खि़लाफ़त पेश किए जाने के वक़्त इनकार फ़रमा रहे थे। मामून को खिलाफ़त से दस्त बरदार होना दर हक़िक़त मन्ज़ूर न था वरना वह इमाम को इसी पर मजबूर करता चुनान्चे जब हज़रत ने खि़लाफ़त के कु़बूल करने से इन्कार फ़रमाया तो उसने वली अहदी का सवाल पेश किया। हज़रत इसके भी अन्जाम से न वाक़िफ़ न थे। नीज़ बाख़ुशी जाबिर हुकूमत की तरफ़ से कोई मन्सब कु़बूल करना आपके ख़ानदान के उसूल के खि़लाफ़ था। हज़रत ने उस से भी इन्कार फ़रमाया। मगर उस पर मामून का इक़रार जब्र की हद तक पहुँच गया और उसने साफ़ कह दिया कि ‘‘ लाबद मन क़बूलक़ ’’ अगर आप इसको मन्ज़ूर नहीं कर सकते तो इस वक़्त आपको अपनी जान से हाथा धोना पड़ेगा। जान का ख़तरा क़ुबूल किया जा सकता है जब मज़हबी मफ़ाद का क़याम जान देने का मौक़ूफ़ हो वरना हिफ़ाज़ते जान शरीअते इस्लाम का बुनियादी हुक्म है। इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया , यह है तो मैं मजबूरन क़ुबूल करता हूँ मगर कारो बारे सलतनत में बिल्कुल दख़्ल न दूँगा , हाँ अगर किसी बात में मुझ से मशविरा लिया जाएगा तो नेक मशविरा ज़रूर दूंगा। इसके बाद यह वली अहदी से बरा नाम सलतनते वक़्त के एक ढखोसले से ज़्यादा वक़त न रखती थी। जिससे मुम्किन है कि कुछ अर्से तक सियासी मक़सद में कामयाबी हासिल कर ली गई हो मगर इमाम की हैसियत अपने फ़राएज़ के अन्जाम देने में बिल्कुल वह थी जो उनके पेश रौ अली मुर्तुज़ा (अ.स.) अपने ज़माने के बाइख़्तेदार ताक़तों के साथ इख़्तियार कर चुके थे। जिस तरह उनका कभी कभी मशविरा दे देना उन हुकूमतों को सही व जाएज़ नहीं बना सकता वैसे ही इमाम रज़ा (अ.स.) का इस नौइय्यत से वली अहदी का क़ुबूल फ़रमाना इस सलतनत के जवाज़ का बाएस नहीं हो सकता था सिर्फ़ मामून की एक राज हट थी जो सियासी ग़रज़ के पेशे नज़र इस तरह पूरी हो गई मगर इमाम (अ.स.) ने अपने दामन को सलतनते जु़ल्म के इक़्दामात और नजमो नस्ख़ से बिल्कुल अलग रखा। तवारीख़ में है कि मामून ने हज़रते इमाम रज़ा (अ.स.) से कहा उसके बाद आपने दोनों हाथ आसमान की तरफ़ बलन्द किये और बारगाहे अहदीयत में अर्ज़ की परवरदीगार तू जानता है कि इस अमर को मैंने बामजबूरत और नाचारी और ख़ौफ़ो क़त्ल की वजह से क़ुबूल कर लिया है। ख़ुदा वन्दा तू मेरे इस फे़ल पर मुझसे उसी तरह मवाखि़ज़ा ना करना जिस तरह जनाबे युसूफ़ और जनाबे दानियाल से बाज़पुर्स नहीं फ़रमाई। इसके बाद कहा मेरे पालने वाले तेरे अहद के सिवा कोई अहद नहीं तेरी अता की हुई हैसियत के सिवा कोई इज़्ज़त नहीं। ख़ुदाया तू मुझे अपने दीन पर क़ाएम रहने की तौफ़ीक़ इनायत फ़रमा।

ख़्वाजा मोहम्मद पासी का कहना है कि वली अहदी के वक़्त आप रो रहे थे। मुल्ला हुसैन लिखते हैं कि मामून की तरफ़ से इसरार और हज़रत की तरफ़ से इन्कार का सिलसिला दो माह जारी रहा इसके बाद वली अहदी क़ुबूल की गई।

जलसा ए वली अहदी का इन्एक़ाद

पहली रमज़ान 201 हिजरी ब रोज़े पंज शम्बा जलसा ए वली अहदी मुनक़िद हुआ। बड़ी शानो शौकत और तुज़ुको एहतिशाम के साथ तक़रीब अमल में लाई गई। सब से पहले मामून ने अपने बेटे अब्बास को इशारा किया और उसने बैअत की फिर और लोग बैअत से शरफ़याब हुए। सोने और चांदी के सिक्के सरे मुबारक पर निसार किये गए और तमाम अरकाने सलतनत और मुलाज़मीन को इनामात तक़सीम हुए।

मामून ने हुक्म दिया कि हज़रत के नाम का सिक्का तैय्यार किया जाए। चुनान्चे दिरहम और दीनार पर हज़रत के नाम का नक़्श हुआ और तमाम शहरों में वह सिक्का चलाया गया। जुमे के खु़त्बे में हज़रत का नामे नामी दाखि़ल किया गया। यह ज़ाहिर है कि हज़रत के नामें मुबारक का सिक्का अक़ीदत मन्दों के लिये तबरूक और ज़मानत की हैसियत रखता था। इस सिक्के को सफ़रो हज़र में हिफ़्जे़ जान के लिये साथ रखना यक़ीनी अमर था। साहेबे जिन्नातुल खुलूद ने बहरो बर के सफ़र में तहफ़्फ़ुज़ के लिए आपके तवस्सुल का ज़िक्र किया है। उसी के याद गार में बतौरे ज़मानत ब अक़ीदा ए तहफ़्फ़ुज़ हम अब भी सफ़र में बाज़ू पर इमाम ज़ामिन सामिन का पैसा बांधते हैं।

