अबुल हसन हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.)

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अबुल हसन हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) लेखक:
कैटिगिरी: इमाम रज़ा (अ)

अबुल हसन हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.)

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: मौलाना नजमुल हसन करारवी
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अबुल हसन हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.)

अबुल हसन हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.)

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) का नेशा पूर में वरूदे मसऊद

रज़ब 200 हिजरी में हज़रत मदीनाए मुनव्वरा से मर्व ‘‘ ख़ुरासान ’’ की जानिब रवाना हो गये। अहलो अयाल और मुअल्लेक़ीन सब को मदीना मुनव्वरा ही में छोड़ा। उस वक़्त इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) की उम्र पांच बरस की थी। आप मदीने ही में रहे। मदीना से रवानगी के वक़्त कूफ़ा और कु़म की सीधी राह छोड़ कर बसरा और अहवाज़ का ग़ैर मुतअर्रिफ़ रास्ता इस ख़तरे के पेशे नज़र इख़्तेयार किया गया कि कहीं अक़ीदत मन्दाने इमाम मुज़ाहमत न करें। ग़रज़ कि क़तए मराहल और तै मनाज़िल करते हुए यह लोग नेशापुर के क़रीब पहुँचे।

मुवर्रेख़ीन लिखते हैं कि जब आपकी मुक़द्दस सवारी शहर नेशा पुर के क़रीब पहुँची तो जुमला उलमा व फ़ुज़ला शहर ने बैरून शहर हाज़िर हो कर आपकी रस्मे इस्तग़बाल अदा की। दाखि़ले शहर होते हुए तो तमाम खुर्द व बुज़ुर्ग शौक़े ज़्यारत में उमड़ आए। मरकबे आली जब मरबा शहर (चैक) में पहुँचा , तो हुजूमे ख़लाएक़ से ज़मीन पर तिल रखने की जगह न थी उस वक़्त इमाम रज़ा (अ.स.) क़ातिर नामी खच्चर पर सवार थे जिसका तमाम साज़ो सामान नुक़रई था , ख़च्चर पर अमारी थी और इस पर दोनों तरफ़ पर्दे पड़े हुए थे और ब रवाएते छतरी लगी हुई थी। उस वक़्त इमामुल मुहद्देसीन हाफ़िज़ अबू ज़रआ राज़ी और मोहम्मद बिन अस्लम तूसी आगे आगे और उनके पीछे अहले इल्म व हदीस की एक अज़ीम जमाअत हाज़िरे खि़दमत हुई और बई कलमात इमाम (अ.स.) को मुख़ातिब किया। ‘‘ ऐ जमीय सादात के सरदार , ऐ तमाम इमामों के इमाम और ऐ मरकज़े पाकीज़गी आपको रसूले अकरम का वास्ता , आप अपने अजदाद के सदक़े में अपने दीदार का मौक़ा दीजिए और कोई हदीस अपने जद्दे नाम दार की बयान फ़रमाईये ’’ यह कह कर मोहम्मद बिन राफ़े , अहमद बिन हारिस , यहिया बिन यहिया और इस्हाक़ इब्ने सहविया ने आपके क़ातिर की बाग थाम ली। उनकी इस्तदुआ सुन कर आप ने सवारी रोक दीए जाने के लिये इशारा फ़रमाया और इशारा किया कि हिजाब उठा दिए जाएं। फ़ौरन तामील की गई। हाज़ेरीन ने ज्यों ही वह नूरानी चेहरा अपने प्यारे रसूल के जिगर गोशे का देखा सीनों मे दिल बेताब हो गए। दो ज़ुल्फ़ें रूए अनवर पर मानिन्द गेसूए मुश्क बूए जनाबे रसूले खुदा (स.अ.) फूटी हुई थी। किसी को यारए ज़ब्त बाक़ी न रहा वह सब के सब बे अख़्तेयार धाड़े मार कर रोने लगे। बहुत ने अपने कपड़े फाड़ डा़ले कुछ ज़मीन पर गिर कर लोटने लगे बाज़ सवारी के गिर्द पेश घूमने और चक्कर लगाने लगे और मरक़बे अक़दस के ज़ीन व लजाम चूमने लगे और अमारी का बोसा देने लगे। आखि़र मरक़बे आली के क़दम चूमने के इश्तेआक में दर्राना बढ़े चले आते थे ग़रज़ कि अजीब तरह का वलवला था कि जमाले बा कमाल को देखने से किसी को सेरी नहीं हुई थी। टक टकी लगाए रूख़े अनवर की तरफ़ निगरां थे। यहां तक कि दो पहर हो गई और इनके मौजूद शौक़ व तमन्ना की पुर जोशियों में कोई कमी नहीं आई। इस वक़्त उलमा और फ़ुज़ला की जमाअत ने बा आवाज़े बुलन्द पुकार कर कहा कि ऐ मुसलमानों ! ज़रा ख़ामोश हो जाओ और फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.) के लिये आज़र न बनो इनकी इस्तेदुआ पर क़दरे शोर व ग़ुल थमा तो इमाम रज़ा (अ.स.) ने इरशाद फ़रमाया:-

“ हदसनी अबी मुसा काज़िम , अन अबीहा जाफ़र अल सादिक़ अन अबीह मोहम्मद अल बाक़र अन अबीह ज़ैन अल अबेदीन अन अबीह हुसैन अल शहीदे करबला अन अबीह अली अल मुर्तुज़ा क़ाला हदसनी जैबी व क़रता ऐनी रसूल अल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वालेही वसल्लम क़ाला हदसनी जिबराईल अलैहिस्सलाम क़ाला हदसनी रब्बुल इज़्ज़त सुबहानहा व ताला क़ाला ला इलाहा इल्लाह हस्सनी फ़मन क़ाला दख़ला हसनी वमन दखला हसना अमेना मन अज़ाबी ’’

तर्जुमा:- मेरे पदरे बुज़ुर्गवार हज़रत इमाम मुसिए काज़िम (अ.स.) ने मुझ से फ़रमाया और उनसे इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने और उनसे इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) ने उनसे इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ने और उनसे इमाम हुसैन (अ.स.) ने और उनसे हज़रत अली मुर्तुज़ा (अ.स.) ने और उन से हज़रत रसूले करीम जनाबे मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) ने और उनसे जनाबे जिब्राईले अमीन ने और उनसे खुदा वन्दे आलम ने इरशाद फ़रमाया कि ला इलाहा इल्लल्लाह मेरा क़िला है जो इसे ज़बान पर जारी करेगा मेरे क़िले में दाखि़ल हो जायेगा और जो मेरे क़िला ए रहमत में दाखि़ल होगा मेरे अज़ाब से महफ़ूज़ हो जायेगा। (मसनदे इमाम रज़ा (अ.स.) पृष्ठ 7 प्रकाशित मिस्र 1341 हिजरी)

यह फ़रमा कर आपने परदा खिंचवा दिया और चन्द क़दम बढ़ने के बाद फ़रमाया ‘‘ बा शरतहा व शरूतहा व अना मन शरूतहा ला इलाहा अल्लल्लाह ’’ कहने वाला नजात ज़रूर पायेगा लेकिन इसके कहने और नजात पाने में चन्द शर्तें हैं जिनमें से एक शर्त मैं भी हूं यानी अगर आले मोहम्मद (स.अ.) की मोहब्बत दिल में न होगी तो ला इलाहा इल्लल्लाह कहना काफ़ी न होगा। उलेमा ने ‘‘तारीख़े नेशापूर’’ के हवाले से लिखा है कि इस हदीस के लिखने में मफ़रूद दावातों के अलावा 24 हज़ार कममदान इस्तेमाल किये गये।

