अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क

इस्लाम का सर्वोच्च अधिकारी (भाग 6)

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10 मोहर्रम सन 61 हिजरी को इस्लाम धर्म के सर्वोच्च अधिकारी हज़रत इमाम हुसैन(अ.) को यज़ीदी सेना ने बेदर्दी के साथ शहीद कर दिया और यह मान बैठी कि अब अस्ल इस्लाम को बताने वाला कोई नहीं बचा। अत: अब इस्लाम के नाम पर यज़ीद की ही शरीयत दुनिया में क़ायम हो जायेगी।

लेकिन ''वह शमा क्या बुझे जिसे रौशन खुदा करे।"

जब लड़ाई के बाद इमाम हुसैन(अ.) के खैमों को आग के हवाले कर दिया गया तो उन ही खैमों में एक निहायत बीमार व कमज़ोर लगभग पच्चीस बरस का जवान बेहोश पड़ा हुआ था, जिसे उसकी बीमार फुफी उन मुशिकल हालात में जलते हुए खैमों से बाहर निकाल कर ले आयी। ये जवान हज़रत इमाम हुसैन(अ.) का एकमात्र बचा हुआ बेटा अली(अ.) था जिसे दुनिया सय्यदे सज्जाद और इमाम जैनुलआबिदीन(अ.) के लक़ब से याद करती है।

हज़रत इमाम हुसैन(अ.) की शहादत के बाद धर्म के सर्वोच्च अधिकारी का पद इमाम जैनुलआबिदीन(अ.) के पास आ चुका था। और ऐसे हालात में आया था कि यज़ीद के ज़ुल्म के आगे तमाम इस्लामी दुनिया चुप थी। रसूल के नवासे को बेदर्दी के साथ शहीद किया जा चुका था। कोई दोस्त व मददगार नहीं बचा था। बीमारी ही की हालत में यज़ीदी फौज ने इमाम(अ.) को ज़ंज़ीरों से जकड़ दिया। गले में काँटों का तौक़ था और पैरों में वज़नी बेडि़याँ। ऐसी हालत में उन्हें नंगे पैर रेगिस्तान की जलती ज़मीन पर चलाते हुए कूफे लाया गया और फिर 1400 मील दूर शाम (सीरिया) की राजधानी दमिश्क भेजा गया जहाँ पर यज़ीद का दरबार सजा हुआ था। इमाम के साथ पैगम्बर मोहम्मद(स.) और उनके वसी इमाम अली(अ.) का लुटा हुआ घराना था। इस अज़ीम मुसीबत की घड़ी में भी इमाम जैनुलआबिदीन(अ.) शुक्र का सज्दा कर रहे थे और उम्मत के लिये भलाई की दुआएं उनके लबों पर थीं।

जब इमाम जैनुलआबिदीन(अ.) यज़ीद के दरबार में लाये गये तो यज़ीद ने दरबार में अपनी बादशाही दिखाने के लिये इमाम(अ.) से कहा कि वे लोगों को अपनी पहचान बतायें। उसे लगा कि लोगों के मजमे में इमाम(अ.) शर्मसार हो जायेंगे। लेकिन जवाब में इमाम(अ.) ने ऐसा खुत्बा दिया कि खुद यज़ीद ही शर्मसार हो गया। अपने खुत्बे में इमाम(अ.) ने फरमाया, 'खुदा की क़सम हमारे ही घर में फरिश्तों की आमद व रफ्त रही है और हम नबूवत व रिसालत के शरीक़ हैं। हमारी ही शान में कुरआन की आयतें नाजि़ल हुर्इ हैं और हम ने लोगों की हिदायत की। बहादुरी हमारे ही घर की कनीज़ है और हम कभी किसी की क़ूव्वत व ताकत से नहीं डरे और फसाहत हमारा ही हिस्सा है। हम ही सिराते मुस्तक़ीम और हिदायत का मरकज़ हैं और उसके लिये इल्म का दरिया हैं जो इल्म हासिल करना चाहता है और दुनिया के मोमिनीन के दिलों में हमारी मुहब्बत है। हमारे ही मरतबे आसमानों व ज़मीनों में बुलन्द हैं। अगर हम न होते तो खुदा दुनिया को पैदा ही न करता। हर फख्र हमारे सामने पस्त है। हमारे दोस्त रोज़े क़यामत सैराब होंगे और हमारे दुश्मन उस दिन बदबख्ती में होंगे।
जब इमाम जैनुलआबिदीन(अ.) ने ये अलफाज़ अदा किये और अहलेबैत की शहादत का जि़क्र किया तो दरबार में एक कोहराम बरपा हो गया। लोग चीखने चिल्लाने लगे। यज़ीद घबरा गया कि कहीं विद्रोह न हो जाये। अत: उसने दरबार में अज़ान दिलवा दी। जब मुअज़ज़िन ने अज़ान में रसूल(अ.) का नाम लिया तो इमाम(अ.) ने कहा कि खुदा की क़सम हम इन ही रसूल(अ.) के अहले बैत हैं और तूने बेकुसूर बिना खता अहलेबैत को भूखा प्यासा करबला में क़त्ल करवा दिया।