अल्लामा शिब्ली नोमानी लिखते हैं कि 33,000 (तेतिस हज़ार) मरदो ज़न वग़ैरा की मौजूदगी में आपको वली अहदे खि़लाफ़त बना दिया गया। उसके बाद उसने तमाम हाज़ेरीन से हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) के लिये बैएत ली और दरबार का लिबास बजाय काले के हरा क़रार दिया गया। जो सादात का इम्तेयाज़ी लिबास था। फ़ौज की वर्दी भी बदल दी गई। तमाम मुल्क में एहकामे शाही नाफ़िज़ हुए कि मामून के बाद अली रज़ा (अ.स.) ही तख़्त के मालिक है और उनका लक़ब है ‘‘ अल रज़ा मन आले मोहम्मद ’’ । हसन बिन सहल के नाम भी फ़रमान गया कि उनके लिये बैअते आम ली जाय और उमूमन अहले फ़ौज व अमाएदे बनी हाशिम सब्ज़ (हरे) रंग के फ़रहरे और सब्ज़ कुलाह व क़बाएं इस्तेमाल की जाएं।

अल्लामा शरीफ़ जरजानी ने लिखा है कि क़ुबूले वली अहदी के मुताअल्लिक़ जो तहरीर हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) ने मामून को लिखी। उसका मज़मून यह था कि ‘‘ चंूकि मामून ने हमारे उन हुक़ूक़ को तसलीम कर लिया है जिनको उनके आबाओ अजदाद ने नहीं पहचाना था लेहाज़ा मैंने उनकी दरख़्वास्ते वली अहदी क़ुबूल कर ली अगरचे जफ़र व जामेए से मालूम होता है कि यह काम अंजाम को न पहुँचेगा । ’’

अल्लामा शिब्लन्जी लिखते हैं कि क़ुबूले वली अहदी के सिलसिले में आपने जो कुछ तहरीर फ़रमाया था उस पर गवाह की हैसियत से फ़ज़ल बिन सहल , सहल बिन फ़ज़ल , यहिया बिन अक़सम , अब्दुल्लाह इब्ने ताहिर , समाना बिन अशरस , बशर बिन मोतमर , हम्माद बिन नोमान वग़ैरा के दस्तख़त थे। उन्होंने यह भी लिखा है कि इमाम अली रज़ा (अ.स.) ने इस जलसे वली अहदी में अपने मख़्सूस अक़ीदत मन्दों को क़रीब बुला कर कान में फ़रमाया था कि इस तक़रीब पर दिल में ख़ुशी को जगह न दो। मुलाहेज़ा हों(सवाएक़े मोहर्रेका़ पृष्ठ 122, मतालेबुल सूऊल पृष्ठ 282, नूरूल अबसार पृष्ठ 142, आलामुल वुरा पृष्ठ 193, कशफ़ुल ग़म्मा पृष्ठ 112, जन्नातुल ख़ुलूद पृष्ठ 31, अल मामून पृष्ठ 82, वसीलतुन नजात पृष्ठ 379, अरजहुल मतालिब पृष्ठ 454, मसन्द इमाम रज़ा पृष्ठ 7, तारीख़े तबरी , शरह मवाक़िफ़ , तारीख़े आइम्मा पृष्ठ 472, तारीख़े अहमदी पृष्ठ 354, शवाहेदुन नबूवत , नियाबुल मोअद्दता , फ़सलुल ख़त्ताब , हिलयातुल अवलिया , रौज़तुल सफ़ा , उयून अख़बारे रज़ा , दमए साकेबा , सवानए इमाम रज़ा (अ.स.)

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की वली अहदी का दुशमनों पर असर

तारीख़े इस्लाम में है कि इमाम रज़ा (अ.स.) की वली अहदी की ख़बर सुन कर बग़दाद के अब्बासी ख़याल कर के कि यह खि़लाफ़त हमारे ख़ानदान से निकल चुकी , कमाल दिल सोख़ता हुये और उन्होंने इब्राहीम बिन मेंहदी को बग़दाद के तख़्त पर बिठा दिया और मोहर्रम 202 हिजरी में मामून की माजूली का ऐलान कर दिया। बग़दाद और उसके क़रीबी जगहों मे बिल्कुल बद नज़मी फैल गई। लुच्चे ग़ुन्डे दिन दहाड़े लूट मार करने लगे। जुनूबी ईराक़ और हिजाज़ में भी मामेलात की हालत ऐसी ही हो रही थी। फ़ज़ल वज़ीरे आज़म सब ख़बरों को बादशाह से पोशीदा रखता था मगर इमाम रज़ा (अ.स.) ने उसे ख़बरदार कर दिया। बादशाह वज़ीर की तरफ़ से बदज़न हो गया। मामून को जब इन शोरिशों की ख़बर हुई तो बग़दाद की तरफ़ रवाना हो गया। सरख़स में पहुँच कर उसने फ़ज़ल बिन सहल वज़ीरे सलतनत को हम्माम में क़त्ल करा दिया।(तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 पृष्ठ 61)

शम्सुल उलेमा शिब्ली नोमानी , हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की बैअते वली अहदी का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं कि इस अनोखे हुक्म ने बग़दाद में एक क़यामत अंगेज़ हलचल मचा दी और मामून से मुख़ालेफ़त का पैमाना लबरेज़ हो गया। बाजो़ ने सब्ज़ रंग वग़ैरा के एख़्तियार करने के हुक्म की ब जब्र तामील की मगर आम सदा यही थी कि खि़लाफ़त ख़ानदाने अब्बास के दायरे से बाहर नहीं जा सकती।(अल मामून पृष्ठ 82)

