हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) का इल्मी कमाल
मुवर्रेख़ीन का बयान है कि आले मोहम्मद (स.अ.) के इस सिलसिले में हर फ़र्द हज़रते अहदियत की तरफ़ से बलन्द तरीन इल्म के दरजे पर क़रार दिया गया था जिसे दोस्त और दुश्मन सब को मानना पड़ता था। यह और बात है कि किसी को इल्मी फ़यूज़ फैलाने का ज़माने ने कम मौक़ा दिया और किसी को ज़्यादा। चुनान्चे इन हज़रात में से इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के बाद अगर किसी को सब से ज़्यादा मौक़ा हासिल हुआ तो वह हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) हैं। जब आप इमामत के मन्सब पर नहीं पहुँचे थे उस वक़्त हज़रत इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) अपने तमाम फ़रज़न्दों और ख़ानदान के लोगों को नसीहत फ़रमाते थे कि तुम्हारे भाई अली रज़ा आलिमे आले मोहम्मद है। अपने दीनी मसाएल को इन से दरयाफ़्त कर लिया करो और जो कुछ कहें उसे याद रखो और फिर हज़रत इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) की वफ़ात के बाद जब आप मदीने में थे और रौज़ा ए रसूल (स.अ.) पर तशरीफ़ फ़रमा थे तो उल्माए इस्लाम मुश्किल मसाएल में आपकी तरफ़ रूजू करते थे।
मोहम्मद बिन ईसा यक़तैनी का बयान है कि मैंने इन तहरीरी मसाएल जो हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) से पूछने गये थे और आपने इनका जवाब तहरीर फ़रमाया। इकट्ठा किया तो अठ्ठारा हज़ार की तादाद में थे। साहबे लुमतुल रज़ा तहरीर करते हैं कि हज़राते आइम्मा ए ताहेरीन (अ.स.) के ख़ुसूसियात में यह अमर तमाम तारीख़ी मुशाहिद और नीज़ हदीस व सैर के असानीद से साबित है। बावजूद एक अहले दुनियां को आप हज़रात की तक़लीद और मुताबेअत फ़ील अहकाम का बहुत कम शरफ़ हासिल था मगर बई हमा तमाम ज़माना व हर ख़वेश व बेगाना आप हज़रात को तमाम उलूमे इलाही और इसरारे इलाही का गन्जीना समझता था और मोहद्दे सीन व मुफ़स्सेरीन और तमाम उलमा फ़ज़लन आपके मुक़ाबले का दावा रखते थे। वह भी इल्मी मुबाहस व मजालिस में आँ हज़रत के आगे ज़ानुए अदब तै करते थे और इल्मी मसाएल को हल करने की ज़रूरतों के वक़्त हज़रत अमीरल मोमेनीन (अ.स.) से ले कर इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) तक इस्तफ़ादे किए वह सब किताबों में मौजूद हैं।
जाबिर बिन अब्दुल्लाह अन्सारी और हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़र (अ.स.) की खि़दमत में समअ हदीस के वाक़ेआत तमाम हदीस की किताब में महफ़ूज़ हैं। इसी तरह अबुल तुफ़ैल अमिरी और सईद बिन जैर आख़्री सहाबा की तफ़सीली हालात जो उन बुज़ुर्गों के हाल में पाए जाते हैं वह सैरो तवारीख़ में मज़कूर व मशहूर हैं सहाबा के बाद ताबईन और तबेए ताबईन और उन लोगों की फ़ैज़याबी की भी यही हालत है।
शअबी , ज़हरी इब्ने क़तीबह , सुफ़यान , सौरी इब्ने शीबा , अब्दुर्रहमान , अकरमा , हसन बसरी वग़ैरा वग़ैरा यह सब के सब जो उस वक़्त इस्लामी दुनियां में दीनयात के पेशवा और मुक़द्दस समझे जाते थे इन्हीं बुज़ुर्गों के चश्माए फ़ैज़ के जुरआ नोश और उन्हीं हज़रात के मुतीय व हलक़ा बगोश थे।
जनाबे इमामे रज़ा (अ.स.) को इत्तेफ़ाक़े हसना से अपने इल्मो फ़ज़ल के इज़हार के ज़्यादा मौक़े पेश आये क्यों कि मामून अब्बासी के पास जब तक दारूल हुकूमत मर्व तशरीफ़ फ़रमा रहे बड़े बड़े उलमा व फ़ुज़ला मुख़तलिफ़ उलूम में आपकी इस्तेदाद और फ़ज़ीलत का अन्दाज़ा कराया गया और कुछ इस्लामी उलमा व फ़ुज़ला पर मौकूफ़ नहीं था बल्कि उलमा ए यहूदो नसारा से भी आपका मुक़ाबला कराया गया। मगर इन तमाम मनाज़िरो व मुबाहेसो में इन तमाम लोगों पर आपकी फ़ज़ीलत व फ़ौक़ियत ज़ाहिर हुई। ख़ुद मामून भी ख़ुलफ़ा ए अब्बासीया में सब से ज़्यादा आलम व अफ़क़ह था बा वजूद इसके उलूम तबर्हुरफ़ी का लौहा मानता था चारो नाचार इसका ऐतराफ़ और इक़रार पर इक़रार करता था। चुनान्चे अल्लामा इब्ने हजर मक्की सवाएक़े मोहर्रेक़ा में लिखते हैं कि आप जलालत क़दर इज़्ज़त व शराफ़त में मारूफ़ व मज़कूर हैं। इसी वजह से मामून आपको बमुनज़िला अपनी रूह व जान जानता था। उसने अपनी दुख़्तर का निकाह आँ हज़रत (अ.