अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क

कलावा ---- देवी देवताओं की यादगार

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जिहालत व नादानी की वजह से हमारे समाज में बाज़ रस्में ऐसी भी दाखि़ल हो जाती हैं जिनका न सिर्फ़ ये के दीन और मज़हब से कोई तअल्लुक़ नहीं होता बल्कि वो दीन की मुख़ालिफ़ होती हैं। और ग़ैरों के मज़हब का हिस्सा होती हैं, हालाँकि इन रस्मों को अंजाम देने वाले इस बात से बे ख़बर होते हैं। इन्ही में से एक रस्म हाथ पर कलावा बाँधना है। कलावा हिन्दुओं का वो मुक़द्दस धागा है जिसे हाथ पर बाँधने से बक़ौल हिन्दुओं के ब्रहमा , विष्णू और महेश जैसे देवताओं की कृपा हासिल होती है, कलावा बाँधने की इब्तदा राजा बली और देवी लक्ष्मी ने की थी (http: //www . amarujala. com/(feature/? spirituality/hindu-sacred-thread-kalava/?page=)

 

 

और www.hallabolindia.com वेबसाईट ने लिखा है के शास्त्रों का मान्ना है के हाथ में कलावा बाँधने से त्रिवेदयों (यानी ब्रहमा, विष्णू और महेश) और तीनों महादेवियों की कृपा हासिल होती है और महालक्ष्मी की कृपा से धन दौलत और जायदाद, महासरस्वती की कृपा से अक़ल और इल्म और महाकाली की कृपा से ताक़त हासिल होती है।

 

 

लेकिन अफ़सोस ! हुसैन टीकरी (जावरा, रतलाम) के ज़रिए देवी देवताओं की ये यादगार नादान और कजफि़क्र शियों के यहाँ तक पहुँच गई, हुसैन टीकरी हिन्दू अक़ीदतमंद भी बड़ी तादाद में पहुँचते हैं, चूँकि हिन्दुओं के यहाँ मंदिर में पूजा पाट से पहले कलावा बाँधा जाता है लेहाज़ा आदत के तौर पर हिन्दू अक़ीदतमंदों ने हुसैन टीकरी में भी दरगाह पर कलावा बाँधा और हुसैन टीकरी का सारा इनतज़ाम अहले सुन्नत के हाथ में होता है और फि़र इन हिन्दू अक़ीदतमंदों से दरगाह को आमदनी भी होती है और तीसरे ये के वो अपने मज़हब के मुताबिक़ कलावा बाँधते थे इस लिए हिन्दुओं को किसी ने रोका टोका नहीं, लेकिन हुसैन टीकरी पर हिन्दुओं की देखा देख मुसलमानों ख़ासकर शिया मुसलमानों ने भी कलावा बाँधना और पहनना शुरु कर दिया, इसके बाद तो कलावा हर दरगाह से मनसूब हो गया।

 

एक बार हैदराबाद के सफ़र के दौरान ‘‘ कोहे मौला अली (अ) ‘‘ पर जाने का इत्तफ़ाक़ हुआ, वहाँ पर शहनशीन बनी हुई थी और शहनशीन पर अलम लगे हुए थे, मेंने जूँ ही मस करने के लिए हाथ बढ़ाया, अलम तक हाथ बाद में पहुँचा इस से पहले ही मेरे हाथ पर कलावा बाँध दिया गया और हाथ में एक पुड़ा भी थमा दिया जिस में मोतीचूर के दाने थे, एक आदमी शहनशीन में बैठा हुआ था जिसकी डियूटी ही ये थी के वो हर आने वाले के हाथ पर कलावा बाँध दे और वो पुड़ा थमा दे, ये आदमी आखि़र कौनसी खि़दमत अंजाम दे रहा था ? किस के कलचर को शियों में नश्र कर रहा था ? इसी तरह सालाना मजालिस के मौक़े पर बघरा (मुज़फ्फ़र नगर) में दरगाह के क़रीब एक दुकान ऐसी देखी जिस पर तरह तरह के दसयों किलो कलावे मौजूद थे जो बेचने के लिए रखे गए थे, अगर दरगाहों के जि़म्मेदार हज़रात बाशऊर होते तो वो राजा बली और देवी लक्ष्मी की इस यादगार को शिया दरगाहों तक न पहुँचने देते, इन दरगाहों की बदौलत अब अकसर शियों के हाथों पर हिन्दुओं का कलावा नज़र आ रहा है, नजीबाबाद स्टेशन पर कलावा बाँधने वाले अगर पहचान करने वाला लिबास न पहने हों तो पहचानना मुश्किल हो जाए के हरिद्वार से आ रहे हैं या दरगाह जोगीपुरा से! बहर हाल दरगाहों के ज़रिए हिन्दुओं का कलावा बहुत से शिया घरों और हाथों में पहुँच चुका है और ओलोमा ख़मोश हैं? ओलोमा को अवाम की नाराज़गी का डर है चाहे ख़ुदा व रसूल (अ) और इमाम (अ) नाराज़ हो जाऐं, हो सकता है ओलोमा हज़रात इस कलावे को रोकना ज़रुरी न समझ रहे हों, लेकिन राजा बली और देवी लक्ष्मी की यादगार को नादानिस्ता तौर पर शियों के ज़रिए जि़न्दा रखा जाना कोई छोटी बात नहीं है, भले ही शिया हज़रात, कलावा राजा बली और देवी लक्ष्मी की यादगार के तौर पर न बाँधते हों लेकिन इस तरह तो ख़ुद बख़ुद राजा बली और देवी लक्ष्मी की यादगार जि़न्दा रहेगी।