अहमद बिन हम्बल का कहना है कि यह हदीस जिन असनाद और जिन नामों के ज़रिए से बयान फ़रमाई गई है अगर इन्हीं नामों को पढ़ कर मजनून पर दम किया जाय तो ‘‘ ला फ़ाक़ मन जुनूना ’’ ज़रूर उसका जुनून जाता रहेगा और वह अच्छा हो जायेगा।

अल्लामा शिब्लन्जी नूरूल अबसार में बा हवाला ए अबूल क़ासिम तज़ीरी लिखते हैं कि सासाना के रहने वाले बाज़ रऊसा ने जब इस सिलसिला ए हदीस को सुना तो उसे सोने के पानी से लिखवा कर अपने पास रख लिया और मरते वक़्त वसीअत की कि उसे मेरे कफ़न में रख दिया जाए चुंकि ऐसा ही किया गया मरने के बाद उसने ख़्वाब में बताया कि ख़ुदा वन्दे आलम ने मुझे इन नामों की बरकत से बख़्श दिया है और मैं बहुत आराम की जगह पर हूँ।

मोअल्लिफ़ कहता है कि इसी फ़ाएदे के लिये शिया अपने कफ़न में जवाब नामा के तौर पर इन असमा को लिख कर रखते हैं। बाज़ किताबों में है कि नेशा पुर में आप से बहुत से करामात नमूदार हुए।

शहर ख़ुरासान में नुज़ूले इजलाल

अबुल सलत हरदी नाक़िल है कि असनाए सफ़र में जब आप ख़ुरासान पहुँचे तो दिन ढल चुका था आप फ़रीज़ाए ज़ौहर अदा करने के लिये सवारी से उतरे और आपने तजदीदे वज़ू के लिये पानी तलब फ़रमाया अर्ज़ की गई मौला इस वक़्त यहां पानी नहीं। यह सुन कर आपने एक ज़मीन पर पड़े हुए पत्थर के नीचे से चश्मा जारी फ़रमाया और वज़ू कर के नमाज़ अदा फ़रमाई। जनाब शेख़ सद्दूक़ रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं कि इस चश्मे का हनूज़ असर बाक़ी है।

शहर तूस में आप का नुज़ूलो वरूद

जब इस सफ़र में चलते चलते शहर तूस पहुँचे तो वहां देखा कि एक पहाड़ से लोग पत्थर तराश कर हंाडी वग़ैरा बनाते हैं। आप इस से टेक लगा कर खड़े हो गये और आपने उसे नरम होने की दुआ की। वहां के बाशिन्दों का कहना है कि पहाड़ का पत्थर बिल्कुल नरम हो गया और बड़ी आसानी से बर्तन बनने लगे।

क़रिया सना बाद में हज़रत का नुज़ूले करम

शहरे तूस से रवाना हो कर आप क़रिया सना बाद पहुँचे और आपने मोहल्ला नौख़ान में क़याम फ़रमाया और लिबास उतार कर धुलने को दे दिया। हमीद बिने क़ैबता का बयान है कि आपकी जेब में एक दोआ कनीज़ ने पाई। उसने मुझे दिखाई मैंने उसे हज़रत तक पहुँचाते हुए दरियाफ़्त किया कि इस दुआ का फ़ायदा क्या है ? फ़रमाया यह शरीरों के शर से हिफ़ाज़त का हिर्ज़ है। फिर आप कु़ब्बाए हारून में तशरीफ़ ले गए और आपने क़िबले की तरफ़ ख़त खैंच कर फ़रमाय कि मैं इस जगह दफ़्न किया जाऊँगा और यह जगह मेरी ज़्यारत गाह होगी। इसके बाद आपने नमाज़ अदा फ़रमाई और वहां से चलने का इरादा किया।

इमाम रज़ा (अ.स.) का दारूल खि़लाफ़ा मर्व में नुज़ूल

इमाम (अ.स.) तय मराहिल और के़तय मनाज़िल करने के बाद जब मर्व पहुँचे जिसे सिकन्दर ज़ुलकरनैन ने बारवाएते मोअज़्ज़मुल बलदान आबाद किया था और जो उस वक़्त दारूल सलतनत था , तो मामून ने चन्द रोज़ ज़ियाफ़तो तकरीम के मरासिम अदा करने के बाद क़ुबूले खि़लाफ़त का सवाल पेश किया। हज़रत ने उस से इसी तरह इनकार किया जिस तरह हज़रत अमीरल मोमेनीन (अ.स.) चौथे मौक़े पर खि़लाफ़त पेश किए जाने के वक़्त इनकार फ़रमा रहे थे। मामून को खिलाफ़त से दस्त बरदार होना दर हक़िक़त मन्ज़ूर न था वरना वह इमाम को इसी पर मजबूर करता चुनान्चे जब हज़रत ने खि़लाफ़त के कु़बूल करने से इन्कार फ़रमाया तो उसने वली अहदी का सवाल पेश किया। हज़रत इसके भी अन्जाम से न वाक़िफ़ न थे। नीज़ बाख़ुशी जाबिर हुकूमत की तरफ़ से कोई मन्सब कु़बूल करना आपके ख़ानदान के उसूल के खि़लाफ़ था। हज़रत ने उस से भी इन्कार फ़रमाया। मगर उस पर मामून का इक़रार जब्र की हद तक पहुँच गया और उसने साफ़ कह दिया कि ‘‘ लाबद मन क़बूलक़ ’’ अगर आप इसको मन्ज़ूर नहीं कर सकते तो इस वक़्त आपको अपनी जान से हाथा धोना पड़ेगा। जान का ख़तरा क़ुबूल किया जा सकता है जब मज़हबी मफ़ाद का क़याम जान देने का मौक़ूफ़ हो वरना हिफ़ाज़ते जान शरीअते इस्लाम का बुनियादी हुक्म है। इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया , यह है तो मैं मजबूरन क़ुबूल करता हूँ मगर कारो बारे सलतनत में बिल्कुल दख़्ल न दूँगा , हाँ अगर किसी बात में मुझ से मशविरा लिया जाएगा तो नेक मशविरा ज़रूर दूंगा। इसके बाद यह वली अहदी से बरा नाम सलतनते वक़्त के एक ढखोसले से ज़्यादा वक़त न रखती थी। जिससे मुम्किन है कि कुछ अर्से तक सियासी मक़सद में कामयाबी हासिल कर ली गई हो मगर इमाम की हैसियत अपने फ़राएज़ के अन्जाम देने में बिल्कुल वह थी जो उनके पेश रौ अली मुर्तुज़ा (अ.स.) अपने ज़माने के बाइख़्तेदार ताक़तों के साथ इख़्तियार कर चुके थे। जिस तरह उनका कभी कभी मशविरा दे देना उन हुकूमतों को सही व जाएज़ नहीं बना सकता वैसे ही इमाम रज़ा (अ.स.) का इस नौइय्यत से वली अहदी का क़ुबूल फ़रमाना इस सलतनत के जवाज़ का बाएस नहीं हो सकता था सिर्फ़ मामून की एक राज हट थी जो सियासी ग़रज़ के पेशे नज़र इस तरह पूरी हो गई मगर इमाम (अ.स.) ने अपने दामन को सलतनते जु़ल्म के इक़्दामात और नजमो नस्ख़ से बिल्कुल अलग रखा। तवारीख़ में है कि मामून ने हज़रते इमाम रज़ा (अ.स.) से कहा उसके बाद आपने दोनों हाथ आसमान की तरफ़ बलन्द किये और बारगाहे अहदीयत में अर्ज़ की परवरदीगार तू जानता है कि इस अमर को मैंने बामजबूरत और नाचारी और ख़ौफ़ो क़त्ल की वजह से क़ुबूल कर लिया है। ख़ुदा वन्दा तू मेरे इस फे़ल पर मुझसे उसी तरह मवाखि़ज़ा ना करना जिस तरह जनाबे युसूफ़ और जनाबे दानियाल से बाज़पुर्स नहीं फ़रमाई। इसके बाद कहा मेरे पालने वाले तेरे अहद के सिवा कोई अहद नहीं तेरी अता की हुई हैसियत के सिवा कोई इज़्ज़त नहीं। ख़ुदाया तू मुझे अपने दीन पर क़ाएम रहने की तौफ़ीक़ इनायत फ़रमा।

