फ़िदक और हज़रत फ़ातेमा ज़हरा
हमारे पाठकों ने हमसे हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स) और फ़िदक के बारे बहुत से प्रश्न किए हैं जैसे कि फ़िदक का वास्तविक्ता क्या है? और क्या फ़िदक के बारे में सुन्नियों की किताबों में बयान किया गया है या नहीं।
हम अपनी इस श्रखलावार बहस में कोशिश करेंगे कि सुन्नियों की महत्वपूर्ण एतिहासिक किताबों में फ़िदक के बारे में विभिन्न पहलुओं को बयान करें और उस पर बहस करें।
यह लेख केवल प्रस्तावना भर है जिसमें हम वह सारी बहसें जो फ़िदस से सम्बंधित हैं और जिनके बारे में हम बहस करेंगे उनको आपके सामने बयान करेंगें, और फ़िदक के बारे में अपने दावों और अक़ीदों को स्पष्ट करें।
सूरा असरा आयत 26 में ख़ुदा फ़रमाता हैः
وَآتِ ذَا الْقُرْبَىٰ حَقَّهُ وَالْمِسْكِينَ وَابْنَ السَّبِيلِ
हे पैग़म्बर अपने परिजनों का हक दे दो
मोतबर रिवायतों में आया है कि इस आयत के नाज़िल होने के बाद पैग़म्बरे इस्लाम (स) को आदेश होता है कि फ़िदक को हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स) को दें।
फ़िदक विभिन्न पहलुओं से बहुत ही गंभीर और महत्वपूर्ण मसला है जिनमें से एक उसका इतिहास है
फ़िदक इतिहास के पन्नों में
इस बहस में सबसे पहली बात या प्रश्न यह है कि फ़िदक क्या है? और क्यों फ़िदक का मसला महत्वपूर्ण है?
यह फ़िदक मीरास था या एक उपहार था? जिसमें पैग़म्बर को आदेश दिया गया था कि फ़ातेमा को दिया जाए।
पैग़म्बर (स) की वफ़ात के बाद फ़िदक का क्या हुआ? यह फ़िदक क्या वह सम्पत्ति थी जिसकों मुसलमानों के बैतुल माल में वापस जाना चाहिए था या हज़रत ज़हरा का हक़ था?
यहां पर बहुस सी शंकाए या प्रश्न भी पाए जाते हैं जैसे यह कि फ़ातेमा ज़हरा (स) जो कि पैग़म्बर की बेटी हैं जो संसारिक सुख और सुविधा से दूर थी, जो मासूम है, जिनकी पवित्रता के बारे में आयते ततहीर नाज़िल हुई है, वह क्यों फ़िदक को प्राप्त करने के लिए उठती हैं? और वह प्रसिद्ध ख़ुत्बा जिसको "ख़ुत्बा ए फ़िदक" कहा जाता है अपने बयान फ़रमाया। आख़िर एसा क्या हुआ कि वह फ़ातेमा (स) जो नमाज़ तक पढ़ने के लिए मस्जिद में नहीं जाती थीं आपने मस्जिद में जाकर यह ख़ुत्बा दिया। जो आज हमारे हाथों में एक एतिहासिक प्रमाण के तौर पर हैं।
इस्लामिक इतिहास में फ़िदक के साथ कब क्या हुआ? हम अपनी इस बहस यानी फ़िदक तारीख़ के पन्नों में बयान करेंगे। और वह शंकाएं जो फ़िदक के बारे में हैं उनको बिना किसी तअस्सुब के बयान और उनका उत्तर देंगे।
हमने अपने पिछले लेख़ों में फ़ातेमा ज़हरा की उपाधियों और उनके स्थान को बयान किया है, फ़ातेमा (स) वह हैं जिनकों पैग़म्बर ने अपनी माँ कहा है, जिनकी मासूमियत और पवित्रता की गवाही क़ुरआन दे रहा है, यही कारण है कि यह फ़िदक का मसला हमारे अक़ीदों से मिलता है कि वह फ़ातेमा (स) जो मासूम हैं उनकी बात को स्वीकार नहीं किया जा रहा है।
हज़रत ज़हरा (स) वह हैं जिनके बारे में शिया और सुन्नी एकमत है कि उनका क्रोध ईश्वर का क्रोध है और उनकी प्रसन्नता ईश्वर की प्रसन्नता है, फ़ातेमा (स) वह है जिनको दुश्मनों के तानों के उत्तर में कौसर बना कर पैग़म्बर को दिया था।
ख़ुदा हज़रत ज़हरा (स) मापदंड हैं, कि पैग़म्बर की शहादत के बाद जो घटनाएं घटी उनमें फ़ातेमा (स) ने क्या प्रतिक्रिया दिखाई, आपने जो प्रतिक्रिया दिखाई आज को युग में हमारे लिए हक़ को बातिल और सच को झूठ से अलग करने वाला है।
सवाल यह है कि आज हम किस सोंच का अनुसरण करें, उस सोंच का जो हज़रत अली (अ) को पैग़म्बर के बाद उनका जानशीन और ख़लीफ़ा मानती है या उस सोंच का जो पैग़म्बर के बाद सक़ीफ़ा में चुनाव के माध्यम से ख़लीफ़ा बनाती है, या उन मज़हबों का अनुसरण करें जिनके इमाम पैग़म्बर की मौत के दसियों साल बाद पैदा हुए?