 

 

राजा बली और देवी लक्ष्मी की इस यादगार को नादानिस्ता तौर पर जि़न्दा रखने में ग़ैर जि़म्मेदार पेशावर ज़ाकिरों का भी हाथ है क्योकि हिन्दुस्तानी अवाम ज़ाकिरों से मज़हब लेते हैं लेहाज़ा जब ये पेशावर ज़ाकिर मोटे मोटे कलावे हाथ में बाँध कर मिम्बर पर बैठते हैं तो अवाम इसको मायूब नहीं समझते और वो भी अपने हाथों में कलावा बाँधना शुरु कर देते हैं, इसी तरह ग़ैर जि़म्मेदार शायर भी मोटे मोटे कलावे हाथ में लपेट कर महफि़ल में कलाम पढ़ते हैं और पेशावर नौहा ख़्वान भी हाथों में कलावा बाँध कर ही नौहों की शूटिंग कराते हैं अवाम बेचारी इन शायरों और नौहा ख़्वानों से भी मुताअस्सिर हो जाती है और कलावा बाँधना शुरु कर देती है।
तअज्जुब होता है अवाम के हाल पर! ये अवाम फि़लमी ऐक्टर या खिलाडि़यों वग़ैरा से अगर मुहब्बत करती है तो उनकी हर अदा को हू बहू अपनाने की कोशिश करती है, लेकिन बात जब मुहब्बते अहलेबैत (अ) की आती है तो अवाम फि़र अपनी मनमानी करने लगती है, मसलन इस कलावे ही को देख लेजिए, आप मासूमीन (अ) या अहलेबैत (अ) की सीरत का मुतालेआ कर लीजिए कहीं पर भी कलावा नज़र नहीं आएगा लेकिन ये अवाम देवी देवताओं की यादगार को अहलेबैत (अ) से मनसूब कर देती है!? और मुतवज्जा करने पर ये समझती है के किसी मज़हबी काम की मुख़ालफ़त की जा रही है और कलावा बाँधने की हिमायत में वो दलीलें दी जाती हैं जिस का अक़्ल व मनतिक़ से दूर का भी वास्ता नहीं होता, मसलन एक जवान ने कहा के कलावा, क़लादा से बना है और क़लादा उस रस्सी को कहते हैं जिस से ग़ुलाम बाँधे जाते थे, लेहाज़ा हम मौला के ग़ुलाम हैं और अपने आप को कलावे से बाँधते हैं, जब मेंने इस बारे में दलील पूछी तो कहने लगा के मैंने एक ज़ाकिर से मजलिस में सुना है, जबके ये बात सिरे से ग़लत है के ग़ुलामों को रस्सी से बाँधा जाता था, ज़ाकिर बेचारे को ये भी नहीं मालूम के किसी भी ग़ुलाम को मौला ने रस्सी से नहीं बाँधा, जिसकी पैरवी में मौला के ग़ुलाम अपने आप को रस्सी या कलावे से बाँध रहे हैं ?!