ख़्वाजा मोहम्मद पासी का कहना है कि वली अहदी के वक़्त आप रो रहे थे। मुल्ला हुसैन लिखते हैं कि मामून की तरफ़ से इसरार और हज़रत की तरफ़ से इन्कार का सिलसिला दो माह जारी रहा इसके बाद वली अहदी क़ुबूल की गई।

जलसा ए वली अहदी का इन्एक़ाद

पहली रमज़ान 201 हिजरी ब रोज़े पंज शम्बा जलसा ए वली अहदी मुनक़िद हुआ। बड़ी शानो शौकत और तुज़ुको एहतिशाम के साथ तक़रीब अमल में लाई गई। सब से पहले मामून ने अपने बेटे अब्बास को इशारा किया और उसने बैअत की फिर और लोग बैअत से शरफ़याब हुए। सोने और चांदी के सिक्के सरे मुबारक पर निसार किये गए और तमाम अरकाने सलतनत और मुलाज़मीन को इनामात तक़सीम हुए।

मामून ने हुक्म दिया कि हज़रत के नाम का सिक्का तैय्यार किया जाए। चुनान्चे दिरहम और दीनार पर हज़रत के नाम का नक़्श हुआ और तमाम शहरों में वह सिक्का चलाया गया। जुमे के खु़त्बे में हज़रत का नामे नामी दाखि़ल किया गया। यह ज़ाहिर है कि हज़रत के नामें मुबारक का सिक्का अक़ीदत मन्दों के लिये तबरूक और ज़मानत की हैसियत रखता था। इस सिक्के को सफ़रो हज़र में हिफ़्जे़ जान के लिये साथ रखना यक़ीनी अमर था। साहेबे जिन्नातुल खुलूद ने बहरो बर के सफ़र में तहफ़्फ़ुज़ के लिए आपके तवस्सुल का ज़िक्र किया है। उसी के याद गार में बतौरे ज़मानत ब अक़ीदा ए तहफ़्फ़ुज़ हम अब भी सफ़र में बाज़ू पर इमाम ज़ामिन सामिन का पैसा बांधते हैं।

अल्लामा शिब्ली नोमानी लिखते हैं कि 33,000 (तेतिस हज़ार) मरदो ज़न वग़ैरा की मौजूदगी में आपको वली अहदे खि़लाफ़त बना दिया गया। उसके बाद उसने तमाम हाज़ेरीन से हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) के लिये बैएत ली और दरबार का लिबास बजाय काले के हरा क़रार दिया गया। जो सादात का इम्तेयाज़ी लिबास था। फ़ौज की वर्दी भी बदल दी गई। तमाम मुल्क में एहकामे शाही नाफ़िज़ हुए कि मामून के बाद अली रज़ा (अ.स.) ही तख़्त के मालिक है और उनका लक़ब है ‘‘ अल रज़ा मन आले मोहम्मद ’’ । हसन बिन सहल के नाम भी फ़रमान गया कि उनके लिये बैअते आम ली जाय और उमूमन अहले फ़ौज व अमाएदे बनी हाशिम सब्ज़ (हरे) रंग के फ़रहरे और सब्ज़ कुलाह व क़बाएं इस्तेमाल की जाएं।

अल्लामा शरीफ़ जरजानी ने लिखा है कि क़ुबूले वली अहदी के मुताअल्लिक़ जो तहरीर हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) ने मामून को लिखी। उसका मज़मून यह था कि ‘‘ चंूकि मामून ने हमारे उन हुक़ूक़ को तसलीम कर लिया है जिनको उनके आबाओ अजदाद ने नहीं पहचाना था लेहाज़ा मैंने उनकी दरख़्वास्ते वली अहदी क़ुबूल कर ली अगरचे जफ़र व जामेए से मालूम होता है कि यह काम अंजाम को न पहुँचेगा । ’’

अल्लामा शिब्लन्जी लिखते हैं कि क़ुबूले वली अहदी के सिलसिले में आपने जो कुछ तहरीर फ़रमाया था उस पर गवाह की हैसियत से फ़ज़ल बिन सहल , सहल बिन फ़ज़ल , यहिया बिन अक़सम , अब्दुल्लाह इब्ने ताहिर , समाना बिन अशरस , बशर बिन मोतमर , हम्माद बिन नोमान वग़ैरा के दस्तख़त थे। उन्होंने यह भी लिखा है कि इमाम अली रज़ा (अ.स.) ने इस जलसे वली अहदी में अपने मख़्सूस अक़ीदत मन्दों को क़रीब बुला कर कान में फ़रमाया था कि इस तक़रीब पर दिल में ख़ुशी को जगह न दो। मुलाहेज़ा हों(सवाएक़े मोहर्रेका़ पृष्ठ 122, मतालेबुल सूऊल पृष्ठ 282, नूरूल अबसार पृष्ठ 142, आलामुल वुरा पृष्ठ 193, कशफ़ुल ग़म्मा पृष्ठ 112, जन्नातुल ख़ुलूद पृष्ठ 31, अल मामून पृष्ठ 82, वसीलतुन नजात पृष्ठ 379, अरजहुल मतालिब पृष्ठ 454, मसन्द इमाम रज़ा पृष्ठ 7, तारीख़े तबरी , शरह मवाक़िफ़ , तारीख़े आइम्मा पृष्ठ 472, तारीख़े अहमदी पृष्ठ 354, शवाहेदुन नबूवत , नियाबुल मोअद्दता , फ़सलुल ख़त्ताब , हिलयातुल अवलिया , रौज़तुल सफ़ा , उयून अख़बारे रज़ा , दमए साकेबा , सवानए इमाम रज़ा (अ.स.)

