पैकरे इख़्लास आयतुल्ला बुरुजर्दी
असरे हाज़िर के हस्सास ज़माने में इस्लामी मुआशरों की अहम ज़रुरत हम आहन्गी, इत्तेहाद और तक़रीब है, आज तमाम बातिल ताकतें एक दूसरे के साथ मिल कर इस्लाम के मुकाबले में उठ खड़ी हुई हैं, तमाम मुसलमानों को इस नुक्ते की तरफ मुतवज्जे रहना चाहिए की साम्राज और इस्तेअमार के ऊपर ग़लबा हासिल करने का वाहिद रास्ता तमामतर इलाक़ाई, क़ौमी और मज़हबी तफ़ावुत के बावजूद दुनिया भर के मुसलमानों का मुत्तहीद होना (मिल कर सेकूलरिज़्म और दिन सियासत से जुदा है) की फिक्र से टक्कर लेना है। तारिख़ शाहिद है की इस्लामी दानिशवरों (शिया हों या सुन्नी) ने सेकूलरिज़्म नज़रीए से काफी हद तक मुकाबला किया है और मुसलमानाने आलम के दरमियान इत्तेहाद व यगानगत की ख़ातिर उन्होंने बड़े ख़ूबसूरत इक्दामात किए हैं, ज़ेरे नज़र मक़ाला आलमे इस्लाम के दो नुमायाँ आलिमे दीन हज़रत आयतुल्लाहिल उज़मा बुरुजर्दी और शैख़ शलतूत की सवानेहे हयात है। इन दोनों बुज़ुर्गों का तआरुफ़ की जिन्होंने इस्लामी मज़ाहिब के दरमीयान इत्तेहाद की ख़ातिर मुशतरेका तौर पर बड़े मुवस्सर और क़ाबिले मुलाहिज़ा कदम उठाए हैं। उम्मते इस्लामिया के दरमीयान इत्तेहाद व यगानेगत को महफूज़ रखने की ज़रुरत को दो चन्द नुमायाँ कर देता है।
हज़रत आयतुल्लाह बुरुजर्दी का हसब व नसब
आप बुरुजर्द शहर के तबातबाई सादात से तअल्लुक रखते हैं आपका नसब तीस दरखशाँ वास्तों से हज़रत इमामे हसन मुज्तबा अलैहिस्सलाम पर ख़त्म होता है। हज़रत आयतुल्लाह बुरुजर्दी के सिलसिल ए नसब (मादरी व पेदरी दोनों) में बड़ी नुमायाँ दीनी शख्सियात नज़र आती हैं जिनके काँधों पर गुज़श्ता कई सदियों में दीनी मरजईयत और आलमे शीइयत की हिमायत व क़यादत की ज़िम्मेदारी रही है आपके पाँचवें दादा सैय्यद मुहम्मद तबातबाई बुरुजर्दी नजफ़ के मराजे और साहिबे तालीफ़ात थे और मुल्ला मुहम्मद तक़ी मजलिसी की बहन के बेटे (भान्जे) थे। इसी तरह अल्लामा सैय्यद मेहदी तबातबॉई मारुफ़ बे बहरुल उलूम आपके दूसरे चचेरे दादा थे जो कि नजफ़े अशरफ के बुज़ुर्ग फ़क़ीह और अल्लामा वहीद बहबहानी के नुमायाँ शागिर्दों में से थे और अल्लामा बहरुल उलूम के भाई हज़रत आयतुल्लाह सैय्यह जवाद तबातबॉई आपके तीसरे दादा थे और उनके फ़रजन्द मिर्ज़ा अली नक़ी तबातबॉई दूसरे दादा और अलहाज मिर्ज़ा अहमद तबातबाई पहले दादा थे कि उनमें से हर एक नुमायाँ मुजतहिद थे। (देखिये किताबः आयतुल्लाह बुरुजर्दी, सन 1371 हिजरी शमसी, इब्तेदाई सफ़हात)
वेलादत और इब्तेदाए राह