अल्लामा शिब्लन्जी लिखते हैं कि हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) जब वली अहदे खि़लाफ़त मुक़र्रर किये जाने लगे मामून के हाशिया नशीन सख़्त बद ज़न और दिल तंग हो एक और उन पर यह ख़ौफ़ छा गया कि अब खि़लाफ़त बनी अब्बास से निकल कर बनी फ़ात्मा की तरफ़ चली जायेगी और इसी तसव्वुर ने उन्हें हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) से सख़्त मुतनफ़्फ़िर कर दिया।(नूरूल अबसार पृष्ठ 143)

वाक़िए हिजाब

मोअर्रेख़ीन लिखते हैं कि इस वाक़िए वली अहदी से लोगों में इस दर्जा बुग़ज़ हसद और किना पैदा हो गया कि वह लोग मामूली मामूली बातों पर इसका मुज़ाहेरा कर देते थे।

अल्लामा शिब्लन्जी और अल्लामा इब्ने तल्हा शाफ़ई लिखते हैं कि हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की वली अहदी के बाद यह उसूल था कि आप मामून से अकसर मिलने के लिये तशरीफ़ ले जाया करते थे और होता यह था कि जब आप दहलीज़ के क़रीब पहुँचते थे तो तमाम दरबान और ख़ुद्दाम आपकी ताज़ीम के लिये खड़े हो जाते थे और सलाम कर के पर्दा ए दर उठाया करते थे। एक दिन सब ने मिल कर तय कर लिया कि कोई पर्दा न उठाए चुनान्चे ऐसा ही हुआ जब इमाम (अ.स.) तशरीफ़ लाए तो हिज्जाब ने पर्दा न उठाया। मतलब यह था कि इससे इमाम की तौहीन होगी , लेकिन अल्लाह के वली को कोई ज़लील नहीं कर सकता। जब ऐसा मौक़ा आया तो एक तुन्द हवा ने पर्दा उठाया और इमाम दाखि़ले दरबार हो गए। फिर जब आप वापस तशरीफ़ लाए तो हवा ने बदस्तूर पर्दा उठाने में सबक़त की। इसी तरह कई दिन तक होता रहा। बिल आखि़र वह सब के सब शर्मिन्दा हो गये और इमाम (अ.स.) की खि़दमत मिस्ल साबिक़ करने लगे।(नूरूल अबसार पृष्ठ 143 मतालेबुल सूऊल पृष्ठ 282, शवाहेदुन नबूअत पृष्ठ 197)

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) और नमाज़े ईद

वली अहदी को अभी ज़्यादा दिन न गुज़रे थे कि ईद का मौक़ा आ गया मामून ने हज़रत से कहला भेजा कि आप सवारी पर जा कर लोगों को नमाज़े ईद पढ़ायें। हज़रत ने फ़रमाया कि मैंने पहले ही तुम से शर्त कर ली है कि बादशाहत और हुकूमत के किसी काम में हिस्सा न लूंगा और न इसके क़रीब जाऊँगा इस वजह से तुम मुझको इस नमाज़े ईद से भी माफ़ रखो। मगर मामून ने बहुत इसरार किया। हज़रत ने फ़रमाया कि अगर तुम माफ़ कर दो तो बेहतर है वरना मैं नमाज़े ईद के लिये उसी तरह जाऊँगा जिस तरह मेरे जद्दे माजिद हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.) तशरीफ़ ले जाया करते थे। मामून ने कहा आपको इख़्तेयार है जिस तरह चाहे जायें। इसके बाद उसने सवारों और प्यादों को हुक्म दिया कि हज़रत के दरवाज़े पर हाज़िर हों। जब यह ख़बर शहर में मशहूर हुई तो लोग ईद के रोज़ सड़को पर छतों पर हज़रत की सवारी की शान देखने को जमा हो गये , एक भीड़ लग गई। औरतों और लड़कों सब को आरज़ू थी कि हज़रत की ज़्यारत करें। और आफ़ताब निकलने के बाद हज़रत ने गु़स्ल किया और कपड़े बदले , सफ़ेद अम्मामा सर पर बांधा , इत्र लगाया और असा हाथ में ले कर ईद गाह जाने पर आमादा हुए । इसके बाद नौकरों और ग़ुलामों को हुक्म दिया कि तुम भी ग़ुस्ल कर के कपड़े बदल लो और इसी तरह पैदल चलो। इस इन्तेज़ाम के बाद हज़रत घर से बाहर निकले। पाएजामा आधी पिंडली तक उठा लिया। कपड़ों को समेट लिया , नंगे पांव हो गए और फिर दो तीन क़दम चल कर खड़े हो गए और सर को आसमान की तरफ़ बलन्द कर के कहा , अल्लाहो अकबर , अल्लाहो अकबर । हज़रत के साथ नौकरों ग़ुलामों और फ़ौज के सिपाहियों ने भी तकबीर कही।

रावी का बयान है कि जब इमाम रज़ा (अ.स.) तकबीर कह रहे थे तो हम लोगों को मालूम होता था कि दरो दीवार और ज़मीनो आसमान से हज़रत की तकबीरों का जवाब सुनाई देता है। इस हैबत को देख कर यह हालत हुई कि सब लोग और खुद लशकर वाले ज़मीन पर गिर पड़े। सब की हालत बदल गई। लोगों ने छुरियों से अपनी जुतीयों के कुल तसमें काट दिये और जल्दी जल्दी जुतियां फेक कर नगें पांव हो गयें। शहर भर के लोग चीख़ चीख़ कर रोने लगे। एक कोहराम बरपा हो गया। इसकी ख़बर मामून को भी हो गई। वज़ीर फ़ज़ल बिन सहल ने इससे कहा कि अगर इमाम इमाम रज़ा (अ.स.) की इसी हालत से ईद गाह तक पहुँच जायेंगे तो मालूम नहीं क्या फ़ितना और हंगामा हो जायेगा। सब लोग इनकी तरफ़ हो जायेगें और हम नहीं जानते कि हम लोग कैसे बचेगें। वज़ीर की इस तक़रीर पर मुतानब्बे हो कर मामून ने अपने पास से एक शख़्स को हज़रत की खि़दमत में भेज कर कहला भेजा कि मुझ से ग़लती हो गई है जो आप से ईद गाह जाने के लिये कहा। इस से आपको ज़हमत हो रही है और मैं आपकी मशक़्क़त को पसन्द नहीं करता। बेहतर है कि आप वापस चले आयें और ईदगाह जाने की ज़हमत न फ़रमायें। पहले जो शख़्स नमाज़ पढ़ाता था पढ़ायेगा। यह सुन कर हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) वापस तशरीफ़ लाए और नमाज़े ईद न पढ़ सके।(वसीलत न नजात पृष्ठ 382, मतालेबुल सूऊल पृष्ठ 282 व उसूले काफ़ी)