इसी तरह एक दूसरे साहब ने कहा के कलावा हम अलम से मस करके पहनते हैं लेहाज़ा ये मोहतरम है। अब यहाँ सवाल ये है के क्या राजा बली और देवी लक्ष्मी की यादगार को अलम से मस किया जा सकता है ? और अगर मस कर भी लिया तो क्या वो मोहतरम हो जाएगी ? नहीं! कभी नहीं। एक साहब ने कहा के इसे अहलेबैत (अ) से मनसूब करके हाथ पर बाँधते हैं सवाल यहाँ भी यही है के क्या हर चीज़ अहलेबैत (अ) से मनसूब की जा सकती है ? और क्या जो चीज़ भी अहलेबैत (अ) से मनसूब कर ली जाए वो जायज़ और मोहतरम होजाएगी ? अगर हाँ! तो क्या अहलेबैत (अ) से मनसूब करके तिलक लगाया जा सकता है ? (मआज़ अल्लाह)


नहीं! हरगिज़ नहीं। इसी तरह कलावा भी अहलेबैत से मनसूब नहीं किया जा सकता।

 

बाज़ लोग हुसैन टीकरी या दूसरी दरगाहों का कलावा जादू से बचने के लिए भी बाँधते हैं, ये भी हिन्दूओं का तरीक़ा और एतक़ाद है, www .livehindustan.com नाम की वैबसाइट पर कलावे से मुताअल्लिक़ तहरीर अपलोड की गई है उसमें लिखा है के: ये सच है के जिनके हाथ में कलावा बंधा हो उन पर किसी तरह का जादू, टोना, भूत, प्रेत का असर नहीं होता, इसी तरह दरगाहों पर मन्नत माँगते वक़्त कलावा बाँधना भी हिन्दुओं के तौर तरीक़े से लिया गया है और उनही का ये एतक़ाद है, डा0 मधूसुदन वयास तहरीर करते हैं के: हिन्दू धर्म से मुतअल्लिक़ कोई भी आदमी जब किसी भी काम का कोई अहद लेता है तो अलामत के तौर पर एक कलावा बाँधा जाता है और जब तक वो काम पूरा न हो जाए कलावा बंधा रहना चाहिए ताकि किया हुआ अहद याद रहे।

(helthforalldrvyas.blogs.post.in/2013/10/blog-post_13html)

 

इसी अपने तरीक़े पर अमल करते हुए हुसैन टीकरी में हिन्दू अक़ीदतमंदों ने जादू टोने से बचने के लिए और मन्नतें माँगते वक़्त कलावे बाँधे जिनको देख कर शिया मुसलमानों ने भी जादू टोने से बचने के लिए और मन्नत मुराद माँगते वक़्त कलावे बाँधने शुरु कर दिए और धीरे धीरे ये रस्म पूरे हिन्दुस्तान में फ़ैल गई और अब लोग इस को भी मुक़द्दस और मोहतरम समझने लगे, अगर ओलोमा हज़रात शुरु ही में इस रस्म को रोक देते तो आज के नादान ये न कहते के अगर ये ग़लत था तो इसे किसी आलिम या मौलवी ने रोका क्यों नहीं, कलावे का अगर ज़र्रा भर भी अहलेबैत (अ) से तअल्लुक़ होता तो ईरान, इराक़, सीरिया,कुवैत, लेबनान, और सऊदी अरब वग़ैरा के शिया भी अपने हाथों पर कलावा बाँधते! मगर ऐसा नहीं है, कलावा सिर्फ़ हिन्दुस्तान या पाकिस्तान ही में शिया हज़रात अपने हाथों पर बाँधते हैं। अलबत्ता अहले इल्म इन मुलकों में भी नहीं बाँधते जबकि अगर ये मज़हबे अहलेबैत (अ) से मनसूब होता तो हिन्दुस्तान या पाकिस्तान के ओलोमा भी हाथ पर कलावा बाँधा करते। बहर हाल! पक्के सबूतों से ये साबित हो जाने के बाद के कलावा हिन्दू देवी देवताओं की यादगार है, क्या शिया मुसलमान अब भी हाथ पर कलावा बाँधेंगे ? जब के अहलेबैत (अ) के मुहिब्बों और शियों की पहचान कलावे या कड़े से नहीं होती बल्कि किरदार से होती है।

 

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