आयतुल्लाह सैय्यद हुसैन बुरुजर्दी माहे सफ़र सन 1292 हिजरी शहरे बुरुजर्द में मोतवल्लिद हुए आपके पेदरे बुज़ुर्गवार आलीमे दीन थे जिनका सैय्यद हुसैन की परवरिश में क़ाबिले तवज्जोह किरदार रहा है। आप अपने बाप की हिदायात से किताब खाने जाते थे और आगाज़े तालीम में ही किताबे गुलिस्ताने सअदी, जामेउल मुकद्देमात, सुयूती, मन्तिक़ की तअलीम हासिल कर ली थी फिर तअलीमी सिलसिले को आगे बढ़ाने के लिए उसी शहर के मदरस ए (नूर बख्श) में दाखिल हुए, मुद्देमाती दुरुस की तकमील के बाद फ़िक़ह व उसूल की तअलीम में मसरुफ़ हो गए। आपने उस पूरी तालीमी ज़िन्दगी में तहज़ीबे नफ़्स और अखलाकी फज़ाएल व कमालात को अपना नसबुल ऐन क़रार दिया यहाँ तक की इस अम्र में हद्दे कमाल तक पहुँच गए। (गुलशने अबरार, सन 1382 हिजरी शमसी, सफ़हा 662)
इस्फ़हान की तरफ़ हिजरत
सैय्यद हुसैन ने सन् 1310 हिजरी में 18 साल की उम्र में इस्फ़हान के हौज़ ए इल्मिया का रुख़ किया और इसी शहर के मदरसए सद्र में सुकूनत इख्तेयार की। उस ज़माने में इस्फ़हान के हौज़ ए इल्मिया में बड़ी रौनक थी और सैय्यद हुसैन ने उस मौक़े से ख़ूब फायदा उठाया और चार साल की मुद्दत में बुज़ुर्ग असातीद जैसे मिर्ज़ा अबुल मआली कल्बासी, सैय्यद मुहम्मद तक़ी मुदर्रेसी, सैय्यद मुहम्मद बाक़िर दर्चेई, जहाँगीर खान कश्काई, और मुहम्मद काशानी के महज़रे मुबारक से फैज़ हासिल करते हुए अपने इल्मी ख़ज़ानों की तकमील की। (मजल्ला हौज़े, शुमारा 53, सफ़हा 52 व 57) एक रोज़ जबकि आप मामूल के मुताबिक़ दर्स व तहकीक में सर गर्म थे बाप की तरफ़ से ख़त पहुँचा जिसमे बाप ने बुरुजर्द वापस बुलाया था सैय्यद हसन मजबूर वतन की तरफ चल पड़े वहाँ आपको पता चला की बुरुजर्द बुलाए जाने का मक़सद यह है कि शादी के मुकद्देमात फ़राहम हों और आपको रिश्त ए इज़्देवाज से मुन्सलिक कर दिया जाए आपने पहले तो इस ख़्याल से कि इज़्देवाजी ज़िन्दगी तअलीम की राह में रुकावट बनेगी शादी करने से इंकार कर दिया लेकिन फिर बाप के इसरार पर सरे तसलीम ख़म कर दिया, आप इस दफा बुरुजर्द में मुख्तसर क़याम के बाद अपनी ज़ौजा के साथ हौज़ए इल्मिया इस्फ़हान वापस आए और फिर पाँच साल तक तालीम व तहक़ीक़ में मशग़ूल रहे यानी मजमूई तौर पर हौज़ए इल्मिया इस्फ़हान में आपने 9 साल के अन्दर क़ाबिले क़द्र इल्मी मुकाम हासिल कर लिया। (दवानी सन 1372 शुमारा, सफ़हा 95)
नजफ़े अशरफ़ का सफर