अल्लामा शिब्लन्जी लिखते हैं कि फ़राज़ अल अरज़ा अला बैत व रक़ब अल मामून फ़सल ब अलनास कि रज़ा (अ.स.) दोलत सरा को वापस तशरीफ़ लाए और मामून ने जा कर नमाज़ पढ़ाई।(नूरूल अबसार पृष्ठ 143)

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की मदह सराई और देबले खि़ज़ाई और अबू नवास

अरब के मशहूर शायर जनाब देबले ख़ेज़ाई का नाम अबू अली देबले इब्ने अली बिन ज़र्रीन है। आप 148 हिजरी में पैदा हो कर 245 हिजरी में ब मक़ाम मशूश वफ़ात पा गये। (रिजाले तूसी 374) और अबूनवास का पूरा नाम अबू अली हसन बिन हानी इब्ने अब्दुल आला हुवाज़ी बसरी बग़दादी हैं। यह 136 हिजरी में पैदा हो कर 196 हिजरी में फ़ौत हुए। देबल आले मोहम्मद (अ.स.) के मद्दाहे ख़ास थे और अबूनवास हारून रशीद अमीन व मामून का नदीम था।

देबले खि़ज़ाई के बे शुमार अशआर मदहे आले मोहम्मद (अ.स.) में मौजूद हैं। अल्लामा शिब्लन्जी तहरीर फ़रमाते हैं कि जिस ज़माने में इमाम रज़ा (अ.स.) वली अहदे सलतनत थे। देबले खि़ज़ाई एक दिन दारूल सलतनत मर्व में आपसे मिले और उन्होंने कहा कि मैंने आपकी मदह में 120 अशआर पर मुशतमिल एक क़सीदा लिखा है। मेरी तमन्ना है कि मैं सब से पहले हुज़ूर ही को सुनाऊँ। हज़रत ने फ़रमाया बेहतर है पढ़ो।

देबले खि़जा़ई ने अशआर पढ़ना शुरू किया। क़सीदे का मतला यह है।

ज़करत महल अर रबामन अरफ़ात

फ़जरयत दमाअलएैन बिल इबारत ’’

जब देबल क़सीदा पढ़ चुके तो इमाम (अ.स.) ने एक सौ अशरफ़ी की थैली उन्हें अता फ़रमाई। देबल ने शुकरिया अदा करने के बाद उसे वापस करते हुए कहा कि मौला मैंने यह क़सीदा कु़रबतन इल्लहा कहा है मैं कोई अतिया नहीं चाहता ख़ुदा ने मुझे सब कुछ दे रखा है। अलबत्ता हुज़ूर मुझे जिस्म से उतरे हुए कपड़े से कुछ इनायत फ़रमा दें तो वह मेरी ऐन ख़्वाहिश के मुताबिक़ होगा। आपने एक जुब्बा अता करते हुए फ़रमाया कि इस रक़म को भी ले लो यह तुम्हारे काम आयेगी। देबल ने उसे ले लिया। थोड़े अर्से के बाद देबल मर्व से ईराक़ जाने वाले क़ाफ़िले के साथ रवाना हुए। रास्ते में चोरों और डाकुओ ने हमला कर के सब का सब कुछ लूट लिया और चन्द आदमियों को गिरफ़्तार कर भी कर लिया जिन में देबल भी थे। डाकुओं ने माल तक़सीम करते वक़्त देबल का एक शेर पढ़ा। देबल ने पूछा यह किसका शेर है ? उन्होंने कहा किसी का होगा। देबल ने कहा यह मेरा शेर है। उसके बाद उन्होंने सारा क़िस्सा सुना दिया। उन लोगों ने देबल के सदक़े में सब कुछ छोड़ दिया और सब का माल वापस कर दिया यहां तक कि यह नौबत आई कि उन लोगों ने वाक़िया सुन कर इमाम रज़ा (अ.स.) का जुब्बा ख़रीदना चाहा और उसकी क़ीमत एक हज़ार लगा दी। देबल ने जवाब दिया कि यह मैंने ब तौरे तबर्रूक अपने पास रखा है इसे फ़रोख़्त न करूगां। बिल आखि़र बार बार गिरफ़्तार होने के बाद उन्होंने उसे एक हज़ार अशरफ़ी पर फ़रोख़्त कर दिया। अल्लामा शिब्लन्जी ब हवाला ए अबूसलत हरवी लिखते हैं कि देबल ने जब इमाम रज़ा (अ.स.) के सामने यह क़सीदा पढ़ा तो आप रो रहे थे और आपने दो बैतों के बारे में फ़रमाया था कि यह अशआर इल्हामी है।(नूरूल अबसार पृष्ठ 138)

अल्लामा अब्दुल रहमान लिखते हैं कि हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) ने क़सीदा सुनते हुए नफ़से ज़किया के तज़किरे पर फ़रमाया कि ऐ देबल इस जगह एक शेर का और इज़ाफ़ा करो , ताकि तुम्हारा क़सीदा मुकम्मल हो जाये। उन्हों ने अर्ज़ कि मौला फ़रमायें। इरशाद हुआ।

