इस्लाम का सर्वोच्च अधिकारी (भाग 7)
दीने इस्लाम की यह बुनियादी मान्यता है कि ज़मीन पर हमेशा अल्लाह का एक बंदा मौजूद होता है जो ज़मीन पर खलीफा होता है और उसके कन्धों पर दीन को दुनिया में बाक़ी रहने का दारोमदार होता है।
इस्लामी किताबों में यह कई जगह आया है कि ज़मीन कभी हुज्जते खुदा से खाली नहीं रहती। तो ज़ाहिर है पैगम्बर मोहम्मद (स.) के बाद भी खुदा के दीन के ऐसे रहबर होने चाहिए जो ज़मीन पर खुदा की हुज्जत हों। और किसी भी समय में पूरी दुनिया में अल्लाह का कम से कम एक ऐसा बन्दा हमेशा होना चाहिए। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो दुनिया में हमेशा एक इस्लाम का सर्वोच्च अधिकारी होना चाहिए। तो सवाल ये पैदा होता है कि पैगम्बर मोहम्मद (स.) के बाद इस पद पर किसको माना जाये? इस बारे में खुद पैगम्बर मोहम्मद (स.) ने ही फरमाया कि मेरे बाद मेरी नस्ल से बारह रहबर यानि कि इमाम होंगे। कुछ हदीसों के मुताबिक नबी ने फरमाया कि ये बारह इमाम क़ुरैश से होंगे। लेकिन अगर गौर किया जाये तो रसूल (स.) के बाद इस्लाम का रहबर होने की खासियतें रसूल (स.) की नस्ल के ही कुछ बन्दों में नज़र आती हैं।
इसी तरह के बन्दे थे इमाम मोहम्मद बाकि़र(अ.) जो इमाम ज़ैनुलआबिदीन (अ.) के बेटे थे और इमाम ज़ैनुलआबिदीन (अ.) के बाद इस्लाम के सर्वोच्च धर्माधिकारी हुए।
इस्लाम के सर्वोच्च धर्माधिकारी की एक खासियत यह होती है कि वह तमाम पिछले इल्म (ज्ञान) का वारिस होता है। और ज़रूरत पड़ने पर उसे ज़ाहिर करता है। इमाम मोहम्मद बाकि़र (अ.) से पहले के इमामों को यह मौका नहीं मिल पाया कि वह अपने इल्म को दुनिया के सामने पेश करते। लेकिन इमाम मोहम्मद बाकि़र (अ.) को यह मौक़ा मिला।
इल्म की रोशनी को ज़ाहिर करने के लिये इमाम मोहम्मद बाकि़र (अ.) ने मदीने में स्कूल कायम किया जिसकी शुरूआत मस्जिदे नबवी से हुई। और फिर इस स्कूल ने आगे इमाम जाफर सादिक (अ.) के ज़माने में एक पूरी यूनिवर्सिटी की शक्ल में अपनी पहचान क़ायम की जिसमें तमाम दुनिया के तालिब इल्मों ने आकर फैज़ हासिल किया।
इमाम मोहम्मद बाकि़र (अ.) के स्कूल में तमाम दीनी व दुनियावी उलूम पर बात होती थी। जिसमें तौहीद, थियोलोजी, फलसफा, फिजि़क्स, मैथेमैटिक्स, मेडिसिन, कीमिया वगैरा शामिल हैं।
खुदा के बारे में इमाम (अ.) ने फरमाया, खुदा के लिये न जिस्म है न सूरत। जिस्म व सूरत के मायने ये हुए कि वह महदूद है। जिसकी हदें हों। हदों में कमी व बेशी की गुंजाइश हो। वह मख्लूक़ है। खुदा का न जिस्म है न सूरत। वह जिस्मों को बनाने वाला है, सूरतों को बनाने वाला है। न उसमें कमी होती है न ज्यादती। अगर ऐसा हो जैसा कि लोग समझते हैं (खुदा के हाथ पैर और जिस्म है) तो फिर खालिक व मख्लूक़ में फर्क ही क्या। खुदा को किसी शय से तश्बीह नहीं दी जा सकती। अशिया उसके इरादे व मशीयत से पैदा हुईं और पैदा होती हैं। कलाम व फिक्र से नहीं पैदा होतीं। यानि खुदा को कलाम व फिक्र व गौर करने की ज़रूरत नहीं होती। सिर्फ इरादा किया और चीज़ें अपनी सूरत में आ गयीं।