हज़रत ज़हरा (स) पैग़म्बर की शहादत के बाद किसकों उनके बाद के इमाम के तौर पर स्वीकार करती है (याद रखिए कि इमामत की बहस इतनी महत्वपूर्ण है कि उसके बारे में पैग़म्बर ने फ़रमाया है कि जो अपने ज़माने के इमाम को ना पहचाने उसकी मौत जाहेलियत (यानी क़ुफ़्र) की मौत है) क्या वह पहले ख़लीफ़ा को इमाम मानती है? या नहीं।
फ़िदक एक बहाना है इस बात का ताकि लोगों को जगा सकें लोगों को जागरुक बना सकें, अगर क़ुरआन इब्राहीम द्वारा इमामत के सवाल के उत्तर में कहता है कि ज़ालिम को इमामत नहीं मिल सकती है, तो फ़ातेमा (स) जब खड़ी होती हैं और कहती हैं कि यह फ़िदक मेरा हक़ है और मुझ से छीना गया है। उनकी यह प्रतिक्रिया हमको और आपको क्या समझा रही है? यह बता रही है कि फ़ातेमा (स) पर ज़ुल्म हुआ है और ज़ालिम रसूल का ख़लीफ़ा नहीं हो सकता है
फ़ातेमा ज़हरा (स) का क़याम केवल ज़मीन के एक टुकड़े के लिए नहीं था, बल्कि आपका यह क़याम उन सारे लोगों को जगाने के लिए था जो ग़दीर के मैदान में मौजूद थे और जिन्होंने अली (अ) की बैअत की थी।
एक ऐसा युग आरम्भ हो गया था कि जब पैग़म्बर के कथन से मुंह फिरा लिया गया था, और ऐसे युग में फ़ातेमा (स) का फ़िदक को वापस मांगना वास्तव में विलायत, इमामत और अली (अ) की ख़िलाफ़त का मांगना था
यह बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है, सुन्नियों के प्रसिद्ध आलिम इब्ने अबिलहदीद ने यही प्रश्न अपने उस्ताद से किया। वह कहता है कि मैंने अपने उस्ताद से प्रश्न कियाः क्या फ़िदक के बारे में फ़ातेमा (स) का दावा सच्चा था?
उस्ताद ने कहाः हां
मैंने कहाः तो क्यों पहले ख़लीफ़ा ने फ़िदक फ़ातेमा को नहीं दिया, जब्कि उनको पता था कि फ़ातेमा सच बोल रही है।
तो उस्ताद मुस्कुराए और कहाः अगर अबू बक्र फ़ातेमा के दावा करने पर फ़िदक उन को दे देते, तो वह कल उनके पास आतीं और अपने पति के लिए ख़िलाफ़त का दावा करती, और उनको सत्ता से हटा देतीं और उनके पास कोई जवाब भी ना होता, क्योंकि उन्होंने फ़िदक को दे कर यह स्वीकार कर लिया होता कि फ़ातेमा जो दावा करती हैं वह सच होता है।
इसके बाद इब्ने अबिलहदीद कहता हैः यह एक वास्तविक्ता है अगरचे उस्ताद ने यह बात मज़ाक़ में कहीं थी।
इब्ने अबिलहदीद की यह बात प्रमाणित करती है कि फ़िदक की घटना एक सियासी घटना थी जो ख़िलाफ़त से मिली हुई थी और फ़ातेमा (स) का फ़िदक का मांगना केवल एक ज़मीन का टुकड़ा मांगना नहीं था।
यही कारण है कि फ़ातेमा (स) की बात स्वीकार नहीं की गई पैग़म्बर के नफ़्स अली की बात स्वीकार नहीं की गई, उम्मे एमन जो कि स्वर्ग की महिलाओं में से हैं उनकी बात स्वीकार नहीं की गई।
हम अपनी बहसों में यही बात प्रमाणित करने की कोशिश करेंगे किः
मार्गदर्शन और हिदायत का मापदंड हज़रते ज़हरा (स) हैं, हमको देखना होगा कि आपने किसको स्वीकार किया और किसको अस्वीकार।
आख़िर क्यों हज़रत ज़हरा (स), इमाम अली (अ) और उम्मे एमन की बात को स्वीकार नहीं किया गया?
