18 ज़िल हिज्जा को ईद क्यों?
बाज़ हज़रात की आदत हर बात में सवाल ईजाद करना होती है मगर कभी कभी कुछ ऐसे सवाल भी होते हैं जो इंसान को रौशनी में लाकर अंधेरों से छुटकारा दिला देते हैं। ऐसे सवालों का ताल्लुक़ अक़ीदे से होता है उन्ही में से एक सवाल यह भी है कि हम 18 ज़िल हिज्जा की तारीख़ में ईद क्यों मनाते हैं? यह सवाल अपनों और बेगानों दोनों ही के लिये हिदायत का सबब बन सकता है। 18 ज़िल हिज्जा की तारीख़ में ग़दीर की तारीख़ी और ऐतेक़ादी हक़ीक़त अपनी जगह मगर फ़लसफ़ ए ईद ख़ुद एक मुस्तक़िल मौज़ू है जिस पर गुफ़तुगू की जानी चाहिये।
ईद का ताल्लुक़ ख़ुशी और मसर्रत से है और ग़दीर का ताल्लुक़ इस्लाम से। इस जुमले से कम से कम यह बात तो वाज़ेह हो जाती है कि ग़दीर के दिन ईद मनाने का सवाल फ़क़त मुसलमानों ही में पैदा होता है गै़र मुस्लिमों को इस से कोई सरोकार नही। अगरचे एक ऐतेबार से यहूदियों, ईसाईयों और पारसियों को 18 ज़िल हिज्जा की तारीख़ में मुसलमानों के साथ ईद मनाने का हक़ हासिल हो जाता है वह इस लिये कि जिस वजह से मुसलमानों को इस दिन ईद मनानी चाहिये वही वजह उन के यहाँ भी मौजूद है और वह यह कि क़मरी सन् हिजरी के महीनों को जब रूमी, हिन्दी, ईसवी और फ़ारसी महीनों से तत्बीक़ दी जाती है तो 18 ज़िल हिज्जा सन् 10 हिजरी की मुबारक तारीख़ उन के लिये ख़ुशी का रोज़ बन जाती है।
पारसियों की बड़ी ईद यानी नौरोज़ 10 हिजरी में 18 ज़िल हिज्जा ही के रोज़ थी और इसी तारीख़ में हज़रत मूसा (अ) ने फ़िरऔन के जादूगरों पर कामयाबी हासिल की और इसी तारीख़ में उन्होने जनाबे यूशा (अ) को अपना वसी बनाया। हज़रत इब्राहीम (अ) के लिये आग भी उसी रोज़ गुलज़ार बनी थी और इत्तेफ़ाक़ की बात तो यह भी है कि एक ऐहतेमाल के मुताबिक़ हज़रत इब्राहीम (अ) को ग़दीर ही के मक़ाम पर आग में डाला गया था। हज़रत ईसा (अ) ने उसी तारीख़ में जनाबे शमऊन (अ) को अपनी वसी और जानशीन बनाया। हज़रत सुलेमान (अ) ने भी उसी तारीख़ में तमाम लोगों के दरमियान जनाबे आसिफ़ बिन बरख़िया (अ) के लिये अपने ख़िलाफ़त और जानशीनी का ऐलान फ़रमाया। तारीख़ इस दिन को हज़रत शीस (अ) और हज़रत इदरीस (अ) के दिन से भी याद करती है। आसमान वालों में यह तारीख़ अहदे मअहूद और ज़मीन वालों में मीसाक़े मअख़ूज़ के नाम से याद की जाती है।
यहाँ तक कोई बात साबित हो या न हो लेकिन यह बात ज़रुर साबित हो जाती है कि अगर दुनिया वाले मिल जुल कर किसी एक दिन ख़ुशी मनाना चाहें तो 18 ज़िल हिज्जा की तारीख़ अपने दामन में वह वुसअत रखती है कि सारी कायनात उस दिन को ईद का उनवान दे सकती है अगर तमाम अदयान इस दिन को अपने अपने अक़ीदों के साथ ईद का रंग दें दें तो पूरे आलम में तमाम इंसान एक साथ ख़ुशी मना कर इंसानियत के हसीन चेहरे पर मसर्रत के नुक़ूश वाज़ेह तौर पर मुलाहेज़ा कर सकते हैं।
अगर दीगर अदयान के पैरों हमारी इस दावत पर लब्बैक न कहें और वह इसी बात को अपनी अकसरियत या किसी और दलील के तहत अपनी किसी मज़हबी ईद की तारीख़ से तत्बीक़ करें तो इख़्तेलाफ़ की सूरत का अपनी जगह बाक़ी रहना अक़्ली अम्र है मगर तमाम ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मद रसूलल्लाह पढ़ने वालों इस दिन मिल कर ईद मनानें में कोई क़बाहत नही होनी चाहिये। अगर वह यह कहें कि मुसलमान तो ईदे फ़ित्र, ईदे क़ुरबान और जुमें की शक्ल में एक साथ ईद मनाते हैं तो फिर इस की क्या ज़रुरत है कि 18 ज़िल हिज्जा को मिल कर एक नई ईद मनाई जाये? तो इस के जवाब में हम यह कहेगें कि यह तमाम ईदें मुसलमानों की मुत्तफ़क़ अलैह ईदें हैं मगर यह ईदें बस किसी एक मुनासिबत की याद से मुतल्लिक़ हैं लेकिन 18 ज़िल हिज्जा बहुत सी यादों की अमीन है।
उस दिन में गुज़िश्ता अंबिया ने ईद मनाई है अल्लाह की तरफ़ से गुज़िश्ता उम्मतों में यह दस्तूर रहा है कि हर नबी की बेसत और उसके वसी की ख़िलाफ़त के ऐलान के रोज़ ख़ुशी मनाई जाये और ईद के जश्न का ऐहतेमाम किया जाये। 27 रजब ईदे ऐलाने बेसते ख़त्मुल मुरसलीन और 18 ज़िल हिज्जा ईदे ऐलाने विलायते अमीरुल मोमिनीन (अ) का ख़ूबसूरत दिन है इसी लिये इस्लाम ने इस दिन को ईदे अकबर के लक़्ब से सरफ़राज़ फ़रमाया है और मुसलमानों के लिये आख़िरी नबी हज़रत मुहम्मद मुसतफ़ा सल्ललाहो अलैहे वा आलिही वसल्लम ने अपनी उम्मत के लोगों के दरमियान इसी तारीख़ में अक़दे उख़ूव्वत पढ़ा था लिहाज़ा आज फिर मुसलमानों को इस दिन एक साथ जमा हो कर सीग़ ए उख़ूव्वत पढ़ कर ईद मनाना चाहिये।