अल्हाज आका हुसैन सन 1319 हिजरी में पहले इस्फ़हान से अपने वतन बुरुजर्द तशरीफ ले गए फिर वालिद के हुक्म से नजफ़े अशरफ़ का रुख़ किया आपने नजफ़े अशरफ़ में तीन साल इल्मी हयात बसर की और उसी मुद्दत में आपने बुज़ुर्ग असातीद की ख़िदमत में जैसे आख़ून्द ख़ुरासानी, सैय्यद मुहम्मद काज़िम यज़दी और शैख़ुश शरीयत इस्फ़हान से फ़िक़ह व उसूल और रेजाल की आला तअलीम हासिल की। आपकी इन बुज़ुर्गों के दर्स में मुहक्किक़ाना हाज़िरी ने हौज़े में बड़ा जोश व ज़ज़्बा व बेदारी पैदा कर दी। उसी तरह से आपकी ज़ेहानत व मतानत और जल्द समझने की सलाहीयत ने सबको हैरत में डाल दिया। आप की इल्मी शोहरत उस दौर के अकसर इल्मी हल्कों में तबादल ए ख़्याल का बाइस बनी। यहाँ तक कि आप अपने उस्ताद बुज़ुर्गवार आख़ून्द ख़ुरासानी की तवज्जोह व इनायत का मरकज़ बन गए। (मजल्ला हौज़े शुमारा 43 व 44 सफहा 314) आपकी इल्मी शोहरत ने नजफ़ में आपके लिए पढ़ाने का मौक़ा फ़राहम कर दिया और आपने नजफ़ में बुज़ुर्गें से तअलीम हासिल करने के साथ साथ तदरीस का काम शुरु कर दिया। उस वक्त आपने नजफ़ के कुछ तुल्लाब के लिए किताब (फुसूल) की तदरीस का आगाज़ किया। नजफ़ में आयतुल्लाह बुरुजर्दी की किताब फुसूल की तदरीस के अहम खुसूसियात थे खुद आपके बक़ौल मेरी सारी कोशिश यह होती थी कि साहेबे क़वीनीन के ऊपर किए गए किताबे फुसूल के सारे इश्कालात का जवाब दूँ। (मजल्ला हौज़े, शुमारा 43 व 44, सफहा 315)
वतन वापसी
आयतुल्लाह बुरुजर्दी ने 10 साल तक नजफ़े अशरफ़ में रहने के बाद दोबारा नजफ वापसी के क़स्द से सन् 1328 हिजरी में वालेदैन का दीदार और सिलए रहम की ग़रज़ से अपने वतन वापस आए और उलमा व अवाम के बेनज़ीर इस्तिक़बाल के साथ बुरुजर्द शहर में दाख़िल हुए। अभी आपके बुरुजर्द शहर में दाखिल हुए छः महीना नहीं गुज़रा था कि आपके आलीमे दीन बाप का साया आपके सर से उठ गया और आप सोगवार बन गये। आपने अपने उस्ताद आख़ून्द ख़ुरासानी से अगरच् नजफ़ वापसी का वादा किया था ताकि नजफ़ की इल्मी मरकज़ीयत को तक़वीयत पहुँचाने में अहम किरदार अदा करें लेकिन बाप की रेहलत ने हालात बदल दिये और आपके वतन में रुकना पड़ा। कुछ ही दिनों बाद सन् 1329 हिजरी में आपने अपने रुहानी बाप यानी आख़ून्द ख़ुरासानी की रेहलत का दाग़ उठाया और आपकी ताक़त जवाब दे गई आपने बारहा अपने दोस्तों के सामने इज़हार किया है कि मेरे दोनों बाप की रेहलत में मुझे तड़पा दिया और बहुत मुन्क़लिब किया। (दवानी, सन् 1372, शुमारा, सफ़हा 101)