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की वली अहदी का दुशमनों पर असर

तारीख़े इस्लाम में है कि इमाम रज़ा (अ.स.) की वली अहदी की ख़बर सुन कर बग़दाद के अब्बासी ख़याल कर के कि यह खि़लाफ़त हमारे ख़ानदान से निकल चुकी , कमाल दिल सोख़ता हुये और उन्होंने इब्राहीम बिन मेंहदी को बग़दाद के तख़्त पर बिठा दिया और मोहर्रम 202 हिजरी में मामून की माजूली का ऐलान कर दिया। बग़दाद और उसके क़रीबी जगहों मे बिल्कुल बद नज़मी फैल गई। लुच्चे ग़ुन्डे दिन दहाड़े लूट मार करने लगे। जुनूबी ईराक़ और हिजाज़ में भी मामेलात की हालत ऐसी ही हो रही थी। फ़ज़ल वज़ीरे आज़म सब ख़बरों को बादशाह से पोशीदा रखता था मगर इमाम रज़ा (अ.स.) ने उसे ख़बरदार कर दिया। बादशाह वज़ीर की तरफ़ से बदज़न हो गया। मामून को जब इन शोरिशों की ख़बर हुई तो बग़दाद की तरफ़ रवाना हो गया। सरख़स में पहुँच कर उसने फ़ज़ल बिन सहल वज़ीरे सलतनत को हम्माम में क़त्ल करा दिया।(तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 पृष्ठ 61)

शम्सुल उलेमा शिब्ली नोमानी , हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की बैअते वली अहदी का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं कि इस अनोखे हुक्म ने बग़दाद में एक क़यामत अंगेज़ हलचल मचा दी और मामून से मुख़ालेफ़त का पैमाना लबरेज़ हो गया। बाजो़ ने सब्ज़ रंग वग़ैरा के एख़्तियार करने के हुक्म की ब जब्र तामील की मगर आम सदा यही थी कि खि़लाफ़त ख़ानदाने अब्बास के दायरे से बाहर नहीं जा सकती।(अल मामून पृष्ठ 82)

अल्लामा शिब्लन्जी लिखते हैं कि हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) जब वली अहदे खि़लाफ़त मुक़र्रर किये जाने लगे मामून के हाशिया नशीन सख़्त बद ज़न और दिल तंग हो एक और उन पर यह ख़ौफ़ छा गया कि अब खि़लाफ़त बनी अब्बास से निकल कर बनी फ़ात्मा की तरफ़ चली जायेगी और इसी तसव्वुर ने उन्हें हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) से सख़्त मुतनफ़्फ़िर कर दिया।(नूरूल अबसार पृष्ठ 143)

वाक़िए हिजाब

मोअर्रेख़ीन लिखते हैं कि इस वाक़िए वली अहदी से लोगों में इस दर्जा बुग़ज़ हसद और किना पैदा हो गया कि वह लोग मामूली मामूली बातों पर इसका मुज़ाहेरा कर देते थे।

अल्लामा शिब्लन्जी और अल्लामा इब्ने तल्हा शाफ़ई लिखते हैं कि हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की वली अहदी के बाद यह उसूल था कि आप मामून से अकसर मिलने के लिये तशरीफ़ ले जाया करते थे और होता यह था कि जब आप दहलीज़ के क़रीब पहुँचते थे तो तमाम दरबान और ख़ुद्दाम आपकी ताज़ीम के लिये खड़े हो जाते थे और सलाम कर के पर्दा ए दर उठाया करते थे। एक दिन सब ने मिल कर तय कर लिया कि कोई पर्दा न उठाए चुनान्चे ऐसा ही हुआ जब इमाम (अ.स.) तशरीफ़ लाए तो हिज्जाब ने पर्दा न उठाया। मतलब यह था कि इससे इमाम की तौहीन होगी , लेकिन अल्लाह के वली को कोई ज़लील नहीं कर सकता। जब ऐसा मौक़ा आया तो एक तुन्द हवा ने पर्दा उठाया और इमाम दाखि़ले दरबार हो गए। फिर जब आप वापस तशरीफ़ लाए तो हवा ने बदस्तूर पर्दा उठाने में सबक़त की। इसी तरह कई दिन तक होता रहा। बिल आखि़र वह सब के सब शर्मिन्दा हो गये और इमाम (अ.स.) की खि़दमत मिस्ल साबिक़ करने लगे।(नूरूल अबसार पृष्ठ 143 मतालेबुल सूऊल पृष्ठ 282, शवाहेदुन नबूअत पृष्ठ 197)

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) और नमाज़े ईद

वली अहदी को अभी ज़्यादा दिन न गुज़रे थे कि ईद का मौक़ा आ गया मामून ने हज़रत से कहला भेजा कि आप सवारी पर जा कर लोगों को नमाज़े ईद पढ़ायें। हज़रत ने फ़रमाया कि मैंने पहले ही तुम से शर्त कर ली है कि बादशाहत और हुकूमत के किसी काम में हिस्सा न लूंगा और न इसके क़रीब जाऊँगा इस वजह से तुम मुझको इस नमाज़े ईद से भी माफ़ रखो। मगर मामून ने बहुत इसरार किया। हज़रत ने फ़रमाया कि अगर तुम माफ़ कर दो तो बेहतर है वरना मैं नमाज़े ईद के लिये उसी तरह जाऊँगा जिस तरह मेरे जद्दे माजिद हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.) तशरीफ़ ले जाया करते थे। मामून ने कहा आपको इख़्तेयार है जिस तरह चाहे जायें। इसके बाद उसने सवारों और प्यादों को हुक्म दिया कि हज़रत के दरवाज़े पर हाज़िर हों। जब यह ख़बर शहर में मशहूर हुई तो लोग ईद के रोज़ सड़को पर छतों पर हज़रत की सवारी की शान देखने को जमा हो गये , एक भीड़ लग गई। औरतों और लड़कों सब को आरज़ू थी कि हज़रत की ज़्यारत करें। और आफ़ताब निकलने के बाद हज़रत ने गु़स्ल किया और कपड़े बदले , सफ़ेद अम्मामा सर पर बांधा , इत्र लगाया और असा हाथ में ले कर ईद गाह जाने पर आमादा हुए । इसके बाद नौकरों और ग़ुलामों को हुक्म दिया कि तुम भी ग़ुस्ल कर के कपड़े बदल लो और इसी तरह पैदल चलो। इस इन्तेज़ाम के बाद हज़रत घर से बाहर निकले। पाएजामा आधी पिंडली तक उठा लिया। कपड़ों को समेट लिया , नंगे पांव हो गए और फिर दो तीन क़दम चल कर खड़े हो गए और सर को आसमान की तरफ़ बलन्द कर के कहा , अल्लाहो अकबर , अल्लाहो अकबर । हज़रत के साथ नौकरों ग़ुलामों और फ़ौज के सिपाहियों ने भी तकबीर कही।