हम अपनी बहसों में साबित करेंगे कि पैग़म्बर ने अपने जीवनकाल में ही ईश्वर के आदेश से फ़िदक को हज़रते ज़हरा (स) को दिया था और आपने पैग़म्बर के जीवन में उसको अपनी सम्मपत्ति बनाया था।
फ़ातेमा ज़हरा (स) ने कुछ लोगों की वास्तविक्ता को साबित करने और इमामत को उसके वास्तविक स्थान पर लाने के लिए क़याम किया जिसका पहला क़दम फ़िदक है।
यह इमामत का मसला छोटा मसला नहीं है, ख़ुदा ने हमारे लिए पसंद नहीं किया है कि जो हमारा इमाम और रहबर हो वह मासूम ना हो, लेकिन हमने इसका उलटा किया मासूम को छोड़कर गै़र मासूम को अपना ख़लीफ़ा बना लिया।
अगर हज़रत ज़हरा (स) फ़िदक को वापस ले लेती तो जिस तर्क से फ़िदक वापस लेती उसी तर्क से ख़िलाफ़ को भी अली (अ) के लिए वापस ले लेतीं और यही कारण है कि आप अपने दावे तो प्रमाणित करने के लिए ख़ुद गवाही देती हैं, अली (अ) गवाही देते हैं उम्मे एमन गवाही देती हैं, लेकिन इस सबकी गवाही रद कर दी जाती है।
जब हज़रत ज़हरा (स) देखती हैं कि फ़िदक को हदिया और पैग़म्बर का दिया हुआ उपहार यह लोग मानने के लिए तैयार नहीं है, तो वह मीरास का मसला उठाती है, कि अगर तुम लोग उपहार मानने के लिए तैयार नहीं हो तो कम से कम पैग़म्बर की मीरास तो मानों जो मुझको मिलनी चाहिए।
और यही वह समय था कि जब इस्लामी दुनिया में सबसे पहली जाली हदीस गढ़ी गई और कहा गया कि पैग़म्बर ने फ़रमाया हैः
نحن معاشر الانبياء لا نورث
हम पैग़म्बर लोग मीरास नहीं छोड़ते हैं।
हज़रते ज़हरा (स) साबित करती है किः इस हदीस को किसी ने नहीं सुना है यह हदीस क़ुरआन के विरुद्ध है। क्योंकि क़ुरआन में साफ़ साफ़ शब्दों में पैग़म्बरों की मीरास के बारे में बयान किया गया है कि वह मीरास छोड़ते हैं।
और एक समय वह भी आता है कि जब हज़रत ज़हरा (स) को फ़िदक के दस्तावेज़ वापस दे दिए जाते हैं, लेकिन कुछ लोगों की साज़िश के बाद दोबारा फ़िदक फ़ातेमा (स) से छीन लिया जाता है।
इसके बाद हज़रत ज़हरा (स) नया कदम उठाती है, वह ज़हरा (स) जिसका घर उसकी मस्जिद थी वह अपने छीने हुए हक़ के लिए क़याम करती हैं और मस्जिद में आती है और एक महान ख़ुत्बा देती हैं जो ज्ञान से भरा हुआ है ताकि आज जो हम और आप बैठे है ताकि जान सकें कि इमाम अली (अ) और उनके बाद ग्यारह इमामों की इमामत का मसला कोई कम मसला नहीं है बल्कि यह एक सोंच और रास्ता है जन्नत का जान सकें और उसका अनुसरण कर सकें।
और अंत में हज़रत ज़हरा (स) अंसार को सहायता के लिए बुलाती हैं।
और उसके बाद आप एक और क़दम उठाती हैं और आप वसीयत करती हैं किः "हे अली मुझे रात में ग़ुस्ल देना रात में कफ़न पहनाना और रात में दफ़्न करना और मेरी क़ब्र का निशान मिटा देना और मैं राज़ी नहीं हूँ कि जिन लोगों ने मुझे परेशान किया और दुख का कारण बने वह मेरे जनाज़े में समिलित हों"।
क्या आपने कभी सोंचा है कि पैग़म्बर की शहादत के बाद क्यों हदीस को बयान करने और उसको लिखने से रोका गया?
इसका कारण यही था कि अगर पैग़म्बर की हदीसों को नहीं रोका गया तो वास्तविक्ता प्रकट हो जाएगी और उनका भेद खुल जाएगा।
यही कारण था कि पहले दौर में हदीस को बयान करने से रोका गया, उसका बाद के दौर में हदीसों को जलाया गया, और उसके बाद के दौर में जाली हदीसें गढ़ी गईं।