यज़ीद कोई जवाब न दे सका और उसने इमाम(अ.) व तमाम रसूल(स.) के घराने को क़ैद करवा दिया। जहाँ पूरे एक साल तक ये लोग ऐसी जगह कैद रहे जहाँ दिन को सख्त धूप पड़ती थी और रात को ओस। इसी कैदखाने में इमाम हुसैन(स.) की प्यारी बेटी जनाबे सकीना ने तड़प तड़प कर अपनी जान दे दी।

आज कुछ लोग यज़ीद को बेकुसूर बताने की कोशिश में लगे हुए हैं। लेकिन यज़ीद के महल के पास मौजूद जनाबे सकीना का रौज़ा आज भी यज़ीद को ज़ालिम साबित करने का खुला हुआ सुबूत है।

करबला से कूफे और कूफे से शाम के सफर में इमाम ज़ैनुलआबिदीन(अ.) को जब भी मौका मिला उन्होंने यज़ीद के ज़ुल्म व मोहम्मद(स.) के घराने की फज़ीलत लोगों से बयान की और धीरे धीरे पूरे आलमे इस्लाम को मोहम्मद(अ.) के घराने पर हुए ज़ुल्म व सितम की खबर हो गयी और यज़ीद के खिलाफ लोग खड़े होने लगे। आखिरकार यज़ीद को अवाम के सामने झुकना पड़ा और उसने आले मोहम्मद(स.) को रिहा किया।

जब इमाम जैनुलआबिदीन(अ.) की जंजीरें काटी जा रही थीं तो उन्हें काटने वाला लोहार बेहोश होकर गिर पड़ा। क्योंकि उसने देखा कि वे जंजीरें इमाम(अ.) के बदन की हडिडयों में पेवस्त हो गयी थीं।

जब इमाम अली बिन हुसैन जैनुलआबिदीन(अ.) कैद से छूटकर मक्के की तरफ आये तो वहाँ काफी लोग इमाम अली(अ.) के बेटे मोहम्मद बिन हनफिया को इमाम मानने लगे थे। उनकी गलतफहमी को दूर करने के लिये दोनों ने काबे के पत्थर हज्रे असवद से गवाही ली तो हज्रे असवद ने इमाम जैनुलआबिदीन(अ.) के हक़ में गवाही दी। फिर इमाम सज्जाद(अ.) ने मदीने के पास एक देहात नीबा में मुन्तकि़ल होकर गोशानशीनी अखितयार कर ली थी।

धीरे धीरे तमाम आलमे इस्लाम में यज़ीद के खिलाफ बग़ावत की आग फैलने लगी थी। जब मदीने में बगावत हुई तो यज़ीद का भाई मरवान इमाम(अ.) के पास अपने बच्चों के लिये पनाह माँगने आया। इमाम(अ.) ने फौरन उसके कुनबे को पनाह दे दी।

जनाबे मुख्तार इब्ने ज्याद की क़ैद में एक अर्से से थे। जब वे रिहा हुए तो उन्होंने हज़रत इमाम हुसैन(अ.) के क़त्ल का बदला लेने के लिये लश्कर इकटठा किया। और उमर इब्ने साद, इब्ने ज्याद, शिम्र, खोली, हुरमुला वगैरा को वासिले जहन्नुम किया।