स.) से किया और मुल्क व विलायत में अपना शरीक गरदाना। मामून बराबर उलमा , अदयान व फ़ुक़हाय शरीअत को जनाबे इमाम रज़ा (अ.स.) के मुक़ाबले में बुलाता और मनाज़रा कराता। मगर आप हमेशा उन लोगों पर ग़ालिब आते थे और ख़ुद इरशाद फ़रमाते थे कि मैं मदीने में रौज़ा ए हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.) में बैठता , वहां के उलमाए कसीर किसी इल्मी मसाएल में आजिज़ आते तो बिल इत्तेफ़ाक़ मेरी तरफ़ रूजू करते। जवाब हाय शाफ़ी दे कर इनकी तसल्ली व तस्कीन कर देता। अबासलत हरवी इब्ने सालेह कहते हैं कि हज़रत इमाम अली बिन मूसा रज़ा (अ.स.) से ज़्यादा कोई आलम मेरी नज़र से नहीं गुज़रा और मुझ पर मौकू़फ़ नहीं जो कोई आपकी ज़ियारत से मुशर्रफ़ होगा वह मेरी तरह आपकी इल्मियत की शहादत देगा।
हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) और हुरूफ़े तहज्जी
बज़ाहिर ऐसा मालूम होता है कि हुरूफ़े तहजी यानी (अलीफ़ , बे , जीम , दाल) वग़ैरा की कोई हैसियत नहीं लेकिन जब उसक हैसियत अरबाबे अस्मत से दरयाफ़्त की जाती है तो मालूम होता है कि यह हुरूफ़ जिन से क़ुरआन मजीद जैसी ऐजाज़ी किताब मुरत्तब की गई है और जिस पर काएनात के इफ़हाम व तफ़हीम का दारो मदार है यह अपने दामन में बेशुमार सेफ़ात रखते हैं और खुदा वन्दे आलम ने उन्हीं हुरूफ़ को अपनी मारफ़त का ज़रिया बनाया है और हर हर्फ़ में ख़ास चीज़ पिन्हा रखती है। हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) से हुरूफ़े तहज्जी दरयाफ़्त किया गया आपने बा हवाला बाबे मदीनतुल उलूम हज़रत अली (अ.स.) इरशाद फ़रमाते हैं कि ‘‘ अलिफ़ ’’ से आला अल्लाह , ख़ुदा की नेअमतें , ‘‘ बे ’’ से बहा उल्लाह , ख़ुदा की खुबीयाँ , बहजतुल्लाह ख़ुदा मोमिन से ख़ुश होना। ‘‘ ते ’’ से तमामुल अमर बक़ाएमे आले मोहम्मद दुनियां का ख़ात्मा इमाम मेहदी (अ.स.) के अहद ममें होगा। ‘‘ से ’’ से सवाब अल मोमेनीन अली अमालेहुम सालेहता मोमेनीन को अच्छे आमाल का भर पूर सवाब मिलेगा। ‘‘ जीम ’’ से जमाल अल्लाह , अल्लाह का जमाल व जलाल अल्लाह , अल्लाह का जलाल , ‘‘ हे ’’ से हिल्मुल्लाह अन अलमज़नबीन। गुनाहगार से अल्लाह का हुक्म। ‘‘ ख़े ’’ से खमोल ज़िक्र अहलुल मासी इन्दुल्लाह ‘‘ ख़ुदा ’’ का गुनाह गारों के गुनाहों से बुलवा देना। ‘‘ दाल ’’ से दीन अल्लाह , अल्लाह का दीन इस्लाम। ‘‘ जीम ’’ ज़ुल्जलाल , अल्लाह का साहबे जमाल होना। ‘‘ रे ’’ से अल्लाह का रऊफ़ुर रहीम होना। ‘‘ जे़ ’’ से ज़लाज़िले अलक़यामता , क़यामत के दिन अज़ीम ज़लज़ले। ‘‘ सीन ’’ से सेना अल्लाह। अल्लाह की अच्छाईयां और बयान। ‘‘ शीन ’’ से शा अल्लाह माशा अल्लाह। जो ख़ुदा चाहे वही होगा। ‘‘ स्वाद ’’ से सादिक़ुल वाद , अल्लाह का वादा सच्चा और लोगों को सच बोलना चाहिए। ‘‘ ज़वाद ’’ से ज़लमिन ख़ालिफ़ मोहम्मद (स.अ.) व आले मोहम्मद (अ.स.)। वह जो शख़्स गुम्राह है जो मोहम्मद (स.अ.) आले मोहम्मद (अ.स.) का मुख़ालिफ़ है। ‘‘ तो ’’ से तूबाअल मोमेनीन , के लिये जन्नत की मुबारक बाद। ‘‘ ज़ो ’’ से ज़न अलमोमेनीन बिल्लाह ख़ैर। मोमिन को ख़ुदा के साथ अच्छा ज़न रखना चाहिये। ‘‘ ऐन ’’ से इल्म यानी ख़ुदा अलमे मुतलक़ है और इल्म इंसान के लिये बेहतरीन ज़ेवर है। ‘‘ ग़ैन ’’ से अलग़नी , ख़ुदा सब से मुसतग़नी है और ग़नी को ग़रीबों पर ख़र्च करना चाहिये। ‘‘ फ़े ’’ से फ़ैज़ मन अफ़वाज़ अन्नार , लोग अगर गुनाह करेंगे तो फ़ौज दर फ़ौज जहन्नुम में जायेंगे। ‘‘ क़ाफ़ ’’ से कु़रआन यह अल्लाह की भेजी हुई किताब है जो हिदायत से पुर है। ‘‘ क़ाफ़ ’’ से अल क़ाफ़ी ख़ुदा बन्दों के लिये काफ़ी ह। ‘‘ लाम ’’ से लग़वो अल काफ़ेरीन फ़ी इफ़तराहुम एल्ल लाहे अलविज़्ब , ख़ुदा पर झूठे इल्ज़ाम देना यह काफ़िरों का काम नेहायत लग़ो है। ‘‘ मीम ’’ से मलकूुल ला हुल यौम ला मालेक ग़ैरहू , एक दिन सिर्फ़ अल्लाह की हुकूमत होगी और कोई भी ज़िन्दा न होगा और न इसके सिवा कोई मालिक होगा , इस दिन ख़ुदा फ़रमायेगा , लेमन उल मुलके अल यौम , आज के दिन किसकी हुकूमत है तो अरवाहे आइम्मा यह जवाब देगें। अल्लाह अल वाहिद अलक़हार , आज सिर्फ़ ख़ुदाए वाहिद क़हार की हुकूमत है। ‘‘ नून ’’ से नवाल अल्लाह अल मोमेनीन व निकाला बिल काफ़ेरीन। मोमेनीन पर ख़ुदा का करम और काफ़िरों पर उसका अज़ाब मोहित होगा। ‘‘ वाव ’’ से वैल लमन असी अल्लाह , वैल और तबाही है इस के लिये जो ख़ुदा की ना फ़रमानी करे। ‘‘ हे ’’ से हान इल लल्लाह मन असह जो ख़ुदा का गुनाह करता है वह उसकी तौहीन करता है। ‘‘ ला ’’ से ला इलाहा इल्लल्लाह , यह वह कलमाए इख़्लास है जो उसे खुलूस व इक़्तेदार और शराएत के साथ ज़बान पर जारी करे वह ज़रूर जन्नत में जाऐगा। ‘‘ ये ’’ से यदुल्लाह अल्लाह का हाथ जो मख़लूक़ात को रोजी़ पहुँचाता है मुराद है।