रावी का बयान है कि जब इमाम रज़ा (अ.स.) तकबीर कह रहे थे तो हम लोगों को मालूम होता था कि दरो दीवार और ज़मीनो आसमान से हज़रत की तकबीरों का जवाब सुनाई देता है। इस हैबत को देख कर यह हालत हुई कि सब लोग और खुद लशकर वाले ज़मीन पर गिर पड़े। सब की हालत बदल गई। लोगों ने छुरियों से अपनी जुतीयों के कुल तसमें काट दिये और जल्दी जल्दी जुतियां फेक कर नगें पांव हो गयें। शहर भर के लोग चीख़ चीख़ कर रोने लगे। एक कोहराम बरपा हो गया। इसकी ख़बर मामून को भी हो गई। वज़ीर फ़ज़ल बिन सहल ने इससे कहा कि अगर इमाम इमाम रज़ा (अ.स.) की इसी हालत से ईद गाह तक पहुँच जायेंगे तो मालूम नहीं क्या फ़ितना और हंगामा हो जायेगा। सब लोग इनकी तरफ़ हो जायेगें और हम नहीं जानते कि हम लोग कैसे बचेगें। वज़ीर की इस तक़रीर पर मुतानब्बे हो कर मामून ने अपने पास से एक शख़्स को हज़रत की खि़दमत में भेज कर कहला भेजा कि मुझ से ग़लती हो गई है जो आप से ईद गाह जाने के लिये कहा। इस से आपको ज़हमत हो रही है और मैं आपकी मशक़्क़त को पसन्द नहीं करता। बेहतर है कि आप वापस चले आयें और ईदगाह जाने की ज़हमत न फ़रमायें। पहले जो शख़्स नमाज़ पढ़ाता था पढ़ायेगा। यह सुन कर हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) वापस तशरीफ़ लाए और नमाज़े ईद न पढ़ सके।(वसीलत न नजात पृष्ठ 382, मतालेबुल सूऊल पृष्ठ 282 व उसूले काफ़ी)

अल्लामा शिब्लन्जी लिखते हैं कि फ़राज़ अल अरज़ा अला बैत व रक़ब अल मामून फ़सल ब अलनास कि रज़ा (अ.स.) दोलत सरा को वापस तशरीफ़ लाए और मामून ने जा कर नमाज़ पढ़ाई।(नूरूल अबसार पृष्ठ 143)

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की मदह सराई और देबले खि़ज़ाई और अबू नवास

अरब के मशहूर शायर जनाब देबले ख़ेज़ाई का नाम अबू अली देबले इब्ने अली बिन ज़र्रीन है। आप 148 हिजरी में पैदा हो कर 245 हिजरी में ब मक़ाम मशूश वफ़ात पा गये। (रिजाले तूसी 374) और अबूनवास का पूरा नाम अबू अली हसन बिन हानी इब्ने अब्दुल आला हुवाज़ी बसरी बग़दादी हैं। यह 136 हिजरी में पैदा हो कर 196 हिजरी में फ़ौत हुए। देबल आले मोहम्मद (अ.स.) के मद्दाहे ख़ास थे और अबूनवास हारून रशीद अमीन व मामून का नदीम था।

देबले खि़ज़ाई के बे शुमार अशआर मदहे आले मोहम्मद (अ.स.) में मौजूद हैं। अल्लामा शिब्लन्जी तहरीर फ़रमाते हैं कि जिस ज़माने में इमाम रज़ा (अ.स.) वली अहदे सलतनत थे। देबले खि़ज़ाई एक दिन दारूल सलतनत मर्व में आपसे मिले और उन्होंने कहा कि मैंने आपकी मदह में 120 अशआर पर मुशतमिल एक क़सीदा लिखा है। मेरी तमन्ना है कि मैं सब से पहले हुज़ूर ही को सुनाऊँ। हज़रत ने फ़रमाया बेहतर है पढ़ो।

देबले खि़जा़ई ने अशआर पढ़ना शुरू किया। क़सीदे का मतला यह है।

ज़करत महल अर रबामन अरफ़ात

फ़जरयत दमाअलएैन बिल इबारत ’’

जब देबल क़सीदा पढ़ चुके तो इमाम (अ.स.) ने एक सौ अशरफ़ी की थैली उन्हें अता फ़रमाई। देबल ने शुकरिया अदा करने के बाद उसे वापस करते हुए कहा कि मौला मैंने यह क़सीदा कु़रबतन इल्लहा कहा है मैं कोई अतिया नहीं चाहता ख़ुदा ने मुझे सब कुछ दे रखा है। अलबत्ता हुज़ूर मुझे जिस्म से उतरे हुए कपड़े से कुछ इनायत फ़रमा दें तो वह मेरी ऐन ख़्वाहिश के मुताबिक़ होगा। आपने एक जुब्बा अता करते हुए फ़रमाया कि इस रक़म को भी ले लो यह तुम्हारे काम आयेगी। देबल ने उसे ले लिया। थोड़े अर्से के बाद देबल मर्व से ईराक़ जाने वाले क़ाफ़िले के साथ रवाना हुए। रास्ते में चोरों और डाकुओ ने हमला कर के सब का सब कुछ लूट लिया और चन्द आदमियों को गिरफ़्तार कर भी कर लिया जिन में देबल भी थे। डाकुओं ने माल तक़सीम करते वक़्त देबल का एक शेर पढ़ा। देबल ने पूछा यह किसका शेर है ? उन्होंने कहा किसी का होगा। देबल ने कहा यह मेरा शेर है। उसके बाद उन्होंने सारा क़िस्सा सुना दिया। उन लोगों ने देबल के सदक़े में सब कुछ छोड़ दिया और सब का माल वापस कर दिया यहां तक कि यह नौबत आई कि उन लोगों ने वाक़िया सुन कर इमाम रज़ा (अ.स.) का जुब्बा ख़रीदना चाहा और उसकी क़ीमत एक हज़ार लगा दी। देबल ने जवाब दिया कि यह मैंने ब तौरे तबर्रूक अपने पास रखा है इसे फ़रोख़्त न करूगां। बिल आखि़र बार बार गिरफ़्तार होने के बाद उन्होंने उसे एक हज़ार अशरफ़ी पर फ़रोख़्त कर दिया। अल्लामा शिब्लन्जी ब हवाला ए अबूसलत हरवी लिखते हैं कि देबल ने जब इमाम रज़ा (अ.स.) के सामने यह क़सीदा पढ़ा तो आप रो रहे थे और आपने दो बैतों के बारे में फ़रमाया था कि यह अशआर इल्हामी है।(नूरूल अबसार पृष्ठ 138)

अल्लामा अब्दुल रहमान लिखते हैं कि हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) ने क़सीदा सुनते हुए नफ़से ज़किया के तज़किरे पर फ़रमाया कि ऐ देबल इस जगह एक शेर का और इज़ाफ़ा करो , ताकि तुम्हारा क़सीदा मुकम्मल हो जाये। उन्हों ने अर्ज़ कि मौला फ़रमायें। इरशाद हुआ।

व क़ब्र बातूस , नालहा मन मुसिबता

अल हत अल्लल अहशाए बिज़ क़रात

देबल ने घबरा कर पूछा , मौला यह किस की क़ब्र होगी जिसका हुज़ूर ने हवाला दिया है। फ़रमाया , ऐ देबल! यह क़ब्र मेरी होगी और मैं अन क़रीब इस आलमे ग़ुरबत में जब कि मेरे आइज़्ज़ा व अक़रेबा व बाल बच्चे मदीने में हैं शहीद कर दिया जाऊँगा और मेरी क़ब्र यहीं बनेगी। ऐ देबल जो मेरी ज़्यारत को आयेगा जन्नत में मेरे हमराह होगा।(शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 199)

देबल का यह मशहूर क़सीदा मजालिसे मामेनीन पृष्ठ 466 में मुकम्मल मन्क़ूल है। अलबत्ता इसका मतलब बदला हुआ है। अल्लामा शेख़ अब्बास क़ुम्मी ने लिखा है कि देबल ने एक किताब लिखी थी जिसका नाम था ‘‘ तबक़ाते शोअरा ’’ ।(सफ़ीनतुल बेहार जिल्द 1 पृष्ठ 241)