बहरहाल आयतुल्लाह बुरुजर्दी दोबारा नजफ़ वापस न हो सके इसीलिए आपको तक़रीबन तीस साल तक बुरुजर्द में रुकना पडा। आप उस पूरी मुद्दत मे तालीफ़ व तदरीस और हौज़े की नुमायाँ शख्सीयात को तालीम देने में मशग़ूल थे। आपके ज़्यादा तर मकतूब आसार उसी दौर यानी बुरुजर्द में सुकूनत से मोतअल्लिक है। आपके वुजुद की बरकत से बुरुजर्द में कुम, काशान, इस्फ़हान और अहवाज़ से इल्मो मारेफत के तिशना अफ़राद आने लगे और करीब था कि यह शहर इल्मो मारेफत का मरकज़ बन जाए उसके अलावा आप उसी शहर में अवाम के दीनी व समाजी मरज ए तक़लीद की हैसियत रखते थे, ज़ोहरैन की नमाज़ में कुछ दिनों तक आपने मस्जिदे शाह में भी जमाअत पढ़ाई है और उसके साथ लोगों की दीनी व समाजी मुशक्लात को भी हल करते रहे हैं। (दवानी, सन् 1372, शुमारा, सफ़हा 102 व 102)
दूसरे असफ़ार
आयतुल्लाह बुरुजर्दी सन् 1344 हिजरी में अतबाते आलियात की ज़ियारत करते हुए ज़ियारते ख़ान ए काबा से मुशर्रफ हुए और मनासिके हज की बजा आवरी के बाद सन् 1345 हिजरी में मक्क ए मुअज़्ज़मा से काज़मैन और वहाँ से सामर्रा तशरीफ ले गए। वहाँ दोनों इमामों की ज़ियारत का शरफ़ हासिल किया और वहाँ से बसरा के रास्ते ईरान वापस हुए। ये ज़माना हाज आक़ा नूरुल्लाह और आक़ा नजफ़ी इस्फ़हानी के दो बुज़ुर्ग उलमा के क़याम का ज़माना था। आयतुल्लाह बुरुजर्दी को भी गिरफ्तार कर लिया गया और तेहरान के क़ैदख़ाने में क़ैद कर दिया गया और वहाँ पुलिस के कारिन्दों ने आपसे बाज़ पुर्स शुरु की। तेहरान में जो ख़ुद रज़ा शाह आपकी मुलाक़ात को आया। इस मुलाक़ात से उसका मक़सद आयतुल्लाह अब्दुल करीम हायरी को आपकी नज़र में नीचा दिखाना था और दोनों को एक दूसरे के मद्दे मुक़ाबिल ला खड़ा करना था। रज़ा खान की सैय्यद हुसैन के साथ नर्मी, मुलायमत व मेहरबानी, उसी मक़सद के तहत थी। बहरहाल आप तकरीबन सौ दिन तेहरान में कैद रहे। क़ैद से रिहाई के बाद मशहदे मुक़द्दस हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की ज़ियारत के लिए रवाना हुए और तक़रीबन तेरह महीने मशहद में क़याम के बाद क़ुम तशरीफ़ लाए और मुख़्तसर क़याम के बाद अपने वतन पलट गए। वहाँ बुरुजर्द के लोगों ने आपका ज़बर्दस्त इस्तिक़बाल किया। फिर आप वहाँ सन् 1362 हिजरी में भरपूर नुफूज़ के साथ क़याम पज़ीर रहे। (दवानी सन 1372 शुमारा, सफ़हा 104, मजल्ल ए हौज़ा शुमारा, 43 व 44, सफ़हा 333 व 337)
मरजईयत
आयतुल्लाह बुरुजर्दी को सन् 1364 हिजरी में बीमारी के बाइस तेहरान लाया गया और फिरोज़ाबादी हास्पिटल में आपका दो बार आपरेशन हुआ। क़ुम तेहरान और दूसरे शहरों से उलमा का सैलाब आपकी अयादत के लिए टूट पड़ा। उसी मौके पर हौज़ ए इल्मिया क़ुम के मारुफ़ व बरजस्ता फ़ोक़हा ने जिनमें सरे फेहरिस्त हाज आक़ा रुहुल्लाह ख़ुमैनी थे, फुर्सत को गनीमत समझते हुए हज़रत आयतुल्लाह बुरुजर्दी से क़ुम सुकूनत पज़ीर होने और आलमे तशीअ की मरजईयत नीज़ हौज़ ए इल्मिया कुम की ज़आमत व सरपरस्ती कुबूल करने की दावत दी। (मुहम्मद वायज़ ज़ादे खुरासानी, सन 1379 शुमारा, सफ़हा 53)