फिर आपने फ़रमाया कि इन्हीं हुरूफ़ पर मुश्तमिल क़ुरआन मजीद नाज़िल हुआ है और नज़ूल चूंकि ख़ुदा की तरफ़ से था इस लिये दावा कर दिया गया कि जो किताब हम ने हुरूफ़ व अलफ़ाज़ में भेजी है। इसका जवाब जिन व इन्स सब मिल कर भी नहीं दे सकते।
इमाम रज़ा (अ.स.) और वक़्ते निकाह
सक़तुल इस्लाम हज़रत क़ुलैनी किताब उसूले काफ़ी में तहरीर फ़रमाते हैं कि हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) से दरयाफ़्त किया गया कि तजवीज़ व निकाह किस वक़्त होना चाहिये ? आपने इरशाद फ़रमाया कि निकाह रात को सुन्नत है इस लिये कि रात लज़्ज़त और सुकून के लिये बनाई गई है और औरतें मर्दों के लिये लुत्फ़ व लज़्ज़त और सुकून का मरकज़ है।
हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) के बाज़ मरवीयात व इरशादात
हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) से बुशामर अहादीस मरवी हैं जिनमें से बाज़ यह हैं।
1. बच्चों के लिये माँ के दूध से बेहतर कोई दूध नहीं। 2. सिरका बेहतरीन सालन है , जिसके घर में सिरका होगा वह मोहताज न होगा। 3. हर अनार में एक दाना जन्नत का होता है। 4. मुनक़्क़ा सफ़रे को दुरूस्त करता है , बलग़म को दूर करता है , पठ्ठो को मज़बूत करता है , नफ़्स को पाकीज़ा बनाता और रंजो ग़म दूर करता है। 5. शहद में शिफ़ा है , अगर कोई शहद हदिया करे तो वापस न करो। 6. गुलाब जन्नत के फूलों का सरदार है। 7. बनफ़शे का तेल सर में लगाना चाहिये इसकी तासीर गर्मियों में सर्द और सर्दियों में गर्म हेती है। 8. जो ज़ैतुन का तेल सर में लगाए या खाए उसके पास चालीस दिन तक शैतान न आयेगा। 9. सेलाए रहम और पड़ोसियों के साथ अच्छा सुलूक करने से माल में ज़्यादती होती है। 10. अपने बच्चों को ख़तना सातवें दिन करा दिया करो इससे सेहत ठीक होती है और जिस्म पर गोश्त चढ़ता है। 11. जुमे के दिन रोज़ा रखना 10 दस रोज़ों के बराबर है। 12. जो किसी औरत का महर न दे या मज़दूर की उजरत रोके या किसी को फ़रोख़्त कर दे वह बख़्शा न जायेगा। 13. क़ुरआन पढ़ने , शहद खाने और दुध पीने से हाफ़ेज़ा बढ़ता है। 14. गोश्त खाने से शिफ़ा होती है और मर्ज़ दूर होता है। 15. खाने की इब्तेदा नमक से करनी चाहिये क्यों कि इस से सत्तर बीमारियों से हिफ़ाज़त होती है जिनमें जुज़ाम भी है। 16. जो दुनियां में ज़्यादा खायेगा क़यामत में भूखा रहेगा। 17. मसूर , 70 सत्तर अम्बिया की पसन्दीदा खुराक है इस से दिल नरम होता है और आंसू बनते हैं। 18. जो चालीस दिन गोश्त न खायेगा बद इख़्लाक़ हो जायेगा। 19. खाना ठंडा कर के खाना चाहिये। 20. खाना प्याले के किनारे से खाना चाहिये। 21. तूले उम्र के लिये अच्छा खाना , अच्छी जूती पहन्ना और क़र्ज़ से बचना , कसरते जिमा से परहेज़ करना मुफ़ीद है। 22. अच्छे इख़्लाक़ वाला पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) के साथ क़यामत में होगा। 23. जन्नत में मुत्तक़ी और हुस्ने खुल्क़ वालों की और जहन्नम में पेटू , ज़िना कारों की कसरत होगी। 24. इमाम हुसैन (अ.स.) के क़ातिल बख़्शे न जायेंगे। उनका बदला खुदा खुद लेगा। 25. हसन व हुसैन (अ.स.) जवानाने जन्नत के सरदार हैं और उनके पदरे बुज़ुर्गवार दोनों से बेहतर हैं। 26. अहले बैत (अ.स.) की मिसाल सफ़ीना ए नूह जैसी है , नजात वही पायेगा जो इस पर सवार होगा। 27. हज़रत फ़ात्मा (स.अ.) साक़े अर्श पकड़ कर क़यामत के दिन वाक़िये करबला का फ़ैसला चाहेंगी। उस दिन उनके हाथ में इमाम हुसैन (अ.स.) का ख़ून भरा लिबास होगा। 28. ख़ुदा से रोज़ी सदक़ा दे कर मांगो। 29. सब से पहले जन्नत में वह शोहदा और अयाल दार जायेंगे जो परहेज़गार होंगे और सब से पहले जहन्नम में न इंसाफ़ हाकिम और मालदार जायेंगे। (मसनद इमाम रज़ा (अ.स.) प्रकाशित मिस्र 1341 हिजरी) 30. हर मोमिन का कोई न कोई पड़ोसी अज़ियत का बाएस ज़रूर होगा। 31. बालों की सफ़ेदी का सर के अगले हिस्से से शुरू होना सलामती और इक़बाल मन्दी की दलील है और रूख़्सारों , दाढ़ी के अतराफ़ से शुरू होना सख़ावत की अलामत है और गेसूओं से शुरू होना शुजाअत का निशान है और गुद्दी से शुरू होना नहूसत है। 32. क़ज़ा व क़द्र के बारे में आपने फ़ज़ील बिन सुहैल के जवाब में फ़रमाया कि इंसान न बिल्कुल मजबूर है और न बिल्कुल आज़ाद है।
हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) और मजलिसे शोहदाऐ करबला
अल्लामा मजलिसी बेहारूल अनवार में तहरीर फ़रमाते हैं कि शायरे आले मोहम्मद (स.अ.) देबले ख़ेज़ाई का बयान है कि एक मरतबा आशूर के दिन मैं हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर हुआ तो देखा कि आप असहाब के हल्क़े में इन्तेहाई ग़मगीन व हज़ीं बैठे हुये हैं। मुझे हाज़िर होते देख कर फ़रमाया , आओ , आओ हम तुम्हारा इन्तेज़ार कर रहे हैं। मैं क़रीब पहुँचा तो आपने अपने पहलू में जगह दे कर फ़रमाया कि ऐ देबल चूंकि आज यौमे आशूरा है और यह दिन हमारे लिये इन्तेहाई रंजो ग़म का दिन है लेहाज़ा तुम मेरे जद्दे मज़लूम हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) के मरसिए से मुताअल्लिक़ कुछ शेर पढ़ो। ऐ देबल जो शख़्स हमारी मुसीबत पर रोये या रूलाय उसका अज्र ख़ुदा पर वाजिब है। ऐ देबल जिस शख़्स की आंख हमारे जद्दे नामदार हज़रत सय्यदुश शोहदा हुसैन (अ.स.) के ग़म में रोयेगा खुदा उसके गुनाह बख़्श देगा। यह फ़रमा कर इमाम (अ.स.) ने अपनी जगह से उठ कर परदा खींचा और मुख़द्देराते असमत को बुला कर उसमें बिठा दिया। फिर आप मेरी तरफ़ मुख़ातिब हो कर फ़रमाने लगे। हां देबल ! अब मेरे जद्दे अमजद का मरसिया शुरू करो। देबल कहते हैं कि मेरा दिल भर आया और मेरी आंखों से आंसू जारी थे और आले मोहम्मद (अ.स.) में रोने का कोहरामे अज़ीम बरपा था।
साहेबे दारूल मसाएब तहरीर फ़रमाते हैं कि देबल का मरसिया सुन कर मासूमाए क़ुम जनाबे फ़ात्मा हमशीरा हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) इस क़द्र रोईं कि आपको ग़श आ गया।
इस इजतेमाई तरीक़े से ज़िक्रे हुसैनी को मजलिस कहते हैं। इसका सिलसिला अहदे इमाम रज़ा (अ.स.) में मदीने से शुरू हो कर मर्व तक जारी रहा।
अल्लामा अली नक़ी लिखते हैं कि अब इमाम रज़ा (अ.स.) को तबलीग़े हक़ के लिये नामे हुसैन (अ.स.) की इशाअत के काम को तरक़्क़ी देने का भी पूरा मौक़ा हासिल हो गया जिसकी बुनियाद उसके पहले हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़र (अ.स.) और इमाम ज़ाफ़रे सादिक़ (अ.स.) क़ायम कर चुके थे मगर वह ज़माना ऐसा था कि जब इमाम की खि़दमत में वही लोग हाज़िर होते थे जो बा हैसियत इमाम या बा हैसियत आलिमे दीन आपके साथ अक़ीदत रखते थे , और अब इमाम रज़ा (अ.स.) तो इमामे रूहानी भी हैं और वली अहदे सलतनत भी , इस लिये आपके दरबार में हाज़िर होने वालों का दायरा वसी है। ‘‘ मर्वका ’’ वह मक़ाम है जो ईरान से तक़रीबन वसत वाक़े है। हर तरफ़ के लोग यहां आते हैं और यहां यह आालम कि इधर मोहर्रम का चान्द निकला और आंखों से आंसू जारी हो गये। दूसरों को भी तरग़ीब व तहरीस की जाने लगी कि आले मोहम्मद (स.अ.) के मसाएब को याद करो और असराते ग़म को ज़ाहिर करो। यह भी इरशाद होने लगा कि जो इस मजलिस में बैठे जहां हमारी बाते ज़िन्दा की जाती हैं उसका दिल मुर्दा न होगा , उस दिन कि जब सब के दिल मुर्दा होंगे। तज़किराए इमाम हुसैन (अ.स.) के लिये जो मजमा हो उसका नाम इसलाही तौर पर ‘‘ मजलिस ’’ इसी इमाम रज़ा (अ.स.) की हदीस से माख़ूज़ है। आपने अमली तौर पर भी खुद मजलिसें करना शुरू कर दीं। जिनमें कभी खुद ज़ाकिर हुए और दूसरे सामेईन जैसे रियान इब्ने शबीब की हाज़री के मौक़े पर आपने मसाएबे इमाम हुसैन (अ.स.) बयान फ़रमाये और कभी अब्दुल्लाह बिन साबित या देबले खेज़ाई ऐसे किसी शायर के हाज़री के मौक़े पर उस शायर को हुक्म हुआ कि तुम ज़िक्रे इमाम हुसैन (अ.स.) में अशआर पढ़ो , वह ज़ाकिर हुआ और हज़रत सामेईन में दाखि़ल हुए।
ख़लीफ़ा मामून रशीद अब्बासी और हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.)
हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) के वालिदे माजिद हज़रत इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) को 183 हिजरी में हारून रशीद अब्बासी ज़हर से शहीद कराने के बाद 193 हिजरी में फ़ौत हो गया। इसके मरने के बाद जमादील सानी 193 हिजरी में इसका बेटा अमीन ख़लीफ़ा हुआ। हारून चुंकि अपने बेटों में सलतनत तक़सीम कर चुका था और उसके उसूल मोअय्यन कर चुका था इस लिये एक के बजाय दो हुक्मरानें रशीदी हुदूदे सलतनत पर हुक्मरानी करने लगे। अमीन चुंकि निहायत ही लग़ों आदमी था इस लिये उसने अपने उसअते इख़्तेयार की वजह से मामून पर जबरो ताअद्दी शुरू कर दी बिल आखि़र दोनों भाईयों में जंग हुई और अमीन चार साल आठ माह सलतनत करने के बाद 23 मोहर्रम हराम 198 हिजरी में क़त्ल कर दिया गया।
अमीन के क़त्ल के बाद भी मामून चार साल तक मर्व में रहा। सलतनत का कारोबार तो फ़ज़ल बिन सुहेल के सुपुर्द कर रखा था और खुद आलमों फ़ाज़िलों से जो उसके दरबार में भरे रहते थे फ़लसफ़ी मुबाहिसों में मसरूफ़ रहता था। ईराक़ में फ़ज़ल का भाई , हसन बिन सुहेल गर्वनर बनाया गया था। अबूहज़ीरह में नसर बिन नशिस्त अक़ील ने बग़ावत की और वह पांच साल तक शाही फ़ौजों का मुक़ाबला करता रहा। ईराक़ में बद्दू , लुच्चों , बदमाशों को बुलाकर हसन बिन सुहेल के खि़लाफ़ अलमे बग़ावत बुलन्द कर दिया। यह हालत देख कर हज़रत अली (अ.स.) और हज़रत जाफ़र तैय्यार के बाज़ बुलन्द नज़र नौनिहालों ने शायद यह ख़्याल किया कि इनके हुकू़क़ वापस मिलने का वक़्त आ गया है। चुंनाचे जमादिल सानी 199 हिजरी मुताबिक़ 814 ई 0 में अबू अब्दुल्लाह बिन इब्राहीम बिन इस्माईल बिन इब्राहीम अल मारूफ़ बा तबा बिन हसन अली बिन अबी तालिब अलवी ने जो मज़हब ज़ैदिया रखते थे कूफ़े में ख़रूज किया और लोगों को आले रसूल की बैअत और मुताबेअत की दावत दी। इनकी मद्द पर बनी शैबान का मुअजि़्ज़ज़ सरदार अबुल सरयासरी बिय मन्सूर शैबानी जो हर समह के फ़ौजी सरदारों में से था उठ खड़ा हुआ उन्होंने अपनी मुत्तफ़ेक़ा अफ़वाज से हसन की फ़ौज को कूफ़े के बाहर शिकस्त दे कर तमाम जुनूबी ईराक़ पर क़ब्ज़ा कर लिया।
फ़तेह के दूसरे दिन मोहम्मद बिन इब्राहीम मर्गे मफ़ाजात से फ़ौत हो गये। अबू असराया ने इनकी जगह मोहम्मद निब ज़ैद शहीद को अमीर बना लिया। हसन ने फिर फ़ौज भेजी। अबुल सराया ने उसे भी मार कर फ़ना कर दिया। इसी दौरान अलवी हर चार जानिब से अबुल सरया की मद्द को जमा जो गए और जा बजा शहरों में फैल गये और अबुल सरया ने कूफ़े में इमाम रज़ा (अ.स.) के नाम दिरहम व दीनार ‘‘ मस्कूक ’’ कराए और बसरा वस्ता , मदाएन की तरफ़ फ़ौज रवाना की और ईराक़ के बहुत से शहरो क़रिए फ़तह कर लिये। अलवीयों की क़ूवत व शौकत बहुत बढ़ गई। उन्होंने अब्बासीयो के घर जो कूफ़े में थे फूंक दिये और जो अब्बासी मिला उसे क़त्ल कर डाला। इसके बाद मौसमे हज आया तो अबू असराया ने हुसैन बिन हसन इब्ने इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) को जिन्हें अफ़तस कहते हैं मक्का का गर्वनर मुक़र्रर किया और इब्राहीम बिन मूसा काज़िम को यमन का आमिल बनाया और फ़ारस पर इस्माईल बिन मूसा काफ़िम को गर्वनर किया और मदायन की तरफ़ मोहम्मद बिन सुलैमान बिन दाऊद हसन मुसन्ना को रवाना किया और हुक्म दिया कि जानिबे शरक़ी से बग़दाद पर हमला करें। इस तरह अबुल सरया की सलतनत बहुत वसी हो गई।
फ़ज़ल बिने सहल ने हरसमा को अबू सराया की सरकोबी के लिये रवाना किया और अबूल सराया नहरवान के क़रीब शिकस्त खा कर मारा गया और मोहम्मद बिने मोहम्मद बिने जै़द मामून के पास मर्व भेज दिये गये। अबू सराया का दौरा दौरा कुल दस माह रहा। अबू सराया के क़त्ल हो जाने के बाद हिजाज़ में लोेगों ने मोहम्मद बिने जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) को अमीरल मोमेनीन बनाया। अफतस ने भी उनकी बैअत कर ली और यमन में इब्राहीम बिने मूसिए काज़िम (अ.स.) ने सर उठाया। इसी तरह ईरान की सरहद से यमन तक तमाम मुल्क में ख़ाना जंगी फैल गई। अबुल सराया के क़त्ल के बाद हरसमा मग़रिब के हालात बयान करने को बादशाह की खि़दमत में मर्व हाज़िर हुआ क्यों कि वज़ीर इन तमाम हालात को बादशाह से मख़फ़ी रखता था। हालात बयान कर के वह बादशाह के पास से वापस आ रहा था कि वज़ीर ने रास्ते में उसे क़त्ल करा दिया। यह वाक़ेया 200 हिजरी का है। हरसूमा के क़त्ल की ख़बर सुन कर बग़दाद के सिपाहीयों ने जो उसे दोस्त रखते थे बग़दादियों में बग़ावत कर के हसन बिने सहल को निकाल दिया और मन्सूर बिन मेहदी को अपना गर्वनर बना लिया।