अबू नवास के मुताअल्लिक़ उलेमाए इस्लाम लिखते हैं कि एक दिन इसके दोस्तों ने इस से कहा कि तुम अकसर अशआर कहते हो और फिर मदहे भी किया करते हो लेकिन अफ़सोस की बात है कि तुम ने हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की मदह में कोई शेर नहीं कहा। उसने जवाब दिया कि हज़रत की जलालते क़द्र ही ने मुझे मदहे सराई से रोका है। मेरी हिम्मत नहीं पड़ती कि आपकी मदह करूँ। यह कह कर उसने चन्द अशआर पढ़े। जिसका तरजुमा यह है कि , उम्दा कलाक के हर रंग और मज़ाक़ के अशआर सब लोगों से अच्छे तुम्ही कहते हो बल्कि अच्छे अशआर में तुम्हारे मदहीया क़सीदे ऐसे होते हैं कि जिनसे सुनने वालों के सामने मोती झड़ते हैं। फिर तुम ने हज़रत इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) के बेटे हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) की मदह और हज़रत के फ़ज़ायल व मनाक़िब में कोई क़सीदा क्यों नहीं लिखा। तो मैं ने सब के जवाब में कह दिया कि भाईयों जिन जलील उश शान इमाम के आबाए कराम के ख़ादिम जिब्राईल ऐसे फ़रिशते हों उनकी मदह करना मुझ से मुम्किन नहीं है। उसके बाद उसने चन्द अशआर आपकी मदह में लिखे जिसका तरजुमा यह है। यह हज़रात आइम्मा ए ताहेरीन ख़ुदा के पाको पाकीज़ा किये हुए हैं और इनका लिबास भी तय्यबो ताहिर है। जहां भी उनका ज़िक्र होता है वहां उन पर दुरूद का नारा बलन्द हो जाता है। जब हसब व नसब बयान होते वक़्त कोई शख़्स अलवी ख़ानदान का न निकले तो उसको इब्तिदाये ज़माने से कोई फ़ख्र की बात नहीं मिलेगी। जब मख़लूक़ को पैदा किया फिर उसको हर तरह उस्तवार किया और संवारा तो उसी खुदा के बरगज़ीदा हज़रात आप लोगों को ख़ुदा ने सब से ज़्यादा शरीफ़ भी क़रार दिया और सब पर फ़ज़ीलत भी दी। मैं सच कहता हूँ कि आप हज़रात ही मलाए आला हैं और आप ही के पास क़ुरआने मजीद का इल्म और सूरों के मतालिब व मफ़ाहिम हैं।(दफ़ियातुल ऐयान जिल्द 1 पृष्ठ 322 व नूरूल अबसार पृष्ठ 138 प्रकाशित मिस्र)

मज़ाहिबे आलम के उलेमा से हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) के इल्मी मुनाज़िरे

मामून रशीद को ख़ुद भी इल्मी ज़ौक़ था। उसने वली अहदी के मरहले तो तय करने के बाद हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) से काफ़ी इस्तेफ़ादा किया फिर अपने ज़ौक़ के तक़ाज़े पर उसने मज़ाहिबे आलम के उलेमा को दावते मुनाज़िरा दी और हर तरफ़ से उलेमा को तलब कर के हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) से मुक़ाबला कराया। अहदे मामून में इमाम रज़ा (अ.स.) से जिस क़दर मुनाज़िरे हुए हैं उनकी तफ़सील अकसर कुतुब में मौजूद हैं। इस सिलसिले में ऐहतेजाजी तबरसी , बिहार , दमऐ साकेबा वग़ैरा जैसी किताबें देखी जा सकती हैं। इख़्तेसार के पेशे नज़र सिर्फ़ दो चार मुनाज़िरे लिखता हूँ।

आलिमे नसारा से मुनाज़िरा

मामून रशीद के अहद में नसारा का एक बहुत बड़ा आलिम व मुनाज़िर शोहरते आम्मा रखता था। जिसका नाम ‘‘ जासलीक ’’ था। उसकी आदत थी कि मुताकल्लमीने इस्लाम से कहा करता था कि हम तुम दोनो नबूवते ईसा और उनकी किताब पर मुत्तफ़िक़ हैं और इस बात पर भी इत्तेफ़ाक़ रखते हैं कि वह आसमान पर ज़िन्दा मौजूद हैं। इख़तिलाफ़ है तो सिर्फ़ मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) में है। तुम उनकी नबूवत का एतेक़ाद रखते हो और हम इन्कार करते हैं फिर हम तुम उनकी वफ़ात पर मुत्तफ़िक़ हो गये हैं। अब ऐसी सूरत में कौन सी दलील तुम्हारे पास बाक़ी है जो हमारे लिये हुज्जत क़रार पाए। यह कलाम सुन कर अकसर मुनाज़िर ख़ामोश हो जाया करते थे। मामून रशीद के इशारे पर एक दिन वह हज़रात इमाम रज़ा (अ.स.) से भी हम कलाम हुआ। मौक़ा ए मनाज़ेरह में उसने मज़कूरा सवाल दोहराते हुये कहा कि पहले आप यह फ़रमायें कि हज़रत ईसा की नबूवत और उनकी किताब दोनों पर आपका ईमान व एतेक़ाद है या नहीं। आपने इरशाद फ़रमाया कि मैं उस ईसा की नबूवत का यक़ीनन एतेक़ाद रखता हूँ जिसने हमारे नबी हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) की नबूवत की अपने हवारीन को बशारत दी है और उस किताब की तसदीक़ करता हूँ जिसमें यह बशारत दर्ज है। जो ईसाई उसके मोतरिफ़ नहीं और जो किताब उसकी शारेह और मुसद्दक़ नहीं उस पर मेरा ईमान नहीं है। यह जवाब सुन कर जासलीक खा़मोश हो गया। फिर आपने इरशाद फ़रमाया कि ऐ जासलीक हम उस ईसा को जिसने हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) की नबूवत की बशारत दी , नबीए बरहक़ जानते हैं मगर तुम उनकी तन्क़ीस करते हो और कहते हो कि वह नमाज़ रोज़े के पाबन्द न थे। जाशलीक ने कहा कि हम तो यह नहीं कहते वह तो हमेशा क़ायमुल लैल और साएमुन नहार रहा करते थे। आपने फ़रमाया , ईसा तो बनाबर एतेक़ाद नसारा ख़ुद माज़ अल्लाह ख़ुदा थे। तो वह रोज़ा और नमाज़ किसके लिये करते थे। यह सुन कर जाशलीक मबहूत हो गया और कोई जवाब न दे सका। अलबत्ता यह कहने लगा कि जो मुर्दो को ज़िन्दा करे , जुज़ामी को शिफ़ा दे , नाबीना को बीना बनाये और पानी पर चले क्या वह इसका सज़ावार नहीं कि उसकी परस्तिश की जाय और उसे माबूद समझा जाय। आपने फ़रमाया इलयासाह भी पानी पर चलते थे , अन्धे , कोढ़ी को शिफ़ा देते थे। इसी तरह हिज़क़ील पैग़म्बर (अ.स.) ने 35 हज़ार इन्सानों को साठ बरस के बाद ज़िन्दा किया था। कौमे इसराईल के बहुत से लोग ताऊन के ख़ौफ़ से अपने घर छोड़ कर बाहर चले गये थे। हक़्के़ ताआला ने एक सआत में सब को मार दिया था बहुत दिनों के बाद एक नबी इस्तेख़्वाने बोसीदा (बोसीदा हड्डियों) से गुज़रे तो ख़ुदा वन्दे आलम ने उन पर वही नाज़िल की उन्हें आवाज़ दो। उन्होंने कहा ऐ अज़ाम बालिया (मुर्दा हड्डियों) उठ ख़डे हो। वह सब ब हुक्मे ख़ुदा उठ खड़े हुये। इसी लिये हज़रते इब्राहीम (अ.स.) के परिन्दों को ज़िन्दा करने और हज़रते मूसा (अ.स.) के कोहे तूर पर ले जाने और रसूले ख़ुदा (स.अ.) के अहयाए अम्वात फ़रमाने का हवाला दे कर फ़रमाया कि इन चीज़ों पर तौरेत व इन्जील और क़ुरआन मजीद की शहादत मौजूद है। अगर मुर्दो को ज़िन्दा करने से इन्सान ख़ुदा हो सकता है तो यह सब अम्बिया भी ख़ुदा होने के मुस्तहक़ हैं। यह सुन क रवह चुप हो गया और उसने इस्लाम क़ुबूल करने के सिवा और चारा न देखा।