व क़ब्र बातूस , नालहा मन मुसिबता

अल हत अल्लल अहशाए बिज़ क़रात

देबल ने घबरा कर पूछा , मौला यह किस की क़ब्र होगी जिसका हुज़ूर ने हवाला दिया है। फ़रमाया , ऐ देबल! यह क़ब्र मेरी होगी और मैं अन क़रीब इस आलमे ग़ुरबत में जब कि मेरे आइज़्ज़ा व अक़रेबा व बाल बच्चे मदीने में हैं शहीद कर दिया जाऊँगा और मेरी क़ब्र यहीं बनेगी। ऐ देबल जो मेरी ज़्यारत को आयेगा जन्नत में मेरे हमराह होगा।(शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 199)

देबल का यह मशहूर क़सीदा मजालिसे मामेनीन पृष्ठ 466 में मुकम्मल मन्क़ूल है। अलबत्ता इसका मतलब बदला हुआ है। अल्लामा शेख़ अब्बास क़ुम्मी ने लिखा है कि देबल ने एक किताब लिखी थी जिसका नाम था ‘‘ तबक़ाते शोअरा ’’ ।(सफ़ीनतुल बेहार जिल्द 1 पृष्ठ 241)

अबू नवास के मुताअल्लिक़ उलेमाए इस्लाम लिखते हैं कि एक दिन इसके दोस्तों ने इस से कहा कि तुम अकसर अशआर कहते हो और फिर मदहे भी किया करते हो लेकिन अफ़सोस की बात है कि तुम ने हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की मदह में कोई शेर नहीं कहा। उसने जवाब दिया कि हज़रत की जलालते क़द्र ही ने मुझे मदहे सराई से रोका है। मेरी हिम्मत नहीं पड़ती कि आपकी मदह करूँ। यह कह कर उसने चन्द अशआर पढ़े। जिसका तरजुमा यह है कि , उम्दा कलाक के हर रंग और मज़ाक़ के अशआर सब लोगों से अच्छे तुम्ही कहते हो बल्कि अच्छे अशआर में तुम्हारे मदहीया क़सीदे ऐसे होते हैं कि जिनसे सुनने वालों के सामने मोती झड़ते हैं। फिर तुम ने हज़रत इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) के बेटे हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) की मदह और हज़रत के फ़ज़ायल व मनाक़िब में कोई क़सीदा क्यों नहीं लिखा। तो मैं ने सब के जवाब में कह दिया कि भाईयों जिन जलील उश शान इमाम के आबाए कराम के ख़ादिम जिब्राईल ऐसे फ़रिशते हों उनकी मदह करना मुझ से मुम्किन नहीं है। उसके बाद उसने चन्द अशआर आपकी मदह में लिखे जिसका तरजुमा यह है। यह हज़रात आइम्मा ए ताहेरीन ख़ुदा के पाको पाकीज़ा किये हुए हैं और इनका लिबास भी तय्यबो ताहिर है। जहां भी उनका ज़िक्र होता है वहां उन पर दुरूद का नारा बलन्द हो जाता है। जब हसब व नसब बयान होते वक़्त कोई शख़्स अलवी ख़ानदान का न निकले तो उसको इब्तिदाये ज़माने से कोई फ़ख्र की बात नहीं मिलेगी। जब मख़लूक़ को पैदा किया फिर उसको हर तरह उस्तवार किया और संवारा तो उसी खुदा के बरगज़ीदा हज़रात आप लोगों को ख़ुदा ने सब से ज़्यादा शरीफ़ भी क़रार दिया और सब पर फ़ज़ीलत भी दी। मैं सच कहता हूँ कि आप हज़रात ही मलाए आला हैं और आप ही के पास क़ुरआने मजीद का इल्म और सूरों के मतालिब व मफ़ाहिम हैं।(दफ़ियातुल ऐयान जिल्द 1 पृष्ठ 322 व नूरूल अबसार पृष्ठ 138 प्रकाशित मिस्र)

मज़ाहिबे आलम के उलेमा से हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) के इल्मी मुनाज़िरे

मामून रशीद को ख़ुद भी इल्मी ज़ौक़ था। उसने वली अहदी के मरहले तो तय करने के बाद हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) से काफ़ी इस्तेफ़ादा किया फिर अपने ज़ौक़ के तक़ाज़े पर उसने मज़ाहिबे आलम के उलेमा को दावते मुनाज़िरा दी और हर तरफ़ से उलेमा को तलब कर के हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) से मुक़ाबला कराया। अहदे मामून में इमाम रज़ा (अ.स.) से जिस क़दर मुनाज़िरे हुए हैं उनकी तफ़सील अकसर कुतुब में मौजूद हैं। इस सिलसिले में ऐहतेजाजी तबरसी , बिहार , दमऐ साकेबा वग़ैरा जैसी किताबें देखी जा सकती हैं। इख़्तेसार के पेशे नज़र सिर्फ़ दो चार मुनाज़िरे लिखता हूँ।