मामून को बाग़ियों की कसरत और अलवियों की तलबे खि़लाफ़त में उठने की ख़बर पहुँची तो घबरा गया और उसने यही मसलहत देखी कि इमाम अली रज़ा (अ.स.) को वली अहद बना ले। चुनान्चे उनको मदीने से बुला कर 2 रमज़ान 201 हिजरी मुताबिक़ 816 ई 0 को बवजूद उनके सख़्त इंकार के अपना वली अहद बना लिया। उनसे अपनी बेटी उम्मे हबीबा की शादी कर दी। उनका नाम दिरहमों दीनार में मस्कूक कराया। शाही वर्दी से अब्बसीयों का सियाह रंग दूर कर के बनी फ़ात्मा का सब्ज़ रंग इख़्तियार किया।
इस वाक़िए तफ़सील कसीर किताबों में मौजूद है। हम मुख़सर अलफ़ाज़ में तहरीर करते हैं।
मामून रशीद की मजलिसे मुशाविरत
हालात से मुतासिर हो कर मामून रशीद ने एक मजलिसे मुशाविरत तलब की जिसमें उलमा , फ़ुज़ला , जुमआ और उमरा सभी को मदऊ किया। जब सब जमा हो गए तो असल राज़ दिल में रखते हुए उनसे यह कहा कि चूंकि शहरे ख़ुरासान में हमारी तरफ़ से कोई हाकिम नहीं है और इमाम रज़ा (अ.स.) से ज़्यादा लाएक़ कोई नहीं है इस लिये हम चाहते हैं कि इमाम रज़ा (अ.स.) को बुला कर वहां की ज़िम्मेदारी उनके सुपुर्द कर दें। मामून का मक़सद तो यह था कि उनको ख़लीफ़ा बना कर अलवियों की बग़ावत और उनकी चाबुक दस्ती को रोक दे लेकिन यह बात उसने मजलिसे मुशाविरत में ज़ाहिर नहीं कि बल्कि मुल्की ज़रूरत का हवाला दे कर उन्हें ख़ुरासान का हाकिम बनाना ज़ाहिर किया और लोगों ने तो इस पर जो भी राय दी हो लेकिन हसन बिने सहल और वज़ीरे आज़म फ़ज़ल बिने सहल इस पर राज़ी न हुए और यह कहा कि इस तरह खि़लाफ़त बनी अब्बास से आले मोहम्मद (अ.स.) की तरफ़ मुन्तक़िल हो जायेगी। मामून ने कहा मैंने जो कुछ सोचा है वह यही है और उस पर अमल करूंगा यह सुन कर वह लोग ख़ामोश हो गए। इतने में हज़रत अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) के एक मोअजि़्ज़ज़ सहाबी , सुलेमान बिने इब्राहीम बिने मोहम्मद बिने दाऊद बिने क़ासिम बिने हैबत बिने अब्दुल्लाह बिने हबीब बिने शैख़ान बिने अरक़म खड़े हो गए और कहने लगे ऐ मामून रशीद ‘‘ रास्त मी गोई इमामी तरसम कि तू हज़रते इमाम रज़ा हमाना कुनी कि कूफ़ियान बा हज़रते इमाम हुसैन करदन्द ’’ तू सच कहता है लेकिन मैं डरता हूँ कि तू कहीं इनके साथ वही सुलूक न करे जो कूफ़ियों ने इमाम हुसैन (अ.स.) के साथ किया है। मामून रशीद ने कहा , ऐ सुलेमान ! तुम यह क्या सोच रहे हो ऐसा हरगिज़ नहीं हो सकता मैं उनकी अज़मत से वाक़िफ़ हूँ जो उन्हें सताएगा क़यामत में हज़रते रसूले करीम (स.अ.) हज़रते अली हकीम (अ.स.) को क्यों कर मुंह दिखाएगा तुम मुतमईन रहो इन्शा अल्लाह इनका एक बाल बीका न होगा। यह कह कर बा रवाएते अबू मख़नफ़ मामून रशीद ने क़ुराने मजीद पर हाथ रखा और क़सम खा कर कहा मैं हरगिज़ औलादे पैग़म्बर पर कोई ज़ुल्म न करूंगा। इसके बाद सुलेमान ने तमाम लोगों को कसम दे कर बैअत ले ली फिर उन्होंने एक बैअत नामा तैयार किया और उस पर अहले ख़ुरासान के दस्तख़त लिये। दस्तख़त करने वालों की तादाद चालीस हज़ार थी। बैअत नामा तैय्यार होने के बाद मामून रशीद ने सुलैमान को बैअत नामा समेत मदीने भेज दिया। सुलेमान क़ता मराहिल व तै मनाज़िल करते हुए मदीने मुनव्वरा पहुँचे और हज़रते इमाम रज़ा (अ.स.) से मुलाक़ात की। उनकी खि़दमत में मामून का पैग़ाम पहुँचाया और मजलिसे मशाविरत के सारे वाक़ियात बयान किये और बैअत नामा हज़रत की खि़दमत में पेश किया। हज़रत ने ज्यों ही उसको खोला और उसका सर नामा देखा सरे मुबारक हिला कर फ़रमाया कि यह मेरे लिये किसी तरह मुफ़ीद नहीं है। इस वक़्त आप आब दीदा थे। फिर आपने फ़रमाया कि मुझे जद्दे नाम दार ने ख़्वाब में नतीजा व अवाक़िब से आग़ाह कर दिया है। सुलैमान ने कहा मौला यह तो ख़ुशी का मौक़ा है। आप इस दर्जा परेशान क्यों हैं ? इरशाद फ़रमाया कि मैं इस दावत में अपनी मौत देख रहा हूँ। उन्होंने कहा मौला मैंने सब से बैअत ले ली है। कहा दुरूस्त है , लेकिन जद्दे नाम दार ने जो फ़रमाया है वह ग़लत नहीं हो सकता। मैं मामून के हाथों शहीद किया जाऊंगा।
बिल आखि़र आप पर कुछ दबाव पड़ा कि आप मर्व ख़ुरासान के लिये आज़िम हो गए। जब आप के अज़ीज़ों और वतन वालों को आपकी रवानगी का हाल मालूम हुआ बेपनाह रोए।
ग़रज़ कि आप रवाना हो गए। रास्ते में एक चश्मा ए आब के किनारे चन्द आहुओं को देखा कि वह बैठे हुए हैं , जब उनकी नज़रे हज़रत पर पड़ी सब दौड़ पड़े और ब चश्मे तर कहने लगे कि हुज़ूर ख़ुरासान न जायें कि दुश्मन बा लिबासे दोस्ती आपकी ताक में है और मलकुल मौत इस्तेग़बाल के लिये तैय्यार है। हज़रत ने फ़रमाया कि अगर मौत आनी है तो हर हाल में आयेगी। (
एक रवायत में है कि मामून रशीद ने अपनी ग़रज़ के लिये जब हज़रत को ख़लीफ़ा ए वक़्त बनाने के लिये लिखा तो आपने इनकार कर दिया। फिर उसने तहरीर किया कि आप मेरी वली अहदी को क़ुबूल कीजिए। आपने इसे भी इन्कार कर दिया। जब वह आपकी तरफ़ से मायूस हो गया तो उसने 300 अफ़राद पर मुश्तमिल फ़ौज भेज दी और हुक्म दे दिया कि वह जिस हालत में हो और जहां हो उनको गिरफ़्तार कर के लाया जाए और उन्हें इतनी मोहलत न दी जाए कि वह किसी से मिल सकें। चुनान्चे फ़ौज ग़ालेबन फ़ज़ल बिने सहल वज़ीरे आज़म की क़यादत में मदीने पहुँची और इमाम (अ.स.) मस्जिद से गिरफ़्तार कर के मर्व ख़ुरासान के लिये रवाना हो गये। इतना मौक़ा न दिया कि इमाम (अ.स.) अपने अहलो अयाल से रूख़सत हो लेते।