आलिमे यहूद से मनाज़ेरा

उल्माए यहूद में से एक आलिम जिसका नाम ‘‘ रासुल जालूत ’’ था , को अपने इल्म पर बड़ ग़ुरूर और तकब्बुर व नाज़ था। वह किसी को भी अपनी नज़र में न लाता था। एक दिन उसका मनाज़रह और मुबाहेसा फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.) हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) से हो गया। आपसे गुफ़्तुगू के बाद उसने अपने इल्म की हक़ीक़त जानी और समझा कि मैं ख़ुद फ़रेबी में मुबतेला हूँ।

इमाम (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर होने के बाद उसने अपने ख़्याल के मुताबिक़ बहुत सख़्त सवालात किये। जिनके तसल्ली बख़्श और इत्मीनान आफ़रीन जवाबात से बहरावर हुआ। जब वह सवालात कर चुका तो इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया कि ऐ ‘‘ रासुल जालूत ’’ तुम तौरैत की इस इबारत का क्या मतलब समझते हो कि ‘‘ आया नूर सीना से और रौशन हुआ जबले साएर से और ज़ाहिर हुआ कोहे फ़ारान से ’’ उसने कहा कि इसे हम ने पढ़ा ज़रूर है लेकिन उसकी तशरीह से वाक़िफ़ नहीं हूँ। आपने इरशाद फ़रमाया , कि नूर से वही मुराद है। तमरे सीना से वह पहाड़ मुराद है जिस पर हज़रत मूसा (अ.स.) ख़ुदा से कलाम करते थे। जबल साईर से महल व मक़ामें ईसा (अ.स.) मुराद है। कोहे फ़ारान से जबले मक्का मुराद है जो शहर से एक मंज़िल के फ़ासले पर वाक़े है। फिर फ़रमाया तुम ने हज़रते मूसा (अ.स.) की यह वसीयत देखी है कि तुम्हारे पास बनी अख़वान से एक नबी आयेगा उसकी बात मानना और उसके क़ौल की तसदीक़ करना। उसने कहा देखी है। आपने पूछा की बनी अख़वान से कौन मुराद है ? उसने कहा मालूम नहीं। आपने फ़रमाया कि वह औलादे इस्माईल हैं क्यों कि वह हज़रत इब्राहीम के एक बेटे हैं और बनी इसराईल के मुरेसे आला हज़रत इस्हाक़ बनी इब्राहीम के भाई हैं और उन्हीें से हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) हैं।

उसके बाद जबले फ़ारान वाली बशारत की तशरीह फ़रमा कर कहा कि शैया नबी का क़ौल तौरैत में मज़कूर है कि मैंने दो सवार देखे कि जिनके परतौ से दुनिया रौशन हो गई। उन्में एक गधे पर सवारी किये था और एक ऊँट पर। ऐ ‘‘ रासुल जालूत ’’ तुम बतला सकते हो उस से कौन मुराद हैं ? उसने इन्कार किया , आपने फ़रमाया कि राकेबुल हमार से हज़रत ईसा (अ.स.) और राकेबुल जमल से हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) मुराद हैं।

फिर आपने फ़रमाया कि तुम हज़रत जबकूक नबी के उस क़ौल से वाक़िफ़ हो कि ख़ुदा अपना बयान जबले फ़ारान से लाया और तमाम आसमान हम्दे इलाही की आवाज़ों से भर गये। उसकी उम्मत और उसके लशकर के सवार ख़ुशकी और तरी में जंग करेंगे। उन पर एक किताब आयेगी और सब कुछ बैतुल मुकद्दस की ख़राबी के बाद होगा। इसके बाद इरशाद फ़रमाया कि यह बताओ कि तुम्हारे पास हज़रत मूसा (अ.स.) की नबूवत की क्या दलील है ? उसने कहा कि उनसे वह उमूर ज़ाहिर हुए जो उनसे पहले के अम्बिया पर नहीं हुए थे। मसलन दरिया ए नील का शिग़ाफ़ता होना। असा का संाप बन जाना। एक पत्थर से बारह चशमों का जारी होना और यदे बैज़ा वग़ैरा। आपने फ़रमाया कि जो भी इस क़िस्म के मोजेज़ात को ज़ाहिर करे और नबूवत का मुद्दई हो उसकी तसदीक़ करनी चाहिये। उसने कहा नही। आपने फ़रमाया क्यों ? कहा इस लिये कि मूसा को जो क़ुरबत या मंज़िलत हक़्क़े ताआला के नज़दीक़ थी वह किसी को नहीं हुई। लेहाज़ा हम पर वाजिब है कि जब तक कोई शख़्स बैनेह वही मोजेज़ात व करामात न दिखलाये हम उसकी नबूवत का इक़रार न करेंगे। इरशाद फ़रमाया कि तुम मूसा (अ.स.) से पहले अम्बिया मुरसलीन की नबूवत का किस तरह इक़रार करते हो हांला कि उन्होंने न कोई दरिया शिग़ाफ़्ता किया न किसी पत्थर से चशमें निकाले न उनका हाथ रौशन हुआ और न उनका असा अज़दहा बना। ‘‘ रासुल जालूत ’’ ने कहा कि जब ऐसे उमूर व अलामात ख़ास तौर से उनसे ज़ाहिर हों जिनके इज़हार से उमूमन तमाम ख़लाएक़ आजिज़ हो , तो वह अगरचे बैनेह ऐसे मोजेज़ात हों या न हों। उनकी तस्दीक़ हम पर वाजिब हो जायेगी।

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) ने फ़रमाया कि हज़रत ईसा (अ.स.) भी मुर्दों को ज़िन्दा करते , कोरे मादर ज़ाद (पैदाईशी अन्धे) को बीना बनाते। मबरूस को शिफ़ा देते। मिट्टी की चिड़िया बना कर हवा में उड़ाते थे। वह यह उमूर हैं जिनसे आम लोग आजिज़ हैं फिर तुम उनको पैग़म्बर क्यों नहीं मानते ? रासुल जालूत ने कहा कि लोग ऐसा कहते हैं मगर हमने उनको ऐसा करते देखा नहीं है। फ़रमाया तो क्या आयात व मोजेज़ाते मूसा (अ.स.) को तुमने अपनी आंखों से देखा है आखि़र वह भी तो मोतबर लोगों की ज़बानी सुना ही होगा। वैसा ही अगर ईसा (अ.स.) के मोजेज़ात मोतबर लोगों से सुनो तो तुमको उनकी नबूवत पर ईमान लाना चाहिये और बिल्कुल इसी तरह हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) की नबूवत व रिसालत का इक़रार आयातो , मोजेज़ात की रौशनी में करना चाहिये। सुनो उनका एक अज़ीम मोजेज़ा कु़रआने मजीद है जिसकी फ़साहतो बलाग़त का जवाब क़यामत तक नहीं दिया जा सकेगा। यह सुन कर वह ख़ामोश हो गया।