आलिमे नसारा से मुनाज़िरा

मामून रशीद के अहद में नसारा का एक बहुत बड़ा आलिम व मुनाज़िर शोहरते आम्मा रखता था। जिसका नाम ‘‘ जासलीक ’’ था। उसकी आदत थी कि मुताकल्लमीने इस्लाम से कहा करता था कि हम तुम दोनो नबूवते ईसा और उनकी किताब पर मुत्तफ़िक़ हैं और इस बात पर भी इत्तेफ़ाक़ रखते हैं कि वह आसमान पर ज़िन्दा मौजूद हैं। इख़तिलाफ़ है तो सिर्फ़ मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) में है। तुम उनकी नबूवत का एतेक़ाद रखते हो और हम इन्कार करते हैं फिर हम तुम उनकी वफ़ात पर मुत्तफ़िक़ हो गये हैं। अब ऐसी सूरत में कौन सी दलील तुम्हारे पास बाक़ी है जो हमारे लिये हुज्जत क़रार पाए। यह कलाम सुन कर अकसर मुनाज़िर ख़ामोश हो जाया करते थे। मामून रशीद के इशारे पर एक दिन वह हज़रात इमाम रज़ा (अ.स.) से भी हम कलाम हुआ। मौक़ा ए मनाज़ेरह में उसने मज़कूरा सवाल दोहराते हुये कहा कि पहले आप यह फ़रमायें कि हज़रत ईसा की नबूवत और उनकी किताब दोनों पर आपका ईमान व एतेक़ाद है या नहीं। आपने इरशाद फ़रमाया कि मैं उस ईसा की नबूवत का यक़ीनन एतेक़ाद रखता हूँ जिसने हमारे नबी हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) की नबूवत की अपने हवारीन को बशारत दी है और उस किताब की तसदीक़ करता हूँ जिसमें यह बशारत दर्ज है। जो ईसाई उसके मोतरिफ़ नहीं और जो किताब उसकी शारेह और मुसद्दक़ नहीं उस पर मेरा ईमान नहीं है। यह जवाब सुन कर जासलीक खा़मोश हो गया। फिर आपने इरशाद फ़रमाया कि ऐ जासलीक हम उस ईसा को जिसने हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) की नबूवत की बशारत दी , नबीए बरहक़ जानते हैं मगर तुम उनकी तन्क़ीस करते हो और कहते हो कि वह नमाज़ रोज़े के पाबन्द न थे। जाशलीक ने कहा कि हम तो यह नहीं कहते वह तो हमेशा क़ायमुल लैल और साएमुन नहार रहा करते थे। आपने फ़रमाया , ईसा तो बनाबर एतेक़ाद नसारा ख़ुद माज़ अल्लाह ख़ुदा थे। तो वह रोज़ा और नमाज़ किसके लिये करते थे। यह सुन कर जाशलीक मबहूत हो गया और कोई जवाब न दे सका। अलबत्ता यह कहने लगा कि जो मुर्दो को ज़िन्दा करे , जुज़ामी को शिफ़ा दे , नाबीना को बीना बनाये और पानी पर चले क्या वह इसका सज़ावार नहीं कि उसकी परस्तिश की जाय और उसे माबूद समझा जाय। आपने फ़रमाया इलयासाह भी पानी पर चलते थे , अन्धे , कोढ़ी को शिफ़ा देते थे। इसी तरह हिज़क़ील पैग़म्बर (अ.स.) ने 35 हज़ार इन्सानों को साठ बरस के बाद ज़िन्दा किया था। कौमे इसराईल के बहुत से लोग ताऊन के ख़ौफ़ से अपने घर छोड़ कर बाहर चले गये थे। हक़्के़ ताआला ने एक सआत में सब को मार दिया था बहुत दिनों के बाद एक नबी इस्तेख़्वाने बोसीदा (बोसीदा हड्डियों) से गुज़रे तो ख़ुदा वन्दे आलम ने उन पर वही नाज़िल की उन्हें आवाज़ दो। उन्होंने कहा ऐ अज़ाम बालिया (मुर्दा हड्डियों) उठ ख़डे हो। वह सब ब हुक्मे ख़ुदा उठ खड़े हुये। इसी लिये हज़रते इब्राहीम (अ.स.) के परिन्दों को ज़िन्दा करने और हज़रते मूसा (अ.स.) के कोहे तूर पर ले जाने और रसूले ख़ुदा (स.अ.) के अहयाए अम्वात फ़रमाने का हवाला दे कर फ़रमाया कि इन चीज़ों पर तौरेत व इन्जील और क़ुरआन मजीद की शहादत मौजूद है। अगर मुर्दो को ज़िन्दा करने से इन्सान ख़ुदा हो सकता है तो यह सब अम्बिया भी ख़ुदा होने के मुस्तहक़ हैं। यह सुन क रवह चुप हो गया और उसने इस्लाम क़ुबूल करने के सिवा और चारा न देखा।

आलिमे यहूद से मनाज़ेरा

उल्माए यहूद में से एक आलिम जिसका नाम ‘‘ रासुल जालूत ’’ था , को अपने इल्म पर बड़ ग़ुरूर और तकब्बुर व नाज़ था। वह किसी को भी अपनी नज़र में न लाता था। एक दिन उसका मनाज़रह और मुबाहेसा फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.) हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) से हो गया। आपसे गुफ़्तुगू के बाद उसने अपने इल्म की हक़ीक़त जानी और समझा कि मैं ख़ुद फ़रेबी में मुबतेला हूँ।

इमाम (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर होने के बाद उसने अपने ख़्याल के मुताबिक़ बहुत सख़्त सवालात किये। जिनके तसल्ली बख़्श और इत्मीनान आफ़रीन जवाबात से बहरावर हुआ। जब वह सवालात कर चुका तो इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया कि ऐ ‘‘ रासुल जालूत ’’ तुम तौरैत की इस इबारत का क्या मतलब समझते हो कि ‘‘ आया नूर सीना से और रौशन हुआ जबले साएर से और ज़ाहिर हुआ कोहे फ़ारान से ’’ उसने कहा कि इसे हम ने पढ़ा ज़रूर है लेकिन उसकी तशरीह से वाक़िफ़ नहीं हूँ। आपने इरशाद फ़रमाया , कि नूर से वही मुराद है। तमरे सीना से वह पहाड़ मुराद है जिस पर हज़रत मूसा (अ.स.) ख़ुदा से कलाम करते थे। जबल साईर से महल व मक़ामें ईसा (अ.स.) मुराद है। कोहे फ़ारान से जबले मक्का मुराद है जो शहर से एक मंज़िल के फ़ासले पर वाक़े है। फिर फ़रमाया तुम ने हज़रते मूसा (अ.स.) की यह वसीयत देखी है कि तुम्हारे पास बनी अख़वान से एक नबी आयेगा उसकी बात मानना और उसके क़ौल की तसदीक़ करना। उसने कहा देखी है। आपने पूछा की बनी अख़वान से कौन मुराद है ? उसने कहा मालूम नहीं। आपने फ़रमाया कि वह औलादे इस्माईल हैं क्यों कि वह हज़रत इब्राहीम के एक बेटे हैं और बनी इसराईल के मुरेसे आला हज़रत इस्हाक़ बनी इब्राहीम के भाई हैं और उन्हीें से हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) हैं।