मौजूदा हज़रात के इसरार को देखते हुए आख़िरकार आयतुल्लाह बुरुजर्दी ने कुबूल फरमाया और आप 26 सफ़र सन् 1364 हिजरी में मराजे उलमा और क़ुम की अवाम के बेनज़ीर इस्तिक़बाल के साथ शहरे मुद्दस कुम में वारिद हुए, कुम में मुकम्मल तरीके से सुकूनत पज़ीर होने और उलमा और मराजेईन के मुकम्मल तआवुन के बाद आपने फिक़ह ल उसूल की तदरीस शुरु की। आपके दर्स में बुज़ुर्ग उलमा व मारुफ़ फोज़ला व मोदर्रेसीन मिनजुम्ला हाज आक़ा रुहुल्लाह खुमैनी सैयद मुहम्मद मुहक्किक़ दामाद, हाज आक़ा मुर्तुज़ा हायरी वगैरह भरपूर तरीक़े से शरीक होने लगे। (अली आबादी सन 1379 शुमारा, सफहा 44, मजल्ला हौज़ा शुमारा 42 व 32) इसी तरह हज़रत आयतुल्लाह सदरुद्दीन सद्र ने जो की खुद भी मराजे तक्लीद में से थे और हरमे हज़रत मासूमा अलैहिस्सलाम के बड़े सहन में नमाज़े जमाअत पढ़ाते थे, अपनी जगह आयतुल्लाह बुरुजर्दी के हवाले कर दी और उनके एहतेराम में अपनी नमाज़े जमाअत खत्म कर दी। मरहूम आयतुल्लाह मुहम्मद तक़ी ख्वान्सारी जो कुम और नजफ़ के मारुफ़ मराजे में शुमार होते थे एहतेराम की खातिर आपके दर्स में शरीक होने लगे। ये सारे उमुर रोज़ बरोज़ हज़रत आयतुल्लाह बुरुजर्दी की मरजईयत और रहबरी व क़यादत की बुनियादों को तक़वियत पहुँचाने में मोवस्सर हुए। (दवानी सन 1372 शु, सफहा 119 व 120).
इन सबके अलावा सन् 1365 हिजरी में हज़रत आयतुल्लाह सैय्यद अबुल हसन इस्फ़हानी नजफ़े अशरफ के बुज़ुर्ग तरीन मर्जए तक़लीद की रेहलत हो गई इसलिए उलमा ए नजफ़ और मरहूम आक़ा इस्फ़हानी के जुम्ला मुक़ल्लेदिन और फिर उनके बाद दुनिया भर के शियों ने आयतुल्लाह बुरुजर्दी की तरफ़ रुख किया और थोड़ी ही मुद्दत में आपकी मुतलक़ा मरजईयत आशकार हो गई। हज़रत आयतुल्लाह बुरुजर्दी की तन्हा मरजईयत और आपकी रहबरी में आलमे तशीअ की मुदीरियत व क़यादत तकरीबन सोलह साल तक यानी सन् 1380 हिजरी तक जारी रही जिसमें सियासी व समाजी ऐतेबार से बड़ी नुमायाँ तब्दिलीयाँ रू नुमा हुईं हौज़ ए इल्मिया कुम के मुदीरीयती ढ़ाँचे में भी तब्दिली वाके हुई और हौज़ ए इल्मिया और अवाम के मुख्तलिफ़ तबक़ात में क़ाबिले दीद इत्तेहाद व एक जहती नज़र आने लगी।
(आबाज़री सन् 1383 शुमारा, सफ़हा 26 व 27)