रूह (आत्मा) के बारे में इमाम मोहम्मद बाकि़र (अ.) फरमाते हैं, रूह हवा की तरह हरकत में है और यह रीह से मुशाबिह है। हमजिंस होने की वजह से इसे रूह कहा जाता है। ये रूह जो जानदारों की ज़ात से मख्सूस है वह तमाम रीहों से पाकीज़ातर है। रूह मख्लूक़ और मस्नूअ है और हादिस। एक जगह से दूसरी जगह मुन्तकि़ल होने वाली है। वह ऐसी लतीफ शय जिसमें किसी कि़स्म की गरानी और संगीनी न है न सुबकी है। वह एक बारीक और रक़ीक़ शय जो कालिब कसीफ में पोशीदा है इस की मिसाल उस मश्क जैसी है जिसमें हवा भर दो। हवा भरने से वह फूल जायेगी। लेकिन उसके वज़न में इज़ाफा महसूस न होगा। रूह बाक़ी है और बदन से निकलने के बाद फ़ना नहीं होती। ये जब सूर फूंका जायेगा तो फना होगी।
इस्लाम और इस्लामी मुल्कों को इमाम मोहम्मद बाकि़र (अ.) की एक और अहम देन है इस्लामी सिक्का। तारीख के मुताबिक पहला इस्लामी सिक्का अब्दुलमलिक बिन मरवान के दौर में जारी हुआ। और इसके पीछे इमाम मोहम्मद बाकि़र (अ.) की हिकमत थी। इससे पहले रोम व ईरान का सिक्का इस्लामी मुल्कों में भी जारी था। इस्लामी सिक्के की शुरूआत के पीछे भी एक खास वजह थी। दरअसल उस ज़माने में इस्लामी मुल्कों में जो कागज़ वगैरा इस्तेमाल होता था उसपर ईसाई ट्रेडमार्क छपा होता था और उसमें हज़रत ईसा(अ.) को खुदा का बेटा लिखा होता था। जब अब्दुलमलिक बिन मरवान को यह जानकारी हुई तो उसने ईसाई ट्रेडमार्क वाले कागज़ों के इस्तेमाल पर रोक लगा दी। रोम के बादशाह ने अब्दुलमलिक बिन मरवान से उन कागजों पर रोक हटाने के लिये कहा लेकिन अब्दुलमलिक बिन मरवान ने उसकी बात रद कर दी। जवाब में रोम के बादशाह ने धमकी दी कि अगर तुमने रोक नहीं हटाई तो हम अब ऐसे सिक्के ढलवायेंगे जिनपर तुम्हारे रसूल के बारे में आपत्तिजनक बातें नक्श होंगी। और यही सिक्के तमाम इस्लामी मुल्कों में फैला दिये जायेंगे।
जब अब्दुलमलिक बिन मरवान ने यह पैगाम पढ़ा तो पसीने पसीने हो गया। क्योंकि इस्लामी मुल्क सिक्का चलाने के सिस्टम से नावाकिफ थे। ऐसी मुसीबत की घड़ी में बादशाह को एक वज़ीर ने इमाम मोहम्मद बाकिर (अ.) से मदद लेने की राय दी।