उसके बाद जबले फ़ारान वाली बशारत की तशरीह फ़रमा कर कहा कि शैया नबी का क़ौल तौरैत में मज़कूर है कि मैंने दो सवार देखे कि जिनके परतौ से दुनिया रौशन हो गई। उन्में एक गधे पर सवारी किये था और एक ऊँट पर। ऐ ‘‘ रासुल जालूत ’’ तुम बतला सकते हो उस से कौन मुराद हैं ? उसने इन्कार किया , आपने फ़रमाया कि राकेबुल हमार से हज़रत ईसा (अ.स.) और राकेबुल जमल से हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) मुराद हैं।

फिर आपने फ़रमाया कि तुम हज़रत जबकूक नबी के उस क़ौल से वाक़िफ़ हो कि ख़ुदा अपना बयान जबले फ़ारान से लाया और तमाम आसमान हम्दे इलाही की आवाज़ों से भर गये। उसकी उम्मत और उसके लशकर के सवार ख़ुशकी और तरी में जंग करेंगे। उन पर एक किताब आयेगी और सब कुछ बैतुल मुकद्दस की ख़राबी के बाद होगा। इसके बाद इरशाद फ़रमाया कि यह बताओ कि तुम्हारे पास हज़रत मूसा (अ.स.) की नबूवत की क्या दलील है ? उसने कहा कि उनसे वह उमूर ज़ाहिर हुए जो उनसे पहले के अम्बिया पर नहीं हुए थे। मसलन दरिया ए नील का शिग़ाफ़ता होना। असा का संाप बन जाना। एक पत्थर से बारह चशमों का जारी होना और यदे बैज़ा वग़ैरा। आपने फ़रमाया कि जो भी इस क़िस्म के मोजेज़ात को ज़ाहिर करे और नबूवत का मुद्दई हो उसकी तसदीक़ करनी चाहिये। उसने कहा नही। आपने फ़रमाया क्यों ? कहा इस लिये कि मूसा को जो क़ुरबत या मंज़िलत हक़्क़े ताआला के नज़दीक़ थी वह किसी को नहीं हुई। लेहाज़ा हम पर वाजिब है कि जब तक कोई शख़्स बैनेह वही मोजेज़ात व करामात न दिखलाये हम उसकी नबूवत का इक़रार न करेंगे। इरशाद फ़रमाया कि तुम मूसा (अ.स.) से पहले अम्बिया मुरसलीन की नबूवत का किस तरह इक़रार करते हो हांला कि उन्होंने न कोई दरिया शिग़ाफ़्ता किया न किसी पत्थर से चशमें निकाले न उनका हाथ रौशन हुआ और न उनका असा अज़दहा बना। ‘‘ रासुल जालूत ’’ ने कहा कि जब ऐसे उमूर व अलामात ख़ास तौर से उनसे ज़ाहिर हों जिनके इज़हार से उमूमन तमाम ख़लाएक़ आजिज़ हो , तो वह अगरचे बैनेह ऐसे मोजेज़ात हों या न हों। उनकी तस्दीक़ हम पर वाजिब हो जायेगी।

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) ने फ़रमाया कि हज़रत ईसा (अ.स.) भी मुर्दों को ज़िन्दा करते , कोरे मादर ज़ाद (पैदाईशी अन्धे) को बीना बनाते। मबरूस को शिफ़ा देते। मिट्टी की चिड़िया बना कर हवा में उड़ाते थे। वह यह उमूर हैं जिनसे आम लोग आजिज़ हैं फिर तुम उनको पैग़म्बर क्यों नहीं मानते ? रासुल जालूत ने कहा कि लोग ऐसा कहते हैं मगर हमने उनको ऐसा करते देखा नहीं है। फ़रमाया तो क्या आयात व मोजेज़ाते मूसा (अ.स.) को तुमने अपनी आंखों से देखा है आखि़र वह भी तो मोतबर लोगों की ज़बानी सुना ही होगा। वैसा ही अगर ईसा (अ.स.) के मोजेज़ात मोतबर लोगों से सुनो तो तुमको उनकी नबूवत पर ईमान लाना चाहिये और बिल्कुल इसी तरह हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) की नबूवत व रिसालत का इक़रार आयातो , मोजेज़ात की रौशनी में करना चाहिये। सुनो उनका एक अज़ीम मोजेज़ा कु़रआने मजीद है जिसकी फ़साहतो बलाग़त का जवाब क़यामत तक नहीं दिया जा सकेगा। यह सुन कर वह ख़ामोश हो गया।

आलिमे मजूस से मनाज़ेरा

मजूसी यानी आतश परस्त का एक मशहूर आलिम ‘‘ हरबिज़ा अकबर ’’ हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर हो कर इल्मी गुफ़्तुगू करने लगा। आपने उसके सवालात के मुकम्मल जवाबात इनायत फ़रमाये। उसके बाद उस से सवाल किया कि तुम्हारे पास ‘‘ ज़र तश्त ’’ की नबूवत की क्या दलील है। उसने कहा कि उन्होेंने हमारी ऐसी चीज़ों की तरफ़ रहबरी फ़रमाई है जिसकी तरफ़ पहले किसी ने रहनुमाई नहीं की थी। हमारे असलाफ़ कहा करते थे कि ‘‘ ज़र तश्त ’’ ने हमारे लिये वह उमूर मुबाह किये हैं कि उनसे पहले किसी ने नहीं किये थे। आपने फ़रमाया कि तुम को इस अम्र में क्या उज़्र हो सकता है कि कोई शख़्स किसी नबी और रसूल के फ़ज़ायलो कमालात तुम पर रौशन करे और तुम उसके मानने में पसो पेश करो। मतलब यह है कि जिस तरह तुम ने मोतबर लोगों से सुन कर ‘‘ ज़र तश्त ’’ की नबूवत मान ली। उसी तरह मोतबर लोगों से सुन कर अम्बिया और रसूल की नबूवत के मानने में तुम्हें क्या उज़्र हो सकता है। यह सुन क रवह ख़ामोश हो गया।

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) और इस्मते अम्बिया (अ.स.)