मामून की तलबी से क़ब्ल इमाम (अ.स.) की रौज़ा ए रसूल पर फ़रयाद
अबू मख़नफ़ बिने लूत बिने यहया ख़ज़ाई का बयान है कि हज़रते इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) की शहादत के बाद 15 मोहर्रमुल हराम शबे यक शम्बा को हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) ने रौज़ा ए रसूले ख़ुदा (स.अ.) पर हाज़री दी। वहां मशग़ूले इबादत थे कि आंख लग गई , ख़्वाब में देखा कि हज़रत रसूले करीम (स.अ.) बा लिबासे स्याह तशरीफ़ लाये हैं और सख़्त परेशान हैं। इमाम (अ.स.) ने सलाम किया हुज़र ने जवाबे सलाम दे कर फ़रमाया , ऐ फ़रज़न्द ! मैं और अली (अ.स.) , फ़ात्मा (स.अ.) हसन (अ.स.) , हुसैन (अ.स.) सब तुम्हारे ग़म में नाला व गिरया हैं और हम ही नहीं फ़रज़न्द ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) व मोहम्मद बाक़र (अ.स.) , जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) और तुम्हारे पदर मूसिए काज़िम (अ.स.) सब ग़मगीन और रंजीदा हैं। ऐ फ़रज़न्द ! अन्क़रीब मामून रशीद तुम को ज़हर से शहीद कर देगा। यह देख कर आपकी आंख खुल गई और आप ज़ार ज़ार रोने लगे। फिर रौज़ा ए मुबारक से बाहर आए। एक जमाअत ने आपसे मुलाक़ात की और आपको परेशान देख कर पूछा कि मौला इज़तिराब की वजह क्या है ? फ़रमाया , अभी अभी जद्दे नाम दार ने मेरी शहादत की ख़बर दी है। अबुल सलत दुश्मन मुझे शहीद करना चाहते हैं और मैं खुदा पर पूरा भरोसा करता हूँ जो मरज़िए माबूद हो वही मेरी मरज़ी है इस ख़्वाब के थोड़े अर्से के बाद मामून रशीद का लशकर मदीने पहुँच गया और इमाम (अ.स.) को अपनी सियासी ग़रज़ पूरी करने के लिये वहां से दारूल खि़लाफ़त ‘‘ मर्व ’’ में ले आया।
इमाम रज़ा (अ.स.) की मदीने से मर्व में तलबी
अल्लामा शिब्लन्जी लिखते है कि हालात की रौशनी में मामून ने अपने मुक़ाम पर यह क़तई फ़ैसला और अज़म बिल जज़म कर लेने के बाद कि इमाम रज़ा (अ.स.) को वली अहले खि़लाफ़त बनायेगा। अपने वज़ीरे आज़म फ़ज़ल बिन सहल को बुला कर भेजा और उससे कहा कि हमारी राए है कि हम इमाम रज़ा (अ.स.) को वली अहद सुपुर्द कर दे तुम भी इस पर सोच विचार करो और अपने भाई हसन बिन सहल से मशविरा करो। इन दोनों ने आपस में दबादलाए ख़यालात करने के बाद मामून की बारगाह में हाज़री दी। उनका मक़सद था कि मामून ऐसा न करे वरना खि़लाफ़त आले अब्बास से आले मोहम्मद (अ.स.) में चली जायेगी। उन लोगों ने अगर चे खुल कर मुख़ालफ़त न की लेकिन दबे लफ़्ज़ों में नाराज़गी का इज़हार किया। मामून ने कहा मेरा फ़ैसला अटल है और मैं तुम दोनों को हुक्म देता हूँ कि तुम मदीने जा कर इमाम रज़ा (अ.स.) को अपने हमराह लाओ। (हुक्मे हाकिम मर्गे मफ़ाजात) आखि़र कार यह दोनों इमाम रज़ा (अ.स.) की खि़दमत में मक़ामे मदीने मुनव्वरा हाज़िर हुए और उन्होंने बादशाह का पैग़ाम पहुँचाया। हज़रते इमाम अली रज़ा (अ.स.) ने इस अर्ज़ दाश्त को मुस्तरद कर दिया और फ़रमाया कि इस अम्र के लिये अपने को पेश करने के लिये माज़ूह हूँ लेकिन चूंकि बादशाह का हुक्म था कि उन्हें ज़रूर लाओ इस लिये उन दोनों ने बे इन्तेहा इसरार किया और आपके साथ उस वक़्त तक लगे रहे जब तक आपने मशरूत तौर पर वादा नहीं कर लिया।
इमाम रज़ा (अ.स.) की मदीने से रवानगी
तारीख़ अबुल फ़िदा में है कि जब अमीन क़त्ल हुआ तो मामून सलतनते अब्बासिया का मुस्तक़िल बादशाह बन गया। यह ज़ाहिर है कि अमीन के क़त्ल होने के बाद सलतनत मामून के पाए नाम हो गई मगर यह पहले कहा जा चुका है कि अमीन नाननहाल की तरफ़ से अरबीउन नस्ल था और मामून अजमिउन नस्ल था। अमीन के क़त्ल होने से ईराक़ की अरब का़ैम और अरकाने सलतनत के दिल मामून की तरफ़ से साफ़ नहीं हो सकते थे बल्कि वह ग़मो ग़स्से की कैफ़ीयत महसूस करते थे दूसरी तरफ़ खुद बनी अब्बास में से एक बडी़ जमाअत जो अमीन की तरफ़ दार थी इससे भी मामून को हर तरह का ख़तरा लगा हुआ था। औलादे फ़ात्मा (स.अ.) में से बहुत से लोग जो वक़्त्न फ़वक़्तन बनी अब्बास के मुक़ाबिल ख़ड़े होते रहते थे वह ख़्वाह क़त्ल कर दिये गये हों या जिला वतन किये गए हों या क़ैद रखे गए हों उनके मुआफ़िक़ एक जमाअत थी जो अगर चे हुकूमत का कुछ बिगाड़ न सकती थी मगर दिल ही दिल में हुकूमते बनी अब्बास से बेज़ार ज़रूर थी। ईरान में अबू मुस्लिम ख़ुरासानी ने बनी उमय्या के खि़लाफ़ जो इश्तेआल पैदा किया वह इन मज़ालिम को याद दिला कर जो बनी उमय्या के हाथों हज़रते इमाम हुसैन (अ.स.) और दूसरे बनी फ़ात्मा (स.