इमाम मोहम्मद बाकिर (अ.) ने राय दी कि कारीगरों को बुलवाकर उनसे दरहम व दीनार के सिक्के ढलवाओ और इस्लामी मुल्कों में रायज कर दो। उन सिक्कों के एक तरफ कलमा तौहीद और दूसरी तरफ पैगम्बर इस्लाम (स.) का नाम और सिक्के के ढलने का साल लिखा जाये। उसके बाद इमाम(अ.) ने उनके वज़न बताये और उन्हें रायज करने की तमाम तरकीबें बताईं। इमाम (अ.) की राय और अब्दुलमलिक के हुक्म से इस्लामी सिक्कों का बनना शुरू हो गया और रोमन सिक्कों पर रोक लगा दी गयी। इस तरह रोम के बादशाह का प्लान फेल हो गया।
तमाम इस्लामी धर्माधिकारियों की तरह इमाम मोहम्मद बाकि़र (अ.) के अख्लाक़ की भी कोई मिसाल न थी। एक शामी इमाम मोहम्मद बाकि़र (अ.) से सख्त नफरत करता था और ज़बान से भी कई बार इमाम (अ.) के सामने अपनी नफरत का इज़हार किया था। वह कहता था कि मैं इमाम के पास सिर्फ इसलिए जाता हूं कि उनका कलाम लिटरेचर से भरपूर होता है। इन बातों को जानने के बाद भी इमाम (अ.) उससे उसी तरह मोहब्बत से पेश आते रहे। फिर एक बार वह सख्त बीमार हुआ। तो उसने वसीयत की कि जब मैं मर जाऊं तो मेरी नमाज़ इमाम मोहम्मद बाकि़र (अ.) ही पढ़ायें। उसकी वसीयत के मुताबिक जब उसके घरवाले इमाम (अ.) के पास पहुचे तो इमाम (अ.) ने कहा कि ठहर जाओ, अभी वह मरा नहीं है। इमाम ने वज़ू करके नमाज़ अदा की, दुआ की और सज्दे में चले गये। फिर सज्दे से सर उठाकर उस शामी के घर गये तो वह उठ कर बैठ गया। फिर कुछ दिन बाद वह इमाम (अ.) की खिदमत में आया और कहा कि मैं गवाही देता हूं कि इस ज़मीन पर आप तमाम लोगों पर खुदा की हुज्जत हैं।
एक शख्स इमाम (अ.) की खिदमत में आया और पूछा, मौला कौन सा इस्लाम बेहतर है? आपने फरमाया कि जिससे किसी मोमिन भाई को तकलीफ न पहुंचे। उसने पूछा कौन सा खल्क़ बेहतर है? आपने(अ.) फरमाया सब्र और माफ करना। उसने पूछा, कौन सा मोमिन कामिल है? आपने फरमाया, 'जिसके अख्लाक़ बेहतर हों। उसने पूछा, 'कौन सा जिहाद बेहतर है? आपने कहा जिसमें अपना खून बह जाये। उसने पूछा, 'कौन सी नमाज़ बेहतर है? फरमाया जिसकी क़ुनूत (दुआ) लंबी हो। उसने पूछा, 'कौन सा सदक़ा बेहतर है? फरमाया जिससे नाफरमानी से निजात मिले।
अल्लामा शिबली नोमानी लिखते हैं कि इमाम अबू हनीफा(र.) एक मुददत तक हज़रत इमाम मोहम्मद बाकिर (अ.) की खिदमत में हाजि़र रहे और उनसे फिक़, हदीस के मुतालिलक बहुत सी नादिर बातें हासिल कीं। इमाम अबू हनीफा की मालूमात का बहुत बड़ा ज़खीरा हज़रत का ही अता किया हुआ था। बाद में उन्होंने इमाम जाफर सादिक (अ.) की फैज़ सोहबत का भी फायदा उठाया।
इमाम मोहम्मद बाकि़र (अ.) ने अपने इल्म व बरकात की वजह से इस्लाम को बराबर आगे बढ़ाया। लेकिन अमवी बादशाह हश्शाम बिन अब्दुल मलिक ने अपनी जलन में आपको ज़हर से शहीद कर दिया। और इस तरह इल्म की आबे हयात देने वाला चश्मा दुनिया से उठ गया।