आलिमे मजूस से मनाज़ेरा

मजूसी यानी आतश परस्त का एक मशहूर आलिम ‘‘ हरबिज़ा अकबर ’’ हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर हो कर इल्मी गुफ़्तुगू करने लगा। आपने उसके सवालात के मुकम्मल जवाबात इनायत फ़रमाये। उसके बाद उस से सवाल किया कि तुम्हारे पास ‘‘ ज़र तश्त ’’ की नबूवत की क्या दलील है। उसने कहा कि उन्होेंने हमारी ऐसी चीज़ों की तरफ़ रहबरी फ़रमाई है जिसकी तरफ़ पहले किसी ने रहनुमाई नहीं की थी। हमारे असलाफ़ कहा करते थे कि ‘‘ ज़र तश्त ’’ ने हमारे लिये वह उमूर मुबाह किये हैं कि उनसे पहले किसी ने नहीं किये थे। आपने फ़रमाया कि तुम को इस अम्र में क्या उज़्र हो सकता है कि कोई शख़्स किसी नबी और रसूल के फ़ज़ायलो कमालात तुम पर रौशन करे और तुम उसके मानने में पसो पेश करो। मतलब यह है कि जिस तरह तुम ने मोतबर लोगों से सुन कर ‘‘ ज़र तश्त ’’ की नबूवत मान ली। उसी तरह मोतबर लोगों से सुन कर अम्बिया और रसूल की नबूवत के मानने में तुम्हें क्या उज़्र हो सकता है। यह सुन क रवह ख़ामोश हो गया।

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) और इस्मते अम्बिया (अ.स.)

अम्बिया कराम , दवाज़दाह इमाम और जनाबे मरयम व हज़रते फ़ात्मा (स.अ.) की असमत का एतेक़ाद मुसल्लेमात से है , लेकिन बद क़िस्मती से बाज़ मुसलमान जो उनकी हैसियत को सही तौर पर नहीं समझ सके वह इसमें कलाम करते हैं इस लिये बहस ख़ास अहमियत की मालिक बन गई है और उलमा ने इस पर ख़ामा फ़रसाई फ़रमाई है। इस सिलसिले में किताब तन्ज़ीहुल अम्बिया , एहतेजाजे तबरीसी , बेहारूल अनवार , शरह तजरीद वग़ैरह देखने के क़ाबिल हैं। हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) जो ख़ुद अपने आबाओ अजदाद और अम्बिया की तरह मासूम थे उन से जब इस मसले के मुताअल्लिक़ सवाल किया गया तो आपने उसका जवाब निहायत ख़ूब सूरत तरीक़े पर दे कर मुख़ातिब को मुतमईन फ़रमा दिया।

अली बिन जहम कहते हैं कि एक दफ़ा मामून रशीद ने हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) से दरयाफ़्त किया कि जब ख़ुदा वन्दे आलम ने हज़रते आदम (अ.स.) के लिये वाज़े तौर पर फ़रमा दिया ‘‘ फ़ाआसा आदम रब्बेहे फ़ग़वा ’’ कि आदम ने अपने परवर दिगार की नाफ़रमानी की और वह बहक गये तो फिर वह मासूम कहां रहे।

आपने फ़रमाया कि ख़ुदा का हुक्म था कि ऐ आदम तुम दोनों बेहिश्त में रहो और जो चाहे खाओ पियो। ‘‘ वला तक़रेबा हुदल शजरतः फ़ता कूना मिनल ज़ालेमीन ’’ लेकिन इस दरख़्त के नज़दीक़ न जाना , वरना अपना खुद बिगाड़ोगे। यानी उनसे यह नहीं फ़रमाया था कि इस शजर और उसके जिन्स दीगर से भी न खाना और उन्होंने इस दरख़्त ममनूआ से खाया भी नहीं। मगर शैतान के वसवसे से एक और वैसे ही दरख़्त से खा लिया क्यों कि शैतान ने उन से कहा कि ख़ुदा वन्दे तआला ने तुम को ख़ास उस दरख़्त से मना फ़रमाया है इस क़िस्म के और दरख़्तों से मुमानियत नहीं फ़रमाई और उसके पास जाने की भी मुमानियत नहीं फ़रमाई। खाने का ज़िक्र इरशादे ख़ुदा वन्दी में मौजूद नहीं। फिर शैतान ने उनसे क़सम खाई कि मैं तुम्हारा नासेह मुशफ़िक़ हूँ। हज़रत आदम व हव्वा ने इस से पहले किसी को झूठी क़सम खाते नहीं सुना था। उनको धोका हो गया और उसकी क़सम पर एतेबार कर के उसके मुरतकिब हो गये और यह इज़तेराब भी उन हज़रात से क़ब्ले नबूवत हुआ और गुनाहे कबीरा न था। जिससे मुस्तहक़ दुख़ूले जहन्नम होते। यह सिर्फ़ सग़ायरे मौहूबा से था जो अम्बिया (अ.स.) से क़ब्ल अज़ वही जाएज़ हैै। जब ख़ुदा वन्दे आलम ने उनको बरगुज़ीदा किया और नबी गर दाना तो मासूम थे। गुनाहे कबीरा व सग़ीरा उन हज़रात से सादिर न होता था। चुनान्चे अल्लाह तआला ने इरशाद फ़रमाया , ‘‘ सुम इतमेबाह रबा फ़ताबा अलैहे ’’ ख़ुदा ने उनको बरगुज़ीदा किया और उनकी तौबा क़ुबूल कर ली।

अल्लामा तबरिसी फ़रमाते हैं सग़ाएर मौहूबा से तरक अवला मुराद है जो अम्बिया के लिये क़बल अज़ल नुज़ू लवही जाएज़ है। मोअल्लिफ़ का कहना है कि (नहीं) की दो क़िस्में है। नहीं तरहीमी और नहीं तनज़ीही लातक़रबा में यही थी। यानी इसके क़़रीब न जाना तुम्हारे लिये बेहतर होगा। फ़ताकूना अलज़ालमीन और अगर चले गए तो तुम अपना ख़ुद नुक़सान करोगे। जैसा कि किताब ‘‘ तनज़ीह अम्बिया ’’ से मुस्तफ़ाद होता है।

इसी तरह आपने हज़रत इब्राहीम (अ.स.) , हज़रत मूसा (अ.स.) , हज़रत यूसुफ़ (अ.स.) और हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) की असमत पर रौशनी डाली और बतलाया कि इज़रात से गुनाहों का सादिर होना इमकान व कु़दरत के बावजूद मोहाल था। इन से कभी कोई गुनाह सग़ीरा हो या कबीरा सादिर नहीं हुआ।(उयून अख़बार रज़ा पृष्ठ 71 प्रकाशित ईरान)