उधर यज़ीद ने बग़ावत को दबाने के लिये एक क्रूर शख्स मुस्लिम बिन अक़बा को भेजा जिसने मदीने में क़त्लेआम बरपा कर दिया। दस हज़ार मदीने वासी क़त्ल हो गये जिसमें लगभग 700 हाफिज़े कुरआन शामिल थे। हज़ारों लड़कियों की अस्मत लूटी गयी। जिसके नतीजे में अगले साल एक हज़ार नाजायज़ बच्चे पैदा हुए। अपनी तमाम क्रूरताओं के बावजूद मुस्लिम बिन अक़बा की इमाम(अ.) से बैय्यत माँगने की हिम्मत नहीं हुई।

मदीने को बरबाद करने के बाद मुस्लिम बिन अक़बा ने मक्के का रुख किया लेकिन रास्ते में ही मर गया। उसने हसीन बिन नमीर को जानशीन बनाया। जिसने अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर को गिरफ्तार करने के लिये काबा शरीफ पर आग बरसाई। इसी बीच यज़ीद मर गया और उसके बेटे माविया द्वितीय को तख्त सौंपने की कोशिश की गई लेकिन उसने यह कहकर बैठने से इंकार कर दिया कि इस तख्त से खूने हुसैन की बू आती है। नतीजे में उसे उसी के खानदान वालों ने साजि़श करके क़त्ल कर दिया और हुकूमत मरवान के हाथों में आ गयी। उसके बाद अब्दुलमलिक बिन मरवान वगैरा कई बादशाह हुए और उन ही में से वलीद बिन अब्दुलमलिक ने आपको ज़हर देकर शहीद कर दिया।

इबादतों में इमाम(अ.) के मिस्ल दूसरा न था। आलिमों का कहना है कि वे हर शब एक हज़ार रकातें नमाज़ अदा करते थे और सजदों की तो कोई गिनती ही न थी। इसीलिए आपका लक़ब सय्यदे सज्जाद (सजदों का सरदार) पड़ गया।

इमाम सय्यदे सज्जाद(अ.) की नेकियों व मोजिज़ात के बहुत से वाकियात किताबों में मिलते हैं। एक मोमिन शख्स इमाम(अ.) की खिदमत में आया और अपनी ग़रीबी व फाके की शिकायत की। इमाम ने उसे सब्र करने की राय दी। जब वह बाहर निकला तो लोगों ने ताना दिया कि इमाम(अ.) कहते हैं कि आसमान व ज़मीन की हर चीज़ उनके अखितयार में है और अपने चाहने वाले की तकलीफ दूर नहीं कर पाये। वह मोमिन वापस इमाम की खिदमत में गया और उस ताने का जि़क्र किया। इमाम(अ.) ने फरमाया कि अल्लाह देने वाला है कहते हुए आपने दो सूखी रोटियां जो अपने खाने के लिये रखी थीं उसे दे दीं। वह शख्स सूखी रोटियां लेकर चला। रास्ते में उसे मछली बेचने वाला मिला जिसके पास एक बासी मछली बची हुई थी। उसने कहा कि मेरे पास सूखी रोटी है और तेरे पास बासी मछली। दोनों की अदला बदली कर लो। मछली वाले ने उसे रोटी के बदले मछली दे दी। फिर आगे उसने दूसरी रोटी के बदले एक नमक वाले से थोड़ा सा नमक खरीद लिया। घर आकर जब उसने मछली को काटा तो उसमें से दो सच्चे मोती निकले। पल भर में उसकी किस्मत बदल चुकी थी। इतने में घर का दरवाज़ा किसी ने खटखटाया। दरवाज़ा खोला तो दोनों दुकानदार नज़र आये। उन्होंने कहा कि ये सूखी रोटियां हमारे लाख कोशिश करने पर भी नहीं टूटीं अत: इन्हें तुम ही रखो और साथ में मछली व नमक भी। क्योंकि तुम्हें उसकी ज़रूरत है। उस शख्स ने शुक्रिया अदा करके रोटियां ले लीं। इतनी देर में देखा इमाम(अ.) का क़ासिद चला आ रहा है। उसने इमाम का मैसेज दिया कि तुम्हारी किस्मत अल्लाह ने बदल दी है अब मेरी रोटियां वापस कर दो क्योंकि उन्हें मेरे अलावा और कोई खा नहीं सकता।

हर शब को जब रात का अँधेरा छा जाता और लोग सो जाते तो इमाम(अ.) एक थैले में खाने पीने की चीज़ें लेकर निकलते थे। अपने मुंह को कपड़े से छुपा लेते थे और गरीबों मोहताजों के घरों में जाकर उसे बाँट देते। बहुत से लोग उनके इंतिज़ार में दरवाजों पर खड़े रहते थे। और जब उन्हें आता देखते तो कहते कि वह थैले वाले आ गये।

