इमाम सादिक़ का अख़लाक़
अल्लामा इब्ने शहर आशोब लिखते हैं कि एक दिन हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) ने अपने एक नौकर को किसी काम से बाज़ार भेजा। जब उस की वापसी में बहुत देर विलंब हुआ तो आप उस की तलाश में निकल पड़े, देखा कि वह एक जगह पर लेटा हुआ सो रहा है, आप उसे जगाने के बजाए उस के सरहाने बैठ गये और पंखा झलने लगे जब वह जागा तो आप ने उस से कहा कि यह तरीक़ा सही नही है। रात सोने के लिये और दिन काम करने के लिये है। आईन्दा ऐसा न करना। (मनाक़िब जिल्द 5 पेज 52)
अल्लामा अली नक़ी साहब लिखते हैं कि आप उसी मासूम सिलसिले की एक कड़ी हैं जिसे अल्लाह तआला ने इंसानों के लिये आईडियल और नमून ए अमल बना कर पैदा किया है। उन के सदाचार और आचरण जीवन के हर दौर में मेयारी हैसियत रखते हैं। विशेष विशेषताएँ जिन के बारे में इतिकारों ने ख़ास तौर पर लिखा है वह मेहमान की सेवा, ख़ौरात व ज़कात, चुपके से ग़रीबों की मदद करना, रिश्तेदारों के साथ अच्छा बर्ताव करना, सब्र व हौसले के काम लेना आदि है।
एक बार एक हाजी मदीने आया और मस्जिदे रसूल (स) में सो गया। आँख खुली तो उसे लगा कि उस की एक हज़ार की थैली ग़ायब है उसने इधर उधर देखा, किसी को न पाया एक कोने इमाम सादिक़ (अ) नमाज़ पढ़ रहे थे वह आप के पहचानता नही था आप के पास आकर कहने लगा कि मेरी थैली तुम ने ली है, आप ने पूछा उसमें क्या था, उसने कहा एक हज़ार दीनार, आपने कहा कि मेरे साथ आओ, वह आप के साथ हो गया, घर आने के बाद आपने एक हज़ार दीनार उस के हवाले कर दिये वह मस्जिद में वापस आ गया और अपना सामान उठाने लगा तो उसे अपने दीनारों की थैली नज़र आई। यह देख वह बहुत शर्मिन्दा हुआ और दौड़ता हुआ इमाम की सेवा में उपस्थित हुआ और माँफ़ी माँगते हुए वह थैली वापस करने लगा तो हज़रत ने उससे कहा कि हम जो कुछ दे देते हैं वापस नही लेते।
इस ज़माने में तो यह हालात सब के देखे हुए है कि जब यह ख़बर होती है कि अनाज मुश्किल से मिलेगा तो जिस के पास जितना संभव होता है वह ख़रीद कर रख लेता है मगर इमाम सादिक़ (अ) के किरदार का एक वाक़ेया यह है कि एक बार आप के वकील मुअक़्क़िब ने कहा कि हमें इस मंहगाई और क़हत में कोई परेशानी नही होगी, हमारे पास अनाज का इतना ख़ज़ाना है कि जो बहुत दिनों तक हमारे लिये काफ़ी होगा। आपने फ़रमाया कि यह सारा अनाज बेच डालो, उसके बाद जो हाल सब का होगा वही हमारा भी होगा जब अनाज बिक गया तो कहा कि आज से सिर्फ़ गेंहू की रोटी नही पकेगी बल्कि उसमें आधा गेंहू और आधा जौ मिला होना चाहिये और जहाँ तक हो सके हमें ग़रीबों की सहायत करनी चाहिये।
आपका क़ायदा था कि आप मालदारों से ज़्यादा ग़रीबों की इज़्ज़त किया करते थे, मज़दूरों की क़द्र किया करते थे, ख़ुद भी व्यापार किया करते थे और अकसर बाग़ों में ख़ुद भी मेहनत किया करते थे। एक बार आप फावड़ा हाथ में लिये बाग़ में काम कर रहे थे, सारा बदन पसीने से भीग चुका था, किसी ने कहा कि यह फ़ावड़ा मुझे दे दीजिये मैं यह कर लूँगा तो आपने फ़रमाया कि रोज़ी कमाने के लिये धूप और गर्मी की पीड़ा सहना बुराई की बात नही है। ग़ुलामों और कनीज़ों पर वही मेहरबानी रहती थी जो उस घराने की शान थी।
इस का एक आश्चर्यजनक वाक़ेया यह है जिसे सुफ़यान सौरी ने बयान किया है कि मैं एक बार इमाम (अ) की सेवा गया तो देखा कि आपके चेहरे का रंग बदला हुआ है, मैंने कारण पूछा तो फ़रमाया कि मैंने मना किया था कि कोई मकान के कोठे पर न चढ़े, इस समय जो मैं घर आया तो देखा कि एक कनीज़ जिस का काम बच्चे की देख भाल करना है, उसे गोद मे लिये सीढ़ियों से ऊपर जा रही थी मैंने देखा तो वह भयभीत हो गई कि बच्चा उस के हाथ से झूट कर गिर गया और मर गया। मुझे बच्चे के मरने का इतना अफ़सोस नही जितना इस बात का दुख है कि उस नौकरानी पर इतना भय कैसे हावी हो गया फिर आपने उस कनीज़ को बुलाया और कहा डरो नही मैं ने तुम को अल्लाह की राह में आज़ाद कर दिया। उस के बाद बच्चे के कफ़न और दफ़्न में लग गये।
(सादिक़े आले मुहम्मद पेज 12, मनाक़िबे इब्ने शहर आशोब जिल्द 5 पेज 54)
किताब मजानिल अदब जिल्द 1 पेज 67 में है कि आप के यहाँ कुछ मेहमान आये हुए थे, खाने के मौक़े पर कनीज़ को खाना लाने का आदेश दिया। वह सालन की बड़ा प्याला लेकर जब दस्तर ख्वान के नज़दीक पहुची तो अचानक प्याला हाथ से छूट गया। उस के गिरने से इमाम (अ) मेहमानों के कपड़े ख़राब हो गये, कनीज़ काँपने लगी, आपने ग़ुस्से के बजाए उसे अल्लाह की राह में आज़ाद कर दिया कि तू जो मेरे भय से काँपती है शायद यही आज़ाद करना कफ़्फ़ारा हो जाये।
फिर उसी किताब के पेज 69 में आया है कि एक ग़ुलाम आप के हाथ धुला रहा था कि अचानक लोटा हाथ से झूट कर सीनी में गिरा और पानी की छींटे आप के मुँह पर पड़ीं, ग़ुलाम घबरा गया आपने फ़रमाया डरो नही, जाओ मैंने तुम्हे अल्लाह की राह में आज़ाद कर दिया।
अल्लामा मजलिसी की किताब तोहफ़तुज़ ज़ायर में है कि आप की आदत में इमाम हुसैन (अ) की ज़ियारत पर जाना शामिल था। आप सफ़्फ़ाह और मंसूर के दौर में भी ज़ियारत के लिये जाते थे। करबला की आबादी से लगभग चार सौ क़दम के फ़ासले पर उत्तर की तरफ़ नहरे अलक़मा के किनारे बाग़ों में आप का बाग़ उसी ज़माने में का बना हुआ है।