अ.) के साथ किये गये थे। इस से ईरान में इस ख़ानदान के साथ हमदर्दी का पैदा होना फ़ितरी था। दरमियान में बनी अब्बास ने इससे ग़लत फ़ायदा उठाया मगर इतनी मुद्दत में कुछ ना कुछ ईरानियों की आंखें भी खुल गई होगीं कि उनसे कहा गया था क्या और इक़्तेदार किन लोगों ने हासिल कर लिया है। मुम्किन है कि ईरानी क़ौम के इन रूझानात का चर्चा मामून के कानो तक भी पहुँचा हो। अब जिस वक़्त की अमीन के क़त्ल के बाद वह अरब क़ौम पर और बनी अब्बास के ख़ानदान पर भरोसा नहीं कर सकता था और उसे हर वक़्त इस हल्क़े से बग़ावत का अन्देशा था तो उसे इसी सियासी मस्लहत इसी में मालूम हुई। अरब के खि़लाफ़ अजम और बनी अब्बास के खि़लाफ़ बनी फ़ात्मा को अपना बनाया जाए और चुंकि तरज़े अमल में ख़ुलूस समझा नहीं जा सकता और वह आम तबाए पर असर नहीं डाल सकता। अगर यह नुमाया हो जाए कि वह सीयासी मसलहतों की बिना पर है इस लिये ज़रूरत हुई कि मामून मज़हबी हैसियत से अपनी शियत नवाज़ी और विलाए अहले बैत के चर्चे अवाम में फैलाए और वह यह दिखलाए कि वह इन्तेहाई नेक नीयती पर क़ाएम है। ‘‘ अब हक़ बा हक़दार रसीद के मकूले को सच्चा बनाना चाहता है।’’
इस सिलसिले में जनाबे शेख़ सद्दूक़ आलाल्लाहो मुक़ामा ने फ़रमाया है कि इसने अपनी नज़र की हिक़ायत भी शाया की कि जब अमीन का और मेरा मुक़ाबला था और बहुत नाज़ुक हालत थी और यह उसी वक़्त मेरे खि़लाफ़ सीसतान और किरमान में भी बग़ावत हो गई थी और ख़ुरासान में भी बेचैनी फैली हुई थी और फ़ौज की तरफ़ से भी इतमिनान न था और उस वक़्त दुश्वार माहोल में मैंने खुदा से इलतिजा की और मन्नत मानी कि अगर यह सब झगड़े ख़त्म हो जायें और मैं बामे खिलाफ़त तक पहुँचू तो उसको उसके असली हक़दार यानी औलादे फ़ात्मा मे से जो इसका अहल है उस तक पहुँचा दूंगा। इसी नज़र के बाद मेरे सब काम बनने लगे और आखि़र तमाम दुश्मनों पर फ़तेह हासिल हुई यक़ीनी यह वाक़िया मामून की तरफ़ से इस लिये बयान किया गयाा कि इसका तर्ज़े अमल खुलूसे नियत और हुस्ने नियत पर मुबनी समझा जाए। यूं तो अहले बैत (अ.स.) के खुले दुश्मन सख़्त से सख़्त थे वह भी इनकी हक़ीक़त और फ़ज़ीलत से वाक़िफ़ थे। मगर शीयत के मानी यह जानना तो नहीं है बल्कि मोहब्बत रखना और इताअत करना है और मामून के तरज़े अमल से यह ज़ाहिर है कि वह इस दावाए शीयत और मोहब्बते अहले बैत का ढिंढोरा पीटने के बावजूद खुद इमाम की इताअत नहीं करना चाहता था बल्कि इमाम को अपना मंशा के मुताबिक़ चलाने की कोशिश थी। वली अहद बनने के बारे में आपके इख़्तेआरात को बिल्कुल सलब कर दिया गया और आपको मजबूर बना दिया गया था। इससे ज़ाहिर है कि यह वली अहदी की तफ़वीज भी एक हाकिमाना तशद्द था जो उस वक़्त इमाम के साथ किया जा रहा था।
इमाम रज़ा (अ.स.) का वली अहदी को क़ुबूल करना बिल्कुल वैसा ही था जैसा हारून के हुक्म से इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) का जेल ख़ाने में चला जाना। इस लिये जब इमाम रज़ा (अ.स.) मदीने से ख़ुरासान की तरफ़ रवाना हो रहे थे तो आपके रंजो सदमा और इस्तेराब की कोई हद न थी। रौज़ा ए रसूल से रूख़सत के वक़्त आपका वही आलम था जो हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) का मदीने से रवानगी के वक़्त था। देखने वालों ने देखा कि आप बे ताबाना रौज़े के अन्दर जाते हैं और नालाओ आह के साथ उम्मत की शिकायत करते हैं। फिर बाहर निकल कर घर जाने का इरादा करते हैं और फिर दिल नहीं मानता फिर रौज़े से लिपट जाते हैं यही सूरत कई मरतबा हुई। रावी का बयान है कि मैं हज़रत के क़रीब गया तो फ़रमाया , ऐ महूल ! मैं अपने जद्दे अमजद के रौज़े से ब जब्र जुदा किया जा रहा हूँ , अब मुझको यहां आना नसीब न होगा।
महूल शैबानी का बयान है कि जब वह ना गवार वक़्त पहुँच गया कि हज़रते इमाम रज़ा (अ.स.) अपने जद्दे बुज़ुर्गवार के रौज़ा ए अक़दस से हमेशा के लिये विदा हुए तो मैंने देखा कि आप बेताबान अन्दर जाते और बा नालाओ आह बाहर आते हैं और दिल में उम्मत की शिकायत करते हैं या बाहर आ कर गिरया ओ बुका फ़रमाते हैं और फिर अन्दर चले जाते हैं। आपने चन्द बार ऐसे ही किया और मुझसे न रहा गया और मैंने हाज़िर हो कर अर्ज़ की मौला इज़्तेराब की क्या वजह है ? फ़रमाया , ऐ महूल ! मैं अपने नाना के रौज़े से जबरन जुदा किया जा रहा हूँ। मुझे इसके बाद अब यहां आना न नसीब होगा। मैं इसी मुसाफ़िरत और ग़रीबुल वतनी में क़त्ल कर दिया जााऊंगा और हारून रशीद के मक़बरे में मदफ़ून हूंगा। उसके बाद आप दौलत सरा में तशरीफ़ लाए और सब को जमा कर के फ़रमाया कि मैं तुम से हमेशा के लिये रूख़सत हो रहा हूँ। यह सुन कर घर में एक अज़ीम कोहराम बरबा हो गया और सब छोटे बड़े रोने लगे। आपने सब को तसल्ली दी और कुछ दीनार आइज़्ज़ा में तक़सीम कर के राहे सफ़र इख़्तेयार फ़रमाया। एक रवायत की बिना पर आप मदीने से रवाना हो कर मक्के मोअज़्ज़मा पहुँचे और वहां तवाफ़ कर के ख़ाना ए काबा को रूख़सत फ़रमाया।