अम्बिया कराम , दवाज़दाह इमाम और जनाबे मरयम व हज़रते फ़ात्मा (स.अ.) की असमत का एतेक़ाद मुसल्लेमात से है , लेकिन बद क़िस्मती से बाज़ मुसलमान जो उनकी हैसियत को सही तौर पर नहीं समझ सके वह इसमें कलाम करते हैं इस लिये बहस ख़ास अहमियत की मालिक बन गई है और उलमा ने इस पर ख़ामा फ़रसाई फ़रमाई है। इस सिलसिले में किताब तन्ज़ीहुल अम्बिया , एहतेजाजे तबरीसी , बेहारूल अनवार , शरह तजरीद वग़ैरह देखने के क़ाबिल हैं। हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) जो ख़ुद अपने आबाओ अजदाद और अम्बिया की तरह मासूम थे उन से जब इस मसले के मुताअल्लिक़ सवाल किया गया तो आपने उसका जवाब निहायत ख़ूब सूरत तरीक़े पर दे कर मुख़ातिब को मुतमईन फ़रमा दिया।

अली बिन जहम कहते हैं कि एक दफ़ा मामून रशीद ने हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) से दरयाफ़्त किया कि जब ख़ुदा वन्दे आलम ने हज़रते आदम (अ.स.) के लिये वाज़े तौर पर फ़रमा दिया ‘‘ फ़ाआसा आदम रब्बेहे फ़ग़वा ’’ कि आदम ने अपने परवर दिगार की नाफ़रमानी की और वह बहक गये तो फिर वह मासूम कहां रहे।

आपने फ़रमाया कि ख़ुदा का हुक्म था कि ऐ आदम तुम दोनों बेहिश्त में रहो और जो चाहे खाओ पियो। ‘‘ वला तक़रेबा हुदल शजरतः फ़ता कूना मिनल ज़ालेमीन ’’ लेकिन इस दरख़्त के नज़दीक़ न जाना , वरना अपना खुद बिगाड़ोगे। यानी उनसे यह नहीं फ़रमाया था कि इस शजर और उसके जिन्स दीगर से भी न खाना और उन्होंने इस दरख़्त ममनूआ से खाया भी नहीं। मगर शैतान के वसवसे से एक और वैसे ही दरख़्त से खा लिया क्यों कि शैतान ने उन से कहा कि ख़ुदा वन्दे तआला ने तुम को ख़ास उस दरख़्त से मना फ़रमाया है इस क़िस्म के और दरख़्तों से मुमानियत नहीं फ़रमाई और उसके पास जाने की भी मुमानियत नहीं फ़रमाई। खाने का ज़िक्र इरशादे ख़ुदा वन्दी में मौजूद नहीं। फिर शैतान ने उनसे क़सम खाई कि मैं तुम्हारा नासेह मुशफ़िक़ हूँ। हज़रत आदम व हव्वा ने इस से पहले किसी को झूठी क़सम खाते नहीं सुना था। उनको धोका हो गया और उसकी क़सम पर एतेबार कर के उसके मुरतकिब हो गये और यह इज़तेराब भी उन हज़रात से क़ब्ले नबूवत हुआ और गुनाहे कबीरा न था। जिससे मुस्तहक़ दुख़ूले जहन्नम होते। यह सिर्फ़ सग़ायरे मौहूबा से था जो अम्बिया (अ.स.) से क़ब्ल अज़ वही जाएज़ हैै। जब ख़ुदा वन्दे आलम ने उनको बरगुज़ीदा किया और नबी गर दाना तो मासूम थे। गुनाहे कबीरा व सग़ीरा उन हज़रात से सादिर न होता था। चुनान्चे अल्लाह तआला ने इरशाद फ़रमाया , ‘‘ सुम इतमेबाह रबा फ़ताबा अलैहे ’’ ख़ुदा ने उनको बरगुज़ीदा किया और उनकी तौबा क़ुबूल कर ली।

अल्लामा तबरिसी फ़रमाते हैं सग़ाएर मौहूबा से तरक अवला मुराद है जो अम्बिया के लिये क़बल अज़ल नुज़ू लवही जाएज़ है। मोअल्लिफ़ का कहना है कि (नहीं) की दो क़िस्में है। नहीं तरहीमी और नहीं तनज़ीही लातक़रबा में यही थी। यानी इसके क़़रीब न जाना तुम्हारे लिये बेहतर होगा। फ़ताकूना अलज़ालमीन और अगर चले गए तो तुम अपना ख़ुद नुक़सान करोगे। जैसा कि किताब ‘‘ तनज़ीह अम्बिया ’’ से मुस्तफ़ाद होता है।

इसी तरह आपने हज़रत इब्राहीम (अ.स.) , हज़रत मूसा (अ.स.) , हज़रत यूसुफ़ (अ.स.) और हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) की असमत पर रौशनी डाली और बतलाया कि इज़रात से गुनाहों का सादिर होना इमकान व कु़दरत के बावजूद मोहाल था। इन से कभी कोई गुनाह सग़ीरा हो या कबीरा सादिर नहीं हुआ।(उयून अख़बार रज़ा पृष्ठ 71 प्रकाशित ईरान)


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