इमाम सज्जाद(अ.) न सिर्फ इंसानों बल्कि जानवरों से भी निहायत मेहरबानी के साथ पेश आते थे। वो जानवरों की बोली समझते थे। एक बार जब वो असहाब के साथ बैठे थे तो एक जंगली हिरनी वहाँ आयी और कुछ बोलने लगी। असहाब ने पूछा कि ये क्या कहती है? इमाम(अ.) ने फरमाया कि ये कहती है कि क़ुरैश का फुलाँ शख्स मेरे बच्चे को पकड़ कर ले गया है और उसने कल से दूध भी नहीं पिया है। ये कहकर इमाम ने अपने सहाबी को उस शख्स के पास भेजा और संदेश भिजवाया कि इसका बच्चा मेरे पास ले आओ और उसकी जो क़ीमत चाहो मुझसे ले लो।

वह सहाबी बच्चे को ले आये। फिर इमाम ने उस बच्चे को हिरनी को सौंप दिया। हिरनी कुछ कहती हुई बच्चे को लेकर चली गयी। इमाम(अ.) ने सहाबियों से फरमाया कि वह तुम्हारे और मेरे हक़ में अल्लाह से दुआ कर रही थी।

तमाम इस्लामी धर्माधिकारियों की तरफ इमाम सज्जाद(अ.) के पास भी इल्म की बेशकीमती दौलत थी। उनकी दुआओं का एक बेशकीमती खज़ाना सहीफये कामिला के नाम से दस्तियाब है। इन दुआओं में इल्म व इलाही इसरार के बेशकीमती मोतियों की झलक दिखायी देती है। अरब के एक आलिम को अपने इल्म पर नाज़ था। जब सहीफये कामिला का जि़क्र किया गया तो उसने कहा कि ऐसी किताब लिखना कौन सा मुशिकल है मैं भी लिख देता हूं। वह कलम लेकर बैठा और खामोशी से सर को झुकाए सोचता रहा। यहाँ तक कि वह सर को उठा ही न सका और उसी हालत में मर गया।

हज़ार साल पुरानी शेख सुददूक की लिखी किताब 'अल-तौहीद' में इमाम(अ.) के कई क़ौल दर्ज हैं। इसी किताब में इमाम जैनुल आबिदीन(अ.स.) का एक क़ौल इस तरह दर्ज है कि ''....अल्लाह ने अर्श की खिलक़त से पहले तीन चीज़ें हवा, क़लम और नूर (रोशनी) को पैदा किया। फिर अर्श को मुख्तलिफ अनवार (प्रकाश पुंजों) से खल्क किया। उस नूर में एक सब्ज़(हरा) नूर है जिससे सब्ज़ी सरसब्ज़ हुई। और एक जर्द (पीला) नूर है जिससे जर्दी सुनहरी बनी। और एक सुर्ख (लाल) नूर है जिससे सुर्खी सुर्ख हो गयी। और एक सफेद नूर है और वही तमाम अनवार का नूर है और उसी से दिन की रोशनी है।..... मतलब ये हुआ कि अल्लाह ने रोशनी में तीन प्राइमरी रंगों की रोशनियों को सबसे पहले खल्क किया। ये रंग थे पीला, हरा और लाल। बाद में फिर इन्ही के जरिये और रंग बने। आज प्राइमरी रंगों की थ्योरी एक अहम साइंसी थ्योरी बन चुकी है जो कलर प्रिंटिंग, कलर डिस्प्ले जैसी तमाम जगहों पर इस्तेमाल होती है। हालांकि दुनिया इस थ्योरी का खोजकर्ता मैक्सवेल को मानती है जो उन्नीसवीं सदी में हुआ है यानि इमाम सय्यदे सज्जाद(अ.) के बारह सौ साल बाद।

आज भी हम इसपर अफसोस ही कर सकते हैं कि बहुत से मुसलमान इमाम जैनुल आबिदीन(अ.स.) जैसे अपने असली धर्माधिकारियों को न पहचान कर इधर उधर भटक रहे हैं और न सिर्फ खुद बल्कि दूसरों को भी गुमराह कर रहे हैं।        

 

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