महिला जगत-4
संसार में किसी भी वस्तु की सृष्टि उछेश्यहीन नहीं है, और अपने उछेश्य की प्राप्ति के लिए हर एक का कुछ न कुछ उत्तरदाइत्व भी है। चूंकि मनुष्य को ईश्वर ने अपनी सच्च रचना कहा है, और उसे बुद्धि तथा सँकलप की स्वतत्रता प्रदान की है अत:उसकी ज़िम्मेदारिया भी अधिक हैं। पहली ज़िम्मेदारी उपासना व बन्दगी है। ये मनुष्य और ईश्वर के बीच संबंधों पर आधारित है। यदि ये ज़िम्मेदारी न निभाई जाए तो मनुष्य ईश्वर की बन्दगी की सीमा से निष्कासित हो जाता है।
दूसरा दाइत्व व्यक्तिगत होता है। इसमें दो बातें सम्मिलित होती हैं। एक, मतुष्य का अपने शरीर व अंगों के प्रति दाइत्व और दूसरा अपनी आत्मा और आध्यात्मिकता के प्रति। तीसरे प्रकार की ज़िम्मेदारी सामाजिक है जिसका आधार मनुष्य की सामाजिक प्रवृत्ति है क्योंकि बिना समाज में उपस्थिति हुए मनुष्य परिपूर्णता तक पहुंच ही नहीं सकता। इसी लिए इस्लाम में बैराग लेना मना है। मनुष्य के सामाजिक दाइत्वों में परिवार के प्रति उसका कतवर्य भी सम्मिलित है और ये कतवर्य अन्य सभी कतवर्यों से बढ़ कर है।
परिवार, समाज की प्रथम एवं सबसे आधिक महत्वपूर्ण इकाई है। समाज का भविष्य, उसकी सफलता और सौभाग्य सब कुछ इसी इकाई पर निर्भर होता है।
इस्लाम में परिवार से अधिक बल किसी भी विषय पर नहीं दिया गया है। और विवाह करके परिवार की स्थापना करने और उसकी देख-रेख की नसीहत से अधिक किसी भी बात की नसीहत नहीं की गई है। क्योंकि मानव प्रशिक्षण एवं समाजों का कल्याण परिवार में ही निहित होता है।
मानव जीवन और समाज में परिवार की भूमिका कई पहलुओं से महत्व रखती है। पहले ये कि मनुष्य के अस्तित्व में विभिन्न प्रकार की आन्तरिक इच्छाऐ मौजूद होती हैं, जिनमें सबसे अधिक गहरी एवं महत्वपूर्ण यौन संबंधी इच्छा होती हैं, क्योंकि ये इच्छा समस्त संसार में अनेक अवसरों पर भयंकर अपराधों का स्रोत बनती रहती है। स्पष्ट है कि यदि विशेष समय में इस इच्छा की पूर्ण रूप से पूर्ति न हो और उसका सकारात्मक उत्तर न दिया जाए तो तूफ़ान की भांति इसके भी भयानक परिणाम निकलते हैं।
इस्लाम ने मनुष्य की इस इच्छा को शरीर और आत्मा के स्वास्थय के लिए महत्वपूर्ण समझते हुए इस विषय में युक्ति पूर्ण संदेश दिए हैं ताकि इस प्राकृतिक शक्ति को मानव जीवन एवं समाज की भलाई की ओर मोड़ा जा सके।
लोगों, विशेषकर युवकों को विवाह की ओर प्रेत्साहित करके समाज और व्यक्ति दोनों को अनेक बुराइयों से बचाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त वैवाहिक बन्धन के परिणाम स्वरूप समाज में माता-पिता की छत्र छाया में पलकर बड़े होने वाले अच्छी प्रवृत्ति के बच्चों की आशा की जा सकती है।